Story in Hindi

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यादों के झरोखे पर आज फिर किसी ने दस्तक दी थी. न चाहते हुए भी अमन का मन उस और खींचता चला गया. अपनी बेटी का आंसुओं से भीगा हुआ चेहरा उसे बारबार कचोट रहा था.
“विनय, मुझे माफ कर दो, मैं तुम से शादी नहीं कर सकती. मैं अपने पापा को धोखा नहीं दे सकती. मैं उन का गुरूर हूं…उन के भरोसे को मैं तोड़ नहीं सकती. हो सके तो मुझे माफ कर देना.”
देर रात श्रेया के कमरे की जलती हुई लाइट को देख अमन के कदम उस ओर बढ़ गए थे. श्रेया की हिचिकियों की आवाजें बाहर तक आ रही थीं. अमन दरवाजे पर कान लगाए खड़ा था. फोन पर उधर किसी ने क्या कहा अमन यह तो नहीं सुन पाया पर श्रेया के शब्द सुन कर उस के पैर कमरे के बाहर ही जम गए. कितना गुस्सा आया था उसे…पिताजी के खिलाफ जा कर उस ने श्रेया का कालेज में दाखिला कराया था और वह…
“आग और भूसे को एकसाथ नहीं रखा जाता. वैसे भी इसे दूसरे घर जाना है. कल कोई ऊंचनीच हो गई तो मुझ से मत कहना.”
अपने बाबा की बात सुन श्रेया संकोच और शर्म से गड़ गई थी. तब अमन ने कितने विश्वास के साथ कहा था,”पिताजी, मुझे श्रेया पर पूरा भरोसा है. वह मेरा सिर कभी झुकने नहीं देगी.”
श्रेया रोतेरोते सो गई. अमन उसे सोता हुआ देख रहा था. उस की छोटी सी गुड़िया कब इतनी बड़ी हो गई… तकिया आंसुओं से गीला हो गया था. बिस्तर के बगल में रखे लैंप की रौशनी में उस का मासूम चेहरा देख अमन का कलेजा मुंह को आ गया. कितना थका सा लग रहा था उस का चेहरा मानों वह मीलों का सफर तय कर के आई हो. कितनी मासूम लग रही थी वह.
उस की श्रेया किसी लड़के के चक्कर में…अभी उस ने दुनिया ही कहां देखी है? आजकल के ये लड़के बाप के पैसों से घुमाएंगेफिराएंगे और फिर छोड़ देंगे. श्रेया के मासूम चेहरे को देख अमन को किसी की याद आ गई. सच मानों तो इतने सालों के बाद भी वह उस चेहरे को भूल नहीं पाया था.
उसे लगा आज किसी ने उसे 25 साल पीछे ला कर खड़ा कर दिया हो. न जाने कितनी ही रातें उस ने उस के खयालों में बिता दी थीं. उस के जाने से कुछ नहीं बदला था, रात भी आई थी…चांद भी आया था पर बस नींद नहीं आई थी.
कितनी बार…हां, न जाने कितनी ही बार वह नींद से जाग कर उठ जाता.तब एक बात दिमाग में आती, जब खयाल और मन में घुमड़ते अनगिनत सवाल और बवाल करने लगे तब तुम आ जाओ. तुम्हारा वह सवाल जनून बन जाएगा और बवाल जीवन का सुकून…आज सोचता हूं तो हंसी आती है. बावरा ही तो था वह…बावरे से मन की यह न जानें कितनी बावरी सी बातें थीं. कोई रात ऐसी नहीं थी जब वह साथ नहीं होती. हां, यह बात अलग थी कि वह साथ हो कर भी साथ नहीं होती. अमन को कभीकभी लगता था कि उस के बिना तो रात में भी रात न होती. शायद इसी को तो इश्क कहते हैं… इतने साल बीत जाने पर भी वह उस को माफ नहीं कर पाया था.
सच कहा है किसी ने मन से ज्यादा उपजाऊ जगह कोई नहीं होती क्योंकि वहां जो कुछ भी बोया जाए उगता जरूर है चाहे वह विचार हो, नफरत हो या प्यार. कुछ ख्वाहिशें बारिश की बूंदों की तरह होती हैं जिन्हें पाने की जीवनभर चाहत होती है. उस चाहत को पाने में हथेलियां तो भीग जाती हैं पर हाथ हमेशा खाली रहता है. उस का प्यार इतना कमजोर था कि वह हिम्मत नहीं कर पाई. बस, कुछ सालों की ही तो बात थी…
“कैसी लग रही हूं मैं..?” खुशी ने मुसकराते हुए अमन से पूछा था. अमन उस के चेहरे में खो सा गया था. लाल सुर्ख जोड़े और मेहंदी लगे हाथों में वस और भी खूबसूरत लग रही थी. वह उसे एकटक देखता रहा और सोचता रहा कि मेरा चांद किसी और की छत पर चमकने को तैयार था.
“तुम हमेशा की तरह खूबसूरत…बहुत खूबसूरत लग रही हो.”
“सच में…”
“क्या तुम्हें मेरी बात पर भरोसा नहीं, कोई गवाह चाहिए तुम्हें…”
अमन की आंखों में न जाने कितने सवाल तैर रहे थे. ऐसे सवाल जिन का जवाब उस के पास नहीं था. खुशी ने अचकचा कर अपनी आंखें फेर लीं और भरसक हंसने का प्रयास करने लगी. अमन उस मासूम हंसी को कभी नहीं भूल सकता था. न जाने क्या सोच कर वह एकदम से चुप हो गया. उस समय वे दोनों कमरे में अकेले थे. बारात आने वाली थी.सब तैयारी में इधरउधर दौड़भाग रहे थे. कमरे में एक अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ था.
शायद बारात आ गई थी. भीड़ का शोर बढ़ता जा रहा और खुशी के चेहरे पर बेचैनी भी…वह तेजी से अपनी उंगलियों में दुपट्टे को लपेटती और फिर ढीला छोड़ देती. कुछ था जो उस के हाथों से छूटने जा रहा था पर….खुशी सोच रही थी कि माथे का सिंदूर रिश्ते की निशानी हो सकती है पर क्या प्यार की भी? तब खुशी ने ही बोलना शुरू किया, “अमन, शायद तुम्हें मुझ से, अपने जीवन से शिकायत हो. शायद तुम्हें लगे कुदरत ने हमारा साथ नहीं दिया पर एक बार खिड़की से बाहर उन चेहरों को देखो जो मेरी खुशी के लिए कितने दिनों से दौड़भाग रहे हैं. मेरे पापा से मिल कर देखो, खुशी उन की आंखों से बारबार छलक रही है और मेरी मां… वह भी कितनी खुश है.
“क्या अगर आज हम ने उन की मरजी के खिलाफ जा कर चुपचाप शादी कर ली होती, इतने लोगों को दुख पहुंचा कर हम नए जीवन की शुरुआत कर पाते? तुम्हें शायद मेरी बातें आज न समझ में आए पर एक न एक दिन तुम्हें लगेगा कि मैं गलत नहीं थी. हो सके तो मुझे भूल जाना…”
“भूल जाना…” आसानी से कह दिया था खुशी ने यह सब पर क्या यह इतना आसान था? अमन मुसकरा कर रह गया. उस की मुसकराहट में खुशी को न पा पाने का गम, अपने बेरोजगार होने की मजबूरी बारबार साल रही थी. आज खुशी जिन लोगों का दिल रखने की कोशिश कर रही थी, क्या किसी ने उस का दिल रखने की कोशिश की? खुशी की बहनें जयमाल के लिए खुशी को ले कर चली गईं. अमन काफी देर तक उस स्थान को देखता रहा जहां खुशी बैठी थी. उस के वजूद की खुशबू वह अभी तक महसूस कर रहा था.
खुशी सिर्फ उस के जीवन से नहीं जा रही थी, उस के साथ उस की खुशियां, उस के होने का मकसद को भी ले कर चली गई थी. वह तेजी से उठा और भीड़ में गुम हो गया.
“अरे अमन, वहां क्यों खड़े हो? यहां आओ न… फोटो तो खिंचवाओ,” खुशी की मां ने हुलस कर कहा और वह झट से दोस्तों के साथ मंच पर चढ़ गया. न जाने क्यों खुशी का चेहरा उतर गया था. एक अजीब सा तनाव और गुस्सा अमन के चेहरे पर था, जैसे किसी बच्चे से उस का पसंदीदा खिलौना छीन लिया गया हो. अमन खुशी के पति के पीछे जा कर खड़ा हो गया, जैसे वह खुद को बहला रहा था. जिस जगह पर आज खुशी का पति बैठा है इस जगह पर तो उसे होना चाहिए था.
आज उस का मन यादों के भंवर में घूम रहा था. याद है, आज भी उसे खुशी से वह पहली मुलाकात… फरवरी की गुलाबी ठंड शीतल हवा के झोंके चेहरे से टकरा कर एक अजीब सी मदहोशी में डुबो रहे थे. बादलों से झांकता सूरज बारबार आंखमिचौली कर रहा था.
तभी सामने से आती एक सुंदर सी लड़की जिस ने पीले सलवारकमीज पर चांदी की चूड़ियां डाल रखी थीं, उस पर नजरें टिक गईं. हाथ की कलाई में बंधी घड़ी को उस ने बेचैनी से देखा. शायद उसे क्लास के लिए आज देर हो गई थी. उस के चेहरे पर बिखरी हुई लटें किसी का भी मन मोह लेने में सक्षम थी, हर पल उस के कदम अमन की ओर बढ़ते जा रहे थे और उस के हर बढ़ते हुए कदम के साथ अमन का दिल जोरजोर से धङकने लगा था. सांसें थम सी गई थीं, चेहरा घबराहट से लाल हो गया था. शायद यह उम्र का असर था या फिर कुछ और, उस की निगाहों की कशिश उसे अपनी ओर खींचने को मजबूर करती थीं. उसे रोज देखने की आदत न जाने कब मुहब्बत में बदल गई.
वे घंटों एकदूसरे के साथ सीढ़ियों पर बैठे रहते थे, उन के मौन के बीच भी कोई था जो बोलता था. एकदूसरे का साथ उन्हें अच्छा लगता था. आज भी उस रास्ते से जब वह गुजरता तो लगता वह उन सीढ़ियों पर बैठा उस का इंतजार कर रहा है और वह अपनी सहेलियों के बीच घिरी कनखियों से उस के चेहरे को पढ़ने की कोशिश कर रही है.
यहीं…हां, यहीं तो उस ने अपनी शादी का कार्ड पकड़ाया था. न जाने क्यों उस की बोलती और चमकती आंखों में लाल डोरे उभर आए थे. कुछ खोईखोई सी लग रही थी वह… उस दिन भी तो उस ने उस का पसंदीदा रंग पहन रखा था. यह इत्तिफाक था या फिर कुछ और वह आज तक समझ नहीं पाया…
हाथों में वही चांदी की चूड़ियां… लाल सुर्ख कार्ड को उस ने अपनी झुकी पलकों और कंपकंपाते हाथों के साथ अमन को पकड़ाया. पता नहीं वह भ्रम था या फिर कुछ और… उस के गुलाबी होंठ कुछ कहने के लिए फड़फड़ाए थे पर…हिरनी सी चंचल आंखों से में एक अजीब सा सूनापन था. खालीपन तो उस की आंखों में भी था…
“आओगे न…” इन 2 शब्दों ने उस के कानों तक आतेआते न जाने कितने मीलों का सफर तय किया था. सच ही तो है, हम सब एक सफर में ही तो हैं.
“तुम…तुम सचमुच चाहती हो मैं आऊं?”
आंसू की 2 बूंदें उस कार्ड पर टप से टपक पङे और वह मेरे बिना कोई जवाब दिए दूर बहुत दूर चली गई. कितना गुस्सा आया था उस दिन… एक बार… हां, एक बार भी नहीं सोचा उस ने मेरे बारे में…क्या वह मेरा इंतजार नहीं कर सकती थीं? कितनी शामें मैं ने उस की उस पसंदीदा जगह पर इंतजार किया था पर वह नहीं आई. शायद उसे आना भी नहीं था. खिड़की से झांकता पेड़ मुझ से बारबार पूछता कि क्या वह आएगी? पर नहीं, पार्क में पड़ी लकड़ी की वह बैंच…
आज भी उस बैंच पर गुलमोहर के फूल गिरते हैं, जिन्हें वह अपने नाजुक हाथों में घुमाघुमा अठखेलियां करती थी. बारिश की बूंदें जब उस के चेहरे को छू कर मिट्टी में लोट जाती तब वह उस की सोंधी खुशबू से पागल सी हो जाती. बरगद का वह विशाल पेङ जहां वह अमन के साथ घंटों बैठ कर भविष्य के सपने बुनती, आज भी उस का इंतजार कर रहा था. अपनी नाजुक कलाइयों से वह उस विशाल पेङ को बांधने का निर्रथक प्रयास करती, उस का वह बचपना आज भी अमन को गुदगुदा देता.
अमन सोच रहा था कि शब्द और सोच इंसान की दूरियां बढ़ा देते हैं और कभी हम समझ नहीं पाते और कभी समझा नहीं पाते. कल वह खुशी को समझ नहीं पाया था और आज वह श्रेया को नहीं समझ पा रहा. उस ने तो सिर्फ उतना ही देखा और समझा जितना वह देखना और समझना चाहता था. जिंदगीभर उसे खुशी से शिकायतें रहीं पर एक बार भी उस ने यह सोचा कि खुशी को भी तो उस से शिकायतें हो सकती हैं? वह भी तो उस के पिता से मिल कर उन्हें समझा सकता था? खुशी का दिया जख्म उसे आज तक टीस देता था पर आज श्रेया के प्यार के बारे में जान कर भी वह कुछ नहीं करेगा?
क्या उस नए जख्म को बरदाश्त कर पाएगा? खुशी और श्रेया न जाने क्यों उसे आज एक ही नाव पर सवार लग रहे थे, जो दूसरों का दिल रखने के चक्कर में अपना दिल रखना कब का भूल चुके थे.
सच कहा था उस दिन खुशी ने कि एक दिन मुझे उस की बातें समझ में आएंगी. अमन की आंखें बोझिल हो रही थीं, वह थक गया था अपने विचारों से लड़तेलड़ते…उस की पत्नी नींद के आगोश में थी. अमन खिड़की के पास आ कर खड़ा हो गया. बाहर तेज बारिश हो रही थी. हवा के झोंके ने अमन के तन को भिगो दिया. पानी की तेज धार में पत्ते धूल गए थे और कहीं न कहीं अमन की गलतफहमियां भी… वह निश्चय कर चुका था कि बेशक उस की जिंदगी में खुशी नहीं आ पाई थी मगर मेरी श्रेया किसी की नफरत का शिकार नहीं बनेगी…वह कल ही उस से बात करेगा.
सुबह के 7 बजे थे. गाड़ियां सड़क पर सरपट दौड़ रही थीं. ट्रैफिक इंस्पैक्टर बलविंदर सिंह सड़क के किनारे एक फुटओवर ब्रिज के नीचे अपने साथी हवलदार मनीष के साथ कुरसी पर बैठा हुआ था. उस की नाइट ड्यूटी खत्म होने वाली थी और वह अपनी जगह नए इंस्पैक्टर के आने का इंतजार कर रहा था.
बलविंदर सिंह ने हाथमुंह धोया और मनीष से बोला, ‘‘भाई, चाय पिलवा दो.’’
मनीष उठा और सड़क किनारे एक रेहड़ी वाले को चाय की बोल कर वापस आ गया. तुरंत ही चाय भी आ गई. दोनों चाय पीते हुए बातें करने लगे.
बलविंदर सिंह ने कहा, ‘‘अरे भाई, रातभर गाडि़यों के जितने चालान हुए हैं, जरा उस का हिसाब मिला लेते.’’
मनीष बोला, ‘‘जनाब, मैं ने पूरा हिसाब पहले ही मिला लिया है.’’
इसी बीच बलविंदर सिंह के मोबाइल फोन की घंटी बजी. वह बड़े मजाकिया अंदाज में फोन उठा कर बोला, ‘‘बस, निकल रहा हूं. मैडम, सुबहसुबह बड़ी फिक्र हो रही है…’’
अचानक बलविंदर सिंह के चेहरे का रंग उड़ गया. वह हकलाते हुए बोला, ‘‘मनीष… जल्दी चल. रश्मि का ऐक्सिडैंट हो गया है.’’
दोनों अपनाअपना हैलमैट पहन तेजी से मोटरसाइकिल से चल दिए.
दरअसल, रश्मि बलविंदर सिंह की 6 साल की एकलौती बेटी थी. उस के ऐक्सिडैंट की बात सुन कर वह परेशान हो गया था. उस के दिमाग में बुरे खयाल आ रहे थे और सामने रश्मि की तसवीर घूम रही थी.
बीच रास्ते में एक ट्रक खराब हो गया था, जिस के पीछे काफी लंबा ट्रैफिक जाम लगा हुआ था. बलविंदर सिंह में इतना सब्र कहां… मोटरसाइकिल का सायरन चालू किया, फुटपाथ पर मोटरसाइकिल चढ़ाई और तेजी से जाम से आगे निकल गया.
अगले 5 मिनट में वे दोनों उस जगह पर पहुंच गए, जहां ऐक्सिडैंट हुआ था.
बलविंदर सिंह ने जब वहां का सीन देखा, तो वह किसी अनजान डर से कांप उठा. एक सफेद रंग की गाड़ी आधी फुटपाथ पर चढ़ी हुई थी. गाड़ी के आगे के शीशे टूटे हुए थे. एक पैर का छोटा सा जूता और पानी की लाल रंग की बोतल नीचे पड़ी थी. बोतल पिचक गई थी. ऐसा लग रहा था कि कुछ लोगों के पैरों से कुचल गई हो. वहां जमीन पर खून की कुछ बूंदें गिरी हुई थीं. कुछ राहगीरों ने उसे घेरा हुआ था.
बलविंदर सिंह भीड़ को चीरता हुआ अंदर पहुंचा और वहां के हालात देख सन्न रह गया. रश्मि जमीन पर खून से लथपथ बेसुध पड़ी हुई थी. उस की पत्नी नम्रता चुपचाप रश्मि को देख रही थी. नम्रता की आंखों में आंसू की एक बूंद नहीं थी.
बलविंदर सिंह के पैर नहीं संभले और वह वहीं रश्मि के पास लड़खड़ा कर घुटने के बल गिर गया. उस ने रश्मि को गोद में उठाने की कोशिश की, लेकिन रश्मि का शरीर तो बिलकुल ढीला पड़ चुका था.
बलविंदर सिंह को यह बात समझ में आ गई कि उस की लाड़ली इस दुनिया को छोड़ कर जा चुकी है. उसे ऐसा लगा, जैसे किसी ने उस का कलेजा निकाल लिया हो.
बलविंदर सिंह की आंखों के सामने रश्मि की पुरानी यादें घूमने लगीं. अगर वह रात के 2 बजे भी घर आता, तो रश्मि उठ बैठती, पापा के साथ उसे रोटी के दो निवाले जो खाने होते थे. वह तोतली जबान में कविताएं सुनाती, दिनभर की धमाचौकड़ी और मम्मी के साथ झगड़ों की बातें बताती, लेकिन अब वह शायद कभी नहीं बोलेगी. वह किस के साथ खेलेगा? किस को छेड़ेगा?
बलविंदर सिंह बच्चों की तरह फूटफूट कर रोने लगा. कोई है भी तो नहीं, जो उसे चुप करा सके. नम्रता वैसे ही पत्थर की तरह बुत बनी बैठी हुई थी.
हलवदार मनीष ने डरते हुए बलविंदर सिंह को आवाज लगाई, ‘‘सरजी, गाड़ी के ड्राइवर को लोगों ने पकड़ रखा है… वह उधर सामने है.’’
बलविंदर सिंह पागलों की तरह उस की तरफ झपटा, ‘‘कहां है?’’
बलविंदर सिंह की आंखों में खून उतर आया था. ऐसा लगा, जैसे वह ड्राइवर का खून कर देगा. ड्राइवर एक कोने में दुबका बैठा हुआ था. लोगों ने शायद उसे बुरी तरह से पीटा था. उस के चेहरे पर कई जगह चोट के निशान थे.
बलविंदर सिंह तकरीबन भागते हुए ड्राइवर की तरफ बढ़ा, लेकिन जैसेजैसे वह ड्राइवर के पास आया, उस की चाल और त्योरियां धीमी होती गईं. हवलदार मनीष वहीं पास खड़ा था, लेकिन वह ड्राइवर को कुछ नहीं बोला.
बलविंदर सिंह ने बेदम हाथों से ड्राइवर का कौलर पकड़ा, ऐसा लग रहा था, जैसे वह चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहा हो.
दरअसल, कुछ समय पहले ही बलविंदर सिंह का सामना इस शराबी ड्राइवर से हुआ था.
सुबह के 6 बजे थे. बलविंदर सिंह सड़क के किनारे उसी फुटओवर ब्रिज के नीचे कुरसी पर बैठा हुआ था. थोड़ी देर में मनीष एक ड्राइवर का हाथ पकड़ कर ले आया. ड्राइवर ने शराब पी रखी थी और अभी एक मोटरसाइकिल वाले को टक्कर मार दी थी.
मोटरसाइकिल वाले की पैंट घुटने के पास फटी हुई थी और वहां से थोड़ा खून भी निकल रहा था.
बलविंदर सिंह ने ड्राइवर को एक जोरदार थप्पड़ मारा था और चिल्लाया, ‘सुबहसुबह चढ़ा ली तू ने… दूर से ही बदबू मार रहा है.’
ड्राइवर गिड़गिड़ाते हुए बोला, ‘साहब, गलती हो गई. कल इतवार था. रात को दोस्तों के साथ थोड़ी पार्टी कर ली. ड्यूटी पर जाना है, घर जा रहा हूं. मेरी गलती नहीं है. यह एकाएक सामने आ गया.’
बलविंदर सिंह ने फिर थप्पड़ उठाया था, लेकिन मारा नहीं और जोर से चिल्लाया, ‘क्यों अभी इस की जान चली जाती और तू कहता है कि यह खुद से सामने आ गया. दारू तू ने पी रखी है, लेकिन गलती इस की है… सही है…मनीष, इस की गाड़ी जब्त करो और थाने ले चलो.’
ड्राइवर हाथ जोड़ते हुए बोला था, ‘साहब, मैं मानता हूं कि मेरी गलती है. मैं इस के इलाज का खर्चा देता हूं.’
ड्राइवर ने 5 सौ रुपए निकाल कर उस आदमी को दे दिए. बलविंदर सिंह ने फिर से उसे घमकाया भी, ‘बेटा, चालान तो तेरा होगा ही और लाइसैंस कैंसिल होगा… चल, लाइसैंस और गाड़ी के कागज दे.’
ड्राइवर फिर गिड़गिड़ाया था, ‘साहब, गरीब आदमी हूं. जाने दो,’ कहते हुए ड्राइवर ने 5 सौ के 2 नोट मोड़ कर धीरे से बलविंदर सिंह के हाथ पर रख दिए.
बलविंदर सिंह ने उस के हाथ में ही नोट गिन लिए और उस की त्योरियां थोड़ी कम हो गईं.
वह झूठमूठ का गुस्सा करते हुए बोला था, ‘इस बार तो छोड़ रहा हूं, लेकिन अगली बार ऐसे मिला, तो तेरा पक्का चालान होगा.’
ड्राइवर और मोटरसाइकिल सवार दोनों चले गए. बलविंदर सिंह और मनीष एकदूसरे को देख कर हंसने लगे. बलविंदर बोला, ‘सुबहसुबह चढ़ा कर आ गया.’
मनीष ने कहा, ‘जनाब, कोई बात नहीं. वह कुछ दे कर ही गया है.’
वे दोनों जोरजोर से हंसे थे.
अब बलविंदर सिंह को अपनी ही हंसी अपने कानों में गूंजती हुई सुनाई दे रही थी और उस ने ड्राइवर का कौलर छोड़ दिया. उस का सिर शर्म से झुका हुआ था.
बलविंदर और मनीष एकदूसरे की तरफ नहीं देख पा रहे थे. वहां खड़े लोगों को कुछ समझ नहीं आया कि क्या हुआ है, क्यों इन्होंने ड्राइवर को छोड़ दिया.
मनीष ने पुलिस कंट्रोल रूम में एंबुलैंस को फोन कर दिया. थोड़ी देर में पीसीआर वैन और एंबुलैंस आ कर वहां खड़ी हो गई.
पुलिस वालों ने ड्राइवर को पकड़ कर पीसीआर वैन में बिठाया. ड्राइवर एकटक बलविंदर सिंह की तरफ देख रहा था, पर बलविंदर सिंह चुपचाप गरदन नीचे किए रश्मि की लाश के पास आ कर बैठ गया. उस के चेहरे से गुस्से का भाव गायब था और आत्मग्लानि से भरे हुए मन में तरहतरह के विचारों का बवंडर उठा, ‘काश, मैं ने ड्राइवर को रिश्वत ले कर छोड़ने के बजाय तत्काल जेल भेजा होता, तो इतना बड़ा नुकसान नहीं होता.’
शादी के 7-8 साल बाद रमिया के पैर भारी हुए थे. बलदेव ने तो आस ही छोड़ दी थी, मगर अब उस के कदम जमीन पर नहीं पड़ते थे.
दोनों पतिपत्नी मजदूरी करते थे. काम मिल जाता तो ठीक, नहीं तो कई बार फाका करने की नौबत आ जाती. मगर थे तो इनसान ही, उन के अंदर भी मांबाप बनने की चाह थी.
ब्याह के सालभर बाद ही बलदेव की अम्मां ने रमिया को ‘बांझ’ कहना शुरू कर दिया था. आतेजाते टोले की औरतें अम्मां से पूछतीं, ‘बलदेव की अम्मां, कोई खुशखबरी है क्या?’
यह बात सुन कर वे कुढ़ जातीं. घर में रोज कलह मचने लगा था. रमिया तो कुछ कहती न थी, चुपचाप सारी कड़वाहट झेल जाती, पर बलदेव उस के हक में मां से लड़ पड़ता.
तब मां उसे गाली देतीं, ‘कमबख्त, मेरी कोख का जना कैसे उस के लिए मुझ से ही लड़ रहा है. करमजली ने मेरे छोरे को मुझ से छीन लिया.’
जब बलदेव और रमिया के सब्र का पैमाना छलकने लगा, तो उन्होंने घर? छोड़ दिया और दूसरे शहर में जा कर मजदूरी करने लगे.
जचगी का समय नजदीक आता जा रहा था. उन की खुशी और चिंता का दिलों में संगम सा हो रहा था. रमिया ने बच्चे के लिए छोटेछोटे कपड़े तैयार कर रखे थे.
‘‘ओ रमिया, मुझे तो बेटी चाहिए, बिलकुल तेरे जैसी,’’ बलदेव अकसर उस से चुहल करता.
रमिया कहती, ‘‘अगर छोरा होगा, तो क्या उसे प्यार न करोगे?’’
‘‘नहीं.’’
‘‘क्यों?’’ यह सुन कर रमिया रूठ जाती.
बलदेव कहता, ‘‘छोरे कमबख्त किसी की बात नहीं सुनते, दिनभर ऊधम मचाते हैं…’’
‘‘पर तुम भी तो मरद हो?’’
‘‘तभी तो कह रहा हूं कि छोरा नहीं चाहिए.’’
हलकीफुलकी नोकझोंक, प्यार व तकरार के साथ दिन बीत रहे थे. बलदेव अपनी पत्नी का खूब खयाल रखता. अब तो उस ने दारू पर भी रोक सी लगा दी थी और दोगुनी मेहनत करने लगा था.
आधी रात के वक्त रमिया के दर्द शुरू हो गया. बलदेव भाग कर शांति चाची को बुला लाया.
शांति चाची ने पड़ोस की 2 औरतों को साथ ले लिया. अस्पताल के बरामदे में बैठा बलदेव भीतर से आने वाली नन्ही आवाज का इंतजार कर रहा था.
जब सुबह होने को आई, तभी एक दर्दनाक चीख के साथ ही नन्ही सी आवाज सुनाई पड़ी.
डाक्टर ने दरवाजा खोला और शांति चाची को अंदर बुला लिया. 15-20 मिनट तक फुसफुसाहटें आती रहीं, फिर डाक्टर की आवाज आई, ‘‘तुम लोग पागल हो… करो जो मरजी हो.’’
‘‘अरे बलदेव, तेरी तो तकदीर खुल गई रे, तेरे घर में तो देवी मां खुद पधारी हैं. जा, दर्शन कर के आ,’’ शांति चाची बोलीं.
‘‘बेटी हुई है न?’’ बलदेव उतावला हो उठा.
‘‘बेटी नहीं, देवी है, चल जल्दी,’’ शांति चाची उसे खींचते हुए अंदर ले गईं.
बच्ची को देखते ही बलदेव भौचक्का रह गया. बच्ची के 4 हाथ थे, 3 पूरे और एक अधूरा. रमिया बेहोश थी और वह नवजात बच्ची टुकुरटुकुर उसे देख रही थी.
बलदेव ने सोचा कि नवरात्र के दिनों में दुर्गा मां उसे दर्शन देने खुद पधारी हैं. उस की हिम्मत न हुई कि बच्ची को गोद में उठाए. वह हैरानी से बस एकटक उसे देखे जा रहा था.
बचपन में कई बार उस ने सुना था कि किसी गांव में किसी के घर दुर्गाजी ने जन्म लिया, बाद में उन के नाम का मंदिर भी बना दिया गया.
खुद बलदेव अपनी तकदीर पर गर्व कर रहा था कि ‘मां’ ने उसे इस काबिल समझ. रमिया की कोख धन्य हो गई.
शांति चाची बोलीं, ‘‘डाक्टर कह रहा था कि बच्ची ठीक है, आपरेशन कर के फालतू हाथ हटा देंगे, पता तक न चलेगा. पर मैं ने कह दिया, यह देवी है, इसे हाथ भी न लगाना.’’
सुबह हो ही चुकी थी. थोड़ी देर में दूरदराज के गांवों तक में यह खबर फैल गई कि बलदेव के घर ‘मैया’ ने जन्म लिया है.
डाक्टरों ने रमिया को घर भेज दिया, घर में रमिया को तो कमरे में लिटा दिया गया. लोग आते, बच्ची के दर्शन करते, चढ़ावा चढ़ाते और मैया का गुणगान करते हुए चले जाते.
यह देख कर बच्ची लगातार रोए जा रही थी. इस से सब को लगा कि मैया नाराज हैं, इसलिए ढोलक, मंजीरे के साथ कीर्तन शुरू हो गया. मैया को खुश करने की कोशिश की जाने लगी.
कुछ देर बाद बच्ची शांत हो गई. तब तक दोपहर हो चुकी थी. देखभाल न होने के कारण बच्ची मर गई थी. मां के दूध के तो उसे दर्शन भी न हुए थे.
बच्ची के मरने के बाद कहा जाने लगा, ‘मां का काम पूरा हुआ, इसलिए वे चली गईं.’
एक बुजुर्ग ने नसीहत दी, ‘‘देख बलदेव, मैया के नाम पर पीपल के नीचे पत्थर रख देना या यहीं घर के बाहर उन की समाधि बनवा देना.’’
बलदेव एक मुद्दत के बाद पिता बना, लेकिन फिर से बेऔलाद हो गया. बच्ची के अंतिम संस्कार के बाद जब वह घर लौटा तो देखा कि रमिया फूटफूट कर रो रही है. उसे तो यही दुख था कि वह अपनी बच्ची को सीने से भी न लगा पाई, उसे दूध तक न पिला पाई, मां बनने का सुख भी न उठा पाई.
कुदरत ने उसे मां बना कर फिर से बांझ बना दिया.
‘‘अरी, रोती क्यों है?’’ बलदेव ने पूछा, तो वह और भी जोर से रोने लगी.
‘‘तुम लोगों ने मेरी बच्ची को मार दिया…’’ कुछ देर बाद शांत होने पर रमिया बोली, ‘‘उसे न दूध मिला, न कपड़ा. मेरी बेटी को उठा कर बाहर डाल दिया. तुम्हीं उस के हत्यारे हो,’’ रमिया चीख पड़ी.
‘‘अरे, वह देवी मैया थीं… देखा नहीं उन के 4 हाथ थे. क्या किसी साधारण बच्चे के 4 हाथ होते हैं? नवरात्र के दिनों में वे हमें दर्शन दे कर चली गईं… हमारी तकदीर खुल गई. तेरी कोख धन्य हो गई,’’ बलदेव खुश होता हुआ बोला, फिर रमिया को रोता छोड़ कर वह चढ़ावे की रकम गिनने लगा.
थोड़ी देर बाद वह बोला, ‘‘रमिया, देख तो कितने रुपए हैं… तू ने पहले कभी न देखे होंगे… पूरे 8 हजार रुपए हैं. एक दिन में इतना चढ़ावा… बाहर एक पत्थर आएगा… हमारे दिन फिर जाएंगे.’’
‘‘क्यों, देवी के नाम पर पैसा बटोरोगे…’’ रमिया सिसकते हुए बोली.
‘‘चुप कर, बड़ेबड़े पंडेपुजारी भी इसी तरह पैसा बटोरते हैं. अगर हम ने ऐसा कर लिया, तो भला कौन सा पाप लगेगा?’’
तभी उस ने रमिया की ओर देखा, वह आंचल में मुंह छिपाए रो रही थी. उसे एक नहीं कई दुख लग गए थे, कोख उजड़ने का, पति के लालच का और उस की बेटी के नाम किए जाने वाले पाप या जुर्म का…
‘‘बाबूजी, आप मिठाई बांटिए,’’ सीमा ने खुश होते हुए कहा.
‘‘क्यों… क्या हुआ बेटी?’’
‘‘मेरी टीचर की नौकरी लगी है… पास के गांव में.’’
‘‘यह तो बहुत खुशी की बात है. आखिरकार मेरी बेटी जिंदगी में कुछ बन ही गई.’’
आज स्कूल का पहला दिन था. सीमा बहुत खुश थी. बाबूजी भी उन के साथ स्कूल में आए थे. पहला दिन तो ठीकठाक ही था. दूसरे दिन सीमा प्रार्थना में खड़ी थी, तभी हैडमास्टरजी मदन उस के पास आए और कहने लगे, ‘‘मैडमजी, बढ़िया नौकरी लगी है, चाय तो पिलाइए स्टाफ को.’’
‘‘जी, मैं ने तो अभी पहली तनख्वाह भी नहीं ली है. बाद में सब को चाय पिलाऊंगी,’’ सीमा ने कहा.
‘‘अरे मैडमजी, एक कप चाय के लिए महीनेभर का इंतजार करवाएंगी क्या?’’
‘‘सरजी, मैं ने कहा न कि पहली तनख्वाह मिलने के बाद चाय पिलाऊंगी. मुझे माफ कर दीजिए.’’
हैडमास्टरजी चले गए. अजीत सर पास में ही खड़े थे.
‘‘मै कुछ कहूं,’’ अजीत सर धीमी आवाज में बोले.
‘‘कहिए.’’
‘‘चाय पिला दीजिए. अगर पैसे नहीं हैं, तो मैं दिए देता हूं. तनख्वाह मिलने के बाद आप लौटा दीजिएगा.’’
‘‘मुझे किसी का उधार नहीं चाहिए.’’
इस के बाद सभी लोग क्लास में चले गए. सीमा की क्लास में 20 छात्र थे. 10 छात्र ठीकठाक पढ़ते थे, बाकी बचे 10 छात्रों को अलग से ज्यादा पढ़ाना पड़ता था.
सीमा जैसे ही स्टाफरूम में जाती थी, किसी न किसी बहाने दूसरे टीचर भी वहां आ जाते थे और उस का मजाक उड़ाते थे.
एक दिन सीमा का दिमाग गरम हो गया और वह बोल पड़ी, ‘‘क्यों एक कप चाय के लिए इतना मरे जा रहे हैं. अब तो मैं पहली तनख्वाह मिलने पर भी चाय नहीं पिलाऊंगी.’’
स्कूल के सारे टीचर और हैडमास्टर सीमा का यह जवाब सुन कर गुस्सा तो हुए, पर कोई भी कुछ नहीं बोला. लेकिन सीमा के इस करारे जवाब से उस के खिलाफ स्कूल में राजनीति शुरू हो गई.
एक दिन स्कूल में बड़े साहब आए. मदनजी फौरन नाश्ता ले कर आए. सीमा को भी बुलाया गया. उस ने एक समोसा खाया. बड़े साहब के स्कूल से जाते ही हैडमास्टरजी उस से 20 रुपए मांगने लगे.
‘‘एक समोसे के 20 रुपए?’’ सीमा ने हैरान हो कर पूछा.
‘‘मैडमजी, बड़े साहब के आने में गाड़ी का पैट्रोल नहीं लगा क्या,’’ राकेशजी बोले.
सीमा ने झट से 20 रुपए उन के मुंह पर फेंके और अपनी क्लास में लौट गई. उस के पीछेपीछे अजीत सर भी क्लास में पहुंच गए.’’
‘‘आप को पैसों की कोई दिक्कत है क्या?’’
‘‘नहीं तो.’’
‘‘तो फिर 20 रुपए के लिए इतना गुस्सा क्यों?’’
‘‘5 रुपए के समोसे के लिए 20 रुपए क्यों?’’
‘‘क्योंकि मदनजी, राकेशजी और प्रदीपजी पैसे नहीं देंगे. उन के पैसे आप से वसूले गए हैं. हैडमास्टरजी और बड़े साहब के पैसे मैं ने दिए हैं.’’
‘‘यह तो नाइंसाफी हुई न.’’
‘‘यहां पर ऐसे ही चलता है. किसी भी सरकारी स्कूल में ऐसे ही होता है. सीनियर लोग जैसा कहते हैं, वैसा ही करना पड़ता है. आप अभी नई हैं.’’
एक हफ्ते बाद औफिस से ट्रेनिंग की चिट्ठी आई. सीमा जानती थी कि उसे ही भेजी जाएगी. दूसरे हफ्ते फिर से ट्रेनिंग की चिट्ठी आई. फिर से उसे ही भेजी गई. कभी कोई मीटिंग हो तो भी उसे जाना पड़ता था. क्लास में 20 छात्र थे, लेकिन तकरीबन 12 छात्र ही रोज आते थे.
सीमा ने बहुत बार उन के घर के चक्कर लगाए. लेकिन जब तक उन्हें बुलाने कोई घर नहीं जाता था, तब तक वे स्कूल में आते नहीं थे. हर दिन उन छात्रों को बुलाना पड़ता था.
एक दिन सीमा के पड़ोस में रहने वाले राजू का पुराना स्कूल बैग उस ने अपने स्कूल की एक छात्रा को दे दिया. वह लड़की स्कूल में बैठती ही नहीं थी. अपनी किताबों वाली थैली क्लास में रख कर वह भाग जाती थी. लेकिन पुराना ही सही स्कूल बैग मिलने के बाद वह स्कूल में रोजाना आने लगी. यह देख कर सीमा को भी अच्छा लगने लगा था.
अब इस स्कूल में सीमा को 3 साल हो चुके थे. राकेशजी, मदनजी, प्रदीपजी और हैडमास्टरजी रोजाना एक न एक टेढ़ी बात तो बोलते ही थे, पर अजीत सर अपने शांत और मजाकिया स्वभाव से उसे शांत कर देते थे. अजीत सर का उस के प्रति प्यार भरा रवैया बाकी स्टाफ को पसंद नहीं आता था.
एक दिन अजीत सर और वे बाकी शैतान औफिस में एकसाथ बैठे थे.
‘‘क्यों भई, क्या मैडमजी से शादी करने का इरादा है?’’ राकेशजी ने पूछा.
‘‘नहीं तो,’’ अजीत सर बोले.
‘‘करना भी मत. मैडमजी हमारी बिरादरी से नहीं हैं और फिर स्कूल में ही लव मैरिज के चक्कर में सस्पैंड हो जाओगे. टीचर लोगों को लव मैरिज करना अलाउड नहीं होता. पता है न भैया,’’ मदनजी बोले.
अजीत सर ने कुछ नहीं कहा, क्योंकि मन ही मन तो वे सीमा से ही शादी के ख्वाब देख रहे थे.
एक दिन बड़े साहब सीमा की क्लास में आए. क्लास में छात्र कम थे.
‘‘20 में से सिर्फ 15 ही छात्र…’’ उन्होंने पूछा.
‘‘जी… रोज तो आते हैं.’’
‘‘आज मैं आया हूं, इसलिए नहीं आए हैं क्या?’’
‘‘जी…’’ जवाब में क्या कहा जाए, सीमा की समझ में नहीं आ रहा था.
‘‘उठो बेटे, तुम्हारा नाम क्या है?’’ बड़े साहब ने एक छात्र से पूछा.
‘‘जी, निखिल.’’
‘‘ब्लैक बोर्ड पर अपने किसी एक दोस्त का नाम लिखो.’’
निखिल ने अपने दोस्त का नाम पीयूष की जगह पिउष लिखा.
‘‘क्या पढ़ाती हैं मैडमजी आप बच्चों को. अच्छा, तुम उठो. तुम्हारा नाम क्या है?’’
‘‘जी, स्नेहल.’’
‘‘सूर्योदय और सूर्यास्त किस दिशा में होता है?’’
‘‘सूर्योदय पूरब दिशा से होता है और सूर्यास्त…’’ स्नेहल ने जवाब नहीं दिया.
बड़े साहब सीमा पर चिल्लाने लगे, ‘‘नोटिस दूं क्या आप को? दूं आप को नोटिस?’’
सीमा नजरें झुका कर खड़ी हो गई. दूर खड़े हैडमास्टरजी मुसकरा रहे थे. बड़े साहब क्लास से निकल गए. सीमा अजीत सर की क्लास में गई.
‘‘मुझे पता है, हैडमास्टरजी जानबूझ कर बड़े साहब को मेरी क्लास में ले कर आए थे. बड़े साहब ने मुझे डांटा तो उन के कलेजे को ठंडक पहुंची होगी.’’
‘‘अगर आप एक कप चाय पिला देतीं तो…’’
‘‘मुझ से ज्यादा तनख्वाह तो ये लोग लेते हैं और सारे काम मुझ से ही कराते हैं. ये किसी और को ट्रेनिंग में क्यों नहीं भेजते, क्योंकि वे सब बड़े साहब को और उन के बीवीबच्चों को महंगेमहंगे तोहफे देते हैं.’’
‘‘अगर आप भी अपनी तरफ से कुछ गिफ्ट दे देतीं तो…’’
सीमा को पता था कि अजीत सर के पास उस का मन शांत नहीं होगा. वह फिर से अपनी क्लास में चली गई. शाम को घर में बरतनों का बहुत शोर हो रहा था.
बाबूजी ने आवाज दी, ‘‘सीमा, क्यों इतना शोर मचा रही हो?’’
‘‘बड़े साहब आए थे स्कूल में. कहते हैं कि नोटिस देंगे,’’ सीमा ने कहा.
‘‘तो देने दो न. सरकारी नौकरी में तो यह रोज की बात होती है,’’ बाबूजी बोले.
‘‘कह रहे थे कि पढ़ाती नहीं हो तो तनख्वाह क्यों लेती हो? मैं तो रोजाना पढ़ाती हूं, बच्चे पढ़ते नहीं तो क्या करूं? रोजाना आने वाले बच्चे भी आज घर रह गए. मैं क्या करूं?’’
‘‘मेरी प्यारी बेटी, इतना उदास मत हो. एक दिन सब अच्छा हो जाएगा,’’ बाबूजी ने भरोसा जताया.
लेकिन बच्चों ने बड़े साहब के सामने जवाब क्यों नहीं दिए? नोटिस दूंगा जैसे शब्द अब भी सीमा के कानों में चुभ रहे थे. साथी टीचरों की मुसकराती शक्लें नजरों से हट नहीं रही थीं.
जो होता है, अच्छे के लिए होता है, यह सोच कर सीमा ने नई शुरुआत की. शायद उस के पढ़ानेलिखाने में ही कुछ कमी है. यह सोच कर सीमा ने नए जोश से पढ़ाना शुरू किया, पर एक दिन उस के ट्रांसफर का और्डर आ गया.
सीमा का आज इस स्कूल में आखिरी दिन था. हैडमास्टरजी बताने लगे, ‘‘आप के ट्रांसफर में मेरा कोई हाथ नहीं है. मैं ने तो बड़े साहब को बताया था कि बच्ची है, जाने दीजिए. लेकिन उन्होंने मेरी नहीं सुनी.’’
‘‘500 रुपए दे देतीं, तो यह नौबत नहीं आती,’’ मदनजी बोले.
‘‘हमारा बड़ा साहब इतना सस्ता है, वह मुझे पता नहीं था,’’ सीमा ने कहा.
‘‘जाओ अब जंगल में. जानवरों के बीच रहना. रोजाना एक घंटा बस से जाना होगा. उस के आगे 5 किलोमीटर पैदल जाना होगा. रात को घर लौटते वक्त 8 बजेंगे. हमारी बेटी जैसी हो, इसलिए बता रहे हैं. दुनियादारी सीख लो. रिश्वत देना आम बात है,’’ प्रदीपजी बोले.
‘‘आप जैसे इनसानों के साथ रहने से बेहतर है कि मैं जानवरों के साथ रहूं. अगर आप पहले ही दिन मुझे अपनी बेटी मान लेते तो आज हालात ऐसे न होते प्रदीपजी.’’
दफ्तर के बाहर अजीत सर सीमा का इंतजार कर रहे थे.
‘‘कभी कोई परेशानी हो तो फोन जरूर कीजिएगा.’’
‘‘जी जरूर. इस स्कूल में सिर्फ आप ही मुझे याद करेंगे, ऐसा लगता है,’’ कह कर सीमा वहां से चली गई.
पूरे 15 वर्ष हो गए मुझे स्कूल में नौकरी करते हुए. इन वर्षों में कितने ही बच्चे होस्टल आए और गए, किंतु नेहा उन सब में कुछ अलग ही थी. बड़ी ही शांत, अपनेआप में रहने वाली. न किसी से बोलती न ही कक्षा में शैतानी करती. जब सारे बच्चे टीचर की गैरमौजूदगी में इधरउधर कूदतेफांदते होते, वह अकेले बैठे कोई किताब पढ़ती होती या सादे कागज पर कोई चित्रकारी करती होती. विद्यालय में होने वाले सारे कार्यक्रमों में अव्वल रहती. बहुमखी प्रतिभा की धनी थी वह. फिर भी एक अलग सी खामोशी नजर आती थी मुझे उस के चेहरे पर. किंतु कभीकभी वह खामोशी उदासी का रूप ले लेती. मैं उस पर कई दिनों से ध्यान दे रही थी. जब स्पोर्ट्स का पीरियड होता, वह किसी कोने में बैठ गुमनाम सी कुछ सोचती रहती.
कभीकभी वह कक्षा में पढ़ते हुए बोर्ड को ताकती रहती और उस की सुंदर सीप सी आंखें आंसुओं से चमक उठतीं. मेरे से रहा न गया, सो मैं ने एक दिन उस से पूछ ही लिया, ‘‘नेहा, तुम बहुत अच्छी लड़की हो. विद्यालय के कार्यक्रमों में हर क्षेत्र में अव्वल आती हो. फिर तुम उदास, गुमसुम क्यों रहती हो? अपने दोस्तों के साथ खेलती भी नहीं. क्या तुम्हें होस्टल या स्कूल में कोई परेशानी है?’’
वह बोली, ‘‘जी नहीं मैडम, ऐसी कोई बात नहीं. बस, मुझे अच्छा नहीं लगता. ’’
उस के इस जवाब ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया जहां बच्चे खेलते नहीं थकते, उन्हें बारबार अनुशासित करना पड़ता है, उन्हें उन की जिम्मेदारियां समझानी पड़ती हैं वहां इस लड़की के बचपन में यह सब क्यों नहीं? मुझे लगा, कुछ तो ऐसा है जो इसे अंदर ही अंदर काट रहा है. सो, मैं ने उस का पहले से ज्यादा ध्यान रखना शुरू कर दिया. मैं देखती थी कि जब सारे बच्चों के मातापिता महीने में एक बार अपने बच्चों से मिलने आते तो उस से मिलने कोई नहीं आता था. तब वह दूर से सब के मातापिता को अपने बच्चों को पुचकारते देखती और उस की आंखों में पानी आ जाता. वह दौड़ कर अपने होस्टल के कमरे में जाती और एक तसवीर निकाल कर देखती, फिर वापस रख देती.
जब बच्चों के जन्मदिन होते तो उन के मातापिता उन के लिए व उन के दोस्तों के लिए चौकलेट व उपहार ले कर आते लेकिन उस के जन्मदिन पर किसी का कोई फोन भी न आता. हद तो तब हो गई जब गरमी की छुट्टियां हुईं. सब के मातापिता अपने बच्चों को लेने आए लेकिन उसे कोई लेने नहीं आया. मुझे लगा, कोई मांबाप इतने गैर जिम्मेदार कैसे हो सकते हैं? तब मैं ने औफिस से उस का फोन नंबर ले कर उस के घर फोन किया और पूछा कि आप इसे लेने आएंगे या मैं ले जाऊं?
जवाब बहुत ही हैरान करने वाला था. उस की दादी ने कहा, ‘‘आप अपने साथ ले जा सकती हैं.’’ मैं समझ गई थी कोई बड़ी गड़बड़ जरूर है वरना इतनी प्यारी बच्ची के साथ ऐसा व्यवहार? खैर, उन छुट्टियों में मैं उसे अपने साथ ले गई. कुछ दिन तो वह चुपचाप रही, फिर धीरेधीरे मेरे साथ घुलनेमिलने लगी थी. मुझे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे मैं किसी बड़ी जंग को जीतने वाली हूं. छुट्टियों के बाद जब स्कूल खुले वह 8वीं कक्षा में आ गई थी. उस की शारीरिक बनावट में भी परिवर्तन होने लगा था. मैं भलीभांति समझती थी कि उसे बहुत प्यार की जरूरत है. सो, अब तो मैं ने बीड़ा उठा लिया था उस की उदासी को दूर करने का. कभीकभी मैं देखती थी कि स्कूल के कुछ शैतान बच्चे उसे ‘रोतली’ कह कर चिढ़ाते थे. खैर, उन्हें तो मैं ने बड़ी सख्ती से कह दिया था कि यदि अगली बार वे नेहा को चिढ़ाते पाए गए तो उन्हें सजा मिलेगी.
हां, उस की कुछ बच्चों से अच्छी पटती थी. वे उसे अपने घरों से लौटने के बाद अपने मातापिता के संग बिताए पलों के बारे में बता रहे थे तो उस ने भी अपनी इस बार की छुट्टियां मेरे साथ कैसे बिताईं, सब को बड़ी खुशीखुशी बताया. मुझे ऐसा लगा जैसे मैं अपनी मंजिल का आधा रास्ता तय कर चुकी हूं. इस बार दीवाली की छुट्टियां थीं और मैं चाहती थी कि वह मेरे साथ दीवाली मनाए. सो, मैं ने पहले ही उस के घर फोन कर कहा कि क्या मैं नेहा को अपने साथ ले जाऊं छुट्टियों में? मैं जानती थी कि जवाब ‘हां’ ही मिलेगा और वही हुआ. दीवाली पर मैं ने उसे नई ड्रैस दिलवाई और पटाखों की दुकान पर ले गई. उस ने पटाखे खरीदने से इनकार कर दिया. वह कहने लगी, उसे शोर पसंद नहीं. मैं ने भी जिद करना उचित न समझा और कुछ फुलझड़ियों के पैकेट उस के लिए खरीद लिए. दीवाली की रात जब दिए जले, वह बहुत खुश थी और जैसे ही मैं ने एक फुलझड़ी सुलगा कर उसे थमाने की कोशिश की, वह नहींनहीं कह रोने लगी और साथ ही, उस के मुंह से ‘मम्मी’ शब्द निकल गया. मैं यही चाहती थी और मैं ने मौका देख उसे गले लगा लिया और कहा, ‘मैं हूं तुम्हारी मम्मी. मुझे बताओ तुम्हें क्या परेशानी है?’ आज वह मेरी छाती से चिपक कर रो रही थी और सबकुछ अपनेआप ही बताने लगी थी.
वह कहने लगी, ‘‘मेरे मां व पिताजी की अरेंज्ड मैरिज थी. मेरे पिताजी अपने मातापिता की इकलौती संतान हैं, इसीलिए शायद थोड़े बदमिजाज भी. मेरी मां की शादी के 1 वर्ष बाद ही मेरा जन्म हुआ. मां व पिताजी के छोटेछोटे झगड़े चलते रहते थे. तब मैं कुछ समझती नहीं थी. झगड़े बढ़ते गए और मैं 5 वर्ष की हो गई. दिनप्रतिदिन पिताजी का मां के साथ बरताव बुरा होता जा रहा था. लेकिन मां भी क्या करतीं? उन्हें तो सब सहन करना था मेरे कारण, वरना मां शायद पिताजी को छोड़ भी देतीं.
‘‘पिताजी अच्छी तरह जानते थे कि मां उन को छोड़ कर कहीं नहीं जाएगी. पिताजी को सिगरेट पीने की बुरी आदत थी. कई बार वे गुस्से में मां को जलती सिगरेट से जला भी देते थे. और वे बेचारी अपनी कमर पर लगे सिगरेट के निशान साड़ी से छिपाने की कोशिश करती रहतीं. पिताजी की मां के प्रति बेरुखी बढ़ती जा रही थी और अब वे दूसरी लड़कियों को भी घर में लाने लगे थे. वे लड़कियां पिताजी के साथ उन के कमरे में होतीं और मैं व मां दूसरे कमरे में. ‘‘ये सब देख कर भी दादी पिताजी को कुछ न कहतीं. एक दिन मां ने पिताजी के अत्याचारों से तंग आ कर घर छोड़ने का फैसला कर लिया और मुझे ले कर अपने मायके आ गईं. वहां उन्होंने एक प्राइवेट स्कूल में नौकरी भी कर ली. मेरे नानानानी पर तो मानो मुसीबत के पहाड़ टूट पड़े. मेरे मामा भी हैं किंतु वे मां से छोटे हैं. सो, चाह कर भी कोई मदद नहीं कर पाए. जो नानानानी कहते वे वही करते. कई महीने बीत गए. अब नानानानी को लगने लगा कि बेटी मायके आ कर बैठ गई है, इसे समझाबुझा कर भेज देना चाहिए. वे मां को समझाते कि पिताजी के पास वापस चली जाएं.
‘‘एक तरह से उन का कहना भी सही था कि जब तक वे हैं ठीक है. उन के न रहने पर मुझे और मां को कौन संभालेगा? किंतु मां कहतीं, ‘मैं मर जाऊंगी लेकिन उस के पास वापस नहीं जाऊंगी.’
‘‘दादादादी के समझाने पर एक बार पिताजी मुझे व मां को लेने आए और तब मेरे नानानानी ने मुझे व मां को इस शर्त पर भेज दिया कि पिताजी अब मां को और नहीं सताएंगे. हम फिर से पिताजी के पास उन के घर आ गए. कुछ दिन पिताजी ठीक रहे. किंतु पिताजी ने फिर अपने पहले वाले रंगढंग दिखाने शुरू कर दिए. अब मैं धीरेधीरे सबकुछ समझने लगी थी. लेकिन पिताजी के व्यवहार में कोई फर्क नहीं आया. वे उसी तरह मां से झगड़ा करते और उन्हें परेशान करते. इस बार जब मां ने नानानानी को सारी बातें बताईं तो उन्होंने थोड़ा दिमाग से काम लिया और मां से कहा कि मुझे पिताजी के पास छोड़ कर मायके आ जाएं. ‘‘मां ने नानानानी की बात मानी और मुझे पिताजी के घर में छोड़ नानानानी के पास चली गईं. उन्हें लगा शायद मुझे बिन मां के देख पिताजी व दादादादी का मन कुछ बदल जाएगा. किंतु ऐसा न हुआ. उन्होंने कभी मां को याद भी न किया और मुझे होस्टल में डाल दिया. नानानानी को फिर लगने लगा कि उन के बाद मां को कौन संभालेगा और उन्होंने पिताजी व मां का तलाक करवा दिया और मां की दूसरी शादी कर दी गई. मां के नए पति के पहले से 2 बच्चे थे और एक बूढ़ी मां. सो, मां उन में व्यस्त हो गईं.
‘‘इधर, मुझे होस्टल में डाल दादादादी व पिताजी आजाद हो गए. छुट्टियों में भी न मुझे कोई बुलाता, न ही मिलने आते. मां व पिताजी दोनों के मातापिता ने सिर्फ अपने बच्चों के बारे में सोचा, मेरे बारे में किसी ने नहीं. दोनों परिवारों और मेरे अपने मातापिता ने मुझे मझधार में छोड़ दिया.’’ इतना कह कर नेहा फूटफूट कर रोने लगी और कहने लगी, ‘‘आज फुलझड़ी से जल न जाऊं. मुझे मां की सिगरेट से जली कमर याद आ गई. मैडम, मैं रोज अपनी मां को याद करती हूं, चाहती हूं कि वे मेरे सपने में आएं और मुझे प्यार करें.
‘‘क्या मेरी मां भी मुझे कभी याद करती होंगी? क्यों वे मुझे मेरी दादी, दादा, पापा के पास छोड़ गईं? वे तो जानती थीं कि उन के सिवा कोई नहीं था मेरा इस दुनिया में. दादादादी, क्या उन से मेरा कोई रिश्ता नहीं? वे लोग मुझे क्यों नहीं प्यार करते? अगर मेरे पापा, मम्मी का झगड़ा होता था तो उस में मेरा क्या कुसूर? और नाना, नानी उन्होंने भी मुझे अपने पास नहीं रखा. बल्कि मेरी मां की दूसरी शादी करवा दी. और मुझ से मेरी मां छीन ली. मैं उन सब से नफरत करती हूं मैडम. मुझे कोई अच्छा नहीं लगता. कोई मुझ से प्यार नहीं करता.’’
वह कहे जा रही थी और मैं सुने जा रही थी. मैं नेहा की पूरी बात सुन कर सोचती रह गई, ‘क्या बच्चे से रिश्ता तब तक होता है जब तक उस के मातापिता उसे पालने में सक्षम हों? जो दादादादी, नानानानी अपने बच्चों से ज्यादा अपने नातीपोतों पर प्यार उड़ेला करते थे, क्या आज वे सिर्फ एक ढकोसला हैं? उन का उस बच्चे से रिश्ता सिर्फ अपने बच्चों से जुड़ा है? यदि किसी कारणवश वह बीच की कड़ी टूट जाए तो क्या उन दादादादी, नानानानी की बच्चे के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं? और क्या मातापिता अपने गैरजिम्मेदार बच्चों का विवाह कर एक पवित्र बंधन को बोझ में बदल देते हैं? क्या नेहा की दादी अपने बेटे पर नियंत्रण नहीं रख सकती थी और यदि नहीं तो उस ने नेहा की मां की जिंदगी क्यों बरबाद की, और क्यों नेहा की मां अपने मातापिता की बातों में आ गई और नेहा के भविष्य के बारे में न सोचते हुए दूसरे विवाह को राजी हो गई?
‘कैसे गैरजिम्मेदार होते हैं वे मातापिता जो अपने बच्चों को इस तरह अकेला घुटघुट कर जीने के लिए छोड़ देते हैं. यदि उन की आपस में नहीं बनती तो उस का खमियाजा बच्चे क्यों भुगतें. क्या हक होता है उन्हें बच्चे पैदा करने का जो उन की परवरिश नहीं कर सकते.’ मैं चाहती थी आज नेहा वह सब कह डाले जो उस के मन में नासूर बन उसे अंदर ही अंदर खाए जा रहा है. जब वह सब कह चुप हुई तो मैं ने उसे मुसकरा कर देखा और पूछा, ‘‘मैं तुम्हें कैसी लगती हूं? क्या तुम समझती हो मैं तुम्हें प्यार करती हूं?’’ उस ने अपनी गरदन हिलाते हुए कहा, ‘‘हां.’’ और मैं ने पूछ लिया, ‘‘क्या तुम मुझे अपनी मां बनाओगी?’’ वह समझ न सकी मैं क्या कह रही हूं. मैं ने पूछा, ‘‘क्या तुम हमेशा के लिए मेरे साथ रहोगी?’’
जवाब में वह मुसकरा रही थी. और मैं ने झट से उस के दादादादी को बुलवा भेजा. जब वे आए, मैं ने कहा, ‘‘देखिए, आप की तो उम्र हो चुकी है और मैं इसे सदा के लिए अपने पास रखना चाहती हूं. क्यों नहीं आप इसे मुझे गोद दे देते?’’
दादादादी ने कहा, ‘‘जैसा आप उचित समझें.’’ फिर क्या था, मैं ने झट से कागजी कार्यवाही पूरी की और नेहा को सदा के लिए अपने पास रख लिया. मैं नहीं चाहती थी कि मझधार में हिचकोले खाती वह मासूम जिंदगी किसी तेज रेले के साथ बह जाए.
रमेश ने झगड़ालू और दबंग पत्नी से आपसी कलह के चलते दुखी जिंदगी देने वाला तलाक रूपी जहर पी लिया था. अगर चंद्रमणि उस की मां की सेवा करने की आदत बना लेती, तो वह उस का हर सितम हंसतेहंसते सह लेता, मगर अब उस से अपनी मां की बेइज्जती सहन नहीं होती थी.
ऐसी पत्नी का क्या करना, जो अपना ज्यादातर समय टैलीविजन देखने या मोबाइल फोन पर अपने घर वालों या सखीसहेलियों के साथ गुजारे और घर के सारे काम रमेश की बूढ़ी मां को करने पड़ें? बारबार समझाने पर भी चंद्रमणि नहीं मानी, उलटे रमेश पर गुर्राते हुए मां का ही कुसूर निकालने लगती, तो उस ने यह कठोर फैसला ले लिया.
चंद्रमणि तलाक पाने के लिए अदालत में तो खड़ी हो गई, मगर उस ने अपनी गलतियों पर गौर करना भी मुनासिब नहीं समझा. इस तरह रमेश ने तकरीबन 6 लाख रुपए गंवा कर अकेलापन भोगने के लिए तलाक रूपी शाप झेल लिया.
ऐसा नहीं था कि चंद्रमणि से तलाक ले कर रमेश सुखी था. खूबसूरत सांचे में ढली गदराए बदन वाली चंद्रमणि उसे अब भी तनहा रातों में बहुत याद आती थी, लेकिन मां के सामने वह अपना दर्द कभी जाहिर नहीं करता था. लिहाजा, उस ने अपना मन अपनी दुकानदारी में पूरी तरह लगा लिया.
रमेश मन लगा कर अपने जनरल स्टोर में 16-16 घंटे काम करने लगा… काम खूब चलने लगा. रुपया बरस रहा था. अब वह रेडीमेड कपड़ों की दूसरी दुकान खोलना चाहता था.
रविवार का दिन था. रमेश अपने कमरे में बैठा कुछ हिसाबकिताब लगा रहा था कि तभी उस का मोबाइल फोन बज उठा.
फोन उठाते ही किसी अजनबी औरत की बेहद मीठी आवाज सुनाई दी. रमेश का मन रोमांटिक सा हो गया. उस ने पूछा, तो दूसरी तरफ से घबराईझिझकती आवाज में बताया गया कि उस औरत की 5 साला बेटी से गलती हो गई. माफी मांगी गई.
‘‘अरेअरे, इस में गलती की कोई बात नहीं. बच्चे तो शरारती होते ही हैं. बड़ी प्यारी बच्ची है आप की. इस के पापा घर में ही हैं क्या?’’ रमेश ने पूछा, तो दूसरी तरफ खामोशी छा गई.
रमेश ने फिर पूछा, तो उस औरत ने बताया कि उस ने अपने पति का घर छोड़ दिया है.
‘‘ऐसा क्यों किया? यह तो आप ने गलत कदम उठाया. घर उजाड़ने में समय नहीं लगता, पर बसाने में जमाने लग जाते हैं. आप को ऐसा नहीं करना चाहिए था.
‘‘आप को अपनी गलती सुधारनी चाहिए और अपने पति के घर लौट जाना चाहिए,’’ रमेश ने बिना मांगे ही उस औरत को उपदेश दे दिया.
औरत ने दुखी मन से बताया, ‘ऐसा करना बहुत जरूरी हो गया था. अगर मैं ऐसा न करती, तो वह जालिम हम मांबेटी को मार ही डालता.’
‘‘देखो, घर में छोटेमोटे मनमुटाव होते रहते हैं. मिलबैठ कर समझौता कर लेना चाहिए. एक बार घर की गाड़ी पटरी से उतर गई, तो बहुत मुश्किल हो जाता है.
‘‘तुम्हारा अपने घर लौट जाना बेहद जरूरी है. लौट आओ वापस. बाद में पछतावे के अलावा कुछ भी हाथ नहीं लगेगा,’’ रमेश ने रास्ते से भटकी हुई उस औरत को समझाने की भरपूर कोशिश की, पर उस का यह उपदेश सुन कर वह औरत मानो गरज उठी, ‘जो आदमी अपराध कर के बारबार जेल जाता रहता है. जब वह जेल से बाहर आता है, तो मेहनतमजदूरी के कमाए रुपए छीन कर फिर नशे में अपराध कर के जेल चला जाता है, तो हम उस राक्षस के पास मरने के लिए रहतीं?
‘अगर तुम अब यही उपदेश देते हो, तो तुम ही हम मांबेटी को उस जालिम के पास छोड़ आओ. हम तैयार हैं,’ उस परेशान औरत ने अपना दर्द बता कर रमेश को लाजवाब कर दिया.
यह सुन कर रमेश को सदमा सा लगा. वह सोच रहा था कि जवान औरत अपनी मासूम बेटी के साथ अकेले बेरोजगारी की हालत में अपनी जिंदगी कैसे बिताएगी? यकीनन, ऐसे मजबूर इनसान की जरूर मदद करनी चाहिए.
वैसे भी रमेश को औरतों के सामान वाले जनरल स्टोर पर किसी औरत को रखना था, तभी तो वह रेडीमेड कपड़ों की दूसरी दुकान कर पाएगा. अगर यह मीठा बोलने वाली औरत ऐसे ही दुकान पर ग्राहकों से मीठीमीठी बातें करेगी, तो दुकान जरूर चल सकती है.
रमेश ने उस से पूछा, ‘‘क्या आप पढ़ीलिखी हैं?’’
‘क्या मतलब?’ उस औरत ने चौंकते हुए पूछा.
‘‘मेरा मतलब यह है कि मुझे अपने जनरल स्टोर पर, जिस में लेडीज सामान ही बेचा जाता है, सेल्स गर्ल की जरूरत है. अगर आप चाहें, तो मैं आप को नौकरी दे सकता हूं. इस तरह आप के खर्चेपानी की समस्या का हल भी हो जाएगा.’’
‘क्या आप मुझे 10 हजार रुपए महीना तनख्वाह दे सकते हैं?’ उस औरत ने चहकते हुए पूछा.
‘‘हांहां, क्यों नहीं, अगर आप मेरी दुकान पर 12 घंटे काम करेंगी, तो मैं आप को 10 हजार रुपए से ज्यादा भी दे सकता हूं. यह तो तुम्हारे काम पर निर्भर करता है कि तुम आने वाले ग्राहकों को कितना प्रभावित करती हो.’’
‘काम तो मैं आप के कहे मुताबिक ही करूंगी. बस, मुझे मेरी बेटी की परेशानी रहेगी. अगर मेरी बेटी के रहने की समस्या का हल हो जाए, तो मैं आप की दुकान पर 15 घंटे भी काम कर सकती हूं. बेटी को संभालने वाला कोई तो हो,’ वह औरत बोली.
‘‘मैं आप की बेटी को सुबह स्कूल छोड़ आऊंगा. छुट्टी के बाद उसे मैं अपनी मां के पास छोड़ आया करूंगा. इस तरह आप की समस्या का हल भी निकल आएगा और घर में मेरी मां का दिल भी लगा रहेगा. आप की बेटी भी महफूज रहेगी,’’ रमेश ने बताया.
वह औरत खुशी के मारे चहक उठी, ‘फिर बताओ, मैं तुम्हारे पास कब आऊं? अपनी दुकान का पता बताओ. मैं अभी आ कर तुम से मिलती हूं. तुम मुझे नौकरी दे रहे हो, मैं तनमन से तुम्हारे काम आऊंगी. गुलाम बन कर रहूंगी, तुम्हारी हर बात मानूंगी.’
रमेश के मन में विचार आया कि अगर वह औरत अपने काम के प्रति ईमानदार रहेगी, तो वह उसे किसी तरह की परेशानी नहीं होने देगा. उस की मासूम बेटी को वह अपने खर्चे पर ही पढ़ाएगा.
तभी रमेश के मन में यह भी खयाल आया कि वह पहले उस के घर जा कर उसे देख तो ले. उस की आवाज ही सुनी है, उसे कभी देखा नहीं. उस के बारे में जानना जरूरी है. लाखों रुपए का माल है दुकान में. उस के हवाले करना कहां तक ठीक है?
रमेश ने उस औरत को फोन किया और बोला, ‘‘पहले आप अपने घर का पता बताएं? आप का घर देख कर ही मैं कोई उचित फैसला कर पाऊंगा.’’
वह औरत कुछ कह पाती, इस से पहले हीरमेश को उस के घर से मर्दों की आवाजें सुनाई दीं.
वह औरत लहजा बदल कर बोली, ‘अभी तो मेरे 2 भाई घर पर आए हुए हैं. तुम कल शाम को आ जाओ.
‘मैं तनमन से आप की दुकान में मेहनत करूंगी और आप की सेवा भी करूंगी. आप की उम्र कितनी है?’ उस औरत ने पूछा.
‘‘मेरी उम्र तो यही बस 40 साल के करीब होगी. अभी मैं भी अकेला ही हूं. पत्नी से आपसी मनमुटाव के चलते मेरा तलाक हो गया है,’’ रमेश ने भी अपना दुख जाहिर कर दिया.
यह सुन कर तो वह औरत खुशी के मारे चहक उठी थी, ‘अरे वाह, तब तो मजा आ जाएगा, साथसाथ काम करने में. मेरी उम्र भी 30 साल है. मैं भी अकेली, तुम भी अकेले. हम एकदूसरे की परेशानियों को दिल से समझ सकेंगे,’ इतना कह कर उस औरत ने शहद घुली आवाज में अपने घर का पता बताया.
उस औरत ने अपने घर का जो पता बताया था, वह कालोनी तो रमेश के घर से आधा किलोमीटर दूर थी. उस ने अपनी मां से औरत के साथ हुई सारी बातें बताईं.
मां ने सलाह दी कि अगर वह औरत ईमानदार और मेहनती है, तो उसे अभी उस के घर जा कर उस के भाइयों के सामने बात पक्की करनी चाहिए. रमेश को अपनी मां की बात सही लगी. उस ने फोन किया, तो उस औरत का फोन बंद मिला.
रमेश ने अपना स्कूटर स्टार्ट किया और चल दिया उस के घर की तरफ. मगर घर का गेट बंद था. गली भी आगे से बंद थी. वहां खास चहलपहल भी नहीं थी. मकान भी मामूली सा था.
गली में एक बूढ़ा आदमी नजर आया, तो रमेश ने अदब से उस औरत का नाम ले कर उस के घर का पता पूछा. बूढ़े ने नफरत भरी निगाहों से उसे घूरते हुए सामने मामूली से मकान की तरफ इशारा किया.
रमेश को उस बूढ़े के बरताव पर गुस्सा आया, मगर उस की तरफ ध्यान न देते हुए बंद गेट तो नहीं खटखटाया, मगर गली की तरफ बना कमरा, जिस का दरवाजा गली की तरफ नजर आ रहा था, उसी को थपथपा कर कड़कती आवाज में उस औरत को आवाज लगाई.
थोड़ी देर में दरवाजा खुला, तो एक हट्टीकट्टी बदमाश सी नजर आने वाली औरत रमेश को देखते ही गरज उठी, ‘‘क्यों रे, हल्ला क्यों मचा रहा है? ज्यादा सुलग रहा है… फोन कर के आता. देख नहीं रहा कि हम आराम कर रहे हैं.
‘‘अगर हमारे चौधरीजी को गुस्सा आ गया, तो तेरा रामराम सत्य हो जाएगा. अब तू निकल ले यहां से, वरना अपने पैरों पर चल कर जा नहीं सकेगा. अगली बार फोन कर के आना. चल भाग यहां से,’’ उस औरत ने अपने पास खड़े 2 बदमाशों की तरफ देखते हुए रमेश को ऐसे धमकाया, जैसे वह वहां की नामचीन हस्ती हो.
‘‘अपनी औकात में रह, गंदगी में मुंह मारने वाली औरत. मैं यहां बिना बुलाए नहीं आया हूं. मेरा नाम रमेश है.
‘‘अगर मैं कल शाम को यहां आता, तो तुम्हारी इस दुकानदारी का मुझे कैसे पता चलता. कहो तो अभी पुलिस को फोन कर के बताऊं कि यहां क्या गोरखधंधा चल रहा है,’’ रमेश ने धमकी दी.
रमेश समझ गया था कि उस औरत ने अपनी सैक्स की दुकान खूब चला रखी है. वह तो उस की दुकान का बेड़ा गर्क कर के रख देगी. उस ने मन ही मन अपनी मां का एहसान माना, जिन की सलाह मान कर वह आज ही यहां आ गया था.
उस औरत के पास खड़े उन बदमाशों में से एक ने शराब के नशे में लड़खड़ाते हुए कहा, ‘‘अबे, तू हमें पुलिस के हवाले करेगा? हम तुझे जिंदा नहीं छोड़ेंगे?’’
पर रमेश दिलेर था. उस ने लड़खड़ाते उस शराबी पर 3-4 थप्पड़ जमा दिए. वह धड़ाम से जमीन चाटता हुआ नजर आया.
यह देख कर वह औरत, जिस का नाम चंपाबाई था, ने जूतेचप्पलों से पिटाई करते हुए कमरे से उन दोनों आशिकों को भगा दिया.
चंपाबाई हाथ जोड़ कर रमेश के सामने गिड़गिड़ा उठी, ‘‘रमेशजी, मैं अकेली औरत समाज के इन बदमाशों का मुकाबला करने में लाचार हूं. मैं आप की शरण में आना चाहती हूं. मुझ दुखियारी को तुम अभी अपने साथ ले चलो. मैं जिंदगीभर तुम्हारी हर बात मानूंगी.’’
चंपाबाई बड़ी खतरनाक किस्म की नौटंकीबाज औरत नजर आ रही थी. अगर आज रमेश आंखों देखी मक्खी निगल लेता, तो यह उस की गलती होती. वह बिना कोई जवाब दिए अपनी राह पकड़ घर की तरफ चल दिया.
हर दिन नया मर्द देखने वाली चंपाबाई अपना दुखड़ा रोते हुए बारबार उसे बुला रही थी, पर रमेश समझ गया था कि ऐसी औरतों की जिस्म की दुकान हो या जनरल स्टोर, वे हर जगह बेड़ा गर्क ही करती हैं.
सुधा स्कूल जाने के लिए तैयार हो रही थी कि टैलीफोन की घंटी बज उठी. बाल बनातेबनाते उस ने रिसीवर हाथ में लिया. उधर से आवाज आई, ‘‘सुधा, मैं माला बोल रही हूं.’’
‘‘नमस्ते जीजी.’’
‘‘खुश रहो. क्या कर रही हो? प्रोग्राम बनाया अजमेर आने का?’’
‘जी, अभी तो बस स्कूल जाने के लिए तैयार हो रही थी.’’
‘‘स्कूल में ही उलझी रहोगी या अपने परिवार की भी कोई फिक्र करोगी. तुम्हारे ससुर अस्पताल में भरती हैं, उन की कोई परवा है कि नहीं तुम्हें?’’
‘‘पर जीजी, उन की देखभाल करने के लिए आप सब हैं न. जेठजी, जेठानीजी व मामाजी, सभी तो हैं.’’
‘‘हांहां, जानती हूं, सब हैं, पर तुम्हारा भी तो कोई फर्ज है. दुनिया क्या कहेगी, कभी सोचा है? वह तो यही कहेगी न, कि बूढ़ा ससुर बीमार है और बहू को अपने स्कूल से ही फुरसत नहीं है.’’
‘‘पर जीजी, आप तो जानती ही हैं कि अभी परीक्षा का वक्त है और ऐसे में छुट्टी मिलना बहुत मुश्किल है. फिर मेरी कोई जरूरत भी तो नहीं है वहां. समीर वहां पहुंच ही गए हैं. वैसे भी बाबूजी को कोई गंभीर बीमारी नहीं है. सही इलाज मिल गया तो वे जल्दी ही घर आ जाएंगे. 2-4 दिनों में स्कूल के बच्चों की परीक्षा हो जाएगी तो मैं भी आ जाऊंगी.’’
‘‘भई, समीर तो अपनी जगह मौजूद है, पर तुम भी तो बहू हो. लोगों की जबान नहीं पकड़ी जा सकती. मेरी मानो तो आज ही आ जाओ. समाज के रीतिरिवाज और लोकदिखावे के लिए ही सही.’’
‘‘ठीक है जीजी, मैं देखती हूं,’’ कह कर सुधा ने फोन रख दिया और तैयार हो कर स्कूल के लिए चल पड़ी.
रास्तेभर वह सोचती रही कि जीजी ठीक ही कह रही हैं, मुझे वहां जाना ही चाहिए. चाहे यहां बच्चों का भविष्य दांव पर लग जाए. पराए बच्चों के लिए मैं परिवार को तो नहीं छोड़ सकती.
तभी अंतर्मन से कई और आवाजें आईं, ‘छोड़ने के लिए कौन कह रहा है, 2-4 दिनों बाद चली जाना, वहां ज्यादा भीड़ लगाने से क्या होगा.
‘चाहे कुछ भी हो मुझे जाना ही चाहिए. वे मेरे पिता जैसे हैं, मेरा भी कुछ दायित्व है. स्कूल के प्रति कोईर् फर्ज नहीं? बच्चों के भविष्य के प्रति कोई दायित्व नहीं? बीमार व्यक्ति के प्रति दायित्व अधिक होता है और यदि वह ससुर हो तो और भी. वरना लोग कहेंगे कि पराया खून तो पराया ही होता है,’ सुधा का विवेक आखिरकार सुधा के सामाजिकदायित्व के आगे नतमस्तक हो गया.
अगले दिन सुधा सीधे अस्पताल पहुंची, ‘‘नमस्ते जीजी,’’ सुधा ने जीजी के पैर छूते हुए कहा.
‘‘खुश रहो, अच्छा किया आ गईं, बीमार आदमी का क्या भरोसा, कब हालत बिगड़ जाए. कुछ हो जाता तो मन में अफसोस ही रह जाता.’’
‘‘अच्छाअच्छा बोलो जीजी, ऐसे क्यों कह रही हो,’’ जीजी की बात सुन कर सुधा अंदर तक कांप उठी. उस का भावुक मन इस सचाई को स्वीकार नहीं कर पाता था कि इंसान का अंत निश्चित है और जीजी जितने सहज भाव से यह कह रही थीं, उस की तो वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी.
‘‘थक गई होगी, थोड़ा आराम कर लो. फिर कुछ खापी लेना.’’
‘‘पहले एक नजर बाबूजी को देख लेती.’’
‘‘देख लेना. वे कुछ बोल तो सकते नहीं. वैंटिलेटर पर हैं. तुम पहले नहाधो लो,’’ फिर समीर को आवाज लगा कर बोली, ‘‘जा, कुछ नाश्ता ले आ हमारे लिए. आज कचौड़ी खाने का मन हो रहा है, पास में ही गरमागरम कचौड़ियां उतर रही हैं.
5-7 कचौड़ियां और मसाले वाली चाय मंगा ले, बड़ी जोरों की भूख लगी है,’’ कह कर जीजी वहीं पालथी मार कर बैठ गईं.
सुधा हतप्रभ हो कर जीजी को देखने लगी. उसे अस्पताल में ऐसे वातावरण की उम्मीद न थी. जिस तरह जीजी फोन पर उसे नसीहत दे रही थीं उस से तो यह प्रतीत हो रहा था कि मामला बड़ा गंभीर है और वातावरण बोझिल होगा. यहां तो उलटी गंगा बह रही थी. खैर, भूख तो उसे भी लग रही थी और कचौडि़यां उसे भी पसंद थीं.
‘‘सुधा अब जरा पल्लू सिर पर डाल कर रखना. सब मिलनेजुलने वाले आएंगे. यही समय होता है अपने घर की इज्जत रखने का.’’ नाश्ता करते ही जीजी ने सुधा को सचेत कर दिया जिस से सुधा को वातावरण की गंभीरता का एहसास फिर से होने लगा.
अस्पातल में मिलनेजुलने वालों का सिलसिला चल पड़ा. मौसीमौसाजी, छोटे दादाजी, मामाजी, उन के साले, बेटेबहू और न जाने कौनकौन मिलने आते रहे और जीजी सिसकसिसक कर उन से बतियाती रहीं. सुधा का काम था सब के पैर छूना और चायकौफी के लिए पूछना. वैसे भी, उस की कम बोलने की आदत ऐसे वातावरण में कारगर सिद्ध हो रही थी.
3-4 दिनों बाद बाबूजी की अचानक हालत बिगड़ने लगी. डाक्टर ने सलाह दी, ‘‘अब आप लोग इन्हें घर ले जाइए और सेवा कीजिए. इन की जितनी सांसें बची हैं, वे ये घर पर ही लें तो अच्छा है.’’
डाक्टर की बात सुनते ही सुधा बिलखबिलख कर रोने लगी पर जीजी सब बड़े शांतमन से सुनती रहीं और फिर शुरू हो गए निर्देशों के सिलसिले.
‘‘समीर, भाभी से कहना गंगाजल, तुलसीपत्र, आदि का इंतजाम कर लें. जाते समय रास्ते से धोती जोड़ा, गमछा, नारियल लेने हैं,’’ आदि जाने कितनी बातें जीजी को मुंहजबानी याद थीं. वे कहती जा रही थीं और सब सुनते जा रहे थे.
घर लाने के 3-4 घंटे बाद ही बाबूजी इस संसार से विदा हो गए. सुधा को समझ नहीं आ रहा था कि वह इस समय बाबूजी के मृत्युशोक में निशब्द हो जाए या जीजी की तरह आगे होने वाले आडंबरों के लिए कमर कस ले.
सब काम जीजी के निर्देशानुसार होने लगे. आनेजाने वालों का तांता सा बंध गया. सुबह होते ही घर के सभी पुरुष नहाधो कर सफेदझक कुरता पायजामा पहन कर बैठक में बैठ जाते. बहू होने के नाते सुधा व उस की जेठानी भी बारीबारी स्त्रियों की बैठक में उपस्थित रहती थीं.
‘‘सुधा देख तो इस साड़ी के साथ कौन सी शौल मैच करेगी,’’ रोज सुबह जीजी का यही प्रश्न होता था और इसी प्रश्न के साथ वे अपना सूटकेस खोल कर बैठ जाती थीं.
सूटकेस है या साड़ियों व शौलों का शोरूम और वह भी ऐसे समय. सुधा अभी यह विचार कर ही रही थी कि जीजी बोलीं, ‘‘ऐसे समय में अपनेपरायों सब का आनाजाना लगा रहता है, ढंग से ही रहना चाहिए. यही मौका होता है अपनी हैसियत दिखाने का.’’
जीजी ने सुधा को समझाते हुए कहा तो उस का भावुक मन असमंजस में पड़ गया. वह तो बाबूजी की बीमारी की बात सुन कर 2-4 घरेलू साड़ियां व 1-2 शौल ही ले कर आई थी. उस ने सोचा था, ऐसे समय में किसे सजधज दिखानी है, माहौल गमगीन रहेगा. पर यहां तो मामला अलग ही था. जीजी तो थीं ही सेठानी, घर की अन्य स्त्रियों के भी यही ठाट थे. नहाधो कर बढ़िया साड़ियां पहन कर बतियाने में ही सारा दिन बीतता था. घरेलू काम के लिए गंगाबाई और खाना बनाने के लिए सीताबाई जो थीं.
‘‘जीजी, आज खाने में क्या बनेगा?’ सीताबाई ने पूछा तो जीजी ने सोचने की मुद्रा बनाई और बोलीं, ‘‘बाबूजी को गुलाबजामुन बहुत पसंद थे, गट्टे की सब्जी और मिस्सी रोटी भी बना लो. दही, सब्जी, चावल तो रहेंगे ही. सलाद भी काट लेना. हां, जरा ढंग से ही बनाना. जाने वाला तो चला गया पर ये जीभ निगोड़ी न माने. ऐसीवैसी चीज न भाएगी किसी को.’’
‘‘हां जीजी, देखना ऐसा स्वादिष्ठ खाना बनाऊंगी कि ससुराल जा कर भी याद करेंगी.’’
सुधा मुंहबाए कभी जीजी की ओर देखती तो कभी सीताबाई की ओर. अभी तो बाबूजी को गुजरे 12 दिन भी नहीं हुए थे और यह मंजर.
खैर, बहती गंगा में हाथ धोने के अलावा चारा भी क्या था. सुधा भी वैसे ही करती जैसे अन्य सभी. अचानक से बाहर गाड़ी रुकने की आवाज आई तो सभी चौंक पड़े. ‘‘अरे गोरखपुर वाले चाचाचाचीजी आए हैं. जा सुधा, जा कर बैठक में बैठ जा. हां, पल्लू सिर पर रखना. अभी बाबूजी को गुजरे 12 दिन भी नहीं हुए हैं. ज्यादा कचरपचर मत करना. चाची थोड़ी चालाक हैं. घर के अंदर की बात उगलवाना चाहेंगी. ध्यान रखना कुछ उलटासीधा मत बक देना.’’
सुन कर सुधा हक्कीबक्की रह गई. वही जीजी जो अभी तक परिधानों व पकवानों का चुनाव कर रही थीं, अचानक यों गिरगिट की तरह रंग बदल लेंगी, सोचा भी न था उस ने.
सिर पर पल्लू ओढ़ कर सुधा चाचीजी के पास बैठ गई. कुछ औपचारिक बातों के बाद चाचीजी से रहा न गया. वे पूछ ही बैठीं, ‘‘क्यों सुधा, बंटवारा तो कर गए न भाईजी, जायदाद तो काफी थी उन के नाम.’’ सुधा अब तक इस बेमौसम की बरसात की आदी हो चुकी थी, बोली, ‘‘चाचीजी, वह सब तो भाई लोग जानें. मैं तो अपने काम में इतनी व्यस्त रहती हूं कि इन सब बातों के विषय में सोचने का भी समय नहीं मिलता.’’
अब तक चाचीजी की नजर सुधा के हाथों पर पड़ चुकी थी, ‘‘अरे, यह क्या, सोने की पुरानी चूडि़यां पहन रखी हैं. तेरे पास हीरे की चूड़ी है न. ऐसे मौके पर नहीं पहनेगी तो कब काम आएंगी?’’
जीजी तो जीजी, चाचीजी भी. सुधा हैरान थी. ये सब एक थैली के चट्टेबट्टे हैं या शायद दुनिया की यही रीत है.
उसे अब शर्मिंदगी महसूस होने लगी थी. अपनी नादानी पर भला उस के पास क्या कमी थी गहनों व साड़ियों की जो यों ही मुंह उठा कर चली आई. उस ने अपने हाथों के साथसाथ साड़ी को छिपाने की भी नाकामयाब कोशिश की. उसे लगा कि बिना किसी सजधज के आना उस की भावुकता नहीं, उस की मूर्खता की निशानी है.
उधर अंदर जीजी कीमती पशमीना शौल ओढ़े बतिया रही थीं. जब से बाबूजी की बीमारी की खबर सुनी, एक निवाला गले से न उतरा. दो साड़ी ले दौड़ी आई मैं तो. आखिर बाप था, कोई दूसरा थोड़े था. अरे कुछ जिम्मेदारी भी तो होती है बड़ों की. भाभियां तो मेरी भोली हैं, दुनियादारी नहीं जानतीं.
सुधा, जीजी की इस बात से सहमत थी.
वह तो अब इस सोच में थी कि जिस धूमधाम से बारहवें दिन की तैयारी करवाई जा रही थी, उस से तो निश्चित ही था कि बड़ी संख्या में मेहमान रहेंगे. सुधा ने एक नजर फिर अपनी साड़ी व चूड़ियों पर डाली. बारहवें दिन भी पहनने के लिए उस के पास इस से बेहतर विकल्प नहीं था और उस दिन चाचीजी जैसी कई और महान हस्तियों का आगमन हो सकता था.
वह बड़ी उलझन में पड़ गई. एक मन तो यह कह रहा था कि ऐसे वक्त में ऐसी सजधज दिखावा ठीक नहीं, दूसरी ओर वही मन उसे समझा रहा था, ‘तुझे भी उस दिन के लिए अच्छी साड़ी व चूड़ियों की व्यवस्था कर लेनी चाहिए क्योंकि यही दुनिया की रीत है और तू भी इसी दुनिया में रहती है.’