पहेली : कौन था नव्या का कातिल? – भाग 2

इसी उधेड़बुन में वे नव्या के मायके पहुंचे. नव्या के मांबाप फिर मुकुल का नाम ले कर शोर मचाने लगे. राघव ने उन को समझाया.

‘‘देखिए हम मुलजिम को जरूर पकड़ेंगे लेकिन जल्दबाजी किसी निर्दोष को फंसा सकती है, इसलिए हमारा सहयोग कीजिए.’’

नव्या के पिता ये सुन कर शांत हुए. उन्होंने हर तरह से सहयोग देने की बात कही.

राघव ने पूछा, ‘‘नव्या का मुकुल के अलावा किसी से कोई विवाद था?’’

‘‘नहीं इंसपेक्टर साहब.’’ नव्या के पिता बोले, ‘‘उस की तो सब से दोस्ती थी, बैंक में भी सब उस से खुश रहते थे.’’

‘‘और विमल से उस का क्या रिश्ता था?’’ राघव ने उन के चेहरे पर गौर से देखते हुए सवाल किया. वे इस पर थोड़ा अचकचा गए.

‘‘व…वो…वो…दोस्ती थी उस से भी… मुकुल बेकार में शक किया करता था उन के संबंध पर.’’

राघव ने इस समय इस से ज्यादा कुछ पूछना ठीक नहीं समझा. वो वहां से निकल गए. अगले कुछ दिन इधरउधर हाथपैर मारते बीते. उन्होंने नव्या के बैंक जा कर उस के बारे में जानकारियां जुटाईं. सब ने साधारण बातें ही बताई. कोई नव्या और विमल के रिश्तों के बारे में कुछ कहने को तैयार नहीं था.

राघव ने नव्या के उस शाम बैंक से निकलते समय की सीसीटीवी फुटेज निकलवा कर देखी. वह अकेली ही अपनी कार में बैठती दिख रही थी. राघव की अन्य कर्मचारियों से तो बात हुई, लेकिन विमल से मुलाकात नहीं हो सकी, क्योंकि वह नव्या की मौत के बाद से ही छुट्टी पर चला गया था.

उन्होंने उस का पता निकलवाया और अपनी टीम के साथ उस के घर जा धमके. वह उन को देख कहने लगा, ‘‘इंसपेक्टर साहब, मैं खुद बहुत दुखी हूं नव्या के जाने से, पागल जैसा मन हो रहा मेरा, मुझे परेशान मत करिए.’’

विमल की हकीकत क्या थी?

‘‘हम भी आप के दुख का ही निवारण करने की कोशिश में हैं विमल बाबू.’’ राघव ने अपना काला चश्मा उतारते हुए कहा, ‘‘आप भी मदद करिए, हम दोषियों को जल्द से जल्द सलाखों के पीछे डालना चाहते हैं.’’

‘‘पूछिए, क्या जानना चाहते हैं आप.’’ वो सोफे पर निढाल होता बोला. सवालजवाब का दौर चलने लगा. विमल ने बताया कि उस ने उस दिन नव्या को औफिस के बाद अपने घर बुलाया था. लेकिन उस ने मना कर दिया कि पति से झगड़ा और बढ़ जाएगा. वह अपनी कार से निकल गई थी. उस ने अगले दिन किसी पारिवारिक कारण से औफिस न आने की बात की थी. हां, विमल ने भी ये नहीं स्वीकारा कि नव्या से उस की बहुत अच्छी दोस्ती से ज्यादा कोई नाता था.

‘‘ठीक है, विमल बाबू.’’ राघव ने उठते हुए कहा, ‘‘आप का धन्यवाद. फिर जरूरत होगी तो याद करेंगे… बस आप ये शहर छोड़ कर कहीं मत जाइएगा.’’

‘‘जी जरूर.’’

राघव की जीप वहां से चल दी. अब तक इस केस में कुछ भी ऐसा हाथ नहीं लग पाया था जिस से तसवीर साफ हो. उन्होंने अपने मुखबिरों के माध्यम से भी पता लगाना चाहा कि नव्या की हत्या के लिए क्या किसी लोकल गुंडे ने सुपारी ली थी. लेकिन ऐसा भी कुछ मालूम नहीं हो सका. किसी गैंग की भी ऐसी कोई सुपारी लेने की बात सामने नहीं आ पा रही थी.

शाम को राघव घर जाने के लिए निकलने ही वाले थे कि सिपाही ने एक लिफाफा ला कर दिया और बोला, ‘‘साब, ये अभी आया डाक से… लेकिन भेजने वाले का कोई नाम, पता नहीं लिखा.’’

राघव ने लिफाफे को खोला. उस में एक सीडी और चिट्ठी थी. उन्होंने उसे पढ़ना शुरू किया. उस में लिखा था, ‘‘इंसपेक्टर साहब, आप को नव्या के बैंक में जो सीसीटीवी फुटेज दिखाई गई, वो पूरी नहीं थी. विमल ने उस में पहले ही एडिटिंग करा दी थी. नव्या की मौत वाली शाम विमल उस के साथ उस की ही कार में निकला था. आप को इस बात का सबूत इस सीडी में मिल जाएगा.’’

चिट्ठी पढ़ते ही राघव की आंखों में चमक आ गई. उन्होंने जल्दी से उसे अपने लेपटौप पर लगाया. वाकई वीडियो में विमल उस शाम नव्या की कार में अंदर बैठता दिख रहा था. राघव को अपना काम काफी हद बनता लगा. वे सिपाहियों के साथ सीधे विमल के घर पहुंचे. देखा कि वह कहीं जाने के लिए पैकिंग कर रहा था. राघव पुलिसिया अंदाज में उस से बोले, ‘‘कहां चले विमल बाबू? आप को शहर से बाहर जाने को मना किया था न?’’

वो उन्हें वहां पा कर घबरा गया और हकलाने लगा.

‘‘म…मैं क…कहीं नहीं जा रहा. बस सामान सही कर रहा था.’’

‘‘इस की जरूरत अब नहीं पड़ेगी.’’ राघव ने फिर कहा, ‘‘चल थाने, वहीं सब सामान मिलेगा तुझे.’’

विमल कसमसाता रहा, खुद को निर्दोष बताता रहा लेकिन सिपाहियों ने उसे जीप में डाल लिया. लौकअप में राघव के थप्पड़ विमल को चीखने पर मजबूर कर रहे थे. वह किसी तरह बोला, ‘‘सर, मैं ने कुछ नहीं किया, हां मैं उस के साथ निकला जरूर था लेकिन रास्ते में उतर गया था, वो आगे चली गई थी.’’

‘‘तो हम से ये बात छिपाई क्यों?’’ राघव ने उसे कड़कदार 2 थप्पड़ और लगाते हुए पूछा.

‘‘म्म्म मैं घब…घबरा गया था साहब कि कहीं मेरा नाम शक के दायरे में न आ जाए.’’

राघव ने उस के सैंपल लैब में भिजवा दिए जिस से नव्या के गुप्तांगों और कपड़ों पर मिले वीर्य से उस का मिलान करा के जांच की जा सके. रिपोर्ट तीसरे दिन ही आ गई. सचमुच नव्या के जिस्म से जितने लोगों के वीर्य मिले थे, उन में एक विमल से मैच कर गया.

राघव ने मारमार के विमल की देह तोड़ दी. उन्होंने उस से पूछा, ‘‘बोल, बोल तूने नव्या को क्यों मारा?’’

विमल ने खोला भेद, लेकिन अधूरा

‘‘साब मैं ने कुछ नहीं किया.’’ वो जोरजोर से रोते हुए बोला, ‘‘हां मैं ने कार में उस के साथ जिस्मानी संबंध जरूर बनाए थे लेकिन उस को मारा नहीं… मैं सैक्स कर के उतर गया था उस की गाड़ी से.’’

‘‘स्साला.’’ राघव का गुस्सा बढ़ता जा रह था. वे उस पर गरजे, ‘‘रुकरुक के बातें बता रहा है. जैसेजैसे भेद खुलता जा रहा है वैसेवैसे रंग बदल रहा है. तू मुझ से करेगा होशियारी?’’

उन्होंने फिर से मुक्का ताना लेकिन विमल बेहोश होने लगा था. वे उसे वहीं छोड़ कर बाहर निकले.

‘‘इस को तब तक कुरसी से मत खोलना जब तक ये पूरी बात न बता दे.’’ शर्ट पहनतेपहनते उन्होंने सिपाही को आदेश दिया. वहां नव्या के मायके वाले भी आए हुए थे. विमल के बारे में जान कर उन्हें मुकुल पर लगाए अपने आरोपों पर बहुत पछतावा हो रहा था.

‘‘इस ने अपना जुर्म कबूल किया क्या इंसपेक्टर साहब?’’ नव्या के पिता ने जानना चाहा.

‘‘नहीं, अभी तक अपनी बेगुनाही का रोना रो रहा है. चालू चीज लगता है ये.’’ राघव ने लौकअप की ओर देख के उत्तर दिया. नव्या के मांबाप सीधे मुकुल के घर पहुंचे.

‘‘बेटा, हम को माफ कर देना, हम ने आप पर शक किया.’’ नव्या की मां उस से बोली. मुकुल ने धीरे से मुसकरा के सिर हिलाया. तब तक उस की मां चायपानी ले आई थी. कुछ दिन बीत गए. राघव ने विमल से सच जानने के लिए पूरा जोर लगा रखा था लेकिन वह यही दोहराता रहता कि वो निर्दोष है. उस के वकील के आ जाने से अब उस पर सख्ती करना भी मुश्किल लग रहा था.

अनोखा इश्क : मंगेतर की सहेली से आशिकी

पारस और दिव्या की सगाई के 10 दिन बाद पारस ने दिव्या से मिलने के लिए कहा. दिव्या परिवार की इजाजत ले कर उस से मिलने गई, मगर आस्था भी उस के साथ गई, क्योंकि दिव्या की मां उसे अकेले नहीं जाने देना चाहती थीं.

पारस आस्था को देखता ही रह गया. दिव्या का गोरा रंग और आस्था का सांवला रंग, दिव्या का भराभरा बदन और आस्था नौर्मल सी, मगर तीखे नैननक्श, पारस तो मानो आस्था में ही खो गया. दिव्या ने पारस को 2-3 बार पुकारा, तब जा कर जैसे उसे होश आया हो.

आस्था बोली, “हैलो जीजू…”

“आस्था, प्लीज, मुझे पारस कहो,” पारस ने साफसाफ कह दिया.

“ओके पारस…”

इस तरह अकसर पारस दिव्या को मिलने के लिए किसी रैस्टोरैंट या पार्क में बुलाता तो आस्था भी साथ होती. वह दिव्या की बैस्ट फ्रैंड जो थी.

एक दिन आस्था को बुखार था. दिव्या के साथ उस का छोटा भाई गया. पारस ने आते ही पूछा, “दिव्या, आज आस्था क्यों नहीं आई?”

“उसे बुखार है.”

यह सुन कर पारस का चेहरा उतर गया. उस दिन पारस को दिव्या का साथ अच्छा नहीं लग रहा था.

पारस रातभर सो नहीं पाया. उसे समझ नहीं आ रहा था कि यह क्या हो रहा है. उस ने महसूस किया कि शायद उसे आस्था से प्यार हो गया है. सुबह होते ही उस ने दिव्या से आस्था का फोन नंबर ले लिया, ताकि उस का हालचाल जान सके.

“हैलो, कैसी हो आस्था?”

‘मैं ठीक हूं, मगर आप कौन हैं? आप के पास मेरा मोबाइल नंबर कैसे आया?’ एक ही सांस में बोल गई आस्था.

“अरेअरे, सांस तो लो, बताता हूं. मैं पारस हूं और दिव्या से मैं ने तुम्हारा नंबर लिया है.”

इस के बाद वे दोनों बहुत देर तक बातें करते रहे. अब तो अकसर पारस आस्था को फोन कर देता और दोनों घंटों बातें करते रहते.

धीरेधीरे आस्था को भी पारस से लगाव सा महसूस हुआ, मगर वह उस की बैस्ट फ्रैंड का मंगेतर है, यह सोच कर वह अपना कदम पीछे खींच लेती.

एक दिन पारस, दिव्या और आस्था तीनों फिल्म देखने सिनेमाघर गए, तो पारस दिव्या के बजाय आस्था की साइड जा कर बैठ गया.

यह देख उन दोनों को हैरानी हुई, तो पारस ने कहा, “अरे दिव्या, हम दोनों तो सगाई कर के सेफ हो गए, मगर आस्था तो अभी सिंगल है न… अगर कोई इस के साथ आ कर बैठ जाए और बदतमीजी करे तो? इस का ध्यान हमें ही रखना है न… एक तरफ तुम बैठो और एक तरफ मैं.”

फिल्म देखने के दौरान पारस ने 1-2 बार आस्था को छू लिया और ‘सौरी’ कह दिया कि वह भूल गया था कि उस के साथ वाली सीट पर दिव्या नहीं, बल्कि आस्था बैठी है. आस्था और दिव्या ने इसे नौर्मल लिया.

आखिरकर शादी वाला दिन भी आ गया. दोनों घरों में शादी की तैयारियां चलने लगीं. दिव्या बहुत खुश थी, मगर पारस को जैसे कोई कमी महसूस हो रही थी. उस के चेहरे से वह खुशी नहीं झलक रही थी, जो दिव्या के चेहरे पर थी.

शादी हुई, दिव्या और पारस की गृहस्थी की गाड़ी चल पड़ी. इस के बावजूद पारस और आस्था को चैन नहीं था. दोनों अकसर घंटों फोन पर बातें करते, कभी दिव्या के सामने तो कभी दिव्या से चोरीछिपे.

इसी बीच दिव्या के पैर भारी हो गए. परिवार के सब लोग बेहद खुश थे.
पारस की मम्मी नहीं थीं. परिवार के नाम पर पारस और उस के पापा ही थे.

दिव्या की तबीयत अकसर खराब रहने लगी, तो उस की देखभाल के लिए पारस कभीकभी आस्था से आने को कह देता, क्योंकि दिव्या की मम्मी नौकरी के चलते नहीं आ सकती थीं. आस्था भी पारस की नजदीकियां तो चाहती ही थी, फिर यह तो सोने पर सुहागा हो गया.

पारस को भी मनचाही मुराद मिल गई. दिव्या तो अपने कमरे में रहती, इसलिए पारस रसोईघर में किसी न किसी बहाने जाता और आस्था के आसपास मंडराता, साथ ही कभीकभी उसे छू लेता था.

अब आस्था को भी पारस का ऐसे छूना अच्छा लगता. वह कुछ न कहती, तो पारस की हिम्मत भी बढ़ जाती. वह कभी उसे प्यारी ‘साली’ कहता और कभी ‘मेरी बीवी की जान तो मेरी भी जान हुई न’ कहता. इसी बहाने कभी वह उसे अपनी बांहों में भी भर लेता था. अब तो आस्था का वहां आनाजाना लगा रहता.

आज दिव्या को 9वां महीना लग गया तो पारस ने कहा, “दिव्या, अब हमें आस्था को बुला लेना चाहिए. डिलीवरी कभी भी हो सकती है.”

“नहीं, हम हर समय आस्था को क्यों परेशान करें… और अब तो मुझे भी डाक्टर ने थोड़ा चलने को कहा है, ताकि डिलीवरी और आसान हो जाए. जिस दिन अस्पताल जाना होगा, तब उसे बुला लेंगे, आप का और पापा का खयाल रखने के लिए.”

पारस बेसब्री से डिलीवरी के दिन का इंतजार कर रहा था, इधर आस्था भी बड़ी बेकरार थी. जल्दी ही वह समय भी आ गया जिस का 2 मूक प्रेमी बेसब्री से इंतजार कर रहे थे. दिव्या को अस्पताल छोड़ कर पारस आस्था को ले आया. सभी अस्पताल पहुंच गए. थोड़ी देर में डिलीवरी हो गई.

नर्स ने बताया,”बधाई हो, चांद सी बेटी आई है.”

सभी बहुत खुश थे. दिव्या की देखभाल का जिम्मा अस्पताल वालों का था, इसलिए किसी को भी अस्पताल में ठहरने के लिए मना कर दिया गया. सब घर चले गए, खाना खाया और सो गए.

मगर 2 जवान दिल तेजी से धड़क रहे थे. पारस आस्था के कमरे में आ गया. वह अभी सोई नहीं थी. नींद उन दोनों की आंखों से कोसों दूर थी. आव देखा न ताव, तपते जिस्म एकदूजे में समाने को तड़प उठे, लिपट गए एकदूसरे से. आस्था के लरजते होंठों ने छू लिया पारस के होंठों को तो मानो एक जलजला आ गया और वह हो गया जो नहीं होना चाहिए था.

इस के बाद तो यह सिलसिला रोज चलता रहा. दिव्या के घर आने के बाद जब आस्था वापस चली गई, तब भी यही सिलसिला चलता रहा. तब यह मिलन किसी होटल के कमरे में होता.

इधर जब दिव्या की बेटी पैदा हुई तो तारा डूबा था, इसलिए अंधविश्वास के चलते उस का नामकरण 2-3 महीने तक नहीं हो सकता था.

आज दिव्या की बेटी का नामकरण संस्कार था. उस ने आस्था को भी बुलाया था, लेकिन वह आस्था को देख कर हैरान थी, क्योंकि उस का बढ़ा हुआ पेट एक अलग ही कहानी कह रहा था.

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Story in Hindi

रीवा की लीना : दो अनजान सहेलियां

डलास (टैक्सास) में लीना से रीवा की दोस्ती बड़ी अजीबोगरीब ढंग से हुई थी. मार्च महीने के शुरुआती दिन थे. ठंड की वापसी हो रही थी. प्रकृति ने इंद्रधनुषी फूलों की चुनरी ओढ़ ली थी. घर से थोड़ी दूर पर झील के किनारे बने लोहे की बैंच पर बैठ कर धूप तापने के साथ चारों ओर प्रकृति की फैली हुई अनुपम सुंदरता को रीवा अपलक निहारा करती थी. उस दिन धूप खिली हुई थी और उस का आनंद लेने को झील के किनारे के लिए दोपहर में ही निकल गई.

सड़क किनारे ही एक दक्षिण अफ्रीकी जोड़े को खुलेआम कसे आलिंगन में बंधे प्रेमालाप करते देख कर वह शरमाती, सकुचाती चौराहे की ओर तेजी से आगे बढ़ कर सड़क पार करने लगी थी कि न जाने कहां से आ कर दो बांहों ने उसे पीछे की ओर खींच लिया था.

तेजी से एक गाड़ी उस के पास से निकल गई. तब जा कर उसे एहसास हुआ कि सड़क पार करने की जल्दबाजी में नियमानुसार वह चारों दिशाओं की ओर देखना ही भूल गई थी. डर से आंखें ही मुंद गई थीं. आंखें खोलीं तो उस ने स्वयं को परी सी सुंदर, गोरीचिट्टी, कोमल सी महिला की बांहों में पाया, जो बड़े प्यार से उस के कंधों को थपथपा रही थी. अगर समय पर उस महिला ने उसे पीछे नहीं खींचा होता तो रक्त में डूबा उस का शरीर सड़क पर क्षतविक्षत हो कर पड़ा होता.

सोच कर ही वह कांप उठी और भावावेश में आ कर अपनी ही हमउम्र उस महिला से चिपक गई. अपनी दुबलीपतली बांहों में ही रीवा को लिए सड़क के किनारे बने बैंच पर ले जा कर उसे बैठाते हुए उस की कलाइयों को सहलाती रही.

‘‘ओके?’’ रीवा से उस ने बड़ी बेसब्री से पूछा तो उस ने अपने आंचल में अपना चेहरा छिपा लिया और रो पड़ी. मन का सारा डर आंसुओं में बह गया तो रीवा इंग्लिश में न जाने कितनी देर तक धन्यवाद देती रही लेकिन प्रत्युत्तर में वह मुसकराती ही रही. अपनी ओर इशारा करते हुए उस ने अपना परिचय दिया. ‘लीना, मैक्सिको.’ फिर अपने सिर को हिलाते हुए राज को बताया, ‘इंग्लिश नो’, अपनी 2 उंगलियों को उठा कर उस ने रीवा को कुछ बताने की कोशिश की, जिस का मतलब रीवा ने यही निकाला कि शायद वह 2 साल पहले ही मैक्सिको से टैक्सास आई थी. जो भी हो, इतने छोटे पल में ही रीवा लीना की हो गई थी.

लीना भी शायद बहुत खुश थी. अपनी भाषा में इशारों के साथ लगातार कुछ न कुछ बोले जा रही थी. कभी उसे अपनी दुबलीपतली बांहों में बांधती, तो कभी उस के उड़ते बालों को ठीक करती. उस शब्दहीन लाड़दुलार में रीवा को बड़ा ही आनंद आ रहा था. भाषा के अलग होने के बावजूद उन के हृदय प्यार की अनजानी सी डोर से बंध रहे थे. इतनी बड़ी दुर्घटना के बाद रीवा के पैरों में चलने की शक्ति ही कहां थी, वह तो लीना के पैरों से ही चल रही थी.

कुछ दूर चलने के बाद लीना ने एक घर की ओर उंगली से इंगित करते हुए कहा, हाउस और रीवा का हाथ पकड़ कर उस घर की ओर बढ़ गई. फिर तो रीवा न कोई प्रतिरोध कर सकी और न कोई प्रतिवाद. उस के साथ चल पड़ी. अपने घर ले जा कर लीना ने स्नैक्स के साथ कौफी पिलाई और बड़ी देर तक खुश हो कर अपनी भाषा में कुछकुछ बताती रही.

मंत्रमुग्ध हुई रीवा भी उस की बातों को ऐसे सुन रही थी मानो वह कुछ समझ रही हो. बड़े प्यार से अपनी बेटियों, दामादों एवं 3 नातिनों की तसवीरें अश्रुपूरित नेत्रों से उसे दिखाती भी जा रही थी और धाराप्रवाह बोलती भी जा रही थी. बीचबीच में एकाध शब्द इंग्लिश के होते थे जो अनजान भाषा की अंधेरी गलियारों में बिजली की तरह चमक कर राज को धैर्य बंधा जाते थे.

बच्चों को याद कर लीना के तनमन से अपार खुशियों के सागर छलक रहे थे. कैसा अजीब इत्तफाक था कि एकदूसरे की भाषा से अनजान, कहीं 2 सुदूर देश की महिलाओं की एक सी कहानी थी, एकसमान दर्द थे तो ममता ए दास्तान भी एक सी थी. बस, अंतर इतना था कि वे अपनी बेटियों के देश में रहती थी और जब चाहा मिल लेती थी या बेटियां भी अपने परिवार के साथ हमेशा आतीजाती रहती थीं.

रीवा ने भी अमेरिका में रह रही अपनी तीनों बेटियों, दामादों एवं अपनी 2 नातिनों के बारे में इशारों से ही बताया तो वह खुशी के प्रवाह में बह कर उस के गले ही लग गई. लीना ने अपने पति से रीवा को मिलवाया. रीवा को ऐसा लगा कि लीना अपने पति से अब तक की सारी बातें कह चुकी थी. सुखदुख की सरिता में डूबतेउतरते कितना वक्त पलक झपकते ही बीत गया. इशारों में ही रीवा ने घर जाने की इच्छा जताई तो वह उसे साथ लिए निकल गई.

झील का चक्कर लगाते हुए लीना रीवा को उस के घर तक छोड़ आई. बेटी से इस घटना की चर्चा नहीं करने के लिए रास्ते में ही रीवा लीना को समझा चुकी थी. रीवा की बेटी स्मिता भी लीना से मिल कर बहुत खुश हुई. जहां पर हर उम्र को नाम से ही संबोधित किया जाता है वहीं पर लीना पलभर में स्मिता की आंटी बन गई. लीना भी इस नए रिश्ते से अभिभूत हो उठी.

समय के साथ रीवा और लीना की दोस्ती से झील ही नहीं, डलास का चप्पाचप्पा भर उठा. एकदूसरे का हाथ थामे इंग्लिश के एकआध शब्दों के सहारे वे दोनों दुनियाजहान की बातें घंटों किया करते थे.

घर में जो भी व्यंजन रीवा बनाती, लीना के लिए ले जाना नहीं भूलती. लीना भी उस के लिए ड्राईफू्रट लाना कभी नहीं भूली. दोनों हाथ में हाथ डाले झील की मछलियों एवं कछुओं को निहारा करती थीं. लीना उन्हें हमेशा ब्रैड के टुकड़े खिलाया करती थी. सफेद हंस और कबूतरों की तरह पंक्षियों के समूह का आनंद भी वे दोनों खूब उठाती थीं.

उसी झील के किनारे न जाने कितने भारतीय समुदाय के लोग आते थे जिन के पास हायहैलो कहने के सिवा कुछ नहीं रहता था. किसीकिसी घर के बाहर केले और अमरूद से भरे पेड़ बड़े मनमोहक होते थे. हाथ बढ़ा कर रीवा उन्हें छूने की कोशिश करती तो हंस कर नोनो कहती हुई लीना उस की बांहों को थाम लेती थी.

लीना के साथ जा कर रीवा ग्रौसरी शौपिंग वगैरह कर लिया करती थी. फूड मार्ट में जा कर अपनी पसंद के फल और सब्जियां ले आती थी. लाइब्रेरी से भी किताबें लाने और लौटाने के लिए रीवा को अब सप्ताहांत की राह नहीं देखनी पड़ती थी. जब चाहा लीना के साथ निकल गई. हर रविवार को लीना रीवा को डलास के किसी न किसी दर्शनीय स्थल पर अवश्य ही ले जाती थी जहां पर वे दोनों खूब ही मस्ती किया करती थीं.

हाईलैंड पार्क में कभी वे दोनों मूर्तियों से सजे बड़ेबड़े महलों को निहारा करती थीं तो कभी दिन में ही बिजली की लडि़यों से सजे अरबपतियों के घरों को देख कर बच्चों की तरह किलकारियां भरती थीं. जीवंत मूर्तियों से लिपट कर न जाने उन्होंने एकदूसरे की कितनी तसवीरें ली होंगी.

पीले कमल से भरी हुई झील भी 10 साल की महिलाओं की बालसुलभ लीलाओं को देख कर बिहस रही होती थी. झील के किनारे बड़े से पार्क में जीवंत मूर्तियों पर रीवा मोहित हो उठी थी. लकड़ी का पुल पार कर के उस पार जाना, भूरे काले पत्थरों से बने छोटेबड़े भालुओं के साथ वे इस तरह खेलती थीं मानो दोनों का बचपन ही लौट आया हो.

स्विमिंग पूल एवं रंगबिरंगे फूलों से सजे कितने घरों के अंदर लीना रीवा को ले गई थी, जहां की सुघड़ सजावट देख कर रीवा मुग्ध हो गई थी. रीवा तो घर के लिए भी खाना पैक कर के ले जाती थी. इंडियन, अमेरिकन, मैक्सिकन, अफ्रीका आदि समुदाय के लोग बिना किसी भेदभाव के खाने का लुत्फ उठाते थे.

लीना के साथ रीवा ने ट्रेन में सैर कर के खूब आनंद उठाया था. भारी ट्रैफिक होने के बावजूद लीना रीवा को उस स्थान पर ले गई जहां अमेरिकन प्रैसिडैंट जौन कैनेडी की हत्या हुई थी. उस लाइब्रेरी में भी ले गई जहां पर उन की हत्या के षड्यंत्र रचे गए थे.

ऐेसे तो इन सारे स्थलों पर अनेक बार रीवा आ चुकी थी पर लीना के साथ आना उत्साह व उमंग से भर देता था. इंडियन स्टोर के पास ही लीना का मैक्सिकन रैस्तरां था. जहां खाने वालों की कतार शाम से पहले ही लग जाती थी. जब भी रीवा उधर आती, लीना चीपोटल पैक कर के देना नहीं भूलती थी.

मैक्सिकन रैस्तरां में रीवा ने जितना चीपोटल नहीं खाया होगा उतने चाट, पकौड़े, समोसे, जलेबी लीना ने इंडियन रैस्तरां में खाए थे. ऐसा कोई स्टारबक्स नहीं होगा जहां उन दोनों ने कौफी का आनंद नहीं उठाया. डलास का शायद ही ऐसा कोई दर्शनीय स्थल होगा जहां के नजारों का आनंद उन दोनों ने नहीं लिया था.

मौल्स में वे जीभर कर चहलकदमी किया करती थीं. नए साल के आगमन के उपलक्ष्य में मौल के अंदर ही टैक्सास का सब से बड़ा क्रिसमस ट्री सजाया गया था. जिस के चारों और बिछे हुए स्नो पर सभी स्कीइंग कर रहे थे. रीवा और लीना बच्चों की तरह किलस कर यह सब देख रही थीं.

कैसी अनोखी दास्तान थी कि कुछ शब्दों के सहारे लीना और रीवा ने दोस्ती का एक लंबा समय जी लिया. जहां भी शब्दों पर अटकती थीं, इशारों से काम चला लेती थीं.

समय का पखेरू पंख लगा कर उड़ गया. हफ्ताभर बाद ही रीवा को इंडिया लौटना था. लीना के दुख का ठिकाना नहीं था. उस की नाजुक कलाइयों को थाम कर रीवा ने जीभर कर आंसू बहाए, उस में अपनी बेटियों से बिछुड़ने की असहनीय वेदना भी थी. लौटने के एक दिन पहले रीवा और लीना उसी झील के किनारे हाथों में हाथ दिए घंटाभर बैठी रहीं. दोनों के बीच पसरा हुआ मौन तब कितना मुखर हो उठा था. ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे उस की अनंत प्रतिध्वनियां उन दोनों से टकरा कर चारों ओर बिखर रही हों.

दोनों के नेत्रों से अश्रुधारा प्रवाहित हो रही थी. शब्द थे ही नहीं कि जिन्हें उच्चारित कर के दोस्ती के जलधार को बांध सकें. प्रेमप्रीत की शब्दहीन सरिता बहती रही. समय के इतने लंबे प्रवाह में उन्हें कभी भी एकदूसरे की भाषा नहीं जानने के कारण कोई असुविधा हुई हो, ऐसा कभी नहीं लगा. एकदूसरे की आंखों में झांक कर ही वे सबकुछ जान लिया करती थीं. दोस्ती की अजीब पर अतिसुंदर दास्तान थी. कभी रूठनेमनाने के अवसर ही नहीं आए. हंसी से खिले रहे.

एकदूसरे से विदा लेने का वक्त आ गया था. लीना ने अपने पर्स से सफेद धवल शौल निकाल कर रीवा को उठाते हुए गले में डाला, तो रीवा ने भी अपनी कलाइयों से रंगबिरंगी चूडि़यों को निकाल लीना की गोरी कलाइयों में पहना दिया जिसे पहन कर वह निहाल हो उठी थी. मूक मित्रता के बीच उपहारों के आदानप्रदान देख कर निश्चय ही डलास की वह मूक मगर चंचल झील रो पड़ी होगी.

भीगी पलकों एवं हृदय में एकदूसरे के लिए बेशुमार शुभकामनाओं को लिए हुए दोनों ने एकदूसरे से विदाई तो ली पर अलविदा नहीं कहा.

एक मौका और दीजिए : बहकने लगे सुलेखा के कदम

मनपसंद: मेघा ने परिवार के प्रति कौनसा निभाया था फर्ज- भाग 2

इस तरह की बातें बिना पंख ही उड़ती हैं. मेघा की मुंहजोरी की बातें मंगल के घर तक पहुंचीं तो मंगल की मम्मी सतर्क हुई. मंगल को तुरंत लाइनहाजिर किया गया और मेघा के स्वभाव के बारे में पूछताछ की गई. अपनी संतुष्टि के लिए मंगल की मां ने सालभर का समय मांगा ताकि वह मंगल की जीवनसंगिनी बनने के लिए मेघा की उम्मीदवारी को परख सके.

कौन जाने इस बीच मंगल के लिए कोई बेहतर रिश्ता ही मिल जाए. या, हो सकता है कि दोनों के बीच खटास ही आ जाए. मां इसी आस पर सालभर निकाल देना चाहती थी. लेकिन कहते हैं न कि करम तो जहां फूटने को लिखे हैं वहीं फूटते हैं. सालभर बाद भी न तो मंगल को कोई मिली और न ही मेघा को.

सालभर बाद दोनों इस सहमति और शर्त के साथ एक बंधन में बंध गए कि मेघा अपने परिवार की जिम्मेदारी पहले की तरह ही उठाती रहेगी और अपनी तनख्वाह भी पूर्ववत उसी परिवार पर खर्च करती रहेगी. लेकिन मनपसंद साथी का नशा किसी भी अन्य नशे से किसी भी प्रकार कम नहीं होता. मेघा भी प्रेम के नशे में आकंठ डूब गई. वह अपनी तनख्वाह बेशक अपनी मां और बहन पर खर्च करती थी लेकिन अब उस के पास उन पर खर्च करने के लिए समय कम पड़ने लगा था. छुट्टी वाले दिन किसी तरह भागती सी मायके जाती और जाते ही वापसी के लिए घड़ी देखने लगती. साल बीततेबीतते नन्हा गोदी में आ गया तो बचेखुचे समय पर उस का कब्जा हो गया.

इधर माला स्कूल खत्म कर के कालेज में आ गई थी. कालेज का खुलापन, घर में पिता के कठोर अनुशासन की कमी और बहन का बिना जरूरत पैसों से पर्स भरते रहना… किशोर लड़की के राह भटकने के लिए इतने कारण काफी होते हैं.

किसी तरह गिरतेपड़ते माला अपना कालेज कर रही थी. एक दिन पता चला कि माला के पांव गलत पगडंडी पर मुड़ गए. मां ने मेघा और मंगल को बुला कर चर्चा की. सब ने ठंडे दिमाग से सोच कर तय किया कि कालेज खत्म होते ही माला की शादी कर दी जाए.

लेकिन कालेज तो 6 महीने में खत्म हो जाएगा और इतनी जल्दी अच्छा लड़का कहां से तलाश किया जाए. दोतीन महीने खोजने के बाद भी बात बनती दिखाई नहीं दी तो मेघा को अपने देवर सोम का खयाल आया. उस ने मंगल के सामने अपनी बात रखी. मंगल उस का प्रस्ताव सुनते ही उखड़ गया.

“दिमाग खराब हो गया क्या तुम्हारा? जिंदा मक्खी निगलने के लिए तुम्हें सोम ही दिखाई दिया,” मंगल ने गुस्से से कहा.

“बच्चों से गलतियां हो जाती हैं. हम बड़े हैं, हमें ही समझदारी दिखानी होगी. तुम ने मुझ से जिम्मेदारी बांटने का वादा नहीं किया था? तुम्हारी अपनी बहन होती तब भी क्या तुम ऐसे ही तेवर दिखाते?” जैसे कई प्रश्नों के साथ मेघा ने पति पर पलटवार किया.

“हां, तो कर रहे हैं न प्रयास. मिल जाएगा कोई न कोई लड़का. इन सब में सोम को सूली पर टांगने की कहां जरूरत है?” मंगल ने प्रतिरोध किया. लेकिन स्त्री के हठ से भला कौन जीत सका है जो आज मंगल जीत पाता. मेघा के प्रयास रंग लाए और मंगल की नापसंदगी तथा खुद माला की लाख नानुकुर के बाद भी माला सोम के साथ विवाह वचनों से बंधी अपनी बड़ी बहन की देवरानी बन गई.

समय में बहुत शक्ति होती है. बड़े से बड़े घाव भी समय के साथ भर जाते हैं. खरोचों के निशान हलके पड़तेपड़ते एक दिन अदृश्य हो जाते हैं. माला के साथ भी यही हुआ. जवानी के उफनते झरने पर सोम के प्रेम का बांध बनते ही वह शांत नदी सी बहने लगी. अब उसे गृहस्थी में रस आने लगा था. मेघा खुश थी कि उस ने बिगड़ती बात को संभाल लिया था. बहन के घर आने से अब बच्चे की देखभाल के लिए उसे हलकान नहीं होना पड़ता. चौकाचूल्हा भी माला देख लेती है.

थके शरीर को बिस्तर मिलते ही व्यक्ति पहले जरा आराम से लेटता है, फिर आंखें बंद कर दिमाग को शांत करता है और आखिरकार सो जाता है. माला के आने के बाद भी यही हुआ. धीरेधीरे घर की सारी जिम्मेदारी माला पर डाल कर मेघा निश्चिंत हो गई. माला भी खुश थी. दोनों बहनें बारीबारी से मां और सासससुर दोनों की देखभाल कर रही थीं. अपने वादे के अनुसार मेघा आज भी अपनी तनख्वाह का तीसरा हिस्सा ही अपने पास रखती है. शेष 2 हिस्से मां और माला को देती है. इस एक हिस्से से माला और सोम का जेबखर्च निकल आता है. बाकी के खर्चे मंगल और ससुरजी देखते ही हैं.

मेघा ने इतनी तरल जिंदगी की तो कल्पना भी नहीं की थी लेकिन हकीकत को भी भला कैसे झुठलाया जा सकता है. शायद जिंदगी अपनी पिछली गलतियों का पश्चात्ताप कर रही थी. इतने कांटों के बाद कुछ फूलों पर भी हक़ तो बनता ही है.

देखते ही देखते दो हजार बीस का साल आ गया. यह बरस तो मनहूसियत के साथ ही अवतरित हुआ था. चारों तरफ कोरोनाकोरोना का ही तांडव मच रहा था. हर कोई डर के साए में जी रहा था. कौन जाने मौत का अगला शिकार कौन हो. एकएक दिन भारी बीत रहा था.

‘आज तो ठीक है, कल पता नहीं क्या हो.’ हर स्वस्थ व्यक्ति यही सोच रहा था. किसी को जरा सी भी छींक या खांसी आने पर लोग उसे संदिग्ध दृष्टि से देखने लगते. कोई अपना मास्क सही करने लगता तो कोई दो फुट दूर सरक लेता. व्यक्ति से व्यक्ति के बीच अविश्वास की खाई बन गई.

मेघा भी अपने परिवार की सुरक्षा के लिए पूरी तरह सतर्क थी और फिलहाल अभी तक इस महामारी की चपेट में आने से सभी बचे हुए थे.

एक मौका और दीजिए : बहकने लगे सुलेखा के कदम -भाग 3

दर्द से उसे यों तड़पता देख कर उस ने दूध मेज पर रखा तथा उस के पास ‘क्या हुआ’ कहती हुई आई. उस के आते ही उस ने हाथपैर ढीले छोड़ दिए तथा सांस रोक कर ऐसे लेट गया मानो जान निकल गई हो. वह बचपन से तालाब में तैरा करता था, अत: 5 मिनट तक सांस रोक कर रखना उस के बाएं हाथ का खेल था.

सुलेखा ने उस के शांत पड़े शरीर को छूआ, थोड़ा झकझोरा, कोई हरकत न पा कर बोली, ‘‘लगता है, यह तो मर गए…अब क्या करूं…किसे बुलाऊं?’’

मनीष को उस की यह चिंता भली लगी. अभी वह अपने नाटक का अंत करने की सोच ही रहा था कि सुलेखा की आवाज आई :

‘‘सुयश, हमारे बीच का कांटा खुद ही दूर हो गया.’’

‘‘क्या, तुम सच कह रही हो?’’

‘‘विश्वास नहीं हो रहा है न, अभीअभी हार्टअटैक से मनीष मर गया. अब हमें विवाह करने से कोई नहीं रोक पाएगा…मम्मी, पापा के कहने से मैं ने मनीष से विवाह तो कर लिया पर फिर भी तुम्हारे प्रति अपना लगाव कम नहीं कर सकी. अब इस घटना के बाद तो उन्हें भी कोई एतराज नहीं होगा.

‘‘देखो, तुम्हें यहां आने की कोई आवश्यकता नहीं है. बेवजह बातें होंगी. मैं नीलेश भाई साहब को इस बात की सूचना देती हूं, वह आ कर सब संभाल लेंगे…आखिर कुछ दिनों का शोक तो मुझे मनाना ही होगा, तबतक तुम्हें सब्र करना होगा,’’ बातों से खुशी झलक रही थी.

‘पहले दूध पी लूं फिर पता नहीं कितने घंटों तक कुछ खाने को न मिले,’ बड़बड़ाते हुए सुलेखा ने दूध का गिलास उठाया और पास पड़ी कुरसी पर बैठ कर पीने लगी.

मनीष सांस रोके यह सब देखता, सुनता और कुढ़ता रहा. दूध पी कर वह उठी और बड़बड़ाते हुए बोली, ‘अब नीलेश को फोन कर ही देना चाहिए…’ उसे फोन मिला ही रही थी कि  मनीष उठ कर बैठ गया.’

‘‘तुम जिंदा हो,’’ उसे बैठा देख कर अचानक सुलेखा के मुंह से निकला.

‘‘तो क्या तुम ने मुझे मरा समझ लिया था…?’’ मनीष बोला, ‘‘डार्लिंग, मेरे शरीर में हलचल नहीं थी पर दिल तो धड़क रहा था. लेकिन खुशी के अतिरेक में तुम्हें नब्ज देखने या धड़कन सुनने का भी ध्यान नहीं रहा. तुम ने ऐसा क्यों किया सुलेखा? जब तुम किसी और से प्यार करती थीं तो मेरे साथ विवाह क्यों किया?’’

‘‘तो क्या तुम ने सब सुन लिया?’’ कहते हुए वह धम्म से बैठ गई.

‘‘हां, तुम्हारी सचाई जानने के लिए मुझे यह नाटक करना पड़ा था. अगर तुम उस के साथ रहना चाहती थीं तो मुझ से एक बार कहा होता, मैं तुम दोनों को मिला देता, पर छिपछिप कर उस से मिलना क्या बेवफाई नहीं है.

‘‘10 महीने मेरे साथ एक ही कमरे में मेरी पत्नी बन कर गुजारने के बावजूद आज अगर तुम मेरी नहीं हो सकीं तो क्या गारंटी है कल तुम उस से भी मुंह नहीं मोड़ लोगी…या सुयश तुम्हें वही मानसम्मान दे पाएगा जो वह अपनी प्रथम विवाहित पत्नी को देता…जिंदगी एक समझौता है, सब को सबकुछ नहीं मिल जाता, कभीकभी हमें अपनों के लिए समझौते करने पड़ते हैं, फिर जब तुम ने अपने मातापिता के लिए समझौता करते हुए मुझ से विवाह किया तो उस पर अडिग क्यों नहीं रह पाईं…अगर उन्हें तुम्हारी इस भटकन का पता चलेगा तो क्या उन का सिर शर्म से नीचा नहीं हो जाएगा?’’

‘‘मुझे माफ कर दो, मनीष. मुझ से बहुत बड़ी गलती हो गई,’’ सुलेखा ने उस के कदमों पर गिरते हुए कहा.

‘‘अगर तुम इस संबंध को सच्चे दिल से निभाना चाहती हो तो मैं भी सबकुछ भूल कर आगे बढ़ने को तैयार हूं और अगर नहीं तो तुम स्वतंत्र हो, तलाक के पेपर तैयार करवा लेना, मैं बेहिचक हस्ताक्षर कर दूंगा…पर इस तरह की बेवफाई कभी बरदाश्त नहीं कर पाऊंगा.’’

उसी समय सुलेखा का मोबाइल खनखना उठा…

‘‘सुयश, आइंदा से तुम मुझे न तो फोन करना और न ही मिलने की कोशिश करना…मेरे वैवाहिक जीवन में दरार डालने की कोशिश, अब मैं बरदाश्त नहीं करूंगी,’’ कहते हुए सुलेखा ने फोन काट दिया तथा रोने लगी.

उस के बाद फिर फोन बजा पर सुलेखा ने नहीं उठाया. रोते हुए बारबार उस के मुंह से एक ही बात निकल रही थी, ‘‘प्लीज मनीष, एक मौका और दे दो…अब मैं कभी कोई गलत कदम नहीं उठाऊंगी.’’

उस की आंखों से निकलते आंसू मनीष के हृदय में हलचल पैदा कर रहे थे पर मनीष की समझ में नहीं आ रहा था कि वह उस की बात पर विश्वास करे या न करे. जो औरत उसे पिछले 10 महीने से बेवकूफ बनाती रही…और तो और जिसे उस की अचानक मौत इतनी खुशी दे गई कि उस ने डाक्टर को बुला कर मृत्यु की पुष्टि कराने के बजाय अपने प्रेमी को मृत्यु की सूचना  ही नहीं दी, अपने भावी जीवन की योजना बनाने से भी नहीं चूकी…उस पर एकाएक भरोसा करे भी तो कैसे करे और जहां तक मौके का प्रश्न है…उसे एक और मौका दे सकता है, आखिर उस ने उस से प्यार किया है, पर क्या वह उस से वफा कर पाएगी या फिर से वह उस पर वही विश्वास कर पाएगा…मन में इतना आक्रोश था कि वह बिना सुलेखा से बातें किए करवट बदल कर सो गया.

दूसरा दिन सामान्य तौर पर प्रारंभ हुआ. सुबह की चाय देने के बाद सुलेखा नाश्ते की तैयारी करने लगी तथा वह पेपर पढ़ने लगा. तभी दरवाजे की घंटी बजी. दरवाजा मनीष ने खोला तो सामने किसी अजनबी को खड़ा देख वह चौंका पर उस से भी अधिक वह आगंतुक चौंका.

वह कुछ कह पाता इस से पहले ही मनीष जैसे सबकुछ समझ गया और सुलेखा को आवाज देते हुए अंदर चला गया, पर कान बाहर ही लगे रहे.

सुलेखा बाहर आई. सुयश को खड़ा देख कर चौंक गई. वह कुछ कह पाता इस से पहले ही तीखे स्वर में सुलेखा बोली, ‘‘जब मैं ने कल तुम से मिलने या फोन करने के लिए मना कर दिया था उस के बाद भी तुम्हारी यहां मेरे घर आने की हिम्मत कैसे हुई. मैं तुम से कोई संबंध नहीं रखना चाहती…आइंदा मुझ से मिलने की कोशिश मत करना.’’

सुयश का उत्तर सुने बिना सुलेखा ने दरवाजा बंद कर दिया और किचन में चली गई. आवाज में कोई कंपन या हिचक नहीं थी.

वह नहाने के लिए बाथरूम गया तो सबकुछ यथास्थान था. तैयार हो कर बाहर आया तो नाश्ता लगाए सुलेखा उस का इंतजार कर रही थी. नाश्ता भी उस का मनपसंद था, आलू के परांठे और मीठा दही.

आफिस जाते समय उस के हाथ में टिफिन पकड़ाते हुए सुलेखा ने सहज स्वर में पूछा, ‘‘आज आप जल्दी आ सकते हैं. रीजेंट में बाबुल लगी है…अच्छी पिक्चर है.’’

‘‘देखूंगा,’’ न चाहते हुए भी मुंह से निकल गया.

गाड़ी स्टार्ट करते हुए मनीष सोच रहा था कि वास्तव में सुलेखा ने स्वयं को बदल लिया है या दिखावा करने की कोशिश कर रही है. सचाई जो भी हो पर वह उसे एक मौका अवश्य देगा.

कार पूल : शेयरिंग कैब में भिड़े दो दिल

अर्पित अहमदाबाद एक संभ्रांत परिवार का लड़का था. लड़का क्या, नवयुवक था. सरकारी नौकरी करते हुए 6 माह हो चुके थे. उस के पास स्वयं की कार थी, लेकिन वह पूल वाली कैब से औफिस जाना पसंद करता था. शहर में कैब की सर्विस बहुत अच्छी थी.

अर्पित खुशमिजाज इनसान था. कैब में सहयात्रियों और कैब चालक से बात करना उस को अच्छा लगता था.

उस दिन भी वह औफिस से घर वापसी आते हुए रोज की तरह शेयरिंग वाली कैब से आ रहा था. रास्ते में श्रेया नाम की एक और सवारी उस कैब में सवार होनी थी.

अर्पित की आदत थी कि शेयरिंग कैब में वह पीछे की सीट पर जिस तरफ बैठा होता था, उस तरफ का गेट लौक कर देता था. उस दिन भी ऐसा ही था. श्रेया को लेने जब कैब पहुंची, तो उस ने अर्पित वाली तरफ के गेट को खोल कर बैठने की कोशिश की, पर गेट लौक होने के कारण उस का गेट खोलने में असफल रही श्रेया झल्ला कर कार की दूसरी तरफ से गेट खोल कर बैठ गई. युद्ध की स्थिति तुरंत ही बन गई और सारे रास्ते अर्पित और श्रेया लड़ते हुए गए.

घर आने पर अर्पित उतर गया. श्रेया के लिए ये वाकिआ बरदाश्त के बाहर था. असल में श्रेया को अपने लड़की होने का बहुत गुरूर था. आज तक उस ने लड़को को अपने आसपास चक्कर काटते ही देखा था. कोई लड़का इतनी बुरी तरह से उस से पहली बार उलझा था. श्रेया के तनबदन में आग लगी हुई थी.

अर्पित का घर श्रेया ने उस दिन देख ही लिया था. नामपते की जानकारी से श्रेया ने अर्पित के बारे में सबकुछ पता कर लिया और तीसरे ही दिन अर्पित के घर से 50 मीटर दूर आ कर लगभग उसी समय के अंदाजे के साथ कैब बुकिंग का प्रयास किया. जब अर्पित सुबह औफिस के लिए निकलता था.

श्रेया का भाग्य कहिए या अर्पित का दुर्भाग्य, श्रेया को अर्पित वाली कैब में ही बुकिंग मिल गई, एक कुटिल मुसकान कैब वाले एप पर ‘‘अर्पित के साथ पूल्ड‘‘ देख कर श्रेया के चेहरे पर तैर गई.

जिस तरफ श्रेया खड़ी थी, उसी तरफ कैब आती होने के कारण श्रेया को पिक करती हुई कैब अर्पित के घर के सामने रुकी. अर्पित बेखयाली में ड्राइवर के बगल वाली सीट पर सवार हो गया, तभी उसे पीछे से खनकती हुई आवाज आई, ‘‘कैसे हो अर्पितजी ?”

अर्पित ने चैंकते हुए पीछे मुड़ कर देखा, तो श्रेया सकपका गई, क्योंकि 3 दिन पुराना वाकिआ उसे याद आ गया लेकिन आज श्रेया के बात की शुरुआत करने का अंदाज ही अलग था, सो धीरेधीरे श्रेया और अर्पित की बातचीत दोस्ती में बदल गई.

दोनों का गंतव्य अभी बहुत दूर था. अर्पित कैब को रुकवा कर पीछे वाली सीट पर श्रेया के बगल में जा कर बैठ गया. एकदूसरे के फोन नंबर लिएदिए गए. अर्पित अपना औफिस आने पर उतर गया और श्रेया ने गरमजोशी से हाथ मिला कर उस को विदा किया.

अर्पित के मानो पंख लग गए. औफिस में अर्पित सारे दिन चहकाचहका रहा. दोपहर में श्रेया का फोन आया, तो अर्पित का तनबदन झूम उठा. श्रेया ने उस को लंच साथ करने का प्रस्ताव रखा, जो उस ने सहर्ष स्वीकार कर लिया.

दोपहर तकरीबन 1 बजे दोनों अर्पित के औफिस से थोड़ी दूर एक रेस्तरां में मिले और साथ लंच लिया.

अब तो यह लगभग रोज का ही किस्सा बन गया. औफिस के बाद शाम को भी दोनों मिलने लगे और साथसाथ घूमतेफिरते दोनों के बीच में जैसे प्यार के अंकुर फूट के खिलने लगे.

एक दिन श्रेया ने अंकुर को दोपहर में फोन कर के बताया कि शाम तक वह घर में अकेली है और अगर अर्पित उस के घर आ जाए, तो दोनों ‘अच्छा समय‘ साथ बिता सकते हैं. अर्पित के सिर पर प्यार का भूत पूरी तरह से चढ़ा हुआ था. अपने बौस को तबीयत खराब का बहाना बना कर अर्पित श्रेया के घर के लिए निकल पड़ा.

आने वाले किसी भी तूफान से बेखबर, मस्ती और वासना में चूर अर्पित श्रेया के घर पहुंचा और डोरबैल बजाई. एक मादक अंगड़ाई लेते हुए श्रेया ने अपने घर का दरवाजा खोला.

श्रेया के गीले और खुले बाल और नाइट गाउन में ढंका बदन देख कर अर्पित की खुमारी और परवान चढ़ गई. श्रेया ने अर्पित को अंदर ले कर गेट बंद कर दिया.

कुछ ही देर में दोनों एकदूसरे के आगोश में आ गए और एक प्यार भरे रास्ते पर निकल पड़े.

अर्पित ने श्रेया के बदन से कपड़े जुदा करने में कोई जल्दबाजी नहीं दिखाई. उस ने श्रेया के पूरे बदन पर मादकता से फोरप्ले करते हुए समूचे जिस्म को प्यार से सहलाया.

धीरेधीरे अब अर्पित श्रेया के बदन से कपड़े जुदा करने लगा. एकाएक ही श्रेया जोरजोर से चिल्लाने लगी. अर्पित को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वह चिल्ला क्यों रही है. कुछ ही पलों में अड़ोसपड़ोस के बहुत से लोग जमा हो गए और श्रेया के घर के अंदर आ गए.

श्रेया ने चुपचाप मेन गेट पहले ही खोल दिया था. श्रेया ने सब को बताया कि अर्पित जबरदस्ती घर में घुस कर उस का बलात्कार करने की कोशिश कर रहा था. उन मे से एक आदमी ने पुलिस को फोन कर दिया. ये सब इतनी जल्दी हुआ कि अर्पित को सोचनेसमझने का मौका नहीं मिला. थोड़ी ही देर बाद अर्पित सलाखों के पीछे था.

श्रेया ने उस दिन की छोटी सी लड़ाई का विकराल बदला ले डाला था.

जेल में 48 घंटे बीतने के साथ ही अर्पित को नौकरी से सस्पैंड किया जा चुका था. अर्पित को अपना पूरा भविष्य अंधकरमय नजर आने लगा और कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था.

कोर्ट में कई बार पेश किए जाने के उपरांत आज जज ने उस के लिए सजा मुकर्रर करने की तारीख रखी थी. अंतिम सुनवाई के उपरांत जज साहिबा जैसे ही अपना फैसला सुनाने को हुईं, अचानक ही इंस्पैक्टर प्रकाश ने कोर्ट मे प्रवेश करते हुए जज साहिबा से एक सुबूत पेश करने की इजाजत मांगी. मामला संगीन था और जज साहिबा बड़ी सजा सुनाने के मूड में थीं, इसलिए उन्होंने इंस्पैक्टर प्रकाश को अनुमति दे दी.

इंस्पैक्टर प्रकाश के साथ अर्पित का सहकर्मी विकास था और विकास के मोबाइल में अर्पित और श्रेया के बीच हुए प्रेमालाप की और श्रेया के मादक आहें भरने और अर्पित की वासना को और भड़काने के लिए प्रेरित करने की समूची औडियो रिकौर्डिंग मौजूद थी. दरअसल, जिस समय दोनों का प्रेमालाप शुरू होने वाला था, उसी समय विकास ने अर्पित की तबीयत पूछने के लिए उस को फोन मिलाया था और अर्पित ने गलती से फोन काटने के बजाय रिसीव कर के बेड के एक तरफ रख दिया था. विकास ने सारी काल रिकौर्ड कर ली थी.

श्रेया और अर्पित के बीच हुआ सारा वार्तालाप और श्रेया की वासना भरी आहें व अर्पित को बारबार उकसाने का प्रमाण उस सारी रिकौर्डिंग से सर्वविदित हो गया.

अदालत के निर्णय लिए जाने वाले दिन पूर्व में श्रेया द्वारा रूपजाल में फंसाए हुए अनिल ने भी अदालत में श्रेया के खिलाफ बयान दिया, जिस से श्रेया का ऐयाश होना और पुख्ता हो गया.

अदालत ने तमाम सुबूतों को मद्देनजर रखते हुए यह संज्ञान लिया कि श्रेया एक ऐयाश लड़की थी और भोलेभाले नौजवानों को अपने रूपजाल में फंसा कर उन के पैसों पर मौजमस्ती और ऐश करती थी. एक बेगुनाह नौजवान की जिंदगी बरबाद होने से बच गई. श्रेया को चरित्रहीनता और झूठे आरोप लगा कर युवक को बरबाद करने का प्रयास करने का आरोपी करार देते हुए जज ने जम कर फटकार लगाई. जज ने श्रेया को भविष्य में कुछ भी गलत करने पर सख्त सजा की चेतावनी देते हुए अर्पित को बाइज्जत बरी करने के आदेश दिए.

अर्पित ने मन ही मन ऊपर वाले का शुक्रिया अदा करते हुए भविष्य में एक सादगी भरी जिंदगी जीने का निर्णय लिया.

कर्णफूल : क्यों अपनी ही बहन पर शक करने लगी अलीना-भाग 3

अलीना बाजी के बेटे की सालगिरह फरवरी में थी. उन्होंने फोन कर के कहा कि वह अपने बेटे अशर की सालगिरह नानी के घर मनाएंगी. मैं और अम्मी बहुत खुश हुए. बडे़ उत्साह से पूरे घर को ब्राइट कलर से पेंट करवाया. कुछ नया फर्नीचर भी लिया. एक हफ्ते बाद अलीना आपी अपने शौहर समर के साथ आ गईं. घर के डेकोरेशन को देख कर वह बहुत खुश हुईं.

सालगिरह के दिन सुबह से ही सब काम शुरू हो गए. दोस्तोंरिश्तेदारों सब को बुलाया. मैं और अम्मी नाश्ते के बाद इंतजाम के बारे में बातें करने लगे. खाना और केक बाहर से आर्डर पर बनवाया था. उसी वक्त अलीना आपी आईं और अम्मी से कहने लगीं, ‘‘अम्मी, ये लीजिए झूमर संभाल कर रख लीजिए और मुझे वे कर्णफूल दे दीजिए. आज मैं अशर की सालगिरह में पहनूंगी.’’

अम्मी ने मुझ से कहा, ‘‘जाओ मलीहा, वह डिबिया निकाल कर ले आओ.’’ मैं ने डिबिया ला कर अम्मी के हाथ पर रख दी. आपी ने बड़ी बेसब्री से डिबिया उठा कर खोली. लेकिन डिबिया खुलते ही वह चीख पड़ीं, ‘‘अम्मी कर्णफूल तो इस में नहीं है.’’

अम्मी ने झपट कर डिबिया उन के हाथ से ले ली. वाकई डिबिया खाली थी. अम्मी एकदम हैरान सी रह गईं. मेरे तो जैसे हाथोंपैरों की जान ही निकल गई. अलीना आपी की आंखों में आंसू आ गए थे. उन्होंने मुझे शक भरी नजरों से देखा तो मुझे लगा कि काश धरती फट जाए और मैं उस में समा जाऊं.

अलीना आपी गुस्से में जा कर अपने कमरे में लेट गईं. मैं ने और अम्मी ने अलमारी का कोनाकोना छान मारा, पर कहीं भी कर्णफूल नहीं मिले. अजब पहेली थी. मैं ने अपने हाथ से डिबिया अलमारी में रखी थी. उस के बाद कभी निकाली भी नहीं थी. फिर कर्णफूल कहां गए?

एक बार ख्याल आया कि कुछ दिनों पहले चाचाचाची आए थे और चाची दादी के जेवरों की वजह से अम्मी से बहुत जलती थीं. क्योंकि सब कीमती चीजें उन्होंने अम्मी को दी थीं. कहीं उन्होंने ही तो मौका देख कर नहीं निकाल लिए कर्णफूल. मैं ने अम्मी से कहा तो वह कहने लगीं, ‘‘मुझे नहीं लगता कि वह ऐसा कर सकती हैं.’’

फिर मेरा ध्यान घर पेंट करने वालों की तरफ गया. उन लोगों ने 3-4 दिन काम किया था. संभव है, भूल से कभी अलमारी खुली रह गई हो और उन्हें हाथ साफ करने का मौका मिल गया हो. अम्मी कहने लगीं, ‘‘नहीं बेटा, बिना देखे बिना सुबूत किसी पर इलजाम लगाना गलत है. जो चीज जानी थी, चली गई. बेवजह किसी पर इलजाम लगा कर गुनहगार क्यों बनें.’’

सालगिरह का दिन बेरंग हो गया. किसी का दिल दिमाग ठिकाने पर नहीं था. अलीना आपी के पति समर भाई ने सिचुएशन संभाली, प्रोग्राम ठीकठाक हो गया. दूसरे दिन अलीना ने जाने की तैयारी शुरू कर दी. अम्मी ने हर तरह से समझाया, कई तरह की दलीलें दीं, समर भाई ने भी समझाया, पर वह रुकने के लिए तैयार नहीं हुईं. मैं ने उन्हें कसम खा कर यकीन दिलाना चाहा, ‘‘मैं बेकुसूर हूं, कर्णफूल गायब होने के पीछे मेरा कोई हाथ नहीं है.’’

लेकिन उन्हें किसी बात पर यकीन नहीं आया. उन के चेहरे पर छले जाने के भाव साफ देखे जा सकते थे. शाम को वह चली गईं तो पूरे घर में एक बेमन सी उदासी पसर गईं. मेरे दिल पर अजब सा बोझ था. मैं अलीना आपी से शर्मिंदा भी थी कि अपना वादा निभा न सकी.

पिछले 2 सालों में अलीना आपी सिर्फ 2 बार अम्मी से मिलने आईं, वह भी 2-3 दिनों के लिए. आती तो मुझ से तो बात ही नहीं करती थीं. मैं ने बहन के साथ एक अच्छी दोस्त भी खो दी थी. बारबार सफाई देना फिजूल था. खामोशी ही शायद मेरी बेगुनाही की जुबां बन जाए. यह सोच कर मैं ने चुप्पी साध ली. वक्त बड़े से बड़ा जख्म भर देता है. शायद ये गम भी हलका पड़ जाए.

मामूली सी आहट पर मैं ने सिर उठा कर देखा, नर्स खड़ी थी. वह कहने लगी, ‘‘पेशेंट आप से मिलना चाहती हैं.’’

मैं अतीत की दुनिया से बाहर आ गई. मुंह धो कर मैं अम्मी के पास आईसीयू में पहुंच गई. अम्मी काफी बेहतर थीं. मुझे देख कर उन के चेहरे पर हलकी सी मुसकराहट आ गईं. वह मुझे समझाने लगीं, ‘‘बेटी, परेशान न हो, इस तरह के उतारचढ़ाव तो जिंदगी में आते ही रहते हैं. उन का हिम्मत से मुकाबला कर के ही हराया जा सकता है.’’

मैं ने उन्हें हल्का सा नाश्ता कराया. डाक्टरों ने कहा, ‘‘इन की हालत काफी ठीक है. आज रूम में शिफ्ट कर देंगे. 2-4 दिन में छुट्टी दे दी जाएगी. हां, दवाई और परहेज का बहुत खयाल रखना पड़ेगा. ऐसी कोई बात न हो, जिस से इन्हें स्ट्रेस पहुंचे.’’

शाम तक अलीना आपी भी आ गईं. मुझ से बस सलामदुआ हुई. वह अम्मी के पास रुकीं. मैं घर आ गई. 3 दिनों बाद अम्मी भी घर आ गई. अब उन की तबीयत अच्छी थी. हम उन्हें खुश रखने की भरसक कोशिश करते रहे. एक हफ्ता तो अम्मी को देखने आने वालों में गुजर गया.

मैं ने औफिस जौइन कर लिया. अम्मी के बहुत इसरार पर आपी कुछ दिन रुकने को राजी हो गईं. जिंदगी सुकून से गुजरने लगी. अब अम्मी हलकेफुलके काम कर लेती थीं. अलीना आपी और उन के बेटे की वजह से घर में अच्छी रौनक थी.उस दिन छुट्टी थी, मैं घर की सफाई में जुट गई. अम्मी कहने लगीं, ‘‘बेटा, गाव तकिए फिर बहुत सख्त हो गए हैं. एक बार खोल कर रुई तोड़ कर भर दो.’’

अन्नामां तकिए उठा लाईं और उन्हें खोलने लगीं. फिर मैं और अन्नामां रुई, तोड़ने लगीं. कुछ सख्त सी चीज हाथ को लगीं तो मैं ने झुक कर नीचे देखा. मेरी सांस जैसे थम गईं. दोनों कर्णफूल रुई के ढेर में पड़े थे. होश जरा ठिकाने आए तो मैं ने कहा, ‘‘देखिए अम्मी ये रहे कर्णफूल.’’

आपी ने कर्णफूल उठा लिए और अम्मी के हाथ पर रख दिए. अम्मी का चेहरा खुशी से चमक उठा. जब दिल को यकीन आ गया कि कर्णफूल मिल गए और खुशी थोड़ी कंट्रोल में आई तो आपी बोलीं, ‘‘ये कर्णफूल यहां कैसे?’’

अम्मी सोच में पड़ गईं. फिर रुक कर कहने लगीं, ‘‘मुझे याद आया अलीना, उस दिन भी तुम लोग तकिए की रुई तोड़ रहीं थीं. तभी मैं कर्णफूल निकाल कर लाई थी. हम उन्हें देख ही रहे थे, तभी घंटी बजी थी. मैं जल्दी से कर्णफूल डिबिया में रखने गई, पर हड़बड़ी में घबरा कर डिबिया के बजाय रुई में रख दिए और डिबिया तकिए के पीछे रख दी थी.

‘‘कर्णफूल रुई में दब कर छिप गए. कश्मीरी शाल वाले के जाने के बाद डिबिया तो मैं ने अलमारी में रखवा दी, लेकिन कर्णफूल रुई  में दब कर रुई के साथ तकिए में भर गए. मलीहा ने तकिए सिले और कवर चढ़ा कर रख दिए. हम समझते रहे कि कर्णफूल डिबिया में अलमारी में रखे हैं. जब अशर की सालगिरह के दिन अलीना ने तुम से कर्णफूल मांगे तो पता चला कि उस में कर्णफूल है ही नहीं. अलीना तुम ने सारा इलजाम मलीहा पर लगा दिया.’’

अम्मी ने अपनी बात खत्म कर के एक गहरी सांस छोड़ी. अलीना के चेहरे पर फछतावा था. दुख और शर्मिंदगी से उन की आंखें भर आईं. वह दोनों हाथ जोड़ कर मेरे सामने खडी हो गईं. रुंधे गले से कहने लगीं, ‘‘मेरी बहन मुझे माफ कर दो. बिना सोचेसमझे तुम पर दोष लगा दिया. पूरे 2 साल तुम से नाराजगी में बिता दिए. मेरी गुडि़या, मेरी गलती माफ कर दो.’’

मैं तो वैसे भी प्यारमोहब्बत को तरसी हुई थी. जिंदगी के रेगिस्तान में खड़ी हुई थी. मेरे लिए चाहत की एक बूंद अमृत के समान थी. मैं आपी से लिपट कर रो पड़ी. आंसुओं से दिल में फैली नफरत व जलन की गर्द धुल गई. अम्मी कहने लगीं, ‘‘अलीना, मैं ने तुम्हें पहले भी समझाया था कि मलीहा पर शक न करो. वह कभी भी तुम से छीन कर कर्णफूल नहीं लेगी. उस का दिल तुम्हारी चाहत से भरा है. वह कभी तुम से छल नहीं करेगी.’’

आपी बोलीं, ‘‘अम्मी, आप की बात सही है, पर एक मिनट मेरी जगह खुद को रख कर सोचिए, मुझे एंटिक ज्वैलरी का दीवानगी की हद तक शौक है. ये कर्णफूल बेशकीमती एंटिक पीस हैं, मुझे मिलने चाहिए. पर आप ने मलीहा को दे दिए. मुझे लगा कि मेरी इल्तजा सुन कर वह मान गई, फिर उस की नीयत बदल गई. उस की चीज थी, उस ने गायब कर दी, ऐसा सोचना मेरी खुदगर्जी थी, गलती थी. इस की सजा के तौर पर मैं इन कर्णफूल का मोह छोड़ती हूं. इन पर मलीहा का ही हक है.’’

मैं जल्दी से आपी से लिपट कर बोली, ‘‘ये कर्णफूल आप के पहनने से मुझे जो खुशी होगी, वह खुद के पहनने से नहीं होगी. ये आप के हैं, आप ही लेंगी.’’

अम्मी ने भी समझाया, ‘‘बेटा जब मलीहा इतनी मिन्नत कर रही है तो मान जाओ, मोहब्बत के रिश्तों के बीच दीवार नहीं आनी चाहिए. रिश्ते फूलों की तरह नाजुक होते हैं, नफरत व शक की धूप उन्हें झुलसा देती है, फिर खुद टूट कर बिखर जाते हैं.’’

मैं ने खुलूसे दिल से आपी के कानों में कर्णफूल पहना दिए. सारा माहौल मोहब्बत की खुशबू से महक उठा.???

एक मौका और दीजिए : बहकने लगे सुलेखा के कदम – भाग 2

उधर मनीष, नीलेश के प्रति अपने व्यवहार के लिए स्वयं को धिक्कार रहा था. पहली बार ऐसा हुआ था कि कोई प्रोग्राम बनने से पूर्व ही अधर में लटक गया था पर वह करता भी तो क्या करता. नीलेश की बातें सुन कर उस के दिल में  शक का कीड़ा कुलबुला कर नागफनी की तरह डंक मारते हुए उसे दंशित करने लगा था.

वह जानता था कि उसे महीने में 10-12 दिन घर से बाहर रहना पड़ता है. ऐसे में हो सकता है सुलेखा की किसी के साथ घनिष्ठता हो गई हो. इस में  कुछ बुरा भी नहीं है पर उसे यही विचार परेशान कर रहा था कि सुलेखा ने उस सुयश नामक व्यक्ति से उसे क्यों नहीं मिलवाया, जबकि नीलेश के अनुसार वह उस से मिलती रहती है. और तो और उस ने उस का नीलेश से अपना ममेरा भाई बता कर परिचय भी करवाया…जबकि उस की जानकारी में उस का कोई ममेरा भाई है ही नहीं…उसे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे पर सिर्फ अनुमान के आधार पर किसी पर दोषारोपण करना उचित भी तो नहीं है.

एक दिन जब सुलेखा बाथरूम में थी तो वह उस का सैलफोन सर्च करने लगा. एक नंबर  उसे संशय में डालने लगा क्योंकि उसे बारबार डायल किया गया था. नाम था सुश…सुश. नीलेश की जानकारी में सुलेखा का कोई दोस्त नहीं है फिर उस से बारबार बातें क्यों किया करती है और अगर उस का कोई दोस्त है तो उस ने उसे बताया क्यों नहीं. मन ही मन मनीष ने सोचा तो उस के अंतर्मन ने कहा कि यह तो कोई बात नहीं कि वह हर बात तुम्हें बताए या अपने हर मित्र से तुम्हें मिलवाए.

पर जीवन में पारदर्शिता होना, सफल वैवाहिक जीवन का मूलमंत्र है. अपने अंदर उठे सवाल का वह खुद जवाब देता है कि वह तुम्हारा हर तरह से तो खयाल रखती है, फिर मन में शंका क्यों?

‘शायद जिसे हम हद से ज्यादा प्यार करते हैं, उसे खो देने का विचार ही मन में असुरक्षा  पैदा कर देता है.’

‘अगर ऐसा है तो पता लगा सकते हो, पर कैसे?’

मन तर्कवितर्क में उलझा हुआ था. अचानक सुश और सुयश में उसे कुछ संबंध नजर आने लगा और उस ने वही नंबर डायल कर दिया.

‘‘बोलो सुलेखा,’’ उधर से किसी पुरुष की आवाज आई.

पुरुष स्वर सुन कर उसे लगा कि कहीं गलत नंबर तो नहीं लग गया अत: आफ कर के पुन: लगाया, पुन: वही आवाज आई…

‘‘बोलो सुलेखा…पहले फोन क्यों काट दिया, कुछ गड़बड़ है क्या?’’

उसे लगा नीलेश ठीक ही कह रहा था. सुलेखा उस से जरूर कुछ छिपा रही है… पर क्यों, कहीं सच में तो उस के पीछे उन दोनों में… अभी वह यह सोच ही रहा था कि सुलेखा नहा कर आ गई. उस के हाथ में अपना मोबाइल देख कर बोली, ‘‘कितनी बार कहा है, मेरा मोबाइल मत छूआ करो.’’

‘‘मेरे मोबाइल से कुछ नंबर डिलीट हो गए थे, उन्हीं को तुम्हारे मोबाइल से अपने में फीड कर रहा था,’’ न जाने कैसे ये शब्द उस की जबान से फिसल गए.

अपनी बात को सिद्ध करने के लिए वह ऐसा ही करने लगा जैसा उस ने कहा था. इसी बीच उस ने 2 आउटगोइंग काल, जो सुश को करे थे उन्हें भी डिलीट कर दिया, जिस से अगर वह सर्च करे तो उसे पता न चले.

अब संदेह बढ़ गया था पर जब तक सचाई की तह में नहीं पहुंच जाए तब तक वह उस से कुछ भी कह कर संबंध बिगाड़ना नहीं चाहता था. उस की पत्नी का किसी के साथ गलत संबंध है तथा वह उस से चोरीछिपे मिला करती है, यह बात भी वह सह नहीं पा रहा था. न जाने उसे ऐसा क्यों लगने लगा कि वह नामर्द तो नहीं, तभी उस की पत्नी को उस के अलावा भी किसी अन्य के साथ की आवश्यकता पड़ने लगी है.

‘तुम इतने दिन बाहर टूर पर रहते हो, अपने एकाकीपन को भरने के लिए सुलेखा किसी के साथ की चाह करने लगे तो इस में क्या बुराई है?’ अंतर्मन ने पुन: प्रश्न किया.

‘बुराई, संबंध बनाने में नहीं बल्कि छिपाने में है, अगर संबंध पाकसाफ है तो छिपाना क्यों और किस लिए?’

‘शायद इसलिए कि तुम ऐसे संबंध को स्वीकार न कर पाओ…सदा संदेह से देखते रहो.’

‘क्या मैं तुम्हें ऐसा लगता हूं…नए जमाने का हूं…स्वस्थ दोस्ती में कोई बुराई नहीं है.’

‘सब कहने की बात है, अगर ऐसा होता तो तुम इतने परेशान न होते… सीधेसीधे उस से पूछ नहीं लेते?’

‘पूछने पर मन का शक सच निकल गया तो सह नहीं पाऊंगा और अगर गलत निकला तो क्या मैं उस की नजरों में गिर नहीं जाऊंगा.’

‘जल्दबाजी क्यों करते हो, शायद समय के साथ कोई रास्ता निकल ही आए.’

‘हां, यही ठीक रहेगा.’

इस सोच ने तर्कवितर्क में डूबे मन को ढाढ़स बंधाया…उन के विवाह को 10 महीने हो चले थे. वह अपने पी.एफ. में उसे नामिनी बनाना चाहता था, उस के लिए सारी औपचारिकता पूरी कर ली थी. बस, सुलेखा के साइन करवाने बाकी थे. एक एल.आई.सी. भी खुलवाने वाला था, पर इस एपीसोड ने उसे बुरी तरह हिला कर रख दिया. अब उस ने सोचसमझ कर कदम उठाने का फैसला कर लिया.

यद्यपि सुलेखा पहले की तरह सहज, सरल थी पर मनीष के मन में पिछली घटनाओं के कारण हलचल मची हुई थी. एक बार सोचा कि किसी प्राइवेट डिटेक्टर को तैनात कर सुलेखा की जासूसी करवाए, जिस से पता चल सके कि वह कहां, कब और किस से मिलती है पर जितना वह इस के बारे में सोचता, बारबार उसे यही लगता कि ऐसा कर के वह अपनी निजी जिंदगी को सार्वजनिक कर देगा…आखिर ऐसी संदेहास्पद जिंदगी कोई कब तक बिता सकता है. अत: पता तो लगाना ही पड़ेगा, पर कैसे, समझ नहीं पा रहा था.

हफ्ते भर में ही ऐसा लगने लगा कि वह न जाने कितने दिनों से बीमार है. सुलेखा पूछती तो कह देता कि काम की अधिकता के कारण तबीयत ढीली हो रही है…वैसे भी सुलेखा का उस की चिंता करना दिखावा लगने लगा था. आखिर, जो स्त्री उस से छिप कर अपने मित्र से मिलती रही है वह भला उस के लिए चिंता क्यों करेगी?

उस दिन मनीष का मन बेहद अशांत था. आफिस से छुट्टी ले ली थी. सुलेखा ने पूछा तो कह दिया, ‘‘तबीयत ठीक नहीं लग रही है, अत: छुट्टी ले ली.’’

सुलेखा ने डाक्टर को दिखाने की बात कही तो वह टाल गया. आखिर बीमारी मन की थी, तन की नहीं, डाक्टर भी भला क्या कर पाएगा. रात का खाना भी नहीं खाया. सुलेखा के पूछने पर कह दिया कि बस, एक गिलास दूध दे दो, खाने का मन नहीं है. सुलेखा दूध लेने चली गई. उस के कदमों की आहट सुन कर उसे न जाने क्या सूझा कि अचानक अपनी छाती को कस कर दबा लिया तथा दर्द से कराहने लगा.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

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