सपना -भाग 1 : कौनसे सपने में खो गई थी नेहा

सरपट दौड़ती बस अपने गंतव्य की ओर बढ़ रही थी. बस में सवार नेहा का सिर अनायास ही खिड़की से सट गया. उस का अंतर्मन सोचविचार में डूबा था. खूबसूरत शाम धीरेधीरे अंधेरी रात में तबदील होती जा रही थी. विचारमंथन में डूबी नेहा सोच रही थी कि जिंदगी भी कितनी अजीब पहेली है. यह कितने रंग दिखाती है? कुछ समझ आते हैं तो कुछ को समझ ही नहीं पाते? वक्त के हाथों से एक लमहा भी छिटके तो कहानी बन जाती है. बस, कुछ ऐसी ही कहानी थी उस की भी… नेहा ने एक नजर सहयात्रियों पर डाली. सब अपनी दुनिया में खोए थे. उन्हें देख कर ऐसा लग रहा था जैसे उन्हें अपने साथ के लोगों से कोई लेनादेना ही नहीं था. सच ही तो है, आजकल जिंदगी की कहानी में मतलब के सिवा और बचा ही क्या है.

वह फिर से विचारों में खो गई… मुहब्बत… कैसा विचित्र शब्द है न मुहब्बत, एक ही पल में न जाने कितने सपने, कितने नाम, कितने वादे, कितनी खुशियां, कितने गम, कितने मिलन, कितनी जुदाइयां आंखों के सामने साकार होने लगती हैं इस शब्द के मन में आते ही. कितना अधूरापन… कितनी ललक, कितनी तड़प, कितनी आहें, कितनी अंधेरी रातें सीने में तीर की तरह चुभने लगती हैं और न जाने कितनी अकेली रातों का सूनापन शूल सा बन कर नसनस में चुभने लगता है. पता नहीं क्यों… यह शाम की गहराई उस के दिल को डराने लगती है…

एसी बस के अंदर शाम का धुंधलका पसरने लगा था. बस में सवार सभी यात्री मौन व निस्तब्ध थे. उस ने लंबी सांस छोड़ते हुए सहयात्रियों पर दोबारा नजर डाली. अधिकांश यात्री या तो सो रहे थे या फिर सोने का बहाना कर रहे थे. वह शायद समझ नहीं पा रही थी. थोड़ी देर नेहा यों ही बेचैन सी बैठी रही. उस का मन अशांत था. न जाने क्यों इस शांतनीरव माहौल में वह अपनी जिंदगी की अंधेरी गलियों में गुम होती जा रही थी. कुछ ऐसी ही तो थी उस की जिंदगी, अथाह अंधकार लिए दिग्भ्रमित सी, जहां उस के बारे में सोचने वाला कोई नहीं था. आत्मसाक्षात्कार भी अकसर कितना भयावह होता है? इंसान जिन बातों को याद नहीं करना चाहता, वे रहरह कर उस के अंतर्मन में जबरदस्ती उपस्थिति दर्ज कराने से नहीं चूकतीं. जिंदगी की कमियां, अधूरापन अकसर बहुत तकलीफ देते हैं. नेहा इन से भागती आई थी लेकिन कुछ चीजें उस का पीछा नहीं छोड़ती थीं. वह अपना ध्यान बरबस उन से हटा कर कल्पनाओं की तरफ मोड़ने लगी.

उन यादों की सुखद कल्पनाएं थीं, उस की मुहब्बत थी और उसे चाहने वाला वह राजकुमार, जो उस पर जान छिड़कता था और उस से अटूट प्यार करता था.

नेहा पुन: हकीकत की दुनिया में लौटी. बस की तेज रफ्तार से पीछे छूटती रोशनी अब गुम होने लगी थी. अकेलेपन से उकता कर उस का मन हुआ कि किसी से बात करे, लेकिन यहां बस में उस की सीट के आसपास जानपहचान वाला कोई नहीं था. उस की सहेली पीछे वाली सीट पर सो रही थी. बस में भीड़ भी नहीं थी. यों तो उसे रात का सफर पसंद नहीं था, लेकिन कुछ मजबूरी थी. बस की रफ्तार से कदमताल करती वह अपनी जिंदगी का सफर पुन: तय करने लगी.

नेहा दोबारा सोचने लगी, ‘रात में इस तरह अकेले सफर करने पर उस की चिंता करने वाला कौन था? मां उसे मंझधार में छोड़ कर जा चुकी थीं. भाइयों के पास इतना समय ही कहां था कि पूछते उसे कहां जाना है और क्यों?’

रात गहरा चुकी थी. उस ने समय देखा तो रात के 12 बज रहे थे. उस ने सोने का प्रयास किया, लेकिन उस का मनमस्तिष्क तो जीवनमंथन की प्रक्रिया से मुक्त होने को तैयार ही नहीं था. सोचतेसोचते उसे कब नींद आई उसे कुछ याद नहीं. नींद के साथ सपने जुड़े होते हैं और नेहा भी सपनों से दूर कैसे रह सकती थी? एक खूबसूरत सपना जो अकसर उस की तनहाइयों का हमसफर था. उस का सिर नींद के झोंके में बस की खिड़की से टकरातेटकराते बचा. बस हिचकोले खाती हुई झटके के साथ रुकी.

 

कांटों भरी राह पर नंगे पैर : भाग 1

‘यह बताइए कि आप ने जिंदगी के 55वें साल में दूसरी शादी क्यों की? आप की पहली पत्नी भी एक सवर्ण राजपूत परिवार से थीं और दूसरी पत्नी, जो अभी महज 30 साल की हैं, भी सवर्ण हैं… क्या यह आप का सवर्णों से शादी करने का कोई खास एजेंडा है?’’ एक पत्रकार ने बातचीत के दौरान अजीत कुमार से सवाल पूछा. ‘‘देखिए, जहां तक मेरी पहली पत्नी की बात है, तो वह एक खास मकसद से मेरे पास आई और रही… दूसरी पत्नी ने भी मुझे खुद ही प्रपोज किया…

मैं खुद किसी के पास नहीं गया था,’’ अजीत कुमार ने मुसकराते हुए कहा. ‘‘पर, चाकू तरबूज पर गिरे या तरबूज चाकू पर, कटेगा तो तरबूज ही न,’’ एक महिला पत्रकार ने सवाल दागा, तो अजीत कुमार ने कहा, ‘‘हां वह तो है… किसी भी हालत में तरबूज को ही कटना होगा, चाकू तो कटने से रहा…’’ कुछ और सवालजवाब के बाद पत्रकार की बातचीत खत्म हो चुकी थी और अजीत कुमार अपनी कुरसी से उठ चुका था. अजीत कुमार एक समाजसेवी और लेखक था और लगातार दलितों के उत्थान के लिए काम कर रहा था. अजीत कुमार का लखनऊ के एक शानदार इलाके गोमती नगर में बंगला था. अपने घर के दालान में लगे हुए झूले में अजीत कुमार बैठा तो उस की पत्नी सुबोही चाय ले आई.

‘‘एक निचली जाति वाले से शादी कर के तुम्हें पछतावा तो जरूर हो रहा होगा सुबोही?’’ अजीत कुमार ने सुबोही का हाथ पकड़ते हुए पूछा. ‘‘निचली जाति नहीं, निचली समझी जाने वाली जाति कहिए,’’ सुबोही ने कहा. हाल में ही अजीत कुमार ने अपनी आत्मकथा प्रकाशित की थी और उस में बहुत सी ऐसी बातें थीं, जो बहुत से लोगों को अखर रही थीं और उन्होंने इस आत्मकथा को एक खास तबके के खिलाफ गुस्सा और जहर उगलने वाली बताया था. बहुत से लोगों ने इसे सस्ती लोकप्रियता हासिल करने का तरीका बताया था, पर सच तो यह था कि अजीत कुमार ने इस में कड़वे सच को उजागर करने वाली बातें लिखी थीं, जो लोगों को बुरी लग रही थीं.

अजीत कुमार ने अपनी आत्मकथा की एक किताब उठाई और दलितों का यह सच्चा हमदर्द अपनी जिंदगी के पुराने पन्नों की परतें पलटने लगा. अजीत कुमार तब लखनऊ की एक मलिन बस्ती में रहता था और मोबाइल फोन की एक दुकान में काम करता था. वह नई तकनीक की भी अच्छी समझ रखता था. भले ही यह शहर लखनऊ था, पर इस बस्ती के अंदर शहरीकरण का कोई नामोनिशान नहीं था. यहां पर जिंदगी जरूर थी, पर जीने की बुनियादी सुविधाएं तक नहीं थीं. इस बस्ती के बाशिंदे छोटे काम और साफसफाई करने वाले थे.

 

कांटों भरी राह पर नंगे पैर : भाग 2

21 साल के अजीत कुमार के पिताजी सफाई मुलाजिमों के सुपरवाइजर थे. इस बस्ती में रहने वाले लोग उन्हें दिल से इज्जत देते थे. एक बार बस्ती में कलुआ की अम्मां बीमार पड़ गईं. उन्हें तेज बुखार था. आसपास के लोग फौरन एक ओझा के पास पहुंचे और उन्हें ठीक करने की गुहार लगाई. ओझा ने अम्मां की कलाई पकड़ी और उन की पलकों को देखा. अम्मां के आसपास कुछ धुआं सा फैलाने के बाद एक अनूठी भाषा में न जाने क्याक्या बोलने लगा.

इस सारे काम को अजीत कुमार बड़ी देर से देख रहा था. पहले तो वह जिज्ञासावश ओझा की हरकतों का रस लेता रहा, पर थोड़ी देर बाद उसे लगा कि यह तरीका किसी भी बीमारी को भगाने का तो हो नहीं सकता, इसलिए वह कलुआ के पास जा कर खड़ा हो गया और उस ने लोगों से मरीज को डाक्टर के पास ले जाने के लिए कहा. एक छोटे लड़के की बात सुन कर ओझा उसे घूरने लगा. ‘‘नहीं भैया, यह वाला बुखार तो हमारे ओझाजी ही सही करते हैं, कोई भी डाक्टर सही नहीं कर पाएगा,’’ किसी ने कहा. बस्ती वालों के दिमाग में जो सालों से कूड़ा भरा गया था, वे बेचारे उसी के हिसाब से बात कर रहे थे, पर अजीत कुमार लगातार कलुआ की अम्मां को डाक्टर के पास ले जाने की जिद कर रहा था, जबकि बस्ती के लोग झाड़फूंक पर ही जोर दे रहे थे. जब काफी देर तक ओझा से कोई फायदा होता नहीं दिखा,

तब अजीत कुमार से रहा नहीं गया और वह कलुआ की अम्मां को उन के सिर के पास से पकड़ कर उठाने लगा, जिस पर बहुत से लोगों ने विरोध प्रकट किया और उसे ऐसा करने से रोक भी दिया. ‘‘हमारा इलाज ऐसे ही होता आया है और आगे भी ऐसे ही होता रहेगा,’’ एक आदमी बोला और ओझा को उस का काम आगे बढ़ाने को कहने लगा. अजीत कुमार ने हार मान ली, क्योंकि वह समझ गया था कि इन लोगों का जाति के नाम पर इस तरह से ब्रेन वाश किया जा चुका है कि ये सभी अपनेआप को समाज की मुख्यधारा से अलग ही मानने लगे हैं. ओझा का तंत्रमंत्र काम न आया.

कुछ दिन बाद ही कलुआ की अम्मां की मौत हो गई. कुछ दिन बाद महल्ले के बाहर धार्मिक कार्यक्रम होना था, जिस के लिए चंदे की उगाही की जा रही थी. कुछ लोग अजीत कुमार के महल्ले में भी चंदा मांगने आए तो लोग अपनी पूरी श्रद्धा से चंदा देने लग गए. अजीत कुमार को जब यह पता चला, तब उस ने चंदा देने का विरोध करते हुए कहा कि जब हम किसी तरह के धार्मिक कार्यक्रम में शामिल नहीं होते तो चंदा भी क्यों दें? पर बस्ती के लोगों ने उस की इस बात का पुरजोर विरोध किया और बोले कि अगर वे धार्मिक कार्यक्रम में चंदा नहीं देंगे, तो उन का कुछ बुरा हो जाएगा.

महल्ले वालों ने खूब दान किया, जबकि अजीत कुमार और उस के परिवार ने एक भी पैसे का दान नहीं करते हुए महल्लेभर की नाराजगी भी मोल ली थी. अजीत कुमार समझ चुका था कि इस बस्ती के लोग इसलिए आगे नहीं बढ़ पाए हैं, क्योंकि बरसों से उन के मन में यह बात कूटकूट कर भर दी गई है कि वे समाज की आखिरी कड़ी हैं और इसी तरह से डर कर जीना ही उन की नियति है. अजीत कुमार नौजवान था. उस के मन में आगे बढ़ने और कुछ करगुजरने की ख्वाहिश थी. उसे लगा कि दलितों और पिछड़ों को एकजुट करने की दिशा में बहुत ज्यादा मेहनत करनी होगी और इस दिशा में एक मजबूत पहल की बहुत जरूरत भी है, इसलिए अजीत कुमार ने दलितों और पिछड़े लोगों को एकजुट करने का बीड़ा उठाया और सोशल मीडिया को अपना हथियार बनाया. इस सिलसिले में अजीत कुमार ने फेसबुक पर ‘दलित जाग’ नाम से एक पेज बनाया, जिस पर वह अपने कुछ संदेशों को टाइप करता और पेज पर पोस्ट कर देता. कुछ दिनों बाद वह खुद के वीडियो बना कर पेज पर पोस्ट करने लगा, जिन में वह दलित जागरण और उन के उत्थान की बातें करता.

एक गरीब को कैसे आगे बढ़ना चाहिए, यह बात भी अजीत कुमार बखूबी जानता था. लगा था कि ऐसा कर के वह दलितों और पिछड़ों के मन में कुछ ऊर्जा भर देगा या उन्हें अपने हकों के प्रति जागरूक बना देगा. पर, अजीत कुमार का यह सोचना गलत था, क्योंकि उस की बस्ती के कुछ लोग ही एंड्रौइड मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते थे और जो नौजवान मोबाइल रखते थे, वे तो अजीत कुमार के साथ में आ गए, पर जो लोग 40 साल के पार के थे, वे मोबाइल पर सिर्फ मूवी देखते और गाने ही सुनते थे. ऐसे लोग सोशल मीडिया जैसी किसी चीज का इस्तेमाल करना नहीं जानते थे,

लिहाजा अजीत कुमार की मुहिम उस के अपने महल्ले में कुछ रंग नहीं ला सकी. अलबत्ता, महल्ले से बाहर उस की गतिविधियों को अच्छी तरह से नोट किया गया. अजीत कुमार ने महल्ले के लोगों के दिमाग पर धूल की परतें हटाने के लिए दूसरा रास्ता अपनाना शुरू किया. जब रोज शाम को वह काम से वापस आता, तो अपने महल्ले में 2-4 दोस्तों के साथ खड़े हो कर जोरजोर से बोलता और जब कुछ लोगों की भीड़ इकट्ठी हो जाती, तब वह उन से अपनी बात कहता, पर उस की बात कम लोगों को ही समझ में आ रही थी… हम गुलाम कहां हैं… हम तो आजाद हैं… फिर यह सब क्या बता रहा है हम को… अजीत कुमार के मांबाप ने भी उसे अपने काम पर ध्यान देने को कहा. इधर अजीत कुमार को नुक्कड़ नाटक खेलने का ध्यान आया, क्योंकि इस तरीके से वह आसानी से अपनी बात बस्ती के लोगों तक पहुंचा सकता था.

उस की बात बस्ती के नौजवानों के साथसाथ अब और लोगों को भी समझ आने लगी थी. सोशल मीडिया पर अजीत कुमार के सादगी भरे वीडियो लोगों को पसंद आने लग गए और जल्दी ही 21 साल का वह नौजवान दलित पिछड़ों के नेता के रूप में पहचाना जाने लगा. सोशल मीडिया पर ही अजीत कुमार से कई लोग जुड़ने लगे थे. उन में से एक अंजलि भी थी. दोनों एकदूसरे से सोशल मीडिया पर अपनी भावनाओं का इजहार करते थे. अजीत कुमार दुकान पर काम कर रहा था, पर अंजलि एमए कर चुकी थी और अब वह राजनीति में अपने पैर जमाने की कोशिश कर रही थी.

जो बातें सोशल मीडिया से संदेशों के द्वारा शुरू हुई थीं, वे अब मुलाकातों तक जा पहुंची थीं और एक दिन अंजलि ने अजीत कुमार को शादी करने का प्रस्ताव दिया. ‘‘पर, तुम ठहरी पैसे और ऊंची जाति वाली राजपूतानी और मैं एक दलित… मलिन बस्ती में रहने वाला… तुम भला मुझ से क्यों शादी करना चाहोगी?’’ ‘‘तुम्हारी इसी सादगी पर ही तो मरमिटी हूं मैं.’’ ‘‘पर, तुम्हारे मातापिता… वे क्या कहेंगे?’’ अजीत कुमार के इस सवाल पर अंजलि बिना मुसकराए न रह सकी,

क्योंकि अंजलि ने पहले ही अजीत को बता रखा था कि वह माली तौर पूरी तरह आजाद है और इस बार विधायक के चुनाव में खड़ी होने वाली है और उस के घर वाले उस के फैसले में कोई भी दखल नहीं देते हैं. अजीत कुमार ने अंजलि की बात का भरोसा कर लिया और अपने मांबाप से अंजलि के बारे में बताया तो उस के घर वाले भी एक सवर्ण लड़की के बहू बन कर आने से खुश हो गए. अजीत कुमार की शादी होने से पहले ही अंजलि ने खुद ही अजीत के घर का रंगरोगन करवाया, अपने लिए अलग टौयलेट और एक कमरे को साफसुथरा करवा कर उस में एसीकूलर वगैरह की सुविधाएं जुटा लीं. अजीत कुमार की सवालिया नजरों को समझते हुए अंजलि ने उसे बताया कि वह शादी के बाद इसे अपना दफ्तर बनाएगी, इसीलिए ये सारी सुविधाएं जुटा रही है.

प्रेम की इबारत : भाग 1

रात के अंधियारे में पूरा मांडवगढ़ अब कितना खामोश रहता है, यहां की हर चीज में एक भयानकता झलकती है. धीरेधीरे खंडहरों में तबदील होते महल को देख कर इतना तो लगता है कि ये कभी अपार वैभव और सुविधाओं की अद्भुत चमक से रोशन रहते होंगे. कभी गूंजती होंगी यहां रहने वाले सैनिकों की तलवारों की खनक, घोड़ों के टापों की आवाजें, हाथियों की चिंघाड़, जिस की गवाह हैं ये पहाडि़यां, ये दीवारें उस शौर्यगाथा की, जो यहां के चप्पेचप्पे पर बिखरी पड़ी हैं.

यहां बने महल का हर कोना, जिस ने देखे होंगे वह नजारे, युद्ध, संगीत और गायन जिस की स्वर लहरियां बिखरी होेंगी यहां की फिजा में. काश, ये खामोश गवाह बोल सकते तो न जाने कितने भेद खोल देते और खोल देते हर वह राज, जो दफन हैं इन की दीवारों में, इन के दिलों में, इन के फर्श में, मेहराबों में, झरोखों में, सीढि़यों में और यहां के ऊंचेऊंचे गुंबदों में.’’

‘‘चुप क्यों हो गए दोस्त, मैं तो सुन रहा था. तुम ही खामोश हो गए दास्तां कहतेकहते,’’ रानी रूपमती के महल के एक झरोखे ने दूसरे झरोखे से कहा.

‘‘नहीं कह पाऊंगा दोस्त,’’ पहला वाला झरोखा बोलतेबोलते खामोश हो चुका था. किंतु महल की दीवारों ने भी तन्मयता से उन की बातें सुनी थीं. आखिरकार जब नहीं रहा गया तो एक दीवार बोल ही पड़ी :

‘‘दिन भर यहां सैलानियों की भीड़ लगी रहती है. देशीविदेशी इनसानों ने हमारी छाती पर अपने कदमों के जाने कितने निशान बनाए होंगे. अनगिनत लोगों ने यहां की गाथाएं सुनी हैं, विश्व में प्रसिद्ध है यह स्थान.

‘‘मांडवगढ़ के सुल्तानों का इतिहास, उन की वीरता, शौर्य और ऐश्वर्य के तमाम किस्सों ने, जो लेखक लिख गए हैं, यहां के इतिहास को अमर कर दिया है. समूचे मांडव में बिखरा पड़ा है प्रकृति का अद्भुत सौंदर्य. नीलकंठ का रमणीक स्थान हो या हिंडोला महल की शान, चाहे जामा मसजिद की आन हो, हर दीवार, गुंबद अपने में समेटे हुए है एक ऐसा रहस्य, जहां तक बडे़बडे़ इतिहासकार भी कहां पहुंच पाए हैं.’’

‘‘हां, तुम सच कहती हो, ये कहां पहुंचे?’’ दूसरी दीवार बोली, ‘‘यह तो हम जानते हैं, मांडव का हर वह किला, उस की हर मेहराब, हर सीढ़ी, हर दीवार जो आज चुप है…जानती हो बहन, वह बेबस है. काश, कुदरत ने हमें भी जबां दी होती तो हम बोल पड़ते और वह सब बदल जाता, जो यहां के बारे में दोहराया जाता रहा है, बताया जाता रहा है, कहा जाता रहा है.

‘‘हम ने बादशाह अकबर की यात्रा देखी है. कुल 4 बार अकबर ने मांडवगढ़ के सौंदर्य का आनंद उठाया था. हम ने अपनी आंखों से देखा है उस अकबर महान की छवि को, जो आज भी हमारी आंखों में बसी हुई है. हम ने सुल्तान जहांगीर की वह शानोशौकत भी देखी है जिस का आनंद उठाया था, यहां की हवाओं ने, पत्तों ने, इस चांदनी ने.’’

पहली दीवार की तरफ से कोई संकेत न आते देख दूसरी दीवार ने पूछा, ‘‘सुनो, बहन, क्या तुम सो गईं?’’

‘‘नहीं बहन, कहां नींद आती है,’’ पहली दीवार ने एक ठंडी आह भर कर कहा.

‘‘देखो तो, रात की खामोशी में हवाएं उन मेहराबों को, झरोखों को चूमने के लिए कितनी बेताब हो जाती हैं, जहां कभी रानी रूपमती ने अपने सुंदर और कोमल हाथों से स्पर्श किया था,’’ पहली दीवार बोली, ‘‘ताड़ के दरख्तों को सहलाती हुई आती ये हवाएं धीरेधीरे सीढि़यों पर कदम रख कर महल के ऊपरी हिस्से में चली जाती हैं, जहां से संगीत की पुजारिन और सौंदर्य की मलिका रानी रूपमती कभी सवेरेसवेरे नर्मदा के दर्शन के बाद ही अपनी दिनचर्या शुरू करती थीं.’’

एक तीर से कई निशाने : भाग 2

चूंकि मंदिर का दानपात्र मंदिर के बड़े दरवाजे पर रखा था, इसलिए ठाकुर साहब को पंडितजी की नीयत पर भी शक था. हालांकि दानपात्र की चाभी उन के ही पास थी, पर फिर भी वे अकसर सोचते कि कितना अच्छा होता अगर यह मंदिर उन की हवेली के ठीक पास ही बना होता, तब ये पंडितजी चाह कर भी घपला नहीं कर पाते. ठाकुर साहब की एक 24 साल की बेटी थी, जिस का नाम मिताली था. वह दिखने में बहुत खूबसूरत थी. ठाकुरठकुराइन भी यह बात अच्छी तरह से जानते थे कि मिताली की शादी की उम्र हो चली है और ठाकुर विक्रम सिंह मिताली के लिए जोरशोर से एक अच्छा वर भी ढूंढ़ रहे थे.

पर मिताली अभी शादी करने से इनकार कर रही थी, क्योंकि उस ने शहर के कालेज में राजनीति शास्त्र में एमए किया था और अब वह आगे पीएचडी करना चाहती थी, लेकिन ठाकुर साहब ने जिद कर के उसे वापस गांव में बुला लिया था, ताकि अब वे उस की शादी कर सकें. पिछले 3 महीने से मिताली अपने पिता की इसी हवेली में थी, पर उस का मन यहां नहीं लगता था. वह शहर जा कर अपने यारदोस्तों के साथ घूमनाफिरना चाहती थी. आज मिताली अपने पिता से पूछ कर गांव में घूमने निकल पड़ी थी. वह जी भर कर गांव का मजा ले रही थी. उस ने पहले पेड़ों से कच्चे आम तोड़े, फिर खेत से खीरे तोड़ कर गांव के नजदीक से निकलती हुई नदी किनारे बैठ कर खाने लगी. नदी का ठंडा पानी मिताली के गोरे पैरों को भिगोने लगा. वह अपने पैरों को पानी में मारती, तो पानी में ‘छपाक’ की आवाज आती.

यह सब करना मिताली को बहुत अच्छा लग रहा था और यह खेल करतेकरते नदी किनारे की गीली मिट्टी कब नहर के बहाव के साथ दरक गई, यह उसे पता ही नहीं चला और वह नदी के पानी के साथ ही बहने लगी. मिताली पानी में डूबनेउतराने लगी और उसे लगा कि आज उस की जिंदगी खत्म ही हो जाएगी. तभी किसी ने आ कर उसे थाम लिया. वह एक नौजवान था, जो मिताली को अपने कंधे का सहारा दे कर तेजी से किनारे की तरफ ले जाने लगा. किनारे जा कर उस नौजवान ने मिताली को जमीन पर लिटा दिया. मिताली धन्यवाद देने लगी, तो वह सांवला नौजवान मुसकरा उठा और बोला, ‘‘मैं ने आप को डूबने से तो बचा लिया, पर आप को अब गंगाजल से नहाना होगा, क्योंकि अब आप मैली हो गई हैं मितालीजी.’’

उस नौजवान के मुंह से अपना नाम सुन कर मिताली चौंक गई, ‘‘तुम मेरा नाम कैसे जानते हो? और भला मैं मैली कैसे हो गई?’’ मिताली ने एकसाथ 2 सवाल दाग दिए थे. मिताली के इन सवालों के बदले में उस नौजवान ने उसे बताया कि वह ठाकुर विक्रम सिंह की बेटी है और बड़े लोगों के परिवार के लोगों को इस छोटे से गांव में जानना कोई बड़ी बात नहीं होती. ‘‘और भला मैं मैली कैसे हो गई?’’ मिताली को अपनी जान बचाने वाले से बातें करना अच्छा लगने लगा था. मिताली के इस सवाल के जवाब में उस नौजवान ने उसे बताया कि वह एक दलित है और बड़ी जाति के किसी इनसान को छूना उस के लिए वर्जित है. आज उस ने एक ठाकुर की लड़की को छू कर उसे मैला कर दिया है. ‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’ मिताली ने यों पूछा जैसे उसे उस नौजवान की जाति से कोई लेनादेना ही नहीं था.

उस नौजवान ने अपना नाम दिनेश बताया, तो मिताली ने उसे नाम से पुकारते हुए कहा, ‘‘दिनेश, किसी की जान बचाना तो नेक काम है… और कोई जाति नीच नहीं होती, बल्कि लोगों की नासमझी के चलते नीच समझी जाती है.’’ मिताली ने यह बात कुछ इस अंदाज में कही थी कि दिनेश भी मिताली के चेहरे को पढ़े बिना नहीं रह सका और जब दिनेश ने अपनी नजरें मिताली के चेहरे पर गड़ाईं, उसी समय हवा का एक झोंका आया और मिताली के गीले बालों की एक आवारा लट को उस के गालों पर उड़ाने लगा. दिनेश ने महसूस किया कि इस आवारा लट ने मिताली की खूबसूरती को और बढ़ा दिया था. कुछ देर और बैठने के बाद जब मिताली का भीगा शरीर सूख गया, तब वह अपने घर वापस जाने लगी.

उसे जाता देख कर दिनेश ने मिताली से हिम्मत कर के कहा, ‘‘अगली बार नदी के किनारे बैठिएगा तो जरा संभल कर… गहराई मत नापने लगिएगा,’’ उस की यह बात सुन कर मिताली बिना मुसकराए नहीं रह सकी. हवेली पहुंच कर मिताली को एहसास हुआ कि उसे वापस आने में देर हो गई है. उस की मां उसे कुछ टोकने ही वाली थी कि वह तेज कदमों से अपने कमरे की ओर बढ़ गई और अंदर से दरवाजा बंद कर लिया. अगले 3 दिन तक गांव में तेज बारिश हुई, इसलिए मिताली बाहर निकल नहीं सकी, पर उसे अब हवेली में रहना सुहा नहीं रहा था. बारिश रुकी तो मिताली हवेली की छत पर मौसम का हाल देखने पहुंच गई. आसमान से अब भी हलकी फुहार पड़ रही थी. वह छत के कोने में जा कर खड़ी हो गई. तभी उस की नजर हवेली के दालान में गई, जहां उस के पिता किसी नौजवान से बात कर रहे थे. मिताली ने ध्यान से देखा तो वह दिनेश था, जो ठाकुर साहब को एक चार्ट पेपर पर कुछ समझाता सा नजर आ रहा था.

इस बीच दिनेश की नजर भी छत पर खड़ी मिताली से टकराई, तो दोनों एकदूसरे को देख कर बिना मुसकराए न रह सके. जब दिनेश चला गया तो मिताली ने अपने पिता से बातोंबातों में उन की एक अजनबी से हुई बातचीत के बारे में पूछा, तो ठाकुर विक्रम सिंह ने उसे बताया कि दिनेश नाम का यह नौजवान गांव में एक बायोगैस प्लांट लगाना चाहता है. वह सारे मवेशियों का गोबर एक बड़े से लोहे के टैंक में डलवा कर उस से गैस बनाएगा, जो पाइपलाइन द्वारा गांव के घरघर में जाएगी और लोग उस से चूल्हा जला सकेंगे. ‘‘पर पिताजी, सरकार ने तो पहले से ही सुजला नामक योजना के तहत फ्री में गैस सिलैंडर बांटे हैं,’’ मिताली ने कहा. ‘‘अरे, बांट तो देती है सरकार, पर आएदिन रसोई गैस के दाम भी तो बढ़ा रही है.

किसी के लिए भी गैस सिलैंडर लेना भारी है. हमारे गांव में 20 गैस कनैक्शन होंगे, पर गांव के तकरीबन हर आदमी के यहां मिट्टी का चूल्हा ही जल रहा है…’’ ठाकुर साहब ने फुसफुसाते हुए कहा, ‘‘और फिर ये जो दिनेशवा है न… यह भी छोटी जात का है. भले ही ये लोग कितना भी पढ़लिख जाएं, पर काम तो गोबर की साफसफाई का ही करेंगे न,’’ ठाकुर साहब के चेहरे पर हिकारत के भाव उभर आए थे.

एक तीर से कई निशाने : भाग 1

अरे, चुप कर. तुझे पता नहीं है कि हम नीच जात हैं, मंदिर के अंदर नहीं जा सकते… अंदर सब छूत हो जाएगा.’’ ‘‘अरे, अंदर जाने से छूत हो जाएगा और हम उठा कर बैलगाड़ी में रखेंगे तो क्या दानपात्र शुद्ध रहेगा?’’

नौजवान मजदूर थोड़ा उग्र हो रहा था. हालांकि, उस का सवाल तो जायज था, पर गांव के अंदर यह सवाल बदतमीजी कहलाता है. ‘‘क्या फुसफुसा रहा है यह?’’ पंडितजी के गोरे चेहरे पर गुस्सा छलक आया. ‘‘कुछ नहीं पंडितजी, नया लड़का है… शहर में मजदूरी करता था… गांव के कायदेकानून भी नहीं जानता है,’’ इतना कहने के बाद बड़ी उम्र वाले मजदूर ने उस नौजवान मजदूर को कुहनी मारी और दोनों रस्सी पकड़ कर दानपात्र को मंदिर से बाहर लाने की कोशिश करने लगे. कुछ देर की मशक्कत के बाद दानपात्र मंदिर की दहलीज के बाहर आ गया. फिर उन्होंने दानपात्र पर एक कपड़ा डाल कर उसे उठा कर ट्रौली में लाद दिया और पंडितजी भी अपनी मोटरसाइकिल पर किक मार कर उस ट्रौली के आगेआगे चल दिए. पंडितजी और बैलगाड़ी दोनों की मंजिल ठाकुर साहब की हवेली थी. कुछ देर बाद दानपात्र और पंडितजी दोनों ठाकुर विक्रम सिंह की हवेली के विशाल आंगन में पहुंच गए थे.

ठाकुर साहब ने अपनी जेब से बड़ी सी चाभी निकाल कर दानपात्र को खोल दिया और उन की लालच से भरी नजरें दानपात्र के अंदर रखे हुए हरेलाल नोटों पर गड़ गई थीं. ठाकुर साहब मुसकराते हुए एक कोने में पड़ी हुई आरामकुरसी में धंस गए और वहीं पर रखा हुआ हुक्का गुड़गुड़ाने लगे. दानपात्र में आए हुए ढेर सारे नोटों को गिनने का काम आसान नहीं था, पर पंडितजी बड़ी लगन के साथ यह काम एक सहायक के साथ मिल कर करने लगे और कुछ घंटों की मशक्कत के बाद नोट गिनने का काम पूरा हो गया. ‘‘पूरे 70,000 रुपए का दान आया है इस बार ठाकुर साहब,’’ पंडितजी ने एक गर्वीली मुसकान के साथ कहा. ‘‘क्या…

एक लाख भी पूरा नहीं हो पाया? इस बार तो बहुत कम दान आया है… लगता है कि आप अपना काम सही से नहीं कर रहे हैं पंडितजी,’’ ठाकुर विक्रम सिंह की आवाज में कठोरता थी. ‘‘नहीं ठाकुर साहब… ऐसा तो नहीं है. हम तो बराबर गांव वालों को दान और चढ़ावा देने के लिए कहते रहते हैं,’’ पंडितजी की यह बात ठाकुर साहब को रास नहीं आई और उन्होंने पंडितजी को लताड़ते हुए कहा कि वे गांव वालों को ईश्वरीय प्रकोप से डरा कर रखें… और मुमकिन हो तो हाथ की सफाई और मूर्तियों को दूध पिलाने वाले चमत्कार भी लोगों के सामने दिखाएं, जिस से गांव वाले दानपात्र में जी खोल कर दान दें. ठाकुर साहब ने बातोंबातों में पंडितजी को यह भी चेता दिया कि खुद उन की तनख्वाह भी इसी चढ़ावे के पैसों पर निर्भर करती है और अगर दान और चढ़ावे में इजाफा नहीं हुआ तो पंडितजी की तनख्वाह मिलना बंद हो जाएगी. ठाकुर साहब की ये धमकी भरी बातें सुन कर पंडितजी को अपनी तनख्वाह बंद हो जाने का डर सताने लगा और वे मन ही मन में एक योजना पर विचार करने लगे.

ठाकुर साहब की कुलदेवी का मंदिर गांव के शुरुआती छोर पर बना हुआ था. 55 साल के ठाकुर विक्रम सिंह को कुलदेवी का यह मंदिर विरासत में मिला था और उन्होंने इस की पूजापाठ की सारी जिम्मेदारी पंडित रमेश चंद को दे दी थी. मंदिर में गांव वालों द्वारा जो भी रुपयापैसा दानपात्र में आता था, वह ठाकुर साहब के पास जाता था, जबकि चढ़ावे के रूप में प्रसाद, फलमिठाई वगैरह आता था, वह पंडितजी खुद रख लेते थे.

 

चांद पर धब्बे – भाग 1 : नीटू को किसकी चीख सुनाई दी

पहाड़ की ढलान पर उतरते वक्त पद्मा ने समीर का हाथ पकड़ना चाहा, पर वे न जाने किस धुन में आगे निकल गए थे. मां को रुकता देख नीटू ने उन के हाथ पकड़ लिए और बोला, ‘‘आओ मां, मेरा हाथ पकड़ कर धीरेधीरे उतर जाओ.’’ पद्मा 8 साल की उस मासूम लड़की की आंखों में कुछ पल देखती रही. अभी 2 कदम ही आगे बढ़ सकी थी कि चप्पल जो फिसली, तो पद्मा नीचे लुढ़कती चली गई.

नीटू की चीख सुनाई दी और साथ ही अपनी आंखों को डर और पीड़ा से पद्मा ने बंद होता हुआ भी महसूस किया. तभी 2 बांहों ने पद्मा को एकदम से पकड़ कर नीचे खाई में गिरने से बचा लिया था. बड़ी कोशिश से आंखों को खोला तो एक गोरी पहाड़ी लड़की को अपने पर झुका देखा. धीरेधीरे पद्मा बेहोश होती गई. आंखें खुलीं तो पद्मा ने खुद को एक पहाड़ी घर में देखा. नीटू उस के सिरहाने बैठी उस का सिर सहला रही थी. जिस लड़की ने बचाया था, वह वहीं प्याले में कुछ घोल रही थी. तभी एक पुरानी और बहुत जानीपहचानी आवाज कानों में गूंजी,

‘‘अब कैसी तबीयत है छोटी बहू?’’ सालों बाद भी उस आवाज में जो अपनापन व प्यार छिपा हुआ था, उस से पद्मा की नजर ऊपर उठ गई. इतने दिनों बाद भी पद्मा उस चेहरे को पहचान गई. बायां गाल झुर्रियों से भरा हुआ था. जलने का निशान सालों बाद भी जिस्म के एक नाजुक हिस्से से चिपका हुआ बीते दिनों की एक नफरत भरी कहानी कह रहा था. ‘‘तुम माया…?’’ पद्मा ने उठना चाहा, पर उस लड़की ने उठने नहीं दिया, ‘‘आप लेटी रहें, आप के पैरों में चोट लगी है.’’

अब पद्मा ने अपने पैरों की ओर देखा, जहां पट्टी बंधी थी. दर्द की एक तीखी लहर पूरे बदन में फैल गई. ‘‘तेरे पिताजी कहां हैं नीटू?’’ पद्मा ने बेटी से पूछा. ‘‘आप के लिए डाक्टर बुलाने गए हैं. यहां टावर नहीं है, इसलिए मोबाइल नहीं चलता. हम ने तो बहुत कहा कि डाक्टर की जरूरत अब नहीं है. इतने सालों से पहाड़ पर रहते हुए पहाड़ों के दिए दर्द का इलाज भी हम ने ढूंढ़ लिया है,’’ माया धीरे से बोली. दिन ढलने तक माया और उस की बेटी बराबर पद्मा की सेवा में लगी रहीं. न जाने कब मेरी आंखें लग गईं. किसी आवाज पर पद्मा की आंखें खुलीं, वरना न जाने कब तक सोती रहती. समीर गाड़ी ले आए थे. वे बोले, ‘‘डाक्टर तो आए नहीं, तुम्हें ही चलना होगा.

पहाड़ घूमने में तो काफी अच्छा लगता है, पर परेशानी होने पर सारी खुशियां हवा होने लगती हैं. एक डाक्टर के लिए इतनी दूर जाना पड़ा, फिर भी वे नहीं आए. मुश्किल से एक गाड़ी का इंतजाम कर के लाया हूं. अब कल लौट चलो… बहुत घूम लिया,’’ एक सांस में जो वे शुरू हुए तो बोलते ही गए. पद्मा आंखें बंद किए चुप पड़ी रही. जानती थी कि उन की थकान की चिड़चिड़ाहट अभी थोड़ी देर में बड़बड़ाने से उतर जाएगी. थोड़ी देर में जब वे शांत हुए, तो पूछा, ‘‘अब तुम्हारा दर्द कैसा है?’’ पद्मा हलके से मुसकरा दी. अब ध्यान आया इन्हें उस का. मतलब समझ कर वे भी झेंपते हुए उसे देखने लगे. ‘‘तुम्हें पता है, मुझे किस ने बचाया था?’’

पद्मा ने पति की ओर देखा. ‘‘हां, कोई बच्ची थी. छोटी सी…’’ वे लापरवाही से बोले. ‘‘वह माया की बेटी है.’’ ‘‘माया…?’’ ‘‘हां, वही माया, जिस की 3 पीढि़यां हमारे यहां काम करती रही हैं.’’ ‘‘समीर भैया कैसे हो?’’ माया ने ही आ कर उन से सीधा सवाल कर दिया. समीर के अब न पहचानने का सवाल ही नहीं था. ‘‘मैं तो ठीक हूं माया, पर तुम्हारे आने के बाद मां बहुत दुखी थीं. पिछले साल वे भी नहीं रहीं…’’ ‘‘हम बहुत दुखी हुए बबुआ, जब उन की स्नेह छाया हमारे सिर से छिन गई. अब तो पिछला कुछ याद करने को भी जी नहीं करता.’’ होटल वापस आ कर भी पद्मा का दिल भटकता ही रहा. रात में डाक्टर आए और कुछ दर्द कम करने की दवा दे गए. सच में तो माया के जड़ीबूटी वाले लेप से ही उसे काफी आराम मिल गया था. पहाड़ों पर चांद और सूरज का दिखना भी बड़ी बात है. सुबह उठी,

तब तक बादलों के बीच ही सूरज छिपा होता है. रात में कभी मौसम साफ रहा तो चांद दिख गया, नहीं तो बादलों के आंचल में छिपना उसे भी रास आता है. दिनभर की भागमभाग से थके समीर तो सो गए, पर पद्मा सो न सकी. माया के सुंदर चेहरे को पद्मा ने अपनी आंखों से सफेद चकत्तों में बदलते देखा था. पर क्या वह सच था, जिस जुर्म की सजा उस के पति ने दूध का पतीला उस पर उलट कर दी थी? उस ने वह जुर्म किया था, पद्मा का मन कतई यह मानने को तैयार न था. पद्मा बीते सालों की यादों में खो गई. जब वह समीर की दुलहन बन कर उस के आंगन में उतरी थी, कई आवाजों के बीच एक नाम बारबार उसे सुनाई दिया था, ‘माया… माया…’ पद्मा सोचने लगी कि यह माया कौन है? पद्मा ने याद किया था कि उस की ननद का नाम तो रुचि है. गोदभराई में आई, हंसीठिठोली करती लड़कियों के भी नाम याद करने की कोशिश की.

पर, उन में माया नाम ही नजर न आया. लेकिन रात को भेद खुल गया. पद्मा दुलहन बनी सिकुड़ीसिमटी सोफे पर बैठी थी. सामने पलंग पर बस चादर पर थोड़े फूल डाल दिए गए थे. मन में हूक सी उठी. किताबों में पढ़े और फिल्मों में देखे सुहागरात के कई नजारे उस की आंखों के सामने घूम गए, जहां कमरा फूलों की लडि़यों से सजा होता था. ‘‘छोटी बहू…’’ एक मीठी आवाज कानों में पड़ी. सामने देखा, गोरे रंग की एक पहाड़ी औरत खड़ी थी. नाकनक्श बेहद तीखे और होंठों पर मुसकान. ‘‘यह दूध है… समीर बाबू आते ही होंगे.’’ ‘‘आप…?’’ पद्मा खड़ी हो गई. ‘‘मैं माया हूं,’’ उस ने कहा, ‘‘मेरी 3 पीढि़यां इस घर की सेवा करती रही हैं. मैं भी यहीं पलीबढ़ी हूं.’’ ‘‘माया…’’ ‘‘हां, छोटी बहू…’’ वह जाने को पलटी, पर फिर रुक गई. हिचकते हुए वह बोली, ‘‘छोटी बहू, एक बात कहनी है… पर आप कोई और मतलब मत निकाल लेना.

मैं औरत हूं. इस कारण तुम्हें कुछ बता देना जरूरी समझती हूं.’’ ‘‘मैं समझी नहीं?’’ ‘‘छोटी बहू, समीर भैया को जरा प्यार की मजबूत डोर से बांधना… हलकीफुलकी डोर तो झटके से तोड़ ही डालेंगे.’’ ‘‘यह तुम क्या कह रही हो?’’ पद्मा चौंक उठी थी. ‘‘हां छोटी बहू… बड़े भैया के अफसर की लड़की है कामिनी. बड़ी ही चंचल… आती है तो ऐसे इतराते हुए मानो इस घर की मालकिन वही हो.’’ ‘‘तो क्या समीर भी…?’’ ‘‘अब सारे समय कोई फूल खुद ही भंवरे पर झुका रहेगा तो खुशबू तो भंवरा लेगा ही न.’’ ‘‘तो इन्होंने उसी से शादी क्यों नहीं की?’’ ‘‘आप भी गजब करती हैं छोटी बहू. इतना बड़ा अफसर अपनी बेटी की शादी इन से करेगा. मौजमस्ती मारना और बात है, शादी करना और. फिर इतनी नकचढ़ी बिगड़ी लड़की इस घर में कहां खपने वाली है. मांजी तो इसे देख कर ही चिढ़ती हैं.’’ तभी किसी के कदमों की आवाज सुनाई दी और माया ‘भैया आ गए’ कहते हुए तेजी से बाहर चली गई.

समीर के साथ पद्मा की पहली मुलाकात जिन प्रेम भरे पलों में होनी चाहिए थी, वैसी न हो सकी. उन के हाथों ने जब उसे छुआ तो उसे बासीपन का एहसास होने लगा. माया की बातें नाग बन कर पद्मा के चारों तरफ लिपट गई थीं. सोचने लगी कि यह कैसे घर में आ फंसी वह. अपने पति को उस कामिनी नाम की लड़की की बांहों में देख क्या वह अपना धीरज न खो बैठेगी? दूसरे दिन जब वह अभी नहा कर उठी ही थी कि बाहर से एक चहकती हुई आवाज सुनाई दी, ‘‘नई भाभी कहां हैं भई… उन के तो दर्शन ही नहीं हुए.’’ ‘‘कहां चली गई थी बेबी कल…?’’ यह शायद भाभी की आवाज थी. पद्मा ने अंदाजा लगाया. ‘‘ओह, यह न पूछो भाभी. उस कमबख्त डेविड के चक्कर में कल शिमला से लौट ही न पाई. कालका तक आते गाड़ी ही खराब हो गई. ओ हो… तो ये हैं हमारी नई भाभी…’’ कमरे में मेरे बिलकुल पास आ कर कामिनी ने कहा,

तो पद्मा की नजरें ऊपर उठ गईं. उस का चेहरा मासूम लगा. सोचा, ‘नहीं, यह चेहरा किसी को धोखा नहीं दे सकता. पर आवाज की चंचलता तो किसी को भी अपनी तरफ खींच सकती है.’ ‘‘समीर कहां है? दिख नहीं रहा.’’ ‘‘जी, वे नहा रहे हैं.’’ ‘‘ओह…’’ कामिनी वहीं पलंग पर आराम से लेट गई. पद्मा कमरे को ठीक करने लगी. गुसलखाने का दरवाजा खुला, तो कामिनी उठ बैठी, ‘‘हैलो समीर…’’ पद्मा ने यों ही एक नजर समीर पर डाली. उस के सीने के बाल भीग कर बदन से चिपक गए थे. इस जिस्म पर वह मोहित हो उठी. पर कामिनी को बैठे देख कर सारा जोश ठंडा पड़ गया. ‘‘कब आई?’’ बदन पर गाउन डालते हुए समीर ने कामिनी से पूछा. ‘‘थोड़ी देर हुई… शाम को पार्टी में चल रहे हो न?’’ वह कुछ जवाब देते, तभी भाभी आ गईं,

‘‘अरे बेबी, नीचे चलो. तुम्हारे भाई साहब नाश्ते पर इंतजार कर रहे हैं.’’ पद्मा को चोट सी लगी कि नई बहू को नीचे बुलाने के बजाय कामिनी को नीचे बुलाया जा रहा है. ‘‘चलती हूं समीर, आना जरूर… और भाभी को भी साथ लाना,’’ मुसकराते हुए कामिनी चली गई. मैं इन बातों से अलग हटी और पद्मा कमरा ठीक करती रही. ‘‘जरा अलमारी से मेरे कपड़े निकाल दो,’’ पद्मा ने मुड़ कर देखा, समीर शीशे के सामने खड़े बाल संवार रहे थे. ‘‘कौन से निकालूं?’’ ‘‘जो तुम्हें पसंद हों. आज हम घूमने चल रहे हैं.

कांटों भरी राह पर नंगे पैर : भाग 3

लखनऊ शहर की इस गंदी बस्ती में आज जश्न था, क्योंकि आज उन के महल्ले के एक लड़के की शादी एक अमीर और सवर्ण लड़की से जो हो गई थी. अगले दिन से ही अंजलि घर पर मेहंदी रचा कर नहीं बैठी, बल्कि चुनाव प्रचार में बिजी हो गई. पूरे शहर में अंजलि ने अपनेआप को ‘दलित समाज की बहू’ कह कर चुनाव प्रचार करवाया और अजीत कुमार के साथ दलित बस्तियों का दौरा भी किया और दोपहर का खाना भी लखनऊ शहर के ही राजाजीपुरम इलाके में रह रहे एक दलित परिवार के यहां खाया.

लोकल न्यूज चैनल पर इस खबर का खूब प्रचारप्रसार भी करवाया. चुनाव नतीजा तो आया, पर अंजलि की सोच के मुताबिक नहीं. वह अपने विरोधी से बुरी तरह चुनाव हार चुकी थी. पूरे 2 दिन तक वह घर से बाहर रही. अजीत कुमार ने उस का मोबाइल भी मिलाया, पर मोबाइल ‘नौट रीचेबल’ ही बताता रहा. फिर एक दिन अंजलि अचानक नाटकीय रूप से प्रकट हो गई. उस ने घर के किसी शख्स से बात तक नहीं की और न ही किसी की तरफ देखा भी. वह सीधा अपने कमरे में चली गई. अजीत कुमार उस के पीछेपीछे गया, तो अंजलि उस से कहने लगी, ‘‘देखो अजीत, मैं ने तुम से इसलिए शादी की थी, क्योंकि सोशल मीडिया पर तुम्हारे दलित फैंस को देख कर मुझे ऐसा लगा कि अगर मैं तुम से शादी कर के दलितों के वोट अपनी ओर कर लूंगी,

तो इलैक्शन जीत जाऊंगी, पर अफसोस, यह नहीं हो सका और मैं चुनाव हार गई…’’ सांस लेने के लिए अंजलि रुकी और फिर आगे कहना शुरू किया, ‘‘पर, अब मेरा इस गंदी बस्ती और तुम्हारे साथ दम घुट रहा है, इसलिए मैं यहां से जा रही हूं और अपने आदमियों से तलाक के कागज भी भिजवा दूंगी… साइन कर देना.’’ अजीत कुमार अवाक रह गया. अपनी जिंदगी में इतना बड़ा धोखा उस ने कभी नहीं खाया था. अंजलि जा चुकी थी और कुछ घंटे बाद ही उस के आदमी तलाक के कागज ले कर आए और अजीत कुमार से दस्तखत लेने लगे.

कुछ लोग अंजलि के कमरे का सामान ले जाने लगे, जिस में उस कमरे में लगा हुआ एसीकूलर वगैरह भी शामिल था. अजीत कुमार काफी बेइज्जती महसूस कर रहा था, पर करता भी क्या? एक दलित की जिंदगी कितनी कड़वी हो सकती है, यह सब उस की झांकी भर ही था. कुछ दिन तो अजीत कुमार भी सदमे में रहा. उसे लगा कि उसे मर जाना चाहिए, क्योंकि वह एक सवर्ण महिला द्वारा बेइज्जत किया जा चुका है. लोग सही कहते हैं… हम दलित लोगों की ‘ब्रेन वाशिंग’ इस तरह से कर दी गई है कि लगता है कि हमारे सोचनेसमझने की ताकत ही चली गई है.

तभी तो शायद हम समाज में सब से आखिरी पायदान पर हैं… तो क्या मर जाना ही इस का समाधान है, बिलकुल, जब जिंदगी ही नहीं रहेगी, तो कैसा दुख और कैसा दर्द. अपने मोबाइल को अजीत कुमार ने आखिरी बार निहारा. उस ने पाया कि उस के फेसबुक मैसेंजर पर बहुत से दलित भाइयों और जरूरतमंद लोगों के संदेश भरे हुए थे, जो उस से मदद मांग रहे थे… ‘तो फिर इन का क्या होगा? क्या मेरे मर जाने से इन की उम्मीदभरी नजरों को ठोकर नहीं लगेगी?’ एक बार ऐसा खयाल अजीत कुमार के जेहन में आया, तो उस ने मरने का विचार छोड़ दिया. ठंडे पानी का एक गिलास हलक के नीचे उतारा और अपने कमरे में वापस आया…

एक लंबे सफर की तैयारी जो करनी थी उसे. उस दिन के बाद से अजीत कुमार ने सोशल मीडिया को अपना हथियार बनाया और उस ने ‘फेसबुक लाइव’ के द्वारा लोगों को संबोधित किया और दलितों को जगाने और उन की सदियों से चली आ रही ‘ब्रेन वाशिंग’ को ही खत्म करने के कोशिश की. खुद के साथ हुए धोखे के बारे में लोगों को बताया कि लोग किस तरह से उन के भोलेपन का फायदा उठाते हैं. भोलेभाले लोग यह जानते ही नहीं कि सालों से उन्हें कमतर होने का एहसास कराया जाता रहा है, जिस से वे अपनेआप को नीचा समझने लगे हैं. दलित गरीब होता है,

इसलिए उन के उत्थान में सब से पहले पैसे की जरूरत थी. अजीत कुमार ने अपने महल्ले के बीचोंबीच एक डब्बा रखवाया और उस पर लिखवा दिया कि इस डब्बे में वे लोग हर रोज महज एकएक रुपया डाला करेंगे और इस से जो पैसे इकट्ठे होंगे, वे गरीब दलितों के काम आएंगे, मसलन बच्चों की पढ़ाईलिखाई और लड़कियों की शादी में. अजीत कुमार ने ऊंची नौकरी कर रहे कुछ दलित लोगों से भी बात की और उन से भी सहयोग करने को कहा. लोग सामने आए और अजीत कुमार के कंधे से कंधा भी मिलाया. अजीत कुमार ने अपनी पूरी जिंदगी ही दलित समाज के जागरण को समर्पित कर दी थी. यह सब इतना आसान नहीं था,

पर दृढ़ संकल्प से कुछ भी मुमकिन था. तकरीबन 15 साल की समाजसेवा के बाद अजीत कुमार एक जानामाना नाम बन गया था, जिस का एहसास उस चालाक राजपूतानी अंजलि को भी हो चुका था, तभी वह एक दिन अजीत कुमार के पास आई और अपने द्वारा दिए गए धोखे पर माफी मांगते हुए उस से दोबारा शादी करने की इजाजत मांगी, पर अजीत कुमार इतना भी बेवकूफ नहीं था कि अंजलि से दोबारा शादी करता. दलित उत्थान में अजीत कुमार अकेला चला तो था, पर उसे इस राह में कई लोग मिलते गए, जिन्होंने हर तरीके से उस की मदद की.

अजीत कुमार ने अपनी जिंदगी के कड़वे अनुभवों को ले कर आत्मकथा भी लिखी, जिस का नाम रखा गया ‘कांटों भरी राह पर नंगे पैर’. अजीत कुमार की आत्मकथा को पहले तो कोई प्रकाशक नहीं मिल रहा था, क्योंकि एक दलित की आत्मकथा को प्रकाशित करना उन्हें फायदे का सौदा नहीं लग रहा था, इसलिए अजीत कुमार ने अपनी आत्मकथा को ‘अमेजन किंडल’ पर प्रकाशित करने का फैसला लिया और यह आत्मकथा एक बैस्ट सैलर साबित हुई. अजीत कुमार के पास बधाइयों का तांता लग गया था. आज अपना 50वां जन्मदिन मनाने के लिए समाजसेवी अजीत कुमार एक दलित बस्ती में आया था. उसे चारों तरफ से लोगों ने घेर रखा था. अजीत कुमार के चेहरे पर एक मधुर मुसकराहट थी कि तभी भीड़ को चीरते हुए एक 25-26 साल की लड़की अजीत कुमार के पास आई और बोली, ‘‘मैं सुबोही…

आप की बहुत बड़ी फैन हूं. आप के बारे में सबकुछ आत्मकथा से जान चुकी हूं और आप के काम से प्रभावित हूं… आप से शादी करना चाहती हूं… और हां… मैं जाति से ठकुराइन हूं.’’ अजीत कुमार उस लड़की को बड़ी देर तक देखता रहा, फिर बोला, ‘‘पर, हमारी उम्र के बीच जो फासला है…?’’ ‘‘प्रेम कोई फासला नहीं जानता,’’ सुबोही ने मुसकराते हुए कहा. ‘‘पर, तुम्हें विधायकी का चुनाव तो नहीं लड़ना है न?’’ अजीत ने चुटकी ली और दोनों एकदूसरे की तरफ देख कर मुसकरा उठे. ‘‘बस करिए, अपनी आत्मकथा को कब तक निहारते रहेंगे…’’ सुबोही ने पूछा. ‘‘यह तो एक बहाना है… तुम से हुई पहली मुलाकात को याद करने का…’’ अजीत कुमार ने सुबोही से कहा.

चांद पर धब्बे – भाग 3 : नीटू को किसकी चीख सुनाई दी

शराब और दूसरे नशों की वजह से वह नामर्द हो गया था. मेरे सारे जेवर उस ने जुए में हार दिए थे, मैं फिर भी चुप रही. एक दिन कहने लगा, ‘तू बड़े भैया के साथ सो जा. हमारे घरों में तू जानती है कि यह सब आम है. अगर बच्चा हो गया तो कोई मुझे नामर्द नहीं कहेगा.’ ‘‘बस, मेरा खून खौल उठा. भैया को तो मैं ने कभी मुंह नहीं लगाया था. वे जब आते मुझे मुसकरा कर देखते. पर मेरे आदमी को कभी इस पर एतराज न हुआ. वह मेरे जिस्म की प्यास खुद बुझा नहीं पाया.

मैं खामोशी से यह दर्द भी पी रही थी. पर उस ने मुझे वेश्या बना दिया, यह सब मुझ से सहन न हुआ. ‘‘2-4 बार के बाद बड़े भैया बारबार मुझे बुलाने लगे, तो मैं तिलमिला उठी. मेरे मना करने पर मेरे पति ने उसी गुस्से में मुझे जान से मारना चाहा. मुझ पर झूठा इलजाम लगा दिया कि मैं कुलटा हूं. तब भी मैं चुप रही, इस कारण कि उस की कमजोरी के बारे में दूसरा कोई न जाने. आखिर वह मेरा मर्द था. ‘‘यह बेटी बड़े भैया की देन है, पर न तो बेटी जानती है और न भैया. उन्होंने न जाने कितनों से खेला है. कितनों से बच्चे किए हैं. बड़ी भाभी जानती हैं, पर चुप रहती हैं. मैं ने एक दिन बड़े भैया को मना किया, तो उन्होंने उबलता दूध मुझ पर डाल दिया.

‘‘उस के बाद मेरे मर्द ने खुदकुशी कर ली. मैं घर छोड़ कर निकल आई और यहां सब से यही कहा कि सोमी मेरे मर्द की बेटी है.’’ ‘‘ओह माया,’’ पद्मा के मुंह से सिर्फ एक गहरी सांस निकल गई. इस औरत की कुरबानी ने तो उसे हिला कर रख दिया था. माया आगे बोली, ‘‘मैं ने सोमी के साथ जीने का रास्ता तलाश लिया है. फिर छोटी बहू, उस के साथ उस पुरानी राह पर लौटना मुझे मंजूर न था. सोमी पढ़ रही है. पढ़ कर कोई ट्रेनिंग करा दूंगी तो अपने पैरों पर खड़ी हो जाएगी. वह कुछ बन जाए तो समझूंगी कि मेरी कुरबानी बेकार नहीं गई.’’ ‘‘चाय बन गई है मां. यहीं ले आऊं?’’

सोमी ने पुकारा, तो माया और पद्मा दोनों चौंक गईं. पद्मा ने सोमी की तरफ देखा. उस का मुसकराता चमकता चेहरा सूरज की पहली लाली जैसा लुभावना लग रहा था. बादलों से सूरज भी बाहर निकल आया था. घर लौटते समय माया और उस की बेटी भी नाव तक छोड़ने आईं. कई बार इच्छा हुई कि पर्स खोल कर उस की लड़की के हाथ पर कुछ रखने की, पर बारबार मांबेटी के चेहरे पर छाई खुशी पद्मा को रोक देती. पद्मा उन की राह का रोड़ा नहीं बनना चाहती थी. उस के पास एक दौलत थी,

अपनी इज्जत और हौसले की. और उस के साथ थी उस की बेटी, पद्मा की जेठ की बेटी. झील में काफी दूर आने पर भी सोमी का हिलता हाथ और माया के दुपट्टे का उड़ता हिस्सा पद्मा को देर तक नजर आता रहा. उस के बाद पद्मा न जाने कितनी ही बार माया के गांव गई और न जाने क्या लगता था कि सोमी को उस ने अपनी बेटी की तरह पालना शुरू कर दिया. पद्मा ने यह बात उसे नहीं बताई, क्योंकि कोई फायदा नहीं था.

तपस्या : क्या शिखर के दिल को पिघला पाई शैली?

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