आखिर कब तक: धर्म के नाम पर दो प्रेमियों की बलि

राम रहमानपुर गांव सालों से गंगाजमुनी तहजीब की एक मिसाल था. इस गांव में हिंदुओं और मुसलिमों की आबादी तकरीबन बराबर थी. मंदिरमसजिद आसपास थे. होलीदीवाली, दशहरा और ईदबकरीद सब मिलजुल कर मनाते थे. रामरहमानपुर गांव में 2 जमींदारों की हवेलियां आमनेसामने थीं. दोनों जमींदारों की हैसियत बराबर थी और आसपास के गांव में बड़ी इज्जत थी.

दोनों परिवारों में कई पीढ़ियों से अच्छे संबंध बने हुए थे. त्योहारों में एकदसूरे के यहां आनाजाना, सुखदुख में हमेशा बराबर की साझेदारी रहती थी. ब्रजनंदनलाल की एकलौती बेटी थी, जिस का नाम पुष्पा था. जैसा उस का नाम था, वैसे ही उस के गुण थे. जो भी उसे देखता, देखता ही रह जाता था. उस की उम्र नादान थी. रस्सी कूदना, पिट्ठू खेलना उस के शौक थे. गांव के बड़े झूले पर ऊंचीऊंची पेंगे लेने के लिए वह मशहूर थी.

शौकत अली के एकलौते बेटे का नाम जावेद था. लड़कों की खूबसूरती की वह एक मिसाल था. बड़ों की इज्जत करना और सब से अदब से बात करना उस के खून में था. जावेद के चेहरे पर अभी दाढ़ीमूंछों का निशान तक नहीं था.

जावेद को क्रिकेट खेलने और पतंगबाजी करने का बहुत शौक था. जब कभी जावेद की गेंद या पतंग कट कर ब्रजनंदनलाल की हवेली में चली जाती थी, तो वह बिना झिझक दौड़ कर हवेली में चला जाता और अपनी पतंग या गेंद ढूंढ़ कर ले आता.

पुष्पा कभीकभी जावेद को चिढ़ाने के लिए गेंद या पतंग को छिपा देती थी. दोनों में खूब कहासुनी भी होती थी. आखिर में काफी मिन्नत के बाद ही जावेद को उस की गेंद या पतंग वापस मिल पाती थी. यह अल्हड़पन कुछ समय तक चलता रहा. बड़ेबुजुर्गों को इस खिलवाड़ पर कोई एतराज भी नहीं था.

समय तो किसी के रोकने से रुकता नहीं. पुष्पा अब सयानी हो चली थी और जावेद के चेहरे पर दाढ़ीमूंछ आने लगी थीं. अब जावेद गेंद या पतंग लेने हवेली के अंदर नहीं जाता था, बल्कि हवेली के बाहर से ही आवाज दे देता था.

पुष्पा भी अब बिना झगड़ा किए नजर झुका कर गेंद या पतंग वापस कर देती थी. यह झुकी नजर कब उठी और जावेद के दिल में उतर गई, किसी को पता भी नहीं चला.

अब जावेद और पुष्पा दिल ही दिल में एकदूसरे को चाहने लगे थे. उन्हें अल्हड़ जवानी का प्यार हो गया था.

कहावत है कि इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपते. गांव में दोनों के प्यार की बातें होने लगीं और बात बड़ेबुजुर्गों तक पहुंची.

मामला गांव के 2 इज्जतदार घरानों का था. इसलिए इस के पहले कि मामला तूल पकड़े, जावेद को आगे की पढ़ाई के लिए शहर भेज दिया गया. यह सोचा गया कि वक्त के साथ इस अल्हड़ प्यार का बुखार भी उतर जाएगा, पर हुआ इस का उलटा.

जावेद पर पुष्पा के प्यार का रंग पक्का हो गया था. वह सब से छिप कर रात के अंधेरे में पुष्पा से मिलने आने लगा. लुकाछिपी का यह खेल ज्यादा दिन तक नहीं चल सका. उन की रासलीला की चर्चा आसपास के गांवों में भी होने लगी.

आसपास के गांवों की महापंचायत बुलाई गई और यह फैसला लिया गया कि गांव में अमनचैन और धार्मिक भाईचारा बनाए रखने के लिए दोनों को उन की हवेलियों में नजरबंद कर दिया जाए.

ब्रजनंदनलाल और शौकत अली को हिदायत दी गई कि बच्चों पर कड़ी नजर रखें, ताकि यह बात अब आगे न बढ़ने पाए. कड़ी सिक्योरिटी के लिए दोनों हवेलियों पर बंदूकधारी पहरेदार तैनात कर दिए गए.

अब पुष्पा और जावेद अपनी ही हवेलियों में अपने ही परिवार वालों की कैद में थे. कई दिन गुजर गए. दोनों ने खानापीना छोड़ दिया था. आखिरकार दोनों की मांओं का हित अपने बच्चों की हालत देख कर पसीज उठा. उन्होंने जातिधर्म के बंधनों से ऊपर उठ कर घर के बड़ेबुजुर्गों की नजर बचा कर गांव से दूर शहर में घर बसाने के लिए अपने बच्चों को कैद से आजाद कर दिया.

रात के अंधेरे में दोनों अपनी हवेलियों से बाहर निकल कर भागने लगे. ब्रजनंदनलाल और शौकत अली तनाव के कारण अपनी हवेलियों की छतों पर आधी रात बीतने के बाद भी टहल रहे थे. उन दोनों को रात के अंधेरे में 2 साए भागते दिखाई दिए. उन्हें चोर समझ कर दोनों जोर से चिल्लाए, पर वे दोनों साए और तेजी से भागने लगे.

ब्रजनंदनलाल और शौकत अली ने बिना देर किए चिल्लाते हुए आदेश दे दिया, ‘पहरेदारो, गोली चलाओ.’

‘धांयधांय’ गोलियां चल गईं और 2 चीखें एकसाथ सुनाई पड़ीं और फिर सन्नाटा छा गया.

जब उन्होंने पास जा कर देखा, तो सब के पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई. पुष्पा और जावेद एकदूसरे का हाथ पकड़े गोलियों से बिंधे पड़े थे. ताजा खून उन के शरीर से निकल कर एक नई प्रेमकहानी लिख रहा था.

आननफानन यह खबर दोनों हवेलियों तक पहुंच गई. पुष्पा और जावेद की मां दौड़ती हुई वहां पहुंच गईं. अपने जिगर के टुकड़ों को इस हाल में देख कर वे दोनों बेहोश हो गईं. होश में आने पर वे रोरो कर बोलीं, ‘अपने जिगर के टुकड़ों का यह हाल देख कर अब हमें भी मौत ही चाहिए.’

ऐसा कह कर उन दोनों ने पास खड़े पहरेदारों से बंदूक छीन कर अपनी छाती में गोली मार ली. यह सब इतनी तेजी से हुआ कि कोई उन को रोक भी नहीं पाया.

यह खबर आग की तरह आसपास के गांवों में पहुंच गई. हजारों की भीड़ उमड़ पड़ी. सवेरा हुआ, पुलिस आई और पंचनामा किया गया. एक हवेली से 2 जनाजे और दूसरी हवेली से 2 अर्थियां निकलीं और उन के पीछे हजारों की तादाद में भीड़.

अंतिम संस्कार के बाद दोनों परिवार वापस लौटे. दोनों हवेलियों के चिराग गुल हो चुके थे. अब ब्रजनंदनलाल और शौकत अली की जिंदगी में बच्चों की यादों में घुलघुल कर मरना ही बाकी बचा था.

ब्रजनंदनलाल और शौकत अली की निगाहें अचानक एकदसूरे से मिलीं, दोनों एक जगह पर ठिठक कर कुछ देर तक देखते रहे, फिर अचानक दौड़ कर एकदूसरे से लिपट कर रोने लगे.

गहरा दुख अपनों से मिल कर रोने से ही हलका होता है. बरसों का आपस का भाईचारा कब तक उन्हें दूर रख सकता था. शायद दोनों को एहसास हो रहा था कि पुरानी पीढ़ी की सोच में बदलाव की जरूरत है.

झगड़ा: आखिर क्यों बैठी थी उस दिन पंचायत

रात गहराने लगी थी और श्याम अभीअभी खेतों से लौटा ही था कि पंचायत के कारिंदे ने आ कर आवाज लगाई, ‘‘श्याम, अभी पंचायत बैठ रही?है. तुझे जितेंद्रजी ने बुलाया है.’’

अचानक क्या हो गया पंचायत क्यों बैठ रही है? इस बारे में कारिंदे को कुछ पता नहीं था. श्याम ने जल्दीजल्दी बैलों को चारापानी दिया, हाथमुंह धोए, बदन पर चादर लपेटी और जूतियां पहन कर चल दिया.

इस बात को 2-3 घंटे बीत गए थे. अपने पापा को बारबार याद करते हुए सुशी सो गई थी. खाट पर सुशी की बगल में बैठी भारती बेताबी से श्याम के आने का इंतजार कर रही थी.

तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया, तो भारती ने सांकल खोल दी. थके कदमों से श्याम घर में दाखिल हुआ.

भारती ने दरवाजे की सांकल चढ़ाई और एक ही सांस में श्याम से कई सवाल कर डाले, ‘‘क्या हुआ? क्यों बैठी थी पंचायत? क्यों बुलाया था तुम्हें?’’

‘‘मुझे जिस बात का डर था, वही हुआ,’’ श्याम ने खाट पर बैठते हुए कहा.

‘‘किस बात का डर…?’’ भारती ने परेशान लहजे में पूछा.

श्याम ने बुझी हुई नजरों से भारती की ओर देखा और बोला, ‘‘पेमा झगड़ा लेने आ गया है. मंगलगढ़ के खतरनाक गुंडे लाखा के गैंग के साथ वह बौर्डर पर डेरा डाले हुए है. उस ने 50,000 रुपए के झगड़े का पैगाम भेजा है.’’

‘‘लगता है, वह मुझे यहां भी चैन से नहीं रहने देगा… अगर मैं डूब मरती तो अच्छा होता,’’ बोलते हुए भारती रोंआसी हो उठी. उस ने खाट पर सोई सुशी को गले लगा लिया.

श्याम ने भारती के माथे पर हाथ रखा और कहा, ‘‘नहीं भारती, ऐसी बातें क्यों करती हो… मैं हूं न तुम्हारे साथ.’’

‘‘फिर हमारे गांव की पंचायत ने क्या फैसला किया? क्या कहा जितेंद्रजी ने?’’ भारती ने पूछा.

‘‘सच का साथ कौन देता है आजकल… हमारी पंचायत भी उन्हीं के साथ है. जितेंद्रजी कहते हैं कि पेमा का झगड़ा लेने का हक तो बनता है…

‘‘उन्होंने मुझ से कहा कि या तो तू झगड़े की रकम चुका दे या फिर भारती को पेमा को सौंप दे, लेकिन…’’ इतना कहतेकहते श्याम रुक गया.

‘‘मैं तैयार हूं श्याम… मेरी वजह से तुम क्यों मुसीबत में फंसो…’’ भारती ने कहा.‘‘नहीं भारती… तुम्हें छोड़ने की बात तो मैं सोच भी नहीं सकता… रुपयों

के लिए अपने प्यार की बलि कभी नहीं दूंगा मैं…’’‘‘तो फिर क्या करोगे? 50,000 रुपए कहां से लाओगे?’’ भारती ने पूछा.

‘‘मैं अपना खेत बेच दूंगा,’’ श्याम ने सपाट लहजे में कहा.

‘‘खेत बेच दोगे तो खाओगे क्या… खेत ही तो हमारी रोजीरोटी है… वह भी छिन गई तो फिर हम क्या करेंगे?’’ भारती ने तड़प कर कहा.

यह सुन कर श्याम मुसकराया और प्यार से भारती की आंखों में देख कर बोला, ‘‘तुम मेरे साथ हो भारती तो मैं कुछ भी कर सकता हूं. मैं मेहनतमजदूरी करूंगा, लेकिन तुम्हें भूखा नहीं मरने दूंगा… आओ खाना खाएं, मुझे जोरों की भूख लगी है.’’

भारती उठी और खाना परोसने लगी. दोनों ने मिल कर खाना खाया, फिर चुपचाप बिस्तर बिछा कर लेट गए.

दिनभर के थकेहारे श्याम को थोड़ी ही देर में नींद आ गई, लेकिन भारती को नींद नहीं आई. वह बिस्तर पर बेचैन पड़ी रही. लेटेलेटे वह खयालों में खो गई.

तकरीबन 5 साल पहले भारती इस गांव से विदा हुई थी. वह अपने मांबाप की एकलौती औलाद थी. उन्होंने उसे लाड़प्यार से पालपोस कर बड़ा किया था. उस की शादी मंगलगढ़ के पेमा के साथ धूमधाम से की गई थी.

भारती के मातापिता ने उस के लिए अच्छा घरपरिवार देखा था ताकि वह सुखी रहे. लेकिन शादी के कुछ दिनों बाद ही उस की सारी खुशियां ढेर हो गई थीं, क्योंकि पेमा का चालचलन ठीक नहीं था. वह शराबी और जुआरी था. शराब और जुए को ले कर आएदिन दोनों में झगड़ा होने लगा था.

पेमा रात को दारू पी कर घर लौटता और भारती को मारतापीटता व गालियां बकता था. एक साल बाद जब सुशी पैदा हुई तो भारती ने सोचा

कि पेमा अब सुधर जाएगा. लेकिन न तो पेमा ने दारू पीना छोड़ा और न ही जुआ खेलना.

पेमा अपने पुरखों की जमीनजायदाद को दांव पर लगाने लगा. जब कभी भारती इस बात की खिलाफत करती तो वह उसे मारने दौड़ता.

इसी तरह 3 साल बीत गए. इस बीच भारती ने बहुत दुख झेले. पति के साथ कुदरत की मार ने भी उसे तोड़ दिया. इधर भारती के मांबाप गुजर गए और उधर पेमा ने उस की जिंदगी बरबाद कर दी. घर में खाने के लाले पड़ने लगे.

सुशी को बगल में दबाए भारती खेतों में मजदूरी करने लगी, लेकिन मौका पा कर वह उस की मेहनत की कमाई भी छीन ले जाता. वह आंसू बहाती रह जाती.

एक रात नशे की हालत में पेमा अपने साथ 4 आवारा गुंडों को ले कर घर आया और भारती को उन के साथ रात बिताने के लिए कहने लगा. यह सुन कर उस का पारा चढ़ गया. नफरत और गुस्से में वह फुफकार उठी और उस ने पेमा के मुंह पर थूक दिया.

पेमा गुस्से से आगबबूला हो उठा. लातें मारमार कर उस ने भारती को दरवाजे के बाहर फेंक दिया.

रोती हुई बच्ची को भारती ने कलेजे से लगाया और चल पड़ी. रात का समय था. चारों ओर अंधेरा था. न मांबाप, न कोई भाईबहन. वह जाती भी तो कहां जाती. अचानक उसे श्याम की याद आ गई.

बचपन से ही श्याम उसे चाहता था, लेकिन कभी जाहिर नहीं होने दिया था. वह बड़ी हो गई, उस की शादी हो गई, लेकिन उस ने मुंह नहीं खोला था.

श्याम का प्यार इतना सच्चा था कि वह किसी दूसरी औरत को अपने दिल में जगह नहीं दे सकता था. बरसों बाद भी जब वह बुरी हालत में सुशी को ले कर उस के दरवाजे पर पहुंची तो उस ने हंस कर उस के साथ पेमा की बेटी को भी अपना लिया था.

दूसरी तरफ पेमा ऐसा दरिंदा था, जिस ने उसे आधी रात में ही घर से बाहर निकाल दिया था. औरत को वह पैरों की जूती समझता था. आज वह उस की कीमत वसूलना चाहता है.

कितनी हैरत की बात है कि जुल्म करने वाले के साथ पूरी दुनिया है और एक मजबूर औरत को पनाह देने वाले के साथ कोई नहीं है. बीते दिनों के खयालों से भारती की आंखें भर आईं.

यादों में डूबी भारती ने करवट बदली और गहरी नींद में सोए हुए श्याम के नजदीक सरक गई. अपना सिर उस ने श्याम की बांह पर रख दिया और आंखें बंद कर सोने की कोशिश करने लगी.

दूसरे दिन सुबह होते ही फिर पंचायत बैठ गई. चौपाल पर पूरा गांव जमा हो गया. सामने ऊंचे आसन पर गांव के मुखिया जितेंद्रजी बैठे थे. उन के इर्दगिर्द दूसरे पंच भी अपना आसन जमाए बैठे थे. मुखिया के सामने श्याम सिर झुकाए खड़ा था.

पंचायत की कार्यवाही शुरू

करते हुए मुखिया जितेंद्रजी ने कहा, ‘‘बोल श्याम, अपनी सफाई में तू क्या कहना चाहता है?’’

‘‘मैं ने कोई गुनाह नहीं किया है मुखियाजी… मैं ने ठुकराई हुई एक मजबूर औरत को पनाह दी है.’’

यह सुन कर एक पंच खड़ा हुआ और चिल्ला कर बोला, ‘‘तू ने पेमा की औरत को अपने घर में रख लिया है श्याम… तुझे झगड़ा देना ही पड़ेगा.’’

‘‘हां श्याम, यह हमारा रिवाज है… हमारे समाज का नियम भी है… मैं समाज के नियमों को नहीं तोड़ सकता,’’ जितेंद्रजी की ऊंची आवाज गूंजी तो सभा में सन्नाटा छा गया.

अचानक भारती भरी चौपाल में आई और बोली, ‘‘बड़े फख्र की बात है मुखियाजी कि आप समाज का नियम नहीं तोड़ सकते, लेकिन एक सीधेसादे व सच्चे इनसान को तोड़ सकते हैं…

‘‘आप सब लोग उसी की तरफदारी कर रहे हैं जो मुझे बाजार में बेच देना चाहता है… जिस ने मुझे और अपनी मासूम बच्ची को आधी रात को घर से धक्के दे कर भगा दिया था… और वह दरिंदा आज मेरी कीमत वसूल करने आ खड़ा हुआ है.

‘‘ले लीजिए हमारा खेत… छीन लीजिए हमारा सबकुछ… भर दीजिए उस भेडि़ए की झोली…’’ इतना कहतेकहते भारती जमीन पर बेसुध हो कर लुढ़क गई.

सभा में खामोशी छा गई. सभी की नजरें झुक गईं. अचानक जितेंद्रजी अपने आसन से उठ खड़े हुए और आगे बढ़े. भारती के नजदीक आ कर वह ठहर गए. उन्होंने भारती को उठा कर अपने गले लगा लिया.

दूसरे ही पल उन की आवाज गूंज उठी, ‘‘सब लोग अपनेअपने हथियार ले कर आ जाओ. आज हमारी बेटी पर मुसीबत आई है. लाखा को खबर कर दो कि वह तैयार हो जाए… हम आ रहे हैं.’’

जितेंद्रजी का आदेश पा कर नौजवान दौड़ पड़े. देखते ही देखते चौपाल पर हथियारों से लैस सैकड़ों लोग जमा हो गए. किसी के हाथ में बंदूक थी तो किसी के हाथ में बल्लम. कुछ के हाथों में तलवारें भी थीं.

जितेंद्रजी ने बंदूक उठाई और हवा में एक फायर कर दिया. बंदूक के धमाके से आसमान गूंज उठा. दूसरे ही पल जितेंद्रजी के साथ सभी लोग लाखा के डेरे की ओर बढ़ गए.

शराब के नशे में धुत्त लाखा व उस के साथियों को जब यह खबर मिली कि दलबल के साथ जितेंद्रजी लड़ने आ रहे हैं तो सब का नशा काफूर हो गया. सैकड़ों लोगों को अपनी ओर आते देख वे कांप गए. तलवारों की चमक व गोलियों की गूंज सुन कर उन के दिल दहल उठे.

यह नजारा देख पेमा के तो होश ही उड़ गए. लाखा के एक इशारे पर उस के सभी साथियों ने अपनेअपने हथियार उठाए और भाग खड़े हुए.

जाग सके तो जाग : प्रवचनों का सच

घर के ठीक सामने वाले मंदिर में कोई साध्वी आई हुई थीं. माइक पर उन के प्रवचन की आवाज मेरे घर तक पहुंच रही थी. बीचबीच में ‘श्रीराम…श्रीराम…’ की धुन पर वे भजन भी गाती जा रही थीं. महिलाओं का समूह उन की आवाज में आवाज मिला रहा था.

अकसर दोपहर में महल्ले की औरतें हनुमान मंदिर में एकत्र होती थीं. मंदिर में भजन या प्रवचन की मंडली आई ही रहती थी. कई साध्वियां अपने प्रवचनों में गीता के श्लोकों का भी अर्थ समझाती रहती थीं.

मैं सरकारी नौकरी में होने की वजह से कभी भी दोपहर में मंदिर नहीं जा पाती थी. यहां तक कि जिस दिन पूरा भारत गणेशजी की मूर्ति को दूध पिला रहा था, उस दिन भी मैं ने मंदिर में पांव नहीं रखा था. उस दिन भी तो गांधीजी की यह बात पूरी तरह सच साबित हो गई थी कि भीड़ मूर्खों की होती है.

एक दिन मंदिर में कोई साध्वी आई हुई थीं. उन की आवाज में गजब का जादू था. मैं आंगन में ही कुरसी डाल उन का प्रवचन सुनने लगी. वे गीता के एक श्लोक का अर्थ समझा रही थीं…

‘इस प्रकार मनुष्य की शुद्ध चेतना उस के नित्य वैरी, इस काम से ढकी हुई है, जो सदा अतृप्त अग्नि के समान प्रचंड रहता है. मनुस्मृति में उल्लेख है कि कितना भी विषय भोग क्यों न किया जाए, पर काम की तृप्ति नहीं होती.’ थोड़ी देर बाद प्रवचन समाप्त हो गया और साध्वीजी वातानुकूलित कार में बैठ कर चली गईं.

दूसरे दिन घर के काम निबटा, मैं बैठी ही थी कि दरवाजे की घंटी बजी, मन में आया कि कहला दूं कि घर पर नहीं हूं. पर न जाने क्यों, दूसरी घंटी पर मैं ने खुद ही दरवाजा खोल दिया.

बाहर एक खूबसूरत युवती और मेरे महल्ले की 2 महिलाएं नजर आईं. उस खूबसूरत लड़की पर मेरी निगाहें टिकी की टिकी रह गईं, लंबे कद और इकहरे बदन की वह लड़की गेरुए रंग की साड़ी पहने हुए थी.

उस ने मोहक आवाज में पूछा, ‘‘आप मंदिर नहीं आतीं, प्रवचन सुनने?’’

मैं ने सोचा, यह बात उसे मेरी पड़ोसिन ने ही बताई होगी, वरना उसे कैसे पता चलता.

मैं ने कहा, ‘‘मेरा घर ही मंदिर है. सारा दिन घर के लोगों के प्रवचनों में ही उलझी रहती हूं. नौकरी, घर, बच्चे, मेरे पति… अभी तो इन्हीं से फुरसत नहीं मिलती. दरअसल, मेरा कर्मयोग तो यही है.’’

वह बोली, ‘‘समय निकालिए, कभी अकेले में बैठ कर सोचिए कि आप ने प्रभु की भक्ति के लिए कितना समय दिया है क्योंकि प्रभु के नाम के सिवा आप के साथ कुछ नहीं जाएगा.’’

मैं ने कहा, ‘‘साध्वीजी, मैं तो साधारण गृहस्थ जीवनयापन कर रही हूं क्योंकि मुझे बचपन से ही सृष्टि के इसी नियम के बारे में सिखाया गया है.’’

मालूम नहीं, साध्वी को मेरी बातें अच्छी लगीं या नहीं, वे मेरे साथ चलतेचलते बैठक में आ कर सोफे पर बैठ गईं.

तभी एक महिला ने मुझ से कहा, ‘‘साध्वीजी के चरण स्पर्श कीजिए और मंदिरनिर्माण के लिए कुछ धन भी दीजिए. आप का समय अच्छा है कि साध्वी माला देवी स्वयं आप के घर आई हैं. इन के दर्शनों से तो आप का जीवन बदल जाएगा.’’

मुझे उस की बात बड़ी बेतुकी लगी. मैं ने साध्वी के पैर नहीं छुए क्योंकि सिवा अपने प्रियजनों और गुरुजनों के मैं ने किसी के पांव नहीं छुए थे.

धर्म के नाम पर चलाए गए हथकंडों से मैं भलीभांति परिचित थी. इस से पहले कि साध्वी मुझ से कुछ पूछतीं, मैं ने ही उन से सवाल किया, ‘‘आप ने संन्यास क्यों और कब लिया?’’

साध्वी ने शायद ऐसे प्रश्न की कभी आशा नहीं की थी. वे तो सिर्फ बोलती थीं और लोग उन्हें सुना करते थे. इसलिए मेरे प्रश्न के उत्तर में वे खामोश रहीं, साथ आई महिलाओं में से एक ने कहा, ‘‘साध्वीजी ने 15 बरस की उम्र में संन्यास ले लिया था.’’

‘‘अब इन की उम्र क्या होगी?’’ मेरी जिज्ञासा बराबर बनी हुई थी, इसीलिए मैं ने दूसरा सवाल किया था.

‘‘साध्वीजी अभी कुल 22 बरस की हैं,’’ दूसरी महिला ने प्रवचन देने के अंदाज में कहा.

मैं सोच में पड़ गई कि भला 15 बरस की उम्र में साध्वी बनने का क्या प्रयोजन हो सकता है? मन को ढेरों सवालों ने घेर लिया कि जैसे, इन के साथ कोई अमानुषिक कृत्य तो नहीं हुआ, जिस से इन्हें समाज से घृणा हो गई या धर्म के ठेकेदारों का कोई प्रपंच तो नहीं.

कुछ माह पहले ही हमारे स्कूल की एक सिस्टर (नन) ने विवाह कर लिया था. कुछ सालों में उस का साध्वी होने का मोहभंग हो गया था और वह गृहस्थ हो गई थी. एक जैन साध्वी का एक दूध वाले के साथ भाग जाने का स्कैंडल मैं ने अखबारों में पढ़ा था.

‘जिंदगी के अनुभवों से अनजान इन नादान लड़कियों के दिलोदिमाग में संन्यास की बात कौन भरता है?’ मैं अभी यह सोच ही रही थी कि साध्वी उठ खड़ी हुईं, उन्होंने मुझ से दानस्वरूप कुछ राशि देने के लिए कहा. मैं ने 100 रुपए दे दिए.

थोड़ी सी राशि देख कर, साध्वी ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘तुम में तो इतनी सामर्थ्य है, चाहे तो अकेले मंदिर बनवा सकती हो.’’

मैं ने कहा, ‘‘साध्वीजी, मैं नौकरीपेशा हूं. मेरी और मेरे पति की कमाई से यह घर चलता है. मुझे अपने बेटे का दाखिला इंजीनियरिंग कालेज में करवाना है. वहां मुझे 3 लाख रुपए देने हैं. यह प्रतियोगिता का जमाना है. यदि मेरा बेटा कुछ न कर पाया तो गंदी राजनीति में चला जाएगा और धर्म के नाम पर मंदिर, मसजिदों की ईंटें बजाता रहेगा.’’

तभी मेरी सहेली का बेटा उमेश घर में दाखिल हुआ. साध्वी को देखते ही उस ने उन के चरणों का स्पर्श किया.

साध्वी के जाने के बाद मैं ने उसे डांटते हुए कहा, ‘‘बेशर्म, उन के पैर क्यों छू रहा था?’’

‘‘अरे मौसी, तुम पैरों की बात करती हो, मेरा बस चलता तो मैं उस का…अच्छा, एक बात बताओ, जब भक्त इन साध्वियों के पैर छूते होंगे तो इन्हें मर्दाना स्पर्श से कोई झनझनाहट नहीं होती होगी?’’

मैं उमेश की बात का क्या जवाब देती, सच ही तो कह रहा था. जब मेरे पति ने पहली बार मेरा स्पर्श किया था तो मैं कैसी छुईमुई हो गई थी. फिर इन साध्वियों को तो हर आम और खास के बीच में प्रवचन देना होता है. अपने भाषणों से तो ये बड़ेबड़े नेताओं के सिंहासन हिला देती हैं, सारे राजनीतिक हथकंडे इन्हें आते हैं. भीड़ के साथ चलती हैं तो क्या मर्दाना स्पर्श नहीं होता होगा? मैं उमेश की बात पर बहुत देर तक बैठी सोचती रही.

त को कोई 8 बजे साध्वी माला देवी का फोन आया. वे मुझ से मिलना चाहती थीं. मैं उन के चक्कर में फंसना नहीं चाहती थी, इसलिए बहाना बना, टाल दिया. पर कोई आधे घंटे बाद वे मेरे घर पर आ गईं, उन्हीं गेरुए वस्त्रों में. उन का शांत चेहरा मुझे बरबस उन की तरफ खींच रहा था. सोफे पर बैठते ही उन्होंने उच्च स्वर में रामराम का आलाप छेड़ा, फिर कहने लगीं, ‘‘कितनी व्यस्त हो सांसारिक झमेलों में… क्या इन्हें छोड़ कर संन्यास लेने का मन नहीं होता?’’

मैं ने कहा, ‘‘माला देवी, बिलकुल नहीं, आप तो संसार से डर कर भागी हैं, लेकिन मैं जीवन को जीना चाहती हूं. आप के लिए जीवन खौफ है, पर मेरे लिए आनंद है. संसार के सारे नियम भी प्रकृति के ही बनाए हुए हैं. बच्चे के जन्म से ले कर मृत्यु, दुख, आनंद, पीड़ा, माया, क्रोध…यह सब तो संसार में होता रहेगा, छोटी सी उम्र में ही जिंदगी से घबरा गईं, संन्यास ले लिया… दुनिया इतनी बुरी तो नहीं. मेरी समझ में आप अज्ञानवश या किसी के छल या बहकावे के कारण साध्वी बनी हैं?’’

वे कुछ देर खामोशी रहीं. जो हमेशा प्रवचन देती थीं, अब मूक श्रोता बन गई थीं. वे समझ गई थीं कि उन के सामने बैठी औरत उन भेड़ों की तरह नहीं है जो सिर नीचा किए हुए अगली भेड़ों के साथ चलती हैं और खाई में गिर जाती हैं.

मेरे भीतर जैसे एक तूफान सा उठ रहा था. मैं साध्वी को जाने क्याक्या कहती चली गई. मैं ने उन से पूछा, ‘‘सच कहना, यह जो आप साध्वी बनने का नाटक कर रही हैं, क्या आप सच में भीतर से साध्वी हो गई हैं? क्या मन कभी बेलगाम घोड़े की तरह नहीं दौड़ता? क्या कभी इच्छा नहीं होती कि आप का भी कोई अपना घर हो, पति हो, बच्चे हों, क्या इस सब के लिए आप का मन अंदर से लालायित नहीं होता?’’

मेरी बातों का जाने क्या असर हुआ कि साध्वी रोने लगीं. मैं ने भीतर से पानी ला कर उन्हें पीने को दिया, जब वे कुछ संभलीं तो कहने लगीं, ‘‘कितनी पागल है यह दुनिया…साध्वी के प्रवचन सुनने के लिए घर छोड़ कर आती है और अपने भीतर को कभी नहीं खोज पाती. तुम पहली महिला हो, जिस ने गृहस्थ हो कर कर्मयोग का संन्यास लिया है, बाहर की दुनिया तो छलावा है, ढोंग है. सच, मेरे प्रवचन तो उन लोगों के लिए होते हैं, जो घरों से सताए हुए होते हैं या जो बहुत धन कमा लेने के बाद शांति की तलाश में निकलते हैं. इन नवधनाढ्य परिवारों में ही हमारा जादू चलता है. तुम ने तो देखा होगा, हमारी संतमंडली तो रुकती ही धनाढ्य परिवारों में है. लेकिन तुम तो मुझ से भी बड़ी साध्वी हो, तुम्हारे प्रवचनों में सचाई है क्योंकि तुम्हारा धर्म तुम्हारे आंगन तक ही सीमित है.’’

एकाएक जाने क्या हुआ, साध्वी ने मेरे चरणों को स्पर्श करते हुए कहा, ‘‘मैं लोगों को संन्यास लेने की शिक्षा देती हूं, पर तुम से अपने दिल की बात कह रही हूं, मैं संसारी होना चाहती हूं.’’

उन की यह बात सुन कर मैं सुखद आश्चर्य में डूब गई.

बेरुखी : पति को क्यों दिया ऐश्वर्या ने धोखा – भाग 2

27 फरवरी को नरेश की हत्या हुई थी. जाहिर था, किसी ने पैसे मांगे थे. नरेश ने पैसे नहीं दिए तो उस ने उसे मार दिया. पैसे किसे देना था, कहां देना था, इस का पता लगाना अब मुश्किल था. क्योंकि काल डिटेल्स में ऐसा कोई नंबर नहीं मिला था, जिस पर इस तरह पैसे वसूलने का शक किया जाता. इंसपेक्टर शर्मा ने पूछा, ‘‘नरेश ने आप से इस बारे में कोई चर्चा की थी?’’

‘‘नहीं.’’ ऐश्वर्या ने संक्षिप्त सा जवाब दिया.

‘‘ऐसा कैसे हो सकता है, आप उन की पत्नी हैं. ऐसे मामलों में पति अपनी पत्नी से जरूर जिक्र करता है.’’

‘‘हो सकता है, वह मुझे परेशान न करना चाहते रहे हों.’’

बहरहाल, इंसपेक्टर शर्मा ने उस कागज के टुकड़े को सहेज कर रख लिया. वह बाहर निकले तो उन्हें गार्ड की याद आ गई. वह गार्डरूम में पहुंचे तो वह कहीं दिखाई नहीं दिया. उस की जगह दूसरा गार्ड था. उन्होंने उस से पूछा, ‘‘यहां एक दूसरा गार्ड था, वह कहां गया?’’

‘‘सर, वह तो गांव चला गया.’’

‘‘अब वह कब तक लौट कर आएगा?’’ इंसपेक्टर शर्मा ने पूछा.

‘‘साहब, यह तो यहां के चेयरमैन साहब ही बता सकते हैं.’’

‘‘उस का नामपता तो मिल सकता है?’’

‘‘साहब, मैं उस के बारे में कुछ नहीं बता सकता. मैं तो नयानया आया हूं. आप चाहें तो चेयरमैन साहब से पूछ लें.’’

संयोग से तभी चेयरमैन की कार अंदर दाखिल हुई. गार्ड ने इशारा किया तो साथ के सिपाही ने कार रोकवा ली. चेयरमैन जैसे ही कार से बाहर आए, इंसपेक्टर शर्मा ने उन के पास जा कर कहा, ‘‘मैं पुराने गार्ड के बारे में जानना चाहता हूं. उस का नामपता मिल सकता है?’’

बिना किसी हीलहुज्जत के चेयरमैन ने इंसपेक्टर शर्मा को सब बता दिया. पता चला कि गार्ड नौकरी छोड़ कर चला गया था. वह थाने लौट आए. गार्ड के इस तरह नौकरी छोड़ कर चले जाने से उन्हें लगा कि गार्ड को ऐश्वर्या के बारे में जरूर कोई जानकारी थी. गार्ड नौकरी छोड़ कर चला गया था, इसलिए अब उस से कुछ पूछने के लिए उन्हें ही उस के घर जाना था. फिर भी वह इंतजार करते रहे कि शायद वह आ ही जाए.

इस बीच वह अंधेरे में तीर चलाते रहे. एक दिन उन्होंने नरेश के बड़े भाई को बुला कर पूछा, ‘‘सुना है, आप के और नरेश के बीच रुपयों को ले कर झगड़ा हुआ था?’’

‘‘सवाल ही नहीं उठता. यह बात कहीं आप को रुखसाना ने तो नहीं बताई?’’

‘‘यह रुखसाना कौन है?’’ इंसपेक्टर शर्मा ने हैरानी से पूछा.

‘‘मैं उस का नाम ले कर अपनी जुबान खराब नहीं करना चाहता.’’

‘‘भई, जब नाम ले ही लिया है तो बता भी दीजिए कि यह रुखसाना कौन है? हो सकता है, उसी से नरेश के कातिल तक पहुंचने का रास्ता मिल जाए.’’

कुछ सोच कर बड़े भाई ने कहा, ‘‘रुखसाना नरेश की पत्नी का नाम है.’’

‘‘आप ऐश्वर्या की बात कर रहे हैं?’’

‘‘जी हां, मैं उसी की बात कर रहा हूं.’’

नरेश के बड़े भाई के इस खुलासे से यह साफ हो गया कि रुखसाना ही ऐश्वर्या है. इंसपेक्टर शर्मा समझ गए कि इसी वजह से नरेश को अलग मकान ले कर रहना पड़ रहा था. यह तो घर वालों की शराफत थी कि उन्होंने नरेश को व्यवसाय से अलग नहीं किया था.

ऐश्वर्या की असलियत पता चलने पर इंसपेक्टर शर्मा को उसी पर शक हुआ. उन्हें पहले से ही उस पर शक था. अब उन्होंने अपनी जांच उसी पर केंद्रित कर दी. नरेश देर रात घर लौटता था. इस बीच वह किनकिन लोगों से मिलती थी, कहां जाती थी, अब यह पता लगाना जरूरी हो गया था. ये सारी जानकारियां गार्ड से ही मिल सकती थीं. लेकिन वह अभी तक आया नहीं था. इस का मतलब अब वह आने वाला नहीं था.

इंसपेक्टर शर्मा ने चेयरमैन द्वारा दिए पते पर जाने का विचार किया. वह बिहार के सीवान जिले का रहने वाला था. इंसपेक्टर शर्मा स्थानीय पुलिस की मदद से उस के घर पहुंच गए. पूछने पर उस की पत्नी ने बताया कि वह तो मुंबई चले गए हैं. इंसपेक्टर शर्मा ने पूछा कि उस ने वाराणसी वाली नौकरी क्यों छोड़ दी तो उस की पत्नी ने बताया कि वहां कोई लफड़ा हो गया था, जिस से उन की जान को खतरा था.

इंसपेक्टर शर्मा चौंके. उन्हें लगा कि गार्ड को कुछ तो पता रहा ही होगा, तभी हत्यारे ने उसे चेतावनी दी होगी. हो सकता है वह खुद ही हत्या में शामिल रहा हो, इसलिए भाग गया है. फिर तो बिना देर किए उन्होंने फ्लाइट पकड़ी और सीधे मुंबई पहुंच गए. गार्ड का मुंबई का पता पत्नी से मिल ही गया था.

संयोग से गार्ड उसी पते पर मिल गया. इंसपेक्टर शर्मा को देख कर उस का चेहरा सफेद पड़ गया. उस ने कहा, ‘‘साहब, मुझे कुछ नहीं पता. मैं तो सिर्फ इसलिए भाग आया था कि एक साहब ने मुझे 50 हजार रुपए दे कर हमेशा के लिए वह नौकरी छोड़ कर चले जाने की हिदायत दी थी. न जाने पर उन्होंने जान से मारने की धमकी दी थी.’’

‘‘उस आदमी को पहचानते हो?’’ इंसपेक्टर शर्मा ने पूछा तो पहले तो गार्ड हीलाहवाली करता रहा. परंतु जब इंसपेक्टर शर्मा ने उसे जेल भेजने की धमकी दी तो उस ने गिड़गिड़ाते हुए कहा, ‘‘साहब, पहले आप भरोसा दिलाइए कि मुझे कुछ नहीं होगा.’’

‘‘विश्वास करो, अगर तुम ने कुछ नहीं किया तो तुम्हें कुछ नहीं होगा.’’ इंसपेक्टर शर्मा ने आश्वासन दिया.

‘‘साहब, उस आदमी का नाम सलीम है.’’

‘‘यह सलीम कौन है?’’

‘‘साहब, वह अकसर शाम को कार से आता था. पूरी रात नरेश साहब के फ्लैट में रुकता और सुबह जल्दी चला जाता था. इस बात को छिपाए रखने के लिए वह मुझे टिप भी देता था.’’

इंसपेक्टर शर्मा चौंके. नरेश से उस का क्या संबंध था, जो वह उस की मौजूदगी में भी उस के फ्लैट में पूरी रात रुकता था. लेकिन कोई आदमी भला किसी गैरमर्द को कैसे अपने फ्लैट में पूरी रात रुकने देगा? यह बात उन की समझ में नहीं आई. बस इतना ही समझ में आया कि किसी बात पर दोनों में तकरार हुई होगी, जिस की वजह से नरेश को जान गंवानी पड़ी. तकरार की वजह रुपया भी हो सकता था और ऐश्वर्या की खूबसूरती भी.

अब इंसपेक्टर शर्मा के सामने चुनौती थी सलीम का पता लगाना. वह भी इस तरह कि ऐश्वर्या को पता न लग सके. इंसपेक्टर शर्मा गार्ड को साथ ले कर वाराणसी आ गए. काफी सोचविचार कर उन्होंने एक चाल चली. वह सीधे ऐश्वर्या के फ्लैट पर पहुंचे और उसे बताया कि खूनी का पता चल गया है. एकदम से चौंक कर ऐश्वर्या ने पूछा, ‘‘कैसे, कौन है हत्यारा?’’

‘‘आप की कागज वाली बात सच निकली. मांगी गई रकम न मिलने पर नरेश के औफिस के एक कर्मचारी ने उस की हत्या की है.’’ झूठ बोल कर इंसपेक्टर शर्मा ऐश्वर्या के चेहरे पर आनेजाने वाले भावों को पढ़ने की कोशिश करते रहे. उन्होंने देखा, ऐश्वर्या के माथे पर चिंता की लकीरें खिंच आई थीं. उन्होंने पूछा, ‘‘कातिल के पकड़े जाने से आप खुश नहीं हैं क्या?’’

‘‘क्यों नहीं, मैं तो बहुत खुश हूं.’’ ऐश्वर्या ने कहा, ‘‘क्या आप ने उस कर्मचारी को गिरफ्तार कर लिया है?’’

‘‘नहीं, वह फरार है.’’ इंसपेक्टर शर्मा ने कहा. इस तरह उन्हें आगे की जांच के लिए समय मिल गया. इस के बाद उन्होंने सादे कपड़ों में ऐश्वर्या के घर की निगरानी के लिए सिपाहियों को लगा दिया. अगले दिन ही दोपहर के आसपास ऐश्वर्या अपने फ्लैट से निकली और मुख्य सड़क पर आ कर एक जगह खड़ी हो गई. थोड़ी देर में काले रंग की एक कार आई, जिस पर बैठ कर वह चली गई. कार में कौन था, यह सिपाही नहीं देख पाया. लेकिन उस कार का नंबर उस ने नोट कर लिया था. नंबर से पता चला कि वह कार किसी सलीम की थी. इस तरह सलीम का पता चल गया.

पीछा करता डर भाग : पीठ में छुरा भाग – 2

मेज के नीचे दो खाली गिलास रखे थे. भानु ने बारीबारी से दोनों गिलास उठा कर सूंघे और मेज पर रखते हुए गर्दन हिला कर हंसते हुए बोला, ‘‘हूं…उं…! दोनों ने पी है.’’

माथुर की हालत रंगेहाथों पकड़े गए चोर जैसी हो गई. वह बहुत कुछ कहना चाहते थे, विरोध करना चाहते थे, लेकिन चाह कर भी वे न विरोध कर सके, न कुछ कह सके.

भानु ने कुर्सी से उठ कर बेड के नीचे झांका. ह्विस्की की बोतल बेड के नीचे उल्टी पड़ी थी. भानु बोतल उठ कर देखते हुए बोला, ‘‘वाह विंटेज,…अच्छी चीज है. शबाब के साथ शराब भी तो बढि़या होनी चाहिए.’’

शराब की बोतल हाथ में उठाए भानु फिर कुर्सी पर आ बैठा. वह बोतल को एक हाथ में ऊपर उठा कर देखते हुए बोला, ‘‘दोनों ने दोदो पैग पिए हैं. इतनी सर्दी में दो पैग से क्या होता है.’’

बोतल मेज पर रख कर भानु ने मेज के नीचे फिर ताकझांक की. मेज के नीचे 2 प्लेंटे रखी थीं. उस ने दोनों प्लेंटे उठा कर मेज पर रख दीं. एक प्लेट में भुने काजू थे, दूसरी में सलाद. भानु प्लेटों की ओर इशारा करते हुए बोला, ‘‘मुझे काजू और सलाद पसंद नहीं हैं. मुझे नानवेज चाहिए. रूमसर्विस को फोन कर के खाली गिलास, सोडा और रोस्ट चिकन लाने को बोलो.’’

नंदन माथुर किंकर्तव्यविमूढ से बैठे थे. उन्हें चुप देख भानु बोला, ‘‘एक काम करो, पहले उसे बाहर बुला लो. ठंड में अकड़ जाएगी. हां उस से बस इतना ही कहना कि मैं तुम्हारा दोस्त हूं.’’

नंदन माथुर जड़वत् बैठे थे. चेहरे पर तनाव. आंखों में विचित्र सा भय. भानु खड़े हो कर उन का कंधा थपथपाते हुए बोला, ‘‘दोस्त, कोई गलत इरादा नहीं है मेरा. जिंदगी जीने का सबका अलगअलग ढंग होता है. यकीन करो, तुम्हारा ये राज इस कमरे से बाहर नहीं जाएगा. चलो उठो, बुला लो उसे.’’

मन मार कर नंदन माथुर उठे और बाथरूम की ओर बढ़ गए. भानु दोनों हाथ पीछे बांधे वहीं खड़ा रहा. नंदन ने बाथरूम का दरवाजा नौक करते हुए धीरे से आवाज दी, ‘‘बाहर आ जाओ.’’

पहले बाथरूम की कुंडी खुलने की आवाज आई, फिर दरवाजा खोल कर एक युवती ने बाहर झांका. नंदन बाथरूम के बाहर ही खड़े थे. वह उसे देखते ही बोले, ‘‘डरो मत, एक दोस्त है. अचानक चला आया.’’

25-25 साल की वह गौरांगी गुलाबी नाइटी में बड़ी खूबसूरत लग रही थी. ठंड के मारे उस का बुरा हाल था. उस के भीगे बालों से अभी तक पानी टपक रहा था, जिस से नाइटी का ऊपरी भाग भीग गया था.

बाथरूम से बाहर निकल कर उस युवती ने पहले एक नजर पास खड़े नंदन पर डाली, फिर भानु की ओर देखा. ठीक उसी समय भानु के पीछे सिमटे हाथ तेजी से आगे आए और क्लिक की आवाज के साथ युवती और नंदन के चेहरे फ्लैश की रोशनी में चमक उठे.

पलभर के लिए नंदन और युवती दोनों ही स्तब्ध रह गए. भानु की चालाकी भांप कर नंदन ने जैसेतैसे अपने आप को संभाला और भानु को देख कर आंखें तरेरते हुए पूछा, ‘‘यह क्या बद्तमीजी है?’’

‘‘इस में बद्तमीजी की क्या बात है?’’ भानु मोबाइल संभाले कुर्सी पर बैठते हुए बोला, ‘‘तुम दोनों इस पोज में प्रेमीप्रेमिका लग रहे थे. मुझे नेचुरल पोज लगा, सो खींच लिया. ऐसे पोज रोजरोज थोड़े ही बनते हैं.’

नंदन और वह युवती अभी तक सहमे खड़े थे, तभी भानु ने उन की ओर देख कर मोबाइल वाला हाथ ऊपर उठाते हुए कहा, ‘‘वंस मोर’’

नंदन और युवती ने अपनेअपने हाथ उठा कर मुंह छिपाने की कोशिश की, लेकिन तब तक भानु कैमरे का शटर दबा चुका था.

भानु मोबाइल जेब में डालते हुए बोला, ‘‘नंदन, तुम तो ऐसे डर रहे हो, जैसे मैं कोई ब्लैकमेलर हूं. डरो मत दोस्त, मेरा कोई भी गलत इरादा नहीं है.’’

‘‘इरादा तो मैं तुम्हारा समझ गया हूं.’’ नंदन ने गुस्से में कहा. भानु संभल कर बैठते हुए बोला, ‘‘समझ गए हो तो और भी अच्छा है. मुझे अपनी बात कहने की जरूरत नहीं पड़ेगी.’’

नंदन तो डरे हुए थे ही, युवती उन से भी ज्यादा डर गई थी. उस ने मुंह फेर कर तौलिया उठाया और ड्रेसिंग टेबल की ओर बढ गई. नंदन भानु के पास आ खड़े हुए और उस से पूछा, ‘‘तुम चाहते क्या हो, भानु?’’

‘‘सिर्फ दो पैग ह्विस्की,’’ भानु लड़की की ओर इशारा कर के बोला, ‘‘तुम्हारे और उस के साथ. क्या नाम है उस का?’’

‘‘भाड़ में गया नाम. मुझे यह बताओ, मैं ने तुम्हारा कुछ बिगाड़ा है क्या?’’

‘‘मैं भी तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ूंगा. मेरे खयाल से 2 पैग ह्विस्की पिलाने से तुम्हारा कुछ नहीं बिगडेगा.’’

‘‘बात ह्विस्की की नहीं है. तुम चाहो तो पूरी बोतल ले जाओ.’’

‘‘तो क्या बात है? तुम्हारे चेहरे पर हवाइयां क्यों उड़ रही है?’’

‘‘ये फोटो… क्या है ये सब?’’

‘‘मुझे पोज अच्छा लगा, खींच लिया. तुम्हें अच्छा नहीं लगा, बनवा कर तुम्हें दे दूंगा. इस में डरने की क्या बात है?’’

‘‘फोन से डिलीट कर दो, प्लीज.’’

सम्मान की जीत- भाग 1

‘‘तुम्हें मुझ से शादी कर के पछतावा होता होगा न रूबी…’’ करन ने इमोशनल होते हुए कहा.

‘‘नहींनहीं, पर आज आप ऐसी बातें क्यों ले कर बैठ गए हैं,’’ रूबी ने कहा.

‘‘क्योंकि… मैं एक नाकाम मर्द हूं… मैं घर में निठल्ला बैठा रहता हूं … तुम से शादी करने के 6 साल बाद भी तुम्हें वे सारी खुशियां नहीं दे पाया, जिन का मैं ने तुम से कभी वादा किया था,’’ करन ने रूबी की आंखों में देखते हुए कहा.

‘‘नहीं… ऐसी कोई बात नहीं है. आप ने मुझे सबकुछ दिया है… 2 इतने अच्छे बच्चे… यह छोटा सा खूबसूरत घर… यह सब आप ही बदौलत ही तो है,’’ रूबी ने करन के चेहरे पर प्यार का एक चुंबन देते हुए कहा. करन ने भी रूबी को अपनी बांहों में कस लिया.

गोपालगंज नामक गांव में ही रूबी और करन के घर थे. दोनों का एकदूसरे के घर आनाजाना होता था और घर के बाहर दोनों का प्यार धीरेधीरे परवान चढ़ रहा था. दोनों ने शादी की योजना भी बना ली थी, साथ ही दोनों यह भी जानते थे कि यह शादी दोनों के घर वालों को मंजूर नहीं होगी, क्योंकि दोनों की जातियां इस मामले में सब से बड़ा रोड़ा थीं.

करन ब्राह्मण परिवार का लड़का था और उस का छोटा भाई पारस राजनीति में घुस चुका था और गांव का प्रधान बन गया था. रूबी एक गड़रिया की बेटी थी.

इस इश्क के चलते रूबी शादी से पहले ही पेट से हो गई थी और अब इन दोनों पर शादी करने की मजबूरी और भी बढ़ गई थी. फिर क्या था, दोनों ने अपनेअपने घर पर विवाह प्रस्ताव रखा,  पर दोनों ही परिवारों ने शादी के लिए मना कर दिया. इस के बाद इन दोनों ने अपने घर वालों की मरजी के खिलाफ एक मंदिर में शादी कर ली.

पर दोनों के ही घर वाले उन्हें अपनाने और घर में पनाह देने के खिलाफ थे, इसलिए रूबी और करन को उसी गांव में अलग रहना पड़ा.

दोनों ने गांव के एक कोने में एक झोंपड़ी बना ली थी, दोनों का जीवन प्रेमपूर्वक गुजरने लगा. करन के पास तो कोई कामधाम नहीं था, इसलिए रूबी को ही घर के मुखिया की तरह घर चलाने की जिम्मेदारी लेनी पड़ी.

गोपालगंज से 15 किलोमीटर दूर एक कसबे के एक पोस्ट औफिस में रूबी को कच्चे तौर पर लिखापढ़ी का काम मिल गया था. उसे रोज सुबह 12 बजे से शाम 5 बजे तक की ड्यूटी देनी पड़ती थी, पर वह मेहनत करने से कभी पीछे नहीं हटी.

धीरेधीरे रूबी की मेहनत रंग लाई. घर में चार पैसे आने लगे, तो समय को मानो पंख लग गए और इसी दौरान रूबी 2 बेटियों की मां भी बन गई थी.

रूबी ने उन के पालनपोषण और अपने काम में बहुत अच्छा तालमेल बिठा लिया था. बच्चों की दिक्कत कभी उस के काम के आड़े नहीं आई, जिस का श्रेय करन को भी जाता है, क्योंकि जब भी रूबी बाहर जाती है, करन पर घर रह कर बच्चों का ध्यान रखता है.

रूबी ने कसबे के स्कूल जा कर इंटरमीडिएट तक पढ़ाई कर ली थी और उस के बाद प्राइवेट फार्म भर कर ग्रेजुएशन भी कर ली थी.

बचपन से ही रूबी को समाजसेवा करने का बहुत शौक था. उस के मन में गरीबों के लिए खूब दया का भाव था, इसलिए वह अब पोस्ट औफिस में डाक को छांटने और लिखापढ़ी के काम के साथसाथ शहर की एक समाजसेवी संस्था के साथ जुड़ गई थी, जो महिलाओं पर हो रहे जोरजुल्म के खिलाफ काम करती थी.

इस संस्था से जुड़ कर रूबी को मशहूरी मिलनी भी शुरू हो गई थी. शुरुआत में तो वह महिलाओं में जनजागरण करने के लिए पैदल ही गांवगांव घूमती थी, इस काम में उस की सहायक महिलाएं भी उस के साथ होती थीं, पर जब काम का दायरा बढ़ा तो

उस ने अपने लिए एक ईरिकशा भी खरीद लिया.

फिर क्या था, वह खुद आगे ड्राइविंग सीट पर बैठ जाती और पीछे अपनी सहायक महिला दोस्तों को

वह खुद बिठा लेती और गांवों में महिलाओं को सचेत करती और उन्हें आत्मनिर्भर होने का संदेश देती.

…धीरेधीरे रूबी पूरे इलाके में रिकशे वाली भाभी के नाम से जानी जाने लगी.

समाजसेवा का काम बढ़ जाने के चलते रूबी ने पोस्ट औफिस वाला काम भी छोड़ दिया था और अपने को पूरी तरह से समाजसेवा में लगा दिया.

गैरजाति में शादी कर लेने के चलते रूबी और करन पहले से ही गांव के सवर्ण लोगों की आंख में बालू की तरह खटक रहे थे, ऊपर से रूबी के इस समाजसेवा वाले काम ने घमंडी मर्दों के लिए एक और परेशानी खड़ी कर दी थी.

गांव के लोगों को लगने लगा कि अगर रूबी इसी तरह से लोगों को अपने होने वाले जोरजुल्म के खिलाफ जागरूक करती रही, तो एक दिन मर्दों का दबदबा ही खत्म हो जाएगा.

एक दिन जब रूबी अपने ईरिकशा से काम के बाद वापस आ रही थी, तो करन के छोटे भाई पारस, जो गांव का प्रधान भी था, ने उस का रास्ता रोक लिया.

‘‘क्या भाभी… कहां चक्कर में पड़ी हो… इस झमेले वाले काम के चक्कर में जरा अपनी कोमल काया को तो देखो… कैसी काली पड़ गई हो,’’ पारस ने रूबी के सीने पर नजरें गड़ाते हुए कहा. दिनरात मेहनत करने से तुम्हारा मांस तो गल ही गया है… सूख कर कांटा होती जा रही हो और इन कोमल हाथों में ईरिकशा चला कर छाले पड़ गए हैं…

‘‘क्या इसी दिन के लिए तुम ने भैया से शादी की थी कि तुम्हें गलियों की धूल खानी पड़े…’’ पारस की नजरें अब भी रूबी के शरीर का मुआयना कर रही थीं.

‘‘क्या… भैया… आज बड़ी चिंता हो रही है मेरी…’’ रूबी ने ऊंची आवाज

में कहा.

‘‘क्यों नहीं होगी चिंता… अब आप भले ही नीची जाति की हों… पर अब तो मेरी भाभी बन गई हो न… तो हम लोग अपनी भाभी की चिंता नहीं करेंगे, तो कौन करेगा?

‘‘वैसे, सच कहते हैं भाभी… तुम्हें देखने से यह नहीं लगता है कि तुम

2 बच्चों को पैदा कर चुकी हो… बड़ा फिगर मेंटेन किया है आप ने.’’

‘‘ये आप किस तरह की बातें कर रहे हो? आखिर चाहते क्या हो…?’’ रूबी की आवाज तेज थी.

‘‘कुछ नहीं भाभी… बस इतना चाहते हैं कि आप एक रात के लिए हमारे साथ सो जाओ. बस… कसम से… खुश कर देंगे आप को…’’

पारस अपनी बात को अभी खत्म भी नहीं कर पाया था कि तभी रूबी के एक तेज हाथ का जोरदार थप्पड़ उस के गाल पर पड़ा

पारस गाल पकड़ कर रह गया. कुछ दूरी पर खड़े लोगों ने भी यह मंजर देख लिया था.

अचानक पड़े थप्पड़ के चलते और मौके की नजाकत को देखते हुए पारस वहां से तुरंत हट गया. मन में रूबी से बदला लेने की बात ठान ली.

उस दिन की घटना का जिक्र रूबी ने किसी से नहीं किया और सामान्य हो कर काम करती रही.

जिस समाजसेवी संस्था के लिए रूबी काम करती थी, वह संस्था उस

के द्वारा की जा रही कोशिशों से काफी

खुश थी और रूबी अपने काम को

और भी बढ़ाने में लगी हुई थी.

दिनभर जनसंपर्क के बाद जब रूबी शाम को घर लौटती, तो पति और बच्चे घर के दरवाजे पर इंतजार करते मिलते. उन्हें देख कर उस की सारी थकान मिट जाती और वह अपनी बच्चियों को अपने बांहों में भर लेती और अपनी स्नेहभरी आंखों से अपने पति को भी धन्यवाद देती कि उस ने बेटियों का ध्यान रखा.

आज जब काम के बाद रूबी घर लौट रही थी, तो उस की दोनों बेटियां गांव की टौफी और चिप्स की दुकान पर चिप्स खरीदती दिखीं, उन्हें इस तरह बाहर का सामान खरीदने के लिए रूबी ने पैसे तो दिए नहीं थे, फिर इन के पास पैसे कहां से आए…?

‘‘अरे, तुम यहां चिप्स खरीद रही हो… पर यह तो बताओ कि तुम्हारे पास चिप्स के लिए पैसे कहां से आए…?’’ रूबी ने उन्हें बहला कर पूछा.

‘‘मां… हमें पापा ने पैसे दिए थे और यह भी कह रहे थे कि बाहर जा कर खेलना… तभी हम लोग बाहर घूम रहे हैं,’’ बड़ी बेटी ने जवाब दिया.

न जाने क्यों, पर रूबी को यह बात कुछ अजीब सी लगी, पर फिर भी उस ने सोचा कि बच्चे अकेले करन को परेशान कर रहे होंगे, तभी उस ने पैसे दे कर बाहर भेज दिया होगा. इसी सोच के साथ वह बच्चों को ले कर घर आ गई.

घर में करन बिस्तर पर पड़ा हुआ आराम कर रहा था. रूबी के घर पहुंचने पर भी वह लेटा रहा और सिरदर्द होने की बात भी बताई. रूबी ने हाथपैर धो कर चाय बनाई और दोनों साथ बैठ कर पीने लगे.

चाय पीने के बाद जब रूबी रसोईघर में काम करने गई, तो वहां उस को एक पायल मिली. पायल देख कर उसे लगा कि क्या उस के पीछे किसी से करन का मामला तो नहीं चल रहा है?

रूबी ने वह पायल अपने पास रख ली और करन से इस बात का जिक्र तक नहीं किया.

एक दिन की बात है. रूबी काम से थकीहारी आ रही थी. उस ने देखा कि उस की दोनों बेटियां उसी दुकान पर फिर से कुछ खाने का सामान खरीद रही थीं. आज वह चौंक उठी थी, क्योंकि इस तरह से बच्चियों को पैसे ले कर दुकान पर आना उसे ठीक नहीं लग रहा था.

‘‘अरे आज फिर पापा ने पैसे दिए क्या?’’ रूबी ने पूछा.

‘‘नहीं मां… आज हमारे घर में गांव की एक आंटी आईं और उन्होंने ही हमें पैसे दिए.’’

बच्चों की बात पर सीधा भरोसा करने के बजाय रूबी ने घर जा कर देखना ही उचित समझा.

घर का दरवाजा अंदर से बंद था. अंदर क्या हो रहा है, यह जानने के लिए रूबी ने दरवाजे के र्झिरी से आंख लगा दी तो अंदर का सीन देख कर वह दंग रह गई. कमरे में करन किसी औरत पर झुका हुआ था और अपने होंठों से उस औरत के पूरे शरीर पर चुंबन ले रहा था, वह  औरत भी करन का पूरा साथ दे रही थी.

यह सब देख कर रूबी वहीं धम्म से दरवाजे पर बैठ गई. आंसुओं की धारा उस की आंखों से बहे जा रही थी.

कुछ देर बाद ‘खटाक’ की आवाज के साथ दरवाजा खुला और एक औरत अपनी साड़ी के पल्लू को सही करते हुए बाहर निकली. रूबी ने उसे पहचान लिया था. यह गांव की ही एक औरत थी, जिस का पति बाहर शहर में ही रहता है और तीजत्योहार पर ही आता है. गांव में यह औरत अपने ससुर के साथ रहती है.

रूबी उस औरत से एक भी शब्द न कह पाई, अलबत्ता वह औरत पूरी बेशर्मी से रूबी को देख कर मुसकराते हुए चली गई.

रूबी बड़ी मुश्किल से अंदर गई. करन ने रूबी से हाथ जोड़ लिए. ‘‘मैं बेकुसूर हूं रूबी… यह औरत गांव में बिना मर्द के रहती है… आज जबरन कमरे में घुस आई… और बच्चों को बाहर भेज दिया. फिर मुझ से कहने लगी कि अगर मैं ने उस की प्यास नहीं

बुझाई, तो वह मुझ पर बलात्कार का आरोप लगा देगी… अब तुम्हीं बताओ… मैं क्या करता… मैं मजबूर था,’’ रोने लगा था करन.

रूबी कुछ नहीं बोल सकी. शायद अभी उस में सहीगलत का फैसला करने की हिम्मत नहीं रह गई थी.

पीछा करता डर : पीठ में छुरा भाग – 1

नंदन माथुर और भानु प्रकाश दोनों बड़े बिजनेसमैन थे. साथ खानेपीने और ऐश करने वाले. भानु विदेश गया तो एक जैसे 2 मोबाइल ले आया. एक अपने लिए दूसरा दोस्त के लिए. लेकिन नंदन ने उस का तोहफा नहीं लिया. फिर भानु ने उसी मोबाइल को हथियार बना कर नंदन को ऐसा नाच नचाया कि…

उस रात सर्दी कुछ ज्यादा ही थी. लेकिन आम लोगों के लिए, अमीरों के लिए नहीं. अमीरों की वह ऐशगाह भी शीतलहर से महरूम थी, जिस का रूम नंबर 207 शराब और शबाब की मिलीजुली गंध से महक रहा था.

इस कमरे में नंदन माथुर ठहरे थे. पेशे से एक्सपोर्टर. लाखों में खेलने वाले इज्जतदार इंसान.

रात के पौने 9 बजे थे. कैनवास शूज से गैलरी के मखमली कालीन को रौंदता हुआ एक व्यक्ति रूम नंबर 207 के सामने पहुंचा. आत्मविश्वास से भरपूर वह व्यक्ति कीमती सूट पहने था. उस ने पहले ब्रासप्लेट पर लिखे नंबर पर नजर डाली और फिर विचित्र सा मुंह बनाते हुए डोरबेल का बटन दबा दिया.

दरवाजा खुलने में 5 मिनट लगे. कमरे के अंदर लैंप शेड की हलकी सी रोशनी थी, जिस में दरवाजे से अंदर का पूरा दृश्य देख पाना संभव नहीं था1 अलबत्ता कमरे के बाहर गैलरी में पर्याप्त प्रकाश था.

नंदन माथुर सर्दी के बावजूद मात्र बनियान व लुंगी पहने थे. उन के बाल भीगे थे और ऐसा लगता था, जैसे बाथरूम से निकल कर आ रहे हों. दरवाजे पर खड़े व्यक्ति को देख नंदन का समूचा बदन कंपकंपा कर रह गया. उन्होंने घबराए स्वर में कहा, ‘‘भानु तुम! इस वक्त…’’

‘‘ऐसे आश्चर्य से क्या देख रहे हो? मैं भूत थोड़े ही हूं,’’ सूटवाला कमरे में प्रवेश कते हुए बोला, ‘‘मैं भी इसी होटल में ठहरा हूं. कमरा नंबर 211 में. अकेला बोर हो रहा था, सो चला आया.’’

‘‘वो तो ठीक है, लेकिन…’’ नंदन माथुर दरवाजा खुला छोड़ कर भानु के पीछेपीछे चलते हुए बोले.

‘‘लेकिन वेकिन बाद में करना, पहले दरवाजा बंद कर के कपड़े पहन लो. सर्दी बहुत तेज है. सर्दी में पैसे और बदन की गरमी भी काम नहीं करती दोस्त,’’ भानु कुर्सी पर बैठते हुए व्यंग्य से बोला, ‘‘इतनी ठंड में नहा रहे थे. लगता है, पैसे की गरमी कुछ ज्यादा ही है तुम्हे.’’

नंदन की टांगे थरथरा रही थीं. कुर्सी पर पड़ा तौलिया उठा कर गीले बाल पोंछते हुए उन्होंने सशंकित स्वर में पूछा, ‘‘तुम्हें कैसे पता चला कि मैं यहां ठहरा हूं.’’

‘‘चाहने वाले कयामत की नजर रखते है दोस्त,’’ भानु ने उठ कर दरवाजे की ओर बढ़ते हुए व्यंग्य किया, ‘‘आया हूं, तो थोड़ी देर बैठूंगा भी. तुम कपड़े पहन लो. फिर आराम से सवाल करना.’’

भानु ने दरवाजा बंद किया, तो नंदन माथुर का दिल धकधक करने लगा. नंदन चाहते थे कि भानु किसी भी तरह चला जाए, जबकि भानु जाने के मूड में कतई नहीं था. मजबूरी में नंदन ने गर्म शाल लपेटा और भानु के सामने आ बैठे. उन के चेहरे पर अभी भी हवाइयां उड़ रही थीं. बैठते ही उन्होंने लड़खड़ाती आवाज में पूछा, ‘‘तुम्हें पता कैसे चला, मैं यहां ठहरा हूं?’’

‘‘इत्तफाक ही समझो,’’ भानु ने गहरी सांस लेते हुए कहा, ‘‘वरना तुम ने किलेबंदी तो बड़ी मजबूत की थी, अशरफ खान साहब उर्फ नंदन माथुर’’

‘‘मतलब?’’

‘‘मतलब कुछ नहीं यार! मैं ने पार्किंग में तुम्हारी गाड़ी खड़ी देखी तो समझा, तुम ठहरे होगे. रिसेप्शन से पता किया तो रजिस्टर में तुम्हारा नाम नहीं था. मैं ने सोचा 2 बजे तक तो तुम औफिस में थे. उस के बाद ही आए होगे. यहां 4-5 बजे पहुंचे होगे.

मैं ने रिसेप्शनिस्ट से 4 बजे के बाद आने वाले कस्टमर्स के बारे में पता किया तो पता चला, केवल एक मुस्लिम दंपत्ति आए हैं, जो कमरा नंबर 207 में ठहरे हैं. मैं सोच कर तो यही आया था कि इस कमरे में अशरफ खान और नाजिया खान मिलेंगे, लेकिन दरवाजा खुला तो नजर आए तुम… तुमने और भाभी ने धर्म परिवर्तन कब किया नंदन?’’

नंदन माथुर का चेहरा सफेद पड़ गया. जवाब देते नहीं बना. उन्हें चुप देख भानु इधरउधर ताकझांक करते हुए मुसकरा कर बोला, ‘‘लेकिन भाभी हैं कहां? कहीं बाथरूम में तो नहीं हैं? बाथरूम में हों तो बाहर बुला लो. ठंड बहुत है, कुल्फी बन जाएंगी.’’

‘‘फिलहाल तुम जाओ भानु. प्लीज डोंट डिस्टर्ब मी. हम सुबह बात करेंगे.’’ नंदन माथुर ने कहा तो भानु पैर पर पैर रख कर कुरसी पर आराम से बैठते हुए बोला, ‘‘मैं जानता हूं नंदन. बाथरूम में भाभी नहीं, बल्कि वो है, जिस के लिए तुम ने अपनी पहचान तक बदल डाली. फिर भी इतने रूखेपन से मुझे जाने को कह रहे हो. यह जानते हुए भी कि मैं बाहर गया तो तुम्हारा राज भी बाहर चला जाएगा.’’

‘‘तुम क्या चाहते हो?’’ नंदन ने आवाज थोड़ी तीखी करने की नाकाम कोशिश करते हुए कहा.

भानु मुस्कराते हुए बोला, ‘‘इस राज को शराब के गिलास में डुबो कर गले से नीचे उतार लेना चाहता हूं… तुम्हारी इज्जत की खातिर. तुम्हारे परिवार की खातिर. बस इस से ज्यादा कुछ नहीं चाहता मैं.’’

‘‘यह मेरा व्यक्तिगत मामला है. मैं तुम्हें धक्के दे कर भी बाहर निकाल सकता हूं.’’ नंदन ने गुस्से में खड़े होते हुए कहा, तो भानु उसे बैठने का इशारा करते हुए धीरे से बोला, ‘‘धीर गंभीर व्यक्ति को गुस्सा नहीं करना चाहिए. जरा सोचो, तुम ने मुझे धक्के दे कर निकाला तो मैं चीखूंगा.

‘‘चीखूंगा तो वेटर आएंगे. मैंनेजर आएगा. कस्टमर आएंगे. जब उन्हें पता चलेगा कि मैं तुम्हारे कमरे में जबरन घुसा था तो वे पुलिस को बुलाएंगे.

‘‘पुलिस मुझ से पूछताछ करेगी. जाहिर है, मैं अपने बचाव के लिए नंदन माथुर उर्फ अशरफ खान की पूरी कहानी बता दूंगा. पुलिस से बात पत्रकारों तक पहुंचेगी और फिर अखबारों के जरीए यह खबर सुबह तुम से पहले तुम्हारे घर पहुंच जाएगी. खबर होगी एक्सपोर्टर नंदन माथुर होटल में अय्याशी करते मिला. मेरा ख्याल है, तुम ऐसा कतई नहीं चाहोगे.’’

पलभर में ही नंदन की सारी अकड़ ढीली पड़ गई. उन्होंने बैठते हुए थकी सी आवाज में पूछा, ‘‘क्या चाहते हो तुम?’’

‘‘सिर्फ दो पैग ह्विस्की पीनी है, तुम्हारे और उस के साथ.’’

‘‘ह्विस्की नहीं है मेरे पास.’’ नंदन ने रूखे स्वर में कहा, तो भानु इधरउधर तांकझांक करते हुए बोला, ‘‘क्यों झूठ बोलते हो यार. पूरा कमरा तो महक रहा है.’’

खुल गई आंखें : रवि के सामने आई कैसी हकीकत- भाग 1

दफ्तर से अपने बड़े सरकारी बंगले पर जाते हुए उस दिन अचानक एक ट्रक ने रवि की कार को जोरदार टक्कर मार दी थी. कार का अगला हिस्सा बुरी तरह से टूटफूट गया था.

खून से लथपथ रवि कार के अंदर ही फंसा रह गया था. वह काफी समय तक बेहोशी की हालत में कार के अंदर ही रहा, पर उस की जान बचाने वाला कोई भी नहीं था.

हां, उस के आसपास तमाशबीनों की भीड़ जरूर लग गई थी. सभी एकदूसरे का मुंह ताक रहे थे, पर किसी में उसे अस्पताल ले जाने या पुलिस को बुलाने की हिम्मत नहीं हो रही थी.

भला हो रवि के दफ्तर के चपरासी रामदीन का, जो भीड़ को देख कर उसे चीरता हुआ रवि के पास तक पहुंच गया था. बाद में उसी ने पास के एसटीडी बूथ से 100 नंबर पर फोन कर पुलिस को बुला लिया था.

जब तक पुलिस रवि को ले कर पास के नर्सिंगहोम में पहुंची तब तक उस के शरीर से काफी खून बह चुका था. रामदीन काफी समय तक अस्पताल में ही रहा था. उस ने फोन कर के दफ्तर से सुपरिंटैंडैंट राकेश को भी बुला लिया था जो वहीं पास में रहते थे.

रवि के एक रिश्तेदार भी सूचना पा कर अस्पताल पहुंच गए थे. गांव दूर होने व बूढ़े मांबाप की हालत को ध्यान में रखते हुए किसी ने उस के घर सूचना भेजना उचित नहीं समझा था. वैसे भी उस के गांव में संचार का कोई खास साधन नहीं था. इमर्जैंसी में तार भेजने के अलावा और कोई चारा नहीं होता था.

रवि की पत्नी गुंजा अपने सासससुर व देवर रघु के साथ गांव में ही रहती थी. वह 2 साल पहले ही गौना करा कर अपनी ससुराल आई थी. रवि के साथ उस की शादी बचपन में तभी हो गई थी, जब वे दोनों 10 साल की उम्र भी पार नहीं कर पाए थे.

गांव में रहने के चलते गुंजा की पढ़ाई 8वीं जमात के बाद ही छूट गई थी पर रवि 5वीं जमात पास कर के अपने चाचा के पास शहर में ही पढ़ने आ गया था. उस ने अच्छीखासी पढ़ाई कर ली थी. शहर में पढ़ाई करने के चलते उस का मन चंचल हो गया था. वैसे भी वह गुंजा से हर मामले में बेहतर था.

शादी के समय तो रवि को कोई समझ नहीं थी, पर जब गौने के बाद विदा हो कर गुंजा उस के घर आई थी और पहली बार जवान और भरपूर नजरों से उस ने उसे देखा था तभी से उस का मन उस से उचट गया था.

गुंजा कामकाज में भी उतनी माहिर नहीं थी जितनी रवि ने अपनी पत्नी से उम्मीद की थी. यहां तक कि सुहागरात के दिन भी वह गुंजा से दूर ही रहा था.

गुंजा गांव की पलीबढ़ी लड़की थी. शक्लसूरत और पढ़ाईलिखाई में कम होने के बावजूद मांबाप से उसे अच्छे संस्कार मिले थे. उस ने रवि की अनदेखी के बावजूद उस के बूढ़े मांबाप और रवि के छोटे भाई रघु का साथ कभी नहीं छोड़ा.

मांबाप के लाख कहने के बावजूद रवि जब उसे अपने साथ शहर ले जाने को राजी नहीं हुआ तब भी उस ने उस से कोई खास जिद नहीं की, न ही अकेले शहर जाने का उस ने कोई विरोध किया.

शहर में आ कर रवि अपने दफ्तर और रोजमर्रा के कामों में ऐसा बिजी हुआ कि गांव जाना ही भूल गया. उसे अपने मांबाप से भी कुछ खास लगाव नहीं रह गया था क्योंकि वह अपनी बेढंगी शादी के लिए काफी हद तक उन्हीं को कुसूरवार मानता था.

तनख्वाह मिलने पर घर पर पैसा भेजने के अलावा रवि कभीकभार चिट्ठी लिख कर मांबाप व भाई का हालचाल जरूर पूछ लेता था, पर इस से ज्यादा वह अपने घर वालों के लिए कुछ भी नहीं कर पाता था.

3-4 दिन आईसीयू में रहने के बाद अब रवि को प्राइवेट वार्ड में शिफ्ट कर दिया था. दफ्तर के अनेक साथी तन, मन और धन से उस की सेवा में लगे हुए थे. बड़े साहब भी लगातार उस की सेहत पर नजर रखे हुए थे.

नर्सिंगहोम में जहां सीनियर सर्जन डाक्टर अशोक लाल उस के इलाज पर ध्यान दे रहे थे, वहीं वह वहां की सब से काबिल नर्स सुधा चौहान की चौबीसों घंटे की निगरानी में था.

सुधा चौहान जितना नर्सिंगहोम के कामों में माहिर थी, उतना ही सरल उस का स्वभाव भी था. शक्लसूरत से भी वह किसी फिल्मी नर्स से कम नहीं थी. उस की रातदिन की सेवा और बेहतर इलाज के चलते रवि को जल्दी ही होश आ गया था.

उस समय सुधा ही उस के पास थी. उसे बेचैन देख कर सुधा ने सहारा दिया और उस के सिरहाने तकिया रख दिया. अगले ही पल नर्स सुधा ने शीशी से एक चम्मच दवा निकाल कर आहिस्ता से उस के मुंह में डाल दी

रवि कुछ कहने के लिए मुंह खोलना चाहता था, पर पूरे चेहरे पर पट्टी बंधी होने के चलते वह कुछ भी कह पाने में नाकाम था. सुधा ने हलकी मुसकान के साथ उसे इशारेइशारे में चुप रहने को कहा.

सुधा की निजी जिंदगी भी बहुत खुशहाल नहीं थी. उस का पति मनीष इस दुनिया में नहीं था. उस की रिया नाम की 5 साल की एक बेटी थी जो उस के साथ ही रहती थी.

Father’s Day Special – पछतावा: क्या बेटे ने लिया बाप से बदला?

दीनानाथ नगरनिगम में चपरासी था. वह स्वभाव से गुस्सैल था. दफ्तर में वह सब से झगड़ा करता रहता था. उस की इस आदत से सभी दफ्तर वाले परेशान थे, मगर यह सोच कर सहन कर जाते थे कि गरीब है, नौकरी से हटा दिया गया, तो उस का परिवार मुश्किल में आ जाएगा.

दीनानाथ काम पर भी कई बार शराब पी कर आ जाता था. उस के इस रवैए से भी लोग परेशान रहते थे. उस के परिवार में पत्नी शांति और 7 साल का बेटा रजनीश थे. शांति अपने नाम के मुताबिक शांत रहती थी. कई बार उसे दीनानाथ गालियां देता था, उस के साथ मारपीट करता था, मगर वह सबकुछ सहन कर लेती थी.

दीनानाथ का बेटा रजनीश तीसरी जमात में पढ़ता था. वह पढ़ने में होशियार था, मगर अपने एकलौते बेटे के साथ भी पिता का रवैया ठीक नहीं था. उस का गुस्सा जबतब बेटे पर उतरता रहता था.

‘‘रजनीश, क्या कर रहा है? इधर आ,’’ दीनानाथ चिल्लाया.

‘‘मैं पढ़ रहा हूं बापू,’’ रजनीश ने जवाब दिया.

‘‘तेरा बाप भी कभी पढ़ा है, जो तू पढ़ेगा. जल्दी से इधर आ.’’

‘‘जी, बापू, आया. हां, बापू बोलो, क्या काम है?’’

‘‘ये ले 20 रुपए, रामू की दुकान से सोडा ले कर आ.’’

‘‘आप का दफ्तर जाने का समय हो रहा है, जाओगे नहीं बापू?’’

‘‘तुझ से पूछ कर जाऊंगा क्या?’’ इतना कह कर दीनानाथ ने रजनीश के चांटा जड़ दिया.

रजनीश रोता हुआ 20 रुपए ले कर सोडा लेने चला गया.

दीनानाथ सोडा ले कर शराब पीने बैठ गया.

‘‘अरे रजनीश, इधर आ.’’

‘‘अब क्या बापू?’’

‘‘अबे आएगा, तब बताऊंगा न?’’

‘‘हां बापू.’’

‘‘जल्दी से मां को बोल कि एक प्याज काट कर देगी.’’

‘‘मां मंदिर गई हैं… बापू.’’

‘‘तो तू ही काट ला.’’

रजनीश प्याज काट कर लाया. प्याज काटते समय उस की आंखों में आंसू आ गए, पर पिता के डर से वह मना भी नहीं कर पाया.

दीनानाथ प्याज चबाता हुआ साथ में शराब के घूंट लगाने लगा.

शाम के 4 बज रहे थे. दीनानाथ की शाम की शिफ्ट में ड्यूटी थी. वह लड़खड़ाता हुआ दफ्तर चला गया.

यह रोज की बात थी. दीनानाथ अपने बेटे के साथ बुरा बरताव करता था. वह बातबात पर रजनीश को बाजार भेजता था. डांटना तो आम बात थी. शांति अगर कुछ कहती थी, तो वह उस के साथ भी गालीगलौज करता था.

बेटे रजनीश के मन में पिता का खौफ भीतर तक था. कई बार वह रात में नींद में भी चीखता था, ‘बापू मुझे मत मारो.’

‘‘मां, बापू से कह कर अंगरेजी की कौपी मंगवा दो न,’’ एक दिन रजनीश अपनी मां से बोला.

‘‘तू खुद क्यों नहीं कहता बेटा?’’ मां बोलीं.

‘‘मां, मुझे बापू से डर लगता है. कौपी मांगने पर वे पिटाई करेंगे,’’ रजनीश सहमते हुए बोला.

‘‘अच्छा बेटा, मैं बात करती हूं,’’ मां ने कहा.

‘‘सुनो, रजनीश के लिए कल अंगरेजी की कौपी ले आना.’’

‘‘तेरे बाप ने पैसे दिए हैं, जो कौपी लाऊं? अपने लाड़ले को इधर भेज.’’

रजनीश डरताडरता पिता के पास गया. दीनानाथ ने रजनीश का कान पकड़ा और थप्पड़ लगाते हुए चिल्लाया, ‘‘क्यों, तेरी मां कमाती है, जो कौपी लाऊं? पैसे पेड़ पर नहीं उगते. जब तू खुद कमाएगा न, तब पता चलेगा कि कौपी कैसे आती है? चल, ये ले

20 रुपए, रामू की दुकान से सोडा ले कर आ…’’

‘‘बापू, आज आप शराब बिना सोडे के पी लो, इन रुपयों से मेरी कौपी आ जाएगी…’’

‘‘बाप को नसीहत देता है. तेरी कौपी नहीं आई तो चल जाएगा, लेकिन मेरी खुराक नहीं आई, तो कमाएगा कौन? अगर मैं कमाऊंगा नहीं, तो फिर तेरी कौपी नहीं आएगी…’’ दीनानाथ गंदी हंसी हंसा और बेटे को धक्का देते हुए बोला, ‘‘अबे, मेरा मुंह क्या देखता है. जा, सोडा ले कर आ.’’

दीनानाथ की यह रोज की आदत थी. कभी वह बेटे को कौपीकिताब के लिए सताता, तो कभी वह उस से बाजार के काम करवाता. बेटा पढ़ने बैठता, तो उसे तंग करता. घर का माहौल ऐसा ही था.

इस बीच रात में शांति अपने बेटे रजनीश को आंचल में छिपा लेती और खुद भी रोती.

दीनानाथ ने बेटे को कभी वह प्यार नहीं दिया, जिस का वह हकदार था. बेटा हमेशा डराडरा सा रहता था. ऐसे माहौल में भी वह पढ़ता और अपनी जमात में हमेशा अव्वल आता.

मां रजनीश से कहती, ‘‘बेटा, तेरे बापू तो ऐसे ही हैं. तुझे अपने दम पर ही कुछ बन कर दिखाना होगा.’’

मां कभीकभार पैसे बचा कर रखती और बेटे की जरूरत पूरी करती. बाप दीनानाथ के खौफ से बेटे रजनीश के बाल मन पर ऐसा डर बैठा कि वह सहमासहमा ही रहता. समय बीतता गया. अब रजनीश

21 साल का हो गया था. उस ने बैंक का इम्तिहान दिया. नतीजा आया, तो वह फिर अव्वल रहा. इंटरव्यू के बाद उसे जयपुर में पोस्टिंग मिल गई. उधर दीनानाथ की झगड़ा करने की आदत से नगरनिगम दफ्तर से उसे निकाल दिया गया था.

घर में खुशी का माहौल था. बेटे ने मां के पैर छुए और उन से आशीर्वाद लिया. पिता घर के किसी कोने में बैठा रो रहा था. उस के मन में एक तरफ नौकरी छूटने का दुख था, तो दूसरी ओर यह चिंता सताने लगी थी कि बेटा अब उस से बदला लेगा, क्योंकि उस ने उसे कोई सुख नहीं दिया था.

मां रजनीश से बोलीं, ‘‘बेटा, अब हम दोनों जयपुर रहेंगे. तेरे बापू के साथ नहीं रहेंगे. तेरे बापू ने तुझे और मुझे जानवर से ज्यादा कुछ नहीं समझा…

‘‘अब तू अपने पैरों पर खड़ा हो गया है. तेरी जिंदगी में तेरे बापू का अब मैं साया भी नहीं पड़ने दूंगी.’’

रजनीश कुछ देर चुप रहा, फिर बोला, ‘‘नहीं मां, मैं बापू से बदला नहीं लूंगा. उन्होंने जो मेरे साथ बरताव किया, वैसा बरताव मैं नहीं करूंगा. मैं अपने बेटे को ऐसी तालीम नहीं देना चाहता, जो मेरे पिता ने मुझे दी.’’

रजनीश उठा और बापू के पैर छू कर बोला, ‘‘बापू, मैं अफसर बन गया हूं, मुझे आशीर्वाद दें. आप की नौकरी छूट गई तो कोई बात नहीं, मैं अब अपने पैरों पर खड़ा हो गया हूं. चलो, आप अब जयपुर में मेरे साथ रहो, हम मिल कर रहेंगे.‘‘

यह सुन कर दीनानाथ की आंखों में आंसू आ गए. वह बोला, ‘‘बेटा, मैं ने तुझे बहुत सताया है, लेकिन तू ने मेरा साथ नहीं छोड़ा. मुझे तुझ पर गर्व है.’’

दीनानाथ को अपने किए पर खूब पछतावा हो रहा था. रजनीश ने बापू की आंखों से आंसू पोंछे, तो दीनानाथ ने उसे गले लगा लिया.

Father’s Day Special – विटामिन-पी: संजना ने कैसे किया अस्वस्थ ससुरजी को ठीक

संजनाटेबल पर खाना लगा रही थी. आज विशेष व्यंजन बनाए गए थे, ननदरानी मिथिलेश जो आई थी.

‘‘पापा, ले आओ अपनी कटोरी, खाना लग रहा है,’’ मिथिलेश ने अरुणजी से कहा.

‘‘दीदी, पापा अब कटोरी नहीं, कटोरा खाते हैं. खाने से पहले कटोरा भर कर सलाद और खाने के बाद कटोरा भर फ्रूट्स,’’ संजना मुसकराती हुई बोली.

‘‘अरे, यह चमत्कार कैसे हुआ? पापा की उस कटोरी में खूब सारे टैबलेट्स, विटामिन, प्रोटीन, आयरन, कैल्सियम होता था… कहां, कैसे, गायब हो गए?’’ मिथिलेश ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘बेटा यह चमत्कार संजना बिटिया का है,’’ कहते हुए वे पिछले दिनों में खो गए…

नईनवेली संजना ब्याह कर आई, ऐसे घर में जहां कोई स्त्री न थी. सासूमां का देहांत हो चुका था और ननद का ब्याह. घर में पति और ससुरजी, बस 2 ही प्राणी थे. ससुरजी वैसे ही कम बोलते थे और रिटायरमैंट के बाद तो बस अपनी किताबों में ही सिमट कर रह गए थे.

संजना देखती कि वे रोज खाना खाने से पहले दोनों समय एक कटोरी में खूब सारे टैबलेट्स निकाल लाते. पहले उन्हें खाते फिर अनमने से एकाध रोटी खा कर उठ जाते. रात को भी स्लीपिंग पिल्स खा कर सोते. एक दिन उस ने ससुरजी से पूछ ही लिया, ‘‘पापाजी, आप ये इतने सारे टेबलेट्स क्यों खाते हैं.’’

‘‘बेटा, अब तो जीवन इन पर ही निर्भर है, शरीर में शक्ति और रात की नींद इन के बिना अब संभव नहीं.’’

‘‘उफ पापाजी, आप ने खुद को इन का आदी बना लिया है. कल से आप मेरे हिसाब से चलेंगे. आप को प्रोटीन, विटामिन, आयरन, कैल्सियम सब मिलेगा और रात को नींद भी जम कर आएगी.’’

अगले दिन सुबह अरुणजी अखबार देख रहे थे तभी संजना ने आ कर कहा, ‘‘चलिए पापाजी, थोड़ी देर गार्डन में घूमते हैं, वहां से आ कर चाय पीएंगे.’’

संजना के कहने पर अरुणजी को उस के साथ जाना पड़ा. वहां संजना ने उन्हें हलकाफुलका व्यायाम भी करवाया और साथ ही लाफ थेरैपी दे कर खूब हंसाया.

‘‘यह लीजिए पापाजी, आप का कैल्सियम, चाय इस के बाद मिलेगी,’’ संजना ने दूध का गिलास उन्हें पकड़ाया.

नाश्ते में स्प्राउट्स दे कर कहा, ‘‘यह लीजिए भरपूर प्रोटींस. खाइए पापाजी.’’

लंच के समय अरुणजी दवाइयां निकालने लगे, तो संजना ने हाथ रोक लिया और कहा, ‘‘पापाजी, यह सलाद खाइए, इस में टमाटर, चुकंदर है, आप का आयरन और कैल्सियम. खाना खाने के बाद फू्रट्स खाइए.’’

अरुणजी उस की प्यार भरी मनुहार को टाल नहीं पाए. रात को भोजन भी उन्होंने संजना के हिसाब से ही किया. रात को संजना उन्हें फिर गार्डन में टहलाने ले गई.

‘‘चलिए पापा, अब सो जाइए.’’

अरुणजी की नजरें अपनी स्लीपिंग पिल्स की शीशी तलाशने लगीं.

‘‘लेटिए पापाजी, मैं आप के सिर की मालिश कर देती हूं,’’ कह कर उस ने अरुणजी को बिस्तर पर लिटा दिया और तेल लगा कर हलकेहलके हाथों सिर का मसाज करने लगी. कुछ ही देर में अरुणजी की नींद लग गई.

‘‘संजना, बेटी कल रात तो बहुत ही अच्छी नींद आई.’’

‘‘हां पापाजी, अब रोज ही आप को ऐसी नींद आएगी. अब आप कोई टैबलेट नहीं खाएंगे.’’

‘‘अब क्यों खाऊंगा. अब तो मुझे रामबाण औषधि मिल गई है,’’ अरुणजी गार्डन जाने के लिए तैयार होते हुए बोले.

‘‘थैंक्यू भाभी,’’ अचानक मिथिलेश की आवाज ने अरुणजी की तंद्रा भंग की.

‘‘हां बेटा, थैंक्स तो कहना ही चाहिए संजना बेटी को. इस ने मेरी सारी टैबलेट्स छुड़वा दीं. अब तो बस मैं एक ही टैबलेट खाता हूं,’’ अरुणजी बोले.

‘‘कौन सी?’’ संजना ने चौंक कर पूछा.

‘‘विटामिन-पी यानी भरपूर प्यार और परवाह.’’

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