प्रश्न – भाग 2

लेखक-उषा किरण सोनी

लेकिन क्या पति की मौत के बाद भी दोनों का जिंदगी जीने का नजरिया एक रहा या अलगअलग? स्टेशन से ट्रेन के चलते ही लड़कियां अपने दुपट्टे को संभालती दोनों ओर की सीटों पर आमनेसामने बैठ कर अपनी चुहलबाजी में व्यस्त हो गईं. मैं देख रही थी कि उन के चेहरे प्रसन्नता से दमक रहे थे. सभी हमउम्र थीं और अपने ऊपर कोई बंधन नहीं महसूस कर रही थीं. मेरी अपनी बेटी कीर्ति भी उन के बीच में खिलीखिली लग रही थी. बंधन के नाम पर मैं थी और मुझे वे अपनी मार्गदर्शिका कम सहेली की मां के रूप में अधिक ले रही थीं.

गजाला ने किसी से कुछ सुनाने को कहा तो बड़ीबड़ी आंखों वाली चंचल कणिका बोल पड़ी, ‘‘अच्छा सुनो, मैं तुम सब को एक चुटकुला सुनाती हूं.’’

मैं भी हाथ में पकड़ी पत्रिका रख चुटकुले का आनंद लेने को उन्मुख हो गई.

‘‘एक बार 3 औरतें मृत्यु के बाद यमलोक पहुंचीं. उन के कर्म के अनुसार फैसले के लिए यमराज ने चित्रगुप्त की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि डाली. वह अपनी बही संभालते हुए बोले, ‘देवाधिदेव, इन्हें कहें कि ये खुद अपने कर्मों का बखान करें. मैं बही में दर्ज कर्मों से मिलान करूंगा.’

‘‘यह सुन कर पहली महिला बोली, ‘मैं ने सारा जीवन धर्मकर्म करते, सास- ससुर व पति की सेवा में बिताया. बच्चों को पालापोसा और उन्हें उचित शिक्षा दी. मेरी क्या गति होगी, महाराज बताइए?’

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यमराज ने सिर हिलाते हुए कहा, ‘हूं,’ और दृष्टि दूसरी महिला पर टिका दी.

‘‘वह थोड़ा मुसकराई फिर बोली, ‘मैं ने सासससुर को तो कुछ नहीं समझा और न ही उन की सेवा की, पर पति की खूब सेवा की. मरते दम तक उन की सेवा को अपना धर्म समझा. अब आप के हाथ में है कि मुझे स्वर्ग दें या नरक.’

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‘‘यमराज ने फिर कहा, ‘हूं,’ और दृष्टि तीसरी महिला की ओर घुमा दी.’’

मैं देख रही थी कि कई जोड़ी निगाहें बिना हिले इस चुटकुले के अंतिम भाग को सुनने के लिए उत्सुक थीं. कणिका ने कहना जारी रखा :

‘‘तीसरी महिला ने लटें संवारीं, थोड़ा इठलाई, कमर को झटका दिया फिर यमराज पर बंकिम कटाक्ष किया और लिपस्टिक लगे अधर संपुट खोल अदा से बोली, ‘देखोजी, यमराजजी, मैं ने न तो सासससुर को कुछ समझा न पति को. मैं ने तो जी खूब मौजमस्ती की, क्लब गई, नाचीगाई, मैं तो जी दोस्तों की जान बनी रही.’

‘‘‘बसबस,’ उसे बीच में ही टोक कर यमराज बोले, ‘योर केस इज इंट्रेस्टिंग. चित्रगुप्त, पहली दोनों औरतों को स्वर्ग में भेज दो और (तीसरी औरत की ओर इशारा कर) तुम मेरे कक्ष में आओ.’’’

चुटकुला समाप्त होने से पहले ही डब्बे में हंसी का तूफान आ गया था. खिलखिलाहटें ही खिलखिलाहटें. लड़कियां पेट पकड़पकड़ कर हंस रही थीं. मैं भी अपनी हंसी न रोक सकी.

मुझे अपनी किशोरावस्था याद आ गई. सचमुच वे भी क्या दिन थे? जिंदगी और रंग दोनों एकदूसरे के पर्याय थे उन दिनों. वह प्यारी खूबसूरत आंखों वाली राजकंवर, लगता था नारीत्व और सौंदर्य का अनुपम उदाहरण बना कर ही कुदरत ने उसे धरती पर उतारा था. और मैं, हिरनी सी कुलांचें भरती राजकंवर की अंतरंग सखी.

मुझ में तो मानो स्वयं चपलता ही मूर्तिमान हो उठी थी. क्या एक क्षण भी मैं स्थिर रह पाती थी. सारे खेलकूद, नृत्यनाटक, शायद ही किसी प्रतियोगिता में द्वितीय स्थान प्राप्त किया हो. उधर राजकंवर के कोकिल कंठ की गूंज के बिना कालिज का कोई समारोह पूरा ही नहीं होता था. वह गाती तो लगता मानो साक्षात सरस्वती ही कंठ में आ बैठी हो.

हर शरारत की योजना बनाना और फिर उसे अंजाम देना हम दोनों का काम था. याद आ गई प्रिंसिपल मैडम की सूरत, जब हम ने होली खेलते समय साइंस ब्लाक का शीशा तोड़ा था. मैडम लाख कोशिशों के बाद भी यह पता नहीं लगा सकी थीं. सारी की सारी 13 लड़कियां सिर झुकाए एक कतार में खड़ी डांट खाने के साथसाथ एकदूसरे को कनखियों से देख खुकखुक हंसती रही थीं. हार कर बिना दंड दिए उन्होंने हमें भगा दिया था और हम पूरे एक सप्ताह तक अपनी जीत का मजा लेते रहे थे.

आज इन गिलहरियों की तरह फुदकती लड़कियों को संभालते समय लगा कि सचमुच इन्हें संभालना हवा के झोंके को आंचल में बांध लेने से भी मुश्किल है, अगर किसी तरह हवा को बांध भी लो तो आंचल के झीने आवरण से वह रिस के निकल जाती है न.

गाड़ी की रफ्तार के बीच लड़कियों की ओर नजर घूमी तो पाया कि वे मूंगफलियां खाती पटरपटर बतिया रही थीं और मुद्दा था कि शाहरुख खान ज्यादा स्मार्ट है या आमिर खान. मैं ने हंसते हुए पत्रिका फिर हाथ में उठा ली. आंखें पत्रिका के एक पन्ने पर टिकी थीं पर देख तो शायद पीछे अतीत को रही थी.

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मैं और राज अब बी.ए. फाइनल में आ गए थे और हमारी बातों का विषय भी धर्मेंद्र, जितेंद्र से शुरू हो कर अपने जीवन के हीरो की ओर मुड़ जाता कि कैसा होगा?

मैं कहती, ‘राज, क्यों न हम एक ही घर में शादी करें? मैं तुम्हारे बिना जीने की कल्पना भी नहीं कर सकती.’

राज ने लंबी आह भर कर कहा, ‘काश, ऐसा हो सकता. मैं राजपूत और तुम ब्राह्मण. एक घर में हम दोनों की शादी हो ही नहीं सकती. ऐसी बेसिरपैर की बातें करते कब साल बीता और परीक्षाएं भी हो गईं, पता ही नहीं चला.’

घड़ी आ गई बिछड़ने की. पूरे 3 साल हम साथ रहे थे. अब बिछड़ने की कल्पना से ही हम कांप उठे, पर जाना तो था. मेरे पिता ट्रांसफर हो कर उत्तरकाशी चले गए और परीक्षा समाप्त होते ही मुझे तुरंत बुलाया था.

‘‘आप का टिकट?’’ कानों से आवाज टकराई तो सोच की दुनिया से मैं बाहर निकल आई.  सभी के  टिकट चेकर को दे कर अपने चेहरे पर आए बालों को समेट कर पीछे किया तो चेहरे और बालों का रूखापन उंगलियों से टकराया. विचार उठा, कहां खो गई वह लुनाई. शायद बीता समय चुरा ले गया, साथ ही ले गया राज को जिसे मैं चाह कर भी नहीं पा सकती.

मैं फिर अतीत के पन्ने पलटने लगी.

उत्तरकाशी अपने घर पहुंची तो पापामम्मी और भैया ने प्यार से मुझे नहला दिया. उत्तरकाशी के पहाड़ी सौंदर्य ने मुझे अभिभूत कर दिया पर राज को हर रोज पत्र लिखने का क्रम मैं ने टूटने नहीं दिया. वह भी नियमित उत्तर देती. हम दोनों के पत्रों में जिंदगी के हीरो का ही जिक्र होता.

राज ने एक पत्र में लिखा था कि उस के पिता ने उस के लिए एक डाक्टर वर चुना है, जो किसी रियासत का अकेला चिराग है. भरापूरा गबरू जवान और एक बड़ी जागीर का अकेला वारिस, शिक्षित और संस्कारी पूर्ण पुरुष.

राजकंवर के फोटो को देखते ही वह लट्टू हो गया था… उसे साक्षात देखा तो अपनी सुधबुध ही खो बैठा. और राजकंवर? अनंग सा रूप ले कर घर आए डा. राजेंद्र सिंह को देखते ही दिल दे बैठी थी. उसे लगा जैसे छाती से कुछ निकल गया हो. अपने पत्र में उस ने अपनी बेचैनी निकाल कर रख दी थी.

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घर में मेरी शादी की चर्चा भी होने लगी थी. राज के पत्रों को पढ़ मैं भी उस की भांति किसी अनिरुद्ध की कल्पना से अपना मन रंगने लगी थी. राज के पत्रों से पता लगा कि उस का विवाह नवंबर में होगा. मजे की बात कि उस के विवाह के दिन ही मेरा अनिरुद्ध मुझे देखने आने वाला था.

राज की शादी के बाद उस के पत्रों की संख्या घटने लगी. उसे अपने मन की बातें बांटने को एक नया साथी जो मिल गया था.

अब मेरे मन पर भी लेफ्टिनेंट मदन शर्मा छाने लगे थे. जब वे अपने मातापिता के साथ मुझे देखने आए थे तो मैं खिड़की की झिरी से उन के पुरुषोचित सौंदर्य को देख अवाक् रह गई थी, दिल धड़क उठा और याद आ गई पत्र में लिखी राज की पंक्ति, ‘क्या सचमुच कामदेव ही धरा पर उतर आए हैं या मेरा यह दृष्टि दोष है?

मां जब मुझे उन लोगों के सामने लाईं तो मेरी आंखें ऊपर उठ ही नहीं रही थीं. कब उन्होंने अंगूठी पहनाई याद नहीं पर वह स्पर्श मेरे रोमरोम में बिजली दौड़ाता चला गया था. मुझ पर एक नशा सा छा गया था और उसी में उन के मातापिता के पैर छू कर मैं भीतर चली गई थी.

मैं ने तुरंत अपनी इस अवस्था का विस्तृत वर्णन राज को लिख डाला, पर उत्तर नहीं आया. सोचा मगन होगी. अब मेरी कल्पना के साथी थे मदन. मिलन और सान्निध्य की कल्पना से मैं सिहर उठती.

फरवरी की गुलाबी सर्दी में मेरा जीवनसाथी मुझे पल्लू से गांठ बांध कर अपने घर ले आया और मुझे अपने प्रेम सागर में आकंठ डुबो दिया. अनुशासन भरा सैनिक जीवन जीतेजीते मदन ने अब तक अपने मन को भी चाबुक मारमार कर साध रखा था. इसीलिए मेरा प्रवेश होने पर मुझे संपूर्ण पे्रम से नहला दिया उन्होंने.

मदन अपनी ओर से ढेरों उपहार ला कर देते और उन की मां और बाबूजी ने तो अपनी इकलौती बहू की प्यार और उपहारों से झोली ही भर दी थी. मदन इकलौती संतान जो थे.

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Serial Story : चालबाज शुभी

चालबाज शुभी – भाग 1

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

“अब जाने दो मुझे… रातभर प्यार करने के बाद भी तुम्हारा मन नहीं भरा क्या?” शुभी ने नखरे दिखाते हुए कहा, तो विजय अरोड़ा ने उस का हाथ पकड़ कर फिर से उसे बिस्तर पर गिरा दिया और उस के ऊपर लेट कर पतले और रसीले अधरों का रसपान करने लगा.

“देखो… मैं तो मांस का शौकीन हूं… फिर चाहे वह मेरी खाने की प्लेट में हो या मेरे बिस्तर पर,” विजय अरोड़ा शुभी के सीने के बीच अपने चेहरे को रगड़ने लगा, दोनों ही एकसाथ शारीरिक सुख पाने की चाह में होड़ लगाने लगे और कुछ देर बाद एकदूसरे से हांफते हुए अलग हो गए.

विजय और शुभी की 18 और 20 साल की 2 बेटियां थीं, तो दूसरी तरफ विजय के बड़े भाई अजय अरोड़ा के एक बेटा था, जिस की उम्र 22 साल की थी.

अरोड़ा बंधुओं के पिता रामचंद अरोड़ा चाहते थे कि जो बिजनैस उन्होंने इतनी मेहनत से खड़ा किया है, उस का बंटवारा न करना पड़े, इसलिए वे हमेशा दोनों भाइयों को एकसाथ रहने और काम करने की सलाह देते थे, पर छोटी बहू शुभी को हमेशा लगता रहता था कि पिताजी के दिल में बड़े भाई और भाभी के लिए अधिक स्नेह है, क्योंकि उन के एक बेटा है और उस के सिर्फ बेटियां.

शुभी को यही लगता था कि वे निश्चित रूप से अपनी वसीयत में दौलत का एक बड़ा हिस्सा उस के जेठ के नाम कर जाएंगे.

‘‘भाई साहब देखिए… विजय तो कामधंधे में कोई सक्रियता नहीं दिखाते हैं, पर मुझे अपनी बेटियों को तो आगे बढ़ाना ही है, इसलिए मैं चाहती हूं कि आप मेरी बेटियों को भी अपने बिजनैस में हिस्सा दें और काम के गुर सिखाते रहें,‘‘ शुभी ने अपने जेठ अजय अरोड़ा से कहा.

इस पर अजय ने कहा, ‘‘पर शुभी, बेटियों को तो शादी कर के दूसरे घर जाना होता है… ऐसे में उन्हें अपने बिजनैस के बारे में बताने से क्या फायदा… आखिर इस पूरे बिजनैस को तो मेरे बेटे नरेश को ही संभालना है… हां, तुम्हें अपनी बेटियों को पढ़ानेलिखाने के लिए जितने पैसे की जरूरत हो, उतने पैसे ले सकती हो.”

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शुभी को तो अपने जेठ की नीयत पर पहले से ही शक था और आज उन से बात कर के वह यह जान चुकी थी कि इस पूरी दौलत पर उस के जेठ अजय अरोड़ा और उन के बेटे नरेश का ही वर्चस्व रहने वाला है और इस अरोड़ा ग्रुप का मालिक नरेश को ही बनाया जाना तय है.

शुभी दिनरात इसी उधेड़बुन में रहती कि किस तरह से पूरी दौलत और बिजनैस में बराबरी का हिस्सा लिया जाए, पर ये सब इतना आसान नहीं होने वाला था, बस एक तरीका था कि किसी तरह से नरेश को रास्ते से हटा दिया जाए तभी कुछ हो सकता है, पर एक औरत के लिए किसी को अपने रास्ते से हटा पाना बिलकुल भी आसान नहीं था.

‘मुझे अपनी लड़कियों के भविष्य के लिए कुछ भी करना पड़े मैं करूंगी, चाहे मुझे किसी भी हद तक जाना पड़े,‘ कुछ सोचते हुए शुभी बुदबुदा उठी.

शुभी की जेठानी निम्मी किचन में थी और अपनी नौकरानी को सही काम करने की ताकीद कर रही थी.

“क्या दीदी… सारा दिन आप ही काम करती रहती हो… कभी आराम भी किया करो… ये लो, मैं ने आप के लिए बादाम का शरबत बनाया है. इसे पीने से आप के बदन को ताकत मिल जाएगी,” शुभी ने अपनी जेठानी को बादाम का शरबत पिला दिया. शरबत पीने के कुछ देर बाद ही निम्मी को कुछ उलझन सी होने लगी.

“सुन शुभी… मेरी तबीयत कुछ ठीक सी नहीं लग रही है. जरा तू किचन संभाल ले,” ये कह कर निम्मी आराम करने चली गई.

उस रात अजय अरोड़ा जब अपने बेटे नरेश के साथ काम से लौटे और निम्मी के बारे में पूछा, तो शुभी ने बताया कि उन की तबीयत खराब है, इसलिए वे आराम कर रही हैं. ऐसा कह कर शुभी ने ही उन लोगों को खाना परोसा, जिसे खा कर वे दोनों अपनेअपने कमरों में चले गए.

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निम्मी और उस का बेटा अलगअलग कमरे में सोते थे, जबकि अजय अरोड़ा दूसरे कमरे में, क्योंकि उन को देर रात तक काम करने की आदत थी.

कुछ देर बाद शुभी दूध का गिलास ले कर अपने जेठ अजय अरोड़ा के कमरे में गई और उन के हाथ में गिलास देते समय उस ने बड़ी चतुराई से अपनी साड़ी का पल्लू कुछ इस अंदाज में गिरा दिया कि उस के सीने की गोरीगोरी गोलाइयां ब्लाउज से बाहर आने को बेताब हो उठीं. सहसा ही अजय अरोड़ा की नजरें उस के सीने के अंदर ही घुसती चली गईं.

जेठ अजय अरोड़ा को अपनी ओर इस तरह घूरते देख जल्दी से शुभी अपने पल्लू को सही करने लगी और मुसकराते हुए कमरे से बाहर चली आई.

चालबाज शुभी- भाग 2

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

अजय अरोड़ा ने पूछा, तो प्रतिउत्तर में शुभी जोरों से रोने लगी.

“मैं तो आप को एक नेक इनसान समझती थी, पर मुझे क्या पता था कि आप भी और मर्दों की तरह ही निकलेंगे,” शुभी ने सुबकते हुए कहा.

“आखिर बात क्या है? कुछ तो बताओ,” परेशान हो उठे थे अजय अरोड़ा.

इस के जवाब में शुभी ने अपने मुंह से एक शब्द भी नहीं निकाला, बल्कि अपने मोबाइल की स्क्रीन को औन कर के अजय अरोड़ा की तरफ बढ़ा दिया.

अजय ने मोबाइल की स्क्रीन पर देखा, तो मोबाइल पर कुछ तसवीरें थीं, जिस में शुभी के जिस्म का ऊपरी हिस्सा पूरी तरह से नग्न था और अजय अरोड़ा उस के ऊपर लेटे हुए थे. एक नहीं, बल्कि कई तसवीरें थीं इन दोनों की, जो ये बताने के लिए काफी थीं कि कल रात उन दोनों के बीच जिस्मानी संबंध बने थे.

“पर, ये सब मैं ने नहीं किया…” अजय अरोड़ा ने कहा.

“आप सारे मर्दों का यही तरीका रहता है… कल जब मैं दूध का गिलास ले कर आई, तो आप नशे में लग रहे थे और आप ने मुझे बिस्तर पर गिरा दिया और मेरे साथ गलत काम किया… गलती मेरी ही है, आखिर मैं ने आप की आंखों में वासना के कीड़ों को क्यों नहीं पहचान लिया?” रोते हुए शुभी ने कहा.

“पर, भला ये तसवीरें तुम ने क्या सोच कर खींचीं?” माथा ठनक उठा था अजय अरोड़ा का.

“अगर, मैं ये तसवीरें नहीं लेती, तो भला आप क्यों मानते कि आप ने मेरे साथ गलत किया है,” शुभी का सवाल अचूक था और सारे सुबूत सामने थे, इसलिए अजय अरोड़ा का मन भी इन सब बातों को मानने के लिए मजबूर था, क्योंकि बचपन में उन्हें नींद में चलने की बीमारी थी, जो कि काफी समय बीतने के बाद ही सही हो सकी थी.

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“चलो, अब जो भी हुआ, उसे भूल जाओ… मैं अपने किए पर बहुत शर्मिंदा हूं…पर, ये बात किसी से न कहना… मैं तुम्हारे आगे हाथ जोड़ता हूं,” अजय अरोड़ा ने कहा.

अजय अरोड़ा रात में 2 बजे तक काम किया करते थे, पर आज पता नहीं क्या हुआ कि उन की पलकें भारी होने लगीं और उन्हें जल्दी नींद आ गई. वे अपना लैपटौप सिरहाने रख कर सो गए.

अगली सुबह जब अजय अरोड़ा की आंखें खुलीं, तो उन्होंने अपने पास बैठी हुई शुभी को देखा. उसे अपने बिस्तर पर बैठा देख अजय अरोड़ा चौंक पड़े और पूछ बैठे, “क्या बात है शुभी, तुम इतनी सुबहसुबह मेरे कमरे में… और वो भी मेरे बिस्तर पर क्या कर रही हो?”

“नहीं, आप मुझ से बड़े हैं. मेरे सामने हाथ मत जोड़िए… हां, अगर मेरे लिए कुछ करना ही चाहते हैं, तो मेरी बेटियों को अपने बेटे नरेश के साथ जायदाद में बराबर की हिस्सेदारी दिलवा दीजिए,” शुभी ने कहा.

शुभी की बात सुन कर अजय अरोड़ा को ये समझते देर नहीं लगी कि वो बुरी तरह से उस के बिछाए जाल में फंस गए हैं, पर अब उन के पास उस की बात मानने के अलावा और कोई चारा भी नहीं था, इसलिए वे शुभी की बात मानने पर राजी हो गए और उन्होंने जायदाद और अरोड़ा ग्रुप के वित्तीय मामलों मे नरेश के साथसाथ शुभी की बड़ी बेटी को भी शामिल कर लिया.

“देखो… मैं अभी सिर्फ तुम्हारी बड़ी बेटी को ही कंपनी में शामिल कर सकता हूं, क्योंकि कंपनी के और भी शेयरहोल्डर हैं, उन्हें भी मुझे जवाब देना है…

‘‘अगर चाहो तो मैं तुम्हारी छोटी बेटी को अपने दूसरे प्रोजैक्ट का इंचार्ज बना सकता हूं… पर, उस के लिए उसे कोलकाता जाना होगा,” अजय अरोड़ा ने कहा.

“बिलकुल जाएगी… कोलकाता तो क्या वह भारत के किसी भी हिस्से में जाएगी… बस, मुझे पैसा और पावर चाहिए… मैं आज ही उसे तैयारी करने को कहती हूं.”

अपनी इस कूटनीतिक जीत पर मन ही मन बहुत खुश हो रही थी शुभी और इसी जीत को सेलिब्रेट करने के लिए ‘बरिस्ता‘ कौफीहाउस में जा पहुंची, जहां उस के सामने वाली कुरसी पर बैठा हुआ शख्स उसे ऊपर से नीचे तक निहारे जा रहा था.

“अब तो तुम बहुत खुश होगी… आखिर अरोड़ा ग्रुप में बराबरी का हिस्सा मिल ही गया तुम्हें,” वो घनी दाढ़ी वाले शख्स ने कहा, जिस का नाम रौबिन था,

“मिला नहीं है, बल्कि छीना है मैं ने… पर, असली खुशी तो मुझे उस दिन मिलेगी, जब मैं उस नरेश के बच्चे को एमडी की कुरसी से हटवा दूंगी,” नफरत भरे लहजे में शुभी बोल रही थी.

“और उस के लिए अगर तुम्हें मेरी कोई भी जरूरत पड़े तो बंदा हाजिर है… पर, उस की कीमत देनी होगी,‘‘ रौबिन ने शरारती लहजे में कहा.

“बोलो, क्या कीमत लोगे?”

“बस, जिस तरह की तसवीरों में तुम अजय अरोड़ा के साथ नजर आ रही हो, वैसी ही जिस्मानी हालत में मेरे साथ एक रात गुजार लो.”

“बस… इतनी सी बात… अरे, तुम्हारे लिए मैं ने मना ही कब किया है,” शुभी की बातें सुन कर रौबिन अपने हाथ से शुभी के हाथ को सहलाने लगा.

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रौबिन और शुभी की जानपहचान कालेज के समय से थी और इतना ही नहीं, दोनों एकदूसरे से प्यार भी करते थे और शुभी की शादी हो जाने के बाद भी दोनों ने इस रिश्ते को बनाए रखा.

शुभी और रौबिन के प्यार का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता था कि आज भी अपनी खुशी को बांटने के लिए शुभी अपने पति के पास न हो कर रौबिन के पास ही आई थी.

कभी रौबिन से इश्क करने वाली शुभी को आज भी इस बात से कतई परहेज नहीं था कि आज रौबिन एक छोटामोटा ड्रग पेडलर बन चुका था, जो कि पैसा कमाने के लिए अफीम और अन्य नशीले पदार्थों की खरीदफरोख्त किया करता था और कई बार हवालात की हवा भी खा चुका था.

चालबाज शुभी- भाग 3

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

भले ही शुभी की लड़कियों को बिजनैस में शामिल कर लिया गया था और वे दोनों बिजनैस की बारीकियां सीख रही थीं, पर शुभी को हमेशा ही ये डर खाए जाता था कि हो न हो, नरेश को ही इस जायदाद का असली वारिस घोषित किया जाएगा और वो तो ऐसा बिलकुल नहीं चाहती थी, पर उस के पास अभी कोई और चारा नहीं था, इसलिए शुभी अपने अगले वार के लिए सही वक्त का इंतजार कर रही थी.

और वो सही वक्त कुछ महीनों बाद आ ही गया, जब नरेश की शादी तय करा दी गई और बड़ी धूमधाम से उस की शादी हो गई, विजय और अजय अरोड़ा के साथ में कितना नाची थी शुभी? उस की खुशी देख कर जान पड़ता था कि जैसे उस के सगे बेटे की शादी हो, पूरे शहर में नरेश की शादी की भव्यता की चर्चा कई दिन तक होती रही.

घर के मेहमान भी जा चुके थे और आज नरेश और उस की पत्नी बबिता अपना हनीमून मनाने के लिए स्विट्जरलैंड के लिए जाने वाले थे. सुबह से ही शुभी सारी तैयारियां करवा रही थी. मन में खुशियों का सागर हिलोरे ले रहा था नरेश और बबिता के, इसलिए फ्लाइट के समय से पहले ही नरेश एयरपोर्ट पहुंच जाना चाहता था. उस ने अपना सारा सामान एक जगह इकट्ठा कर लिया और अपनी पत्नी बबिता की प्रतीक्षा करने लगा. शुभी के साथ नरेश को अपनी पत्नी आती दिखाई दी तो नरेश ने राहत की सांस ली.

“ये लो… इसे समयसमय पर खाते रहना… तुम्हें अभी ताकत की बहुत जरूरत पड़ेगी,” शुभी ने नरेश के हाथ में एक थैली पकड़ाते हुए कहा, “पर, चाची इस में है क्या?”

“अरे, इसे खोल कर यहां मत देखो… ये तुम्हारे लिए ताकत वाले लड्डू हैं… हनीमून के लिए खास बनाए हैं,” शुभी रहस्मयी ढंग से मुसकराते हुए बोली, तो फिर उस की बात को मन ही मन भांप कर उस के आगे नरेश कुछ बोल नहीं सका और चुपचाप अपने बैग में वह थैली रख ली.

नवयुगल एयरपोर्ट पर पहुंच चुका था. दोनों ने एकदूसरे का हाथ पकड़े हुए एयरपोर्ट में एंट्री ली. नरेश ने नजरें उठाईं, तो सामने ही एक कस्टम विभाग का बड़ा अधिकारी अपनी सजीली सी विभागीय यूनीफौर्म पहने हुए खड़ा था, जो कि इन दोनों की तरफ देखते हुए मुसकराते हुए आगे आया, “नमस्ते भाभीजी… आप दोनों की यात्रा शुभ हो.”

“अरे, इन से मिलो ये मेरा दोस्त है रचित. और रचित, ये हैं बबिता मेरी पत्नी,” हंसते हुए नरेश ने कहा.

नरेश और बबिता के साथ में एक बड़े कस्टम अधिकारी के होने के कारण उन दोनों को फ्लाइट तक पहुंचने में कोई परेशानी नहीं हुई और कुछ ही देर बाद उन की फ्लाइट टेक औफ कर चुकी थी.

तकरीबन 8-9 घंटे की उड़ान के बाद वे दोनों स्विट्जरलैंड के हवाईअड्डे पर थे, जहां यात्रियों का सामान चैक किया जा रहा था. नरेश और बबिता भी शांत भाव और प्रसन्न मुद्रा में सारी कार्यवाही देख रहे थे और अपने एयरपोर्ट से निकलने का इंतजार कर रहे थे, ताकि अपने हनीमून की खुशियों का मजा ले सकें.

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“आप दोनों को हमारे साथ चलना होगा,” नरेश से एक कस्टम के अधिकारी ने आ कर अंगरेजी में कहा.

“क्या हुआ… क्या बात है?” नरेश ने भी अंगरेजी में ही पूछा.

“जी, दरअसल बात यह है कि हमें आप के ब्रीफकेस में ड्रग्स मिली है. बहुत अफसोस है कि हमें आप को पुलिस के हवाले करना पड़ेगा,” कस्टम अफसर ने वह थैली दिखाते हुए कहा, जिस में शुभी ने ताकत वाले लड्डू रखे थे.

नरेश और बबिता को अपने कानों पर भरोसा ही नहीं हुआ, जो उन्होंने अभीअभी सुना था.

“पर, इस में तो मेरी चाची ने ताकत के लड्डू रखे  थे, जरूर आप को कोई गलतफहमी हुई है,” नरेश कह रहा था.

“यहां पर आ कर पकड़े जाने के बाद सभी यही कहते हैं मिस्टर नरेश, पर हमारे यहां कानून है कि आप अपनी गिरफ्तारी की खबर अपने घर पर इस फोन के द्वारा दे सकतें हैं… ये लीजिए अपना कंट्री कोड डायल कर के अपने घर फोन मिला लीजिए.”

इस के बाद नरेश ने फोन मिला कर अपने साथ हुए हादसे के बारे में अपने मांबाप को बताया कि किस तरह से उस थैली में ड्रग्स भेजा गया था और नरेश ने उन्हें यह भी बताया कि यहां पर ड्रग्स संबंधी कानून बहुत कड़े हैं, इसलिए उन्हें कम से कम 10-12 साल जेल में ही रहना होगा.

पुलिस ने नरेश और बबिता के हाथों में हथकड़ी पहना दी थी. उन लोगों को अब भी समझ नहीं आ रहा था कि ये सब कैसे और क्यों हुआ है? पर भारत में बैठी हुई शुभी को बखूबी समझ में आ रहा था, क्योंकि ये पूरी चाल उस ने ही तो रौबिन के साथ मिल कर रची थी, जिस से सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे.

एक ही झटके में शुभी ने नरेश और उस की पत्नी बबिता को जेल भिजवा दिया था. एकलौते बेटे की गिरफ्तारी और शुभी की नीचता की बात जान कर अजय अरोड़ा चीख पड़े थे, “मुझे तुझ से ऐसी उम्मीद नहीं थी… मैं ने तेरी हर बात मानी, फिर भी तेरी पैसे की हवस पूरी नहीं हुई… आखिरकार तू ने मेरे बेटेबहू को मुझ से छीन ही लिया.”

“जो हुआ उस में मेरी कोई गलती नहीं है… नरेश के पास से ड्रग्स निकली है, इस का साफ सा मतलब है कि वह ड्रग्स लेता था और अब बचने के लिए वह मुझ पर इलजाम लगा रहा है,” शुभी बड़े आराम से जवाब दे रही थी.

शुभी से अभी जब अजय अरोड़ा की बहस हो ही रही थी कि उन के सीने में तेज दर्द उठा. वे अपना सीना पकड़ कर वहीं बैठ गए और फिर कभी उठ न सके. उन का देहांत हो चुका था.

अब कंपनी की एमडी शुभी की बेटी थी और पूरे बिजनैस पर उन का एकाधिकार था, पर अपनी मां के द्वारा किए गए इस काम से वह जरा भी खुश नहीं थी, इसलिए वह अपने दादी और बाबा के साथ सबकुछ छोड़ कर कहीं चली गई और शुभी के नाम एक पत्र छोड़ गई, जिस में लिखा था:

“मां… आप पैसे और सत्ता के लालच में इतना गिर जाओगी, ऐसा मैं ने कभी नहीं सोचा था… आप को पैसा चाहिए था, जो आज आप को मिल गया है… कंपनी के कागज और चेकबुक्स दराज में रखी हैं. आप अपने पैसों के साथ खुश रहो… मुझे और मेरे दादीबाबा को ढूंढ़ने की कोशिश मत करना.”

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पैसे और सत्ता के लालच में अंधी हो कर शुभी ने नरेश के खिलाफ इतनी कठोर साजिश को अंजाम दिया, जिस से उस के जीवन की सारी खुशियां तहसनहस हो गई थीं.

नरेश और बबिता इस घटना से स्तब्ध थे. उन्हें ये बात ही नहीं समझ में आ रही थी कि अगर ये काम चाची ने जानबूझ कर किया है, तो क्यों किया है. वजह चाहे जो भी रही हो, पर वे दोनों जेल में थे.

नरेश और बबिता को हनीमून तो छोड़ो, पर अब साथ रहना भी नसीब नहीं हो रहा था. सलाखों के पीछे बारबार नरेश यही बुदबुदा रहा था… ये कैसा हनीमून???

क्या फर्क पड़ता है

क्या फर्क पड़ता है- भाग 2

पलक झपकते ही मैं सड़क पर था. सोम मेरे पीछे लपका था और मौसी आवाजें देती रही थीं पर मैं पीछे पलटा ही नहीं. किसी तरह अपने कमरे में पहुंचा. न जाने कितनी बार मोबाइल पर सोम की कौल आई लेकिन बात नहीं की मैं ने. मैं क्या इतना कंगाल हूं जो किसी की भीख पर जीने लगूं. ऐसी भी क्या कमी है मुझे जो सोम की मां में अपनी ही मां की सूरत तलाशती रहें मेरी आंखें. मां का प्यार तो अथाह सागर होता है जिस में समूल संसार को समेट ले जाने की शक्ति होती है. चाची हैं न मेरे पास जो मुझे इतना प्यार करती हैं. क्यों चला गया मैं सोम के घर पर? क्या जरूरत थी मुझे? 2 दिन की छुट्टी थी. अपना घर संवारने में ही मैं व्यस्त रहा. सोमवार सुबह आफिस जाते ही सोम सामने पड़ गया. ‘‘अजय, उस दिन तुम्हें क्या हो गया था. मां कितनी परेशान हैं तुम्हें ले कर. मोबाइल भी नहीं उठा रहे हो तुम.’’

‘‘वे तुम्हारी मां हैं. उन की परेशानी तुम समझो. भला मैं उन का क्या लगता हूं जो…’’ ‘‘ऐसा मत कहो, अजय,’’ बीच में बात काटते हुए सोम बोला, ‘‘तुम्हारा ही खून तो बहता है उन के शरीर में. उस दिन तुम न होते तो क्या होता.’’ ‘‘मैं न होता तो कोई और होता. सोम, इनसानियत के नाते मैं ने खून दिया. इस से कोई रिश्ता थोड़े न बन जाता है.’’ ‘‘बन जाता है कभीकभी. खून से भी रिश्ता बनता है. अब देखोे न मेरा खून उन से नहीं मिला. रिश्ता नहीं है तभी तो खून नहीं मिला. मैं उन का अपना होता तो क्या खून न मिलता.’’

‘‘तुम्हारा खून उन से नहीं मिला उस से क्या फर्क पड़ता है. कभीकभी मांबच्चे का खून नहीं भी मिलता. मेरा खून उन से मिल गया इस से वे मेरी मां तो नहीं न हो जातीं. अरे, भाई, वे तुम्हारी मां हैं और तुम्हारी ही रहेंगी. तुम्हारा खून उन से नहीं मिला उस की खीज तुम मुझ पर तो मत उतारो. जा कर किसी डाक्टर से पूछो… वह तुम्हें बेहतर समझा पाएगा.’’ लंच बे्रक में भी मैं सोम को टाल गया और शाम को घर आते समय भी उस से किनारा कर लिया. मुझे क्या जरूरत है किसी के घर में अशांति, खलबली पैदा करने की. मैं अपने को भावनात्मक रूप से इतना अतृप्त मानूं ही क्यों कि किसी की थाली में परोसा भोजन देख मेरी भूख जाग जाए जबकि सोचूं तो मेरा मन गले तक भरा होना चाहिए.

चाची के रूप में ऐसी मां मिली हैं जो मुझे मेरी खुशी में ही अपने बच्चों की भी खुशी मानती हैं. चाची न पालतीं तो मेरा क्या होता. सोचा जाए तो बड़े होतेहोते किसे याद रहता है अपना बचपन. जिसे मां के रूप में देखता रहा वही मां हैं और अगर मां को देखा भी था तो कहां वह सूरत आज मुझे याद है. होश संभाला तो चाची को देखा और चाची ही याद हैं मुझे. तो मेरी मां कौन हुईं? चाची ही न? पागल और नाशुक्रा तो मैं हूं न, जिस ने आज तक चाची को चाची ही कह कर पुकारा. चाची कबकब मेरी मां नहीं थीं जो मैं अपने मन में उम्र भर एक शूल सा चुभोता रहा कि बिन मां का हूं.

शाम को घर पहुंचा और अभी खाने की तैयारी कर रहा था कि दरवाजे पर सोम और उस की मां को खड़े पाया. मेरी दी हुई शाल ओढ़ रखी थी उन्होंने. ‘‘क्या बात है बेटा, मां से नाराज है. सोम तो नादान है. उस की वजह से अपना मन मैला मत कर.’’ ‘‘नहीं तो, मौसी…’’ क्या कहता मैं. मौसी मुझे गले लगा कर रोने लगी थीं और अपराधी सा सोम सामने खड़ा था. ‘‘जन्म दे देने से ही कोई मां नहीं बन जाती बेटे, इस सोम को ही देख. मैं ने इसे जन्म नहीं दिया… मैं ने कभी किसी संतान को जन्म नहीं दिया, तो क्या मैं इस की मां नहीं हूं. क्या बांझ हूं मैं?’’

यह सुन कर मेरा सर्वांग कांपने लगा. यह क्या कह रही हैं मौसी. उन का चेहरा सामने किया. कितनी प्यारी कितनी पवित्र हैं मौसी. पुन: वही इच्छा सिर उठाने लगी… मेरी भी मां होतीं तो कैसी होतीं. ‘‘सोम हमारा गोद लिया बच्चा है. उसी तरह प्रकृति ने तुम्हें मुझ से मिला दिया. मेरे मन ने तुम्हें अपना बेटा माना है बेटे. मैं 2-2 बेटों की मां हूं. क्या तुम्हें लगता है मेरी गोद इतनी छोटी है जिस में तुम दोनों नहीं समा सकते. क्या सचमुच मैं बांझ ही हूं जिसे अपनी ममता पर सदा एक प्रश्नचिह्न ही सहना पड़े.’’

क्या फर्क पड़ता है- भाग 1

‘‘आज मेरे दोनों बेटे साथसाथ आ गए. बड़ी खुशी हो रही है मुझे तुम दोनों को एकसाथ देख कर. बैठो, मैं सूजी का हलवा बना कर लाती हूं. अजय, बैठो बेटा… और सोम, तुम भी बैठो,’’ सोम की मां ने उसे मित्र के साथ आया देख कर कहा. ‘‘नहीं, मां. अजय है न. तुम इसी को खिलाओ. मुझे भूख नहीं है.’’

मैं क्षण भर को चौंका. सोम की बात करने का ढंग मुझे बड़ा अजीब सा लगा. मैं सोम के घर में मेहमान हूं और जब कभी आता हूं उस की मां मेरे आगेपीछे घूमती हैं. कभी कुछ परोसती हैं मेरे सामने और कभी कुछ. यह उन का सुलभ ममत्व है, जिसे वे मुझ पर बरसाने लगती हैं. उन की ममता पर मेरा भी मन भीगभीग जाता है, यही कारण है कि मैं भी किसी न किसी बहाने उन से मिलना चाहता हूं. इस बार घर गया तो उन के लिए कुछ लाना नहीं भूला. कश्मीरी शाल पसंद आ गई थी. सोचा, उन पर खूब खिलेगी. चाहता तो सोम के हाथ भी भेज सकता था पर भेज देता तो उन के चेहरे के भाव कैसे पढ़ पाता. सो सोम के साथ ही चला आया.

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मां ने सूजी का हलवा बनाने की चाह व्यक्त की तो सोम ने इस तरह क्यों कह दिया कि अजय है न. तुम इसी को खिलाओ. मैं क्या हलवा खाने का भूखा था जो इतनी दूर यहां उस के घर पर चला आया था. कोई घर आए मेहमान से इस तरह बात करता है क्या? अनमना सा लगने लगा मुझे सोम. मुझे सहसा याद आया कि वह मुझे साथ लाना भी नहीं चाह रहा था. उस ने बहाना बनाया था कि किसी जरूरी काम से कहीं और जाना है. मैं ने तब भी साथ जाने की चाह व्यक्त की तो क्या करता वह.

‘तुम्हें जहां जाना है बेशक होते चलो, बाद में तो घर ही जाना है न. मैं बस मौसीजी से मिल कर वापस आ जाऊंगा. आज मैं ने अपना स्कूटर सर्विस के लिए दिया है इसलिए तुम से लिफ्ट मांग रहा हूं.’ ‘वापस कैसे आओगे. स्कूटर नहीं है तो रहने दो न.’ ‘मैं बस से आ जाऊंगा न यार… तुम इतनी दलीलों में क्यों पड़ रहे हो?’

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‘‘घर में सब कैसे हैं, बेटा? अपनी चाची को मेरी याद दिलाई थी कि नहीं,’’ मौसी ने रसोई से ही आवाज दे कर पूछा तो मेरी तंद्रा टूटी. सोम अपने कमरे में जा चुका था और मैं वहीं रसोई के बाहर खड़ा था. कुछ चुभने सा लगा मेरे मन में. क्या सोम नहीं चाहता कि मैं उस के घर आऊं? क्यों इस तरह का व्यवहार कर रहा है सोम?

मुझे याद है जब मैं पहली बार मौसी से मिला था तो उन का आपरेशन हुआ था और हम कुछ सहयोगी उन्हें देखने अस्पताल गए थे. मौसी का खून आम खून नहीं है. उन के ग्रुप का खून बड़ी मुश्किल से मिलता है. सहसा मेरा खून उन के काम आ गया था और संयोग से सोम की और हमारी जात भी एक ही है. ‘ऐसा लगता है, तुम मेरे खोए हुए बच्चे हो जो कभी किसी कुंभ के मेले में छूट गए थे,’

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मौसी बीमारी की हालत में भी मजाक करने से नहीं चूकी थीं. खुश रहना मौसी की आदत है. एक हाथ से उन के शरीर में मेरा दिया खून जा रहा था और दूसरे हाथ से वे अपना ममत्व मेरे मन मेें उतार रही थीं. उसी पल से सोम की मां मुझे अपनी मां जैसी लगने लगी थीं. बिन मां का हूं न मैं. चाचाचाची ने पाला है. चाची ने प्यार देने में कभी कोई कंजूसी नहीं बरती फिर भी मन के किसी कोने में यह चुभन जरूर रहती है कि अगर मेरी मां होतीं तो कैसी होतीं. अतीत में गोते लगाता मैं सोचने लगा.

चाची के बच्चों के साथ ही मेरा लालनपालन हुआ था. शायद अपनी मां भी उतना न कर पाती जितना चाची ने किया है. 2-3 महीने के बाद ही दिल्ली जा पाता हूं और जब जाता हूं चाची के हावभाव भी वैसी ही ममता और उदासी लिए होते हैं, जैसे मेरी मां के होते. गले लगा कर रो पड़ती हैं चाची. चचेरे भाईबहन मजाक करने लगते हैं. ‘अजय भैया, इस बार आप मां को अपने साथ लेते ही जाना. आप के बिना इन का दिल नहीं लगता. जोजो खाना आप को पसंद है मां पकाती ही नहीं हैं. परसों गाजर का हलवा बनाया, हमें खिला दिया और खुद नहीं खाया.’

‘क्यों?’ ‘बस, लगीं रोने. आप ने नहीं खाया था न. ये कैसे खा लेतीं. अब आप आ गए हैं तो देखना आप के साथ ही खाएंगी.’ ‘चुप कर निशा,’ विजय ने बहन को टोका, ‘मां आ रही हैं. सुन लेंगी तो उन का पारा चढ़ जाएगा.’ सचमुच ट्रे में गाजर का हलवा सजाए चाची चली आ रही थीं. चाची के मन के उद्गार पहली बार जान पाया था. कहते हैं न पासपास रह कर कभीकभी भाव सोए ही रहते हैं क्योंकि भावों को उन का खादपानी सामीप्य के रूप में मिलता जो रहता है. प्यार का एहसास दूर जा कर बड़ी गहराई से होता है.

‘आज तो राजमाचावल बना लो मां, भैया आ गए हैं. भैया, जल्दीजल्दी आया करो. हमें तो मनपसंद खाना ही नहीं मिलता.’ ‘क्या नहीं मिलता तुम्हें? बिना वजह बकबक मत किया करो… ले बेटा, हलवा ले. पूरीआलू बनाऊं, खाएगा न? वहां बाजार का खाना खातेखाते चेहरा कैसा उतर गया है. लड़की देख रही हूं मैं तेरे लिए. 1-2 पसंद भी कर ली हैं. पढ़ीलिखी हैं, खाना भी अच्छा बनाती हैं…लड़की को खाना बनाना तो आना ही चाहिए न.’ ‘2 का भैया क्या करेंगे. 1 ही काफी है न, मां,’ विजय और निशा ने चाची को चिढ़ाया था. क्याक्या संजो रही हैं चाची मेरे लिए. बिन मां का हूं ऐसा तो नहीं है न जो स्वयं के लिए बेचारगी का भाव रखूं. जब वापस आने लगा तब चाची से गले मिल कर मैं भी रो पड़ा था. ‘अपना खयाल रखना मेरे बच्चे. किसी से कुछ ले कर मत खाना.’

‘इतनी बड़ी कंपनी में भैया क्याक्या संभालते हैं मां, तो क्या अपनेआप को नहीं संभाल पाएंगे?’ ‘तू नहीं जानती, सफर में कैसेकैसे लोग मिलते हैं. आजकल किसी पर भरोसा करने लायक समय नहीं है.’ मेरे बिना चाची को घर काटने को आता है. क्या इस में वे अपने को लावारिस महसूस करने लगी हैं? कहीं चाची मुझे बिन मां का समझ कर अपने बच्चों का हिस्सा तो मुझे नहीं देती रहीं?

आज 27 साल का हो गया हूं. 4 साल का था जब एक रेल हादसे ने मेरे मांबाप को छीन लिया था. मैं पता नहीं कैसे बच गया था. चाचाचाची न पालते तो कौन जाने क्या होता. कहीं कोई कमी नहीं है मुझे. मेरे पिता द्वारा छोड़ा रुपया मेरे चाचाचाची ने मुझ पर ही खर्च किया है. जमीन- जायदाद पर भी मेरा पूरापूरा अधिकार है. मेरा अधिकार सदा मेरा ही रहा है पर कहीं ऐसा तो नहीं किसी और का अधिकार भी मैं ही समेटता जा रहा हूं.’

‘‘क्या सोच रहे हो, अजय?’’ मौसी ने पूछा तो मैं अतीत से वर्तमान में आ गया, ‘‘क्या अपनी चाची से कहा था मेरे बारे में. उन्हें बताना था न कि यहां तुम ने अपने लिए एक मां पसंद कर ली है.’’ ‘‘मां भी कभी पसंद की जाती है मौसीजी, यह तो प्रकृति की नेमत है जो किस्मत वालों को नसीब होती है. मां इतनी आसानी से मिल जाती है क्या जिसे कोई कहीं भी…’’ ‘‘अजय, क्या बात है बच्चे?’’ मौसी मेरे पास खड़ी थीं फिर मेरा हाथ पकड़ कर मुझे सोफे तक ले आईं और अपने पास ही बैठा लिया. बोलीं, ‘‘क्या हुआ है तुम्हें, बेटा? कब से बुलाए जा रही हूं… मेरी किसी भी बात का तू जवाब क्यों नहीं देता. परेशानी है क्या कोई.’’

‘‘जी, नहीं तो. चाची ने यह शाल आप के लिए भेजी है. बस, मैं यही देने आया था.’’ कभी मेरा चेहरा और कभी शाल को देखने लगीं सोम की मां. सोम की मां ही तो हैं ये…मैं इन का क्या चुरा ले जाता हूं, अगर कुछ पल इन से मिल लेता हूं? जिस के पास समूल होता है उस का दिल इतना छोटा तो नहीं होना चाहिए न. मां तो सोम की ही हैं, वे मेरी थोड़े न हो जाएंगी.

‘‘आज इतने दिनों बाद आया है, बात भी नहीं कर रहा. क्या हुआ है तुझे? बात तो कर बच्चे.’’ सोम सामने चला आया. उस के चेहरे पर विचित्र भाव है. ‘‘बस, मौसीजी…आप को यह शाल देने आया था. अब चलता हूं नहीं तो 7 वाली बस निकल जाएगी.’’ ‘‘बैठ, बैठ…हलवा तो खा कर जा. मां ने खास तेरे लिए बनाया है. दिनरात मां तेरे ही नाम की माला जपती हैं. अब आया है तो बैठ जा न,’’ सोम ने कहा, ‘‘इतनी ही देर हो रही है तो आए ही क्यों. मेरे हाथ ही शाल भेज देते न.’’ विचित्र सा अवसाद होने लगा मुझे. जी चाहा, कमरे की छत ही फाड़ कर बाहर निकल जाऊं. और वास्तव में ऐसा ही हुआ.

क्या फर्क पड़ता है- भाग 3

गूंगा सा हो गया मैं. क्या सच में मौसी ऐसा सोच रही हैं? ‘‘ऐसा नहीं है मां. मैं मानता हूं कि मुझ से गलती हुई है, लेकिन मैं ने ऐसा तो कभी नहीं कहा कि तुम मुझ से प्यार नहीं करती हो,’’ सोम रोंआसा हो गया था. ‘‘यही सच है सोम. जब से तुम्हें पता चला है कि मैं तुम्हारी जन्मदात्री मां नहीं हूं तभी से तुम्हारा रवैया मेरे प्रति बदल गया है. जरा सी बात पर भी तुम्हारा व्यवहार इतना पराया हो जाता है मानो कोई रिश्ता ही न हो हम में. न तुम स्वयं जीते हो न ही मुझे जीने देते होे, क्या अब मेरी बाकी की उम्र यही प्रमाणित करने में बीत जाएगी कि मेरी ममता में खोट नहीं है. मैं तो भूल ही गई थी कि तुम्हें गोद लिया था.’’

सारी की सारी कथा का सार पानी जैसा साफ हो गया मेरे सामने. रिश्तों के दांवपेच कितने मुश्किल होते हैं न जिन्हें समझने का दावा नहीं किया जा सकता. सोम रो पड़ा था अपनी मां को मनातेमनाते. किसी भी औरत के लिए ‘बांझ’ शब्द कितनी तकलीफ देने वाला है. मेरी तरफ अपनी मां का झुकाव सहा नहीं गया होगा सोम से क्योंकि रिश्ते की कमजोर नस यही है कि मौसी ने उसे जन्म नहीं दिया. ‘‘ऐसा मत सोचिए मौसी. कौन आप से आप की ममता का प्रमाण मांग सकता है. 2-2 बच्चों की मां हैं न आप. आप की गोद में तो हजारों बच्चों के लिए जगह है. हमारी तो कोई बिसात ही नहीं जो…’’

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मौसी का चेहरा अपने सामने किया मैं ने. सोम के प्यार की गहराई समझ सकता हूं मैं. बहुत प्यार करता है वह अपनी मां से, तभी तो मेरे साथ बांट नहीं पाया. पहली बार सोम का मन समझा मैं ने, क्योंकि इस से पहले मुझे यथार्थ का पता नहीं था. संतान की चाह में मौसी ने सोम को गोद लिया था, अधूरेअधूरे आपस में मिल जाएं तो संपूर्ण होने का सुख पा सकते हैं, यही समझ पा रहा हूं मैं. इन 2 अधूरों में एक अधूरा मैं भी आ मिला था जिस की वजह से जरा सी हलचल हो गई थी.

‘‘अपनापराया वास्तव में हमारे मन की ही समझ और नासमझ होती है अजय. मन जिसे अपना माने वही अपना. अपना होने के लिए खून के रिश्ते की जरूरत नहीं होती. सोम अनाथ था, मेरी गोद खाली थी… मिल कर पूरे हो गए न दोनों. मेरा जीना, मेरा मरना, मेरी विरासत… आज मेरा जो भी है सोम का ही है न. हर जगह सोम का नाम है, लेकिन इस के बावजूद मैं सोम की कैदी तो नहीं हूं न. मुझे जो प्यारा लगेगा, जो मेरे मन को छू लेगा, वह मेरा होगा. मुझे किसी सीमा में बांधना सोम को शोभा नहीं देता.’’

‘‘मां, सच तो यह है कि मैं तो यह सचाई ही नहीं सहन कर पा रहा हूं कि तुम ने मुझे जन्म नहीं दिया. तुम ने भी कभी नहीं बताया था न.’’ ‘‘उस से क्या फर्क पड़ गया, जरा सोच ठंडे दिमाग से. अजय का खून मेरे खून से मिल गया. इस की जात भी हमारी जात से मिल गई, तो तुम्हें लगा अब यह तुम्हारी जगह ले लेगा? इतनी असुरक्षा भर गई तुम्हारे मन में. ‘‘अरे, यह बच्चा क्या छीनेगा तेरा. यह भूखानंगा है क्या. इसे पालने वाले हैं इस के पास. भाईबहन हैं इस के. इसे कोई कमी नहीं है, जो यह तेरा सब छीन ले जाएगा, लावारिस नहीं है तुम्हारी तरह.’’

‘‘मैं ने ऐसा नहीं सोचा था, मां.’’ ‘‘अगर नहीं सोचा था तो भविष्य में सोचना भी मत. इतनी ही तकलीफ हो रही है तो बेशक चले जाओ अपने घर. शराबी पिता और सौतेली मां हैं वहां. अनपढ़गंवार भाईबहन हैं. तुम भी वैसे ही होते अगर मैं न उठा लाती, आज इतनी बड़ी कंपनी में अधिकारी नहीं होते. सच पता चल गया तो मेरे शुक्रगुजार नहीं हुए तुम, उलटा मुझ पर पहरे बिठाने शुरू कर दिए. बातबात पर ताना देते हो. क्या पाप कर दिया मैं ने? तुम को जमीन से उठा कर गोद में पालापोसा, क्या यही मेरा दोष है?’’

‘‘मौसी, ऐसा क्यों कह रही हैं आप? आप का बेटा है सोम.’’ ‘‘मेरा बेटा है तो मेरे मरने का इंतजार तो करे न मेरा बेटा. यह तो चाहता है कि आज ही अपना सब इस के नाम कर दूं. अगर यह मेरी कोख का जाया होता तो क्या तब भी ऐसा ही करता? जानते हो, तुम्हारे घर किस शर्त पर लाया है मुझे कि भविष्य में मैं तुम से कभी नहीं मिलूंगी. घर के कागज भी तैयार करवा रखे हैं. अगर सचमुच इस से प्यार करती हूं तो सब इस के नाम कर दूं, वरना मुझे छोड़ कर ही चला जाएगा…तुम्हारे मौसा ने समझाया भी था कि किसी रिश्तेदार का ही बच्चा गोद लेना चाहिए. तब भी अपनी गरीब बाई का नवजात बच्चा उठा लिया था मैं ने. सोचा था, गीली मिट्टी को जैसा ढालूंगी, ढल जाएगी. नहीं सोचा था, मेरी शिक्षा-दीक्षा का यह इनाम मिलेगा मुझे.’’ सोम चुप था और उस की गरदन झुकी थी. मैं भी स्तब्ध था. यह क्याक्या भेद खोलती जा रही हैं मौसी.

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‘‘अब मैं इस के साथ घर नहीं जाऊंगी, अजय. आज रात अपने घर रहने दो. सुबह 10 बजे की गाड़ी से मैं इलाहाबाद चली जाऊंगी. यह क्या छोड़ेगा मुझे, मैं ही इसे छोड़ कर जाना चाहती हूं.’’ सोम मौसी के पैर पकड़ कर रोने लगा था. ‘‘मुझे अब तुम पर भरोसा नहीं रहा. रात में गला दबा कर मार डालो तो किसे पता चलेगा कि तुम ने क्या किया. जब से अजय हम से मिलनेजुलने लगा है, तुम्हारे चरित्र का पलपल बदलता नया ही रूप मैं हर रोज देखती हूं…इस बच्चे को मुझ से क्या लालच है. जब भी मिलता है मुझे कुछ दे कर ही जाता है. कभी अपना खून देता है और कभी यह कीमती शाल. बदले में क्या ले जाता है, जरा सा प्यार.’’ नहीं मानी थीं मौसी. सोम चला गया वापस. रात भर मौसी मेरे घर पर रहीं.

‘‘मेरी वजह से आप दोनों में इतनी दूरी चली आई.’’ ‘‘सोम ने अपना रंग दिखाया है, अजय. तुम नहीं आते तो कोई और वजह होती लेकिन ऐसा होता जरूर. तुम्हारे मौसाजी कहते थे, ‘मांबाप के खून का असर बच्चे में आता है. मनुष्य के चरित्र की कुछकुछ बुराइयां या अच्छाइयां पीढ़ी दर पीढ़ी सफर करती हैं. सोम के पिता ने शराब पी कर जिस तरह इस की मां को मार डाला था, ऐसा लगता है उसी चरित्र ने सोम में भी अपना अधिकार जमा लिया है. कल इस लड़के ने जिस बदतमीजी से मुझ से बात की, बरसों पुराना इस के पिता का वह रूप मुझे इस में नजर आ रहा था.’’ भर्रा गया था मौसी का स्वर.

सुबह मैं मौसी को इलाहाबाद की गाड़ी में चढ़ा आया. वहां मौसी का मायका है और मौसाजी की विरासत भी. आफिस में सोम से मिला. क्या कहतासुनता मैं उस से. वह घर की बाई का बच्चा है, इसी शर्म में वह डूबा जा रहा था. कल को सब को पता चला तो आफिस के लोग क्या कहेंगे. ‘‘शर्म ही करनी है तो उस व्यवहार पर करो जो तुम ने अपनी मां के साथ किया. इस सत्य पर कैसी शर्म कि तुम बाई के बच्चे हो.’’ मैं ने समझाना चाहा सोम को. मांबेटा मिल जाएं, ऐसा प्रयास भी किया लेकिन ममता का धागा तो सोम ने खुद ही जला डाला था. मौसी ने सोम से हमेशा के लिए अपना रिश्ता ही तोड़ लिया था.

वास्तव में नाशुक्रा है सोम, जिसे ममता का उपकार ही मानना नहीं आया. धीरेधीरे हमारी दोस्ती बस सिर हिला देने भर तक ही सीमित हो गई. बहुत कम बात होती है अब हम दोनों में. होली की छुट्टियों में घर गया तो मौसी का रंगरूप चाची में घुलामिला नजर आया मुझे. अगर मेरी भी मां होतीं तो चाची से हट कर क्या होतीं. ‘‘कैसी हो, मां? अब चाची नहीं कहूंगा तुम्हें. मां कहूं न?’’

सदा की तरह चाची मेरे बिना उदास थीं. क्याक्या बना रखा था मेरे लिए. नमकीन मठरी, गुझिया और शक्करपारे. मेरा चेहरा चूम कर रो पड़ीं चाची. ‘‘क्या फर्क पड़ता है. कुछ भी कह ले. हूं तो मैं तेरी मां ही. इतना सा था जब गोद में आया था.’’ सच कहा चाची ने. क्या फर्क पड़ता है. हम मांबेटा गले मिल कर रो रहे थे और शिखा मां की टांग खींच रही थी. ‘‘मां, कल गाजर का हलवा बनाओगी न. अब तो भैया आ गए हैं.’’

शोकसभा – भाग 2

लेखक- मनमोहन भाटिया  

सुभाष व सारिका को घबराया देख कर डौली बोली, ‘‘सारिका, इतनी दूर क्यों खड़ी हो, मेरे नजदीक आओ.’’

‘‘इन कुत्तों की वजह से थोड़ा डर…’’

डौली कुछ सकुचा कर बोली, ‘‘डरो मत, कुछ नहीं कहेंगे.’’

सारिका नजदीक गई और दोनों देवरानीजेठानी गले मिल कर रो पड़ीं.

सुभाष ने डौली के भाइयों से पूछा, ‘‘अचानक क्या हो गया, कोई खबर ही नहीं मिली. सब कैसे हुआ?’’

‘‘बस, क्या बताएं, समझ लीजिए कि समय आ गया था, हम से रुखसत लेने का. हम लोग भी कोई कारण नहीं जान पाए. जब समय आता है तो जाना ही पड़ता है.’’

यह उत्तर सुन कर सुभाष ने कुछ नहीं पूछा, लेकिन देवरानीजेठानी आपस में कुछ फुसफुसा रही थीं. तभी डौली के छोटे भाई का मोबाइल फोन बजा. वह किसी को कह रहा था, ‘‘देख, यह हमारी इज्जत का सवाल है. हर कीमत पर वह प्रौपर्टी चाहिए. जीजा मर गया उस के पीछे, मालूम है न तुझे या समझाना पड़ेगा. देख टिंडे, खोपड़ी में 6 के 6 उतार दूंगा.’’

फोन पर भाई की बातचीत सुनते ही डौली बाथरूम का बहाना बना कर दूसरे कमरे में चली गई और सुभाष, सारिका ने मौके की नजाकत समझ कर विदा ली. चुपचाप दोनों घर वापस आ गए. सुभाष ने टीवी चलाया, लेकिन मन कहीं और विचरण कर रहा था.

सुभाष ने सारिका से पूछा, ‘‘क्या बातें कर रही थीं देवरानीजेठानी?’’

‘‘बात क्या करनी थी, बस इतना ही पूछा था कि क्या हुआ था?’’

‘‘तू ने तो पूछ भी लिया, मेरी तो हिम्मत ही नहीं हुई,’’ सुभाष ने पानी का गिलास हाथ में पकड़ते हुए कहा, ‘‘सारिका, मुझे तो लगता है कि बिहारी किसी गैरकानूनी धंधे में लिप्त था तभी तो उस ने कुछ ही सालों में इतना कुछ कर लिया…और जिस तरह से फोन पर किसी को धमकाया जा रहा था उस से मेरे विश्वास को और बल मिला है…’’

पति की बात को काटते हुए सारिका ने कहा, ‘‘छोड़ो इन बातों को, पहले आप पानी पी लो. हाथोें में अभी भी गिलास थामा हुआ है.’’

पानी पी कर सुभाष ने बात आगे जारी रखते हुए कहा, ‘‘आखिर भाई था, जानने की उत्सुकता तो होती है कि आखिर उस के साथ हुआ क्या था.’’

‘‘जिस गली जाना नहीं वहां के बारे में क्या सोचना. भाई था, लेकिन 10 साल में उन्होंने एक भी दिन आप को याद किया क्या?’’ सारिका ने कुछ व्यंग्यात्मक मुद्रा में कहा, ‘‘छोड़ो इन बातों को, थोड़ा आराम कर लें. फिर दोपहर को उठावनी में भी जाना है.’’

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इतना कह कर सारिका किचन में चली गई और सुभाष का मन सोचने लगा कि क्या रिश्ते केवल रुपएपैसों तक ही सिमट कर रह गए हैं. बचपन का खेल क्या सिर्फ एक खेल ही था. शायद खेल ही था, जो अब समझ में आ रहा है. समझ में तो काफी साल पहले आ चुका था, लेकिन दिल मानता नहीं था.

‘‘खाना लग गया,’’ सारिका की आवाज सुन कर सुभाष हकीकत के धरातल पर आ गया. खाना खाते हुए उस ने कहा, ‘‘उठावनी में हमें बच्चों को भी ले चलना चाहिए.’’

‘‘क्यों?’’ सारिका ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘बच्चे अब बड़े हो गए हैं. शादियों मेें हमारे साथ जाते हैं, गमी में भी जाना उन्हें सीखना चाहिए. समाज के नियम हैं, आज नहीं तो कल कभी तो उन्हें भी गमी में शरीक होना पड़ेगा. जब परिवार में एक गमी का मौका है तो हमारे साथ चल कर कुछ नियम, कायदे सीख लेंगे.’’

‘‘हमारे जाने से पहले वे आ गए तो जरूर साथ चलेंगे.’’

दोनों बच्चे साक्षी और समीर कालेज से आ गए. सुभाष को देख कर बोले, ‘‘क्या पापा, आप घर में, तबीयत तो ठीक है न.’’

‘‘तबीयत ठीक है, तुम्हारे बिहारी ताऊ का देहांत हो गया है, आज दोपहर को उठावनी में जाना है, इसलिए आज आफिस नहीं जा सका. सुनो, खाना खा लो, फिर हम को उठावनी में जाना है.’’

‘‘क्या हमें भी?’’ दोनों बच्चे एक- साथ बोले.

‘‘हां, बेटे, आप दोनों भी चलो.’’

‘‘हम वहां क्या करेंगे?’’ साक्षी ने पूछा.

‘‘शादीविवाह में हमारे साथ चलते हो, अब बड़े हो गए हो, गमी में भी जाना सीखो.’’

सुभाष परिवार सहित समय से पहले ही शोकसभा स्थल पर पहुंच गए. सुबह की तरह सुरक्षा जांच के बाद हाल के अंदर गए, अंदर अभी कोई नहीं था, सुभाष का परिवार सब से पहले पहुंचा था. ‘कमाल है, घर वाले ही नदारद हैं, शोकसभा तो समय पर शुरू हो जाती है, कम से कम डौली और उस के भाइयों को तो यहां होना ही चाहिए था,’ सोचते हुए सुभाष अभी इधरउधर देख ही रहे थे कि तभी रमेश परिवारसहित पहुंचा. दोनों भाई गले मिले.

‘‘मेशी, तू तो बहुत मोटा हो गया है. लाला बन गया है. क्या तोंद बना रखी है,’’ सुभाष की बातें सुन कर समीर और साक्षी हैरान हो कर सारिका से पूछने लगे, ‘‘मां, ऐसे मौके पर भी मजाक चलता है क्या?’’

‘‘बस, तुम दोनों चुपचाप देखते रहो.’’

रमेश ने सुभाष को कोई उत्तर न दे कर, समीर, साक्षी को देख कर पूछा, ‘‘बच्चों से तो मिलवा यार, कितने सालों बाद मिल रहे हैं… बच्चे तो हमें पहचानते भी नहीं होंगे, बड़े स्वीट बच्चे हैं तेरे, भाषी, तू ने भी अपने को मेंटेन कर के रखा है, भाभीजी भी स्लिमट्रिम हैं, कुछ टिप्स बबीता को भी दो, इस की कमर तो नजर ही नहीं आती है,’’ पत्नी की तरफ इशारा कर के मेशी ने कहा. यह सुन कर सभी हंस पड़े तभी डौली, भाई और परिवार के दूसरे सदस्यों ने हाल में प्रवेश किया. हंसी रोक कर सभी ने हाथ जोड़ कर सांत्वना प्रकट की. डौली ने समीर व साक्षी को देख कर उन्हें गले लगा लिया.

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‘‘सारिका के बच्चे कितने स्वीट हैं. किसी की नजर न लगे मेरे इन क्यूट बच्चों को.’’

साक्षी परेशान हो कर सोचने लगी कि डौली आंटी कैसी औरत हैं, इन का पति मर गया और ये शोकसभा में क्यूटनेस देखने में लगी हैं.

तभी डौली के बड़े भाई ने कहा, ‘‘बहना, यह कुत्ते का बच्चा टिंडा कहां मर गया, गधे को पंडित लाने भेजा था, सूअर का फोन भी नहीं लग रहा है.’’

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