Funny Story : एक अंधसमर्थक से मुलाकात

Funny Story : आज सौभाग्य या कहें दुर्भाग्य से, सत्ता के एक “अंध समर्थक” से मुलाकात हो गई.

हमने छुटते ही कहा,- आपके “आलाकमान” और पार्टी नेताओं को  सोशल मीडिया ने बड़ी बुरी तरह घेरा है .

उन्होंने कहा- यह सब षड्यंत्र है .

हमने कहा- षड्यंत्र ? क्या विदेशी….

अंध समर्थक- नहीं, सत्ता की लालच में विपक्षी दल .

हमने कहा- मगर हमने सुना है, वे तो विपक्षियों की पोल भी खोल  रहे हैं .

अंध समर्थक- अरे! आप नहीं समझेंगे . बड़ी ऊंची राजनीति और खेल चल रहा है .

हमने कहा- खैर! छोड़िए हम आपकी प्रतिक्रिया चाहते हैं, आप क्या कहेंगे .

अंध समर्थक- मैं सोशल मीडिया के बारे में यही कहूंगा की पहले अपना गिरेबां झाके . यह लोग खुद करप्ट हैं और सम्मानीय नेताओं पर आक्षेप लगाते हैं.

हमने कहा- मगर उनकी बात में दम तो है . सारा देश चर्चा करने लगा है, यह उनकी विश्वसनीयता का परिचायक नहीं है क्या ?

अंघ समर्थक- अरे! आप बहुत भोले हैं . यह स्वयं पार्टी बनाकर, सत्ता का उपभोग करने की रणनीति के तहत काम कर रहे हैं . यह लोग, कोई महान देशभक्त पैदा नहीं हुए हैं .

हमने कहा- मगर यह तो देखिए उनकी बात में,सबूतों में कितना दमखम है . उनकी बात, आप काट नहीं सकते.

अंध समर्थक- मेरी निगाह में उनके पास कोई खास साक्ष्य नहीं है .

हमने कहा- क्या बात करते हो, आपकी पार्टी के दांए जी के सुपुत्र  50 लाख से 500 करोड़ रुपए की संपत्ति के मालिक बन गए और कहते हो कोई साक्ष्य नहीं है .इस देश में दूसरा कोई है जो रातों-रात इस तरह करोड़पति हो गया….

अंध समर्थक- आप हमारे आलाकमान के बारे में कहिए, नाते रिश्तेदार अगर कमा रहे हैं तो पार्टी दोषी नहीं है, यह उनका व्यक्तिगत मामला है .

हमने कहा- मगर यह भी सत्य है कि अगर वे “सुपुत्र” नहीं होते तो अरबों रुपए कतई नहीं कमा सकते थे. उन्हें निःसंदेह सत्ता का लाभ मिला है.

अंध समर्थक- नो कॉमेंट्स . मै आप की सोची हुई अवधारणा कल्पना पर, कोई टिप्पणी नहीं कर सकता.

हमने कहा- सच को नकारने से, सच झूठ नहीं हो जाता . आप जानते हैं पार्टी की कितनी साख गिरी है .यही हाल रहा तो आपके नेता और आप जमीन पर होंगे .

अंध समर्थक- हमने देश सेवा का व्रत लिया है. जनता जिस भूमिका में रखेगी, हम रहेंगे.हम तो जनता के सेवक हैं .सेवा करते रहेंगे .

हमने कहा- अर्थात देश का पिंड नहीं छोड़िएगा .

अंध समर्थक- भाई क्या कहते हो .बापू जी ने कहा था -नि:स्वार्थ सेवा करते रहो, सो हम करते रहेंगे…

हमने कहा- मगर नि:स्वार्थ भावना कहां है, आपकी प्रत्येक सेवा का कर्ज, देश की जनता को बेतरह उतारना पड़ता है.

अंध समर्थक- ही ही ही ( हंसते हुए ) क्या बात कर रहे हो . अगर हम पर कोई उंगली भी उठाए तो हम सर झुका कर विनम्रता पूर्वक प्रतिउत्तर करते हैं .हमारे खून में ईमानदारी और सच्ची भावना समाई हुई है .

हमने कहा- अर्थात भ्रष्टाचार को आपने ईमानदारी का समनार्थी बना  दिया है .कोई गंभीर आरोप लगता है तो आप तब भी सहज रहते हैं .

अंध समर्थक- तो क्या करें ? हाथ तो चला नहीं सकते, सरे राह तो उठवा नहीं सकते, पिटवा नहीं सकते, इसलिए हमने सहजता को अंगीकार कर लिया है .हमारे आलाकमान और वरिष्ठ नेताओं का यही प्रेम भरा संदेश है. किसी भी हालत में आपा नहीं खोना है .

हमने कहा- मगर हमारी बात तो वहीं की वहीं रह गई. हम जानना चाहते हैं  निजी करण की आड़ में देश को लूटने का संगीन आरोप आप के नेताओं और पर लग रहे हैं . आप दो टूक शब्दों में बताइए आरोप सही मानते हैं या गलत .

अंध समर्थक- गलत! में हमेशा गलत ही कहूंगा. अगर मुझे पार्टी में रहना है तो गलत ही कहूंगा . क्योंकि यह पार्टी लाइन है.

हमने अंध समर्थक को हाथ जोड़े और दीर्ध नि:श्वास लेकर यह कहते आगे बढ़ गए-” इस “देश” को भगवान ही बचा सकता है.”

Love Story : शब्बो

Love Story : मजहब की दीवारें कितनी भी ऊंची और मजबूत क्यों न हों, प्यार का बुलडोजर उन्हें आसानी से गिरा ही देता है. प्यार अंधा नहीं होता, बल्कि वह सबकुछ देखता है और यकीन की पटरी पर अपनी रफ्तार पकड़ता है.

जटपुर का बाशिंदा लाखन जाट 42 साल का हट्टाकट्टा किसान था. उस का हंसताखेलता परिवार था. 2 जवान होते बेटे नरेंद्र और सुरेंद्र और एक 15 साल की बेटी थी, जिस का नाम माधवी था.

लाखन दूध पीने का बड़ा शौकीन था. इस के लिए उस ने मुर्रा नस्ल की एक नई भैंस खरीदी थी. लाखन की पत्नी सुलोचना उस भैंस की खूब सेवा किया करती थी.

एक दिन सुलोचना उस भैंस को नहला रही थी, तभी उस भैंस का पैर पानी से भरी बालटी से टकराया और वह हड़बड़ा गई. इसी हड़बड़ाहट में सुलोचना भैंस से टकरा कर फिसल गई और उस के कूल्हे में गंभीर चोट लग गई.

लाखन ने सुलोचना का खूब इलाज कराया, लेकिन केस बिगड़ने के चलते उसे बचाया न जा सका.

सुलोचना के गुजरने पर लाखन के सामने बड़ी समस्या पैदा हो गई. जब तक सुलोचना थी, लाखन को घर की कोई चिंता न थी, पर अब घर कौन संभाले?

माधवी ने रसोई संभालने की कोशिश की, लेकिन अभी वह इस काम में इतनी कुशल नहीं थी. अभी उस की पढ़नेलिखने की उम्र थी और लाखन माधवी को और आगे पढ़ाना चाहता था.

लाखन ने बड़े बेटे नरेंद्र का ब्याह करने का फैसला किया, पर घर में नईनवेली बहू के आने पर लाखन का
घर के अंदर आनाजाना तकरीबन बंद सा हो गया. वह अपनी बैठक तक सिमट कर रह गया. वहीं उस का भोजनपानी आ जाता. इस से वह अपनेआप को अलगथलग और अकेला महसूस करने लगा.

लाखन के गांव का ही शकील धोबी के घर उस का उठनाबैठना था. वह अपने कपड़े वहीं धुलवाता था.

शकील से उस की पुरानी जानपहचान थी. शकील पहले से ही गांवभर के कपड़े धोता आ रहा था.

नए जमाने में वाशिंग मशीन आने पर भी शकील अब भी गांव की जरूरत बना हुआ था. भारी कपड़े अभी भी उस के पास धुलने के लिए लाए जाते थे. उस ने घर में ही कपड़े इस्तरी करने की दुकान भी खोल ली थी.

शकील के इस काम में उस की बेटी शबनूर भी हाथ बंटाती थी. शबनूर से बड़ी 3 बेटियों की शादी शकील पहले ही कर चुका था. शबनूर को सब ‘शब्बो’ कह कर पुकारते थे. वह भी शादी के लायक हो चुकी थी.

शकील की बेटियां लाखन को चाचा कहती थीं. जब से सुलोचना नहीं रही थी, तब से लाखन का अकेलापन उस को भीतर ही भीतर कचोटता था.

हालांकि, लाखन का अपना परिवार था, लेकिन इस उम्र में पत्नी के गुजर जाने का अहसास और उस की कमी वही जानता है, जिस ने यह दर्द झेला हो.

इस उम्र में विधुर होने पर आदमी न इधर का रहता है और न उधर का. शादी की उम्र निकल चुकी होती है और पत्नी के बिना काम भी नहीं चलता. पका आम या तो गिरता है या फिर सड़ता है.

शब्बो भी जानती थी कि लाखन चाचा अब अपनेआप को अकेला सा महसूस करते हैं. उस की उम्र भी किसी साथी की चाहत में थी. दोनों ही कुदरत की मांग के मुताबिक जरूरतमंद थे. दोनों की आंखें कब लड़ गईं, कब दोनों के दिलों में प्यार का बीज फूट गया, पता ही नहीं चला.

अब लाखन और शबनूर को एकदूसरे का इंतजार रहता था. एकदूसरे से मिले बिना उन्हें चैन नहीं मिलता था.

लाखन उम्रदराज होने के चलते समुद्र सा शांत था, लेकिन शब्बो का मन तो चंचल था. वह अपने प्यार को ले कर नदी की तरह मचलती, उस का भावुक मन लहरों की तरह ऊंची उछाल मारता. वह चाहती थी कि लाखन उसे अपनी मजबूत बांहों में जकड़ कर खूब प्यार करे. दिन तो किसी तरह से कट जाता, लेकिन रातभर शब्बो लाखन की याद में करवटें बदलती रहती.

लाखन को अपनी इज्जत का डर था, इसलिए वह चाह कर भी शब्बो से संबंध नहीं बना पा रहा था.

आखिरकार शब्बो की शादी का भी समय आ गया. उस की शादी जलालाबाद के दानिश से तय हुई.
दानिश की एक टांग पोलियो से खराब हो गई थी.

शब्बो को जब यह पता चला तो वह बहुत रोई, लेकिन शब्बो को समझा दिया गया कि दानिश जरा सा लंगड़ाता है और एक प्राइवेट फर्म में कोई छोटीमोटी नौकरी करता है.

शब्बो ने लाखन से भी कहा, ‘‘आप तो अब्बू को समझ सकते हैं कि वह लंगड़े आदमी से मेरा निकाह न पढ़वाएं.’’

लाखन शब्बो को दिल से बहुत चाहता था और वह भी इस बात से दुखी था कि शब्बो की शादी किसी लंगड़े से की जा रही है, लेकिन वह शब्बो के घर की माली हालत जानता था और किसी के घर के मामले में दखलअंदाजी नहीं करना चाहता था.

लाखन ने शब्बो से कहा, ‘‘शब्बो, जो तुम्हारे अब्बू कर रहे हैं, सोचसमझ कर ही कर रहे होंगे. क्या पता, दानिश तुम्हारी ?ाली खुशियों से भर दे? वह तुम्हें बेइंतहा चाहेगा.’’

‘‘लेकिन, इस का उलटा हुआ, तो क्या आप मुझे संभालोगे? ’’ शब्बो ने आंखों में आंखें डाल कर पूछा.

शब्बो के दिल की बात होंठों तक आ गई थी. लाखन कहना तो बहुतकुछ चाहता था, लेकिन अपनी उम्र का लिहाज कर उस ने चुप्पी साध ली. उस का दिल कह रहा था कि शब्बो कहीं न जाए. वहीं रहे, उसी के पास.
शब्बो लाखन के कंधे से लग कर खूब रोई. आंसू तो लाखन की आंखों में भी आए. शब्बो लाखन की मजबूरी समझ कर शांत हो गई.

हर बार की तरह लाखन ने इस बार भी शकील की बेटी शब्बो की शादी में खूब मदद की, बल्कि इस बार तो कुछ ज्यादा ही की. वह शब्बो को खुश देखना चाहता था.

शब्बो अपनी ससुराल चली गई. लाखन को लगा जैसे उस की दुनिया उजड़ गई, लेकिन लाखन की तो केवल भावनाओं का संसार ही उजड़ा था, शब्बो की तो पूरी जिंदगी ही तबाह हो गई थी.

शब्बो को ससुराल जा कर पता चला कि दानिश लंगड़ा ही नहीं है, शराब पीने का टैंकर भी है. सुहागरात को भी वह बिस्तर पर नशे में चूर पड़ा रहा और शब्बो ने रात रोरो कर गुजारी. उस के बाद जो उस पर बीती, उसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता.

शब्बो ने अपनी आपबीती अब्बू और अम्मी को बताई, लेकिन वे शब्बो को हालात से समझौता करने की बात कह कर चुप हो गए.

लेकिन शब्बो के लिए एक आस बची थी और वह आस थी लाखन. एक दिन मौका पा कर शब्बो ने लाखन से फोन पर बात की.

‘‘कैसी हो शब्बो?’’

‘नरक भोग रही हूं, नरक. ऐसा सुलूक तो किसी के साथ जहन्नुम में भी नहीं होता होगा.’

‘‘यह क्या कह रही हो शब्बो?’’

‘जो कह रही हूं, सच कह रही हूं. याद करो, मैं ने शादी से पहले आप से कहा था कि इस का उलटा हो जाए, तो क्या आप मुझे संभालोगे? समझ लो, उलटे से भी उलटा हो गया. अब अपना वादा पूरा करो.’

‘‘हुआ क्या है, यह तो बताओ?’’

‘जो नहीं होना चाहिए था, वह सब हुआ है. एक ब्याहता के साथ इस से बुरा और क्या हो सकता है.’

‘‘शब्बो, पहेलियां मत बुझाओ, सब साफसाफ बताओ?’’

‘मेरा शौहर दानिश किसी काम का नहीं है. वह नकारा तो है ही, शराबी और बेवकूफ भी एक नंबर का है. उसे इस दुनिया में शराब के सिवा कुछ नहीं चाहिए.’

‘‘क्या दानिश तुम्हारा जरा भी खयाल नहीं रखता?’’

‘खयाल तो वह तब रखे, जब उसे जरा सा होश हो. हर समय नशे में चूर रहता है. उसे शौहर कहने में भी मुझे शर्म आती है.’

‘‘तुम्हारे तीनों देवर और सासससुर… क्या वे भी तुम्हारा खयाल नहीं रखते?’’

तभी लाखन ने फोन पर शब्बो के रोने की आवाज सुनी. शब्बो ने जोकुछ सिसकते हुए कहा, उस से लाखन पर बिजली सी गिरी.

शब्बो ने बताया, ‘खूब खयाल रखते हैं, पर मेरा नाड़ा खोलने का. न दिन देखते हैं, न रात और न ही सुबह या शाम. बस भेडि़ए बन कर नोचने को आ जाते हैं बारीबारी से.’

यह सुनते ही लाखन दहल गया. गुस्से से उस का पूरा शरीर कांप गया. वह बोला, ‘‘यह क्या कह रही हो तुम शब्बो? क्या वह सब से छोटा देवर भी? अभी तो उस की दाढ़ीमूंछ भी ठीक से नहीं आई.’’

‘पता है, क्या कहता है वह?’

‘‘क्या कहता है?’’ लाखन ने बड़े अचंभे से पूछा.

‘कहता है कि भाभी, कल बड़ा मजा आया था. आज और ज्यादा चाहिए.’

यह सुन कर लाखन का दिल मिचला गया. उस का मन हुआ कि अभी जा कर शब्बो के छोटे देवर का टेंटुआ दबा दे. उस ने बड़ी कड़वाहट से कहा, ‘‘क्या तुम ने अपने ससुर से इस की शिकायत नहीं की?’’

अब तो शब्बो फफकने लगी थी. वह रोते हुए बोली, ‘बताने में भी शर्म आती है. मैं उन से क्या शिकायत करूं. वे मेरे बाप की उम्र के और इस उम्र में भी इतने रंगीले और शैतान हैं कि मुझ से चाहते हैं कि मैं उन्हें भी…’

‘‘बस कर शब्बो, बस कर. किन जालिमों में फंस गई हो तुम. किसी को अगर यह सब बताओगी, तो कोई तुम्हारा यकीन भी नहीं करेगा.’’

‘जिस पर बीतती है, वही जानता है,’ शब्बो ने कहा.

‘‘तुम यह सब कैसे सहन कर रही हो? क्या तुम ने कभी इस का विरोध नहीं किया?’’

‘किया था. पहले मुझे कमरे में बंद कर सब ने मुझ पर लट्ठ तुड़ाई की और फिर सब ने जबरदस्ती… मैं तो इन सब को जहर दे कर मार डालना चाहती थी, लेकिन इन कंगलों के यहां तो गेहूं में रखने वाली सल्फास भी नहीं. रोज मजदूरी कर के शाम को राशनपानी ले कर आते हैं.’

लाखन शब्बो के दर्द की हद जान चुका था. मर्दों का जुल्म सुन चुका था. अब उस ने सोचा कि मुसीबत में एक औरत दूसरी औरत के लिए क्या करती है, यह भी जान ले.

लाखन ने कहा, ‘‘शब्बो, क्या तुम्हारी सास भी तुम्हारी कोई मदद नहीं करतीं, वे भी तो एक औरत हैं?’’

‘वह बहरी बस मुरगियों को दाना डालने और उन के दड़बे साफ करने का काम करती है. वह अपने बेटों और आदमी के साथ है. अच्छा है वह औरत है, नहीं तो मुझे एक और मर्द को झेलना पड़ता.’

लाखन को समझ में आ गया था कि नरक कहीं आसमान में नहीं होता, बल्कि धरती पर ही फैला है. शब्बो जो भोग रही है, वह नरक ही तो है.

तब कुछ सोच कर लाखन ने कहा, ‘‘शब्बो, तुम चिंता मत करो. अब चाहे कुछ भी हो जाए, मैं तुम्हें उस नरक से निकाल कर ही रहूंगा. मैं कुछ करता हूं. तुम मुझे कुछ दिन बाद फिर फोन करना. मेरा फोन करना ठीक नहीं रहेगा.’’

‘ठीक है, मैं वैसे ही करूंगी, जैसा आप कहते हैं. बस, मुझे अब न जाने क्यों आप पर ही भरोसा है? मैं तो मौका देख कर यहां से भाग जाती, लेकिन मुझे पनाह देने वाले तो मेरे मांबाप भी नहीं. मैं क्या करूं… आप को मैं अलग से मुश्किल में डाल रही हूं,’ कह कर शब्बो फिर से सिसकने लगी.

‘‘शब्बो, अब तुम्हें किसी बात की चिंता करने की जरूरत नहीं है. तुम ने मुझे किसी मुश्किल में नहीं डाला है, बल्कि तू ने अपना समझ कर मुझ से अपने दिल की बात कही है. अपना ही अपनों के काम आता है. मैं तुम्हें पनाह भी दूंगा और अपनाऊंगा भी. अब फोन रखो और बेफिक्र हो जाओ.’’

यह सुन कर शब्बो को बड़ी तसल्ली हुई. उसे लाखन पर पूरा यकीन था. आखिर प्यार भरोसे का ही तो नाम है.

लाखन ने बहुत सोचविचार किया. उसे पता था कि शब्बो को बचाने के लिए उसे कई कुरबानियां देनी पड़ेंगी. उसे अपना घरपरिवार, गांव सब छोड़ना पड़ेगा. बिरादरी वाले उस पर थूथू करेंगे, लेकिन वह जानता था कि प्यार कुरबानी मांगता ही है और इस से भी बड़ी बात तो यह थी कि वह जालिमों के चंगुल से एक अबला को बचाने जा रहा था.

अगर शब्बो खुश रहती तो लाखन को यह सब करना ही क्यों पड़ता? उस ने तो खुशीखुशी शब्बो की शादी करा दी थी. वह यह भी जानता था कि कुछ कट्टरपंथी इसे सांप्रदायिक रंग देने की भी कोशिश करेंगे, लेकिन लाखन ने भी अब कठोर फैसला कर लिया था कि चाहे कुछ भी हो जाए, वह शब्बो को उस नरक से निकाल कर ही दम लेगा. वह किसी भी कीमत पर शब्बो का भरोसा टूटने नहीं देगा.

इस के लिए लाखन ने एक काबिल वकील से बात की. वकील ने कहा, ‘‘लाखन साहब, यह बड़ा रिस्की मामला है. अगर शबनूर ने आप का साथ न दिया और उस ने अदालत में गलत बयानबाजी कर दी, तो आप को लेने के देने पड़ जाएंगे. आप को जेल भी हो सकती है.’’

‘‘वकील साहब, अब जो होगा देखा जाएगा. मैं ने शब्बो से जो वादा किया है, उस को निभा कर रहूंगा. उस ने मुझ पर भरोसा किया है, तो मैं उस भरोसे पर खरा उतर कर दिखाऊंगा.’’

‘‘देख लो, लाखन साहब. भावनाओं में मत बहो. इस मामले में आप जीत भी गए, तो आप को बहुतकुछ गंवाना पड़ेगा. परिवार, इज्जत, सबकुछ.’’

‘‘वकील साहब, आप तो बस अपनी कार्यवाही को अंजाम देना. और हां, इलाहाबाद हाईकोर्ट के वकील साहब से भी बात कर के रखना. बाकी मुझ पर छोड़ दो.’’

‘‘कानूनी कार्यवाही की चिंता मत करो. वह तो सब मैं संभाल लूंगा. बस, मैं तो आप को आगाह कर रहा था.’’

वकील और लाखन ने अपनीअपनी कमान संभाल ली थी. इस के बाद जैसे ही शब्बो का फोन लाखन के पास आया, तो लाखन ने कहा, ‘‘शब्बो, इस जुम्मे की दोपहर की नमाज के वक्त, जब तुम्हारे देवर मसजिद में नमाज पढ़ने जाएं, तब तुम बुरका पहन कर सरकारी स्कूल के पास मिलना. मैं वहीं तुम्हारा इंतजार करूंगा.’’

जुम्मे के दिन नमाज के बाद शब्बो के गायब होने की खबर पूरे गांव में आग की तरह फैल गई. शब्बो के देवरों और ससुर ने उस को खूब तलाशा, फिर जटपुर में उस के मायके फोन किया गया, लेकिन शब्बो का कहीं अतापता नहीं था. तब पुलिस को सूचना दी गई.

अगले दिन पता चला कि लाखन भी गायब है. कडि़यां से कडि़यां जुड़ती चली गईं. पुलिस को दोनों की लोकेशन प्रयागराज में मिली, फिर लोकेशन मिलनी बंद हो गई.

हफ्तेभर बाद दोनों को पुलिस ने बिजनौर बसस्टैंड से गिरफ्तार कर लिया. उन दोनों को मंडावली थाने लाया गया.

जैसे ही गांव वालों को इस की खबर मिली, माहौल गरमा गया. कुछ कट्टरपंथी मुल्लामौलवियों ने इसे सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की. गांव में पंचायत करने की योजना बनाई गई, लेकिन पुलिस की सख्ती से ऐसा नहीं हो पाया.

तब भीड़ मंडावली थाने का घेराव करने पहुंच गई. मंशा यही थी कि किसी भी तरीके से शब्बो को थाने से छुड़ा लिया जाए, लेकिन थानेदार सत्यपाल होशियार निकला. वह जानता था कि ऐसे मामलों में क्या किया जाना चाहिए.

थानेदार सत्यपाल ने अपनी कागजी कार्यवाही पूरी करने के बाद शब्बो को बुरके में ही छिपा कर भीड़ के बीच से ही सादा वरदी में 2 महिला पुलिस कांस्टेबल की मदद से थाने से बाहर निकलवा दिया. पुलिस की गाड़ी शब्बो को ले कर मुरादाबाद नारी निकेतन पहुंच गई और कट्टरपंथी हाथ मलते रह गए.

शब्बो ने पहले ही पुलिस से बोल दिया था कि उसे किसी से नहीं मिलना है. शब्बो की मां तो उस से मिलने के लिए बहुत गिड़गिड़ाई थी.

लाखन का परिवार उसी के खिलाफ खड़ा हो गया था. सब यही कह रहे थे कि लाखन को इस मामले में नहीं पड़ना चाहिए था. लाखन उम्रदराज है और शब्बो अभी जवान है, कैसे निभेगी दोनों में?

लेकिन लाखन ने सबकुछ सोचसमझ कर किया था, इसलिए इन बातों की उसे कोई चिंता नहीं थी.

सब के मन में अभी भी यह बात थी कि शब्बो मजिस्ट्रेट के सामने बयान क्या देगी? कहीं वह पलट न जाए, फिर तो लाखन को पक्का जेल होगी.

लाखन की बिरादरी और मुसलिम कट्टरपंथी तो लाखन को जेल भिजवाने पर तुले हुए थे. वे यही सोच कर खुश हो रहे थे कि कुछ भी हो जाए, शब्बो उस के हक में बयान नहीं देगी और अपने परिवार के पास वापस आ जाएगी. लाखन को तो वह चाचा कहती है, फिर उस के साथ कैसे रहेगी? फिर वह कहां रहेगी? ऐसे कई सवाल लोगों के जेहन में उठ रहे थे.

कुछ दिन बाद मजिस्ट्रेट के सामने शब्बो के कलमबंद बयान होने थे. तहसील में सुबह से ही चहलपहल बढ़ गई थी. मामला अपनेआप ही 2 समुदायों का बन गया था.

कुछ हिंदू संगठन लाखन के हक में बिन बुलाए आ गए थे. उन्हें अपनी रोटी सेंकनी थी. गोल टोपी वाले तो पहले से ही बड़ी तादाद में भीड़ लगाए हुए थे. इन सब हालात को देखते हुए पुलिस बंदोबस्त भी चाकचौबंद था.

दोपहर के ठीक 12 बजे शब्बो को कड़ी पुलिस कस्टडी में मजिस्ट्रेट के सामने लाया गया. गोल टोपी वालों ने आगे बढ़ने की कोशिश की, तो पुलिस ने डंडा फटकार दिया.

इधर मजिस्ट्रेट के सामने शब्बो के कलमबंद बयान हो रहे थे, उधर बाहर खड़े लोगों की धड़कनें बढ़ रही थीं.

शब्बो ने अपने बयान में खुद के बालिग होने और अपनी मरजी से लाखन के साथ जाने की इच्छा जताई. यह सुन कर कट्टरपंथियों के मुंह लटक गए.

मजिस्ट्रेट के आदेश से शब्बो को लाखन के साथ जाने की छूट दे दी गई.

पुलिस कस्टडी में दोनों को उन के द्वारा बताई गई जगह पर छोड़ दिया गया. प्यार की जीत हुई. लाखन और शब्बो साथसाथ रहने लगे.

लाखन ने बिजनौर में किराए का मकान ले लिया और एक पैट्रोलपंप पर नौकरी करने लगा. दोनों वहीं सुख से रहने लगे.

डेढ़ साल बाद शब्बो ने एक बेटी को जन्म दिया और उस का नाम लखनूर रखा गया, जिसे दोनों प्यार से ‘लक्खो’ बुलाते हैं.

Romantic Story : रसीली बेवफा

Romantic Story : आसिफ अपनी बीवी सना के साथ 10 साल से बड़े प्यारमुहब्बत से मुंबई में रह रहा था. उस के 4 बच्चे थे, 2 बेटियां और 2 बेटे, जिन की उम्र महज 9 साल, 7 साल, 3 साल और एक साल थी. घर में सभी तरह की खुशहाली थी. किसी बात की कोई कमी न थी. आसिफ की सास साजिदा भी अपनी बेटी सना के साथ मुंबई में ही रह रही थी.

आसिफ एक मेहनती इनसान था. यही वजह थी कि उस ने बहुत कम समय में मुंबई में अपना खुद का कारोबार और घर बना लिया था.

आसिफ की सास साजिदा एक खर्चीली औरत थी, जबकि आसिफ की बीवी सना एक घर संभालने वाली जिम्मेदार औरत थी. यही वजह थी कि आसिफ ने काफी तरक्की की, क्योंकि सना फालतू के खर्च से हमेशा बचती थी, जिस से आसिफ को काफी बचत होती थी और धीरेधीरे वह बचत एक मोटी रकम बन जाती थी.

इस के उलट आसिफ की सास साजिदा दिनरात अपनी बेटी सना के कान भरती रहती थी कि क्यों इतने साधारण कपड़े पहनती हो, क्यों सीधीसादी बन कर रहती हो, जेवर खरीदो, अच्छे महंगे कपड़े पहनो. शौहर को बस में करना है, तो अपनी खूबसूरती में हर वक्त चार चांद लगाए लगाए रखो.

अपनी मां साजिदा की यें बात सुन कर सना बोलती, ‘‘अम्मी, मैं ऐसे ही इतनी खूबसूरत हूं. मुझे और क्या बननेसंवरने की जरूरत है. आसिफ मुझे अपनी जान से भी ज्यादा प्यार करता है. वह एक सीधासादा इनसान है और उसे खुद सीधीसादी बीवी पसंद है.’’इस पर साजिदा बोलती, ‘‘तू नहीं जानती मर्दों की असलियत. जहां खूबसूरत औरत देखी नहीं, बस उन के दीवाने हो जाते हैं. आजकल मौडर्न जमाना है. मौडर्न बन कर रहा कर सना. इसी में तेरी भलाई है.’’

वक्त गुजरता गया. साजिदा अपनी बेटी सना को भड़काती रही. सना आखिर कब तक अपनी मां की बातों में न आती. आखिर एक दिन सना ने मां साजिदा की बातों में आ कर उन के बताए रास्ते को अपना ही लिया.

आसिफ ने जब सना का यह बदला रूप देखा, तो उसे बहुत हैरानी हुई. वह सना से बोला, ‘‘क्या तुम ब्यूटीपार्लर भी जाने लगी हो?’’

सना बोली, ‘‘हां, अम्मी वहां जबरदस्ती ले गई थीं और उन्होंने मेरी आईब्रो बनवा दीं, फिर बाल स्ट्रेट करवाए. अब कैसी लग रही हूं मैं?’’

आसिफ ने कहा, ‘‘अच्छी लग रही हो. पर बुरा मत मानना कि तुम तो वैसे ही जन्नत की हूर लगती हो. तुम्हें यह सब करने की क्या जरूरत है?’’

सना ने पूछा, ‘‘क्या तुम मुझे देख कर खुश नहीं हो?’’

आसिफ बोला, ‘‘मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं और मैं तुम से हमेशा खुश रहता हूं. मैं ने तो बस यही कहा कि तुम बिना ब्यूटीपार्लर जाए ही इतनी हसीन लगती हो कि मैं तुम्हारे हुस्न का दीवाना हो उठता हूं.’’

सना ने जब आसिफ से यह सुना, तो बड़े प्यार से उसे गले लगा कर एक प्यारा सा चुम्मा रसीद कर दिया.

आसिफ ने भी सना के प्यार का जवाब प्यार से दिया.

अगले दिन सना की अम्मी बोलीं, ‘‘सना, चलो बाजार चलते हैं. तुम्हारे लिए मैं ने कुछ कपड़े पसंद किए हैं. वहां तुम वे कपड़े पहनना, बिलकुल अंगरेजी मेम लगोगी.’’

सना ने बाजार जाने से मना कर दिया, ‘‘मुझे इन सब चीजों की कोई जरूरत नहीं है.’’

इस पर साजिदा बोली, ‘‘कल आसिफ ने तुम से कुछ कहा था क्या?’’

सना ने कहा, ‘‘उन्हें यह सब पसंद नहीं है. वे बोलते हैं कि तुम ऐसे ही बहुत खूबसूरत हो. तुम्हें इन सब चीजों की क्या जरूरत है?’’

‘‘हर औरत इस होड़ में लगी रहती है कि वह दूसरी औरत से ज्यादा खूबसूरत लगे. जब तुम खूबसूरत हो तो क्यों एक घरेलू औरत की तरह सादगी से जिंदगी गुजार रही हो?

‘‘आसिफ तो पागल है. न तो वह खुद बनसंवर कर रहता है और न ही स्मार्ट दिखता है. बस, पैसा कमाने के पीछे इतना पागल हो गया है कि उसे अपनेआप को फिट और स्मार्ट रखने का ध्यान ही नहीं. अभी से उस ने कैसी बूढ़ों वाली दाढ़ी रख ली है.

‘‘जब तुम उस के साथ कहीं बाहर जाती हो, तो तुम दोनों को देख कर ऐसा लगता है जैसे बापबेटी जा रहे हो.’’

सना ने कहा, ‘‘क्या अम्मी, तुम भी कुछ भी बोलती हो. मेरा वे कितना खयाल रखते हैं, मुझे कितना प्यार
करते हैं.’’

‘‘प्यार तो करेगा ही न. जब कोई और औरत उसे घास नहीं डालती तो वह तेरा ही दीवाना बनेगा न. पता नहीं, मेरी क्या मति मारी गई थी, जो ऐसे बूढ़े से तेरी शादी कर दी.’’

सना अपनी अम्मी के मुंह से ऐसी बातें सुन कर सोच में पड़ गई. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि अम्मी ने ऐसा क्यों बोला.

सना को आज भी वह बात याद है, जब आसिफ का रिश्ता उस के लिए आया था. तब सना की अम्मी ने आसिफ को देखते ही इस रिश्ते के लिए मना कर दिया था, पर उस के अब्बू और भाई की जिद थी कि आसिफ एक मेहनती इनसान है, इसलिए अब्बू और भाई ने अम्मी की एक न चलने दी और सना की शादी आसिफ से हो गई.

हालांकि, साजिदा को आसिफ से सना की शादी करना अच्छा नहीं लग रहा था, क्योंकि वे उस की शादी अपनी बहन के बेटे से करवाना चाहती थीं, जो कि बहुत ही खूबसूरत, स्मार्ट और कमउम्र था.

शादी के इतने साल बीत जाने के बाद भी सना आसिफ के साथ बहुत खुश थी, मगर साजिदा उसे ऐसी सीख दे रही थी, जिस से उस के घर में कभी भी बड़ा तूफान आ सकता था.

साजिदा ने अपनी चालाकियों से सना को उस रास्ते पर ले जाना शुरू कर दिया, जिस की वजह से आसिफ और सना के रिश्ते में दरार पड़ने लगी.

हुआ यों था कि साजिदा ने सना को मौडर्न कपड़े पहनने का शौक डाल दिया. अब वह जींसटौप पहनने लगी थी, जिस से आसिफ को बुरा लगने लगा. उस ने उसे समझाने की कोशिश की, तो फौरन साजिदा बीच में ही बोल पड़ी, ‘‘तुम सना के मौडर्न बनने से जलते हो. उस के ब्यूटीपार्लर जाने से तुम्हें नफरत है.’’

आसिफ बोला, ‘‘अम्मी, मुझे कोई जलन नहीं है. हमारी शादी को इतने साल हो गए हैं. हमारे 4 बच्चे हैं.
2 बेटियां हैं. अगर सना इस तरह के कपड़े पहनेगी, तो उन सब पर क्या असर पड़ेगा.’’

‘‘आजकल कौन परदे में रहना पसंद करता है. तुम लोग तो औरत को चारदीवारी में कैद कर के रखना चाहते हो. औरत को भी जीने का हक है. पर तुम लोग तो औरत को घर की नौकरानी बना कर रखना चाहते हो.’’

अपनी सास साजिदा के मुंह से ये अल्फाज सुन कर आसिफ खामोश हो गया, पर सना को अपनी अम्मी की बातों में दम लगा और उस ने भी अपनी अम्मी का साथ दिया.

आसिफ चुप रहा. वह सोचता रहा कि सना नादान है. एक न एक दिन उसे अपनी गलती का अहसास होगा.

आसिफ का यह सोचना उस की भूल था. अब सना बिना परदे के बाहर घूमने जाने लगी और उस ने अपनेआप को पूरी तरह मौडर्न बना लिया था.

उधर साजिदा ने अपनी बहन के बेटे सनी को मुंबई बुला लिया था. वह मुंबई के एक इलाके में रहने लगा, जहां साजिदा सना को उस से मिलवाने ले जाने लगी.

सनी सना को घुमानेफिराने लगा, तो सना को एक नई खुशी मिलने लगी. अब वह कोई न कोई बहाना बना कर अपना ज्यादातर वक्त सनी के साथ गुजारने लगी.

दोनों का एकदूसरे से मिलनाजुलना शुरू हुआ, तो उन के बीच जिस्मानी ताल्लुकात भी जल्दी ही बन गए.

धीरेधीरे सना का लगाव सनी की तरफ बढ़ता गया और आसिफ से दूरियां बनने लगीं. वह बातबात पर आसिफ को नीचा दिखाने लगी, जिस से उन में ?ागड़ा होने लगा.

एक दिन मौका देख कर सना और उस की अम्मी साजिदा ने आसिफ के 7 लाख रुपए और जेवर घर से गायब कर दिए.

जब आसिफ को इस बात का पता चला, तो वह उन से इस बारे में पूछने लगा. पर उन्होंने साफ इनकार कर दिया कि उन्हें इस बारे में कुछ भी नहीं पता.

आसिफ चाह कर भी कुछ नहीं कर पाया, क्योंकि वह सना से बहुत मुहब्बत करता था. वह नहीं चाहता था कि उस की किसी हरकत से सना नाराज हो जाए और उस का घर टूट जाए.

आसिफ का यह सोचना ही उस की सब से बड़ी भूल थी. अब सना के पास काफी पैसा हो गया था. उस ने सनी के साथ मिल कर उन पैसों से और ज्यादा घूमनाफिरना शुरू कर दिया. अब तो वह रातरातभर गायब रहने लगी थी.

आसिफ ने सना की इस हरकत का विरोध किया, तो उस ने साफसाफ कह दिया, ‘‘मुझे तुम्हारे साथ नहीं रहना है. तुम अब मेरे काबिल नहीं हो.’’

आसिफ सना की यह बात सुन कर दंग रह गया. उस ने उसे सम?ाने की काफी कोशिश की, पर वह नहीं मानी.

आसिफ ने उसे अपने बच्चों का वास्ता दिया, तो सना की अम्मी साजिदा बोल पड़ी, ‘‘तेरे बच्चे हैं, तू पाल इन्हें.’’

आसिफ की समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. उस ने इन सब बातों की जानकारी अपने ससुर को दी, तो वे अगले ही दिन मुंबई के लिए चल दिए.

यह खबर सुन कर सना और साजिदा घर छोड़ कर गायब हो गईं.

एक दिन इंतजार करने के बाद आसिफ और उस के ससुर ने उन दोनों के गायब होने की सुचना पुलिस को दी.

तकरीबन 3 दिन बाद पुलिस ने सना से बात कर के उसे पुलिस स्टेशन बुलाया. साथ ही, आसिफ और उस के ससुर को भी पुलिस स्टेशन आने को कहा.

अगले दिन आसिफ और उस के ससुर पुलिस स्टेशन पहुंचे, तो देखा कि सना और उस की अम्मी साजिदा पहले से ही वहां मौजूद थीं.

पुलिस के पूछने पर सना बोली, ‘‘मुझे इस आदमी के साथ बिलकुल नहीं रहना. यह मेरे साथ मारपीट करता है. मुझ पर शक करता है. मुझे जानवरों की तरह मारता है, इसलिए मैं अपनी अम्मी के साथ अपने एक रिश्तेदार के यहां चली गई थी.’’

पुलिस इंस्पैक्टर ने कहा, ‘‘अगर तुम्हारे शौहर ने तुम पर जुल्म किया था, तो तुम्हें थाने में इस की रिपोर्ट दर्ज करानी चाहिए थी.’’

सना रोते हुए बोली, ‘‘इस के पास पैसा है, ताकत है. अगर मैं कुछ करती तो यह मुझे जान से भी मार सकता था, इसलिए मुझे जो अच्छा लगा, मैं ने वह किया.’’

पुलिस इंस्पैक्टर को उस पर तरस आया और वह आसिफ को डांटते हुए बोला, ‘‘तुम्हें शर्म नहीं आती, जो एक लाचार औरत पर जुल्म करते हो. अगर चार डंडे पड़ेंगे, तो तुम्हारे होश ठिकाने आ जाएंगे.’’

जब पुलिस इंस्पैक्टर ने आसिफ को हड़काया, तो सना की मां साजिदा बोली, ‘‘हम कभी इस के साथ नहीं जाएंगे और न ही कोई शिकायत दर्ज करेंगे. कुछ दिनों अकेला रहने और बच्चों की देखभाल करने पर इसे खुद ही पता चल जाएगा कि बच्चे कैसे पलते हैं.’’

पुलिस ने उन दोनों मांबेटी को छोड़ दिया और आसिफ को सख्त हिदायत दी, ‘‘आइंदा कुछ ऐसावैसा किया, तो जेल में बंद कर दूंगा.’’

आसिफ का घर टूट चूका था. उस के ससुर कुछ दिन वहां रहे और बाद में अपने घर लौट गए.

आसिफ अपने बच्चों को ले कर मुंबई से अपने गांव आ गया. अब उस के ऊपर अकेले बच्चों को पालने की जिम्मेदारी थी.

आसिफ का घर देखते ही देखते एक कब्रिस्तान की तरह बन गया. आज उस की मदद करने वाला कोई न था, पर आसिफ अभी भी सना की याद में तड़पता रहता था. उसे उम्मीद थी कि एक न एक दिन सना लौट आएगी.

आसिफ ने नशा करना शुरू कर दिया. अपनी बीवी के गम में वह रातरातभर सो नहीं पाता था. उस ने खुद को एक कमरे में कैद कर लिया था. उस के बच्चे भूखेप्यासे इधरउधर फिरते रहते थे. उन को देखने वाला अब कोई न था.

धीरेधीरे आसिफ को कई बीमारियों ने घेर लिया. वह शराब पीने के चक्कर में पहले से ही जिस्म से कमजोर था, फिर मन से भी कमजोर होता चला गया. सना के बिना उस की जिंदगी उजड़ गई थी.

आसिफ और उस के बच्चों की ऐसी बदहाली देख कर उस की बहन को उस पर तरस आया और उस के बच्चों को अपने साथ ले गई. इन सब के बावजूद आसिफ को कोई फर्क नहीं पड़ा.

आज इस घटना को पूरे 3 साल हो गए थे. न सना वापस आई और न ही आसिफ को होश रहा.

Family Story : सस्ते का चक्कर पड़ा महंगा

Family Story : गौतम की नासिक में नईनई नौकरी लगी थी. अब नासिक में घर जमाना था. दफ्तर की ओर से क्वार्टर तो मिलता था, पर इस के लिए इंतजार करना पड़ता था. हो सकता है कि 6 महीने लग जाएं क्वार्टर मिलने में, इसलिए गौतम ने किराए पर एक मकान ले लिया था.

पर, घर के लिए सामान तो चाहिए था. अपने घर में सुविधाओं के बीच रहा हुआ आदमी था गौतम, इसलिए बैड, सोफा, एसी, फ्रिज तो चाहिए ही उसे, पर इस के लिए तो उसे एक से डेढ़ लाख रुपए चाहिए. घर वाले एकसाथ सभी सुविधा नहीं देना चाहते थे. उन का कहना था कि हर महीने कुछकुछ सामान लेते रहना, पर उस का मन तो शुरू से ही सारी सुविधाओं के लिए उतावला था.

जौइन करने के बाद लगातार 3 दिनों की छुट्टियां थीं, इसलिए गौतम अपने घर मेरठ वापस आ गया था. उस के दिमाग में हमेशा यही बात चलती रहती थी कि कैसे सारी सुविधाएं जल्द से जल्द ले ले. उस ने औनलाइन मार्केट के बारे में सुना था, जहां सस्ते में सामान खरीदेबेचे जाते हैं.

गौतम ने एक अनुरोध डाल दिया सभी सामानों की लिस्ट के साथ. एक घंटे के अंदर उस के पास ह्वाट्सएप पर एक प्रस्ताव आ गया. सभी सामान के फोटो के साथ बताया गया था कि उस आदमी का ट्रांसफर मुंबई में हो गया है. उस की कंपनी जितना पैसे उसे सामान के परिवहन के लिए देगी, उस में वह जा नहीं पाएगा और जितना खर्च लगेगा उतने में नया सामान आ जाएगा, इसलिए वह औनेपौने दाम पर अपना सभी सामान बेच रहा है.

गौतम को सामान बहुत पसंद आया. इन सामानों को खरीदने में एक लाख रुपए खर्च होते, पर वह सिर्फ 30,000 रुपए में दे रहा था.

गौतम ने उस नंबर पर फोन किया.

‘हैलो…’ दूसरी तरफ से किसी आदमी की आवाज आई.

‘‘मैं गौतम बोल रहा हूं मेरठ से. आप का सामान मुझे पसंद है. मैं 1 तारीख को नासिक आ रहा हूं. वहां भुगतान कर के सामान ले लूंगा.’’

‘असल में मुझे 30 तारीख को ही मुंबई जाना है. मेरा ट्रांसफर हो गया है. आप अपना पता बता दें, मैं उस पते पर सामान भेज दूंगा. आप पेटीएम से भुगतान कर देना,’ बड़ी ही मीठी आवाज में उस ने जवाब दिया.

‘‘मैं चाहता था कि सामान मैं खुद देखूं, फिर बात करूं. फोटो में तो वैसे ठीक लग रहा है,’’ गौतम ने कहा.

‘सामान के लिए आप जरा भी चिंता मत करो. बिलकुल ब्रांड न्यू है. अगर मेरा ट्रांसफर नहीं हुआ होता या मुझे सामान ले जाने के पैसे सही मिलते, तो मैं ले जाता. अभी 6 महीने भी नहीं हुए हैं इन्हें खरीदे हुए,’ उस आदमी ने समझते हुए कहा.

‘‘अगर मुझे कोई सामान पसंद नहीं आएगा, तो फिर…?’’ गौतम ने शक जाहिर किया.

‘पसंद न आने का तो सवाल ही नहीं है भाई साहब. बिलकुल नया सामान है और इस्तेमाल भी न के बराबर हुआ है.’

‘‘फिर कैसे करें, बताइए? मेरा रिजर्वेशन पहली तारीख का है और आप कह रहे हैं कि आप को 30 तारीख को ही निकलना है,’’ गौतम चिंतित हो गया.

‘आप तो फिलहाल सिर्फ 5,000 रुपए पेटीएम कर दो, बाकी पैसा आप आने के बाद दे देना. मैं सामान अपने किसी दोस्त से कह कर आप के बताए पते पर भिजवा दूंगा. और कुछ…?’ उस ने प्रस्ताव रखा.

‘‘आजकल इतने फ्रौड होते हैं कि यकीन करना मुश्किल होता है,’’ गौतम के मन में अभी भी थोड़ा शक था.

‘मैं डिफैंस में हूं और डिफैंस वाले फ्रौड नहीं करते. हम किसी को अपना आईडी कार्ड नहीं देते. पर, आप के यकीन के लिए अपना आईडी कार्ड ह्वाट्सएप कर रहा हूं. अगर यकीन हो, तो फिर पेमेंट करना, वरना कोई बात नहीं,’ उस ने जवाब दिया.

थोड़ी ही देर में गौतम के मोबाइल फोन पर उस का आईडी कार्ड का फोटो भी आ गया. गोविंद शर्मा नाम था उस का. अब शक की कोई गुंजाइश नहीं रह गई थी. उस ने 5,000 रुपए उस के खाते में भेज दिए और अपना पता उसे बता दिया. जवाब में भी ‘ओके’ आ गया.

गौतम निश्चिंत हो गया. अब जरूरत की सारी चीजें उस के पास हो जाएंगी. जब दफ्तर से क्वार्टर मिलेगा, तो शिफ्ट करना ही एक काम रहेगा.

अगले दिन जब गौतम अपने दोस्तों के बीच बैठा गपें मार रहा था, तभी गोविंद का फोन आया. गौतम ने फोन उठा लिया और बोला, ‘‘हैलो.’’

‘अरे गौतमजी, एकाएक मुझे और्डर मिला है कि 29 तारीख को ही मुंबई जाना है. आप 5,000 रुपए और पेटीएम कर दो प्लीज,’ गोविंद ने कहा.

‘‘कैसी बातें कर रहे हैं, 5,000 रुपए तो मैं पहले ही आप को दे चुका हूं, बाकी पैसे जैसे ही सामान कब्जे में ले लूंगा, तब दे दूंगा,’’ गौतम बोला.

‘हम डिफैंस वाले आप लोगों की हिफाजत के लिए कितनी मुसीबतें झेलते हैं और आप हैं कि 5,000 रुपए के लिए मुझ पर यकीन नहीं कर रहे हैं,’ गोविंद ने कहा.

‘‘देखिए, मेरे पास अभी पैसे हैं भी नहीं. 1 तारीख को आ कर मैं आप को पूरे पैसे दे दूंगा,’’ गौतम ने कहा.
इस तरह गोविंद गौतम को पैसे भेजने के लिए कहता रहा और गौतम इस बात पर अड़ा रहा कि सामान मिलते ही वह पैसे दे देगा.

‘फिर, मैं ऐसा करता हूं कि सामान किसी और को बेच देता हूं और आप के पैसे वापस कर देता हूं,’ इतना कह कर गोविंद ने फोन काट दिया.

‘‘क्या बात है… किस से इतना उलझ रहे थे?’’ गौतम के दोस्त सिद्धार्थ ने पूछा.

गौतम ने उसे सारी बात बता दी.

‘‘तुम किसी ठग के चक्कर में पड़ चुके हो. चलो, उस का नंबर बताओ, मैं ट्रू कौलर पर देख कर बताता हूं,’’ सिद्धार्थ ने कहा.

गौतम ने उसे गोविंद का नंबर बताया, जिसे सिद्धार्थ ने ट्रू कौलर पर सर्च कर के देखा. ट्रू कौलर उस नंबर को फ्रौड बता रहा था.

गौतम ने उसी समय गोविंद को फोन लगाया और बोला, ‘‘मुझे तुम्हारी असलियत का पता चल चुका है. मैं पुलिस में शिकायत करने जा रहा हूं.’’

‘ठीक है, ऐसी कई शिकायतें हो चुकी हैं मेरे खिलाफ, एक और सही. चलो, फोन रखो, मुझे दूसरे लोगों को भी फंसाना है,’’ इतना कह कर गोविंद ने फोन काट दिया.

गौतम ने दोबारा फोन किया, तो नंबर स्विच औफ आ रहा था.

‘सस्ते का चक्कर बड़ा महंगा पड़ा,’ गौतम ने सोचा.

Family Story : 9वीं फेल

Family Story : शोभा अपने भैया शोभन की बात सुन कर एकदम से हैरान रह गई. पापा को भैया यह क्या कह गए कि 9वीं फेल वे क्या जानें कि पढ़ाई और डिगरी क्या चीज होती है.

पापा 9वीं फेल हैं या पास हैं, यह तो बाद की बात है, पर उन्होंने जो इतना बड़ा कारोबार अपने बूते खड़ा किया है, क्या वह ऐसे ही कर दिया है? क्या वे नहीं देख और जान रहे हैं कि न जाने कितने नौजवान मैडिकल और इंजीनियरिंग की बड़ीबड़ी डिगरियां लिए सड़कों पर धूल फांक रहे हैं?

आंगन में खड़े शोभा के पापा जगदीश एकदम से जड़ हो कर आसमान की तरफ देखते रह गए. उन्हें ऐसा लग रहा था कि उन्होंने जोकुछ पाया है, क्या वह सब बेकार गया है? उन्होंने जोकुछ बिना किसी डिगरी के हासिल किया है, क्या वह यों ही भाग्य भरोसे मिल गया है?

नहीं, यह संयोग नहीं है कि जगदीश शहर के जानेमाने कारोबारी हैं. वे शहर की एक मशहूर साड़ी दुकान के मालिक हैं, जिन के तहत स्टाफ के 20-20 लोग खटते हैं… और भैया उन्हें 9वीं फेल बता रहे हैं.

9वीं फेल… मतलब क्या है? यही न कि पापा कमअक्ल हैं और उन की समाज में कोई इज्जत नहीं है?

‘‘भैया, यह आप क्या कह रहे हैं…? क्या आप को पापा के बारे में जानकारी नहीं है कि गांव का स्कूल बनवाने में इन का कितना बड़ा योगदान है? स्कूल की जमीन खरीदने से ले कर उस की इमारत बनवाने तक में इन्होंने पैसे से भरपूर मदद की है…’’

शोभा अपने भैया शोभन को जैसे झकझोर रही थी, ‘‘इस शहर में न जाने कितनी ही सभासोसाइटियों के वे सदस्य हैं. ठीक है कि ज्यादा बिजी होने की वजह से वे हर जगह नहीं जा पाते हैं, लेकिन पापा ने फर्श से अर्श तक का एक लंबा फासला तय किया है और तुम इन को कह रहे हो कि ये 9वीं फेल हैं. क्या डिगरियों से ही अक्ल का वास्ता रहता है?’’

‘‘शोभा, तुम अपना ज्यादा ज्ञान मत झाड़ो…’’ शोभन अपनी बाइक स्टार्ट करते हुए बोला, ‘‘जो सच है, वह सच है. मैं ने क्या गलत कहा है?’’

‘‘हां, तुम गलत कह रहे हो. जरा, सुनो तो…’’

मगर, तब तक शोभन अपनी बाइक ले कर जा चुका था.

शोभा की मां शारदा रसोईघर में थीं. उन्होंने यह बात सुनी ही नहीं या फिर शायद अनसुनी कर दी. उन्हें हमेशा ऐसा लगता है कि शोभन कभी गलत नहीं कह सकता. बेटे गलत नहीं हो सकते.

आज रविवार को साप्ताहिक बंदी की वजह से जगदीश घर पर ही थे. उन्हें कहीं जाना था. शायद किसी फंक्शन में. उस के लिए उन्होंने बढि़या कपड़े भी निकाले थे, मगर अब उन का मूड खराब हो चुका था. वे कुरतापाजामा पहन कर बाहर निकल गए. अब शायद वे शाम की सैर करने के लिए पार्क जाना चाह रहे थे.

शोभा शुरू से ही ऐसा देखती आई है. जब भी पापा तनाव में होते हैं, तब वे या तो पार्क में चले जाते हैं या फिर गंगा किनारे टहलने निकल जाते हैं.

‘‘पापा, आप रुकिए, मैं चाय बना कर लाती हूं…’’ शोभा जगदीश से मनुहार करते हुए बोली, ‘‘आप के साथ मैं भी चाय ले लूंगी. आप से मुझे बहुत सारी बातें करनी हैं.’’

मगर जब तक शोभा चाय बना कर लाती, तब तक जगदीश कपड़े पहन कर निकल चुके थे.

शोभा ने चाय के दोनों प्याले वहीं रख दिए. अब चाय क्या पीना. पापा तो निकल चुके हैं. उन्हें भैया की बातों से गहरी चोट लगी थी. भैया ने उन पर जो आरोप लगाया, वह क्या सही है? क्या सिर्फ डिगरी ही कामयाबी का पैमाना है?

भैया यह जानते हैं, फिर भी वे बोल कर निकल गए. ठीक है कि पापा कुछ पुराने जमाने के हैं, जींसटीशर्ट की जगह साधारण पैंटशर्ट पहनते हैं, मगर वे किसी भी मामले में किसी से कम हैं क्या, जो उन्हें अनदेखा किया जाए?

इधर शोभा अपने भैया शोभन की हरकतों को देख और महसूस कर रही थी कि पापा की बातें और बरताव उन्हें अच्छा नहीं लगता. उन्हें लगता है कि पापा किसी सरकारी औफिस के बड़े अफसर होते, तो कितना अच्छा रहता. पढ़ेलिखे लोगों का कुछ अलग ही रुतबा होता है. लेकिन इतनी बड़ी दुकान चलाने के लिए भी तो पढ़ाईलिखाई जरूरी है.

शोभन को पापा से हजार शिकायतें थीं… जैसे पापा की बातों में गंवई पुट है. उन में वह आत्मविश्वास नहीं है, जो किसी स्मार्ट इनसान में होना चाहिए. उन के कपड़े पहनने और चलने का ढंग भी ठीक नहीं है. पता नहीं, लोग उन्हें कैसे झेल लेते हैं. पहली ही नजर में दिख जाता है कि वे 9वीं फेल हैं.

अपने पापा की पढ़ाई के प्रति शोभन की हीनभावना कोई एक दिन में नहीं उपजी थी. उसे याद है, जब उस ने 12वीं पास करने के बाद एक कालेज में फार्म भरा था, तब पापा उस के साथ गए थे.

वहां दिए गए फार्म के एक कौलम में जब पापा ने 8वीं पास लिखा था, तब कालेज का बाबू मुसकरा कर बोला था, ‘चलो, अच्छा है. बाप 8वीं पास है, तो बेटा 12वीं पास कर गया. सबकुछ ठीकठाक रहा, तो कालेज भी पास कर ही जाएगा.’

तब शोभन खुद कमउम्र का था, इसलिए उस क्लर्क को वह जवाब नहीं दे पाया था, मगर अब तो वह सबकुछ देखसमझ रहा है. इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बाद वह पुणे से मैनेजमैंट की पढ़ाई कर रहा है.

शोभा सोच रही थी कि आजकल की पढ़ाई में कितना खर्च है, इसे तो शोभन भैया समझ ही रहे होंगे. उन के पीछे वह भी तो पढ़ाई कर रही है. अपनी पढ़ाई के वक्त वह भी पापा के साथ कालेज गई थी. पापा की बड़ी इच्छा थी कि शोभा मैडिकल की पढ़ाई करे.

‘‘देख रही हो न कि पटना का माहौल कितना खराब है. लोगों की सेहत भी अच्छी नहीं रहती है. बुढ़ापे में तो और भी दिक्कत होती है. तुम डाक्टर बनोगी, तो मुझे कोई दिक्कत नहीं होगी. नहीं तो डाक्टरों के चोंचले और नखरों से माथा खराब रहता है,’’ जगदीश ने शोभा से कहा था.

शोभा का सिर दर्द करने लगा था. उस ने टैलीविजन औन कर दिया. वहां भी वही रूटीन टाइप की चीजें. मोबाइल फोन में भी उस का मन नहीं लगा. वह बिस्तर पर लेट गई और आंखें बंद कर लीं.

जबजब शोभा घर आती है, तो एक चक्कर वह गांव का भी लगा लेती है. वहां उस के बड़े पापा और चाचा रहते हैं. वहां उसे कोई दिक्कत नहीं होती. आराम से वह खेतबागानों में घूमती है, तो उसे बड़ा अच्छा लगता है.

ठीक है कि गांव में बड़ी गंदगी है, मगर इन शहरों में क्या कम गंदगी है. बड़ी सड़कों को छोड़ कर जरा गलियों में घुसने से ही शहर की चमकदमक और हकीकत का पता चल जाता है.

गांव में एक ठहरी हुई सी जिंदगी जरूर है, मगर उस में कुछ तो अपनापन है ही. ठीक है कि वहां गरीबी, बीमारी, बेरोजगारी भी है. सड़कें टूटीफूटी और गलियां काले कीचड़ से बजबजाती बदबू छोड़ती हैं. लेकिन वहां के घर कोई माचिस के डब्बों की तरह नहीं हैं, जो आदमी उसांस भरने लगे. ज्यादातर लोग वहां भी ऊबे हुए से हैं, फिर भी लोगों के चेहरे पर एक निश्चिंतता सी है. कोई भागादौड़ी नहीं है.

चाचा शोभा से हंस कर कहते, ‘‘तुम को गांव बहुत अच्छा लगता है. चलो, अच्छा है. पर गांव में डाक्टर की कमी है. तुम यहीं आ कर अपनी प्रैक्टिस करना. जगदीश तो गांव छोड़ कर पटना भाग गया. तुम उस की कमी पूरी कर देना.’’

‘‘तुम भी क्या बात करते हो. शादी के बाद शोभा अपने ससुराल जाएगी कि यहां रहेगी…’’ बड़े ताऊजी हंस कर कहते, ‘‘वैसे, शोभा बेटी जहां भी जाएगी, वहां की शोभा ही बढ़ाएगी. इस के जन्म के साथ ही मंझले के कारोबार में इजाफा हुआ था. तभी तो उस ने अपनी दुकान का नाम ‘शोभा साड़ी शौप’ रखा है. और तुम देखना, वह इस की शादी भी किसी बड़े शहर में ही करेगा.’’

‘‘मगर, शोभा तो खेत और बागानों में ही घूम कर खुश होती है. कहती है कि यहां बड़ी शांति है. उसे नहीं पता कि यहां धर्म और जाति में गांव कितना बंटा हुआ है. बहुत राजनीति है गांव में,’’ चाचा शोभा से कहते.

‘‘शहर भी धर्म और जाति में बंटे हुए हैं चाचाजी…’’ शोभा हंस कर कहती, ‘‘आप ने वहां के अंदरूनी हालात को नहीं देखा है न. बस, उस के ऊपर प्रशासनिक अनुशासन या डर का एक मुलम्मा चढ़ा हुआ है, इसलिए वह दिखाई नहीं देता. और वहां के राजनीतिक हालात के बारे में तो पूछिए ही मत.’’

‘‘मगर, वहां कोई एकदूसरे के काम में दखलअंदाजी नहीं करता,’’ चाचा बोले, ‘‘तभी तो जगदीश अपने कारोबार में कामयाब हुआ है.’’

‘‘सो तो है ही. बाबूजी के मरने के बाद हम अनाथ हो गए थे. उस समय जगदीश 8वीं क्लास में पढ़ता था. अब घर कैसे चले, सो उस की चिंता हमें खाने लगी थी. मैं तो निरा बेवकूफ ठहरा. खेतीबारी करने के अलावा कुछ जानता ही नहीं था.

‘‘ऐसे में जगदीश ने हिम्मत कर के दुर्गापूजा के वक्त पंडाल के पास ही एक खिलौने की दुकान लगा ली थी. उस में उसे कुछ मुनाफा हुआ, तो उस ने दीवाली में पटाकों की दुकान खोल ली.

‘‘इस तरह वह छोटेछोटे काम करता रह गया. इस चक्कर में वह मुश्किल से 8वीं जमात ही पास कर पाया था. मगर उसे दुकानदारी कर कमाई करने का जो भूत सवार हुआ, तो उस में लगता ही गया.

‘‘बाद में उस ने स्कूल के पास ही एक स्टेशनरी की दुकान खोल ली थी. इस का असर यह हुआ कि उस की दुकान तो चल गई, लेकिन वह 9वीं जमात पास नहीं कर पाया. मगर लेनदेन में वह काफी कुशल था, सो महाजन भी उसे रुपए देने में आनाकानी नहीं करते थे.

‘‘आगे चल कर जब वह पटना से माल उठाने लगा, तो काम और भी चल निकला. देखतेदेखते उस की दुकान बहुत बढ़ गई थी, लेकिन उस की पढ़ाई चौपट हो गई थी,‘‘ ताऊजी ने कहा.

‘‘लेकिन, जगदीश ने मेरी पढ़ाई पर बहुत ध्यान दिया था…’’ चाचा बोले, ‘‘उस ने मुझे कभी किसी चीज की कमी नहीं होने दी. वह तो मेरा पढ़ाई में मन नहीं लगता था, इसलिए ज्यादा पढ़ नहीं पाया. फिर भी उस के दबाव की वजह से मैं मैट्रिक पास कर गया था.

‘‘पढ़ाई के लिए जगदीश की जो लगन थी, उसी ने शायद तुम लोगों को पढ़ाने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ी है. उसे लगता था कि नई पीढ़ी का पढ़ालिखा होना बहुत जरूरी है, इसलिए वह तुम को और शोभन को पढ़ाने में कोई कमी नहीं कर रहा था.’’

‘‘सो तो है ही चाचाजी…’’ शोभा गर्व से बोली, ‘‘हमारी पढ़ाई के लिए पापा हमेशा सजग रहे. हम ने जो पढ़ना और बनना चाहा, उस के लिए वे हमेशा तैयार रहे. कभी कोई कमी नहीं होने दी.

‘‘शोभन भैया इंजीनियरिंग की तैयारी के लिए कोटा जाना चाहते थे. सो, वहां भी उन्हें भेज कर पूरी तैयारी कराई. खर्च की तो कभी उन्होंने परवाह ही नहीं की.’’

‘‘तुम तो सब जानती हो शोभा बेटी. अब तुम्हें क्या बताना…’’ ताऊजी बोले.

मगर आज वही शोभन भैया पापा को क्या कह गए. क्या वे नहीं जानते कि पापा ने यहां तक पहुंचने के लिए कितनी मेहनत की है. ठीक है कि वे ज्यादा पढ़ेलिखे नहीं हैं, मगर इस के लिए क्या वे ही कुसूरवार हैं? क्या उन दिनों के हालात कुसूरवार नहीं हैं, जिन की वजह से वे आगे पढ़ नहीं पाए थे?

फिर भी पापा ने थोड़ी सी पूंजी से अपना कारोबार गांव में शुरू किया था. सीजनल टाइम में वे पटना से अपने गांव में सामान लाते थे और बेचते थे. इस के लिए उन्हें गांव के महाजन से सूद पर पैसा लेना पड़ता था.

बाद में पापा सीजनल धंधों को दरकिनार कर सिर्फ कपड़े के कारोबार में हाथ आजमाने लगे थे. कपड़ों की पहचान और ग्राहकों की पसंद को ध्यान में रख कर उन्होंने अपनी दुकान को खूब आगे बढ़ा लिया था.

धीरेधीरे पापा को पटना आतेजाते वहां के हाटबाजार का भी हाल मालूम चल गया था. तब उन्हें लगा था कि अगर वे पटना में अपनी एक दुकान खोल लें, तो उन्हें अपने कारोबार में अच्छा फायदा हो सकता है.

एक कारोबारी को जब रुपए की जरूरत हुई, तो उसे अपनी दुकान बेचनी पड़ी. तब पापा ने अपनी जमापूंजी लगा कर वह दुकान खरीद ली थी. दुकान का नाम भी उन्होंने शोभा के नाम पर ‘शोभा साड़ी शौप’ रखा था.

पापा का मानना था कि जैसे ही शोभा का जन्म हुआ, तो उन के कारोबार में तरक्की हुई थी और वे इस दुकान को खरीदने में कामयाब हुए थे. फिर तो धीरेधीरे वे कारोबार को बढ़ाते ही चले गए थे. जिस के बाद सब से पहले किराए का मकान ले कर अपने परिवार को बुलाया.

शोभा उस समय छोटी सी प्यारी बच्ची थी. पूरे प्यार के साथ उन्होंने उस का दाखिला एक नर्सरी स्कूल में कराया था. शोभन भैया उन दिनों गांव के एक सरकारी स्कूल में दूसरी क्लास में पढ़ते थे. फिर काफी भागदौड़ के बाद एक अच्छे स्कूल में शोभन का दाखिला मोटा डोनेशन दे कर हुआ था.

एक तो भैया पहले ये ही फुजूलखर्च थे, उन की पढ़ाई भी महंगी होती थी. उन के लिए पापा ने ट्यूशनें रखीं. पढ़ाई में औसत होने के चलते उन की पढ़ाई पर खर्च भी खूब होता था. इस सब के बावजूद पापा ने कभी खर्चों में नानुकर नहीं की. समय निकाल कर वे शोभन की किताबकौपियां देख लिया करते थे.

उधर उन की दुकान चल निकली थी. अब पापा एक मकान भी खरीद चुके थे और दुकान भी बड़ी हो चुकी थी. दुकान में 5-5 नौकर थे, जिन्हें वे अपना स्टाफ कहते थे.

समय किस रफ्तार से आगे बढ़ता है. गांवघर कब के पीछे छूट गए. शोभा पढ़ाई में होशियार तो थी ही, पापा की हमेशा से यही इच्छा रही थी कि वह डाक्टर बने, तो इस दिशा में उस ने अपनी कोशिश जारी रखी.

यही वजह थी कि शोभा खुद अच्छी पढ़ाई कर मैडिकल का ऐंट्रैंस ऐग्जाम पास कर मुजफ्फरपुर के एक सरकारी मैडिकल कालेज में पढ़ाई कर रही थी, जबकि शोभन कोलकाता के एक प्राइवेट इंजीनियरिंग कालेज में बीटैक की पढ़ाई कर रहा था.

इस के लिए शोभन ने कोटा में 2 साल रह कर आईआईटी के लिए कोचिंग ली थी. अभी तो खैर वह पुणे में एमबीए की पढ़ाई कर रहा है.

इस बीच पापा को कभी इस बात का एहसास ही नहीं हुआ कि वे 9वीं फेल हैं. और आज शोभन उन पर ताना कस रहा है कि वे कुछ नहीं जानते.

अचानक शोभा को कुछ खटका सा हुआ, तो वह जाग गई.

‘‘अरे, तुम इतनी जल्दी सो गई?’’ शोभन उस से पूछ रहा था, ‘‘अभी तो 9 ही बजे हैं. तबीयत ठीक नहीं है क्या तुम्हारी? छुट्टियों में आई हो, तो कहीं घूमनेटहलने जाना चाहिए.

‘‘बाजार की रंगीनियों की तरफ तो देखो. चारों तरफ साफसफाई है. दुकानें कितनी सजीधजी हैं. चौकचौराहों पर पंडाल लगे हैं. सड़कें रोशनियों से जगमगा रही हैं. बाहर लोगों के हुजूम के हुजूम खरीदारी के लिए निकले हुए हैं. कितना भला और अच्छा दिख रहा है शहर.’’

‘‘वह तो ठीक है भैया कि सबकुछ अच्छाभला दिख रहा है, मगर तुम ने पापा को जो कहा, वह अच्छा था क्या? पापा खुद पढ़ नहीं पाए, इस के पीछे की वजह को हमें जानना चाहिए कि नहीं? तुम ने उन्हें 9वीं फेल कहा. उन को इस बात से कितनी चोट लगी होगी, इस का अंदाजा तुम्हें है क्या?’’

‘‘तुम ने ठीक कहा शोभा…’’ शोभन बोला, ‘‘पढ़ाई के लिए कीमत चुकानी होती है और जब पैसा न हो, तो कोई कैसे पढ़ सकता है? अब देखो न, मैं अविनाश के घर गया था. उस ने अपनी बीटैक की पढ़ाई छोड़ दी है.

‘‘वह कह रहा था कि उस के पापा के रैस्टोरैंट में जबरदस्त घाटा हुआ है, जिस से उन पर भारी कर्ज है. उन्होंने अपने कई स्टाफ की छुट्टी कर दी है. और वह बता रहा था कि अब वह पापा के रैस्टोरैंट में ही उन की मदद करेगा.’’

‘‘शायद तुम नहीं जानते कि हमारे पापा के साथ भी ऐसे हालात कई बार हो चुके हैं, लेकिन उन्होंने हमारी पढ़ाई छुड़वाने की बात कभी नहीं की. तुम ने उन पर इतना बड़ा आरोप लगा दिया. कितने दुखी होंगे वे, इस का अंदाजा है तुम्हें?’’ शोभा बोली.

‘‘सौरी शोभा, अब तुम मेरा अपराधबोध और ज्यादा न बढ़ाओ. मैं पापा से माफी मांग लूंगा.’’

‘‘तो यह काम अभी होना चाहिए,’’ शोभा ने कहा.

‘‘इस की कोई जरूरत नहीं है…’’ अचानक पापा अंदर आए, ‘‘मैं तो अपने अंदर के अधूरेपन को तुम्हारी पढ़ाई से पूरा कर रहा हूं. तुम खुश रहो, मुझे कुछ और नहीं चाहिए.’’

शोभन सिर झुकाए खड़ा था.

पापा शोभा को अपने गले से लगाते हुए बोले, ‘‘मेरी छोटी सी गुडि़या अब बड़ी और समझदार हो गई है.’’

Social Story : करारा जवाब

Social Story : अशरफ महक को ब्याह तो लाया था, पर बिस्तर पर जाते ही वह ढेर हो जाता था. महक के अरमान पूरे नहीं होते थे. वह हवस की आग में जलने लगी थी. तभी सलीम उस की जिंदगी में आया और दोनों में नाजायज रिश्ता बन गया. एक दिन अशरफ को इस की भनक लग गई. आगे क्या हुआ?

उत्तर प्रदेश के जिला बिजनौर का रहने वाला अशरफ नईनई शादी कर के महक को अपने घर लाया था. महक जैसी खूबसूरत बीवी पा कर उस की खुशी का ठिकाना नहीं था.

अशरफ खुश होता भी क्यों न, महक तो सचमुच की महक थी. गोरा बदन, गुलाबी होंठ, सुर्ख गाल, काले घने लंबे बाल और जब वह हंसती थी, तो उस के सफेद दांत ऐसे लगते थे, जैसे मोती बिखर रहे हों.

सुहागरात पर जब अशरफ ने महक का घूंघट उठाया, तो उस के मुंह से अनायास ही निकल गया, ‘‘वाह, क्या बेशकीमती तोहफा मिला है मुझे…’’

अशरफ से अपनी तारीफ सुन कर महक शरमा गई और अपनी हथेली से अपने चेहरे को ढकते हुए बोली, ‘‘इतनी तारीफ मत करो मेरी.’’

‘‘मैं तो सिर्फ तुम्हारे उस हुस्न की तारीफ कर रहा हूं, जिस पर सिर्फ मेरा हक है. सम?ा में नहीं आता कि इस हुस्न को यों ही रातभर देख कर गुजारूं या इस का स्वाद चखूं…’’

महक धीरे से बोली, ‘‘आप बड़े शरारती हो.’’

अशरफ ने कहा, ‘‘शरारत अभी की ही कहां है. अभी तो तुम्हारे हुस्न को देख कर आंखों को ठंडक पहुंचाई है, दिल की ठंडक दूर करना तो अभी बाकी है.’’

इस के बाद अशरफ ने बड़े प्यार से महक के गहने उतारने शुरू किए. वह एकएक कर महक के गहने उतारता रहा और उस के हुस्न की तारीफ करता रहा.

इसी तरह महक के हुस्न की तारीफ करतेकरते आधी रात गुजर गई, पर अशरफ आगे बढ़ने का नाम ही नहीं ले रहा था.

महक का दिल जोरों से धड़क रहा था. अशरफ के एकएक अल्फाज और उस के हाथों की छुअन से महक के बदन में सरसराहट दौड़ रही थी.

काफी रात बीत जाने के बाद अशरफ ने महक के कपड़े उतारने शुरू किए.

महक के गोरे और कमसिन बदन को देख कर अशरफ धीरेधीरे आगे बढ़ रहा था. वह उस की नाभि पर अपने गरमागरम होंठ रख कर उसे चूम रहा था.

महक मदहोश होती जा रही थी. उस ने हिम्मत कर के अशरफ को अपने ऊपर खींच लिया. पर यह क्या, अशरफ अभी उस के शरीर में उतरा ही था कि तभी ढेर हो गया. वह करवट ले कर लेट गया.

महक अशरफ की इस हरकत पर हैरान रह गई. उस के तनबदन में तो मानो आग लगी हुई थी, पर उस का शौहर तो शुरू होने से पहले ही ढेर हो गया था.

महक अशरफ के उठने का इंतजार कर रही थी, क्योंकि अशरफ उस के तनबदन में आग सुलगा कर खुद लुढ़क गया और उसे हवस की आग में जलता हुआ छोड़ दिया.

काफी देर बाद अशरफ फिर उठा और महक से बोला, ‘‘मैं थक गया हूं. आज मूड सही नहीं है. हम कल सारी कसर पूरी करेंगे.’’

महक अशरफ के चेहरे को गौर से देख रही थी और सोच रही थी, ‘क्या अरमान संजोए थे सुहागरात के और क्या हो गया…?’

यह अब रोज की बात हो गई. अशरफ बिस्तर पर बातों से महक को खुश करने की कोशिश करता रहता था. कभी उस की खूबसूरती की तारीफ कर के, तो कभी उसे गले लगा कर या फिर उसे अपनी बांहों में भर कर, पर जब महक का दिल करता कि अशरफ उस की जिस्मानी भूख मिटाए, तो अशरफ वक्त से पहले ही ढेर हो जाता और महक के तनबदन में आग लगा कर उसे जलता हुआ छोड़ देता.

काफी दिनों तक ऐसा ही चलता रहा. अब महक को अशरफ की हरकतों पर गुस्सा आने लगा था और उस ने एक दिन अशरफ से बोल ही दिया, ‘‘तुम अपनी आग को तो शांत कर लेते हो, पर मेरी आग को भड़का कर बीच रास्ते में ही मुझे तनहा छोड़ देते हो. ऐसा कब तक चलेगा?’’

अशरफ बोला, ‘‘मैं रोज तो तुम्हें खुश करने के लिए सैक्स करता हूं. बताओ, क्या हम एक भी दिन बिना सैक्स के रहे हैं? और मैं कितना सैक्स करूं?’’

महक बोली,‘‘हां, सैक्स करते हो, पर तुम सिर्फ अपनी ख्वाहिश का खयाल रखते हो, मेरा नहीं. तुम्हारा तो रोज हो जाता है, पर मुझे संतुष्ट कौन करेगा?

‘‘मेरा भी दिल है, मेरी भी उमंगें हैं. तुम तो अपना कर के एक तरफ को मुंह कर के सो जाते हो और मुझे सुलगता हुआ बीच रास्ते में ही छोड़ देते हो.’’

अशरफ झल्लाते हुए बोला, ‘‘करता तो मैं रोज हूं. और कितना करूं. मैं भी इनसान हूं, कोई जानवर नहीं.’’

महक समझ गई कि उसे खुश करना अशरफ के बस की बात नहीं है. वह सिर्फ बातों से ही उसे खुश करना जानता है.

महक अशरफ की बात सुन कर हैरान रह गई. उस ने अपने जज्बात को दफन कर दिया और चुप रहना ही बेहतर समझ.

कई महीनों तक ऐसा ही चलता रहा. जिस्मानी सुख न मिलने की वजह से और दिनरात अशरफ की अधूरी हरकत सोचते रहने से महक के सिर में दर्द रहने लगा.

महक पूरी तरह टूट चुकी थी. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे, किस से अपना दुखड़ा रोए. कौन उस की सुनेगा, उलटा उसे ही बदचलन सैक्स की प्यासी कहेगा.

एक दिन महक अपनी छत पर कपड़े उतारने गई. शाम का समय था. महक ने हलका गुलाबी रंग का सूट पहना हुआ था. वह छत पर टंगे कपड़े उतार ही रही थी कि उस का दुपट्टा नीचे गिर गया.

महक ने इधरउधर देखा कि कोई है तो नहीं कि तभी उस की नजर पड़ोस वाली छत पर खड़े सलीम पर पड़ी, जो अपनी हसरत भरी निगाहों से महक की खूबसूरती को ताड़ रहा था.

दुपट्टा हटते ही महक के बडे़बड़े उभार दिखने लगे. सलीम से रहा नहीं गया और वह बोल उठा, ‘‘भाभी, आप तो कसम से कयामत ढा रही हो.’’

अपनी तारीफ सुन कर महक मुसकरा दी और जल्दी से नीचे चली गई.

सलीम मन ही मन सोच रहा था कि महक उस के प्यार के जाल में फंस सकती है और अपने खूबसूरत बदन की खुशबू उसे भी दे सकती है.

सलीम वैसे तो अशरफ के घर पर कम ही आताजाता था, पर अब वह किसी न किसी बहाने उस के घर आनेजाने लगा.

सलीम एक अमीर बाप की औलाद था, जो अपने रहनसहन और घूमनेफिरने पर काफी ज्यादा पैसा खर्च करता था.

जब अशरफ काम के सिलसिले में घर से बाहर जाता, तो सलीम कुछ न कुछ ले कर अशरफ के घर चला जाता और ‘भाभीभाभी’ कह कर महक को गिफ्ट देता रहता था.

धीरेधीरे सलीम की दोस्ती महक से बढ़ती गई. अब सलीम कभी महक के लिए कपड़े, तो कभी कोई दूसरा गिफ्ट लाने लगा.

महक सलीम की इस अदा पर फिदा होती जा रही थी. शादी के 3 महीने गुजर जाने के बाद भी अशरफ ने अभी तक महक को कोई गिफ्ट तो दूर की बात है, एक जोड़ी कपड़ा तक न दिया था.

सर्दी के दिन थे. सलीम अपनी छत पर कसरत कर रहा था. उस ने अंडरवियरबनियान पहन रखा था और उठकबैठक लगा रहा था, तभी महक किसी काम से छत पर गई और सलीम के मजबूत बदन को आंखें फाड़ कर देखने लगी.

सलीम ने पूछा, ‘‘क्या हुआ भाभी, क्या देख रही हो?’’

महक बोली, ‘‘कुछ नहीं, बस देख रही हूं कि तुम ने अपनी देह तो अच्छी बना रखी है. पर, पता नहीं कि कोई दम भी है या नहीं.’’

सलीम मौका भांपते हुए बोला, ‘‘भाभी, एक मौका दे कर तो देखो, दम का भी पता चल जाएगा.’’

महक ने इठलाते हुए कहा, ‘‘सब मर्द ऐसे ही बोलते हैं, पर वक्त आने पर ढेर हो जाते हैं. औरत को खुश करना हर किसी के बस की बात नहीं.’’

सलीम ने भी जवाब दिया, ‘‘भाभी, अभी तुम ने हमारा जलवा देखा ही कहां है. इजाजत दो तो मैं अभी आ जाऊं तुम्हारी छत पर?’’

महक हंसते हुए बोली, ‘‘ठीक है, तो आ जाओ. हम भी तो देखें कि कितना दम है तुम्हारे अंदर.’’

सलीम ने बिना वक्त गंवाए दीवार फांदी और महक को अपनी मजबूत बांहों में जकड़ लिया.

इस से पहले कि महक कुछ बोल पाती, सलीम ने अपने गरम होंठ महक के गुलाबी होंठों पर रख दिए और
चूसने लगा.

सलीम की इस हरकत से महक मदहोश होने लगी, तो उस ने भी सलीम के मजबूत शरीर को अपनी बांहों में कस कर भर लिया.

सलीम महक की गरदन को चूमते हुए उस के उभारों को सहलाने लगा. वह उसे तकरीबन दबोच चुका था. दोनों के बदन एकदूसरे से रगड़ खाने लगे थे. वह महक पर हावी होने लगा था. दोनों की गरम सांसें एकदूसरे से टकराने लगी थीं.

महक सिसक उठी. सलीम ने तभी महक को छत पर लिटा दिया और उस के कपड़े उतार कर बदन से
खेलने लगे.

थोड़ी ही देर में वे दोनों सर्दी के इस मौसम में पसीने से सराबोर हो गए. सलीम महक पर पूरी तरह हावी हो चुका था. महक थक चुकी थी, पर सलीम अभी भी नहीं रुका था. कुछ देर के बाद वे दोनों निढाल हो गए.

सलीम ने जल्दी से कपड़े पहने और फौरन दीवार फांद कर अपनी छत पर चला गया.

महक ने जल्दीजल्दी अपने कपड़े पहने और वह भी नीचे आ गई. वह अपने बिस्तर पर लेट कर सलीम के बारे में सोचने लगी और मुसकराने लगी.

अब तो महक पूरी तरह से सलीम की कायल हो चुकी थी. सलीम से मिले जिस्मानी सुख को वह भूल नहीं पा रही थी. अब महक और सलीम को जब भी मौका मिलता, वे एकदूसरे से अपनी जिस्मानी जरूरत पूरी कर लिया करते थे.

महक के सिर का दर्द खुद ब खुद ठीक हो गया. अब वह महकने और चहकने लगी.

सलीम महक को जिस्मानी सुख तो दे ही रहा था, साथ ही उस पर काफी पैसा भी लुटा रहा था.

दोनों की प्रेमकहानी अब तूल पकड़ने लगी, तो अशरफ को भी इस बात का पता चल गया. उस ने महक को काफी समझाया, पर वह नहीं मानी.

थकहार कर अशरफ ने पंचायत बुलाई, जिस में सलीम और अशरफ के साथ महक भी आई.

सरपंच ने महक से सवाल किया, ‘‘तुम अपने शौहर के होते हुए सलीम से नाजायज रिश्ता क्यों रखती हो?’’

महक काफी देर तक चुप रही, फिर उस ने पंचायत को एक ऐसा करारा जवाब दिया, जिसे सुन कर पूरी पंचायत क्या अशरफ भी हैरान रह गया.

महक सारी शर्म छोड़ कर बोली, ‘‘जब अशरफ अपनी बीवी को जिस्मानी सुख दे ही नहीं सकता, तो मैं क्या करती. मेरी भी तमन्ना है, जज्बात हैं. मुझे भी किसी ऐसे मर्द की जरूरत है, जो मेरे बदन की प्यास बुझ सके.

‘‘हर शादीशुदा औरत की तमन्ना होती है कि उसे अपने शौहर से जिस्मानी सुख मिले, पर अशरफ तो मेरे बदन की आग भड़का कर खुद ढेर हो जाता है. अपने शरीर को तो वह ठंडा कर लेता है, पर मैं अपने शरीर की आग को कैसे ठंडा करूं?

‘‘बस, इसीलिए मैं ने सलीम से अपनी जरूरत पूरी की, जिस ने मुझे वह सुख दिया, जो अशरफ के बस की बात नहीं थी.’’

महक की बातें सुन कर पंचायत खामोश हो गई. अशरफ का सिर भी शर्म से झुक गया.

पंचायत के लोग अपनेअपने घर चले गए. अशरफ भी उठा और अपना सिर झुकाए घर चला गया, क्योंकि उस के पास महक के इस करारे जवाब का कोई जवाब नहीं था.

Social Story : नशा

Social Story : बड़ा बेटा शंकर शराबी निकला और पत्नी को लकवा मार गया. इस बात से गणपत की कमर टूट गई. घर में बेटी की कमी न हो, तो गणपत ने शंकर का ब्याह करा दिया. पर बहू ललिता पति का प्यार पाने को तरस गई. क्या गणपत के घर में खुशियां लौटीं?

वह तीनों ही टाइम नशे में चूर रहता था. कभीकभी बेहद नशे में उसे देखा जाता था. वह चलने की हालत में नहीं होता था. पूरे शरीर पर मक्खियां भिनभिना रही होती थीं. उसे कोई कुछ नहीं कहता था. न घर वाले खोजखबर लेते थे और न बाहर वालों का उस से कोई मतलब होता था.

शरीर सूख कर ताड़ की तरह लंबा हो गया था. खाने पर कोई ध्यान ही नहीं रहता था उस का. कभी घर आया तो खा लिया, नहीं तो बस दे दारू, दे दारू.

वह सुबह दारू से मुंह धोता तो दोपहर तक दारू पीने का दौर ही चलता रहता था. दोपहर के बाद गांजे का जो दौर शुरू होता, तो शाम तक रुकने का नाम नहीं लेता था.

दोस्त न के बराबर थे. एक था बीरबल, जो उस के साथ देखा जाता था और दूसरा था एक ?ाबरा कुत्ता, जो हमेशा उस के इर्दगिर्द डोलता रहता था.

‘बहिरा दारू दुकान’ उस का मुख्य अड्डा होता था. वहीं से उस की दिन की शुरुआत होती और रात भी वहीं से शुरू होती, जिस का कोई पहर नहीं होता था. लोगों को अकसर ही वह वहीं मिल जाता था.

सुबहसुबह बहिरा भी उस का मुंह देखना नहीं चाहता था, लेकिन ग्राहक देवता होता है, उसे भगा भी नहीं सकता. पीता है तो पैसे भी पूरे दे देता है और बहिरा को तो पैसे से मतलब था. पीने वाला आदमी हो या कुत्ता, उसे क्या फर्क पड़ता?

अब कहोगे कि बिना नाम उसे रबड़ की तरह खींचते जा रहे हो… ऐसा नहीं था कि मांबाप ने उस का नाम नहीं रखा था या नाम रखना भूल गए थे.

मांबाप ने बड़े प्यार से उस का नाम शंकर रखा था, पर उन्हें क्या पता था कि बड़ा हो कर शंकर ऐसा निकलेगा.

कोई बुरा बनता है, तो लोग उसे नहीं, बल्कि उस की परवरिश को गाली देते हैं. किसी बच्चे को अच्छी परवरिश और अच्छी तालीम नहीं मिले, तो वह बिगड़ ही जाता है. मतलब कि बिगड़ने की पूरी गारंटी रहती है.

लेकिन शंकर के साथ ऐसा नहीं था. बचपन में जितना लाड़प्यार उसे मिलना चाहिए था, वह मिला था. जैसी परवरिश और जिस तरह की पढ़ाईलिखाई उसे मिलनी चाहिए थी, उस का भी पूरापूरा इंतजाम किया गया.
जब तक शंकर गांव के स्कूल में पढ़ा, तब तक घर में ट्यूशन पढ़ाने रोजाना शाम को एक मास्टर आया करता था, ताकि पढ़ाई में बेटा पीछे न रहे.

ऐसी सोच रखने वाले मांबाप गांव में कम ही मिलते हैं. जब वह बड़ा हुआ, तो रांची जैसे शहर के एक नामी स्कूल आरटीसी में उस का दाखिला करा दिया और होस्टल में ही उस के रहने का इंतजाम भी कर दिया. यहां भी ट्यूशन का इंतजाम कर दिया गया.

बस, यहीं से शंकर पर से मांबाप का कंट्रोल खत्म होना शुरू हो गया था. हालांकि, हर महीने उस का बाप गणपत उस से मिलने जाता था और घर की बनी ऐरसाठोंकनी रोटी बना कर उस की मां तुलसी देवी बाप के हाथों भिजवा देती थी, ताकि बेटे को कभी घर की कमी महसूस न हो और बाजार की बासी चीजें खाने से भी बचे.

पर न जाने क्या था या शायद समय ठीक नहीं था, शंकर बाहरी चीजें खाने पर ज्यादा जोर देने लगा था. घर की बनी रोटियां उसे उबाऊ लगती थीं और बक्से में पड़ीपड़ी रोटियां सूख कर रोटा हो जाती थीं. बाद में शंकर उसे बाहर फेंक देता था.

यह बात मां को पता चली, तो उसे बड़ा दुख हुआ और तब उस ने घर से कुछ भी भेजना बंद कर दिया.

‘‘खाओ बाजार की चीजें जितनी खानी हों. एक दिन बीमार पड़ोगे, तब समझोगे तुम,’’ तुलसी देवी ने एक दिन झल्ला कर कह दिया था.

शंकर का बाप गणपत एक कंपनी में डोजर औपरेटर था. हर महीने घर में 80-90 हजार रुपए ले कर आता था. वह चाहता था कि इन पैसों से उस का बेटा पढ़लिख कर डाक्टरइंजीनियर बने, बड़ा आदमी बने, तभी उस के पैसे का मान रहेगा, नहीं तो यह पैसा बेकार है उस के लिए, पर बेटे का चालचलन देख कर उस का मन घबरा उठता था.

इसी बीच तुलसी देवी को लकवा मार गया. उसे तत्काल रांची के एक अस्पताल में भरती कराया गया. पूरा शरीर लकवे की चपेट में आ गया था.

शंकर को भी इस की खबर मिली, पर रांची में रहते हुए भी वह मां को देखने तक नहीं आया. इम्तिहान का बहाना बना कर और पहले से तय दोस्तों के संग पिकनिक मनाने हुंडरू फाल चला गया. शाम को होस्टल लौटा, तो नशे में उस के पैर लड़खड़ा रहे थे.

होस्टल इंचार्ज ने जोर से फटकार लगाई, ‘‘पिकनिक मनाने की छुट्टी लोगे और बाहर जो मरजी करोगे, आगे से ऐसा नहीं होगा.’’

‘‘सौरी सर, आगे से ऐसा नहीं होगा,’’ शंकर ने कहा. बहकने की यह उस की शुरुआत थी.

लकवाग्रस्त पत्नी के गम में डूबे गणपत की समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि उस के घरपरिवार की गाड़ी कैसे चलेगी? घर की देखरेख, खानेपीने का इंतजाम कैसे होगा? आज उसे अपनेआप पर भी कम गुस्सा नहीं आ रहा था.

आज एक बेटी होती तो कम से कम रसोई की चिंता तो नहीं होती उसे. 2 बेटों के बाद ही उस ने पत्नी की नसबंदी करवा दी थी.

बड़ा बेटा शंकर और छोटा बेटा गुलाबचंद था, जो डीएवी स्कूल मकोली में क्लास 6 में पढ़ रहा था.

तुलसी देवी कहती रही, ‘‘कम से कम एक बेटी तो होने देता.’’

गणपत ने तब उस की एक नहीं सुनी थी, ‘‘बहुएं आएंगी, उन्हीं को तुम अपनी बेटी मान लेना.’’

आज गणपत का दिमाग कुछ काम नहीं कर रहा था. बिस्तर पर लेटी पत्नी को वह बारबार देखता और कुछ सोचने सा लगता.

तभी उसे छोट साढ़ू भाई की कही एक बात याद आई, ‘‘आप की कोई बेटी नहीं है तो क्या हुआ, मेरी 3 बेटियों में से एक आप रख लीजिए. बेटी की कमी भी पूरी हो जाएगी और उस की पढ़ाईलिखाई भी यहां ठीक से हो पाएगी.’

अचानक गणपत ने छोटे साढ़ू को फोन लगा दिया, ‘‘साढ़ू भाई, नमस्कार. आप लोगों को तो मालूम हो ही चुका है कि शंकर की मां को लकवा मार गया है और इस वक्त वह अस्पताल में पड़ी है.’’

‘जी हां, हमें यह जान कर बहुत दुख हुआ. अभी वे कैसी हैं? डाक्टर का क्या कहना है?’

‘‘कुछ सुधार तो है, पर डाक्टर का कहना है कि लंबा इलाज चलेगा. कई साल भी लग सकते हैं. हो सकता कि वह पूरी तरह कभी ठीक न हो पाए, यह भी डाक्टर कहता है…’’

गणपत एक पल को रुका था, फिर बोला, ‘‘साढ़ू भाई, याद है, आप ने एक बार मुझ से कहा था कि आप के 2 बेटे हैं और मेरी 3 बेटियां हैं, मेरी एक बेटी आप अपने पास रख लीजिए, बेटी की कमी भी पूरी हो जाएगी.

‘‘आज मैं सरिता को मांगता हूं. आप मुझे सरिता को दे दीजिए, उस की पढ़ाईलिखाई और शादीब्याह की सारी जिम्मेदारी मेरी. इस समय एक बेटी की मुझे सख्त जरूरत है साढ़ू भाई.’’

‘ठीक है, मैं सरिता की मां से बात करूंगा.’

2 दिन बाद गणपत के साढ़ू भाई का फोन आया, ‘माफ करना साढ़ूजी, सरिता की मां इस के लिए तैयार नहीं हैं.’

‘‘ओह, कोई बात नहीं है साढ़ू भाई. सब समय का फेर है. समस्या मेरी है तो समाधान भी मू?ो ही ढूंढ़ना होगा,’’ यह कह कर गणपत ने फोन काट दिया था.

तुलसी देवी के लकवे की तरह गणपत की सोच को भी उस वक्त लकवा मार गया था, जब शंकर के स्कूल वालों की ओर से एक दिन सुबहसुबह फोन पर कहा गया, ‘आप के बेटे शंकर को स्कूल और होस्टल से निकाल दिया गया है. जितना जल्दी हो सके, आ कर ले जाएं.’

यह सुन कर गणपत को लगा कि उस का संसार ही उजड़ गया है और उस के लहलहाते जीवन की बगिया में आसमानी बिजली गिर पड़ी हो.

गणपत अस्पताल के कौरिडोर से हड़बड़ी में उतरा और सड़क पर पैदल ही स्कूल की ओर दौड़ पड़ा. अपने समय में वह फुटबाल का अच्छा खिलाड़ी हुआ करता था. अभी जिंदगी उस के साथ फुटबाल खेल रही थी.

स्कूल पहुंच कर गणपत स्कूल वालों के आगे साष्टांग झक गया और बोला, ‘‘बेटे ने जो भी गलती की हो, आखिरी बार माफ कर दीजिए माईबाप. दोबारा ऐसा नहीं होगा.’’

‘‘आप की सज्जनता को देखते हुए इसे माफ किया जाता है. ध्यान रहे, फिर ऐसा न हो,’’ स्कूल के प्रिंसिपल की ओर से कहा गया.

स्कूल गलियारे में ही गणपत को शंकर के गुनाह का पता चल गया था. स्कूल में होली की छुट्टी की सूचना निकल चुकी थी.

2 दिन बाद स्कूल का बंद होना था. उस के पहले स्कूल होस्टल में एक कांड हो गया, जिस में शंकर भी शामिल था.

दरअसल, लड़के के भेष में बाजार में सड़क किनारे बैठ हंडि़या बेचने वाली 2 लड़कियों को कुछ लड़के चौकीदार की मिलीभगत से होस्टल के अंदर ले आए थे. रातभर महफिल जमी, दारूमुरगे का दौर चला. दो जवान जिस्मों को दारू में डुबो कर उन के साथ खूब मस्ती की गई.

अभी महफिल पूरे उफान पर ही थी कि तभी होस्टल पर प्रबंधन की दबिश पड़ी. होस्टल इंचार्ज समेत 5 लड़के इस कांड में पकड़े गए.

होस्टल इंचार्ज और चौकीदार को तो स्कूल प्रबंधन ने तत्काल काम से हटा दिया और छात्रों के मांबाप को फोन कर हाजिर होने को कहा गया.

गणपत माथे पर हाथ रख कर वहीं जमीन पर बैठ कर रोने लगा. बेटे को ले कर उस ने जो सपना देखा था, वह सब खाक होता दिख रहा था.

फिर भी उस ने शंकर से इतना जरूर कहा, ‘‘अगले साल तुम को मैट्रिक का इम्तिहान देना है, बढि़या से तैयारी करो,’’ और वह अस्पताल लौट आया.

3 महीने बाद तुलसी देवी को अस्पताल के बिस्तर से घर के बिस्तर पर शिफ्ट कर दिया गया.

घर में तुलसी देवी की देखभाल के लिए कोई तो चाहिए? इस सवाल ने गणपत को परेशान कर दिया.

बड़ी भागदौड़ कर के वह प्राइवेट अस्पताल की एक नर्स को मुंहमांगे पैसे देने की बात कर घर ले आया.

तुलसी देवी को अपनी सेवा देते हुए अभी नर्स गीता को 2 महीने ही पूरे हुए थे कि एक दिन उस ने सुबहसुबह गणपत को यह कह कर चौंका दिया, ‘‘अब मैं यहां काम नहीं कर सकूंगी.’’

‘‘क्यों…? किसी ने कुछ कहा क्या या हम से कोई भूल हुई?’’ गणपत ने हैरान हो कर पूछा.

‘‘नहीं, पर यहां की औरतें अच्छी नहीं हैं.’’

‘‘मैं समझ गया. बगल वाली करेला बहू ने कोई गंदगी फैलाई होगी. ठीक है, तुम जाना चाहती हो, जाओ. मैं रोकूंगा नहीं. कब जाना है, बता देना…’’

गणपत जैसे सांस लेने को रुका था, फिर शुरू हो गया, ‘‘आप को अस्पताल में ‘सिस्टर गीता’ कहते होंगे लोग, और मैं आप को अपनी छोटी बहन समझता हूं…’’ बोलतेबोलते गणपत का गला भर आया और आंखें छलक पड़ीं.

इसी के साथ गणपत तुरंत बाहर चला गया. गीता उसे जाते हुए देखती रह गई.

शंकर ने बेमन से मैट्रिक बोर्ड का इम्तिहान दिया और 3 महीने बाद उस का नतीजा भी आ गया. वह सैकंड डिवीजन से पास हुआ था.

रिजल्ट कार्ड ला कर बाप के हाथ में रखते हुए उस ने कहा, ‘‘इस के आगे मैं नहीं पढ़ूंगा. पढ़ाई में मेरा मन नहीं लगता. यह रिजल्ट आप रख लीजिए,’’ इसी के साथ वह घर से निकल पड़ा. गणपत हैरान सा बेटे को जाते हुए देखता रहा.

एक हफ्ते तक जब शंकर घर नहीं लौटा, तब किसी ने कहा कि वह कोलकाता चला गया है.

गणपत के साथ यह सब क्यों हो रहा था? वह हैरान था. परेशानी के चक्रव्यूह ने चारों तरफ से उसे घेर रखा था और वह रो भी नहीं सकता था, मर्द जो ठहरा.

दोपहर को गणपत काम से घर लौटा. गीता तुलसी देवी को खाना खिला रही थी. साबुनतौलिया लिए वह सीधे बाथरूम में चला गया. नहा कर आया, तो गीता ने खाना लगा दिया.

‘‘इस घर में बहू आ जाएगी, तभी मैं जाऊंगी,’’ गीता बोली.

‘‘बहू…’’ कहते हुए गणपत ने गीता पर नजर डाली और खाना खाने लगा. उस की मरी हुई भूख जाग उठी थी.

खाना खा कर उठा तो गणपत फिर बुदबुदाया, ‘‘बहू…’’ उसे भी लगा कि शंकर को सुधारने का अब एक ही रास्ता है कि उस की शादी करा दी जाए. बहू अच्छेअच्छे नशेबाजों की सवारी करने में माहिर होती है, ऐसा गणपत का मानना था.

शंकर के लिए शादी जरूरी थी या नहीं, पर उस घर को एक बहू की सख्त जरूरत थी. यही सोच कर गणपत ने संगीसाथियों के बीच बात चलाई और एक दिन नावाडीह की पढ़ीलिखी, सुशील और संस्कारी किसान की बेटी ललिता के साथ बेटे की शादी तय कर दी गई.

ललिता बहुत खूबसूरत तो नहीं थी, लेकिन बदसूरत भी नहीं थी. वह किसी के शरीर में उबाल ला सकती है, ऐसी जरूर थी.

एक दिन गणपत ने शंकर से कहा, ‘‘हम ने तुम्हारे लिए एक लड़की पसंद की है, किसी दिन जा कर देख लो और शादी का दिन पक्का कर लो.’’

‘‘आप की पसंद ही मेरी पसंद है,’’ शंकर ने कहा.

शंकर की बरात में उस के साथी नशे में झूम रहे थे. बरात जब दुलहन के दरवाजे पर पहुंची, तो घराती हैरान थे कि न जाने ललिता के लिए यह कैसा दूल्हा पसंद किया है.

शादी का मुहूर्त निकला जा रहा था और शंकर अपने साथियों के साथ डीजे पर अब भी नाच रहा था. वह भूल चुका था कि वह बराती नहीं, बल्कि दूल्हा है और उसे शादी भी करनी है.

तभी वहां शंकर के होने वाले 2 साले आए और चावल की बोरी की तरह शंकर को उठाया और सीधे मंडप में ले जा कर धर दिया. तब भी शंकर का नशा कम नहीं था.

पंडित बैठा विवाह के श्लोक पढ़ रहा था, पर शंकर अपनी ही दुनिया में जैसे मगन था. वह न पंडित की किसी बात को सुन रहा था और न ही उस की तरफ उस का ध्यान था. उसे देख कर लगता नहीं था कि वह शादी करने आया है.

दुलहन विवाह मंडप में लाई गई. तब भी शंकर होश में नहीं था. जब सिंदूरदान की बेला आई, सभी उठ खड़े हुए और जब शंकर को उठने को बोला गया, तो वह बड़ी मुश्किल से उठ खड़ा हुआ था. तभी गणपत आगे बढ़ा और बेटे के हाथ से दुलहन की मांग भरी गई.

बेटी का बाप करीब आ कर गणपत से बोला, ‘‘समधीजी, मैं आप के भरोसे अपनी बेटी दे रहा हूं. देखना कि इसे कोई तकलीफ न हो.’’

‘‘आप निश्चिंत रहें, आप की बेटी हमारे घर में राज करेगी, राज,’’ गणपत ने बेटी के बाप से कहा.
दुलहन के बाप के दिल में ठंडक पड़ी. दोनों एकदूसरे के गले लगे.

घर में बहू आ गई. गणपत ने नर्स गीता को ढेर सारे उपहार दे कर बहन की तरह विदाई करते हुए कहा, ‘‘बहुत याद आओगी, आती रहना.’’

‘‘इस घर को मैं कभी भुला नहीं पाऊंगी,’’ गीता ने कहा.

ललिता को इस घर में आए सालभर हो चुका था, पर और बहुओं की तरह उस की जिंदगी में अभी तक सुहागरात नहीं आई थी. दो दिलों में बहार का आना अभी बाकी था, पर जैसेजैसे समय बीतता गया, शादी उस के लिए एक पहेली बन गई.

देखने के लिए तो पूरा घर और सोचने के लिए खुला आसमान था. काम के नाम पर रातभर तारे गिनना और दिनभर सास की सेवा में गुजार देना होता. परंतु पति का प्यार अभी तक उस के लिए किसी सपने की तरह था. कुलटा बनना उस के संस्कार में नहीं था.

‘घर के बाहर जिस औरत की साड़ी एक बार खुल जाती है, तो बाद में समेटने का भी मौका नहीं मिलता…’ विदा करते हुए बेटी के कान में मां ने कहा था.

सालभर में ही ललिता ने रसोई से ले कर रिश्तों तक को सूंघ लिया था. सास तुलसी देवी को लकवा मारे 2 साल से ऊपर का समय हो चला था. अब करने को कुछ बचा नहीं था.

सासससुर के मधुर संबंधों को भी जैसे लकवा मार गया था. इस कमी को ललिता का ससुर कभी सोनागाछी तो कभी लछीपुर जा कर पूरा कर आता था.

शुरू में तो ललिता को इस पर यकीन ही नहीं हुआ, लेकिन पड़ोस की एक काकी ने एक दिन जोर दे कर कह ही दिया था, ‘‘यह झूठ नहीं है, सारा गांव जानता है.’’

फिर भी ललिता चुप रही. अब उस ने रिश्तों की जमीन टटोलनी शुरू कर दी थी.

शंकर में कोई बदलाव नहीं हुआ था. जैसा पहले था, वैसा ही आज भी था. आज भी उसे नूनतेल और लकड़ी से कोई मतलब नहीं था. पत्नी को वह उबाऊ और बेकार की चीज समझने लगा था.

ललिता रंग की सांवली थी, पर किसी को भी रिझ सकती थी. कमर तक लहराते उस के लंबेलंबे काले बाल किसी का भी मन भटकाने के लिए काफी थे. उस का गदराया बदन पानी से लबालब भरे तालाब की तरह था, लेकिन शंकर था कि वह उस की तरफ देखता तक नहीं था.

ऐसे में जब शंकर घर से जाने लगता, तो ललिता उस का रास्ता रोक कर खड़ी हो जाती और कहती, ‘‘कहां चले, अब कहीं नहीं जाना है, घर में रहिए.’’

‘‘देखो, तुम मुझे रोकाटोका मत करो, खाओ और चुपचाप सो जाओ.

तुम मुझ से ऐसी कोई उम्मीद न करना, जो मैं दे न सकूं. नाहक ही तुम को तकलीफ होगी.’’

इस के बाद शंकर घर से निकल जाता, तो लौटने में कभी 10-11 बज जाते, तो कभी आधी रात निकल जाती थी. ललिता छाती पर हाथ रख कर सो जाती. आंसू उस का तकिया भिगोते रहते. कैसा होता है पहला चुंबन और कैसा होता है उभारों का पहला छुअन… उन का मसला जाना. उस की सारी इच्छाएं अधूरी थीं.

छुट्टी के दिन गणपत घर से बाहर निकल रहा था कि ललिता ने टोक दिया, ‘‘हर हफ्ते जिस जगह आप जाते है, वहां नहीं जाना चाहिए.’’

‘‘बहू, इस तरह टोकने और कहने का क्या मतलब है…?’’ गणपत ठिठक कर खड़ा हो गया.

‘‘मैं सब जान चुकी हूं. सास को लकवा मारना और हर हफ्ते आप का बाहर जाना, यह इत्तिफाक नहीं है. उसे जरूरत का नाम दिया जा सकता है. पर जरा सोचिए, जो बात आज सारा गांव जान रहा है, कल वही बात छोटका बाबू गुलाबचंद को मालूम होगी, तब उस पर क्या गुजरेगी, इस पर कभी सोचा है आप ने?’’

‘‘ऐसा कुछ नहीं है, जैसा तुम समझ रही हो बहू.’’

‘‘आप को नहीं मालूम कि गांव में कैसी चर्चा है. सब बोलते हैं कि पैसे ने बापबेटे का चालचलन बिगाड़ दिया है. बेटा नशेबाज है और बाप औरतबाज.’’

‘‘बहू…’’ गणपत चीख उठा था, ‘‘कौन है, जो इस तरह बोलता है? किस ने तुम से यह बात कही? मुझे बताओ…’’

‘‘इस से क्या होगा? गंदगी से गुलाब की खुशबू नहीं आएगी… बदबू ही फैलेगी.’’

सालभर में ऐसा पहली बार हुआ था, जब छुट्टी के दिन गणपत कहीं बाहर नहीं गया. बहू की बातों ने उसे इस कदर झकझोर डाला कि वह सोच में पड़ गया. वापस कमरे में पहुंचा और कपड़े बदल कर सो गया, पर बहू की बातों ने यहां भी उस का पीछा नहीं छोड़ा, ‘बेटा नशेबाज और बाप औरतबाज…’

लेटेलेटे गणपत को झपकी आ गई और वह सो गया. दोपहर को उसे जोर से प्यास लगी. उस ने बहू को आवाज दी. वह पानी ले कर आई.

गणपत ने गटागट पानी पी लिया. ललिता जाने लगी, तो उस ने कहा, ‘‘तुम्हारा कहा सही है, मैं जो कर रहा था गलत है, आगे से ऐसा नहीं होगा.’’

ललिता के मुंह से भी निकल गया, ‘‘मैं यह मानती हूं कि आप अभी भरपूर जवान हैं, बूढ़े नहीं हुए हैं. आप का शरीर जो मांगता है, उसे मिलना चाहिए. लेकिन, आप जिस जगह जा रहे हैं, वह जगह सही नहीं है.’’

‘‘तुम ठीक कह रही हो बहू.’’

‘‘आप बाहर की दौड़ लगाना छोडि़ए और घर में रहिए. आप को किसी चीज की कमी नहीं होगी,’’ कहते हुए ललिता अपने कमरे में चली गई.

गणपत पहली बार ललिता को गौर से देख रहा था और उस की कही बातों का मतलब निकाल रहा था.

उस दिन के बाद से गणपत ने बाहर जाना छोड़ दिया. छुट्टी के दिन वह या तो घर में रहता या फिर किसी रिश्तेदार के यहां चला जाता. इस बदलाव से खुद तो वह खुश था ही, भूलते रिश्तों को भी टौनिक मिल गया था.

उस दिन भी गणपत घर में ही था. दोपहर का समय था. पत्नी के कमरे में बैठा उस की देह सहला रहा था. मुद्दतों के बाद तुलसी देवी पति का साथ पा कर बेहद खुश थी.

कमरा शांत था. किसी का उधर आने का भी कोई चांस नहीं था. शंकर अपनी मां के कमरे में कभी आता नहीं था. अपनी मां को कब उस ने नजदीक से देखा है, उसे याद नहीं. ललिता अपने कमरे में लेटी ‘सरिता’ पत्रिका पढ़ रही थी. पत्रिका पढ़ने की उस की यह आदत नई थी. उस वक्त तुलसी देवी का हाथ पति की जांघ पर था.

उसी पल खाना ले कर ललिता कमरे में दाखिल हुई. अंदर का नजारा देख कर वह तुरंत बाहर जाने लगी. तभी उसे ससुर की आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘रुको, सास को खाना खिलाओ, मैं बाहर जा रहा हूं.’’

रात के 10 बज चुके थे. ललिता ने सास को खाना और दवा खिला कर सुला दिया था. ससुर को खाना देने के लिए बहू बुलाने गई, तो उन्हें कमरे के बाहर बेचैन सा टहलते पाया. बहू ललिता बोली, ‘‘खाना खा लेते, रोटी ठंडी हो जाएगी.’’

‘‘खाने की इच्छा नहीं है. तुम जाओ और खा कर सो जाओ…’’

‘‘आप को क्या खाने की इच्छा है, बोलिए, बना दूंगी.’’

‘‘कुछ भी नहीं, मेरा मन ठीक नहीं है,’’ कह कर गणपत अपने कमरे में जाने लगा. तभी ललिता की आवाज सुनाई दी, ‘‘आप का मन अब मैं ही ठीक कर सकती हूं. मैं ने एक दिन आप से कहा था कि जब घर में खाने के लिए शुद्ध और स्वादिष्ठ भोजन रखा हो, तो खाने के लिए बाहर नहीं जाना चाहिए. वह घड़ी आ चुकी है,’’ कह कर ललिता अपने कमरे की तरफ मुड़ गई. उस की चाल में एक नशा था.

गणपत बड़ी देर तक वहीं खड़ा रहा. नहीं… नहीं… ऐसा ठीक नहीं होगा, दुनिया क्या कहेगी… रिश्तों का क्या होगा… समाज जानेगा… उस का कौन जवाब देगा… देखो, घर की बात है और दोनों को एकदूसरे की जरूरत भी है…

आगे बढ़ने के लिए जैसे कोई उसे उकसा रहा था, पीछे से धकिया रहा था… आगे बढ़ो… आगे बढ़ो… दुनिया जाए भाड़ में…

अंदर से कमरे का दरवाजा बंद कर गणपत ने सामने देखा, अंगड़ाई लेता हुआ एक जवां जिस्म बांहें फैलाए खड़ा था.

गणपत बेकाबू हो चुका था. शायद वह भी इसी पल के इंतजार में था. वह ललिता के कमरे में चला गया.

थोड़ी देर के बाद शंकर ने घर में कदम रखा. पहले वह रसोई में गया. उस ने 2 रोटी खाई और अपने कमरे की ओर बढ़ा. दरवाजा अंदर से बंद था. धक्का दिया, पर खुला नहीं.

शंकर बाहर जाने को मुड़ा कि तभी अंदर से हलकीहलकी आवाजें सुनाई पड़ीं.

‘‘तुम दोनों कभी मिले नहीं थे क्या?’’ गणपत ललिता से पूछ रहा था.

‘‘नहीं… आह… आप तो बुलडोजर चला रहे हैं,’’ ललिता बोली.

‘‘अब तो यह बुलडोजर हर दिन चलेगा.’’

‘‘और शंकर का क्या होगा?’’

‘‘अब तुम उस के बारे में सोचना छोड़ दो.’’

‘‘फिर मैं किस की रहूंगी?’’

‘‘अभी किस की हो?’’

‘‘आप को क्या कहूंगी? ससुर या शाहजहां?’’

‘‘शाहजहां… आज से तुम मेरी और मैं तुम्हारा. अब से तुम्हारी सारी जिम्मेदारी मेरी.’’

बाहर खड़े शंकर ने अंदर की सारी बातें सुनीं. इस से पहले कि कोई उसे वहां देख ले, दबे पैर वह घर से जो निकला, लौट कर फिर कभी उस घर में नहीं आया.

गणपत की बगिया में ललिता ने अपना घोंसला बना लिया था.

लेखक – श्यामल बिहारी महतो

Family Story : मुखियाजी की छोटी पतोहू

Family Story : 70 साल के मुखियाजी दिलफेंक इनसान थे. वे अपने कुएं पर पानी भरने आई औरतों को खूब ताड़ते थे. निचली जाति की रामकली पर तो वे फिदा थे. एक दिन रामकली के पति रामलाल को पुलिस पकड़ कर ले गई. रामकली मुखियाजी के पास गई. आगे क्या हुआ.

मुखियाजी थे तो 70 साल के, लेकिन उन का कलेजा किसी जवान छोकरे जैसा ही जवान था. उन के कुएं पर पानी भरने के लिए जब औरतें आतीं, तब वे हुक्का पीते रहते और उन को निहारते रहते.

मुखियाजी को इस बात से कोई मतलब नहीं था कि कौन सी औरत उन के बारे में क्या सोच रही है. वे किसी औरत को कभी कनखियों से भी देखते थे. उन की नजर हमेशा गांव की औरतों के घूंघट पर ही रहती थी.

मुखियाजी हमेशा इस ताक में रहते थे कि कब पानी खींचने में घूंघट खिसके और वे उस औरत का चेहरा अच्छी तरह से देख कर तर हो जाएं. वे इस बात को जानते थे कि कोई औरत उन पर इस उम्र में दिलफेंक होने का लांछन नहीं लगाएगी.

अगर पानी भरने वाली औरत किसी निचली जाति की होती, तब तो मुखियाजी चहक उठते. सोचते, ‘भला इस की क्या मजाल, जो मेरे बारे में कुछ भी कह सके.’ अगर उस समय कुएं पर कोई और नहीं होता, तब वे तुरंत उस औरत के साथ बालटी की रस्सी खींचना शुरू कर देते. वे बोलते, ‘‘अरी रामलाल
की बहुरिया, तू इतनी बड़ी बालटी नहीं खींच सकती. रामलाल से कह कर छोटी बालटी मंगवा लेना. लेकिन वह क्यों लाएगा? वह तो अभी तक सो रहा होगा.’’

तब रामलाल की बहुरिया रामकली लाज के मारे सिकुड़ जाती थी, लेकिन वह रस्सी छोड़ भी नहीं सकती थी, क्योंकि मुखियाजी रस्सी को इसलिए नहीं पकड़ते थे कि वह उस रस्सी को छोड़ दे, वरना बालटी कुएं में गिरने का डर था.

रामकली लजा कर उस कुएं से पानी भर ले जाती. फिर सोचती कि अब यहां से पानी नहीं ले जाएगी, लेकिन बेचारी करती भी क्या? लाचार थी. उस गांव में दूसरा कुआं ऐसा नहीं था, जिस का पानी मीठा हो.

मुखियाजी रोज रामकली की बाट जोहते. रामकली सुबहसवेरे जल्दी आ कर पहले पानी भर लाती. फिर झाड़ूबुहारी करती और तब पति को जगाती.

रामकली सोचती कि सवेरेसवेरे कुएं पर मुखियाजी आ जाते हैं, इसलिए घर की झाड़ूबुहारी बाद में कर लिया करेगी, पानी पहले लेती आएगी.

अगले दिन जब रामकली भोर में मुखियाजी के कुएं पर पानी लाने गई, तब मुखियाजी हुक्का छोड़ कर उस के पास जा पहुंचे और बोले, ‘‘रामकली, आजकल तुम बड़ी देर से आती हो. रामलाल तुम को देर तक नहीं छोड़ता है क्या?’’ और फिर उन्होंने उस का हाथ पकड़ लिया.

रामकली लजा गई. वह धीरे से बोली, ‘‘बाबाजी, यह क्या कर रहे हो, कुछ तो शर्मलिहाज करो.’’

फिर भी मुखियाजी नहीं हटे. वे किसी बेहया की तरह बोले, ‘‘रामकली, तेरा दुख मुझ से अब नहीं देखा जाता है.

तू इतनी ज्यादा मेहनत करती है, जबकि रामलाल घर में पड़ा रहता है.’’

तकरीबन 35 साल पहले मुखियाजी की घरवाली 3 बेटों को छोड़ कर चल बसी थी. उस के बाद मुखियाजी ने किसी तरह जवानी काट दी. 2 बेटों को पुलिस महकमे में जुगाड़ लगा कर भरती करा दिया. एक बेटा शहर का कोतवाल बन गया था, जबकि दूसरा छोटा बेटा थानेदार था और तीसरा बेटा गांव में खेतीबारी करता था.

एक दिन मुखियाजी रामकली से बोले, ‘‘कोतवाल की अम्मां से तेरा चेहरा पूरी तरह मिलता है. तेरी ही उम्र में तो वह चली गई थी. जब मैं तुझे देखता हूं, तब मुझे कोतवाल की अम्मां याद आ जाती है.’’

सचाई यह थी कि कोतवाल की अम्मां काले रंग की थी. वह मुखियाजी को कभी पसंद नहीं आई थी, जबकि रामकली गोरीचिट्टी और खूबसूरत होने के चलते उन को खूब अच्छी लगती थी.

जब रामकली कुएं के पास आती, तब मुखियाजी अपनी घोड़ी के पास पहुंच कर कहते, ‘‘आज तो तेरे ऊपर सवारी करूंगा.’’

मुखियाजी इसी तरह के और भी फिकरे कसते थे. तब बेचारी रामकली लाज के मारे सिकुड़ जाती. वह सोचती कि बूढ़ा पागल हो गया है.

एक दिन रामकली ने सहम कर अपने पति रामलाल से कहा, ‘‘सुनोजी, ये मुखियाजी कैसे आदमी हैं? हर समय मुझे ही निहारते रहते हैं.’’

तब रामलाल खड़ा हो गया और बौखला कर बोला, ‘‘देख रामकली, तू अपनेआप को बड़ी सुंदरी समझती?है, बडे़बूढ़ों पर भी आरोप लगाने से नहीं चूकती है. आगे से कभी ऐसी बात कही तो समझ लेना…’’

मुखियाजी के पास तो इलाके के दारोगाजी, तहसीलदार सभी आते थे. गांव वालों का काम उन दोनों के दफ्तरों से पड़ता है. अपना काम निकलवाने के लिए मुखियाजी सिपाही को भी ‘दारोगाजी’ कहते थे.

कोतवाल के बाप से ‘दारोगाजी’ सुन कर सिपाही फूले न समाते थे. मुखियाजी का हुक्म मानने में वे तब भी नहीं हिचकिचाते थे.

रामकली को देख कर मुखियाजी के दिमाग में एक कुटिल बात आई, ‘क्यों न रामलाल को किसी केस में फंसा दिया जाए? जब रामलाल जेल में होगा, तब रामकली मदद के लिए मेरे पास खुद ही चली आएगी.’

मुखियाजी ने उन सिपाहियों को समझाया, ‘‘रामलाल देर रात कहीं से लौट कर आता है. ऐसा मालूम पड़ता है कि यह बदमाशों से मेलजोल बढ़ा रहा है. काम कुछ नहीं करता है, फिर भी उन सब का खानापीना ठीक चल रहा है.’’

यह सुन कर सिपाही चहक उठे. उन्होंने सोचा कि मुखियाजी कोतवाल साहब से इनाम दिलवाएंगे. अगर मौका लग गया, तो तरक्की दिलवा कर हवलदार भी बनवा देंगे.

अंधियारी रात में चौपाल से लौटते समय रामलाल को पकड़ कर सिपाही थाने ले गए. सुबह सारी बात मालूम होने पर रामकली मुखियाजी के पास आई और पूरी बात बताई.

तब अनजान बने मुखियाजी ने गौर से सारी बातें सुनीं. वे बोले, ‘‘ठीक है, ठीक है, आज मैं बड़े दारोगाजी के पास जाऊंगा. तू 2 घंटे बाद कुछ खर्चेपानी के लिए रुपए लेती आना.’’

2 घंटे बाद रामकली 300 रुपए ले कर मुखियाजी के पास आई, तब वे बोले, ‘‘आजकल 300 रुपए को कौन पूछता है? कम से कम 1,000 रुपए तो चाहिए.’’

थोड़ी देर रुकने के बाद मुखियाजी बोले, ‘‘कोई बात नहीं, एक बात सुन…’’ और फिर घर की दीवार की ओट में मुखियाजी ने रामकली का हाथ पकड़ लिया और बोले, ‘‘तू बिलकुल कोतवाल की अम्मां जैसी लगती है.’’

उसी समय मुखियाजी की पतोहू दूध का गिलास ले कर उन की तरफ धीरे से आई. अपने बूढ़े ससुर को जवान रामकली का हाथ पकड़े देख कर वह हैरान रह गई. उस के हाथ से दूध का गिलास छूट गया. रामकली की आंखों से टपटप आंसू गिरने लगे.

मुखियाजी ने पलटा खाया और बोले, ‘‘मेरे छोटे बेटे की तो 4 बेटियां ही हैं. उस का भी तो खानदान चलाना है. मैं तो अपने बेटे का दूसरा ब्याह करूंगा.’’

‘‘रामकली…’’ मुखियाजी बोले, ‘‘तू बिलकुल चिंता मत कर. तेरा रामलाल आएगा और आज ही आएगा, चाहे 1,000 रुपए मुझे ही क्यों न देने पड़ें. मेरे रहते पुलिस की क्या मजाल, जो रामलाल को पकड़ कर ले जाए. मैं तो तुझे देख रहा था, तू तो इस गांव की लाज है.’’

कुछ घंटे बाद मुखियाजी रामलाल को छुड़ा लाए. रामलाल और रामकली दोनों मुखियाजी के सामने सिर झुका कर खड़े थे. वे अहसानों तले दबे थे.

कुछ दिनों के बाद मुखियाजी ने अपने छोटे बेटे की सगाई पड़ोस के गांव के लंबरदार की बेटी से कर दी. बरात विदा हो रही थी. बरातियों में चर्चा थी, ‘मुखियाजी को अपने छोटे बेटे का वंश भी चलाना है.’

दूसरी तरफ अंदर कोठे में छोटे थानेदार की बहुरिया टपटप आंसू बहा कर अपने कर्मों को कोस रही थी. उस की चारों बेटियां अपनी सौतेली मां के आने का इंतजार डरते हुए कर रही थीं.

लेखक – बृजबाला

Social Story : गलत रास्ता

Social Story : ‘‘अरे निपूती, कब तक सोती रहेगी… चाय के लिए मेरी आंखें तरस गई हैं और ये महारानी अभी तक बिस्तर में घुसी है. न बाल, न बच्चे… ठूंठ को शर्म भी नहीं आती,’’ कमला का अपनी बहू सलोनी को ताने देना जारी था.

अब क्या ही करे, सलोनी को तो कुछ समझ ही नहीं आता था. सुबह जल्दी उठ जाए तो सुनती कि सुबहसुबह बांझ का मुंह कौन देखे. देर से उठे तो भी बवाल. अब ये ताने सलोनी की जिंदगी का हिस्सा थे.

पति राकेश के होते भी सलोनी की विधवा जैसी जिंदगी थी. राकेश मुंबई में रहता था और सलोनी ससुराल में सास और देवर महेश के साथ रहती थी. बेचारी पति के होते हुए भी अब तक कुंआरी थी.

शादी की पहली रात को ही सलोनी को माहवारी आ गई थी, फिर उस की सास ने उसे अलग कोठरी में डाल दिया था. 7 दिन बाद जब उसे कोठरी से निकाला गया, तो राकेश मुंबई जाने की तैयारी कर रहा था.
दूसरी बार जब राकेश नए घर आया, तो उस के आते ही उसे मायके भेज दिया गया था.

ऐसे ही सालभर का समय निकल गया था. सलोनी का राकेश के साथ कोई रिश्ता बन ही नहीं पाया था. उस के बाद भी निपूती और बांझ का कलंक झेलना, सो अलग.

अब सलोनी ने सोचा कि राकेश से बात करे, पर राकेश के हिसाब से तो मां बिलकुल भी गलत नहीं हैं. शादी के बाद तो बच्चा होना ही चाहिए. अब उसे कौन समझाए कि बच्चा शादी करने भर से नहीं हो सकता, उस के लिए साथ में सोना भी पड़ता है.

धीरेधीरे सलोनी को पता चला कि राकेश नामर्द है और उस के साथ सो कर भी वह बच्चा पैदा नहीं कर
सकती. शायद इसीलिए वह उस से दूर भागता है और अपनी मां के साथ मिला हुआ है.

अब सलोनी को कोई हल नजर नहीं आ रहा था. मायके में मां नहीं थीं. पिता से क्या कहे. एक भाई था, वह भी काफी छोटा था. उस से भी कुछ नहीं कहा जा सकता था.

सलोनी का देवर महेश अपने भाई और मां के बरताव के बारे में सबकुछ जानता था. उस के मन में कई बार आता कि मां को खरीखोटी सुना दे, पर वह चुप रह जाता था.

आखिर एक दिन जब राकेश घर आया, उस दिन काफी देर तक पतिपत्नी में नोकझोंक हुई. उस बातचीत के कुछ हिस्से महेश के कानों में भी पड़े, पर वह चुप ही रहा.

2-3 दिन रह कर राकेश वापस मुंबई लौट गया था. सलोनी की सास अपनी बहन के घर गई थी. घर पर सलोनी और महेश ही थे.

अचानक सलोनी ने देखा कि महेश उस के कमरे में आ कर चुपचाप उस के पास खड़ा हो गया था. उस ने अपनी भाभी से कहा, ‘‘तुम इस घर से भाग जाओ.’’

सलोनी ने कहा, ‘‘मैं अब कहां जाऊंगी. पिताजी ने बड़ी मुश्किल से मेरी शादी की है. मैं वापस जा कर उन का दुख नहीं बढ़ा सकती.’’

सलोनी ने अब अपने पैरों पर खड़ा होने की ठान ली. हालांकि वह सिर्फ 12वीं जमात पास थी. उस ने एक औनलाइन शौपिंग कंपनी की पार्सल डिलीवरी का काम शुरू किया. लड़की होने की वजह से उसे यह काम आसानी से मिल गया.

शुरूशुरू में सलोनी पास के एरिया में ही डिलीवरी के लिए जाती थी, बाद में उस ने एक स्कूटी खरीद ली और दूरदूर तक पार्सल डिलीवर करने के लिए जाने लगी.

पैसा आने और लोगों से मिलनेजुलने से सलोनी में एक अलग तरह का आत्मविश्वास आने लगा, जिस से उस की रंगत बहुत ही निखर गई. अब उस की सास भी उसे कम ताने देती थी, पर उसे बांझ कहने से नहीं चूकती थी.

एक रविवार की दोपहर को सलोनी आराम कर के उठी, तो उस ने देखा कि महेश चोर नजरों से उसे ही देख रहा था.

सलोनी ने सोचा कि अपने पैरों पर तो वह खड़ी हो गई है, अब उसे अपने माथे पर लगे कलंक को भी धोना है. उस ने मौका देख कर एक दिन महेश से कहा, ‘‘तुम मुझे एक बच्चा दे दो.’’

महेश सोच में पड़ गया. उसे लगा कि यह पाप है. उसे सोच में देख कर सलोनी बोली, ‘‘देवरजी, इस पाप के साथ ही मैं अपने माथे पर लगे कलंक को धो सकती हूं. यही मेरे लिए सब से बड़ा पुण्य है.

‘‘मैं उस अपराध की सजा क्यों भुगतूं, जो मैं ने किया ही नहीं है. इस से तो अच्छा होगा कि मैं पाप कर के अपने माथे पर लगे बांझ वाले कलंक को धो दूं.’’

अब कमरे में पाप हो रहा था, जिस से एक कलंक को धुलना था. महेश की बांहों में समाते हुए सलोनी सोच रही थी, पाप और पुण्य की नई परिभाषा.

धीरेधीरे सलोनी अपने देवर महेश से वह सुख हासिल करने लगी, जो उसे पति ने कभी नहीं दिया था और महेश और उस पर कोई उंगली न उठा सके, इस के लिए सलोनी ने अपने देवर की शादी एक बिना पढ़ीलिखी गरीब लड़की से करा दी.

सास सब समझती, इसलिए वह अपनी छोटी बहू को रीतिरिवाज और पूजापाठ के बहाने अकसर घर से दूर ही रखती थी, जिस से उसे अपने पति और जेठानी के बीच के नाजायज रिश्ते की कोई भनक तक नहीं लगे.

समय के साथसाथ सलोनी एक बच्चे की मां बन गई और उस की नौकरी भी अब पक्की हो गई थी. राकेश सब जानतेसमझते हुए भी चुप ही रहता था और अब तो वह सामाजिक रूप से एक बच्चे का पिता भी बन गया था.

सलोनी ने अपनी जिंदगी से भागने का रास्ता नहीं चुना, बल्कि उसी ससुराल में डट कर मुकाबला किया और अब बड़े ही सुकून से रह रही थी. कभीकभी गलत रास्ता भी जिंदगी की गाड़ी को पटरी पर ला देता है.

Family Story : नसबंदी

Family Story : साल 1976 की बात रही होगी, उन दिनों मैं मैडिकल कालेज अस्पताल के सर्जरी विभाग में सीनियर रैजिडैंट के पद पर काम कर रहा था. देश में इमर्जैंसी का दौर चल रहा था. नसबंदी आपरेशन का कुहराम मचा हुआ था. हम सभी डाक्टरों को नसबंदी करने का टारगेट दे दिया गया था और इसे दूसरे सभी आपरेशनों के ऊपर प्राथमिकता देने का भी निर्देश था. टारगेट पूरा नहीं होने पर तनख्वाह और प्रमोशन रोकने की चेतावनी दे दी गई थी.

हम लोगों की ड्यूटी अकसर गांवों में कराए जा रहे नसबंदी कैंपों में भी लग जाती थी. कैंप के बाहर सरकारी स्कूलों के मुलाजिमों की भीड़ लगी रहती थी. उन्हें लोगों को नसबंदी कराने के लिए बढ़ावा देने का काम दिया गया था और तय कोटा नहीं पूरा करने पर उन की नौकरी पर भी खतरा था. कोटा पूरा करने के मकसद से वे बूढ़ों को भी पटा कर लाने में नहीं हिचकते थे. वहां लाए गए लोग कुछ तो बहुत कमउम्र के नौजवान रहते थे, जिन का आपरेशन करने में गड़बड़ी हो जाने का डर बना रहता था.

कैंप इंचार्ज आमतौर पर सिविल सर्जन रहा करते थे. मरीजों से हमारी पूछताछ उन्हें अच्छी नहीं लगती थी. बुजुर्ग मुलाजिमों की हालत बहुत खराब थी. उन से यह काम नहीं हो पाता था, लेकिन रिटायरमैंट के पहले काम न कर पाने के लांछन से अपने को बचाए रखना भी उन के लिए जरूरी रहता था. वे इस जुगाड़ में रहते थे कि अगर कोई मरीज खुद स्वयं टपक पड़े, तो उस के प्रेरक के रूप में अपना नाम दर्ज करवा लें या कोटा पूरा कर चुके दूसरे मुलाजिम की मिन्नत करने से शायद काम बन जाए.

एक दिन एक देहाती बुजुर्ग एक नौजवान को दिखाने लाए. उस नौजवान का नाम रमेश था और उम्र 20-22 साल के आसपास रही होगी. उसे वे बुजुर्ग अपना भतीजा बता रहे थे. उसे हाइड्रोसिल की बीमारी थी. यह बीमारी बड़ी तो नहीं थी, लेकिन आपरेशन किया जा सकता था.

वे बुजुर्ग आपरेशन कराने पर बहुत जोर दे रहे थे, इसलिए यूनिट इंचार्ज के आदेशानुसार उसे भरती कर लिया गया.

आपरेशन से पहले की जरूरी जांच की प्रक्रिया पूरी की गई और 4 दिनों के बाद उस के आपरेशन की तारीख तय की गई. इस तरह के छोटे आपरेशनों की जिम्मेदारी मेरी रहती थी.

आपरेशन के 2 दिन पहले वे बुजुर्ग चाचा मुझे खोजते हुए मेरे घर तक पहुंच गए. मिठाई का एक पैकेट भी वे अपने साथ लाए थे, जिसे मैं ने लेने से साफतौर पर मना कर दिया और उन्हें जाने को कहा. फिर भी वे बैठे रहे. फिर उन्होंने धीरे से कहा, ‘‘रमेश को 3 बच्चे हो चुके हैं, इसलिए वे नसबंदी करवा देना चाहते हैं.’’

जातेजाते उन्होंने रमेश से इस बात का जिक्र नहीं करने की बात कही. वजह, उसे नसबंदी से डर लगता है.

मेरे यह कहने पर कि इजाजत के लिए तो उसे दस्तखत करना पड़ेगा, तो उन्होंने कहा कि कागज उन्हें दे दिया जाए, वे उसे समझा कर करा लेंगे. आपरेशन कामयाब होने पर वे मेरी सेवा से पीछे नहीं हटेंगे.
मैं ने उन्हें घर से बाहर करते हुए दरवाजा बंद कर दिया.

एक दिन रात को अस्पताल से लौटते समय रास्ते में मुझे रमेश सिगरेट पीता हुआ दिखाई दे गया. देखते ही उस ने सिगरेट फेंक दी.

सिगरेट न पीने की नसीहत देने के खयाल से मैं ने उसे सिगरेट से होने वाले नुकसानों को बताते हुए कहा कि अपने तीनों बच्चों का खयाल करते हुए वह इस लत को तुरंत छोड़ दे.

हैरान होते हुए उस ने पूछा, ‘‘कौन से 3 बच्चे…?’’

‘‘तुम्हारे और किस के?’’

मेरे इस जवाब को सुन कर वह हैरान रह गया और फिर बोला, ‘‘डाक्टर साहब, मेरी तो अभी शादी भी नहीं हुई है, फिर बच्चे कहां से आ गए? अभी तो छेका हुआ है और 6 महीने बाद शादी होने वाली है, इसीलिए चाचा को मैं ने अपनी बीमारी के बारे बताया था तो वे यहां लेते आए.’’

अब मेरे चौंकने की बारी थी. उस की बातों को सुन कर मुझे दाल में कुछ काला लगा और इस राज को जानने की इच्छा होने लगी.

मेरे पूछने पर रमेश ने अपने परिवार का पूरा किस्सा सुनाया.

वे लोग गांव के बड़े किसान हैं. उन लोगों की तकरीबन 20 एकड़ जमीन है. ये चाचा उस के पिता के, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं, सब से बड़े भाई?हैं. बीच में 4 बुआ भी हैं, जो अपनेअपने घर में हैं. चाचा के 4 लड़के हैं. सब की शादी, बालबच्चे सब हैं.

रमेश अपने पिता की अकेली औलाद है. बचपन में ही उस के पिता ट्रैक्टर हादसे में मारे गए थे. वे सभी संयुक्त परिवार में रहते हैं. चाचा और चाची उसे बहुत मानते हैं. पढ़ालिखा कर मजिस्ट्रेट बनाना चाहते थे, लेकिन इम्तिहान में 2 बार फेल हो जाने के बाद उस ने पढ़ाई छोड़ दी और खेतीबारी में जुट गया.

चाचा ही घर के मुखिया हैं. गांव में उन की धाक है.

पूरी बात सुन कर मेरा कौतूहल और बढ़ गया कि आखिर इस लड़के की वे शादी के पहले ही नसबंदी क्यों कराना चाहते हैं?

कुछ सोचते हुए मैं ने उस से पूछा, ‘‘तुम्हारे हिस्से में कितनी जमीन आएगी?’’

थोड़ा सकपकाते हुए उस ने बताया, ‘‘तकरीबन 10 एकड़.’’

पूछने में मुझे अच्छा तो नहीं लग रहा था, लेकिन फिर भी पूछ ही लिया, ‘‘मान लो, तुम्हें बालबच्चे न हों और मौत हो जाए तो वह हिस्सा कहां जाएगा?’’

थोड़ी देर सोचने के बाद वह बोला, ‘‘फिर तो वह सब चाचा के ही हिस्से में जाएगा.’’

मेरे सवालों से वह थोड़ा हैरान था और जानना चाहता था कि यह सब क्यों पूछा जा रहा है.

बात टालते हुए सवेरे अस्पताल के अपने कमरे में अकेले आने को कहते हुए मैं आगे बढ़ गया.

रोकते हुए उस ने कहा, ‘‘चाचा जरूरी काम से गांव गए हैं. वजह, गांव में झगड़ा हो गया है. मुखिया होने के नाते उन्हें वहां जाना जरूरी था. कल शाम तक वे आ जाएंगे. अगर कोई खास बात है, तो उन के आने का इंतजार मैं कर लूं क्या?’’

‘‘तब तो और भी अच्छी बात है. तुम्हें अकेले ही आना है,’’ कहते हुए मैं चल पड़ा.

इस पूरी बातचीत से मैं इस नतीजे पर पहुंच चुका था कि इस के चाचा ने एक गंदे खेल की योजना बना ली है. वह इसे बेऔलाद बना कर आने वाले दिनों में इस के हिस्से की जायदाद को अपने बेटों के लिए रखना चाहता है. मैं ने ठान लिया कि मुझे इस नाइंसाफी से इसे बचाना होगा, साथ ही मैं इस संयुक्त परिवार में एक नए महाभारत का सूत्रपात भी नहीं होने देना चाहता था.

सवेरे अस्पताल में मेरे कमरे के आगे रमेश मेरे इंतजार में खड़ा था. मैं ने दोबारा जांच का नाटक करते हुए उसे बताया, ‘‘अभी तुम्हें आपरेशन की कोई जरूरत नहीं है. इस में नस इतनी सटी हुई है कि आपरेशन करने में उस के कट जाने का खतरा है. साथ ही, तुम्हारे खून की रिपोर्ट के मुताबिक खून ज्यादा बहने का भी खतरा है. इतना छोटा हाइड्रोसिल दवा से ठीक हो जाएगा और अगर तुम्हारे चाचा आपरेशन कराने के लिए फिर किसी दूसरे अस्पताल में तुम्हें ले जाएं, तो हरगिज मत जाना. इस नसबंदी के दौर में तुम्हारा भी शिकार हो जाएगा.’’

झूठ का सहारा लेते हुए मैं ने उस से कहा, ‘‘शादी के बाद भी कई बार छोटा हाइड्रोसिल अपनेआप ठीक हो जाता है. दवा का यह पुरजा लो और चुपचाप तुरंत भाग जाओ. बस से तुम्हारे गांव का 2 घंटे का रास्ता है.’’

उसे जाते हुए देख कर मुझे तसल्ली हुई.

बात आईगई हो गई. प्रमोशन पाते हुए विभागाध्यक्ष के पद से साल 2003 में रिटायर होने के बाद मैं अपने निजी अस्पताल के जरीए मरीजों की सेवा में जुड़ गया था.

एक दिन एक बूढ़े होते आदमी एक बूढ़ी औरत को दिखाने के लिए मेरे कमरे में दाखिल हुआ. बूढ़ी औरत सफेद कपड़ों में, तुलसी की माला पहने हुए, साध्वी सी लग रही थी.

अपना परिचय देते हुए उस आदमी ने 28 साल पहले की घटना को याद दिलाया.

सारा घटनाक्रम मेरी आंखों के सामने तैर गया और आगे की घटना जानने की उत्सुकता जाग गई.

रमेश ने बताया कि अस्पताल से जाने के बाद चाचा ने उस का आपरेशन कराने की बहुत कोशिश की थी, लेकिन नहीं करवाने की उस की जिद के आगे उन की एक न चली. चाचा उस को बराबर अपने साथ रखते थे. शादी के पहले उस के ऊपर जानलेवा हमला भी हुआ था. भाग कर उस ने किसी तरह जान बचा ली.

हल्ला था कि यह हमला चाचा ने ही करवाया था. 4 साल बाद ही चाचा की किसी ने हत्या कर दी थी. वे राजनीति में बहुत उलझ गए थे. उन्होंने बहुतों से दुश्मनी मौल ले ली थी.’’

उन दिनों उस गांव में लगने वाले नसबंदी कैंपों में मुझे कई बार जाने का मौका मिला था. मुझे वह गांव बहुत अच्छा लगता था. खुशहाल किसानों की बस्ती थी. खूब हरियाली थी. सारे खेत फसलों से लहलहाते रहते थे, इसलिए मैं ने रमेश से वहां का हाल पूछा.

उस ने कहना शुरू किया, ‘‘वह अब गांव नहीं रहा. छोटामोटा शहर बन गया है. पहले बारिश अनुकूल रहती थी. अब मौसम बदल गया है. सरकारी सिंचाई की कोई व्यवस्था अभी तक नहीं हो पाई है. पंप है तो बिजली नहीं. जिस किसान के पास अपना जनरेटर पंप जैसे सभी साधन हैं, उस की पैदावार ठीक है. खेती के लिए मजदूर नहीं मिलते, सब गांव छोड़ रहे हैं. उग्रवाद का बोलबाला हो गया है. उन के द्वारा तय लेवी दे कर छुटकारा मिलता है. जो थोड़े अमीर हैं, वे अपने बच्चों को पढ़ने के लिए बाहर भेज देते हैं और फिर वे किसी शहर में भले ही छोटीमोटी नौकरी कर लें, लेकिन गांव आना नहीं चाहते.’’

हैरानी जताते हुए मैं ने कहा, ‘‘मुझे तो तुम्हारा गांव इतना अच्छा लगा था कि मैं ने सोचा था कि रिटायरमैंट के बाद वहीं जा कर बसूंगा.’’

यह सुनते ही रमेश चेतावनी देने की मुद्रा में बोला, ‘‘भूल कर भी ऐसा नहीं करें सर. डाक्टरों के लिए वह जगह बहुत ही खतरनाक है. ब्लौक अस्पताल तो पहले से था ही, बाद में रैफरल अस्पताल भी खुल गया.

शुरू में सर्जन, लेडी डाक्टर सब आए थे, पर माहौल ठीक नहीं रहने से अब कोई आना नहीं चाहता है. जो भी डाक्टर आते हैं, 2-4 महीने में बदली करवा लेते हैं या नौकरी छोड़ कर चल देते हैं.

‘‘सर्जन लोगों के लिए तो फौजदारी मामला और भी मुसीबत है. इंजरी रिपोर्ट मनमाफिक लिखवाने के लिए उग्रवादी डाक्टर को ही उड़ा देने की धमकी देते हैं. वहां ढंग का कोई डाक्टर नहीं है. 2 झोलाछाप डाक्टर हैं, जो अंगरेजी दवाओं से इलाज करते हैं.

‘‘हम लोगों को तब बहुत खुशी हुई थी, जब हमारे गांव के ही एक परिवार का लड़का डाक्टरी पढ़ कर आया था. उस की पत्नी भी डाक्टर थी. दोनों में ही सेवा का भाव बहुत ज्यादा था. सब से ज्यादा सुविधा औरतों को हो गई थी.

2 साल में ही उन का बहुत नाम हो गया था. मां तो उन की पहले ही स्वर्ग सिधार चुकी थीं और बाद में पिता भी नहीं रहे. जमीन बेच कर अपने मातापिता की याद में एक अस्पताल भी बनवा रहा था. लेकिन उन से भी लेवी की मांग शुरू हो गई, तो वे औनेपौने दाम में सब बेच कर विदेश चले गए.’’

शहर के नजदीक इतने अच्छे गांव को भी चिकित्सा सुविधा की कमी का दंश झेलने की बात सुन कर सिवा अफसोस के मैं और कर क्या सकता था? बात बदलते हुए मैं ने कहा, ‘‘अच्छा, घर का हाल बताओ.’’

उस ने बताया, ‘‘चाचा के जाने के बाद घर में कलह बहुत बढ़ गई थी. हम लोगों के हिस्से की कमाई भी वे ही लोग उठा रहे थे, इसलिए वे जायदाद का बंटवारा नहीं चाहते थे.

‘‘मेरे मामा वकील हैं. उन के दबाव से बंटवारा हुआ. चाचा ने धोखे से मां के दस्तखत के कुछ दस्तावेज भी बनवा लिए थे. उस के आधार पर मेरे हिस्से में कम जायदाद आई.’’

मां अब तक आंखें बंद कर के सुन रही थीं, लेकिन अब चुप्पी तोड़ते हुए वे बोलीं, ‘‘हां डाक्टर साहब, वे मेरे पिता के समान थे. वे भी बेटी की तरह मानते थे. बैंक के कागज, लगान के कागज, तो कभी कोई सरकारी नोटिस आता रहता था. मैं मैट्रिक पास हूं, फिर भी मैं उन की इज्जत करते हुए, जहां वे कहते दस्तखत कर देती थी. कब उन्होंने उस दस्तावेज पर दस्तखत करवा लिए, पता नहीं.

‘‘मैं ने अपने बेटे को उस समय शांत रखा, नहीं तो कुछ भी हो सकता था. उसे बराबर समझाती थी कि संतोष धन से बड़ा कुछ नहीं होता है. है तो वह मेरा ही परिवार, लेकिन कहने में दुख लगता है कि चारों बेटे थोड़े भी सुखी नहीं हैं. पूरे परिवार में दिनरात कलह रहती है. उन में भी आपस में बंटवारा हो गया है. उन की खेतीगृहस्थी सब चौपट हो गई है. उन का कोई बालबच्चा भी काम लायक नहीं निकला.

‘‘एक पोता राशन की कालाबाजारी के आरोप में जेल में है, वहीं एक घर से भाग कर उग्रवादी बन गया है. कहने में शर्म आती है कि एक पोती भी घर से भाग गई. मुझे कोई बैर नहीं है उन से. मैं उन के परिवार के अभिभावक का फर्ज निभाती हूं. जो बन पड़ता है, हम लोग बराबर मदद करते रहते हैं. सब से छोटा बेटा, जो रमेश से 2 साल बड़ा है, हम लोगों से बहुत सटा रहता था. वह बीए तक पढ़ा भी. उस को हम लोगों ने खेतीबारी के सामान की दुकान खुलवा दी है.’’

फिर उन्होंने मुझे नसीहत देते हुए कहा, ‘‘डाक्टर साहब, सुखी रहने के लिए 3 बातों पर ध्यान देना जरूरी है. कभी भी किसी का हक नहीं मारना चाहिए. दूसरे का सुख छीन कर कभी कोई सुखी नहीं हो सकता.

दूसरी बात, किसी दूसरे का न तो बुरा सोचो और न बुरा करो. और तीसरी बात है स्वस्थ जीवनचर्या का पालन. सेहतमंद आदमी ही अपने लिए, समाज के लिए और देश के लिए कुछ कर सकता है…’’ इतना कह कर वे चुप हो गईं.

हाइड्रोसिल के आपरेशन के बारे में मेरे पूछने पर रमेश ने बताया कि अभी तक उस ने नहीं करवाया?है, लेकिन अब करवाना चाहता है. पहले धीरेधीरे बढ़ रहा था, लेकिन पिछले 2 साल में बहुत बड़ा हो गया है.

उस के 3 बच्चे भी हैं. 1 बेटा और 2 बेटी. सभी सैटल कर चुके हैं. बेटा एग्रीकल्चर पास कर के उन्नत वैज्ञानिक खेती में जुट गया है. पत्नी का बहुत पहले ही आपरेशन हो चुका है. फिर हंसते हुए वह बोला, ‘‘अब नस कट जाने की भी कोई चिंता नहीं है.’’

मैडिकल कालेज अस्पताल से मेरे बारे में जानकारी ले कर अपनी मां को दिखाने वह यहां तक पहुंच पाया है. उस की मां तकरीबन 70 साल की थीं. उन्हें पित्त में पथरी थी, जिस का आपरेशन कर दिया गया.

छुट्टी होने के बाद मांबेटा धन्यवाद देने मेरे कमरे में दाखिल हुए. रमेश ने अपने आपरेशन के लिए समय तय किया. फिर उस समय आपरेशन न करने और उस तरह की कड़ी हिदायत देने की वजह जानने की जिज्ञासा प्रकट की.

मैं ने कहा, ‘‘तो सुनो, तुम्हारे चाचा उस आपरेशन के साथ तुम्हारी नसबंदी करने के लिए मुझ पर दबाव डाल रहे थे. काफी पैसों का लालच भी दिया था. उन्होंने मुझे गलत जानकारी दी थी कि तुम्हारे 3 बच्चे हैं.

उस शाम तुम से बात होने के बाद मुझे अंदाजा हो गया था कि उन की नीयत ठीक नहीं थी. वे तुम्हें बेऔलाद बना कर तुम्हारे हिस्से की जायदाद को हड़पने की योजना बना रहे थे.’’

मेरी बात सुन कर दोनों ही सन्न रह गए. माताजी तो मेरे पैरों पर गिर पड़ीं, ‘‘डाक्टर साहब, आप ने मेरे वंश को बरबाद होने से बचा लिया.’’

मैं ने उन्हें उठाते हुए कहा, ‘‘बहनजी, आप मेरे से बहुत बड़ी हैं. पैर छू कर मुझे पाप का भागी न बनाएं. मुझे खुशी है कि एक डाक्टर की सामाजिक जिम्मेदारी निभाने का मुझे मौका मिला और आप के आशीर्वाद से मैं कामयाब हो पाया.’’

लेखक – डा. मधुकर एस. भट्ट

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