नजरिया- भाग 3: आखिर निखिल की मां अपनी बहू से क्या चाहती थी

अगले दिन जब निखिल दफ्तर गया तो उस की मां आशी को कोसने लगीं, ‘‘मेरा बेटा कल तक मेरी सारी बातें मानता था… अब तुम ने न जाने क्या पट्टी पढ़ा दी कि मेरी सुनता ही नहीं.’’

अब घर में ये कलह बढ़ती ही जा रही थी. आज आशी और निखिल दोनों ही मां से परेशान हो कर मेरे घर आए. मैं ने जब उन की सारी बातें सुन लीं तो कहा, ‘‘एक समस्या सुलझती नहीं की दूसरी आ जाती है. पर समाधान तो हर समस्या का होता है.’’

अब मां का क्या करें? रोज घर में क्लेश होगा तो आशी के होने वाले बच्चे पर भी तो उस का बुरा प्रभाव पड़ेगा,’’ निखिल बोला.

मैं ने उन के जाने के बाद अपनी मां से आशी व निखिल की मजबूरी बताते हुए कहा, ‘‘मां, क्या आप आशी की डिलिवरी नहीं करवा सकतीं? बच्चा होने तक आशी तुम्हारे पास रह ले तो ठीक रहेगा.’’

मां कहने लगीं, ‘‘बेटी, इस से तो नेक कोई काम हो ही नहीं सकता. यह तो सब से बड़ा मानवता का काम है. मेरे लिए तो जैसे तुम वैसे ही आशी, पर क्या उस के पति मानेंगे?’’

‘‘पूछती हूं मां,’’ कह मैं ने फोन काट दिया.

अब मैं ने निखिल के सामने सारी स्थिति रख दी कि वह आशी को मेरी मां के घर छोड़ दे.

मेरी बात सुन कर निखिल को हिचकिचाहट हुई.

तब मैं ने कहा, ‘‘निखिल आप भी तो मेरे पति जब यहां नहीं होते हैं तो हर संभव मदद करते हैं. क्या मुझे मेरा फर्ज निभाने का मौका नहीं देंगे?’’

मेरी बात सुन कर निखिल मुसकरा दिया, बोला, ‘‘जैसा आप ठीक समझें.’’

‘‘और आशी जब तुम स्वस्थ हो जाओ तो तुम भी मेरी कोई मदद कर देना,’’ मैं ने कहा. यदि हम एकदूसरे के सुखदुख में काम न आएं तो सहेली का रिश्ता कैसा?

मेरी बात सुन आशी ने भी मुसकरा कर हामी भर दी. फिर क्या था. निखिल आशी की जरूरत का सारा सामान पैक कर आशी को मेरी मां के पास छोड़ आ गया.

वक्त बीता. 9 माह पूरे हुए. आशी ने एक सुंदर बेटी को जन्म दिया, जिस की शक्ल हूबहू आशी की सास व पति से मिलती थी.

उस के पति निखिल ने जब अपनी बेटी को देखा तो फूला न समाया. वह आशी को अपने घर चलने को कहने लगा, लेकिन मेरी मां ने कहा कि बेटी थोड़ी बड़ी हो जाए तब ले जाना ताकि आशी स्वयं भी अपने स्वास्थ्य का ध्यान रख सके.

इधर आशी की मां निखिल से रोज पूछतीं, ‘‘निखिल बेटा, आशी को क्या हुआ बेटा या बेटी?’’

‘‘मां, बेटी हुई है पर जाने दो मां तुम्हें तो पोता चाहिए था न.’’

मां जब पूछतीं कि किस जैसी है बेटी तेरे जैसी या आशी जैसी. तो वह कहता कि मां क्या फर्क पड़ता है, है तो लड़की ही न.

अब आशी की सास से रहा नहीं जा

रहा था. अत: एक दिन बोलीं, ‘‘आशी को कब लाएगा?’’

‘‘मां अभी बच्ची छोटी है. थोड़ी बड़ी हो जाने दो फिर लाऊंगा. यहां 3 बच्चों को अकेली कैसे पालेगी?’’

यह सुन आशी की सास कहने लगीं, ‘‘और कितना सताएगा निखिल… क्या तेरी बच्ची पर हमारा कोई हक नहीं? माना कि मैं पोता चाहती थी पर यह बच्ची भी तो हमारी ही है. हम इसे फेंक तो न देंगे? अब तू मुझे आशी और मेरी पोती से कब मिलवाएगा यह बता?’’

निखिल ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘अगले संडे को मां.’’

अगले रविवार ही निखिल अपनी मां को मेरी मां के घर ले गया. निखिल की मां आशी की बच्ची को देखने को बहुत उत्सुक थीं. उसे देखते ही लगीं शक्ल मिलाने. बोलीं, ‘‘अरे, इस की नाक तो बिलकुल आशी जैसी है और चेहरा निखिल तुम्हारे जैसा… रंग तो देखो कितना निखरा हुआ है,’’ वे अपनी पोती की नाजुक उंगलियों को छू कर देख रही थीं और उस के चेहरे को निहारे जा रही थीं.

तभी आशी ने कहा, ‘‘मां, अभी तो यह सोई है, जागेगी तब देखिएगा आंखें बिलकुल आप के जैसी हैं नीलीनीली… आप की पोती बिलकुल आप पर गई है मां.’’

यह सुन आशी की सास खुश हो उठीं और फिर मेरी मां को धन्यवाद देते हुए बोलीं, ‘‘आप ने बहुत नेक काम किया है बहनजी, जो आशी की इतनी संभाल की… मैं किन शब्दों में आप का शुक्रिया अदा करूं… अब आप इजाजत दें तो मैं आशी को अपने साथ ले जाऊं.’’

‘‘आप ही की बेटी है बेशक ले जाएं… बस इस का सामान समेट देती हूं.’’

‘‘अरे, आप परेशान न हों. सामान तो निखिल समेट लेगा और अगले रविवार को वह आशी को ले जाएगा. अभी जल्दबाजी न करें. तब तक मैं आशी के स्वागत की तैयारियां भी कर लेती हूं.’’

अगले रविवार को निखिल आशी व उस की बेटी को ले कर अपने घर आ गया. उस की मां ने घर को ऐसे सजाया था मानो दीवाली हो. आशी का कमरा खूब सारे खिलौनों से सजा था. आशी की सास उस की बेटी के लिए ढेर सारे कपड़े लाई थीं.

जब आशी घर पहुंची तो निखिल की मां दरवाजे पर खड़ी थीं. उन्होंने झट से अपनी पोती को गोद में ले कर कहा, ‘‘आशी, मुझे माफ कर दो. मैं अज्ञान थी या यों कहो कि पोते की चाह में अंधी हो गई थी और सोचनेसमझने की क्षमता खत्म हो गई थी. लेकिन बहू तुम बहुत समझदार हो. तुम ने मेरी आंखें खोल दीं… मुझे व हमारे पूरे घर को एक घोर अपराध करने से बचा लिया. अब सारा घर खुशियों से भर गया है. फिर वे अपनी बेटी व अन्य रिश्तेदारों को समझाने लगीं कि कन्या भू्रण हत्या अपराध है… उन्हें भी बेटेबेटी में फर्क नहीं करना चाहिए. बेटियां भी वंश बढ़ा सकती हैं, जमीनजायदाद संभाल सकती हैं. जरूरत है तो सिर्फ हमें अपना नजरिया बदलने की.’’

तुम ऐसी निकलीं – भाग 2: फरेबी आशिक की मोहब्बत

मोनिका जिस दोपहर को चादरें ले  गई थी, उसी दिन की शाम उस को बारबार कहीं भगा कर ले जाती. उस रात उस की रात में भी, बस, रात ही रात थी. फिर भोर हुई, दिन चढ़ा और एक फोन आया. हालांकि वह औपचारिक फोन था मगर  जब 2-3 चादरों के  गड़बड़  और उन में कुछकुछ  घिसे हुए प्रिंट को ले कर मोनिका ने शिकायतभरा फोन किया तो उस ने घर का सब अतापता पूछ कर  खुद ही सही, सुंदर, सुघड़ छपाई की नईनई  चादरें उस के घर पर जा कर  अपने हाथों से मोनिका के हाथों में दी थीं.  तब से करीबकरीब वह 4 बार तो  वहां जा ही  चुका था.

एक दिन जब वह मोनिका के  घर पर भोजन और शयन कर के चाय की  चुस्कियां ले रहा था तभी मोनिका के  दरवाजे पर एक बरतन वाला आ गया. पुराने कपड़े के  बदले बरतन बेचने वाला वह धंधेबाज  मोनिका को उस की 3 पुरानी चुन्नियों के  एवज में एक कटोरी पकड़ा गया. उस के जाने के  बाद  मोनिका को  ऐसा  लगा कि वह ठगी गई है.

तब उस ने मोनिका के  गालों को सहलाते  हुए कहा था कि मोना, जाने दो न, भूल जाओ, दूसरों को मूर्ख बना कर खुश होने वाला अंत में पछताता है. हमारी उदासी  और खुशी हमारे सोचने पर और मन की दशा पर निर्भर करती है. अपने कष्ट के  लिए औरों को दोषी कहने वाला रोज कष्ट में रहता है. सुखदुख कुछ नहीं है, हमारा चुनाव है मोना. वह मन ही मन हंस रहा था कि गोवा की डेल्मा का  कहा उस को हूबहू याद रह गया, वाह.

मोनिका ने उस के चुप होने का  इंतजार किया और  यह कीमती सलाह सुन कर उस को  प्यार से एक मधुर  चुंबन दिया. ओह, मोनिका…

वह हौलेहौले  मोनिका का  कितना आदी होता जा रहा था. मोनिका के  साथ उस को  जीवन एकदम से ही सरस और  मधुमय  लगने लगा था. कभी लगता कि इसीलिए हर  मधुरता भी  एक हद तक ही रहती है, कहीं यह समय गुजर न जाए. फिलहाल भले ही चादरों का ही बहाना होता  था मगर उस को लगता कि यह तकदीर का संकेत था. उस के इस तुच्छ से  प्रेमिल संसार में भले ही किसी महान हीरो  वाला  का पुट न हो, भले ही मोनिका को ले कर वह, बस, कोई  सपना ही देख रहा हो  पर आज तो ये सब अनुभूतियां  ही उस के जीवन को रोमांचक बना रही  हैं.

एक रात जब चांदनीरात  जैसे दूध में नहा कर भीग  रही थी और काठगोदाम के कुछ पहाड़ सफेद हो कर दूर से ही चांदी जैसे चमक रहे थे, नीचे रानीबाग की  तरफ गौला नदी का  शोर संगीत सा लग रहा था. उस ने अपना फोन लिया और मोनिका के  नंबर पर लगा दिया. मगर डरकर  दोबारा नहीं किया. तो उसी समय  मोनिका ने ही फोन कर दिया, पूछने लगी, “ओ बुद्धू सेल्समैन.”

“अ,हां,” उस ने घबरा कर कहा.

“इस समय फ़ोन कैसे किया?”

“बस, यह बताना था कि आज शाम ही चादरों की  एक नई गांठ आई है. तुम अपनी किटी की 7-8 सहेलियों के लिए कह रहीं थी न. बिलकुल रोमांटिक छपाई है.”

“कैसी रोमांटिक, यह कैसी छपाई होती है, मैं नहीं समझी?”

“अब यह तो उन को छू कर पता लगेगा.”

“अच्छा, बुद्धू सेल्समैन, जब तुम ने छुआ तो  तुम को कैसा लगा, यह तो बताओ?” मोनिका की आवाज में बहुत शरारत थी.

वह दीवाना हुआ जा रहा था. पर  अब आगे और कुछ भी  बात नहीं करना चाहता था क्योंकि वह जानता था कि मिनटदोमिनट बाद ही सही फोन तो बंद करना ही होगा. उस ने बहाना बना कर अलविदा कहा, फोन बंद कर  दिया.

पर वह साफसाफ कल्पना कर  पा रहा था कि खुले हुए बाल कभी  मोनिका के गालों से तो  कभी उस की  गरदन पर खेल रहे होंगे.  वह वहां होता तो अभी वह गरमागरम… वह फिर अपना ध्यान हटा कर कहीं कुछ और ही सोचने लगा.

सर्कस की  अपनी भोजन व्यवस्था थी. वहां सुबह चायपोहा, दोपहर में दालरोटीखिचड़ी, शाम को चायपकौड़े और रात को रस  वाले  आलू-तेल के  परांठे मिलते थे.  साथ ही, मालिक उस को एक प्लेट राजमाचावल खाने  के पैसे अलग से रोज  नकद दिया करता था. पर यहां मोनिका के  हाथों के भरवां करेले, आलूशिमलामिर्च, आलूमटरगोभी का  स्वाद ही निराला था.

कुल मिला कर जिंदगी का  हर पल यहां चादर की दुकान और टैंट में मोनिका के बगैर  एक बहुत बरबाद चीज़ ही साबित हो रही  थी. बहुत बोर. रोज़ चादरों की तह करो और  उसी तह में तहमद बनते रहो. कहीं कोई रंग नहीं, कोई रस नहीं. मशीनी हाट और मशीनी काम. यह जीना भी कोई जीना था. हां, अब दुनिया में हर कोई अपना एक जीवन तो चुन ही लेता है और बाकी बारहखडी़ भी उसी हिसाब से तय होती जाती है.

एक दिन उस के लिए कितना भावुक करने वाला पल आया था कि जब मोनिका उस से खुद को कुछ सैकंड के लिए अलग कर के शायद कहीं शून्य में खो गई और एक गीत ‘रोजरोज आंखों तले एक ही सपना चले’ बस, इतना सा टूटाफूटा गुनगुना कर वह  कुछ देर चुप रही और पलंग के  नीचे कच्चे फर्श को ताकने लगी. वहां अपनी आंखों की  कलम  से ज़मीन पर कुछ चित्र बनाती रही,  फिर अचानक   बोली, “हां, जो भी हो, उम्मीद तो बना कर रखनी चाहिए.  सब खत्म होने  तक भी अच्छे होने  की उम्मीद करते रहना, कुदरत का फरमान है.  देह भले ही कितनी  उम्र  पार कर चुकी हो, तो भी उम्मीद को जवानी का  एहसास  छू कर रखना चाहिए, अगर  कहीं यह कमजोर देह डगमगा गई और हमारा आत्मबल मुंह के बल  गिर पड़े. तो चट संभल जाए. इस तरह जीवन के कंधे पर निराशा का बोझ नहीं पड़ता.”

मोनिका से यह सब सुन कर उस को अचंभा हुआ और फिर वह भी मोनिका के  सुर मे सुर मिला कर बोल पड़ा, “हां मोनिका,  हरेक  पल को स्वीकार करना जरूरी है. स्वीकृति ही तो  हर चीज से मुक्त कर देती है. यही रास्ता है. स्वीकृति सहनशीलता से कहीं ज्यादा बेहतर है. लेकिन अगर हम जागरूक नहीं हैं, अगर स्वीकार करना आप के लिए संभव नहीं है और आप हर छोटीछोटी चीज के लिए भी  चिड़चिड़ा जाते हैं तो उस से बचने के  लिए  कम-से-कम कुछ  सहनशीलता तो विकसित कर ही लेनी चाहिए. मैं ने आज तक यही माना कि यह जीवन, बस,  एक सहनशीलता पर ही टिका  है.  मैं खुद कितनी छोटी उम्र से कैसे शहरशहर किसी का  नौकर बन कर  जूझ रहा हूं. मगर मैं हमेशा  यही देख पाता हूं कि कोई  चीज सुविधाजनक नहीं है, तो उस के बारे में शिकायत करने का क्या लाभ. सब स्वीकार कर लो,  यही  सब से अच्छा और आरामदायक  रास्ता है.”

यह सुन कर मोनिका उस से कैसे लता सी लिपटती गई थी.  तब से मोनिका के  हर स्पर्श में उस को  एक कोमलता लगती.  उसे बारबार महसूस होता कि वह एक पोखर है और उस के  समूचे उदास पानी  में वह एक लहर पैदा कर देती है. वह  अब एक ऐसी महत्त्वपूर्ण चीज थी जो परिभाषित तो नहीं हो पा रही थी पर वह कुछ ऐसी तो थी  जो  उस के मर्म पर  और आंतरिक  इच्छा पर राज करने लगी थी.

दिल्लगी बन गई दिल की लगी : भाग 2

मन मार कर मैं मंगनी में पहुंची. जब मैं अपनी कार से उतर रही थी. मैं ने मंसूर को देखा. मेरे दिमाग में बिजली सी चमकी. मैं चेहरे पर वही दिखावे का प्यार लिए मंसूर के पास जा पहुंची. मैं ने उस से कहा, ‘‘प्लीज मंसूर, मेरा एक काम कर दो.’’

‘‘तुम एक नहीं सौ काम बोलो, बंदा हाजिर है.’’ उस ने आशिकाना अंदाज में कहा.

‘‘मेरे पास अंगूरी रंग की चूडि़यां नहीं थीं. अम्मी ने मुझे बाजार जाने नहीं दिया. अभी मंगनी में वक्त है, तुम मुझे बाजार से मेरे सूट के कलर की चूडि़यां ला दो.’’ मैं ने कहा.

मैं पैसे निकालने लगी, पर उस ने मना कर दिया. मेरे सूट को गौर से देखते हुए कहा, ‘‘मैं चूडि़यां तो ला दूंगा, पर एक शर्त पर.’’

‘‘कैसी शर्त?’’ मैं ने पूछा.

‘‘वह मैं चूडि़यां लाने के बाद ही बताऊंगा.’’ इतना कह कर वह फौरन मोटरसाइकिल ले कर चला गया. मैं अंदर आ कर किरण से मिली. हमारे सभी दोस्त थे, मैं बातों में लग गई कि कानों में हल्की सी आवाज आई, ‘‘शीना.’’

मैं ने मुड़ कर देखा मंसूर था. मैं फौरन उस के पास गई. वहां से दूर हट कर उस ने चूडि़यों का पैकेट मेरे हाथों पर रख दिया. परफेक्ट मैचिंग की बेहद खूबसूरत चूडि़यां लाया था.

जैसे ही मैं चूडि़यां पहनने लगी, उस ने मेरे हाथ से चूडि़यां लेते हुए कहा, ‘‘इन्हें मैं पहनाऊंगा, यही तो मेरी शर्त थी.’’

कुछ कहने की गुंजाइश न थी. उस ने बड़े प्यार से चूडि़यां पहनाईं. मैं उस की आंखों की चमक से डर गई. मैं ने उस से मीठे लहजे में मिन्नत की, ‘‘देखो मंसूर, तुम्हारे साथ मोटरसाइकिल पर जाना या कहीं बैठना ठीक नहीं है. किसी जानने वाले ने देख लिया तो मेरी मुसीबत आ जाएगी. आइंदा मुझे मोटरसाइकिल पर बैठने को मत कहना.’’

‘‘ठीक है, पर तुम अम्मी से मिलने मेरे घर आती रहोगी.’’ उस ने कहा.

मेरे पास सिवाय वादा करने के और कोई रास्ता नहीं था. मैं ने किरण को मजे ले कर सारा किस्सा सुनाया. वह नाराज हो कर बोली, ‘‘किसी के दिल के साथ इस तरह खेलना अच्छी बात नहीं है. क्या तुम उस गरीब से शादी करोगी? नहीं न. जानती है, यह खेल उस की जान का रोग बन जाएगा. इतनी आसानी से वह तुम्हें नहीं छोड़ेगा.’’

मैं ने किरण को यकीन दिलाया कि आगे से ध्यान रखूंगी. मुझे किरण की बात सही लग रही थी, पर मैं अपनी फितरत से मजबूर थी. मुझे इस खेल में मजा आ रहा था. कोई मुझे सराहे, मुझे चाहे, मेरे लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाए. यह बात भला किसे बुरी लग सकती है.

अपना वादा निभाने के लिए मैं 2 सूट ले कर उस की अम्मी के पास सिलाने गई. मैं ने कहा, ‘‘खाला, मैं ये 2 सूट सिलवाने आई हूं.’’

उसी वक्त मंसूर कमरे से बाहर आ गया. मुझे देख कर वह खुश हो गया. कहने लगा, ‘‘अब अम्मी ने सिलाई का काम बंद कर दिया है. पर ये तुम्हारे सूट हैं, इसलिए जरूर सिलेंगी.’’

उस ने चाहतभरी नजर मुझ पर डाली. खाला ने जल्दी से कहा, ‘‘मेरी बेटी के सूट मैं खूब अच्छे से सीऊंगी, मंसूर जाओ, जल्दी से बेटी के लिए गरम समोसे और जलेबी ले आओ. तब तक मैं चाय बनाती हूं.’’

मेरे ना करने पर भी मंसूर चला गया. हम ने साथ बैठ कर मजे से समोसेजलेबी खाई और चाय पी. मंसूर मुझे देखता रहा. मेरी खातिरदारी करता रहा. जब मैं वापस आने लगी तो वह मुझे दरवाजे तक छोड़ने भी आया. उस ने धीमे से कहा, ‘‘शीना, कल इंस्टीट्यूट के बाहर मैं तुम्हारा इंतजार करूंगा, मुझे तुम से एक जरूरी बात करनी है.’’

जिस अंदाज में उस ने मुझ से यह बात कही थी मैं चौंक गई. मैं ने कहा, ‘‘मंसूर वह कौन सी जरूरी बात है जो तुम यहां नहीं कर सकते?’’

‘‘नहीं, यहां मुमकिन नहीं है, तुम परेशान न हो, मैं लंबी बात नहीं करूंगा.’’

दूसरे दिन मैं अपने वक्त पर इंस्टीट्यूट से निकली तो मंसूर इंतजार करते हुए मुझे बाहर मिला. उस ने मुझ से रेस्टोरेंट में चलने के लिए कहा तो मैं ने रेस्टोरेंट में जाने से मना कर दिया. वह मुझे एक करीबी पार्क में ले गया. वहां सन्नाटा था. वहां पहुंच कर उस ने एक पैकेट मेरी तरफ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘कल मुझे पहली सैलरी मिली. ये गिफ्ट तुम्हारे लिए है.’’

मैं ने कहा, ‘‘मेरे तुम्हारे बीच ऐसा कोई रिश्ता नहीं है कि मैं ये गिफ्ट ले लूं.’’

‘‘रिश्ता भी बन जाएगा. फिलहाल इसे स्वीकार कर लो.’’ वह बोला.

मैं ने पैकेट रख लिया. जब मैं अपने घर की तरफ मुड़ी तो उस ने मेरी तरफ अपनेपन की तरह देखते हुए कहा, ‘‘मुझे उस दिन का इंतजार है जब तुम जिद कर के हक जताते हुए मुझ से तोहफे मांगा करोगी.’’

मुझे यूं लगा जैसे किसी ने मेरे कानों में पिघला हुआ सीसा डाल दिया है. यानी वह मुझ से शादी करने के ख्वाब देख रहा था. दिल तो चाहा कि उस का गिफ्ट उस के मुंह पर मार दूं, मगर मैं चुपचाप गिफ्ट लिए घर आ गई. कमरा बंद कर के मैं बिस्तर पर लेट गई. सोचने लगी कि मैं ने मजाकजाक में एक जंजाल पीछे लगा लिया. लेकिन अब इस से छुटकारा पाना बहुत जरूरी था.

मंसूर के दिल में ये बात बैठ गई है तो वह अपनी मां को रिश्ता ले कर भी भेज सकता है. रिश्ता आने पर मेरी अम्मी और अब्बू जो भी फैसला करें पर मेरे इनकार से मंसूर और साफिया खाला के दिल जरूर टूट जाएंगे. अब मुझे महसूस हो रहा था कि मुझे मंसूर को इस तरह बढ़ावा नहीं देना चाहिए था. मेरे प्यार मेरे व्यवहार से ही वह मेरी तरफ आकर्षित हुआ, वरना पहले तो उस से केवल हायहैलो ही होती थी.

मेरा कंप्यूटर का कोर्स भी 2 दिन में पूरा होने वाला था. इसलिए मैं ने किरण को फोन किया कि वह अपने दोस्त फराज से मेरी जौब की बात करे. उस के वालिद की 2-3 कंपनियां हैं. उस में कहीं मुझे रख ले.

किरण ने कहा, ‘‘फराज मेरा दोस्त ही नहीं कजिन भी है. एक हफ्ते में मैं तुम्हें औफिस में सेट कर दूंगी.’’

उसी की बात से मुझे थोड़ी तसल्ली हुई. पता नहीं क्यों मेरे मेरे दिमाग में बारबार फराज का खयाल आने लगा. मैं अब जौब करना चाहती थी, पर घर का माहौल ऐसा था कि वह जौब नहीं करने देते. मैं ने बड़ी मुश्किल से अपनी अम्मी से जौब करने की इजाजत ली.

मेरे वालिद फराज के वालिद व उन के कारोबार को जानते थे. 3 दिन बाद मुझे कंपनी से अपाइंटमेंट लेटर मिल गया. फराज का औफिस किलीकटन पर था. मैं ने रिसेप्शन पर अपने बारे में बताया तो मुझे फौरन ही बुलाया गया. फराज बेहद स्मार्ट और खूबसूरत था. उस ने इंटरकाम के जरिए एक लड़की को बुलाया और कहा, ‘‘मिस शीना, ये मिस तबंदा हैं. ये जौब से रिजाइन कर रही हैं इन्हीं की जगह पर आप यहां मेरी प्राइवेट सेक्रेटरी का काम करेंगी. मिस तबंदा आप इन्हें काम के बारे में सब बातें अच्छे से समझा दीजिए.’’

वह मुझे ले कर बाहर आ गई. उस ने बताया कि मेरी शादी हो गई और मैं दुबई जा रही हूं. उस ने मुझे अच्छे से सारा काम समझा दिया. वह दिन भर मेरे साथ रही, मुझे गाइड करती रही. दूसरे रोज भी वह मेरे साथ रही. उस के बाद मैं ने बखूबी सारा काम संभाल लिया. मुझे एक केबिन मिला था. मेरी टेबल पर कंप्यूटर भी था, जो मुझे अच्छे से आता था और अपनी काबीलियत के बल पर मैं जल्द ही अच्छे से एडजस्ट हो गई.

इस बीच मेरी फराज से 2-3 मुलाकातें हुईं. उस के औफिस का रास्ता मेरे केबिन से हो कर गुजरता था. वह केवल काम से काम रखने वाला शख्स था. किसी से ज्यादा बात नहीं करता. काम होने पर ही केबिन में बुलाता था. अब उस ने मुझे अपने बिजनेस लेटर्स टाइप करने को दे दिए.

महीना खत्म होने पर मुझे अच्छीखासी सैलरी मिली. मैं खुश हो गई. मुझे फराज बहुत पसंद आया. वह मेरी ख्वाहिश के मुताबिक खूबसूरत होने के साथसाथ दौलतमंद भी था. धीरेधीरे मेरे हुस्न मेरी अदाओं से वह मेरी तरफ आसक्त होने लगा. फराज के वालिद कभीकभार ही औफिस आते थे, वह मुझ से बड़े प्यार से बात करते थे.

नजरिया- भाग 2: आखिर निखिल की मां अपनी बहू से क्या चाहती थी

15 दिन और बीत गए. आशी की सास रोज घर में आशी के बच्चे का लिंग परीक्षण करवाने के लिए कहतीं. निखिल की बहन भी फोन कर निखिल को समझाती कि आजकल तो उन की जातबिरादरी में सभी गर्भ में ही बच्चे का लिंग परीक्षण करवा लेते हैं ताकि यदि गर्भ में कन्या हो तो छुटकारा पा लिया जाए.

पहले तो निखिल को ये सब बातें दकियानूसी लगीं, पर फिर धीरेधीरे उसे भी लगने लगा कि यदि सभी ऐसा करवाते हैं, तो इस में बुराई भी क्या है?

उस दिन आशी अचानक फिर से मेरे घर आई. इधरउधर की बातों के बाद मैं ने पूछा, ‘‘कैसा महसूस करती हो अब? मौर्निंग सिकनैस ठीक हुई या नहीं? अब तो 4 महीने हो गए न?’’

‘‘ऋचा क्या बताऊं. आजकल न जाने निखिल को भी क्या हो गया है. कुछ सुनते ही नहीं मेरी. इस बार जब चैकअप के लिए गई तो डाक्टर से बोले कि देख लीजिए आप. पहले ही हमारी 2 बेटियां हैं, इस बार हम बेटी नहीं चाहते. ऋचा मुझे बहुत डर लग रहा है. अब तक तो बच्चे में धड़कन भी शुरू हो गई है… यदि निखिल न समझे और फिर से लड़की हुई तो कहीं मुझे गर्भपात न करवाना पड़े,’’ वह रोतेरोते कह रही थी, ‘‘नहीं ऋचा यह तो हत्या है, अपराध है… यह बच्चा गर्भ में है, तो किसी को नजर नहीं आ रहा. पैदा होने के बाद तो क्या पता मेरी दोनों बेटियों जैसा हो और उन जैसा न भी हो तो क्या फर्क पड़ता है. उस में भी जान तो है. उसे भी जीने का हक है. हमें क्या हक है अजन्मी बेटी की जान लेने का… यह तो जघन्य अपराध है और कानूनन भी यह गलत है. यदि पता लग जाए तो इस की तो सजा भी है. लिंग परीक्षण कर गर्भपात करने वाले डाक्टर भी सजा के हकदार हैं.’’

आशी बोले जा रही थी और उस की आंखों से आंसुओं की धारा बहे जा रही थी. मेरी आंखें भी नम हो गई थीं.

अत: मैं ने कहा, ‘‘देखो आशी, तुम्हें यह समय हंसीखुशी गुजारना चाहिए. मगर तुम रोज दुखी रहती हो… इस का पैदा होने वाले बच्चे पर भी असर पड़ता है. मैं तुम्हें एक उपाय बताती हूं. यदि निखिल तुम्हारी बात समझ जाए तो शायद तुम्हारी समस्या हल हो जाए… तुम्हें उसे यह समझाना होगा कि यह उस का भी बच्चा है. इस में उस का भी अंश है… एक मूवी है ‘साइलैंट स्क्रीम’ जिस में पूरी गर्भपात की प्रक्रिया दिखाई गई है. तुम आज ही निखिल को वह मूवी दिखाओ. शायद उसे देख कर उस का मन पिघल जाए. उस में सब दिखाया गया है कि कैसे अजन्मे भू्रण को सक्शन से टुकड़ेटुकड़े कर दिया जाता है और उस से पहले जब डाक्टर अपने औजार उस के पास लाता है तो वह कैसे तड़पता है, छटपटाता है और बारबार मुंह खोल कर रोता है, जिस की हम आवाज तो नहीं सुन सकते, किंतु देख तो सकते हैं. किंतु यदि उस के अपने मातापिता ही उस की हत्या करने पर उतारू हों तो वह किसे पुकारे? जब उस का शरीर मांस के लोथड़ों के रूप में बाहर आता है तो बेचारे का अंत हो जाता है. उस का सिर क्योंकि हड्डियों का बना होता है, इसलिए वह सक्शन द्वारा बाहर नहीं आ पाता तो किसी औजार से दबा कर उसे चूरचूर कर दिया जाता है… उस अजन्मे भू्रण का वहीं खात्मा हो जाता है. बेचारे की अपनी मां की कोख ही उस की कब्र हो जाती है. कितना दर्दनाक है… यदि वह भू्रण कुछ माह और अपनी मां के गर्भ में रह ले तो एक मासूम, खिलखिलाता हुआ बच्चा बन जाता है. फिर शायद सभी उसे बड़े प्यार व दुलार से गोद में उठाए फिरें. मुझे ऐसा लगता है कि शायद निखिल इस मूवी को देख लें तो फिर शायद अपनी मां की बात न मानें.

‘‘ठीक है, कोशिश करती हूं,’’ कह आशी थोड़ी देर बैठ घर चली गई.

मैं मन ही मन सोच रही थी कि एक औरत पुरुष के सामने इतना विवश क्यों हो जाती है कि अपने बच्चे को जन्म देने में भी उसे अपने पति की स्वीकृति लेनी होती है?

खैर, आशी ने रात को अपने पति निखिल को ‘साइलैंट स्क्रीम’ मूवी दिखाई. मैं बहुत उत्सुक थी कि अगले दिन आशी क्या खबर लाती है?

अगले दिन जब आशी बेटियों को स्कूल बस में बैठाने आई तो कुछ चहक सी रही थी, जो अच्छा संकेत था. फिर भी मेरा मन न माना तो मैं उसे सैर के लिए ले गई और फिर एकांत मिलते ही पूछ लिया, ‘‘क्या हुआ आशी, निखिल तुम्हारी बात मान गए? तुम ने मूवी दिखाई उन्हें?’’

वह कहने लगी, ‘‘हां ऋचा तुम कितनी अच्छी हो. तुम ने मेरे लिए कितना सोचा… जब रात को मैं ने निखिल को ‘साइलैंट स्क्रीम’ यूट्यूब पर दिखाई तो वे मुझे देख स्वयं भी रोने लगे और जब मैं ने बताया कि देखिए बच्चा कैसे तड़प रहा है तो फूटफूट कर रोने लगे. फिर मैं ने कहा कि यदि हमारे बच्चे का लिंग परीक्षण कर गर्भपात करवाया तो उस का भी यही हाल होगा… अब निखिल ने वादा किया है कि वे ऐसा नहीं होने देंगे. चाहे कुछ भी हो जाए.’’

मैं ने सोचा काश, आशी जो कह रही है वैसा ही हो. किंतु जैसे ही निखिल ने मां को अपना फैसला सुनाया कि चाहे बेटा हो या बेटी उसे कोई फर्क नहीं पड़ता. वह अपने बच्चे का लिंग परीक्षण नहीं करवाएगा तो उस की मां बिफर पड़ीं. कहने लगीं कि क्या तू ने भी आशी से पट्टी पढ़ ली है?’’

‘‘मां, यह मेरा फैसला है और मैं इसे हरगिज नहीं बदलूंगा,’’ निखिल बोला.

अब तो निखिल की मां आशी को रोज ताने मारतीं. निखिल का भी जीना हराम कर दिया था. निखिल ने मां को समझाने की बहुत कोशिश की कि वह आशी को ताने न दें. वह गर्भवती है, इस बात का ध्यान रखें.

आशी तो अपने मातापिता के घर भी नहीं जाना चाहती थी, क्योंकि वे भी तो यही चाहते थे कि बस आशी को एक बेटा हो जाए.

निखिल मां को समझाता, ‘‘मां, ये सब समाज के लोगों के बनाए नियम हैं कि बेटा वंश बढ़ाता है, बेटियां नहीं. इन के चलते ही लोग बेटियों की कोख में ही हत्या कर देते हैं. मां यह घोर अपराध है… तुम्हारी और दीदी की बातों में आ कर मैं यह अपराध करने जा रहा था, किंतु अब ऐसा नहीं होगा.’’

निखिल की बातें सुन कर एक बार को तो उस की मां को झटका सा लगा, पर पोते की चाह मन से निकलने का नाम ही नहीं ले रही थी.

कोरोना के बाद पहली होली

कोरोना के बाद पहली होली ‘होली’ एक ऐसा शब्द है, जिसे सुन कर हर देहाती नौजवान का दिल धड़क उठता है. उस का जीवन धिक्कार के लायक है, जिस ने होली पर गांव की लड़कियों से छेड़ाखानी न की हो. उस से भी बदतर वह है, जिस ने ससुराल की पहली होली के बारे में कुछ सुना न हो. मैं पढ़तेपढ़ते बीए तक जा पहुंचा था, लेकिन किसी पहली होली में शामिल होना नसीब नहीं हुआ था. 2 साल पहले होली पर मेरा नंबर तय था, क्योंकि मेरे एक खास दोस्त को ससुराल में पहली होली पर बुलाया गया था, फिर कोविड का साया आने लगा और लोग इधरउधर जाने से कतराने लगे. मेरे दोस्त ने भी अपनी बीवी को होली से पहले ही बुला लिया और ससुराल की होली से हम सब रह गए.

2 साल बाद इस बार उसे फिर गांव में होली खेलने बुलाया गया. मेरी भाभी ने जिद कर के मुझे ही चलने को कहा, क्योंकि मैं उन के नजदीक कुछ ज्यादा था और मेरे दोस्त हमारे इसी मजाक का मजा लेता था. होली के एक दिन पहले हम टैक्सी कर के गांव में उस के घर जा पहुंचे. लड़की वालों ने होली का बड़ा आयोजन किया था. मैं भाभी का प्यारा था और घर वालों से कई बार फेसटाइम पर बात कर चुका था. मेहमानों में सिर्फ मैं ही पढ़ालिखा था, इसलिए मुझे भरपूर इज्जत पाने की पूरी उम्मीद थी. लड़की वालों ने अच्छी आवभगत की. भाभी की सहेलियों ने रात को ही आ कर हम से ठिठोली करनी चालू कर दी. मैं गदगद हो गया, क्योंकि वे इतने मेहमानों को छोड़ कर मेरे ही आसपास मंडरा रही थीं. मुझे अपने लुभावनेपन का एहसास हुआ. मैं तन कर बैठ गया. मैं अभी तक कुंआरा था.

दिन ढल गया था. कुछ के मातापिता चाहते थे कि मेरी शादी उन की बेटी से हो जाए, इसलिए हम से कमरे के अंदर बैठने का अनुरोध किया गया. सभी लोग पलंगों और फर्श पर बिछे गद्दों को टटोलटटोल कर बैठ रहे थे. सभी चारपाइयों पर सुंदरसुंदर चादरें बिछी थीं. कोने वाला गद्दा खाली था. मैं ने सोचा कि इस से लड़कियों के नजारे अच्छी तरह देखे जा सकेंगे. साथ ही, यहां से मेरा रंगरूप भी बाहर से देखा जा सकता है, इसलिए मैं अकड़ कर बैठा, तभी धस्स… वह गद्दा था ही नहीं. वहां तो चारों ओर तकिए लगा कर चादर बिछा दी गई थी. मैं धंस गया. नीचे पापड़ थे, जो चरचर कर टूटने लगे. कुछ पर रंग लगा था. उस पर केवल चादर को अटका दिया गया था. मैं सीधे नीचे गिर गया.

पैर ऊपर और सिर नीचे. किसी ने मुझे उठाया. उस समय तो मैं गुस्से में तमतमाया, लेकिन जब देखा कि सब लोग ठहाके लगा कर हंस रहे हैं, तो मैं झेंप कर रह गया. सब से आगे एक बड़ी चौड़ी छातियों वाली शोख लड़की थी. लोग उसे पूर्णिमा सोनी कह रहे थे. पूर्णिमा ने तो मानोे मेरा मजाक उड़ाने की जिम्मेदारी ले ली. मैं ने उठने की कोशिश की तो उस ने हाथ बढ़ा दिया. मैं हाथ पकड़ कर उठ ही रहा था कि बीच में उस ने हाथ खींच लिया. मैं फिर जा गिरा पापड़ों पर. पर दूसरी बार उस ने जो खींचा तो ठीक उस की छातियों से जा टकराया. वह सुख उस दर्द से कम था, जो पापड़ों पर गिरने से मिला था. मैं अपनेआप पर झल्ला रहा था कि और लोगों की तरह मैं भी गद्दों को अच्छी तरह टटोल कर क्यों नहीं बैठा. तब तक लड़कियां कमरे में छेड़खानी करने चली आईं, जिस से इस बार पूर्णिमा ने अपने को लगभग जमीन पर लेट कर उठाने का अंदाज अपनाया था. दूसरी ने ठहाका लगाया, ‘‘पूर्णिमा, मार ले अपनी… देख तो मर्द भी है या नहीं.’’ मैं बुरी तरह शरमा भी गया और शर्मिंदा भी हो गया.

खाना खाने का वक्त हो गया था. खाने का इंतजाम लड़की के चाचाजी ने किया था, जिन का घर बगल में ही था. हमें खाने के लिए वहीं बुलाया गया. सभी ने अपनेअपने चेहरे को एक बार धोया. कपड़े बदले. शीशे में निहारा. फिर खाने चल दिए. गांव में बिजली तो थी, पर गली में नहीं. थोड़ा अंधेरा हो गया था. सब लोग संभलसंभल कर चल रहे थे. आखिर वे गांव वाले जो ठहरे. मैं शहर में कालेज का विद्यार्थी होने के नाते गरदन ऊंची कर के चलूं, यह लाजिमी था. मैं सब से आगे हो गया. घर के दरवाजे पर साफसाफ दिखाई नहीं दे रहा था, पर मैं तन कर सीधा आगे बढ़ा जा रहा था. अंदर से रोशनी सीधी मेरी आंखों पर पड़ रही थी. तभी मेरे पैर दरवाजे पर आड़ी बंधी रस्सी में उलझ गए.

मैं कटे पेड़ की तरह धड़ाम से गिर गया. मेरे कपड़े वहां जमा की गई रेत से गंदे हो गए. घुटनों में रगड़ लग गई, दर्द होने लगा. सभी लोग नहीं देख पाए थे, इसलिए मैं तुरंत उठ गया. लेकिन ओट में छिपी पूर्णिमा ने ठहाके लगाना चालू कर दिया. और तो और मेरे साथ वाले भी मुझ पर हंस रहे थे. मेरे रोने में बस थोड़ी ही कसर बाकी थी. ‘‘बस, लड़कियों को देख कर फिसल गए जानूं,’’ एक आवाज आई. मैं ने टटोल कर चश्मा उठाया और फिर घर में घुसा. तभी मेरे जेहन में यह बात आई कि क्यों न दोस्त के साथ ही रहा जाए. वह तो अब पुराना हो चुका है. हालांकि पहली बार ससुराल आया था शादी के बाद. मैं तुरंत उस के साथ चलने लगा. गांवों में घरों में जूते ले जाना नहीं होता, इसलिए उस समय मुझे भी अपने जूते बाहर ही खोलने पड़े. भोजन के समय तरहतरह के पकवान परोसे गए. खाना स्वादिष्ठ था, इसलिए सभी लोग चटकारे लेले कर देर तक खाते रहे. जब सभी लोगों के साथ खापी कर मैं बाहर निकला, तो मुझे अपने जूते नहीं मिले. मैं ने एक बार तो चुपकेचुपके इधरउधर देखा, लेकिन वे कहीं नहीं मिले. हाल ही में मैं ने उन्हें उसे 1,500 रुपए में खरीदा था. कहीं चोरी तो नहीं हो गए… यह सोच कर आखिर मुझे सब को बताना ही पड़ा.

यह सुन कर सभी लोग खिलखिला पड़े. मामला धीरेधीरे समझ में आ गया. दोस्त की साली ने गलती से उस के जूते की जगह मेरे जूते उठा लिए थे. नतीजतन, मुझे नंगे पैर ही चलना पड़ा. पैरों में कंकड़ चुभ रहे थे. बड़ी मुश्किल से मैं ठहराव वाली जगह पर पहुंचा. तभी पूर्णिमा सब की एजेंट बन कर आई और जमाई साहब से जूतों के बदले 2,000 रुपए की मांग करने लगी. जमाई के जूते तो उस के पास सलामत थे ही, इसलिए उस ने एक भी पैसा देने से इनकार कर दिया. जब उस की साली को यह पता लगा कि वे जूते उस के जीजाजी के नहीं, बल्कि मेरे थे, तो वह सीधी मेरे पास आई और 1,000 रुपए की मांग करने लगी.

मुझे गुस्सा आ गया. मैं ने उसे फटकारा, ‘‘जब मैं तुम्हारा जीजा ही नहीं हूं, तो मुझे क्यों परेशान कर रही हो? मेरे जूते तुरंत वापस करो.’’ पर इस का कोई असर पूर्णिमा पर नहीं हुआ. थोड़ी इठला कर वह बोली, ‘‘इतनी सारी लड़कियां हैं, किसी को पसंद कर के जीजा बन जाओ न. यह तो आप की हिम्मत पर है. हमें तो जूते छिपाई के पैसे चाहिए, चाहे यह जीजा दे, दूसरा नया जीजा. जनाब, नए जूते खरीद लेना, मैं तो चली.’’ आखिर में मैं ने बड़ी मिन्नत के बाद 500 रुपए दे कर अपने जूते छुड़ाए. हां, बदले में पूर्णिमा एक बड़ा लंबा किस सब के सामने दी गई. रात के 9 बजे गए थे. सभी मेहमान सोेने के लिए पलंगों पर लेट गए?थे. अब कोई चिंता की बात नहीं थी, इसलिए मैं भी लेट गया. तभी सामने चबूतरे पर कुछ औरतें जमा होने लगीं. मुझे खतरे की आशंका हुई. पर जब वे मिल कर गीत गाने लगीं, तो दिल को थोड़ी शांति मिली. मिलीजुली आवाज में गीत अच्छे लगे थे. कुछ देर बाद नाचने वाले गीत गाए जाने लगे. तब लेटे हुए लोग उठ कर धीरेधीरे बैठ गए, तो मैं भी बैठ गया.

गीतों का सार बदलने लगा. बाद में तो गीतों ही गीतों में समधियों पर गालियों की बौछारें भी शुरू कर दी गईं. इस तरह का मजाक आज भी चलता है, यह मुझे नहीं मालूम था. पता चला कि इस तरह के गीत गाने वाली लड़कियां असाइनमैंट पर आती हैं. दोस्त की ससुराल वालों ने खासतौर पर बुलाई हैं. 2 साल बाद होली मजे में मन रही थी, इसलिए कोई भी कसर नहीं छोड़ रहा था. उन गीतों में देशी मजाक भरा हुआ था. बच्चेबूढ़े सभी हंस रहे थे. गीतों में उन लोगों ने लड़की के 100 साल के दादाजी का विवाह जमाई की बूढ़ी दादी से करने का प्रस्ताव रख दिया. फिर आए हुए मेहमानों का नाम ले कर खिंचाई करने लगीं. तब हंसतेहंसते मेरा भी बुरा हाल हो गया था.

थोड़ी देर बाद जब गीत में मेरा भी नाम आया, तो मेरी हंसी बंद हो गई. जब गीत में यह कहा गया कि मेरी मां मेरे पिताजी के बस में नहीं रहतीं. वे गांव में इधरउधर ताकझांक करती रहती हैं, तो सभी लोग मेरी तरफ मुंह कर के ठहाके लगाने लगे. उस समय मेरी सूरत देखने लायक थी. मैं कहीं रो न पड़ूं, इसलिए अपना चेहरा मास्क से ढक कर लेट गया. जब सब की भद्द करने के बाद गीत गाने वालियां चली गईं, तभी हम सभी को चैन आया और हम सो गए. सुबह जब हम लोग जगे, तब खातिरदारी के लिए मेजबान तैयार थे. नाश्ते में देशी घी में बना गरमागरम हलवा खा कर मन खुश हो गया. लड़कियों की मीठी छेड़खानियों से तो दिल बागबाग हो ही रहा था. फिर हमें कहा गया कि खेत पर ट्यूबवैल में नहाना बहुत अच्छा लगेगा. मेरे लिए यह नया मौका था. वहां युवतियां भी थीं और उन से मजाक और नहाना साथसाथ होता रहा. सब ने जम कर होली मनाई. एक लड़की ने तो मुझे पस्त कर दिया. मुझे नहीं मालूम था कि गांव की लड़कियां इतनी दमदार होती हैं. वापस हम लड़की के घर पहुंचे ही थे कि ऊपर से किसी ने पानी की बालटी में लाल रंग का कीचड़ सा उड़ेल दिया, जो सारा का सारा मुझ पर ही गिरा. मुझे देख कर सभी हंसने लगे. तब मुझे गुस्सा आ गया. मैं गरज पड़ा, ‘‘तमीज नहीं है इन लोगों में. मजाक भी ढंग से होता?है.

ऐसे गंवार लोगों के यहां अब एक पल भी मैं नहीं ठहरूंगा.’’ ऐसी होली कौन खेलता है. मैं गुस्से में कमरे में जा बैठा. मेरे साथियों के समझाने व लड़की वालों की तरफ से माफी मांगने पर ही मैं रुकने पर राजी हुआ. इसी दौरान 1-2 और दूसरे मेहमानों पर भी रंग पड़ चुका था, इसलिए भी थोड़ा मेरा गुस्सा कम हुआ. अब मेरे पास न तो कोई और कपड़े थे और न दोबारा नहाने का समय ही. खाना खाने का वक्त हो गया था. तब एक लड़की आई और अपना टौप और जींस दे गई कि इसे पहन लो. खाने वाले कमरे में सभी दौड़ कर घुस रहे थे. अंदर 2 जवान लड़कियां दरवाजे की ओट में खड़ी हो कर घूंसे बरसा रही थीं. घूंसा खाने वाला आदमी मर्दानगी दिखाने के चक्कर में अपनी पीठ सहलाता भी नहीं था.

मेरी घिग्घी बंध गई. जाता तो घूंसे खाने पड़ते और नहीं जाता तो खिल्ली उड़ने का डर था. आखिर हिम्मत कर के मैं घुसने के लिए तैयार हो गया. मैं ने सोचा, एक घूंसा ही तो खाना पड़ेगा. मैं जैसे ही कमरे में दाखिल हुआ, वैसे ही एक जवान लड़की ने अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए घूंसे से मेरे कंधे पर हमला किया. मैं तिलमिला गया. मुझे चक्कर आ गया. मैं गिर गया. किसी ने मुझे पकड़ कर उठाया व पानी पिलाया. काफी देर तक मेरा कंधा दुखता रहा, पर स्वादिष्ठ खाना खाने के बाद मैं वह दर्द भूल गया. चलने का समय आ गया था. गांवों के रिवाज के अनुसार चलते समय सभी मेहमानों को एकएक कर के पाटे पर बैठा कर उन को गुलाल लगाने और एक गिलास, कुछ उपहार भेंट के तौर पर देने की तैयारी की जाने लगी.

एक पान भी दिया गया, जिस से खुशबू आ रही थी. मैं ने उसे मुंह में डाला तो चबाते ही मुंह धूल से भर गया. मैं असमंजस में पड़ गया. उसे थूकूं तो कहां? पूरा चबूतरा खचाखच भरा था. ‘‘मेहमानजी, आप किस कालेज में पढ़ते हैं?’’ एक मेजबान ने दबी हंसी में पूछा. मुझ से कुछ बोलते न बना. अगर मुंह खोलता तो मिट्टी गले में चली जाती. ‘‘अरे, थोड़ी देर पहले तो यह भलाचंगा था. अचानक यह गूंगा कैसे हो गया?’’ पास ही खड़ी एक लड़की ने अपने बगल में खड़ी सहेली से शरारती अंदाज में पूछा. मैं भकुआ कर असहाय सा देखने लगा. फिर उन्होंने मुझे माला पहनाई. मुझे लग रहा था, जैसे जूते मार कर वे विदा कर रहे हों. मैं उठ कर बाहर आया व धूल को थूक दिया. वहीं पर एक लड़की पानी लिए खड़ी थी. अच्छी तरह कुल्ला करने के बाद मैं वापस आया, तो मुझे दूसरा पान दिया गया.

मैं पागल की तरह एक बार पान को देखता, फिर लोगों को. आखिर मैं ने साहस कर के पान को मुंह में डाल ही लिया. उस में धूल नहीं थी. फिर लड़की की विदाई की जाने लगी. वह जोरजोर से रो रही थी और धीरेधीरे कदम बढ़ा रही थी. जमाई के साथ गए सभी लोग भी लौटने की तैयारी कर रहे थे. मुझे तो इतना कष्ट झेलने के बाद भी वहां से लौटने का मन नहीं कर रहा था. आज भी गांव की होली का नाम आते ही मेरा मन मचल उठता है. सोचता हूं, फिर किसी की पहली होली में जाने का मौका मुझे मिलता तो कितना अच्छा होता.

तुम ऐसी निकलीं – भाग 1: फरेबी आशिक की मोहब्बत

मन का बोधबिंदु जब  बारबार यह कहने लगता है कि अरे, यह  कहां खप रहे हो, यह कौन सी बेहया सी चीज सोख ली तुम ने, तब ऐसा होता ही है कि कोई तूफान फड़फड़ा कर आ जाता है जो न जाने क्या-क्या उड़ा ले जाता है और जाने क्याक्या थमा जाता है.

दिल्ली के सदर बाजार  से  जाती तंग सी एक छोटी गली को मटर गली कहा जाता था. मटर गली नाम किस ने रखा, यह पता नहीं, पर यहां के सब से बुजुर्ग बुद्धि काका 7-8  दिनों पहले उस को  बता रहे थे  कि उन के दादाजी भी इस जगह को  इसी नाम से पुकारते थे. तब यहां एक  विशाल मंडी हुआ करती थी. उस मंडी में किसान सब्जियां लाते थे- अदरक, हलदी,  लहसुन,  प्याज आदि. ठेठ पहाड़ी रईस अपने टटटू की  आर्मी ले कर मनचाहा माल यानी अदरक, लहसुन, प्याज लाद कर ले जाते. पहाड़ी लोग बगैर इन बेशकीमती लहसुन, प्याज के मांस वगैरह को बेस्वाद ही समझते थे. तब से ही हर  आमओखास की पसंद थी यह मटर गली.

पर, अब इस का चेहरामोहरा  बदल सा गया है. यह जगह अब सब्जी मंडी तो कम बल्कि मिलीजुली मार्केट बन गई है जहां देसी दवाओं से ले कर कपड़े, कफन, वरमाला, मोतियों के हार और जूतेचप्पल आदि सबकुछ मिल जाता है.

यहीं मटर गली से पतली सी  पगडंडी आगे राजपुरा कालोनी की तरफ  जा रही है. पहले यहां सब कैसा था, यह तो  उस को कुछ भी  मालूम नहीं मगर मोनिका ने बताया था कि  पहले भी यह  एकदम कच्ची हुआ करती थी और आज भी  कच्ची  ही रह गई है यह पगडंडी.

वह इसी पगडंडी पर कैसे संभलसंभल कर  चलते हुए पहली बार मोनिका  से मिलने गया था. मोनिका का बाप यहां मटरगली  में ही घड़ी ठीक करने का  काम करता था और कुछ दलाली वाले  वैधअवैध काम भी  करता था. उस दोपहर मोनिका  परदे से सटी  उस का इंतजार कर रही थी जब वह उस के टैंटनुमा घर पर पहुंचा  था.

मगर उस की निगाह न घर पर थी न उस की साजसजावट पर. वह अपनी दोनों आंखों से बस मोनिका पर ही टिका था. उस दिन भी और उस के बाद भी हर दिन. यों मोनिका  से उस की पहली मुलाकात अचानक सर्कस के प्रांगण में तकरीबन एक महीना  पहले ही  हुई थी  जब उस ने अपने मालिक के  साथ बैडशीट और चादरों की  स्टाल सर्कस मैदान में  ही लगा रखी थी.

यह भीड़ बनाने के लिए एक प्रयोग के तहत किया गया था और  चादरों की  यह दुकान सर्कस मालिक से इकरारनामे के अंतर्गत बुकिंग विंडो से सट कर लगाई गई थी. ऐसा प्रयोग सर्कस में पहली बार हुआ था और उस को यह लगता था कि यहां पर सस्ती व मंहगी चादर दिखाएं, फिर बेचने में कामयाब होएं. यह भी तो सर्कस की  विधा यानी  एक कलाबाजी ही थी.

वह और उस का मालिक एक दोपहर यही हिसाब कर रहे थे कि एक दिन में 4 शो हैं और लगभग 2 हजार लोग यहां आ रहे हैं. अभी सर्कस 20 दिन और है. तो क्यों न पानीपत, पिलखुवा  और जयपुर  से चादरों की  एकदो गांठें ऐसी मंगाई जाएं जो सस्ती, सुंदर और टिकाऊ हों. वह एक बात  की चर्चा  कर के मालिक के  साथ हंस  रहा था कि मोनिका अचानक ही  सामने आ गई और पूछने लगी कि, ‘10 चादरों को एकसाथ खरीदने  में कितना डिसकाउंट मिलता है?’ एक युवती को ग्राहक के तौर पर  देखा तो मालिक ने यह बातचीत और बिक्री का पूरा  तूफान उस के भरोसे छोड़ दिया और  सामने से हट गया. कुछ ही लमहों बाद वह दूसरे टैंट  की तरफ निकल गया.

अब मोनिका आराम से   बैठ  गई और एक चादर की  तरफ अपनी उंगली से  इशारा करती हुई उस की डिटेल्स  पूछने लगी. तकरीबन 20 मिनट के वार्त्तालाप में वह साफ जान गया था कि  यह आत्मनिर्भर युवती है और घर की  गाड़ी की  स्टेयरिंग  भलीभांति संभाले है. उस ने दर्जनों चादरों से मोनिका का  परिचय कराया. वह चादरों का  कपड़ा और उन के  प्रिंट देखने के लिए कभीकभी उस के बहुत करीब भी आ रही थी.  उस के बदन से किसी मोगरे  वाले साबुन की  भीनीभीनी महक आ रही थी.  मोनिका कुछ न कुछ बोले जा रही थी, मगर मोगरे की  महक से उस को कुछ याद आ रहा था. हां,  उस को  अब याद आया, 2 साल पहले वह मालिक के  साथ  ओडिशा एक  मेले में गया था, तब वे चादरें, साडी़, कुरते और रंगबिरंगी  ओढ़नी भी बेचा करते थे. वहां मेले में उन की दुकान लगी थी. पास ही के भोजनालय वाली छिम्मा से उस का काफी करीब का यानी दैहिक संबंध बन गया था.

वह जब भी उस को अपने पास बुलाया करती, ऐसे ही किसी साबुन से नहा कर  तैयार रहती थी. मगर वह छिम्मा को ज्यादा बरदाश्त नहीं कर पाया था. 10-12 दिनों  बाद जब वह उस के पास ही था  तो उस को इस महक से उलटी सी आने लगी थी.  तब छिम्मा ने राई और मिर्च से  नजर उतार कर, नींबूपानी मिला कर  उस की कितनी सेवा की  थी. उस के बाद तो जल्दी ही मेला भी उठ गया था  और  अब वह  छिम्मा को गलती से भी याद नहीं किया करता कि कैसे हैदराबाद की  रमा  और गोवा की डेल्मा की  तरह उस पर कोई  रुपया खर्च  ही नहीं करना पड़ा था.

छिम्मा तो हवा, पानी, सूरज की रोशनी की  तरह बिलकुल ही  फोकट में उस को  हासिल हो  गई थी. पर, वह आज,  बस, इसी महक के  कारण छिम्मा  को याद कर रहा था. लेकिन आज बात उलटी थी कि  उसे उलटी नहीं आ रही थी, जबकि उस का दिल बारबार  यह कह रहा था कि मोनिका पर वह महक खूब  भा  रही थी.

जैसे दोपहर की  अपेक्षा शाम को नदी का तट बहुत ही अच्छा लगता है वैसे ही वह इन दिनों जैसे किसी नदी का कोई सूना सा तट था और मोनिका एक  भीनीभीनी  शाम.  तो अब उस को नाम भी पता लग गया क्योंकि कुछ मिनट पहले ही उस का फोन बजा था और वह हौले से बोली थी,  ‘जी नहीं, गलत नंबर लग गया है,  मैं मोनिका हूं, लतिका नहीं. अभी उस का टाइम है.’ यह कह कर मोनिका ने फोन डिस्कनैक्ट किया और फिर उस ने सर्कस के ही एक सहायक लड़के को आवाज  लगा कर कड़क चाय लाने को कहा.

तब उस ने हंस कर मोनिका को  चाय का प्याला पीने का प्रस्ताव दिया  और उस ने पहले तो गरदन हिला कर जरा सा मना किया पर अगले ही पल अच्छा ,”हां चाय ले लूंगी” कह कर   पेशकश स्वीकार की. तब मोनिका ने अपने कोमल होंठों से कप को स्पर्श करते हुए  बताया था कि इस चादर की दुकान का  परिचय करवाया 2 दिनों पहले के  अखबार ने. उस में एक छोटा सा विज्ञापन था.  कलपरसों तो बारिश थी, इसलिए आज आ पाई. उस दिन मोनिका चादरें खरीद कर ले गई और उस ने पहली मुलाकात में  कितनी भारीभरकम छूट दे दी थी, लगभग आधे से कम  दाम.

दिल्लगी बन गई दिल की लगी : भाग 1

मैं बचपन से आजादखयाल, शोख व चंचल थी. हंसीमजाक, छेड़छाड़ और शरारत करना मेरा शौक था. हमारा  परिवार काफी खुशहाल था. पैसे की कोई कमी नहीं थी. घर से मुझे जेब खर्च के लिए अच्छीखासी रकम मिलती थी. मेरा अच्छा रहनसहन देख कर लोग जल्द ही मुझे तवज्जो देने लगे थे.

कालेज में मैं जल्द ही बहुत पापुलर हो गई. अच्छेअच्छे लड़के मुझ से दोस्ती करने आने लगे. मेरी ऐसी आदत थी कि मैं हर एक से दोस्ती कर लेती थी. किसी का दिल तोड़ना मुझे अच्छा नहीं लगता था. मैं सब के साथ घुलमिल कर खुश रहती थी.  सभी दोस्तों के साथ हंसतेखेलते 3 साल गुजर गए. मेरी ग्रैजुएशन की पढ़ाई पूरी हो गई.

मैं पोस्ट गै्रजुएशन करना चाहती थी, पर आगे पढ़ने की इजाजत अम्मी ने नहीं दी. उन्होंने कहा, ‘‘बेटा अब तुम घर पर रह कर घर के कामकाज सीखो. जल्द ही अच्छा लड़का देख कर तुम्हारी शादी कर देंगे.’’

एक दिन मैं दोपहर के समय शौपिंग कर के लौट रही थी, तभी रास्ते में औटो खराब हो गया. मैं दूसरे औटो के आने का इंतजार करने लगी. जब कोई औटो नहीं मिला तो सामान उठा कर मैं पैदल ही घर के लिए चल पड़ी.

मैं थोड़ी दूर चली थी कि अचानक मंसूर आ गया. मुझे देख कर वह रुक गया. मुझे पसीने से भीगा देख कर बोला, ‘‘इतनी तेज धूप में सामान लिए पैदल कहां जा रही हो?’’

मैं ने कहा, ‘‘औटोरिक्शा खराब हो गया था, इसलिए पैदल ही घर जा रही हूं.’’

‘‘लाओ सामान मुझे दो. मैं पहुंचाए देता हूं.’’ उस ने कहा.

मैं ने आवाज में मोहब्बत भर कर कहा, ‘‘आप को हमारी इतनी फिक्र कब से होने लगी.’’

उस ने मुझे हैरानी से देखा तो मैं ने रोमांटिक होते हुए कहा, ‘‘आप को देख लिया, यही काफी है. सामान रहने दो.’’

इस के बाद उस ने मुझे कुछ उलझन भरी नजरों से देखा. उस के बाद मेरे हाथ से सामान ले कर साथ चलने लगा. घर पहुंचने पर वह बरामदे में सामान रख कर जाने लगा तो मैं ने कहा, ‘‘शुक्रिया, आओ बैठो, चाय पी कर जाना.’’

‘‘नहीं, रहने दो. फिर कभी पी लूंगा.’’ कह कर वह चला गया.

मंसूर हमारे मोहल्ले की एक गरीब औरत साफिया का एकलौता बेटा था. मोहल्ले के सभी लोग साफिया को खाला कहते थे. साफिया खाला के बारे में हम बस इतना जानते थे कि वह सिलाई कर के गुजरबसर करती हैं. आर्थिक तंगी के बावजूद उन्होंने मंसूर को अच्छी तालीम दिलवाई थी. अब वह नौकरी की तलाश में था.

खाला को उम्मीद थी कि मंसूर की नौकरी लगने के बाद उस के बुरे दिन दूर हो जाएंगे. आज मैं ने मजाक में उस के दिल में गलतफहमी डाल दी थी. मेरी दोस्त किरण यूनिवसिर्टी में पढ़ रही थी. उस का घराना लखपति था, बाप के कारखाने थे, पर उसे एक लड़के जमील से मोहब्बत हो गई थी, जबकि जमील ने उस की मोहब्बत को कबूल नहीं किया था.

उस ने कहा था, ‘‘आज जज्बात और मोहब्बत के जोश में आ कर तुम मुझ से शादी कर लोगी. तुम्हारे मांबाप हरगिज मुझे कबूल नहीं करेंगे और मेरी गरीबी से तुम जल्द ही तंग आ जाओगी, क्योंकि तुम जिस तरह ऐशोइशरत में रहती हो, वह तुम्हारी आदत बन चुकी है. इसलिए बेहतर है कि तुम मुझे भूल जाओ और मुझे मेरी मंजिल तलाश करने दो.’’

किरण अपनी नाकाम मोहब्बत की कहानी मुझे सुनाती रहती थी. इस के अलावा फराज और मीना भी. घर के कामकाज निपटाने के बाद मैं खाली हो जाती तो मेरा मन नहीं लगता था. किरण, मीना, फराज मेरे अच्छे दोस्त थे. यह सभी अमीर घरानों से ताल्लुक रखते थे. जब मुझे पता चला कि फराज के बाप की कई कंपनियां हैं तो मैं ने किरण से कहा कि वह फराज से बात कर के कहीं मेरी भी नौकरी लगवा दे.

किरण ने मुझे कंप्यूटर का कोर्स करने की सलाह दी. कोर्स पूरा होने के बाद वह फराज से बात कर लेगी. मैं ने कंप्यूटर कोर्स करने के बारे में अम्मी से बात की. वह मना कर रही थीं, पर मैं ने उन्हें मना लिया और एक अच्छे कंप्यूटर इंस्टीट्यूट में दाखिला ले लिया.

एक दिन मैं जब इंस्टीट्यूट से लौट रही थी तो मुझे मंसूर मिल गया. वह मोटरसाइकिल पर था. उस दिन वह अच्छे और महंगे कपडे़ पहने था. उस ने मोटरसाइकिल रोक कर मुझ से कहा, ‘‘आओ मोटरसाइकिल पर बैठ जाओ, मैं तुम्हें घर छोड़ देता हूं.’’

‘‘इंकार कर के क्यों गरीब का दिल तोड़ती हो.’’ कह कर उस ने बेतकल्लुफी से मेरा हाथ पकड़ कर मुझे पीछे बैठने पर मजबूर कर दिया. मैं अंदर ही अंदर गुस्सा हुई. मंसूर के इस व्यवहार से मुझे लगा कि उस दिन जो मैं ने इस से मुसकरा कर बात की थी, कहीं उस का इस ने गलत मायने तो नहीं निकाल लिया.

अब मुझे अपनी शरारत और दिखावे की मोहब्बत बहुत बुरी लग रही थी. मैं ने मन ही मन सोच लिया कि अब मैं मंसूर को जरा भी लिफ्ट नहीं दूंगी, वरना यह मेरे पीछे ही पड़ जाएगा.

रास्ते में मंसूर ने मुझे बताया कि उस की एक अच्छी कंपनी में नौकरी लग गई है. यह मोटरसाइकिल उसे कंपनी से ही मिली है. मोटरसाइकिल एक स्टाल के सामने रोक कर उस ने कहा, ‘‘आओ, एकएक कोल्डड्रिंक हो जाए.’’

वहां कुछ अन्य लोग खड़े थे. मैं इंकार कर के उन सब के सामने तमाशा नहीं बनना चाहती थी, इसलिए उस के साथ चली गई. मैं ने उसे जौब की मुबारकबाद दी तो उस ने कहा, ‘‘जौब की मुझे सख्त जरूरत थी. अम्मी बीमार रहती हैं और अब वह अकेले रहतेरहते तंग आ गई हैं. उन्हें किसी के साथ की जरूरत है.’’

यह कह कर मंसूर ने प्यार से मुझे देखा. मैं परेशान हो गई. घर पहुंच कर मैं ने बहुत सोचा. पहले दिन शरारत में मैं ने मंसूर से जो प्यार जताया था, यह उसी का नतीजा था. वह मुझे अपनी मोहब्बत समझ बैठा था. मेरे जमीर ने मुझे चेताया, ‘‘अगर मोहब्बत जताई है तो उसे निभाओ. अब उस का दिल न तोडो. साथ निभाओ.’’

मैं ने सोचा कि मैं जिस तरह की ऐशोआराम की जिंदगी की आदी हूं, लगीबंधी तनख्वाह और छोटे से घर में खुश नहीं रह सकती. माना कि मंसूर एक अच्छा लड़का है, पर उस के पास इतना पैसा नहीं है कि उस के साथ मैं खुश रह सकूंगी. इसलिए मैं ने मन ही मन तय किया कि मैं मंसूर को नहीं अपनाऊंगी.

दिन गुजरते रहे. काफी दिनों तक मंसूर मुझे नजर नहीं आया. बात मेरे दिमाग से निकल गई. मेरी सहेली किरण की मंगनी थी. उस ने बडे़ प्यार से मुझे बुलाया. उस की मंगनी में ग्रुप के सभी दोस्त आने वाले थे. मैं ने अंगूरी कलर का नया सूट पहना था, जो मुझ पर खूब फब रहा था. उसी रंग की ज्वैलरी पहन कर मैं और ज्यादा खूबसूरत लग रही थी, पर मेरे पास अंगूरी रंग की चूडि़यां नहीं थीं. जिस की वजह से सारा शृंगार अधूरा लग रहा था.

नजरिया- भाग 1: आखिर निखिल की मां अपनी बहू से क्या चाहती थी

आज आशी जब अपनी जुड़वां बेटियों को स्कूल बस में छोड़ने आई तो रोज की तरह नहीं खिलखिला रही थी. मैं उस की चुप्पी देख कर समझ गई कि जरूर कोई बात है, क्योंकि आशी और चुप्पी का तो दूरदूर तक का वास्ता नहीं है.

आशी मेरी सब से प्यारी सहेली है, जिस की 2 जुड़वां बेटियां मेरी बेटी प्रिशा के स्कूल में साथसाथ पढ़ती हैं. मैं आशी को 3 सालों से जानती हूं. मात्र 21 वर्ष की उम्र में उस का अमीर परिवार में विवाह हो गया था और फिर 1 ही साल में 2 जुड़वां बेटियां पैदा हो गईं. रोज बच्चों को बस में बैठा कर हम दोनों सुबह की सैर को निकल जातीं. स्वास्थ्य लाभ के साथसाथ अपने मन की बातों का आदानप्रदान भी हो जाता. किंतु उस के चेहरे पर आज उदासी देख कर मेरा मन न माना तो मैं ने पूछ ही लिया, ‘‘क्या बात है आशी, आज इतनी उदास क्यों हो?’’

‘‘क्या बताऊं ऋचा घर में सभी तीसरा बच्चा चाहते हैं. बड़ी मुश्किल से तो दोनों बेटियों को संभाल पाती हूं. तीसरे बच्चे को कैसे संभालूंगी? यदि एक बच्चा और हो गया तो मैं तो मशीन बन कर रह जाऊंगी.’’

‘‘तो यह बात है,’’ मैं ने कहा, ‘‘तुम्हारे पति निखिल क्या कहते हैं?’’

‘‘निखिल को नहीं उन की मां को चाहिए बच्चा. उन का कहना है कि इतनी बड़ी जायदाद का कोई वारिस मिल जाता तो अच्छा रहता. असल में उन्हें एक पोता चाहिए.’’

‘‘पर क्या गारंटी है कि इस बार पोता ही होगा? यदि पोती हुई तो क्या वारिस पैदा करने के लिए चौथा बच्चा भी पैदा करोगी?’’

‘‘वही तो. पर निखिल की मां को कौन समझाए. फिर वे ही नहीं मेरे अपने मातापिता भी यही चाहते हैं. उन का कहना है कि बेटियां तो विवाह कर पराए घर चली जाएंगी. वंशवृद्धि तो बेटे से ही होती है.’’

‘‘तुम्हारे पति निखिल क्या कहते हैं?’’

‘‘वैसे तो निखिल बेटेबेटी में कोई फर्क नहीं समझते. किंतु उन का भी कहना है कि पहली बार में ही जुड़वां बेटियां हो गईं वरना क्या हम दूसरी बार कोशिश न करते? एक कोशिश करने में कोई हरज नहीं… सब को वंशवृद्धि के लिए लड़का चाहिए बस… मेरे शरीर, मेरी इच्छाओं के बारे में तो कोई नहीं सोचता और न ही मेरे स्वास्थ्य के बारे में… जैसे मैं कोई औरत नहीं वंशवृद्धि की मशीन हूं… 2 बच्चे पहले से हैं और बेटे की चाह में तीसरे को लाना कहां तक उचित है?’’

मैं सोचती थी कि जमाना बदल गया है, लेकिन आशी की बात सुन कर लगा कि हमारा समाज आज भी पुरातन विचारों से जकड़ा हुआ है. बेटेबेटी का फर्क सिर्फ गांवों और अनपढ़ घरों में ही नहीं वरन बड़े शहरों व पढ़ेलिखे परिवारों में भी है. यह देख कर मैं बहुत आश्चर्यचकित थी. फिर मैं तो सोचती थी कि आशी का पति बहुत समझदार है… वह कैसे अपनी मां की बातों में आ गया?

आशी मन से तीसरा बच्चा नहीं चाहती थी. न बेटा न बेटी. अब आशी अकसर अनमनी सी रहती. मैं भी सोचती कि रोजरोज पूछना ठीक नहीं. यदि उस की इच्छा होगी तो खुद बताएगी. हां, हमारा बच्चों को बस में बैठा कर सुबह की सैर का सिलसिला जारी था.

एक दिन आशी ने बताया, ‘‘ऋचा मैं गर्भवती हूं… अब शायद रोज सुबह की सैर के लिए न जा सकूं.’’

उस की बात सुन मैं मन ही मन सोच रही थी कि यह शायद निखिल की बातों में आ गई या क्या मालूम निखिल ने इसे मजबूर किया हो. फिर भी पूछ ही लिया, ‘‘तो अब तुम्हें भी वारिस चाहिए?’’

‘‘नहीं. पर यदि मैं निखिल की बात न मानूं तो वे मुझे ताने देने लगेंगे… इसीलिए सोचा कि एक चांस और ले लेती हूं. अब वही फिर से 9 महीनों की परेड.’’

इस के बाद आशी को कभी मौर्निंग सिकनैस होती तो सैर पर नहीं आती. देखतेदेखते 3 माह बीत गए. फिर एक दिन अचानक आशी मेरे घर आई. उसे अचानक आया देख मुझे लगा कि कुछ बात जरूर है. अत: मैं ने पूछा, सब ठीक तो है? कोई खास वजह आने की? तबीयत कैसी है तुम्हारी आशी?’’

आशी कहने लगी, ‘‘कुछ ठीक नहीं चल रहा है ऋचा… निखिल की मम्मी को किसी ने बताया है कि आजकल अल्ट्रासाउंड द्वारा गर्भ में ही बच्चे का लिंग परीक्षण किया जाता है… लड़की होने पर गर्भपात भी करवा सकते हैं. अब मुझे मेरी सास के इरादे ठीक नहीं लग रहे हैं.

2 दिन से मेरे व निखिल के पीछे बच्चे के लिंग की जांच कराने के लिए पड़ी हैं.’’

‘‘यह तो गंभीर स्थिति है… तुम सास की बातों में मत आ जाना… निखिल को समझा दो कि तुम अपने बच्चे का लिंग परीक्षण नहीं करवाना चाहती,’’ मैं ने कहा.

होली स्पेशल: बनारसी साड़ी- भाग 3

सीमा भुनभनाती, मुंह फुलाती, अपनी मां से हुज्जत करती पर सास का फरमान कोई टाल नहीं सकता था.

मैं मन ही मन जानती थी कि मेरी सास जानबूझ कर सीमा को हमारे साथ नहीं भेजती थीं और उसे घर के किसी काम में उलझाए रखती थीं. मैं मन ही मन उन का आभार मानती.

एक बार मेरे भैया मुझ से मिलने आए थे. मां ने अपने सामर्थ्य भर कुछ सौगात भेजी थीं. मेरी सास ने उन वस्तुओं की बहुत तारीफ की और घर भर को दिखाया. फिर उन्होंने मुझ से कहा, ‘‘बहू, बहुत दिनों बाद तुम्हारे भाई तुम से मिलने आए हैं. तुम अपनी निगरानी में आज का खाना बनवाओ और उन की पसंद की चीजें बनवा कर उन्हें खिलाओ.’’

मेरा मन खुशी से नाच उठा. उन के प्रति मेरा मन आदर से झुक गया. कितना फर्क था मेरी मां और मेरी सास के बरताव में, मैं ने सोचा. मुझे याद है जब भी मेरी भाभी का कोई रिश्तेदार उन से मिलने आता तो मेरी मां की भृकुटी तन जाती. वे किचन में जा कर जोरजोर से बरतन पटकतीं ताकि घर भर को उन की अप्रसन्नता का भान हो जाए.

मुझे याद आया कि जब मेरी शादी हुई तो मेरी मां ने मुझे बुला कर हिदायत दी थी, ‘‘देख छुटकी, तेरा दूल्हा बड़ा सलोना है. तू उस के मुकाबले में कुछ भी नहीं है. मैं तुझे चेताए देती हूं कि तू हमेशा उन के सामने बनठन कर रहना. तभी तू उन का मन जीत पाएगी.’’

मुझ से कहे बिना नहीं रहा गया, ‘‘लेकिन भाभी को तो तुम हमेशा बननेसंवरने पर टोका करती थीं.’’

‘‘वह और बात है. तेरी भाभी कोई नईनवेली दुलहन थोड़े न है. बालबच्चों वाली है,’’ मां मुझ से बोलीं.

इस के विपरीत मेरी ससुराल में जब भी कोई त्योहार आता तो मेरी सास आग्रह कर के मुझे नई साड़ी पहनातीं और अपने गहनों से सजातीं. वे सब से कहती फिरतीं, ‘‘मेरी बहू तो लाखों में एक है.’’

इधर मेरी मां थीं जिन्होंने भाभी को तिलतिल जलाया था. उन की भावनाओं की अवहेलना कर के उन के जीवन में जहर घोल दिया था. ऐसा क्यों किया था उन्होंने? ऐसा कर के न केवल उन्होंने मेरे भाई की सुखशांति भंग कर दी थी बल्कि भाभी के व्यक्तित्व को भी पंगु बना दिया था.

मुझे लगता है भाभी अपने प्रति बहुत ही लापरवाह हो गई थीं. उन में जीने की इच्छा ही मर गई थी. यहां तक कि जब कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी ने उन्हें धर दबोचा तब भी उन्होंने अपनी परवाह न की, न घर में किसी को बताया कि उन्हें इतनी प्राणघातक बीमारी है. जब भैया को भनक लगी तब तक बहुत देर हो चुकी थी.

जब मैं घर पहुंची तो भाभी की अर्थी उठने वाली थी. मैं ने अपने बक्से से बनारसी साड़ी निकाली और भाभी को पहना दी.

‘‘ये क्या कर रही है छुटकी,’’ मां ने कहा, ‘‘थोड़ी देर में तो सब राख होने वाला है.’’

‘‘होने दो,’’ मैं ने रुक्षता से कहा.

मुझे भाभी की वह छवि याद आई जब वे वधू के रूप में घर के द्वार पर खड़ी थीं. उन के माथे पर गोल बिंदी सूरज की तरह दमक रही थी. उन के होंठों पर सलज्ज मुसकान थी. उन की आंखों में हजार सपने थे.

भाभी की अर्थी उठ रही थी. मां का रुदन सब से ऊंचा था. वे गला फाड़फाड़ कर विलाप कर रही थीं. भैया एकदम काठ हो गए थे. उन के दोनों बेटे रो रहे थे पर छोटी बेटी नेहा जो अभी 4 साल की ही थी चारों ओर अबोध भाव से टुकुरटुकुर देख रही थी. मैं ने उस बच्ची को गोद में उठा लिया और भैया से कहा, ‘‘लड़के बड़े हैं. कुछ दिनों में बोर्डिंग में पढ़ने चले जाएंगे. पर यह नन्ही सी जान है जिसे कोई देखने वाला नहीं है. इस को तुम मुझे दे दो. मैं इसे पाल लूंगी और जब कहोगे वापस लौटा दूंगी.’’

‘‘अरी ये क्या कर रही है?’’ मां फुसफुफसाईं ‘‘तू क्यों इस जंजाल को मोल ले रही है. तुझे नाहक परेशानी होगी.’’

‘‘नहीं मां मुझे कोई परेशानी नहीं होगी. उलटे अगर बच्ची यहां रहेगी तो तुम उसे संभाल न सकोगी.’’

‘‘लेकिन तेरी सास की मरजी भी तो जाननी होगी. तू अपनी भतीजी को गोद में लिए पहुंचेगी तो पता नहीं वे क्या कहेंगी.’’

‘‘मैं अपनी सास को अच्छी तरह जानती हूं. वे मेरे निर्णय की प्रशंसा ही करेंगी,’’ मैं ने दृढ़ शब्दों में कहा.

मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे भाभी अंतरिक्ष से मुझे देख रही हैं और हलकेहलके मुसकारा रही हैं. ‘भाभी,’ मैं ने मन ही मन कहा, ‘मैं तुम्हारी थाती लिए जा रही हूं. मुझे पक्का विश्वास है कि इस में तुम्हारे संस्कार भरे हैं. इसे अपने हृदय से लगा कर तुम्हारी याद ताजा कर लिया करूंगी.

होली स्पेशल: बनारसी साड़ी- भाग 1

आज सुबह सुबह ही प्रशांत भैया का फोन आया. ‘‘छुटकी,’’ उन्होंने आंसुओं से भीगे स्वर में कहा, ‘‘राधा नहीं रही. अभी कुछ देर पहले वह हमें छोड़ गई.’’

मेरा जी धक से रह गया. वैसे मैं जानती थी कि कभी न कभी यह दुखद समाचार भैया मुझे देने वाले हैं. जब से उन्होंने बताया था कि भाभी को फेफड़ों का कैंसर हुआ है, मेरे मन में डर बैठ गया था. मैं मन ही मन प्रार्थना कर रही थी कि भाभी को और थोड़े दिनों की मोहलत मिल जाए पर ऐसा न हुआ. भला 40 साल की उम्र भी कोई उम्र होती है, मैं ने आह भर कर सोचा. भाभी ने अभी दुनिया में देखा ही क्या था. उन के नन्हेनन्हे बच्चों की बात सोच कर कलेजा मुंह को आने लगा. कंठ में रुलाई उमड़ने लगी.

मैं ने भारी मन से अपना सामान पैक किया. अलमारी के कपड़े निकालते समय मेरी नजर सफेद मलमल में लिपटी बनारसी साड़ी पर जा टिकी. उसे देखते ही मुझे बीते दिन याद आ गए.

कितने चाव से भाभी ने यह साड़ी खरीदी थी. भैया को दफ्तर के काम से बनारस जाना था. ‘‘चाहो तो तुम भी चलो,’’ उन्होंने भाभी से कहा था, ‘‘पटना से बनारस ज्यादा दूर नहीं है और फिर 2 ही दिन की बात है. बच्चों को मां देख लेंगी.’’

‘‘भैया मैं भी चलूंगी,’’ मैं ने मचल कर कहा था.

‘‘ठीक है तू भी चल,’’ उन्होंने हंस कर कहा था.

हम तीनों खूब घूमफिरे. फिर हम एक बनारसी साड़ी की दुकान में घुसे.

‘‘बनारस आओ और बनारसी साड़ी न खरीदो, यह हो ही नहीं सकता,’’ भैया बोले.

भाभी ने काफी साडि़यां देख डालीं. फिर एक गुलाबी रंग की साड़ी पर उन की नजर गई, तो उन की आंखें चमक उठीं, लेकिन कीमत देख कर उन्होंने साड़ी परे सरका दी.

‘‘क्यों क्या हुआ?’’ भैया ने पूछा, ‘‘यह साड़ी तुम्हें पसंद है तो ले लो न.’’

‘‘नहीं, कोई हलके दाम वाली ले लेते हैं. यह बहुत महंगी है.’’

‘‘तुम्हें दाम के बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं,’’ कह कर उन्होंने फौरन वह साड़ी बंधवाई और हम दुकान से बाहर निकले.

‘‘शशि के लिए भी कुछ ले लेते हैं,’’ भाभी बोलीं.

‘‘शशि तो अभी साड़ी पहनती नहीं. जब पहनने लगेगी तो ले लेंगे. अभी इस के लिए एक सलवारकमीज का कपड़ा ले लो.’’

मेरा बहुत मन था कि भैया मेरे लिए भी एक साड़ी खरीद देते. मेरी आंखों के सामने रंगबिरंगी साडि़यों का समां बंधा था. जैसे ही हम घर लौटे मैं ने मां से शिकायत जड़ दी. मां को बताना बारूद के पलीते में आग लगाने जैसा था.

मां एकदम भड़क उठीं, ‘‘अरे इस प्रशांत के लिए मैं क्या कहूं,’’ उन्होंने कड़क कर कहा, ‘‘बीवी के लिए 8 हजार रुपए खर्च कर दिए. अरे साथ में तेरी बिन ब्याही बहन भी तो थी. उस के लिए भी एक साड़ी खरीद देता तो तेरा क्या बिगड़ जाता? इस बेचारी का पिता जिंदा होता तो यह तेरा मुंह क्यों जोहती?’’

‘‘मां, इस के लिए भी खरीद देता पर यह अभी 14 साल की ही तो है. इस की साड़ी पहनने की उम्र थोड़े ही है.’’

‘‘तो क्या हुआ? अभी नहीं तो एकाध साल बाद ही पहन लेती. बीवी के ऊपर पैसा फूंकने को हरदम तैयार. हम लोगों के खर्च का बहुत हिसाबकिताब करते हो.’’

भैया चुप लगा गए. मां बहुत देर तक बकतीझकती रहीं.

भाभी ने साड़ी मां के सामने रखते हुए कहा, ‘‘मांजी, यह साड़ी शशि के लिए रख लीजिए. यह रंग उस पर बहुत खिलेगा.’’

मां ने साड़ी को पैर से खिसकाते हुए कहा, ‘‘रहने दे बहू, हम साड़ी के भूखे नहीं हैं. देना होता तो पहले ही खरीदवा देतीं. अब क्यों यह ढोंग कर रही हो? तुम्हारी साड़ी तुम्हें ही मुबारक हो.’’ फिर वे रोने लगीं, ‘‘प्रशांत के बापू जीवित थे तो हम ने बहुत कुछ ओढ़ा और पहना. वे मुझे रानी की तरह रखते थे. अब तो तुम्हारे आसरे हैं. जैसे रखोगी वैसे रहेंगे. जो दोगी सो खाएंगे.’’ साड़ी उपेक्षित सी बहुत देर तक जमीन पर पड़ी रही. फिर भाभी ने उसे उठा कर अलमारी में रख दिया.

मुझे याद है कुछ महीने बाद भैया के सहकर्मी की शादी थी और घर भर को निमंत्रित किया गया था.

‘‘वह बनारसी साड़ी पहनो न,’’ भैया ने भाभी से आग्रह किया, ‘‘खरीदने के बाद एक बार भी तुम्हें उसे पहने नहीं देखा.’’

‘‘भाभी साड़ी पहन कर आईं तो उन पर नजर नहीं टिकती थी. बहुत सुंदर दिख रही थीं वे. भैया मंत्रमुग्ध से उन्हें एकटक देखते रहे.’’

‘‘चलो सब जन गाड़ी में बैठो,’’ उन्होंने कहा.

मां की नजर भैया पर पड़ी तो वे बोलीं, ‘‘अरे, तू यही कपड़े पहन कर शादी में जाएगा?’’

‘‘क्यों क्या हुआ ठीक तो है?’’

‘‘खाक ठीक है. कमीज की बांह तो फटी हुई है.’’

‘‘ओह जरा सी सीवन उधड़ गई है. मैं ने ध्यान नहीं दिया.’’

‘‘अब यही फटी कमीज पहन कर शादी में जाओगे? जोरू पहने बनारसी साड़ी और तुम पहनो फटे कपड़े. तुम्हें अपनी मानमर्यादा का तनिक भी खयाल नहीं है. लोग देखेंगे तो हंसी नहीं उड़ाएंगे?’’

‘‘मैं अभी कमीज बदल कर आता हूं.’’

‘‘लाइए मैं 1 मिनट में कमीज सी देती हूं,’’ भाभी बोलीं, ‘‘उतारिए जल्दी.’’

थोड़ी देर में भाभी बाहर आईं, तो उन्होंने अपनी साड़ी बदल कर एक सादी फूलदार रेशमी साड़ी पहन ली थी.

‘‘यह क्या?’’ भैया ने आहत भाव से पूछा,’’ तुम पर कितनी फब रही थी साड़ी. बदलने की क्या जरूरत थी?

‘‘मुझे लगा साड़ी जरा भड़कीली है. दुलहन से भी ज्यादा बनसंवर कर जाऊं यह कुछ ठीक नहीं लगता.’’

भैया चुप लगा गए.

उस दिन के बाद भाभी ने वह साड़ी कभी नहीं पहनी. हर साल साड़ी को धूप दिखा कर जतन से तह कर रख देतीं थीं.

मैं जानती थी कि भाभी को मां की बात लग गई है. मां असमय पति को खो कर अत्यंत चिड़चिड़ी हो गई थीं. भाभी के प्रति तो वे बहुत ही असहिष्णु थीं. और इधर मैं भी यदाकदा मां से चुगली जड़ कर कलह का वातावरण उत्पन्न कर देती थी.

घर में सब से छोटी होने के कारण मैं अत्यधिक लाडली थी. भैया भी जीजान से कोशिश करते कि मुझे पिता की कमी महसूस न हो और उन पर आश्रित होने की वजह से मुझ में हीन भाव न पनपे. इधर मां भी पलपल उन्हें कोंचती रहती थीं कि प्रशांत अब गृहस्थी की बागडोर तेरे हाथ में है. तू ही घर का कर्ताधर्ता है. तेरा कर्तव्य है कि तू सब को संभाले, सब को खुश रखे.

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