बदरंग जिंदगी : दामोदर की अपनी जिंदगी कैसी थी

दामोदर को अहसास हुआ कि उसे फिर से पेशाब लग गया है. पता नहीं, उस का गुरदा खराब हो गया है या शायद कोई और बात है.

ऐसा नहीं है कि दामोदर ने डाक्टर को नहीं दिखाया. उस ने कई डाक्टरों को दिखाया, लेकिन समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है. उसे लगातार पेशाब आना बंद ही नहीं होता है. वह आखिर करे भी तो क्या करे? अब उस का डाक्टरों पर से जैसे विश्वास ही उठ गया है. उसे लगता है कि उस के मर्ज की दवा शायद अब किसी भी डाक्टर के पास नहीं है.

कभीकभी दामोदर को ऐसा भी लगता है कि वह एक ऐसे जंगल में पहुंच गया है, जहां से उसे बाहर निकलने का रास्ता ही नहीं सूझ रहा है और वह उसी जंगल में जिंदगीभर भटकता रह कर कहीं मरखप जाएगा.

दामोदर को अपनी जिंदगी में सबकुछ अच्छा लगता है, लेकिन यह अच्छा नहीं लगता कि उसे बारबार पेशाब आए. ज्यादा पेशाब आने से उसे बारबार काम छोड़ कर जाना पड़ता है. उस के कारखाने के मालिक इस हरकत पर बड़ी बारीक नजर रखते हैं और वह तब मन ही मन भीतर से कट कर रह जाता है. महीने की 6,000 रुपए तनख्वाह पाने वाला दामोदर पिछले एक साल से ढंग से काम नहीं कर पा रहा है, तभी तो मालिक उस पर गुर्राते हैं.

कभीकभी तो दामोदर को खुद भी लगता है कि वह काम छोड़ दे और अपने घर पर ही रहे, लेकिन अगर वह इस काम को छोड़ देगा, तो खाएगा क्या?

दामोदर के बेटे अमन की उम्र भी महज 19 साल है. इतनी कम उम्र में ही उस ने पूरे घर की जिम्मेदारी संभाल ली है. ऐसी उम्र में दूसरे बच्चे जब बाप के पैसे पर कहीं किसी कालेज में मौज कर रहे होते हैं, उस समय अमन सारे घर को देखने लगा है. आखिर क्या होता है आजकल 6,000 रुपए में? आज अगर अमन को 15,000 रुपए नहीं मिल रहे होते, तो क्या दामोदर घर चला पाता? बिलकुल भी नहीं.

अमन हर महीने याद कर के दामोदर की दवा औनलाइन खरीद कर भेज देता है, नहीं तो अपनी तनख्वाह में तो दामोदर दवा तक नहीं खरीद पाता.

बाजार से दवा खरीदने जाओ तो बड़ी महंगी मिलती है. आजकल डाक्टर के केबिन के बाहर मरीजों से ज्यादा मैडिकल कंपनी के लड़के ही दिखाई देते हैं. मरीजों को ठेलतेठालते अंदर घुसने को बेताब दिखाई पड़ते हैं.

जो थोड़ीबहुत भी नैतिकता डाक्टरों में बची थी, वह इन कमबख्त दवा कंपनियों ने खत्म कर रखी है. रोज एक दवा कंपनी बाजार में उतर जाती है और उस के ऊपर दबाव होता है अपने प्रोडक्ट की मार्केटिंग का. लिहाजा, डाक्टर भी हथियार डाल ही देते हैं.

रोज एक नया चेहरा डाक्टर के केबिन में दाखिल हो जाता है और न चाहते हुए भी वह उन की दवा मरीजों को लिख देता है. दवाओं पर मनमाना दाम कंपनी लगाती है और कंपनी के टारगेट और मुनाफे के बीच फंस जाते हैं दामोदर जैसे लोग.

दामोदर को लगा कि वह कुछ देर और रुका, तो उस का पेशाब पैंट में ही निकल जाएगा. लोग उस की इस बीमारी पर बुरा मुंह बनाते हैं खासकर उस के साथ काम करने वाले.

दामोदर ने अपनी बहुत देर से दबी हुई इच्छा आखिरकार दिनेश को बताई. दिनेश उस का साथी है. रोज काम करने बैरकपुर से रघुनाथपुर वह दिनेश की मोटरसाइकिल से ही आताजाता है. उस के पास अपनी मोटरसाइकिल नहीं है. उस का घर दिनेश के घर के बगल में ही है.

‘‘दिनेश, मैं आता हूं पेशाब कर के,’’ इतना कह कर दामोदर निबटने के लिए जाने लगा.

‘‘अगर तुम्हें  पेशाब करने जाना ही था, तो कारखाना बंद होने से पहले ही चले जाते. और हां, अभी तुम थोड़ी देर पहले भी तो पेशाब करने

गए थे. पता नहीं, तुम को कितनी बार पेशाब लगता है…

‘‘एक हम लोग हैं, जो कारखाने में घुसने के बाद बहुत मुश्किल से 2 या ज्यादा से ज्यादा 3 बार जाते होंगे, लेकिन तुम को तो दिनभर में न जाने कितनी बार पेशाब लगता है. पता नहीं क्या हो गया है तुम्हें. किसी अच्छे डाक्टर को क्यों नहीं दिखाते?’’

दामोदर के चेहरे पर जमानेभर की उदासी उभर आई. उस के सूखे हुए बदरंग चेहरे पर नजर पड़ते ही दिनेश का दिल भी डूबने लगा और वह उस की परेशानी को सम?ाते हुए बोला, ‘‘ठीक है जाओ, लेकिन जरा जल्दी आना. आज मुझे अपने बेटे को पार्क ले कर जाना है. वह पिछले कई हफ्तों से कह रहा है.

‘‘अखिर इन मालिक लोगों के लिए सुबह 9 बजे से रात को 9 बजे तक काम करतेकरते अपने बालबच्चों को कहीं घुमाने का समय ही नहीं मिल पाता.’’

‘‘हां, आता हूं,’’ कह कर दामोदर जल्दी से पान मसाले की एक पुडि़या फाड़ कर अपने मुंह में डालता हुआ पेशाब करने चला गया.

दामोदर सेठ घनश्याम दास के यहां पिछले 20 सालों से काम कर रहा था. दिनेश अभी नयानया है. दोनों मोटरसाइकिल पर बैठे और अपने घर की ओर चल पड़े.

बात के छोर को दिनेश ने पकड़ा, ‘‘तुम्हें यह बीमारी कब से हुई है? तुम इस का इलाज क्यों नहीं कराते हो?’’

दामोदर बोला, ‘‘अरे भाई, इलाज की मत पूछो. कुछ दिन पहले मैं अपनी सोसाइटी के गेट पर खड़ाखड़ा ही बेहोश हो कर गिर पड़ा था. वह तो बगल के एक दुकानदार ने देख लिया और सोसाइटी के गार्ड की मदद से मुझे मेरठ के एक हौस्पिटल में भिजवाया.

‘‘7 दिनों तक हौस्पिटल में रहा. एक दिन का 15,000 रुपए चार्ज था वहां का. केवल 7 दिनों में ही एक लाख रुपए से ज्यादा उड़ गए. फिर मेरे लड़के ने दूसरे हौस्पिटल में मुझे भरती कराया, तब जा कर अभी मेरी हालत में कुछ सुधार आया. अगर वह दुकानदार और गार्ड़ न होते, तो आज मैं तुम्हारे सामने जिंदा न खड़ा होता.’’

‘‘और सारा खर्चा कहां से आया? सेठजी ने कुछ मदद की या नहीं?’’ दिनेश ने पूछा.

‘‘अरे, मुझे कहां होश था. लड़का बता रहा था कि उस ने मालिक को फोन कर के पैसे मांगे थे, लेकिन मालिक की सूई 2,000 रुपए पर अटकी हुई थी. बड़ी हीलहुज्जत के बाद उन्होंने 5,000 रुपए दिए थे.’’

‘‘बाकी के पैसों का इंतजाम कैसे हुआ?’’

‘‘कुछ अगलबगल से कर्ज लिया और बाकी मेरे ससुरजी ने तकरीबन 4 लाख रुपए दे कर मेरी मदद की. तब जा कर मेरी जान बची.’’

मोटरसाइकिल एक मैडिकल स्टोर के बगल से गुजरी. दामोदर ने दिनेश को गाड़ी रोकने के लिए कहा और वह लपकता हुआ मैडिकल स्टोर की तरफ बढ़ गया. उस की दवा खत्म हो गई थी.

दामोदर ने दुकानदार को परची दिखाई. दुकानदार ने परची को बड़े गौर से देखा और दवा निकाल कर उस ने काउंटर पर रख दिया और दामोदर से बोला, ‘‘इस बार भी कंपनी ने दवा का दाम बढ़ा दिया है. पिछली बार यह 250 रुपए की थी, अब 270 रुपए लगेंगे.’’

दामोदर ने जेब में हाथ डाला और पैसे गिने. उस के पास 200 रुपए थे. उसी में उसे रास्ते में घर के लिए एक लिटर दूध भी लेना था. पैसा नहीं बचेगा.

दामोदर ने दुकानदार से कहा, ‘‘फिलहाल तो मुझे 2 दिन की 2 गोली दे दो, बाकी जब तनख्वाह मिलेगी, तब आ कर ले जाऊंगा.’’

दवा ले कर बाकी पैसे दामोदर ने जेब के हवाले किए और वापस आ कर मोटरसाइकिल पर बैठ गया. रास्ते में उस ने एक लिटर दूध भी लिया.

घर पहुंच कर दामोदर ने हाथमुंह धोए और पलंग पर लेट गया. तब तक उस की पत्नी रुचि चाय बना कर ले आई. एक प्याली उस ने दामोदर को दी और दूसरी प्याली खुद ले कर चाय पीने लगी.

चाय पीतेपीते रुचि बोली, ‘‘आज मकान मालिक आया था और घर का किराया मांग रहा था. कह रहा था कि 2 महीने का किराया तो पूरा हो ही गया है और अब तीसरा महीना भी लगने वाला है. आप लोग जल्दी से जल्दी किराया दीजिए, नहीं तो घर को खाली कर दीजिए.’’

‘‘यह हरीश भी अजीब आदमी है. वह जानता है कि हम लोग दानेदाने को तरस रहे हैं. एक तो राशन की परेशानी, उस पर हर महीने का किराया.

‘‘इन ढाई महीनों में मैं पहले ही अपने जानपहचान के सभी लोगों से कर्ज ले चुका हूं. उस को भी सोचना चाहिए. दुकान बंद है. जब मालिक से पैसा मिलेगा, तब उस को किराया भी मिल ही जाएगा. हम कौन सा भागे जा रहे हैं?’’

दामोदर को लगा जैसे उस के सीने पर किसी ने बहुत भारी पत्थर रख दिया हो, जैसे उस की सांस फूलने लगी हो और उस का दम घुट जाएगा, वह वहीं पलंग पर खत्म हो जाएगा. लिहाजा, वह उठ कर पलंग पर बैठ गया.

‘‘आज मां का फोन भी आया था. कह रही थीं कि एक बार में न सही, किस्तों में ही 4 लाख रुपए थोड़ेथोड़े कर के लौटा दे. मेरी छोटी बहन निम्मो की शादी तय हो गई है. अगले साल कोई अच्छा सा लगन देख कर पिताजी निम्मो की शादी कर देना चाहते हैं. तुम से सीधेसीधे कहते नहीं बना तो उन्होंने मां से फोन कर के कहलवाया है,’’ रुचि ने डरतेडरते धीरे से कहा.

‘‘ठीक है, उन का भी कर्ज हम लोग चुका देंगे, लेकिन थोड़ा समय चाहिए,’’ दामोदर छत को घूरते हुए बोला.

रात काफी गहरा चुकी थी. रुचि कब की सो गई थी, लेकिन दामोदर को नींद नहीं आ रही थी. रहरह कर वह बदरंग हो चुकी दीवार और छत को घूरता जा रहा था. उसे कभीकभी यह भी लगता है कि दीवार और छत की तरह ही उस की जिंदगी भी बदरंग हो गई है. एकदम बेकार पपड़ी छोड़ती और सीलन से भरी हुई.

क्या पाया आज दामोदर ने 55 साल की उम्र में? कुछ भी तो नहीं. ताउम्र खटता रहा, लेकिन उस के हाथ क्या लगा? जीरो. एक ऐसी जिंदगी, जो खुशी से ज्यादा उसे दुख ही देती रही.

अचानक दामोदर को लगा कि उसे फिर से पेशाब लग गया है, तो वह उठ कर फारिग होने चला गया. आ कर वापस लेटा तो रुचि की नींद खुल गई.

रुचि ने उबासी लेते हुए पूछा, ‘‘क्या हुआ? नींद नहीं आ रही है क्या?’’

‘‘नहीं. लगता है कि पलंग में खटमल हो गए हैं और मुझे काट रहे हैं,’’ दामोदर बिछौना ठीक करता हुआ बोला.

रुचि ने ‘अच्छा’ कहा और उबासी लेते हुए फिर सो गई. दामोदर के बगल वाला कमरा उस की बेटी प्रीति का है. पापा के आने की आहट पा कर उस ने जल्दी से अपने कमरे की बत्ती बंद कर ली, लेकिन दामोदर के दिमाग में एक नई चिंता ने घर करना शुरू कर दिया.

आखिर इस साल प्रीति का 25वां लगने वाला है. आखिर कब तक जवान लड़की को कोई घर में रखेगा. कल को कुछ ऊंचनीच हो गई तो…

तमाम चिंताओं के बीच दामोदर रातभर करवटें बदलता रहा, लेकिन उसे नींद नहीं आई.

 बसंती: शातिर भोला के चंगुल में एक अंधविश्वासी

गांव का एकलौता पुरोहित भोला इस बात से पूरी तरह वाकिफ था कि मरने से पहले बसंती की मां बेटी के पास कुछ चांदी के सिक्के व जेवरात छोड़ गई है, जिसे किसी बहाने से हासिल कर के वह कुछ दिनों के लिए अपनी बदहाली तो दूर कर ही सकता है.

थोड़ी देर में ही पूजा का काम खत्म कर उस ने एक गहरी नजर से बीमार सुमन की ओर देखा. फिर बसंती की ओर मुखातिब हो कर बोला, ‘‘तेरी बेटी को कोई प्रेतात्मा परेशान कर रही है. अब इसे बचाना बड़ा मुश्किल है. अच्छा होगा कि तू इस मनहूस बच्ची का मोह छोड़ कर फिर से गोद भरने की कोशिश करे.’’

पुरोहित से ऐसा जवाब सुन कर बसंती दुखी आवाज में बोली, ‘‘बाबा, अगर मेरी एकलौती बेटी मर गई, तो फिर मैं अपनी सूनी गोद ले कर यह पहाड़ सी जिंदगी कैसे काट पाऊंगी?’’

बसंती की इस कमजोरी से पुरोहित को अपने अंधविश्वास का तीर सही निशाने पर लगने का एहसास हुआ. उस ने सहज ही यह जान लिया कि अब देरसवेर वह उस की ?ोली में जरूर आ गिरेगी.

पुरोहित भोला मन ही मन मुसकराते हुए मीठी आवाज में बोला, ‘‘तेरी मां अपने मन में धनदौलत का मोह लिए ही मर गई, इसलिए उस की आत्मा प्रेतलोक में बेचैन भटक रही है. अब वही बेचैन आत्मा प्रेतलोक से लौट कर इस घर में आ बैठी है, जिस के असर से तेरी गोद और सुमन की जिंदगी दोनों खतरे में है.’’

‘‘तो फिर इस प्रेतात्मा से पीछा छुड़ाने का कोई उपाय बताइए बाबा?’’ बसंती ने सहमते हुए पूछा.

‘‘तुम फौरन अपनी मां के सारे जेवरात और चांदी के सिक्के अपने हाथ से छू कर किसी ब्राह्मण को दान कर दो. उसी दान की बदौलत सुमन को एक नई जिंदगी मिलेगी और तुम्हें मां बनने का सुनहरा मौका.’’

पुरोहित की कही बात पर गंवार बसंती ने पूरी तरह यकीन कर लिया. फिर भी वह अपनी लाचारी जाहिर करते हुए बोली, ‘‘लेकिन बाबा, मैं तो बेटी की बीमारी दूर होने की उम्मीद पर पहले से ही अपने सारे जेवर बेच चुकी हूं, अब इस हाल में मां के जेवर भी दान में दे दूंगी, तो फिर वक्त पड़ने पर किस के आगे हाथ पसारने जाऊंगी? कौन सहारा देगा मु?ो?’’

बसंती की मजबूरी को सुन कर पुरोहित को अपना खेल बिगड़ता नजर आया. लेकिन तुरंत ही लोभ का दूसरा पासा फेंकते हुए वह बोला, ‘‘क्या तेरे मन में बेटा पाने की तनिक भी लालसा नहीं है?’’

‘‘लालसा तो कब से लगी है…’’ बसंती ?ोंपती हुई बोली, ‘‘सिर्फ एक बेटे की कमी से मेरी पूरी जिंदगी बो?ा जैसी बन गई है. एक बेटा पाने के लिए मैं कब से तरस रही हूं.’’

‘‘तो ठीक है, कल सुबह तुम अपनी मां के सारे जेवर मुझे दान में दे देना.

फिर देखना, मैं तेरे अंधेरे घर में कितनी जल्दी उजाला कर देता हूं,’’ इतना कहते हुए भोला की नजर बसंती की देह से फिसलती हुई वहां जा कर ठहर गई, जहां लोहे की पुरानी संदूकची पड़ी हुई थी.

अब बसंती को पुरोहित की नीयत सम?ाने में जरा भी देर नहीं हुई, पर घर में अकेली और देह से कमजोर बसंती मन मसोस कर रह गई.

‘‘अब क्या सोचने लगी?’’ भोला ने उसे टोका, ‘‘क्या मेरा सु?ाव ठीक नहीं लगा?’’

‘‘नहीं, बिलकुल नहीं,’’ बसंती ने ऊंची आवाज में नफरत से कहा, ‘‘अपनी गोद दोबारा भरने के लिए मां के कीमती जेवर किसी और के हाथ में देने की हिम्मत मु?ा में नहीं है.’’ बसंती के इस रूखे बरताव ने पुरोहित के लहलहाते अरमानों पर ओले बरसा दिए.

फिर भी पुरोहित ने हार नहीं मानी और धीमी आवाज में बोला, ‘‘जब बेटी की बीमारी दूर होने की उम्मीद पर तुम ने अपने जेवर बेच दिए, तो दोबारा मां बनने की उम्मीद में तुम अपनी मां के पुराने गहने पुरोहित को दान में नहीं दे सकतीं? जानती नहीं, पुरोहित को दिया हुआ दान लोकपरलोक दोनों को सुधारता है?’’

पुरोहित ने एक बार फिर उस संदूकची की ओर देखा, तो बसंती का रोमरोम एक अनजाने खौफ से सिहर उठा.

अभी वह खामोश खड़ी थी कि पुरोहित की पत्नी कमला पति को तलाशती हुई वहां आ पहुंची और तेज आवाज में बोली, ‘‘क्योंजी, यजमानी के इस काम से जो आमदनी होती है, उसे आप शराब और गांजा पीने में उड़ा देते हैं, फिर यह धंधा सिर पर ढोने से क्या फायदा, जब घर में बीवीबच्चे रोटी के लिए तरस रहे हों?’’

‘‘ठीक है, आज का ‘सीधा’ बसंती बहू से ले लो और घर जा कर भोजन बनाओ,’’ पुरोहित ने पत्नी को टालने की नीयत से कहा और जल्दी से पोथीपतरा समेट कर दूसरे यजमान के घर कथा बांचने चला गया. भोला के जाते ही ‘सीधा’ लेने के लिए ठहरी कमला बसंती को उदास देख कर संजीदगी से पूछ बैठी,

‘‘इस पूजापाठ के पीछे तेरी क्या मुराद है बहू?’’

‘‘मासूम बेटी की सलामती, जो अब मुमकिन नहीं लगती.’’

‘‘ऐसा क्यों?’’ कमला उतावली हो कर पूछ बैठी, ‘‘क्या इस पूजापाठ पर तु?ो बिलकुल भरोसा नहीं?’’

‘‘भरोसा तो है चाची, लेकिन आज के पुरोहित पूजापाठ की ओट में अपने यजमान को उलटा पाठ पढ़ाना शुरू कर दिए हैं. धर्मकर्म के नाम पर अब ये ढोंगी अपने यजमान का धन और धर्म दोनों लूट लेना चाहते हैं.’’

‘‘यह तुम क्या बकने लगी बहू?’’ कमला हैरत से बोली, ‘‘मैं ने क्या पूछा और तू जवाब क्या देने लगी?’’

‘‘सच कहती हूं चाची…’’ बसंती का गला भर आया, ‘‘बेटी की लंबी बीमारी ने मु?ो बुरी तरह से ?ाक?ोर दिया है और इसी आफत में पुरोहितजी दोबारा गोद भरने का लालच दे कर मेरा सबकुछ ठग लेना चाहते हैं.’’

बसंती की पीड़ा सुन कर कमला का दिमाग ?ान?ाना उठा. उस के हाल पर तरस खा कर वह बोली, ‘‘ठीक है बहू, इस समय मैं खाना बनाने जा रही हूं. लेकिन शाम को इस बारे में तुम से फिर बात करूंगी.’’

शाम को कमला बसंती से मिल कर उस की आपबीती से पूरी तरह वाकिफ हो चुकी थी.

दूसरे दिन सुबह पुरोहित जैसे ही कथा बांचने के लिए बसंती के घर पहुंचा, तो उस के पीछेपीछे कमला भी आ गई.

पत्नी को इस तरह आया देख पुरोहित अपनी लाल आंखों से उसे घूरते हुए रूखे स्वर में बोला, ‘‘आज सुबह से ही तुम मेरे पीछे क्यों पड़ी हो? क्या चाहती हो तुम?’’

‘‘बस यही कि अब आप यह यजमानी का पेशा छोड़ दीजिए.’’

‘‘वह क्यों?’’ भोला ने हैरत से पूछा.

‘‘क्योंकि अब यह पेशा शरीफ ब्राह्मणों का सुकर्म नहीं, बल्कि खातेपीते ब्राह्मणों का कुकर्म बन गया है. अब यह पेशा पुरोहित और यजमान के पाक रिश्ते के बीच एक ऐसी दरार पैदा करता जा रहा है, जो आने वाले दिनों में दोनों की शराफत पर एक सवालिया निशान लगा सकता है,’’ कमला ने पति की ओर देख कर संजीदगी से कहा.

पुरोहित ने जोर से चीख कर कमला को एक जबरदस्त धक्का दिया, जिस से वह सामने की दीवार से जा टकराई और उस का सिर लहूलुहान हो गया.

कमला फूटफूट कर रो पड़ी, लेकिन भोला पर इस का कोई असर नहीं हुआ. वह गुस्से में अपनी पत्नी को और भी भलाबुरा कहने लगा.

पति की घुड़की से बेअसर कमला बरसती आंखों से उसे देखती हुई बोली, ‘‘आज मु?ो भी पता चल गया है कि पुरोहित कितना नीच और घटिया इनसान होता है, जो अपने यजमान की मजबूरी पर तरस खाने के बजाय उस की दौलत व इज्जत लूटने को तैयार हो जाता है.

‘‘अब मेरे लिए विधवा की जिंदगी जी लेना आसान है, मगर किसी ढोंगी, लोभी, पाखंडी, ठग और धर्मकर्म का पेशा करने वाले पुरोहित की सुहागन बन कर जी लेना आसान नहीं.’’

इतना कह कर कमला जैसे ही वहां से चलने को हुई कि अचानक पुरोहित के भीतर का इनसान जाग उठा और कमला के सिर पर हाथ रखते हुए भरे गले से बोला, ‘‘तेरी कसम, यह पूजापाठ, हवन, जाप, लोकपरलोक व पुरोहितयजमान सब बनावटी बातें हैं.

‘‘अब इस गलत काम को मैं कभी नहीं दोहराऊंगा. ऐसे दकियानूसी विचारों में कोरे अंधविश्वास व दिमागी वहम के सिवा कुछ और नहीं है. तुम आखिरी बार मु?ो माफ कर दो.’’ फिर कमला बिना पति की ओर देखे बसंती की बीमार बेटी सुमन को गोद में उठा कर तेज कदमों से डाक्टर के पास चल पड़ी.

औक्टोपस कैद में : कैसे थे मंत्री के कारनामे

सुभांगी जब मंत्री के कमरे से जल्दी बाहर निकल कर आई, तो उस का चेहरा तमतमाया हुआ था. उस की आंखें अंगारे बरसा रही थीं और बदहवास सी वह वंदना को ढूंढ़ रही थी.

ज्यों ही वंदना से उस का सामना हुआ, वह अपना आपा खो बैठी. उस ने वंदना को धिक्कारते हुए कहा, ‘‘तुम ने तो अपनी इमेज खराब कर ली, लेकिन तुम ने मेरे बारे में यह कैसे सोच लिया कि मैं भी तुम्हारे रास्ते चल पडूंगी.’’

‘‘क्यों… क्या हो गया?’’ वंदना ने ऐसे पूछा, जैसे वह कुछ जानती ही न हो.

‘‘वही हुआ, जो तुम ने सोचा था. मैं भी तुम्हारी तरह लालची और डरपोक होती तो शायद बच कर नहीं निकल पाती…’’ सुभांगी ने अपनी उफनती सांसों पर काबू पाते हुए कहा.

वंदना समझ गई कि सुभांगी उस की सचाई को जान गई है. उस ने पैतरा बदलते हुए कहा, ‘‘देखो सुभांगी, अगर तुम को आगे बढ़ना है, तो कई जगह समझौते करने पड़ेंगे. फिर क्या हर्ज है कि किसी एक पहुंच वाले आदमी के आगे झुक लिया जाए. मुझे देखो, आज मैं मंत्रीजी की वजह से ही इस मुकाम तक पहुंची हूं…’’

वंदना मंत्री से अपने संबंधों के चलते ही ब्लौक प्रमुख बनी थी. पहली बार जब वह आंगनबाड़ी में नौकरी करने की गरज से मंत्री के पास गई थी, तो उस का सामना एक भयंकर दुर्घटना से हुआ था.

उस की मजबूरी को भुनाते हुए मंत्री ने भरी दोपहरी में उस की इज्जत लूटी थी. एक बार तो उस को ऐसा सदमा लगा कि खुदकुशी का विचार उस के मन में आ गया था, लेकिन मंत्री ने उस के गालों को सहलाते हुए कहा था, ‘नौकरी कर के क्या करोगी… मुझे कभीकभार यों ही खुश कर दिया करो. बदले में मैं तुम्हें वह पहचान और पैसा दिलवा दूंगा, जिस की तुम ने कभी कल्पना भी न की हो.’

उस समय वंदना भी मंत्री के मुंह पर थूक कर भाग आई थी, लेकिन घर पहुंचने पर उस के मन में कई तरह के खयाल आए थे. कभी उस को लगता था कि फौरन जा कर पुलिस को सूचित करे और मंत्री के खिलाफ जंग का बिगुल बजा दे, लेकिन अगले ही पल उसे लगा कि मंत्री के खिलाफ लड़ने का अंजाम आखिरकार उस को ही भुगतना पड़ेगा.

जिन दिनों वंदना मंत्री के कारनामे से आहत हो कर घर में गुमसुम बैठी थी, उन्हीं दिनों उस की मुलाकात अर्चना से हुई थी. अर्चना कहने को तो टीचर थी, लेकिन उस के कारनामे बस्ती में काफी मशहूर थे.

अर्चना ने वंदना को समझाया था, ‘औरत को तो हर जगह झुकना ही होता है बहन. कुछ लोग मजे ले कर चले जाते हैं और कुछ एहसान का बदला चुकाते हैं. मंत्रीजी ने जो किया, वह बेशक गलत था, लेकिन अब वे अपने किए का मुआवजा भी तो तुम को दे रहे हैं. झगड़ा मोल लोगी तो पछताओगी और अगर समझोता करोगी, तो आगे बढ़ती चली जाओगी.’

अर्चना ने वंदना को इतने हसीन सपने दिखाए थे कि उस से मना करते हुए नहीं बना. उस के साथ वह राजधानी पहुंची और कई दिनों तक मंत्री के लिए  मनोरंजन का साधन बनी रही.

अब वंदना को पता चला कि मंत्री की एक रखैल अर्चना भी है. अर्चना की सेवा से खुश हो कर मंत्री ने उसे उसी स्कूल का प्रिंसिपल बना दिया, जिस में कभी मंत्री की मेहरबानी से वह टीचर बनी थी.

वंदना सत्ता के सपनीले गलियारों में कुछ यों उलझ कि उस को अपने पति से खिलाफत करते हुए भी झिझक नहीं हुई.

मंत्री के कारनामों से उस के पति अनजान नहीं थे. नौकरी के सिलसिले में वे अकसर घर से बाहर ही रहते थे, लेकिन अपनी बीवी की हर चाल से वे वाकिफ थे. पानी जब सिर से ऊपर गुजरने लगा, तो उन्होंने वंदना को रोकने की कोशिश की.

बच्चों का हवाला देते हुए उन्होंने वंदना से कहा था, ‘तुम 2 बच्चों की मां हो. बच्चों की पढ़ाई और परवरिश के लिए मैं जो कमाता हूं, वह काफी है. इज्जत की कमाई थोड़ी ही सही, लेकिन अच्छी लगती है.

‘‘ईमान और इज्जत बेच कर कोई लाखों रुपए भी कमा ले, तो दुनिया की थूथू से बच नहीं सकता. अभी देर नहीं हुई, मैं तुम्हारे अब तक के सारे गुनाह माफ करने को तैयार हूं, बशर्ते तुम इस गलत रास्ते से वापस लौट आओ…’

वंदना अब इतनी आगे बढ़ चुकी थी कि उस का किसी से कोई वास्ता नहीं रहा था. उस ने पति को दोटूक शब्दों में कह दिया था, ‘मैं जिंदगीभर तुम्हारी दासी बन कर नहीं रह सकती. अब तक मैं ने जो चुपचाप सहा, वह मेरी भूल थी. अब मुझे अपने रास्ते चलने दो.’

यह सुन कर वंदना का पति चुप हो गया था. उस को लगा कि वंदना को रोकना अब खतरनाक हो सकता है. उस की वजह से घर में क्लेश बढ़ सकता था. उस ने दोनों बच्चों को अपने साथ ले जाने का फैसला किया और वंदना को उसी के हाल पर छोड़ दिया.

वंदना ने भी पति के फैसले में कोई दखल नहीं दिया. अब उस के ऊपर बच्चों की देखरेख करने का जिम्मा भी नहीं रहा.

तमाम जिम्मेदारियों से छूट कर वंदना अब मंत्री की सेवा में खुद को पूरी तरह सौंप चुकी थी. बाहुबली मंत्री ने पंचायत चुनावों में अपने आपराधिक संपर्कों का इस्तेमाल कर वंदना को ब्लौक प्रमुख बना दिया. मंत्री से अपने संबंधों को उस ने जम कर भुनाया.

वंदना अपने दबदबे का इस्तेमाल जनता की भलाई के लिए करती तो लोगों का समर्थन हासिल करती, लेकिन लालच में अंधी हो कर उस ने मंत्री के दलाल की भूमिका निभानी शुरू कर दी.

अफसरों से पैसा वसूलना और अपने गुरगों को ठेके दिलवाने के अलावा अब वह आसपास के गांवों की भोलीभाली लड़कियों को नौकरी का लालच दे कर अपने आका के बैडरूम तक पहुंचाने लगी थी.

सुभांगी उस इलाके में अपनी स्वयंसेवी संस्था चलाती थी. वह पढ़ीलिखी और जरूर थी. अपनी संस्था के जरीए वह औरतों और बच्चों को पढ़ाने की मुहिम चला रही थी.

वंदना और सुभांगी की मुलाकात एक सरकारी कार्यक्रम में हुई. शातिर वंदना की नजर सुभांगी पर लग चुकी थी. उस ने सुभांगी से दोस्ती बढ़ानी शुरू कर दी.

एक दिन मौका पा कर वंदना ने सुभांगी से पूछा, ‘तुम इतनी मेहनत करती हो. चंदा जुटा कर औरतों और बच्चों को पढ़ाती हो. ऐसे कामों के लिए सरकार अनुदान देती है. तुम खुद क्यों नहीं इस दिशा में कोशिश करती?’

‘सरकारी मदद लेने के लिए तो आंकड़े चाहिए और मेरी समस्या यह है कि मैं जमीन पर रह कर यह काम करती हूं, लेकिन फर्जी आंकड़े नहीं जुटा सकती…’ सुभांगी ने जवाब दिया.

‘तुम को फर्जी आंकड़े जुटाने की क्या जरूरत है? तुम्हारे पास तो ढेर सारे आंकड़े पहले से ही मौजूद हैं. तुम कहो तो मैं तुम्हारी मदद कर सकती हूं. इस इलाके के विधायक सरकार में मंत्री हैं और उन से मेरे अच्छे ताल्लुकात हैं,’ वंदना ने अपना जाल बिछाते हुए कहा.

सुभांगी को वंदना के असली कारनामों की जानकारी नहीं थी. वह उस की बातों में आ गई. उस ने सोचा कि चंदा वसूल कर अगर वह इतनी बड़ी मुहिम चला सकती है, तो सरकारी मदद मिलने पर इस को और भी सही ढंग से चला सकेगी.

उस शाम वंदना सुभांगी को ले कर मंत्री के घर पहुंची. उस का परिचय कराने के बाद वह तो कमरे से बाहर आ गई, लेकिन सुभांगी को वहीं छोड़ गई.

सुभांगी ने मंत्री की तरफ अपनी फाइल बढ़ाते हुए कहा, ‘इस में मेरे अब तक के काम का पूरा ब्योरा है. काम तो मैं यों भी कर ही रही हूं, लेकिन सरकार मदद दे दे तो मैं और भी बेहतर काम कर पाऊंगी.’

‘चिंता न करो, हम तुम को अच्छा अनुदान देंगे…’ मंत्री के मुंह से शराब की बदबू का भभका आया, तो सुभांगी के कान खड़े हो गए. वह फौरन कुरसी से उठी और बोली, ‘आप मेरी फाइल देख लीजिए… अभी मैं चलती हूं.’

सुभांगी दरवाजे की ओर मुड़ी ही थी कि नशे में धुत्त मंत्री ने उस को पीछे से दबोचते हुए कहा, ‘फाइल से पहले मैं तुम को तो देख लूं मेरी रानी…’

मंत्री ने सुभांगी को अपनी बांहों में मजबूती से जकड़ लिया. सुभांगी उस की गिरफ्त से बचने के लिए ऐसे छटपटाने लगी, जैसे कोई मजबूर मछली औक्टोपस की कैद से निकलने के लिए छटपटाती है.

देर तक सुभांगी मंत्री के चंगुल से निकलने के लिए छटपटाती रही और जब उस की ताकत जवाब दे गई, तो वह निढाल हो कर फर्श पर गिर पड़ी.

इस से पहले कि वह खूंख्वार शैतान उस की देह पर बिछता, उस ने चालाकी से अपने जूड़े में फंसी पिन मंत्री के मोटे गाल में घोंप दी. मंत्री की चीख निकल गई और वह एक किनारे हो गया. इस बीच सुभांगी बच कर भाग निकली.

मंत्री के कमरे से निकलते ही सुभांगी का सामना वंदना से हुआ. वह वंदना की सचाई सम?ा चुकी थी. उस को डपट कर वह पुलिस थाने पहुंची.

एक जवान लड़की को यों बदहवास भागते देख कर लोग सकते में आ गए. मीडिया को भी खबर लग गई. देखते ही देखते थाने में भीड़ जुट गई. दबाव में आ कर पुलिस ने न चाहते हुए भी रिपोर्ट दर्ज कर ली.

अगले दिन मंत्री के कारनामों की खबरें अखबारों में हैडलाइन बन कर छपीं. विपक्षी पार्टियों के दबाव में आ कर मंत्री को गिरफ्तार किया गया.

पुलिस जांच में पता चला कि सुभांगी के अलावा मंत्री ने कई मजबूर लड़कियों को अपनी हवस का शिकार बनाया और इस की सूत्रधार थी वंदना. वंदना को भी गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया.

आज वंदना जेल की कोठरी में कैद है. उस की सारी इच्छाएं खत्म हो चुकी हैं. अब उस को अपना अतीत याद आता है, जब उस के पति ने उस को बारबार समझाया था कि गलत रास्ता छोड़ दे, लेकिन उस समय उस की आंखों पर पट्टी बंधी थी. वह खुद को सबकुछ समझ बैठी थी. सुभांगी की तरह उस ने भी हिम्मत कर मंत्री को सबक सिखाया होता, तो आज यह दिन न देखना पड़ता.

वंदना अब घुटघुट कर जी रही है. उस के पास अपनी करनी पर पछतावा करने के अलावा कोई और चारा नहीं है. उस को अब अपने बच्चों की याद सताती है. पति से अपने गुनाहों के लिए माफी मांगने के लिए वह छटपटाती रहती है, लेकिन उस का कोई अपना उस से मिलने को तैयार नहीं है.

दूसरी तरफ सुभांगी के हिम्मत की चारों ओर तारीफ हो रही है. राजधानी के नागरिक सुरक्षा मंच ने उस को सम्मानित ही नहीं किया, बल्कि अपनी महिला शाखा का प्रधान भी बना दिया.

आज सुभांगी को तमाम सम्मानों से उतनी खुशी नहीं मिलती, जितनी कि इस बात से कि उस के एक हिम्मती कारनामे ने उस दुष्ट औक्टोपस को कैद करवा दिया, जो सालों से मजबूर लड़कियों को जकड़ता चला आ रहा था.

उस को खुशी है तो इस बात कि न तो उस ने वंदना और अर्चना की तरह समझौता किया और न ही उस ने हार मानी. उस ने हिम्मत से उस भयंकर औक्टोपस का सामना किया, जो तमाम मछलियों पर घात लगाए बैठा था.

मुझ से दूर रहो : कैसा था मूलक का जीवन

तकरीबन 10 साल गांव से दूर रहने के बाद मूलक दोबारा लौटा था. जब वह यहां से गया था, तब यह गांव 20-30 झोंपड़ियों वाला एक छोटा सा डेरा था.

गांव के ज्यादातर मर्द कोयले और लोहे की खदानों में काम करते थे. दिनभर बदनतोड़ मेहनत के बाद कोई ताड़ी तो कोई कच्ची शराब पी कर नमकभात खा कर पड़ जाते थे. किसीकिसी परिवार की औरतें भी खदानों में काम करती थीं.

यह गांव मध्य प्रदेश के उस इलाके में था, जो अब छत्तीसगढ़ में आता है. जब मूलक गांव वापस लौटा, तब छत्तीसगढ़ बन चुका था. ज्यादातर गांव अभी भी मुख्य शहरों से बस कच्ची सड़कों से ही जुड़े थे. चारों ओर वही जंगली घास और बीहड़ थे.

गांव के कच्चे रास्तों पर सवारी के साधनों की अभी भी पूरी तरह कमी थी. संचार के साधन भी अभी तक केवल अमीरों को ही सुलभ थे. गरीब तो आज भी चिट्ठीपत्री के ही भरोसे पर थे.

भिलाई से गांव पहुंचतेपहुंचते मूलक को अच्छीखासी रात हो चुकी थी. दीए बुझ चुके थे और चारों तरफ घनघोर अंधेरा पसरा हुआ था. कहींकहीं एकाध जुगनू झिलमिल कर के मूलक को यहां की पगडंडी दिखा देता था.

यह पगडंडी बिलकुल भी नहीं बदली थी. एकदम वैसी ही एकडेढ़ गज चौड़ी, दोनों ओर जंगली बेर की कंटीली झाडि़यां और भुलावा की बेल…

‘अरे, यहां तो भुलना की बेल होती हैं. अगर उन पर मेरा पैर पड़ गया, तो मैं सब भूल जाऊंगा,’ अचानक चलतेचलते मूलक को बचपन में सुनी हुई बात याद आई और उस के कदम ठिठक गए.

‘‘भुलना की बेल… भला बेल भी किसी को रास्ता भुला सकती है?’’ मूलक ने खुद से कहा और तेजी से चलने लगा. अब सामने घना जंगल था और उस जंगल के उस पार नदी किनारे पर उस का गांव.

अभी मूलक मुश्किल से 20-30 कदम ही चला होगा कि अचानक उसे किसी चीज से ठोकर लगी और वह मुंह के बल झाडि़यों के ऊपर गिर पड़ा. उस के गिरते ही जंगली घास की उस झाड़ी से किसी औरत के चीखने की बहुत तेज आवाज आई, ‘‘आह… दूर रहो मुझ से.’’

औरत की आवाज सुन कर मूलक की जैसे सांस अटक गई. वह डर से सूखे गले को थूक निगल कर तर करने की कोशिश करते हुए मिमिया कर बोला, ‘‘कौन…? कौन हो तुम…?’’

 

‘‘चुड़ैल हूं मैं. दूर रहो मुझ से, नहीं तो तुम्हारा भी खून पी जाऊंगी,’’ वह औरत उसे डराने की कोशिश करतेहुए चीखी.

अब तक मूलक उठ कर खड़ा हो चुका था और गिरने और उठने के बीच वह यह जान चुका था कि यह कोई जवान औरत है. उस के हाथ उस जिस्म को महसूस कर चुके थे, लेकिन ऐसे अचानक इस अंधकार में इस झाड़ी में औरत के होने की कल्पना तो कोई सपने में भी नहीं कर सकता था, ऊपर से उस ने कहा था. ‘चुड़ैल…’

मूलक डर से कांप उठा, लेकिन फिर भी वह हिम्मत जुटा कर खड़ा हुआ.‘‘उठो यहां से, यहां झाड़ी में छिपी क्या कर रही हो तुम?’’ मूलक उसे पकड़ कर झकझोरते हुए बोला.‘‘भाग जा यहां से, कह तो दिया चुड़ैल हूं. जा, चला जा इस से पहले कि तुझ पर मेरा साया पड़ जाए, जान बचा ले अपनी,’’ वह औरत उसे डराने की कोशिश करते हुए बोली, पर उस की इस धमकी के बीच उस औरत की आवाजमें दर्दभरी सिसकी मूलक ने साफ सुन ली थी.

इस सिसकी ने न जाने क्यों मूलक के दिल की धड़कन बढ़ा दी थी. उसे न जाने क्यों इस सिसकी में किसी अपने का दर्द महसूस हुआ

मूलक ने उस औरत का हाथ पकड़ कर ऊपर उठाया और खींचते हुए उसे उठाने लगा, ‘‘चलो, उठो यहां से और उधर चल कर बताओ कि कौन हो तुम और तुम्हारे साथ क्या हुआ है?’’

वह गांव के बाहर एक उजाड़ ढाबे की ओर इशारा करते हुए बोला, जो इस जंगल के अंदर ही नदी के इस पार बना हुआ था.

‘‘आह… छोड़ो मुझे. तुम्हें समझ नहीं आता, दूर रहो तुम मुझ से. उधर ले जा कर तुम भी सब की तरह मुझे चुड़ैल होने की सजा दोगे.

‘‘तुम भी सब की तरह मुझ पर जुल्म करोगे. मेरी इज्जत से खेलोगे… अब मेरे पैरों में खड़े होने की ताकत नहीं बची और न ही जिस्म में किसी से जिस्मानी होने की ताकत.

‘‘जाओ, छोड़ दो मुझे. मैं मान तो रही हूं कि मैं चुड़ैल हूं. चले जाओ यहां से,’’ वह औरत घबरा कर हाथ जोड़ते हुए बोली.

उस औरत के उठने और हाथ जोड़ने के बीच मूलक यह जान चुका था कि उस के पैर घायल हैं और वह बहुत घबराई हुई है.

मूलक ने न जाने किस प्रेरणा से आगे बढ़ कर उसे उठा कर अपने कंधे पर डाल लिया और उसे ले कर ढाबे की ओर चल दिया. वह औरत निढाल हो कर उस के कंधे पर ऐसे लुढ़की हुई थी, मानो कोई बेजान लाश हो.

उस के मुंह से बारबार बस यही निकल रहा था, ‘‘दूर रहो मुझ से, मैं चुड़ैल हूं. मुझे सजा मत दो, मैं अब किसी का खून नहीं पीऊंगी. मेरे जिस्म से मत खेलो, मेरी इज्जत मत लूटो.’’

मूलक उस औरत को ले कर ढाबे में आ गया. वहां उस ने इधरउधर से कुछ लकडि़यां जमा कीं और फिर अपनी जेब से माचिस निकाल कर आग जला दी.

आग जलने से वहां उजाला फैल चुका था. अब मूलक ने उस औरत को ध्यान से देखा. वह बहुत कमजोर, काली सी, बिलकुल हड्डियों का ढांचा भर थी. उस के शरीर पर कपड़े के नाम पर थोड़े से पुराने चिथड़े थे, जिन से बड़ी मुश्किल से उस का एकचौथाई बदन ढक पा रहा था. उस के शरीर पर धूलमिट्टी की ऐसी मोटी परत चढ़ी हुई थी, मानो कई साल से वह नहाई न हो.

मूलक उसे देख कर दया से भर गया और बोला, ‘‘डरो मत तुम. मुझे बताओ कि तुम कौन हो और तुम्हारे साथ क्या हुआ है? तुम्हें कोई सजा नहीं देगा. डरो मत.’’

‘‘मैं चुड़ैल हूं, मुझ से दूर रहो. मैं तुम्हें लग जाऊंगी. तुम्हारा खून पी जाऊंगी, फिर तुम मर जाओगे. मैं चुड़ैल हूं, मुझ से दूर रहो,’’ उस औरत ने रटारटाया रिकौर्ड सा बजाया.

‘‘भूख लगी है तुम्हें? तुम कुछ खाओगी?’’ मूलक ने अपने थैले से केले निकाल कर उस की ओर बढ़ाते हुए धीरे से प्यारभरी आवाज में कहा.‘‘मैं चुड़ैल हूं, खून पीती हूं, मुझ से दूर रहो, मैं चुड़ैल हूं,’’ वह औरत सहमी सी बस यही दोहराती रही.

‘‘अच्छा, डरो मत. ये केले खाओ, मैं पानी ले कर आता हूं,’’ मूलक ने केले उस औरत के हाथ में पकड़ाते हुए कहा और ढाबे से एक पुरानी बालटी उठा कर नदी की ओर पानी लेने के लिए बढ़ गया.

जब मूलक पानी ले कर लौटा तो देखा कि वह औरत 2 केले खा कर आग के पास बैठी थी.

‘‘इधर आओ… लो, मुंह धो लो. इस से तुम्हें अच्छा लगेगा,’’ मूलक ने बालटी ढाबे के चबूतरे पर रखते हुए कहा.

लेकिन, वह औरत अपनी जगह से जरा भी नहीं हिली.

मूलक ने फिर उसे सहारा दे कर उठाया, लेकिन उस औरत के पैरों में तो जैसे जान ही नहीं थी. मूलक ने ध्यान से देखा कि उस औरत के दोनों पैर नीचे से ऊपर तक बुरी तरह घायल थे. पैर ही क्या उस के सारे बदन पर चोटों के नएपुराने न जाने कितने ही घाव थे.

मूलक ने उसे चबूतरे के पास बिठा कर उस के बदन से उस के चिथड़े हटाए और हाथ से पानी डाल कर उसे नहलाने लगा.

‘‘रहने दो मुझे सड़ा. मैं चुड़ैल हूं, मुझ से दूर रहो,’’ चिथड़े हटते ही वह औरत फिर से कांप उठी और सिसकने लगी.

मूलक ने जैसे ही उस औरत के मुंह को धोया, उस का काला रंग उतरने लगा. दूर जल रही आग के उजाले में उस का लाल गेहुंआ रंग दमकने लगा.

जैसेजैसे उस औरत का असली चेहरा नजर आ रहा था, मूलक के दिल की धड़कन बढ़ती जा रही थी.

जैसे ही पूरा मुंह धुलने के बाद मूलक ने आग के उजाले में उस का चेहरा देखा, उस के मुंह से तेज चीख निकल गई, ‘‘मनका… यह तुम हो मनका… क्या हो गया?’’ वह आंसुओं से रोने लगा, ‘‘मनका, इधर देख… मैं मूलक… तेरा अपना मूलक… देख मुझे मनका… पहचान मुझे.’’

‘‘मुझ से दूर रहो, मुझे छोड़ दो, मैं चुड़ैल हूं.’’ वह अभी भी यही शब्द दोहरा रही थी.‘‘होश में आ मनका और बता मुझे कि क्या हुआ तेरे साथ?’’ कहते हुए मूलक ने बालटी का सारा पानी उस के ऊपर डाल दिया और जल्दी से और पानी भर लाया.

मूलक ने कुछ देर अच्छे से मलमल कर मनका को नहलाया और फिर अपने थैले में से निकाल कर उसे अपना कुरता पहनाया. अपनी जींस भी दी. उसे उठा कर फिर आग के पास ले आया और उसे घास पर लिटा कर उस का सिर अपनी गोद में रख कर उस के बाल सहलाते हुए प्यार से बोला, ‘‘मनका, पहचान मुझे. और बता कि क्या हुआ तेरे साथ? कैसे हुई तेरी यह हालत? अरे भूल गई तू, ब्याह हुआ था हमारा 10 साल पहले.

‘‘और जब हमारा मुन्ना हुआ, तो खर्चे की फिक्र और मुन्ने को अच्छी जिंदगी देने की लालसा में मैं रुपए कमाने शहर चला गया था…

‘‘और मुन्ना…? अरे, मुन्ना कहां है मनका? बोल मनका, मुन्ना कहां है हमारा?’’ मूलक उसे झकझोरते हुए बोला.

‘‘मुन्ना… चुड़ैल खा गई. उसे, मैं उस का खून पी गई. मैं चुड़ैल हूं न, मुझ से दूर रहो. मैं अपने मुन्ना को खा गई, खून पी गई उस का,’’ मनका खोखली हंसी हंसने की कोशिश करतेकरते रोने लगी.

‘‘होश में आ मनका. बता मुझे यहां यह सब क्या हुआ है? क्या हुआ हमारे मुन्ना को? उन सारे रुपयों का क्या हुआ, जो मैं ने तुम्हें भेजे थे? और मेरी चिट्ठी? कहां हैं सब मनका?’’ मूलक रोते हुए मनका को झकझोर रहा था.

‘‘मैं चुड़ैल हूं, मुझे छोड़ दो, मैं सब को खा गई,’’ मनका जैसे इस के अलावा कुछ बोलना जानती ही नहीं थी.

‘‘होश में आओ मनका. मैं मूलक हूं तुम्हारा पति, तुम्हारे मुन्ना का पिता. बताओ क्या हुआ है यहां?’’ मूलक ने एक जोरदार तमाचा अपनी मनका के गाल पर मारा, जिस से उसे जोर का झटका लगा और वह रोने लगी.

मूलक ने उसे गले लगा लिया और प्यार से सहलाते हुए बोला, ‘‘होश में आजा मनका, देख मैं तेरा मूलक हूं.’’न्ना के बापू… कहां चले गए थे तुम… तुम्हारे पीछे तुम्हारे बड़े भाई और भाभी ने मुझ पर बहुत जुल्म किए, मेरा खानापानी बंद कर दिया और हमारे मुन्ना को न जाने क्या खिला कर मार डाला. उन्होंने लोगों से कहा कि मैं चुड़ैल हूं और अपने बेटे को खा गई.

‘‘उन्होंने मुझे तुम्हारा भेजा कोई पैसा कभी नहीं दिया. जब मैं ने उन से मनीऔर्डर के बारे में पूछा, तो उन्होंने पंचायत बुला कर मुझे चुड़ैल कह कर मारपीट कर गांव से निकाल दिया.

‘‘अब तो 2-3 साल हो गए मुन्ना के बापू, मैं यहीं जंगल में अपने दिन पूरे कर रही हूं. दिन में मैं जंगली झाडि़यों में छिपी रहती हूं और रात को निकल कर जंगली फलों से अपना पेट भरती हूं.

‘‘रात में जब कभी कोई मर्द मुझे पकड़ लेता है, तो चुड़ैल की सजा के नाम पर मेरे साथ…’’ मनका अब मूलक के गले लग कर रो रही थी.

‘‘ओह… यह सब क्या हो गया. अच्छा मनका, तुम ये बिसकुट खाओ और पानी पी कर आराम करो. हमें आधी रात के बाद बहुत दूर निकलना है,’’ इतना कह कर मूलक नदी की ओर बढ़ गया.

इधर मनका बदले की आग में सुलग रही थी. उसे रहरह कर अपने मुन्ना की याद आ रही थी. तभी अचानक वह उठी और एक जलती हुई लकड़ी उठा कर गांव की तरफ चल दी.

जब तक मूलक वापस आया, तब तक मनका भी लौट आई थी. मूलक को जरा भी अंदाजा नहीं था कि उस के पीछे से मनका ने क्या कांड कर दिया है. मूलक तो बस अपनी मनका को कंधे पर उठा कर बड़ी सड़क की ओर बढ़ गया.

अगले दिन अखबारों में छपा था, ‘एक चुड़ैल ने रात को एक पूरे परिवार समेत 20 लोगों को जला कर मार डाला. यह चुड़ैल बहुत दिन से गांव के बाहर जंगल में रह रही थी. घटना के बाद से चुड़ैल को किसी ने नहीं देखा. सरकार ने जंगल को खतरनाक मानते हुए लोगों को दूसरी जगह बसाने का फैसला लिया है और यह रास्ता बंद कर दिया है’

चिनम्मा: कौन कर रहा था चिन्नू का इंतजार ?

एक सीमित सी दुनिया थी चिनम्मा की. गरीबी में पलीबढ़ी वह, फिर भी पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती थी लेकिन उस के अप्पा की मंशा तो कुछ और ही थी…

पढ़तेपढ़ते बीच में ही चिनम्मा दीवार पर टंगे छोटे से आईने के सामने खड़े हो ढिबरी की मद्धिम रोशनी में अपना चेहरा फिर से बड़े गौर से देखने लगी. आज उस का दिल पढ़ाई में बिलकुल नहीं लग रहा था. शाम से ले कर अब तक न जाने कितनी बार आईने के सामने खड़ी हो वह खुद को निहार चुकी थी. बड़ीबड़ी कजरारी आंखें, खड़ी नाक, सांवला पर दमकता रंग और मासूमियतभरा अंडाकार चेहरा. तभी हवा का एक ?ोंका आया और काली घुंघराली लटों ने उस के आधे चेहरे को ढक कर उस की खूबसूरती में चारचांद लगा दिए. एक मधुर, मंद मुसकान उस 18 वर्षीया नवयुवती के चेहरे पर फैल गई. उसे अपनेआप पर नाज हो रहा था. हो भी क्यों न. किसी ने आज उस की तारीफ करते हुए कहा था, ‘चिनम्मा ही है न तू, क्या चंदा के माफिक चमकने लगी इन 3 सालों में, पहचान में ही नहीं आ रही तू तो.’

तभी अप्पा की कर्कश आवाज आई, ‘‘अरे चिन्नू, रातभर ढिबरी जलाए रखेगी क्या? क्या तेल खर्च नहीं हो रहा है?’’ तेल क्या तेरा मामा भरवाएगा. चल ढिबरी बुझा और सो जा चुपचाप. अप्पा की आवाज सुन कर वह डर गई और ?ाट से ढिबरी बु?ा कर जमीन पर बिछी नारियल की चटाई पर लेट गई. अप्पा शराब के नशे में टुन्न था. चिनम्मा को पता था कि ढिबरी बु?ाने में जरा सी भी देर हो जाती तो वह मारकूट कर उस की हालत खराब कर देता. अगर अम्मा बीचबचाव करने आती, तो उसे भी चुनचुन कर ऐसी गालियां देता कि गिनना मुश्किल हो जाता. पर आज उसे नींद भी नहीं आ रही थी. रहरह कर साई की आवाज उस के कानों को ?ांकृत कर रही थी.

चिनम्मा एक गरीब मछुआरे की इकलौती बेटी है. उस के आगेपीछे कई भाईबहन आए, पर जिंदा नहीं बच पाए. अम्मा व अप्पा और गांववालों को विश्वास है कि ऐसा समुद्र देवता के कोप के कारण हुआ है. चूंकि समुद्र के साथ मछुआरों का नाता अटूट होता है, इसलिए अपनी जिंदगी में घटित होने वाले सारे सुखोंदुखों को वे समुद्र से जोड़ कर ही देखते हैं. अप्पा चिनम्मा को प्यार करता है पर जब ज्यादा पी लेता है तो बेटा नहीं होने की भड़ास भी कभीकभी मांबेटी पर निकालता रहता है.

लंबेलंबे नारियल और ताड़ के वृक्षों से आच्छादित चिनम्मा का छोटा सा गांव यारडा, विशाखापट्टनम के डौल्फिन पहाड़ी की तलहटी में स्थित है, जिस का दूसरा हिस्सा बंगाल की खाड़ी की ऊंची हिलोरें मारती लहरों से जुड़ा हुआ है. आसपास का दृश्य काफी लुभावना है. लोग दूरदूर से यारडा बीच (समुद्र तट) घूमने आते हैं. प्राकृतिक सौंदर्य से यह गांव व इस के आसपास का इलाका जितना संपन्न है आर्थिक रूप से उतना ही विपन्न.

गांव के अधिकांश निवासी गरीब मछुआरे हैं. मछली पकड़ कर जीवननिर्वाह करना ही उन का मुख्य व्यवसाय है. 30-35 घरों वाले इस गांव में 5-6 पक्के मकान हैं जो बड़े और संपन्न मछुआरों के हैं. बाकी सब ?ोंपडि़यां ईटपत्थर और मिट्टी की बनी हैं, जिन पर टीन और नारियल के छप्पर हैं. गांव में 2 सरकारी नल हैं, जहां सुबहशाम पानी लेने वालों की भीड़ लगी रहती है. नजर बचा कर एकदूसरे के मटके को आगेपीछे करने के चक्कर में लगभग रोज वहां महाभारत छिड़ा रहता है. कभीकभी तो हाथापाई की नौबत भी आ जाती है.

गांव से करीब एक किलोमीटर पर 12वीं कक्षा तक का सरकारी विद्यालय है जहां आसपास के कई गांव के बच्चे पढ़ने जाते हैं. कहने को तो वे बच्चे विद्यालय जाते हैं पढ़ने, पर पढ़ने वाले इक्कादुक्का ही हैं, बाकी सब टीवी, सिनेमा, फैशन, फिल्मी गाने और सैक्स आदि की बातें ही करते हैं. उन्हें पता है कि बड़े हो कर मछली पकड़ने का अपना पुश्तैनी धंधा ही करना है तो फिर इन पुस्तकों को पढ़ने से क्या फायदा?

पर चिनम्मा इन से थोड़ी अलग है. वह बहुत ध्यान से पढ़ाई करती है. उसे बिलकुल पसंद नहीं है मछुआरों की अभावभरी जिंदगी, जहां लगभग रोज ही मर्र्द शराब के नशे में औरतों, बच्चों से गालीगलौज और मारपीट करते हैं. ये औरतें भी कुछ कम नहीं. जब मर्द अकेला पीता है तो उन्हें बरदाश्त नहीं होता, अगर हाथ में कुछ पैसे आ जाएं तो ये भी पी कर मदहोश हो जाती हैं.

गांव में सरकारी बिजली की सुविधा भी है. फलस्वरूप हर ?ोंपड़ी में चाहे खाने को कुछ न भी हो पर सैकंडहैंड टीवी जरूर है. हां, यह बात अलग है कि समुद्री चक्रवात आने या तेज समुद्री हवा चलने के कारण अकसर इस इलाके में बिजली 8-10 दिनों के लिए गुल हो जाती है. अभी 3 दिनों पहले आए समुद्री हवा के तेज ?ोंके से बिजली फिर गुल हो गई है गांव में. शायद 2-4 दिन और लगें टूटे तारों को ठीक होने और बिजली आने में. तब तक तो ढिबरी से ही काम चलाना पड़ेगा पूरे गांव वालों को.

आज अम्मा जब काम से लौटी तो शाम होने वाली थी, ज्यादा थकी होने के कारण उस ने चिन्नू (चिनम्मा) को रामुलु अन्ना से उधार में केरोसिन तेल लाने भेजा था. अन्ना ने उधार के नाम पर तेल देने से मना कर दिया क्योंकि पहले का ही काफी पैसा बाकी था उस का. पर चिन्नु कहां मानने वाली थी, मिन्नतें करने लगी, ‘‘अन्ना तेल दे दो वरना अंधेरे में खाना कैसे बनाऊंगी आज मैं? अम्मा ने कहा है, अभी अप्पा पैसे ले कर आने वाला है. अप्पा जैसे ही पैसे ले कर आएगा, मैं दौड़ कर तुम्हें दे जाऊंगी.’’

अन्ना और चिनम्मा का वार्त्तालाप जारी था. इसी बीच किसी ने 100 रुपए का एक नया नोट अन्ना को पकड़ाते हुए चिनम्मा के पीछे खड़े हो कर कहा, ‘‘अन्ना, एक ठंडी पैप्सी देना, बहुत प्यास लग रही है,’’ आवाज कुछ पहचानी सी लगी. पलट कर चिन्नू ने देखा तो उस से 3 कक्षा आगे पढ़ने वाला उस के स्कूल का सब से शैतान बच्चा साई खड़ा है. वह एकटक उसे देख कर सोचने लगी, यह यहां कैसे? स्कूल में सब कहते थे कि इसे तो इस की शैतानी से परेशान हो कर इस की विधवा अम्मा ने 3 साल पहले ही कहीं भेज दिया था किसी रिश्तेदार के घर.

उसे लगातार अपनी तरफ देख कर साई ने हंसते हुए कहा, ‘‘चिनम्मा ही है न तू, क्या चंदा के माफिक चमकने लगी इन 3 सालों में, पहचान में ही नहीं आ रही तू तो.’’

एकदम से सकपका सी गई वह साई की इस बात को सुन कर. कहना तो वह भी चाहती थी, ‘तू भी तो बिलकुल पवन तेजा (तेलुगू फिल्मी हीरो) की माफिक स्मार्ट और सयाना बन गया है. पर पता नहीं क्यों बोलने में शर्म आई उसे. वह तेल ले, नजर ?ाका, घर भाग आई तेजी से.

अप्पा के आने का समय हो रहा था. ढिबरी जला कर जल्दीजल्दी सूखी मछली का शोरबा और चावल बनाया तथा थोड़ी लालमिर्च भी भून कर रख दी अलग से. अप्पा को भुनी मिर्च बहुत पसंद है. घर का सारा काम निबटा कर पढ़ने बैठ गई. पर पता नहीं क्यों सामने किताब खुली होने पर भी वह पढ़ नहीं पा रही थी आज.

इसी बीच, अप्पा के तेज खर्राटों की आवाज आनी शुरू हो गई. चिनम्मा ने करवट बदली. अम्मा भी बेसुध सो रही थी. खर्राटों की आवाज से उस का सोना मुश्किल हो रहा था. आज ढंग से पढ़ाई न कर पाने के कारण अपनेआप से खफा भी थी वह. चिनम्मा को तो बहुत सारी पढ़ाई करनी है, उसे वरलक्ष्मी मैडम की तरह टीचर बनना है जो उस के स्कूल में पढ़ाती हैं.

रोज साफसुथरी और सुंदरसुंदर साडि़यां पहन कर कंधे पर बड़ा सा बैग लटकाए जब मैडम स्कूल आती हैं तो उन्हें देखते ही बनता है. क्या ठाट हैं उन के? पढ़ाई के संबंध में अम्मा तो उसे कुछ ज्यादा नहीं कहती पर जब किताब खरीदने या स्कूल के मामूली खर्चे की भी बात आती तो अप्पा नाराज हो कर अम्मा से कहने लगता है, ‘देखो, लड़की बिगड़ न जाए ज्यादा पढ़ कर. ज्यादा पढ़ लेगी, तो हमारे मछुआरे समाज में कोई अच्छा लड़का शादी को भी तैयार नहीं होगा. फिर उसे पढ़ा कर फायदा भी क्या? कौन सा हम लोगों के बुढ़ापे का सहारा बनेगी, चली जाएगी दूसरे का घर भरने.’

काफी करवटें बदलने के बाद भी जब उसे नींद नहीं आई तो वह उठ कर ?ोंपड़ी की छोटी सी खिड़की से बाहर देखने लगी. रात के लगभग 10 बजे होंगे. पूरा गांव सो रहा था. बस, बीचबीच में कुत्तों के भूंकने की आवाज आ रही थी. चांद की दूधिया रोशनी से सारा समुद्र बहुत शांत और गंभीर लग रहा था. समुद्रतट पर रखी छोटीछोटी नावों को देख कर ऐसा महसूस हो रहा था मानो वे भी आराम कर रही हों.

मुंहअंधेरे (ढाई से 3 बजे के लगभग) गांव के अधिकांश मर्द अपना जाल समेटे, लालटेन लिए तीनचार समूह बना कर एकएक नाव में बैठ जाएंगे और निकल पड़ेंगे अथाह समुद्र में दूर तक मछलियां पकड़ने. दोचार मछुआरों के पास अपनी नावें हैं, नहीं तो ज्यादातर किराए की नावों का ही प्रयोग करते हैं. समुद्र में जाल डाल कर घंटों इंतजार करना पड़ता है उन्हें. कभी तो ढेर सारी मछलियां हाथ लग जाती हैं एकसाथ, पर कभीकभी खाली हाथ भी आना पड़ता है. वापस आतेआते 9-10 बज जाते हैं. औरतें खाना बना कर पति का इंतजार करती रहती हैं. जैसे ही नाव आनी शुरू हो जाती, शहर से आए थोक व्यापारी मोलभाव कर के सस्ते में मछलियां खरीद कर ले जाते हैं.

बची हुई पारा, सुरमई, पाम्फ्रेड, बांगडा, प्रौन आदि मिश्रित मछलियों को ले कर औरतें तुरंत निकल जाती हैं घरघर बेचने. मर्द खाना खा कर सो जाते हैं. जब तक मर्दों की नींद पूरी होती, तब तक औरतें मछलियां बेच कर मिले पैसों से घर का जरूरी सामान खरीद वापस आ जाती हैं. फिर शाम का खानापीना, शहर की लंबीलंबी बातें, फिल्मों की गपशप, हंसीमजाक और अकसर गालीगलौज भी.

मछुआरों में मुख्यतया हिंदू या ईसाई धर्मावलंबी हैं. पर उन सब का पहला धर्म यह है कि वे मछुआरे हैं. मछली पकड़ने भी रोज नहीं जाया जा सकता, मछुआरे समाज की मान्यता है कि ऐसा करने से समुद्र जल्दी ही खाली हो जाएगा और फिर देवता के कोप से उन्हें कोई बचा नहीं सकता. साल के लगभग 3 महीने जब मछलियों के ब्रीडिंग का समय होता है, मछुआरे समुद्र में मछली मारने नहीं जाते. यह उन का उसूल है. ऐसे समय छोटे मछुआरों के घरों की हालत और खराब हो जाती है. तब इन में से ज्यादातर मजदूरी करने विशाखापट्टनम या हैदराबाद जैसे शहरों में चले जाते हैं.

चिनम्मा का परिवार पहले हिंदू था. पर आर्थिक सहायता मिलने की आशा में अप्पा ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया है. और हर रविवार को चर्च जरूर जाता है. घर में चाहे कितनी भी आर्थिक तंगी हो, चिनम्मा का अप्पा तो गांव छोड़ कर कभी कहीं नहीं जाता कमाने. उसे कमाने से ज्यादा पीने से मतलब है. जिस दिन कमाई के पैसे नहीं हों, तो घर का कोई बरतन ही बेच कर अपना काम चला लेता है. अम्मा बेचारी करे भी तो क्या करे? लड़ती?ागड़ती और अपने समय को कोसती हुई अप्पा को गालियां देती रहती है. उस ने तो गृहस्थी चलाने और पेट भरने के लिए डौल्फिन पहाड़ी पर बसी नेवी कालोनी में नौकरानी का काम शुरू कर दिया है.

अप्पा के खांसने की आवाज से चिनम्मा का ध्यान भंग हुआ, वह वापस आ कर लेट गई. सोचतेसोचते पता नहीं कब नींद ने उसे अपनी आगोश में ले लिया. सुबह अम्मा की तेज आवाज से नींद खुली. साढ़े 6 बज गए. आज बिस्तर पर ही पड़ी रहेगी क्या चिन्नू? कौफी बना कर रख दी है, पी लेना. मैं काम पर जा रही हूं.

हड़बड़ा कर उठी तो देखा, अप्पा आज भी मछली पकड़ने नहीं गया. वह रोज कोई न कोई बहाना बना कर घर में ही पड़ा रहता है. कौफी पी कर चिन्नू जल्दीजल्दी घर का सारा काम निबटाने लगी. उसे 9 बजे स्कूल पहुंचना होता है. स्कूल पहुंची, तो देखा स्कूल गेट के पास खड़ा साई उसे तिरछी नजर से देख रहा है. अपना सिर नीचे ?ाका लिया, पर न जाने क्यों दिल को अच्छा लगा.

3 बजे स्कूल की छुट्टी हुई. स्कूल के अधिकांश बच्चे घर चले गए. पर चिनम्मा और उस की कक्षा के कुछ बच्चे स्कूल के राव सर से ट्यूशन पढ़ने के लिए रुक गए. ट्यूशन खत्म होने के बाद सभी अपनेअपने गांव की ओर चल दिए. चिनम्मा भी तेज कदमों से घर की ओर चल पड़ी. तभी उसे लगा कि किसी ने पुकारा ‘चिन्नू’. बढ़ते कदम एकाएक थम गए. पीछे मुड़ कर देखा, साई उस के पीछेपीछे चला आ रहा है.

वह घबरा गई कि कहीं अप्पा ने देख लिया तो? उस की घबराहट देख कर साई ने हंसते हुए कहा, ‘मैं कोई भूत हूं क्या, जो तु?ो खा जाऊंगा?’

चिनम्मा के मुंह से निकला ‘लेकिन अप्पा?’

‘अरे अप्पा की चिंता मत कर तू, दुकान पर बैठ मस्त हो कर दारू पी रहा है. उसे देख कर इस बात की गारंटी है कि अभी कम से कम 2 घंटे तक घर पहुंचने वाला नहीं है वह. और तेरी अम्मा तो इस समय काम पर गई हुई है.’

‘तु?ो ये सारी बातें कैसे पता?’ चिनम्मा ने आश्चर्य से पूछा.

मैं सब चैक कर के आया हूं, साई ने अपनी शरारतभरी आवाज में इस ढंग से कहा कि चिनम्मा को हंसी आ गई. दोनों ही एकसाथ खिलखिला कर हंस पड़े.

चिनम्मा ने कहा, ‘तू इस जन्म में कभी नहीं सुधरेगा साई.’

फिर दोनों साथसाथ चलने लगे. कुछ कदम चलने पर जब चिनम्मा थोड़ी आश्वस्त सी हुई, तो धीरे से बोली, ‘‘एक बात पूछूं, पिछले 3 सालों से कहां था रे तू?’’ मु?ो तो लगा कि अब तो तू लौट कर आएगा ही नहीं अपने गांव.’’

साई बताने लगा, ‘‘मेरी शरारतों और शिकायतों से तंग आ कर अम्मा अचानक मु?ो मामा के पास हैदराबाद ले कर चली गई थी. मेरा मामा वहां मछली की दुकान चलाता है. अच्छा कमाताखाता है. अम्मा ने अपने भाई से कहा कि तू इस की पढ़ाई करवा दे और बदले में यह सुबहशाम तुम्हारी दुकान पर काम कर दिया करेगा मुफ्त में. जब लायक बन जाए तो भाई तेरी बेटी को मैं अपनी बहू बना लूंगी बिना दहेज के. (यहां पाठकों को यह बताना आवश्यक है कि दक्षिण भारत के कुछ राज्यों के सभी धर्मों में सगे ममेरेफुफेरे भाईबहनों की शादी को समाज द्वारा स्वीकृति है).

‘‘मामा खुश हो गया यह सुन कर. उस ने मेरा नाम टीवी रिपेयरिंग डिप्लोमा कोर्स’ में लिखवा दिया. मैं भी खुशीखुशी जाने लगा. खूब बड़ा शहर है हैदराबाद, चारों तरफ मोटरगाडि़यां और चकाचौंध करने वाली भीड़. जब तक अम्मा हैदराबाद रही, सबकुछ ठीकठाक चलता रहा. पर जैसे ही वह मु?ो छोड़ कर गांव चली आई, मामी का व्यवहार मेरे लिए बदल गया. वह रोज किसी न किसी बहाने मु?ो पढ़ने जाने से रोकने की कोशिश करती. वह मामा और मु?ा से लड़ाई भी करती रहती. उसे और उस की बेटी को मेरा वहां रहना, खाना और मामा द्वारा मेरी फीस भरना बिलकुल नहीं भाता था. कारण, मामी अपने सगे भाई के बेटे से अपनी बेटी की शादी करना चाहती थी. मैं उसे गंवार और निकम्मा लगता था.

‘‘उन दिनों मु?ो पहली बार अपने अम्माअप्पा और गांव की बहुत याद आई. जब मामा के घर में रहना मुश्किल हो गया तो एक दिन चुपचाप मैं घर से भाग गया किसी अनजान महल्ले में. एक संकल्प के साथ कि जीवन में कुछ बन कर मामी और उस की बेटी को दिखा दूंगा. उस के बाद से अपना खर्चा चलाने के लिए मैं सुबह क्लास करता और शाम के समय दुकान में नौकरी करता. इसी तरह मैं ने टीवी रिपेयरिंग डिप्लोमा कोर्स के बाद धीरेधीरे मोबाइल और कंप्यूटर रिपेयरिंग कोर्स भी कर लिया और पिछले एक साल से हैदराबाद की एक बड़ी दुकान में काम कर रहा हूं. छुट्टी ले कर अम्मा को देखने आया हूं.’’

चिनम्मा ने साई को छेड़ते हुए कहा, ‘‘तेरी बातें सुन कर लगता है कि अब तो बड़ा सयाना और सम?ादार हो गया है रे तू तो. अच्छा बता, इतने दिनों बाद गांव आ कर तु?ो कैसा लग रहा है, कहीं वापस तो नहीं चला जाएगा शहर फिर से?’’

साई उस के जरा नजदीक आ कर बोला, ‘‘सच कहूं, तो ज्यादा कुछ अच्छा नहीं लगा यहां आ कर. कहीं कुछ भी तो नहीं बदला है इस इलाके में. मेरा अप्पा देशी शराब पीपी कर बेमौत मर गया और तेरे अप्पा जैसे लोग मरने की तैयारी में हैं. मैं तो वापस जाने की सोच रहा था पर समय की कृपा से तभी कल तू दिख गई रामुलु अन्ना की दुकान पर. और तब से अब सबकुछ अच्छा लगने लगा है मु?ो.’’ यह कह कर साई ने प्यार से चिनम्मा का हाथ पकड़ लिया.

‘‘धत,’’ कह कर चिनम्मा ने अपना हाथ छुड़ाया और शरमा कर घर भाग आई.

फिर कई दिनों तक दोनों स्कूल से लौटते वक्त किसी न किसी बहाने मिलते रहे. एकदूसरे के साथ रहना अच्छा लगने लगा था उन्हें. शायद प्यार का अंकुर फूट चुका था दोनों के दिलों में.

बातों ही बातों में साई ने बताया कि वह गांव की अपनी ?ोंपड़ी बेच कर शहर में दुकान खोलने जा रहा है टीवी, मोबाइल और कंप्यूटर रिपेयरिंग की, क्योंकि अब उसे अच्छा अनुभव हो गया है अपने काम का.

चिनम्मा ने भी जब भविष्य में अपने टीचर बनने की बात बताई साई को तो साई ने पूछा, ‘‘लेकिन तू टीचर बनेगी कैसे? तु?ो तो शहर जाना पड़ेगा टीचर बनने का कोर्स (टीचर्स ट्रेनिंग) करने, और तेरा अप्पा तो पक्का नहीं भेजेगा तु?ो.’’

‘‘हां, यह बात तो मैं भी जानती हूं, पर मैं कर भी क्या सकती हूं?’’ निराशाभरे स्वर में चिनम्मा ने कहा.

‘‘एक उपाय है,’’ साई ने कहा.

‘‘वह कौन सा है, बता तो जरा?’’ चिनम्मा ने उत्सकुता से पूछा.

‘‘तू मु?ा से शादी कर ले और चल शहर मेरे साथ आगे की पढ़ाई करने,’’ पता नहीं कैसे साई अपने मन की बात बोल गया अचानक.

‘‘बुद्धू, यह कैसे हो सकता है भला? हम दोनों 2 धर्म के हैं, तू हिंदू और मैं ईसाई. अगर दोनों के घरवालों और समाज को पता चल गया तो तेरीमेरी खैर नहीं, मार कर फेंक देंगे हमें,’’ कह कर चिनम्मा चुप हो गई.

‘‘2 धर्म के हुए तो क्या हुआ, दिल तो मिलता है न अपना. शादी के बाद तू अपना धर्म मानेगी और मैं अपना. हम चर्च और मंदिर दोनों जगह जाया करेंगे, क्या फर्क पड़ता है इन बेबुनियादी बातों से. अगर हिम्मत और हौसला हो तो कोई परिवार और समाज नहीं रोक सकता हम दोनों को,’’ फिल्मी हीरो की तरह बोला साई.

‘‘पर ऐसा करने से तो अप्पा की इज्जत चली जाएगी. मेरे साथ मेरी अम्मा को भी मार डालेगा वह. मु?ो नहीं जाना अपने अम्माअप्पा को छोड़ कर किसी अनजान शहर में कहीं दूर तेरे साथ,’’ चिनम्मा ने छोटे बच्चे की तरह कहा.

उस का डरना स्वाभाविक ही था. असल जिंदगी में वह अपने गांव, चर्च और आसपास के इलाके को छोड़ कर कहीं नहीं गई थी अभी तक.

साई हंसने लगा. फिर गंभीर स्वर में बोला, ‘‘तू बेवकूफ और डरपोक है चिन्नू, जिंदगी में कुछ बनना तो चाहती है पर हिम्मत करने से डरती है. अगर मैं भी तेरी तरह मामी की गालियों और जुल्मों से डर जाता तो कभी भी अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो पाता. बस, मामा की दुकान का एक नौकर बन कर रह जाता.’’

कुछ दिनों बाद साई चला गया, पर जातेजाते अपना, फोन नंबर दे गया अपनी चिन्नू को. यह कह कर, ‘‘जब दिल करे फोन कर लेना दोस्त सम?ा कर.’’ एकदो बार उस का दिल किया साई को फोन करने का, पर अप्पा का खयाल कर वह डर गई.

3 महीने बीत गए. 12वीं की परीक्षा के फौर्म भरने के लिए चिनम्मा को रुपयों की जरूरत थी. अप्पा से तो मांगने का प्रश्न ही नहीं था. बदले में उसे इतनी गालियां मिलतीं, इस का अनुमान कर के ही कांप जाती. पर वह अपना एक साल बरबाद भी नहीं करना चाहती थी. वह रुपए लाए कहां से. बड़ी हिम्मत कर के दबी जबान से अम्मा को बता रही थी, तभी पता नहीं कहां से अप्पा आ गया. आते ही बोला, ‘‘क्या बातें कर रही हो दोनों मांबेटी?’’ अम्मा के बताने पर उस ने तुरंत पूछा, ‘‘कितने रुपए चाहिए तु?ो 12वीं पास करने के लिए?’’

चिनम्मा अवाक रह गई जब अप्पा ने 100-100 के 4 नोट उस के हाथ पर रख दिए. ‘अप्पा के पास इतने रुपए आए कहां से,’ सोचते हुए उस ने पैसे ले लिए. अगले दिन स्कूल जा कर परीक्षा का फौर्म भर दिया चिनम्मा ने. पर उस ने यह भी महसूस किया कि आजकल अप्पा बहुत खुश रहता है और उसे डांटतामारता भी नहीं. तो उस का मन शंका से भर उठा.

12वीं की फाइनल परीक्षा शुरू हो चुकी थी. अंतिम परीक्षा दे कर स्कूल से आने के बाद चिनम्मा ने देखा अम्माअप्पा बड़े मेलमिलाप से धीरेधीरे कुछ बातें कर रहे हैं. उत्सुकता हुई तो दवेपांव अंदर आ कर वह उन की बातें सुनने लगी.

अप्पा अम्मा से कह रहा था कि परसों सोमवार को तू छुट्टी ले ले अपने काम से. शहर जाना है.

अम्मा बोली, ‘‘मगर क्यों?’’

अप्पा ने कहा, ‘‘चिन्नू का पासपोर्ट बनवाना है.’’

‘‘12वीं परीक्षा पास करने के लिए पासपोर्ट बनवाना पड़ता है क्या?’’ अम्मा ने भोलेपन से पूछा.

‘‘अरे नहीं रे, बिलकुल पागल है तू तो,’’ अम्मा को ?िड़कते हुए अप्पा ने कहा, ‘‘मैं ने चिन्नू की शादी तय कर दी है, अपनी मुंहबोली बहन पद्मा अक्का के बेटे नागन्ना से.’’

‘‘वही नागन्ना जो पुलिस के डर से अपनी बीवी और दुधमुंहे बच्चे को छोड़ कर कहीं गायब हो गया था कुछ सालों पहले,’’ अम्मा ने घबरा कर कहा.

‘‘अरे, अब वह पुराना वाला नागन्ना कहां रहा. दुबई में काम करता है. अच्छा कमाताखाता है. पुलिस भी उस का कुछ नहीं कर सकती अब तो. अक्का बता रही थी कि जब वह देश आएगा तो पैसे खर्च कर सारा मामला दबा देगा,’’ अप्पा ने जवाब दिया.

‘‘नहीं करना मु?ो अपनी चिन्नू की शादी ऐसे मवाली से, फिर तेरी पद्मा अक्का कौन सी भली औरत है,’’ यह कह कर अम्मा सुबकने लगी.

‘‘बहुत पैसा है नागन्ना के पास, अपनी चिन्नू राज करेगी वहां. फिर सोच, इस जमाने में बिना दहेज के कौन शादी करेगा हमारी बेटी से. नागन्ना ने दहेज मांगने के बजाय उलटे कहा है कि अगर शादी हो गई तो वह हमें भी हर महीने कुछ पैसे भेजा करेगा अपनी कमाई के. सोच, फिर तु?ो कहीं काम पर भी जाना नहीं पड़ेगा, घर पर आराम से रहेगी तू मेरी रानी बन कर,’’ अप्पा लाड़ से बोला.

‘‘शादी कब होगी?’’ अम्मा के पूछने पर अप्पा बोला, ‘‘12वीं के बाद अपनी चिन्नू दुबई चली जाएगी पद्मा अक्का के साथ. जहां नागन्ना काम करता है. शादी भी वहीं जा कर होगी दोनों की. इसलिए पासपोर्ट बनवाना जरूरी है.’’

यह सुन कर अम्मा शांत हो गई भविष्य में मिलने वाले सुख की कल्पना कर के. गरीबी और अभावभरी जिंदगी होती ही ऐसी है कि जरा सी सुख की चाहत इंसान से हर तरह के सम?ौते करवा लेती है.

यह सब सुन कर सन्न रह गई चिनम्मा. अब उसे सम?ा आ गया कि अप्पा ने पैसे क्यों दिए थे फौर्म भरने के लिए, क्यों खुश रहता है वह आजकल? यह सोच कर कि अप्पा ने उस का सौदा किया है अपने पीने के वास्ते, रातभर रोती रही तकिए में मुंह छिपा कर वह. मन फट गया था उस का अप्पाअम्मा की तरफ से. नहीं माननी है उसे अप्पा की कोई बात, नहीं करनी है उसे उस आपराधिक प्रवृत्ति वाले नागन्ना से शादी, चाहे कितने भी पैसे हों उस के पास या अपने ही धर्म का हो. यह सब सोच कर उस की आंखों से बहने वाले आंसुओं की धार तेज हो गई और उन आंसुओं के साथ धीरेधीरे उस की भय, चिंता और परेशानी सब बह गए.

सुबह उठी, तो दिल और दिमाग थोड़ा शांत था. उसे बारबार साई की कही बात याद आने लगी थी, ‘तू बेवकूफ और डरपोक है चिन्नू, जिंदगी में कुछ बनना तो चाहती है पर हिम्मत करने से डरती है,’ ठीक ही तो कह रहा था साई. मु?ा में हिम्मत की कमी थी अब तक. पर अब नहीं. अब वह किसी से भी नहीं डरेगी, अपने अप्पा से तो बिलकुल नहीं.

ऐसा निश्चय कर पूर्ण आत्मविश्वास के साथ चिनम्मा चुपचाप निकल पड़ी साई को फोन करने.

पता नहीं, क्या बात हुई दोनों में, 2 दिनों बाद पासपोर्ट बनवाने विशाखापट्टनम गई चिनम्मा अचानक गायब हो गई. अम्माअप्पा ने बहुत ढूंढ़ा, पर कुछ पता नहीं चला. रोतेबिलखते दोनों गांव वापस आ गए. कुछ दिनों तक उस के गायब होने की चर्चा होती रही, फिर सबकुछ शांत हो गया. 6 वर्षों बाद वह लौटी अपने साई के साथ उसी स्कूल की मैडम बन कर, जहां वह पढ़ती थी. उस की गोद में एक नन्ही सी गुडि़या भी थी.

पोस्टमार्टम: देख रहा है विनोद

ब्रह्मांड का एकलौता ‘गड़े मुरदे उखाड़ने वाला’ चैनल ‘विक्की मीडिया’ में आप का स्वागत है. हमारे संवाददाता नारद बेखबर, कैमरामैन धृतराष्ट्र और व्यंग्य की समझ से पैदल व्यंग्याचार्य श्री सवा एक सौ आठ विनोद ‘विक्की’ के साथ आइए कुछ खास घटनाओं का मजाकिया अंदाज में पोस्टमार्टम करते हैं, जो साल 2022 के ऐतिहासिक कलैंडर में दर्ज और दफन हो चुकी हैं.

इस साल एक ओर जहां सदी के महानायक ने कमला पसंद के जरीए नौजवानों को पौष्टिक गुणों से भरपूर गुटका के सेवन का आह्वान किया, तो वहीं दूसरी ओर सभी हिंदी फिल्मों की शुरुआत में हाथों में सैनेटरी पैड ले कर नंदू के पास पहुंच कर धूम्रपान न करने की नसीहत देने वाले देशभक्त हीरो खिलाड़ी कुमार जुबां केसरी के प्रणेता सिंघम और बादशाह के साथ गुटका बेचते नजर आए. बौलीवुड में ‘बाजीराव मस्तानी’ की जोड़ी भी इस साल खासा चर्चा में रही.

पति परमेश्वर के नंगधड़ंग फोटो शूट से प्रेरणा पा कर धर्मपत्नीजी जब पठान के साथ अधनंगी अवस्था में नजर आई, तो नयनसुख दर्शकों में गजब का जोश देखने को मिला. उन्हें इस बात की उम्मीद है कि कम हो रही जीडीपी, रोजगार और आमदनी की तरह शायद साल 2023 में उर्फी और पादुकोण के कपड़ों की मात्रा में और ज्यादा कमी नजर आए.

दर्शकों द्वारा टौलीवुड को दुलार और बौलीवुड को दुत्कार का ट्रैंड परवान चढ़ता देख कर सलमान खान, ऐश्वर्या राय जैसे हिंदी सितारे साउथ की फिल्मों में गौडफादर तलाशते दिखे, तो दक्षिण के ऐक्टर हिंदी फिल्मों पर राज करते नजर आए. बिंगो टेढ़ेमेढे़ की तरह देश की राजनीति भी इस साल टेढ़ीमेढ़ी रही. देश के सब से प्राचीन राजनीतिक संस्थान में महाबदलाव देखने को मिला.

हो रही किरकिरी और नाकामी से थकहार कर परंपरागत पारिवारिक अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी किसी गैरपारिवारिक सदस्य को दे दी गई. साथ ही, इस पार्टी के तथाकथित युवा नेता लंबी दाढ़ी और राजनीतिक फैविकोल ले कर भारत को जोड़ने निकल पड़े. कम सीट के बावजूद जोड़जुगाड़ से सरकार बनाने वाली बहुचर्चित राष्ट्रीय पार्टी को बुद्ध और चाणक्य की धरती पर अपने ही सहयोगी का तीर चुभ गया. गठबंधन की गांठ खोल कर चाचा भतीजा के साथ हो लिए.

सांसारिक मोहमाया त्याग चुके संत दूसरी बार उत्तर प्रदेश चुनाव में सत्ता सुख के लिए निर्वाचित हुए. पंजाब में सब से ज्यादा हंसाने वाले को सीएम की कुरसी, तो फेफड़ा बाहर निकाल हंसने वाले ठोको मंत्र के जन्मदाता को कारावास का योग बना. भारतीय मूल के ऋषि सुनक का ब्रिटेन पीएम बनने पर भारत के वैसे लोगों में भी आस और उम्मीद की किरण जगी, जिन की अपने पड़ोसियों से कभी नहीं बनी.

हफ्ते में कम से कम 2 दिन अपने पड़ोसियों से जबानी जंग या लाठी भांजने वाला भी सुनक से उम्मीदें पाल चुका है. आप ने दोस्तों की संगति में लोगों को बिगड़ते देखा और सुना होगा. कुछ इसी तरह के हालात इस साल इंटरनैशनल लैवल पर देखने को मिले, जब आपसी सुलह के बजाय मित्र राष्ट्रों के बहकावा में ‘मैं झुकेगा नहीं… पुष्पा’ टाइप यूक्रेन ने रूस से पंगा ले लिया और जनधन के नुकसान का तांडव शुरू हो गया. नैशनल लैवल पर गजब की हिम्मत का परिचय देते हुए भारत सरकार की अग्निपथ योजना के विरोध में बिहार और उत्तर प्रदेश के अग्निवीरों ने लुकाठी ले कर राष्ट्रीय संपत्ति को फूंकने में अपनी भरपूर ताकत का इस्तेमाल किया.

चलतेचलते अगर सहिष्णुता और धार्मिक कामयाबियों की बात न हो, तो साल का कलैंडर अधूरा ही माना जाएगा. इस साल के आखिरी महीने में देश की सब से बड़ी शैक्षणिक संस्था के अमनपसंद शिक्षित शांतिदूतों द्वारा बनियों और ब्राह्मणों को देश से बाहर निकाल कर विकसित भारत की सोच की नुमाइश दीवारों पर की गई.

ज्ञानवापी की लहक मथुरा में देखने को मिली. दक्षिण भारत में बुरका बैन का स्यापा हो या दिल्ली से झारखंड का लव जिहाद आदि मामलों ने संक्रमित हो चुकी इनसानी इम्यूनिटी के लिए धार्मिक बूस्टर डोज का काम किया. अंबुजा सीमेंट जैसी सहनशक्ति के चलते बेरोजगारी, प्राइवेटाइजेशन के दौरान इस साल भी भारतीय नागरिक काफी संयम में दिखे. महंगाई, बेरोजगारी आदि की चिंता छोड़ मीम्स, रील्स, वैब सीरीज देखने और बनाने में बिजी रहे. इन सारी बातों को ‘देख रहा है विनोद…’ की तर्ज पर सारा देश बखूबी देखता रहा. बहरहाल, उम्मीद पर दुनिया टिकी है. साल 2023 की मंगलमय कामनाओं के साथ हम अपनी टीम के साथ ऐसे ही धांसू खबरों के साथ जल्द ही हाजिर होंगे आप के चहेते चैनल ‘विक्की मीडिया’ पर, तब तक के लिए हैप्पी न्यू ईयर.

News Kahani: रेप की सजा

‘‘अब उन्होंने ऐसा क्या कर दिया, जो आप ने अपनी सारी शर्म बेच खाई. मेरे पिताजी हैं वे और आप उन्हें इतना गंदा बोल रहे हैं,’’ हरपाल की बीवी दयावती ने अपना माथा पीटते हुए कहा.

‘‘ज्यादा चपरचपर मत कर. तेरा भाई कौन सा कम है. बहन का… इतने साल हो गए शादी को, मेरी कोई इज्जत ही नहीं है,’’ हरपाल दारू की बोतल नीट ही गटकते हुए बोला और फिर बच्चों के सामने ही गालियां बकने लगा.

हरपाल कुछ साल पहले ही गांव से दिल्ली आया था. ट्रांसपोर्ट का धंधा था, जो चमक गया. पैसा तो आ गया, पर

यह जो गाली देने की लत लगी थी, वह नहीं गई.

दयावती मौके की नजाकत सम?ाते हुए रसोईघर में चली गई थी. वह ऐसा ही करती थी, जब भी हरपाल का दिमाग फिरता था, वह गूंगी गाय बन जाती थी.

कुछ भी हो, दयावती दया का भंडार थी. हरपाल से उस की शादी 20 साल पहले हुई थी. अब वह 3 बच्चों की

मां बन गई थी, पर कोई भी ऐसा दिन नहीं था, जब हरपाल दयावती के घर वालों को गंदीगंदी गालियां नहीं देता था. उन्हें ही क्या, हरपाल, जो कहने को दिल्ली की मालवीय नगर कालोनी में रहता था, अपने पड़ोसियों पर भी बिना कुछ सोचेसम?ो गालियों की बौछार कर देता था.

यही वजह थी कि कोई भी पड़ोसी हरपाल के घर से बच कर ही निकलता था. हैरत की बात तो यह थी कि हरपाल के बच्चे भी उसी की राह पर थे. बड़ी बेटी मोनिका 18 साल की थी और कालेज के पहले साल में पढ़ रही थी. हरपाल का बेटा शेखर 15 साल का था और एक बढि़या प्राइवेट स्कूल में पढ़ता था. उसी के साथ 12 साल की छोटी बहन संगीता भी पढ़ती थी.

हरपाल के बातबात पर गाली देने की वजह से उस के बच्चे भी हाथ से निकल गए थे. शेखर तो हरपाल से ही भिड़ जाता था. पढ़ाई में वह निल बटे सन्नाटा था, पर गाली देने में अपने बाप का भी बाप.

एक दिन तो शेखर ने घर के बाहर खड़े हो कर अपने बाप को ही गाली देदे कर नंगा कर दिया था. दोनों में खूब मांबहन की हुई थी. बीच में कुछ पड़ोसी आ गए थे, बापबेटे को चुप कराने के लिए, पर हरपाल और शेखर ने उन्हीं पर गालियों की बौछार कर दी. पड़ोस में रहने वाले गुप्ताजी तो इतने डर गए थे कि कुछ दिनों के लिए परिवार के साथ पहाड़ों पर कहीं घूमने चले गए थे.

एक दिन तो मोनिका अपनी सोसाइटी के सिक्योरिटी गार्ड से ही भिड़ गई थी. दरअसल, वह डीप कट का सूट पहन कर कालेज जा रही थी. उस के उभार उछल रहे थे.

गार्ड सीने पर हाथ रख कर बोला, ‘‘इतना भी मत उछाल कि बाहर ही न आ जाएं.’’

जब मोनिका ने उस गार्ड की तरफ देखा, तो वह दाएंबाएं देखने लगा. मोनिका मां की गाली देते हुए बोली, ‘‘ज्यादा मर्द बनता है न. इतना कस कर दबाऊंगी कि फिर खड़ा रहने लायक नहीं बचेगा.’’

यह कहानी अकेले हरपाल के घर की नहीं है, बल्कि पूरे भारत में गाली देने वालों की भरमार है. कुछ लोग तो अपने मवेशियों तक को भी मांबहन की गालियां देने से गुरेज नहीं करते हैं.

90 फीसदी से ज्यादा गालियां लड़कियों और औरतों के नाजुक अंगों से जुड़ी होती हैं. गालीगलौज मर्दों में होता है, पर शरीर औरतों का उघाड़ा जाता है. मांबहन, चाचीताई, सालीभौजाई सब के नाम से खूब गालियां बनी हुई हैं.

पर हरपाल जैसे परिवारों की अक्ल पर तो जैसे पत्थर पड़े होते हैं. बदला लेने के लिए होता है. किसी को काबू में रखने के लिए, किसी को डराने के लिए, किसी को सरेआम अपनी ही नजरों में नीचा गिराने के लिए, सिर्फ मजा लेने के लिए वे सब के सामने धड़ल्ले से गालियों का इस्तेमाल करते हैं.

बीए में पढ़ने वाली मोनिका का भी यही सोचना है. वह कहती है, ‘‘हम लड़कियां वे सभी गालियां देती हैं, जो लड़के देते हैं. ओटीटी प्लेटफार्म पर आने वाली फिल्मों और सीरियलों ने गालियों को ‘कूल’ बना दिया है यानी गालियां बातचीत का सहज हिस्सा बन गई हैं. अगर गालियों का इस्तेमाल न हो, तो लगता है कि हम नए जमाने के नहीं हैं.’’

मोनिका भले ही गंदी जबान की थी, पर खूबसूरत बदन की मालकिन थी. साढ़े 5 फुट कद, गोरा रंग, लंबे बाल, बड़ेबड़े उभार, मदमस्त चाल के चलते वह कालेज में हर मनचले की पहली पसंद बन गई थी.

कालेज में 23 साल का चपरासी बृजेश तो दिनरात मोनिका के सपने देखता था. मोनिका की बेलगाम जबान के चलते वह सोचता था कि यह लड़की जल्दी से पके आम की तरह उस की ?ाली में आ जाएगी.

एक दिन बृजेश ने मौका देख कर मोनिका से कहा, ‘‘मैडम, मेरी छोटी बहन 12वीं क्लास में आई है. घर में आप की पुरानी किताबें होंगी. अगर मुझे मिल जातीं तो मेरा खर्चा बच जाता.’’

मोनिका बोली, ‘‘अबे बहन के टके. इतनी सी बात है. कल दिन में घर आ जाना. घर पर कोई नहीं होगा, तो मैं तुझे आराम से किताबें दे दूंगी.’’

अगले दिन सुबह की बात है. हरपाल अखबार पढ़ रहा था. कोलकाता में लेडी डाक्टर के साथ रेप और फिर मर्डर

का कांड हो चुका था. पूरे देश में इस अपराध को ले कर डाक्टरों में गुस्सा था. आरोपी संजय राय की सीबीआई में पेशी चल रही थी.

इस पूरे मामले की बात करें, तो सीबीआई के सूत्रों के मुताबिक, यह कांड होने से पहले पीडि़ता महिला ट्रेनी डाक्टर और 2 साथियों ने आधी रात के आसपास खाना खाया था, जिस के बाद वे सैमिनार रूम में गए और ओलिंपिक में नीरज चोपड़ा का भाला फेंक कंपीटिशन टीवी पर देखा.

इस के बाद रात के तकरीबन 2 बजे दोनों साथी सोने चले गए, जहां ड्यूटी पर मौजूद डाक्टर आराम कर रहे थे, जबकि महिला ट्रेनी डाक्टर सैमिनार रूम में ही रुकी रही. वहीं, इंटर्न का कहना है कि वह रूम में था. दरअसल, ये तीनों कमरे सैमिनार रूम, स्लीप रूम और इंटर्न रूम तीसरी मंजिल पर एकदूसरे के करीब ही बने हुए हैं.

इस के बाद सुबह के तकरीबन साढ़े 9 बजे पोस्ट ग्रेजुएट ट्रेनी डाक्टरों में से एक, जिस के साथ पीड़िता ने पिछली रात खाना खाया था, वार्ड का राउंड शुरू होने से पहले उसे देखने गया. कोलकाता पुलिस की टाइमलाइन के मुताबिक, उस ने दूर से उस का शव अर्धनग्न अवस्था में देखा. फिर उस ने अपने साथियों और सीनियर डाक्टरों को घटना की जानकारी दी.

‘‘बड़ा मादर… निकला,’’ यह खबर पढ़ते ही हरपाल के मुंह से गाली निकल गई.

शेखर और संगीता स्कूल जाने की तैयारी कर रहे थे. शेखर बोला, ‘‘अरे पापा, लड़की ने ही उकसाया होगा. जवानी मचल रही होगी. आजकल तो शादी से पहले ही सबकुछ हो जाता है.’’

दयावती ने अपने सपूत को टेढ़ी निगाह से देखा जरूर, पर वह बोली कुछ नहीं. पर मोनिका कहां चुप रहने वाली थी, ‘‘तुझे पता भी है कि आजकल रेप के कितने केस आते हैं… कभी कोलकाता, कभी महाराष्ट्र, कभी दिल्ली… कम उम्र की बच्चियों को भी नहीं छोड़ते हैं… और तू ने कोलकाता के केस वाले आरोपी के बारे में नहीं पढ़ा?’’

‘‘क्या…?’’ शेखर ने सवाल किया, ‘‘पर, वह लड़की भी कम चालू नहीं रही होगी.’’

मोनिका ने शेखर को एक भद्दी सी गाली देते हुए आरोपी संजय राय की खबर के बारे में बताया, ‘‘सीबीआई ने आरोपी संजय राय का साइकोलौजिकल टैस्ट किया है. इस टैस्ट के दौरान संजय से कई सवाल किए गए थे. उस के मोबाइल फोन से मिले पौर्न वीडियो को ले कर भी सवाल हुए थे.

‘‘संजय राय ने इस टैस्ट के दौरान यह भी बताया था कि वह रैडलाइट एरिया जाता रहता था. उस ने कबूल किया कि वारदात के दिन पौर्न वीडियो देखे थे.

‘‘ऐसे लोगों में हाइपरसैक्सुअलिटी डिसऔर्डर होता है और इस बीमारी से पीडि़त कुछ इनसान हर दिन अपनी सैक्स इच्छा किसी न किसी तरह पूरी करना चाहता है. ऐसे आदमी शरीर की जरूरत पूरी करने के लिए किसी भी तरह का अपराध कर सकता है और उस के मन में अफसोस तक नहीं होता है.’’

‘‘तू कुछ भी कह, लड़की की भी गलती रही होगी. कोई भी बेवजह ही सरकारी सांड़ नहीं बनता है,’’ शेखर ने अपनी बात रखी और संगीता के साथ स्कूल चला गया.

आज मोनिका के कालेज में छुट्टी थी. पापा के अपने काम पर और मम्मी के मौसी के घर जाने के बाद वह घर पर अकेली थी. चूंकि घर पर थी तो उस ने ढीली सी टीशर्ट और टाइट शौट्स पहनी हुई थी. टीशर्ट के नीचे ब्रा भी नहीं थी. उस के उभार ?ालक रहे थे.

इधर, बृजेश मोनिका के घर के लिए निकल चुका था. उसे लगता था कि मोनिका बिंदास है, लड़कों की तरह गालियां देती है, तो वह आसानी से मान जाएगी और वह आज अपनी हसरत पूरी कर लेगा.

दरवाजे की घंटी बजी, तो मोनिका को लगा कि मां जल्दी आ गई हैं. वह उन्हीं कपड़ों में दरवाजा खोलने चली गई. पर सामने बृजेश को देख कर ठिठक गई. उधर, जब बृजेश ने मोनिका को ऊपर से नीचे तक देखा, तो उस की लार टपकने लगी.

मोनिका ने पूछा, ‘‘क्या काम है?’’

बृजेश ने किताबों की याद दिलाई, तो मोनिका ने उसे भीतर बुला लिया. वह अपने कमरे में किताबें लेने चली गई, तो पीछेपीछे ब्रजेश भी चला आया. उसे पसीना आ रहा था. अब उसे मोनिका बस देह लग रही थी. उस का जिस्म

तनाव से भर गया. वह हरी झंडी समझ रहा था, तो उस ने कमरे में जाते ही कुंडी लगा दी.

मोनिका यह देखते ही सावधान हो गई, पर बृजेश पर हवस सवार हो चुकी थी. वह जा कर मोनिका से लिपट गया और उसे यहांवहां दबाने लगा.

मोनिका ने उसे धक्का दिया पर अब बृजेश हवस का पुजारी बन चुका था. उस ने मोनिका को कब्जे में कर लिया. मोनिका ने चिल्लाते हुए उसे कई गालियां दीं और मदद के लिए चिल्लाने लगी, पर आसपास के लोगों ने सोचा कि यह तो इस घर का रोज का काम है.

बृजेश ने तब तक मोनिका पर काबू पा लिया था और उसे पटक कर उस पर हावी हो गया था. मोनिका थी तो 18 साल की ही. वह बृजेश की पकड़ से छूट नहीं पाई और उस की दरिंदगी का शिकार हो गई.

इतने में मोनिका की मां दयावती आ गई. उस के पास घर की चाबी थी. जब काफी खटखटाने पर मोनिका ने दरवाजा नहीं खोला, तो मां ने चाबी से खोल लिया. पर भीतर जाते ही दयावती समझ गई कि दाल में कुछ काला है.

दयावती ने बिना देर किए घर के बाहर जा कर ‘चोरचोर’ चिल्लाना शुरू कर दिया. इस शोर से पड़ोसियों के कान खड़े हो गए और भीतर कमरे में बृजेश के होश उड़ गए. वह भागने की फिराक में था कि दरवाजे पर ही धर लिया गया.

आसपास के लोगों ने समझ कि कोई चोरउचच्का है, पर जब भीतर से मोनिका रोती हुई बाहर निकली, तो सब समझ गए कि मामला कुछ और ही है.

‘इसी ने मुझे आज बुलाया था. यह कालेज में मझ पर डोरे डालती थी. लड़कों की तरह गंदे चुटकुले सुनाती थी, तो मुझे लगा कि बहती गंगा में हाथ धो लूं,’ बृजेश ने अपनी जान बचानी चाही, पर भीड़ तो भीड़ होती है. एक आदमी ने ‘मारो इसे’ कहा ही था कि सब लोग पिल पड़े उस पर. कुछ ही देर में बृजेश लाश बन चुका था. इस रेप की सजा उसे तुरंत मिल गई थी.

इनसानियत: कालू मेहतर की समझदारी

सु बह से ही रुकरुक कर बारिश हो रही थी. बच्चे नहाने का पूरा मजा लूट रहे थे. गांव के सभी तालतलैया लबालब थे.दोपहर बाद बारिश रुकी. थोड़ी ही देर बाद गांव में तूफान सा आ गया. लोग एक ही दिशा में भागे जा रहे थे. गांव के दक्षिणी छोर पर भारी भीड़ जमा हो रही थी. जोरजोर से शोर हो रहा था. ऐसा जान पड़ता था, जैसे कोई बहुत बड़ा तमाशा हो रहा हो.जब कालू मेहतर वहां पहुंचा, तो दिल दहला देने वाला नजारा था. अलादीन के चारों बेटे अपने बाप के जनाजे के पास बैठे सुबक रहे थे.

कोई भी उन की हालत से पसीज नहीं रहा था. सब मरनेमारने को तैयार खड़े नजर आ रहे थे. किसी के पास लाठी, तो किसी के पास फावड़ा था.मौलवी नूरुद्दीन गिड़गिड़ा रहा था, ‘‘आखिर हम क्या करें? हमारा कब्रिस्तान पानी से लबालब है, मुरदा दफनाने को जगह तो चाहिए न?’’‘‘अपने मुरदे को यहां से ले जाओ, वरना हम इसे आग लगा देंगे.

किस से पूछ कर खोदी है यहां कब्र?’’ पंडितजी ने तैश में आ कर कहा.‘‘रहम करो पंडितजी, हमें लाश को दफना लेने दो या कोई दूसरी जगह बता दो,’’ नूरुद्दीन फिर गिड़गिड़ाया.‘‘हम ने आप को जगह बताने का ठेका नहीं ले रखा. मुरदे को उठा कर चलते बनो,’’ पंडितजी ने गुस्से से कहा.‘‘हमारा कब्रिस्तान कब्र खोदने लायक नहीं है. फिर हम कोई रोजरोज तो मुरदे यहां दफनाएंगे नहीं.

मौत पर तो किसी का बस नहीं होता,’’ नूरुद्दीन ने समझाया.‘‘ये ऐसे ही नहीं मानेंगे, इस कब्र को मिट्टी से भर डालो,’’ पंडितजी ने अपने आदमियों से कहा.पंडितजी का इशारा पाते ही कुछ जवान लड़के हाथों में फावड़े ले कर कब्र पाटने के लिए आगे बढ़े. उन को आगे बढ़ता देख कालू मेहतर बोल उठा, ‘‘रुक जाओ. खबरदार, किसी ने कब्र पाटने की हिम्मत की तो…’’जवानों के आगे बढ़ते कदम जाम हो गए. अचानक पंडितजी ने कालू की ओर देखते हुए कहा, ‘‘अरे कालू, तू ने आने में देर कर दी.’’

‘‘हां पंडितजी, मैं ने आने में देर कर दी, वरना अब तक मुरदा कब का ही दफनवा देता,’’ कालू ने उन की ओर देखते हुए कहा.‘‘क्यों?’’ पंडितजी ने सवाल किया.‘‘क्योंकि धर्मकर्म तो सब जीतेजी के झगड़े हैं. मरे हुए आदमी का कोई धर्म नहीं होता, वह तो माटी होता है.’’‘

‘लेकिन, एक मुसलमान हिंदू मंदिर की जगह पर तो नहीं दफनाया जा सकता…’’‘‘हिंदू मंदिर है ही कहां? यह तो एक बेरी का पेड़ है.’’‘‘यह एक पेड़ ही नहीं, बल्कि इस से भी ज्यादा बहुतकुछ है.’’‘‘क्या है? बताओ तो, जरा हम भी सुनें.’’‘‘इस पेड़ की पूजा होती है. हर सुहागिन हिंदू औरत इस पेड़ पर आए महीने की शुक्ल अष्टमी को तेल चढ़ा कर अपने बच्चों के लिए आशीष मांगती है.’’

‘‘हिंदू औरत इस की पूजा करती है, तभी यह हिंदू पेड़ है?’’ कालू मेहतर ने कहा.‘‘हां.’’‘‘बहुत खूब, पंडितजी. आप जैसे लोगों ने पेड़ों को भी जातियों में बांट दिया. पेड़ का धर्म तो परोपकार होता है, वह हिंदूमुसलिम का फर्क नहीं करता. इस बेरी के बेर तो सभी खाते हैं.

इस के ‘देवता’ ने तो कभी किसी का हाथ नहीं पकड़ा?’’‘‘तू समझता क्यों नहीं कालू, आखिर इस पेड़ के साथ हमारी पूजा का सवाल जुड़ा हुआ है, इसीलिए तो इस के चारों ओर की जगह खाली रखवा रखी है, नहीं तो यहां कब के मकान बन गए होते.’’

‘‘आप जैसे लोगों के लिए देवस्थान अलग बनाना कोई बड़ी बात नहीं है. आप इस बेरी के देवता को दूसरी बेरी में बैठा दीजिए.’’‘‘नामुमकिन.’’‘‘जब आप लोगों के घरों के भूत भगा सकते हैं, उन के रूठे देवता मना सकते हैं, तब इस देवता को दूसरी जगह क्यों नहीं ले जा सकते?’’

‘‘इन दोनों बातों में रातदिन का फर्क है.’’‘‘कोई फर्क नहीं… फर्क है तो बस आप की नीयत का…’’‘‘मेरी नीयत में कोई खोट नहीं है. दूसरों के दुखों को दूर करने के लिए ही मैं उन के भूत भगाता हूं.’’‘‘बड़े हमदर्द हैं आप दूसरों के… तभी तो शायद आप ने आज गांव में यह बवंडर फैला दिया कि मुसलिम हमारे देवता की जगह पर कब्जा कर रहे हैं.’’‘‘मैं ने कोई बवंडर नहीं फैलाया.

मैं ने तो गांव वालों को हकीकत बताई है.’’‘‘हकीकत नहीं पंडितजी, आप ने घरघर जा कर यह आग लगाई है.’’‘‘यह झूठ है. अगर मैं ने गांव में यह आग लगाई है, तो मैं किसी भी गाय की कसम खाने को तैयार हूं. चल कौन सी गाय की पूंछ पकड़वाता है. अगर मैं सच्चा हूं तो भगवान मेरी रक्षा करेंगे, नहीं तो मैं आसऔलाद समेत गल जाऊंगा. मुझ पर झूठे इलजाम मत लगाओ.’’

‘‘इलजाम सोलह आने सच हैं. गाय की पूंछ पकड़ना तो आप लोगों ने पेशा बना रखा है. क्या आप मेरे घर नहीं गए? आप ने मुझे नहीं कहा कि उस बेरी के पास चलो, नहीं तो वे लोग कब्जा कर लेंगे.’’‘‘हां, यह तो कहा था.’’‘‘आप ने न सिर्फ मुझे, बल्कि यहां आए हुए सभी लोगों के घरघर जा कर यही बात कही है. तभी हम सब यहां आए हैं, नहीं तो हमें कोई खुशबू नहीं आ रही थी कि वहां चलना है.’’

‘‘हां, कहा है. आप सब हिंदू हैं और मैं आप सब का पुजारी हूं. पुजारी होने के नाते यह मेरा फर्ज था… मैं ने उसे पूरा किया… और अब आप लोग जानो…’’‘‘हम सब हिंदू हैं?’’‘‘हां, इस में कोई शक नहीं.’’‘‘नहीं पंडितजी… आप सब हिंदू हो सकते हैं, पर मैं हिंदू नहीं हूं. मैं तो एक मेहतर हूं, गयाबीता हूं और न जाने क्याक्या हूं.’’‘‘यह तू क्या कह रहा है?’’‘‘मैं वही कह रहा हूं, जो आप ने कहा था.

याद करो, उस दिन को…’’‘‘किस दिन को?’’‘‘कृष्ण जन्माष्टमी… याद आया? मैं मंदिर में जाने लगा तो आप ने मुझे धक्के मार कर, गालियां दे कर बाहर निकाल दिया था. उस दिन मैं छोटी जाति का था और आज जब आप को भीड़ इकट्ठी करनी पड़ रही है, तब आप मुझे हिंदू बना कर मुझे इज्जत बख्श रहे हैं. क्या उस दिन मैं हिंदू नहीं था?’’‘‘मुझ से गलती हो गई थी.’’‘‘गलती तो मेरी थी, जो मैं दलित हो कर भी मंदिर दर्शन करने चल दिया.’’‘‘उन बातों को भूल जाओ.

आज मैं तुम्हें सारा मंदिर घुमाघुमा कर दिखा दूंगा.’’‘‘नहीं, मैं ऐसा काम नहीं करूंगा, जिस से आप को सारा मंदिर एक बार फिर धो कर पवित्र करना पड़े.’’‘‘देखो कालू, उस दिन मैं अंधा था. अब मेरी आंखें खुल गई हैं… मुझे और जलील न करो.’’‘‘आप अब भी अंधे हैं. अगर उस मंदिर और भगवान में मेरा कोई हिस्सा न था, तो इस बेरी के देवता पर मेरा क्या हक है? यहां भी तो सवर्णों का देवता है.’’‘‘अरे, तू समझता क्यों नहीं है, अवर्णसवर्ण क्या होता है?’’

‘‘अगर अवर्णसवर्ण नहीं होते, तो यह झमेला क्यों खड़ा कर रखा है? आप धर्मकर्म के लफड़े को छोड़ कर इनसानियत का रास्ता क्यों नहीं अपना लेते? अगर धर्मकर्म और अवर्णसवर्ण नहीं होते, तो आप ने इन लोगों को क्यों बुला रखा है? क्यों ये मरनेमारने को तैयार खड़े हैं?

‘‘पंडितजी, इनसानियत के नाते मुरदा अब भी यहां दफना लेने दीजिए, नहीं तो मुरदों के ढेर लग जाएंगे, तब न किसी को गाड़ने की जगह मिलेगी और न जलाने की.’’‘‘चाहे धरती उलटपलट हो जाए, पर धर्म भ्रष्ट नहीं होने दूंगा. किसी भी कीमत पर अलादीन को यहां नहीं दफनाया जाएगा.’’‘‘पंडितजी, सीधी तरह क्यों नहीं कह देते कि आज आप दोनों जातियों में खून की नदियां बहती देखना चाहते हैं?’’‘‘मुझे झगड़े से कोई सरोकार नहीं. मैं गांव में किसी तरह शांति चाहता हूं.’’

‘‘यदि दिल से शांति चाहते हो, तो आप को और गांव वालों को मेरी यह बात माननी पड़ेगी.’’‘‘कैसी बात?’‘‘मैं हिंदू या मुसलिम होने से पहले एक इनसान हूं और इसी नाते यह सबकुछ कर रहा हूं. यह जगह गांव से कुछ दूर है. इसे मैं ‘हड़खोरी’ (जहां मरे हुए पशुओं को डाला जाता है और उन के अस्थिपंजर इकट्ठे किए जाते हैं) बना लूंगा, और मेरी मंजूरशुदा ‘हड़खोरी’ की जमीन जो गांव के बिलकुल पास आ गई है, उसे मैं मंदिर और कब्रिस्तान दोनों के लिए दे दूंगा.’’

दोनों तरफ के लोगों में खुसुरफुसुर होने लगी. पंडितजी के माथे पर सोच की रेखाएं उभर आईं. अलादीन के जनाजे के इर्दगिर्द बैठे लोगों को भी कुछ उम्मीद की किरण दिखाई देने लगी.‘‘पंडितजी, आप कुछ बोले नहीं?’’ कालू मेहतर ने पूछा.‘‘मुझे तो कुछ समझ नहीं आता.

यदि दोनों जगहों की अदलाबदली हो गई, कब्रिस्तान और पूजास्थल एक जगह हो गए, तो सतकाली (लगातार 7 अकाल) पड़ेगी. गांव उजड़ जाएगा… सत्यानाश हो जाएगा,’’ पंडितजी ने आखिरी हथियार फेंका.‘‘समझ में क्यों नहीं आता आप के? सतकाली पड़ेगी तब देखा जाएगा, पर फिलहाल तो शांति हो जाएगी. न गांव वालों को मरे पशुओं की सड़ांध आएगी और न कभी किसी को दफनाने की शिकायत होगी.’’‘‘इन के पास कब्रिस्तान की जगह न होती तब तो सोचते…’’

‘‘होने से क्या होता है? कुदरती मुसीबतों से बचने के लिए आधी से कम दे देना.’’‘‘लेकिन, यह होगा कैसे?’’‘‘हड़खोरी भी 2 बीघा जमीन पर है, और इतनी ही यह जमीन है. उस में भी एक तरफ बेरी का पेड़ है, आप चंदे से बाद में वहां चारदीवारी बनवा लेना, सारी दिक्कतें मिट जाएंगी.’’‘‘लेकिन…?’’‘‘लेकिनवेकिन कुछ नहीं, आप इस बेरी वाले देवता को उस बेरी में बैठा दीजिए.’’

‘‘और तुम…?’’‘‘मेरे इस स्थान पर हड़खोरी बनाते वक्त जो दिक्कत आएगी, उस से अपनेआप ही निबट लूंगा,’’ कालू मेहतर ने अपनी बात कही और फिर गांव वालों से पूछा, ‘‘किसी को कोई एतराज हो, तो अब भी बोल देना, भाइयो?’’‘‘हमें कोई एतराज नहीं, बस झगड़ा हमेशाहमेशा के लिए मिट जाना चाहिए,’’ एक बूढ़े ने सब की तरफ से कहा.‘‘ठीक है, मैं अभी जा कर उस हड़खोरी को साफ करवा देता हूं. आप इन को बता दीजिए कि अलादीन की कब्र किस ओर खोदें,’’ कह कर कालू मेहतर चल पड़ा.सभी की तनी हुई लाठियां झुक गईं. सब अपनेअपने घरों की ओर चल पड़े.3-4 घंटे बाद हड़खोरी साफ हो गई. उस जमीन पर पंडितजी ने गंगाजल छिड़का.

फिर उन्होंने हवन कर के हड़खोरी को पवित्र किया और मंत्र बोलते हुए पुरानी बेरी के देवता को इस नई बेरी में बैठाया. उधर जो जगह मुसलिमों को दी गई, उस में मौलवीजी ‘तिलावत’ (इसलाम के मुताबिक क्रियाकर्म) करने में लग गए.शाम तक अलादीन की लाश दफना दी गई. गांव में सब तरफ कालू मेहतर की सूझबूझ की बातें हो रही थीं.वक्त गुजरता रहा और कालू मेहतर अपना काम करता रहा. न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर, अपने काम से काम.

एक दिन जब वह मरी हुई भैंस हड़खोरी में डाल रहा था, तो अचानक उस ने आवाजें सुनीं, ‘‘अरे ओ कालू, यहां जानवर मत डालना.’’‘‘क्यों भाई, क्या बात है? इस हड़खोरी में भी पशु न डालूं, तो कहां डालूं?’’ कालू मेहतर ने सवाल किया.‘‘कहांवहां का मुझे पता नहीं, यहां तो मेरा प्लाट है.’’‘‘यहां और प्लाट?’’‘‘हां, सरपंच ने परसों ही दिया है.’’‘‘कुछ तो शर्म करते भाई, यदि प्लाट ही लेना था तो किसी अच्छी जगह लेते.’’‘‘तू तो भोला है कालू, शर्म किस बात की?

बाबा आना चाहिए, चाहे पिछली गली से आ जाए. फिर गांव में और जगह है ही कहां?’’‘‘ठीक है भाई, तेरी मरजी. मैं इसे दूसरी जगह डाल दूंगा,’’ कह कर कालू मेहतर भैंस को दूसरी जगह डालने चल दिया.भैंस को दूसरी जगह डाल कर वह अपनी गधागाड़ी पर लौट आया. घर पहुंच कर वह हाथमुंह धो ही रहा था कि शेरू की आवाज सुनाई दी, ‘‘कालू, उस भैंस को उठा, उसे तू मेरे प्लाट में डाल आया है. आइंदा वहां कोई जानवर मत डालना, नहीं तो खैर मत समझना.’’

‘‘अरे भाई, उसे तो मैं हड़खोरी में ही डाल कर आया हूं,’’ कालू मेहतर ने धीरे से कहा.‘‘किस की हड़खोरी? वहां तो मेरा प्लाट है,’’ शेरू ने धौंस जमाई.‘‘ये प्लाट कब काट दिए?’’ कालू ने पूछा.‘‘तुझे पता नहीं, सरपंचों के चुनाव नजदीक हैं?’’‘‘तो यह करामात सरपंच ने की है. ठीक है भाई, आप चलो. मैं अभी आता हूं… उठा लूंगा. फिर कभी नहीं डालूंगा,’’ कह कर कालू मेहतर ने अपना पिंड छुड़़ाया.उस के चले जाने पर कुछ देर तो कालू मेहतर हैरानपरेशान सा बैठा रहा.

फिर गांव के लोगों के पास चला गया. सभी लोग मंदिर के चबूतरे पर इकट्ठे हो गए.कालू मेहतर ने पंडितजी से कहा, ‘‘हड़खोरी पर कब्जा हो गया है, वहां लोगों ने प्लाट ले लिए हैं, मैं मरे पशुओं को कहां डालूंगा?’’पंडितजी ने कोई जवाब नहीं दिया. वे लोगों की शक्ल पहचानने में लगे थे. कुछ देर बाद कालू मेहतर ने फिर कहा, ‘‘पंडितजी, मैं जानवरों को कहां डालूंगा?’’

‘‘अरे कालू, पंडितजी क्या जवाब देंगे, इन्होंने खुद वहां प्लाट ले रखा है,’’ भीड़ में से एक आवाज आई.‘‘यदि यह सच है तो डूब मरो, पंडितजी डूब मरो. याद करो उस दिन को, जब अलादीन को 5 हाथ जमीन नहीं देने दे रहे थे और आज खुद हड़खोरी पर कब्जा कर रहे हो?’’ कालू ने गरम होते हुए कहा.‘‘अरे, बोलते क्यों नहीं पंडितजी, कहां गई आप की वह भक्ति? कहां है आप का वह धर्म, जो दूसरों को गलत काम न करने की सलाह देता है? चुल्लूभर पानी में डूब मरो… ‘धर्मात्मा’ हो कर भी 20-30 गज टुकड़े के लिए मर रहे हो. बोलो, मैं पशुओं को कहां डालूंगा?’’

कालू मेहतर ने तेज आवाज में कहा.‘‘भाई कालू, जो करेगा, वह भरेगा. तू कोई और काम देख ले,’’ भीड़ में से फिर वही आवाज आई.‘‘पंडितजी चुप क्यों हो? मेरी बातों का जवाब दो… या तो यह कब्जा छोड़ देना या अपनी मरी हुई भैंस हड़खोरी से उठा लाना और अपने घर, खेत में कहीं डाल लेना. मैं आइंदा यह काम नहीं करूंगा,’’ कह कर कालू मेहतर चला गया.

दिन छिप चुका था. अंधेरा भी हो चुका था. हवा जोरों से बह रही थी. किसी ने आ कर कालू मेहतर का दरवाजा खटखटाया.कालू मेहतर की छोटी लड़की ने दरवाजा खोला. 2 आदमी अंदर आ गए. कालू भी बरामदे में आ गया.कालू मेहतर को देखते ही पंडितजी ने कहा, ‘‘जय श्रीरामजी की.’’कालू मेहतर ने कोई जवाब नहीं दिया. वह खामोश बैठा पंडितजी के साथ आए सरपंच को सवालिया निगाहों से घूरता रहा. कुछ पल बीतने पर पंडितजी ने कहा, ‘‘यह लो कालू, संभालो.’’‘‘क्या है?’’ कालू मेहतर ने बेरुखी से पूछा.

‘‘प्लाट का पट्टा और 20,000 रुपए हैं. देखो, हड़खोरी वाले मामले को अब मत उछालना,’’ कहते हुए पंडितजी ने दोनों चीजें कालू को पकड़ाईं.‘‘मुझे इन से कोई सरोकार नहीं. आप की चीजें आप को मुबारक हों,’’ कहते हुए कालू मेहतर ने दोनों चीजें वापस करनी चाही.तभी सरपंच बोल उठा, ‘‘देखो कालू, गांव की राजनीति बड़ी घटिया होती है. उस में टांग अड़ा कर तुझे कुछ नहीं मिलेगा, उलटे तू उजड़ जाएगा.’’‘‘मुझे राजनीति से कोई मतलब नहीं. मैं तो हड़खोरी को टुकड़ों में बंटा नहीं देखना चाहता.

मुझे या तो हड़खोरी चाहिए या इस काम से नजात.’’‘‘भाड़ में जाए तारी हड़खोरी. तू ने मैला ढोने का ठेका ले रखा है क्या? इन पैसों से कोई और काम देख लेना.’’‘‘नहीं सरपंच साहब, मैं बिक नहीं सकता. अपने हक के लिए मैं कचहरी का दरवाजा खटखटाऊंगा,’’ कालू मेहतर ने इतमीनान से कहा.‘‘वहां तो तू हारेगा. पहले तो दानवीर कर्ण बन कर अपनी मंजूरशुदा हड़खोरी की जमीन गांव को दान में दे चुका है. और अब वाली हड़खोरी की जमीन पंचायत की है. इस जमीन पर पट्टे बांटने का पंचायत को पूरा हक है.

‘‘वैसे भी केस लड़ना कोई बच्चों का खेल नहीं. उस में पैसा भी पानी की तरह बहेगा, जो मेरी औकात की बात नहीं. हड़खोरी के लिए सारे पट्टे वालों से दुश्मनी मोल ले लेगा क्या? ये सब पट्टेदार गांव के पैसे वाले लोग हैं,’’ सरपंच ने धौंस जमाई.‘‘ठीक है सरपंच साहब, मैं एक गरीब आदमी हूं, लेकिन मेरा जमीर इस बात की गवाही नहीं देता. मैं चांदी के चंद टुकड़ों के बदले जमीर नहीं बेच सकता.

मैं मरे पशुओं की खाल नोचता हूं, मैला ढोता हूं, फिर भी इनसान हूं. इनसानियत मेरा धर्म है और इसी नाते मैं ने पुरानी हड़खोरी गांव को दे कर झगड़ा मिटाया था.‘‘अब अगर आप अपना धर्म बेच रहे हो तो बेचो, पर मैं अपना धर्म, ईमान नहीं बेचूंगा. ये लो अपने रुपए और ये रहा आप का पट्टा,’’ कहते हुए कालू मेहतर ने रुपए सरपंच की ओर फेंक दिए और पट्टे के टुकड़ेटुकड़े कर के हवा में उड़ा दिए.सरपंच और पंडितजी के चेहरे देखने लायक थे. शायद उन की हेकड़ी निकल चुकी थी.

आन का फैसला : एक जमींदार की जिद

हालांकि फैसला सुनाते समय बिंदा प्रसाद उर्फ ‘भैयाजी’ का मन उन्हें धिक्कार रहा था, पर हमेशा की तरह उन्होंने अपने मन की आवाज को यों ही चिल्लाने दिया. इस मन के चक्कर में ही उन के हालात आज ऐसे हो गए हैं कि अब गांव में उन्हें कोई पूछता तक नहीं है. वे अब गांव के मुखिया नहीं थे, पर जब उन के पिताजी मुखिया हुआ करते थे, तब शान ही कुछ और थी.कामती भले ही छोटा सा गांव था, पर एक समय में इस गांव में बिंदा प्रसाद के पिताजी गया प्रसाद की हुकूमत चलती थी.

वे अपनी नुकीली मूंछों पर ताव देते हुए सफेद धोतीकुरते पर पीला गमछा डाल कर जब अपनी बैठक के बाहर दालान में बिछे बड़े से तख्त पर बैठते थे, तो लोगों का मजमा लग जाता था.गांव में किसी के भी घर में कोई भी अच्छाबुरा काम होता, तो वह उस की इजाजत सब से पहले गया प्रसाद से ही लेने आता था. गया प्रसाद हां कह देते तो हां और अगर उन्होंने न कह दिया तो फिर किसी की मजाल नहीं कि कुछ कर ले.

वे कहीं नहीं जाते थे, दिनभर अपने तख्त पर बैठेबैठे हुक्म बजाते रहते थे.बिंदा प्रसाद को याद है कि एक बार उन के पिताजी गया प्रसाद को शहर की ओर जाना था. बहुत दिनों बाद वे घर से निकल रहे थे. तांगा अच्छी तरह सजा कर तैयार कर दिया गया था.

गया प्रसाद को सिर्फ तांगे की सवारी ही पसंद थी. वैसे तो उन के घर पर एक कार भी थी, जिसे बाकी लोग ही इस्तेमाल किया करते थे, पर वे कभी उस में नहीं बैठे थे. गया प्रसाद का तांगा गांव के रास्ते से निकला. थोड़ा सा आगे सड़क के किनारे बने किसी घर की कंटीली बाड़ से उन का कुरता फट गया और वे आगबबूला हो गए.

उस घर में रहने वाला परिवार गया प्रसाद के पैरों पर लोट गया और माफी की गुहार लगाता रहा.गया प्रसाद ने उस परिवार को माफ भी कर दिया, पर उन्होंने शहर जाना छोड़ कर सब से पहले अपने आदमियों को बुला कर सड़क के किनारे लगी उस बाड़ को हटवाया.गांव के बहुत सारे लोग, जो रोजाना इस परेशानी से जूझ रहे थे, उन्होंने गया प्रसाद के इस काम के लिए उन का शुक्रिया अदा किया.गया प्रसाद जब तक जिंदा रहे, तब तक उन की शान बनी रही, पर उन के गुजर जाने के बाद धीरेधीरे इस शान में ग्रहण लगता चला गया.

इस के बाद बिंदा प्रसाद को मुखिया बनाया गया, पर सब उन्हें ‘भैयाजी’ कहते थे. वे अपने पिताजी से अलग थे. वे चूड़ीदार कुरतापाजामा और उस के ऊपर काली बंडी पहनते थे. वे हलकी दाढ़ीमूंछ रखते थे, जो उन्हें रोबीला बनाती थी.काफी दिनों तक तो लोग ‘भैयाजी’ को भी वैसे ही स्नेह देते रहे और उन से पूछ कर ही हर काम करते रहे, पर बाद में यह कम हो गया.

गांव के बच्चे शहर पढ़ने जाते थे और वहां से कुछ नया सीख कर आते थे. बच्चियां भी साइकिल से पढ़ने जाती थीं. शासन उन्हें साइकिल से ले कर ड्रैस तक दे रहा था.नए बच्चों में बिंदा प्रसाद की इस अघोषित गुलामी की प्रथा को ले कर गुस्सा पनप रहा था. पर ‘भैयाजी’ की नसों में जो खून दौड़ रहा था, वह इस सब को स्वीकार नहीं कर पा रहा था.‘भैयाजी’ के अपने बच्चे भी बाहर पढ़ रहे थे. वे अपने पिताजी को समझाते थे कि अब जमाना बदल गया है. कोई किसी का गुलाम नहीं है.

अपनी इज्जत बनाए रखनी है, तो इन के साथ मिल कर चलो.दूसरी तरफ ‘भैयाजी’ की बढ़ती उम्र के साथ गांव के लोग उन से अब पंचायत भी नहीं करा रहे थे. ज्यादातर मामले वे अपनी समाज की पंचायत में ही सुलझा लेते या फिर ग्राम पंचायत में बैठक हो जाती. ‘भैयाजी’ इसे अपनी शान के खिलाफ मान रहे थे. वे दिनभर तख्त पर बैठे रहते, पर 2-4 लोगों को छोड़ कर कोई उन से मिलने तक नहीं आता था.

गांव की एक सरोज काकी की एकलौती बेटी सावित्री ने कालेज में फर्स्ट आ कर गोल्ड मैडल जीता था. गांव में जश्न मनाया गया. सावित्री के साथ पढ़ने वाली लड़कियां भी गांव में आ कर इस जश्न में शामिल हुईं. बड़ीबड़ी गाडि़यों में बैठ कर कालेज के प्रोफैसर और अखबार वाले भी आए. सावित्री देखते ही देखते हीरो बन गई थी. ‘भैयाजी’ को भी सरोज काकी ने जश्न में बुलाया था, पर वे नहीं गए.

कल ही ‘भैयाजी’ की शादी के बाद पहली बार गांव में किसी और दूल्हे ने घोड़ी पर बैठ कर बरात निकाली थी. डीजे भी बज रहा था और जनरेटर से रोशनी भी की जा रही थी. ‘भैयाजी’ से यह सब बरदाश्त नहीं हो रहा था. उन्होंने उसे रोकने की कोशिश नहीं की. वे जानते थे कि ऐसा कर के वे कानूनी दांवपेंच में उलझ जाएंगे, पर उन के मन में एक टीस पैदा हो चुकी थी. वे अपनी और अपने पुरखों की हो रही इस बेइज्जती को सहन नहीं कर पा रहे थे. उन का मन अब काम में भी नहीं लगता था.

वैसे, ‘भैयाजी’ की खेतीकिसानी बहुत थी. दर्जनों नौकरचाकर काम करते थे. ‘भैयाजी’ खेत तो कभीकभार ही जाते थे, पर हिसाबकिताब पुख्ता रखते थे. मजाल है कि कोई उन की इजाजत के बिना एक बोरा भूसा भी ले जाए.भैयाजी की सारी खेतीकिसानी तख्त पर बैठेबैठे ही हो जाती थी. पहले दिनभर लोगों का आनाजाना लगा रहता था, पर अब उन की बैठक व्यवस्था खत्म सी हो चुकी है, तब उन्हें दिन काटना मुश्किल जान पड़ने लगा. वे इस का कुसूर गांव वालों और शहर में पढ़ रहे नौजवानों पर डालते थे.रामलाल ‘भैयाजी’ का खासमखास था. वह बचपन से उन के साथ साए की तरह लगा रहता था.

रामलाल को भी गांव के लोगों की यह अनदेखी सहन नहीं हो रही थी. वह मालिक को उदास देखता तो उस का खून खौलने लगता. धीरेधीरे उस के मन का गुस्सा भयानक रूप लेता जा रहा था.‘भैयाजी’ सरोज काकी के अलावा गांव के कुछ और लोगों को सबक सिखाने का मन बना चुके थे. वे जानते थे कि उन्हें कुछ ऐसा करना ही पड़ेगा कि गांव में उन की इज्जत फिर पहले जैसी हो जाए. वे इस के लिए कुछ भी करने को तैयार थे.मनसुख गांव का ईमानदार और मेहनती आदमी था.

कभी उस के पिताजी ‘भैयाजी’ के घर का गोबर डाला करते थे, पर मनसुख ने जब से होश संभाला, उस के परिवार ने तरक्की करनी शुरू कर दी थी.मनसुख गांव में गल्ला खरीदता और मंडी में ले जा कर बेच देता था. उस ने इस धंधे से ही पैसे कमाए थे. गांव वाले उस की ईमानदारी से खुश रहते थे. वह गांव के लोगों की मदद दिल खोल कर करता था. इस वजह से गांव में उस की बहुत इज्जत थी.‘भैयाजी’ ने मनसुख को अपने निशाने पर लिया था. मनसुख सरंपच का सगा भाई था.

‘भैयाजी’ एकसाथ कई निशाने लगाने की योजना में थे. सरोज काकी मनसुख के धंधे में मदद करती थीं. उन्हें भी दो पैसे मिल जाते थे. उन के पास यही एकमात्र रोजगार का साधन था. ज्यादा उम्र न तो मनसुख की हुई थी और न ही सरोज काकी की. इस वजह से ‘भैयाजी’ को उन के बारे में अफवाह फैलाने में कोई परेशानी भी नहीं हुई.‘भैयाजी’ तो गांव में कहीं आतेजाते नहीं थे, सो रामलाल ने गलीगली खबर फैलाने की जिम्मेदारी ले ली और इस अफवाह को पंख लग गए.

सरोज काकी ने मनसुख के यहां आनाजाना बंद कर दिया. कुछ ही दिन में मनसुख का धंधा चौपट हो गया. मनसुख इसे सहन नहीं कर पाया. गांव के लोगों को भरी दोपहरी में उस की लाश एक पेड़ से लटकी मिली.देखते ही देखते मनसुख के खुदकुशी कर लेने की खबर पूरे गांव में फैल गई. गांव वाले पुलिस के चक्कर में पड़ना नहीं चाहते थे, बल्कि यों कहें कि रामलाल ने खुदकुशी के मामले में पुलिस किस तरह से लोगों को परेशान कर सकती है की ऐसी भयानक कहानी गांव वालों को सुनाई थी कि गांव वाले इस मामले को गांव में ही निबटा लेने में भलाई समझने लगे थे.

सालों बाद गांव के लोगों को ‘भैयाजी’ की याद आई. ‘भैयाजी’ का मन फूला नहीं समा रहा था, पर उन्होंने गांव वालों की इस गुजारिश को साफ शब्दों में ठुकरा दिया. गांव वाले निराश हो कर लौटने भी लगे, पर रामलाल ने हालात को संभाला और अपनी सेवाओं की दुहाई दे कर ‘भैयाजी’ से पंचायत करने की इजाजत ले ली.रामलाल को लगा कि आज उस ने मालिक का कर्ज अदा कर दिया और ‘भैयाजी’ को लगा कि रामलाल को खिलानापिलाना काम आ गया.पंचायत ‘भैयाजी’ के दालान में ही लगी. गांव के सारे लोग जमा हुए. सरोज काकी को बुलाया गया और सरपंच को भी.

सरपंच ने सारा कुसूर सरोज काकी पर मढ़ दिया. हालांकि उसे ऐसा करने की सलाह खुद ‘भैयाजी’ ने ही दी थी. सरपंच उन की गिरफ्त में आ चुका था.सरोज काकी के साथ कोई नहीं था. वे औरत थीं, इस वजह से वे बहुत खुल कर अपनी बात रख भी नहीं पाईं. सारा माहौल ऐसा बन गया था कि लोग उन के खिलाफ नजर आने लगे.‘भैयाजी’ की चाल कामयाब हो गई थी.

अब उन्हें अपना फैसला देने में कोई परेशानी नहीं थी. वे जानते थे कि लोग सरोज काकी के खिलाफ फैसला सुनना चाहते हैं और अगर वे ऐसा ही फैसला देंगे, तो गांव वालों की नजरों में उन की इज्जत बढ़ जाएगी.‘भैयाजी’ ने बहुत सोचनेविचारने के बाद कहा, ‘पंचायत सावित्री की मां को मनसुख की खुदकुशी के लिए कुसूरवार मानती है और फैसला देती है कि सावित्री की मां यानी सरोज काकी का दानापानी बंद किया जाता है और उसे गांव में घुसने की भी इजाजत नहीं होगी.’’पंचायत ऐसे ही फैसले का इंतजार कर रही थी.

इस वजह से किसी को भी कोई हैरत नहीं हुई सिवा रामलाल के, जो मुखिया का सब से खास राजदार था.‘भैयाजी’ को लग रहा था कि उन्होंने अपनी हारी हुई बाजी अपने हाथ में कर ली थी. सरपंच तो उन की चपेट में आ ही चुका था, गांव वाले भी उन के फैसले से खुश थे. सो, देरसवेर वे भी उन को सलाम करने लगेंगे.पर ऐसा हुआ नहीं. सरोज काकी को पंचायत के फैसले के हिसाब से गांव छोड़ना था.

वे इस की तैयारी भी कर रही थीं कि तभी सावित्री अपने दलबल के साथ वहां आ पहुंची. सावित्री को एकाएक अपने सामने देख कर सरोज काकी की आंखों से आंसुओं की धारा बह निकली. सावित्री को सारे मामले की जानकारी तो पहले ही हो चुकी थी. इस वजह से तो वह गांव में आई थी.सावित्री अब बड़ी सरकारी अफसर बन चुकी थी. पुलिस उस के साथ रहती थी.

‘भैयाजी’ पुलिस के नाम से ही घबरा गए थे.सावित्री ने ‘भैयाजी’ की उम्र का लिहाज किया और बोली, ‘‘देखो अंकल, मैं चाहती तो अब तक आप सलाखों के पीछे होते, पर मैं आप की उम्र का लिहाज कर रही हूं. ‘‘मां को तो मैं अपने साथ ले जा रही हूं, पर आप को चेतावनी भी देती जा रही हूं कि भविष्य में ऐसा कुछ भी मत दोहराना, वरना…’’‘भैयाजी’ की बाजी पलट गई. वे मुंह लटकाए खड़े रह गए.

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