लैटर बौक्स: प्यार और यौवन का खत भाग 2

छवि ने शायद मेरी आवाज का भारीपन महसूस किया. उस की आंखों में आश्चर्य के भाव प्रकट हो गए, फिर अचानक ही हंस पड़ी, ‘‘अच्छा, आप क्या लिखते हैं?’’ उस ने बहुत चालाकी से एक असहज करने वाले विषय को टाल दिया था.

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साहित्य पर चर्चा चल रही थी. तभी नेहा चाय, बिस्कुट और नमकीन ले कर आ गई. चाय पीते हुए कई विषयों पर चर्चा चली. छवि  एक बुद्धिमान और जिज्ञासु लड़की थी. उस का सामान्यज्ञान भी काफी अच्छा था. जब खुल कर बातें हुईं तो नेहा के मन से छवि के प्रति पूर्वाग्रह समाप्त हो गया.

छवि अपनी गरमी की छुट्टियां मुंबई में बिताने वाली थी. उस की दीदी और जीजा, दोनों ही सरकारी नौकरी में थे. दिनभर छवि घर पर रहती थी और टीवी देखती थी. कभीकभी आसपास घूमने चली जाती थी. छुट्टी के दिन अपनी दीदी और जीजा के साथ घूमने जाती थी.

मुझ से मिलने के बाद अब वह कहानी, कविता और उपन्यास पढ़ने लगी. मुझ से कई सारी किताबें ले गई थी. दिन का काफी समय वह पढ़ने में बिताती, या मेरी पत्नी के साथ बैठ कर विभिन्न विषयों पर बातें करती. मैं स्वयं एक सरकारी दफ्तर में ग्रेड ‘बी’ अफसर था, इसलिए केवल छुट्टी के दिन छवि से खुल कर बात करने का मौका मिलता था. बाकी दिनों में हम सभी शाम की चाय अवश्य साथसाथ पीते थे.

छवि के चेहरे में अनोखा सम्मोहन था. ऐसा सम्मोहन, जो बरबस किसी को भी अपनी तरफ खींच लेता है. संभवतया हर स्त्री में यह गुण होता है, कुछ में कम, कुछ में ज्यादा, परंतु कुछ लड़कियां ऐसी होती हैं जो पुरुषों को चुंबक की तरह अपनी तरफ खींचती हैं. छवि ऐसी ही लड़की थी. वह युवा थी, पता नहीं उस का कोई प्रेमी था या नहीं, परंतु उसे देख कर मेरा मन मचलने लगता था.

सामाजिक दृष्टि से यह गलत था. मैं एक शादीशुदा व्यक्ति था, परिवार के प्रति मेरी कुछ जिम्मेदारियां थीं और मैं सामाजिक बंधनों में बंधा हुआ था. परंतु मन किसी बंधन को नहीं मानता और हृदय किसी के लिए भी मचल सकता है. प्यार के  मामले में यह बच्चे के समान होता है, जो हर सुंदर लड़की और स्त्री को पाने की लालसा सदा मन में पालता रहता है.

मैं नेहा को देखता तो हृदय में अपराधबोध पैदा होता, परंतु जैसे ही छवि को देखता तो अपराधबोध गायब हो जाता और खुशी की एक ऐसी लहर तनमन में दौड़ जाती कि जी चाहता, यह लहर कभी खत्म न हो, शरीर के अंगअंग में ऐसी लहरें उठती ही रहें और मैं उन लहरों में डूब जाऊं.

छवि सामान्य ढंग से मेरे घर आती, हमारे साथ बैठ कर बातें करती, चाय पीती और चली जाती. कभी पुस्तकें मांग कर ले जाती और पढ़ कर वापस कर देती. उस ने मेरी भी कहानियां पढ़ी थीं, परंतु उन पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी थी. मैं पूछता, तो बस इतना कहती, ‘ठीक हैं, अच्छी लगीं.’ बस, और कोई विश्ेष टिप्पणी नहीं.

उस की बातों से नहीं लगता था कि वह मेरे लेखन या व्यक्तित्व से प्रभावित थी. यदि वह मेरे किसी गुण की प्रशंसा करती तो मैं समझ सकता था कि उस के हृदय में मेरे लिए कोई स्थान था, फिर मैं उस के हृदय में प्रवेश करने का कोई न कोई रास्ता तलाश कर ही लेता. मेरी सब से बड़ी कमजोरी थी कि मैं शादीशुदा था. सीधेसीधे बात करता तो वह मुझे छिछोरा या लंपट समझती. मुझे मन मार कर अपनी भावनाओं को दबा कर रखना पड़ रहा था.

मेरे मन में उस से अकेले में मिलने की लालसा बलवती होती जा रही थी, परंतु मुझे कोई रास्ता नहीं दिखाई पड़ रहा था. इस तरह 15 दिन निकल गए. जैसजैसे उस के पुणे जाने के दिन कम हो रहे थे, वैसेवैसे मेरे मन की बेचैनी बढ़ती जा रही थी.

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फिर एक दिन कुछ आश्चर्यजनक हुआ. मैं औफिस जाने के लिए सीढि़यों से उतर कर नीचे आया, तो देखा, नीचे छवि खड़ी थी. मैं ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘यहां क्या कर रही हो?’’

‘‘आप का इंतजार,’’ उस ने आंखों को मटकाते हुए कहा.

‘‘क्या?’’ मुझे हलका सा आश्चर्य हुआ. एक बार दिल भी धड़क कर रह गया. क्या उस के  दिल में मेरे लिए कुछ है? बता नहीं सकता था, क्योंकि लड़कियां अपनी भावनाओं को छिपाने में बहुत कुशल होती हैं.

‘‘हां, आप को औफिस के लिए देर तो नहीं होगी?’’

‘‘नहीं, बोलिए न.’’

‘‘मैं घर में सारा दिन पड़ेपड़े बोर हो जाती हूं. टीवी और किताबों से मन नहीं बहलता. कहीं घूमने जाने का मन है, क्या आप मेरे साथ कहीं घूमने चल सकते हैं?’’

उस का प्रस्ताव सुन कर मेरा मन बल्लियों उछलने लगा, परंतु फिर हृदय पर जैसे किसी ने पत्थर रख दिया. मैं शादीशुदा था और नेहा को घर में छोड़ कर मैं उसे घुमाने कैसे ले जा सकता था. नेहा को साथ ले जाता, तो छवि को घुमाने का क्या लाभ? मैं ने असमंजसभरी निगाहों से उसे देखते हुए कहा, ‘‘आप के दीदीजीजा तो रविवार को आप को घुमाने ले जाते हैं.’’

‘‘नहीं, मैं आप के साथ जाना चाहती हूं.’’

मेरा दिल फिर से धड़का, ‘‘परंतु नेहा साथ रहेगी?’’

‘‘छुट्टी के दिन नहीं,’’ उस ने निसंकोच कहा, ‘‘आप दफ्तर से एक दिन की छुट्टी ले लीजिए. फिर हम दोनों बाहर चलेंगे.’’

‘‘अच्छा, अपना मोबाइल नंबर दो. मैं दफ्तर जा कर फोन करूंगा.’’ उस ने अपना नंबर दिया और मैं खूबसूरत मंसूबे बांधता हुआ दफ्तर आया. मन में लड्डू फूट रहे थे. अपने केबिन में पहुंचते ही मैं ने छवि को फोन मिलाया. बड़े उत्साह से उस से मीठीमीठी बातें कीं, ताकि उस के मन का पता चल सके.. इस के बावजूद मैं अपने मन की बात उस से नहीं कह पाया. छवि की बातों से भी ऐसा नहीं लगा कि उस के मन में मेरे लिए कोई ऐसीवैसी बात है.

हम ने बाहर घूमने की बात तय कर ली. परंतु फोन रखने पर मेरा उत्साह खत्म हो चुका था. शायद मेरे साथ बाहर जाने का छवि का कोई विशेष उद्देश्य नहीं था, वह केवल घूमना ही चाहती थी.

मैरीन ड्राइव के चौड़े फुटपाथ पर धीमेधीमे कदमों से टहलते हुए एक जगह हम रुक गए और धूप में चांदी जैसी चमकती हुई समुद्र की लहरों को निहारने लगे. मेरे मन में भी समुद्र जैसी लहरें उफान मार रही थीं. मैं चाह कर भी कुछ नहीं कह पा रहा था. लहरों को ताकते हुए छवि ने पूछा, ‘‘क्या आप इस बात पर विश्वास करते हैं कि प्रथम दृष्टि में प्यार हो सकता है.’’

मैं ने आश्चर्ययुक्त भाव से उस के मुखड़े को देखा. उस के चेहरे पर ऐसा कोई भाव दृष्टिमान नहीं था जिस से उस के मनोभावों का पता चलता. मैं ने अपनी दृष्टि को आसमान की तरफ टिकाते हुए कहा, ‘‘हां, हो सकता है, परंतु…’’

अब उस ने मेरी ओर हैरत से देखा और पूछा, ‘‘परंतु क्या?’’

‘‘परंतु…यानी ऐसा प्रेम संभव तो होता है परंतु इस में स्थायित्व कितना होता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि दोनों व्यक्ति कितने समय तक एकदूसरे के साथ रहते हैं.’’

छवि शायद मेरी बात का सही मतलब समझ गईर् थी. इसलिए आगे कुछ नहीं पूछा.

मैं ने छवि से कहीं बैठने के लिए कहा तो उस ने मना कर दिया. फिर हम टहलते हुए तारापुर एक्वेरियम तक गए. मैं ने उसे एक्वेरियम देखने के लिए कहा तो उस ने बताया कि वह देख चुकी थी. मुंबई देखने का उस का कोई इरादा भी नहीं था. उस ने बताया कि वह केवल मेरे साथ घूमना चाहती थी.

दोपहर तक हम लोग मैरीन ड्राइव में ही घूमते रहे… निरुद्देश्य. हम दोनों ने बहुत बातें की, परंतु मैं अपने मन की गांठ न खोल सका. उस की बातों से भी ऐसा कुछ

नहीं लगा कि उस के मन में मेरे प्रति कोई ऐसावैसा भाव है. मैं शादीशुदा था, इसलिए अपनी तरफ से कोईर् पहल नहीं करना चाहता था.

लगभग 2 बजे मैं ने उस से लंच करने के लिए कहा तो भी उस ने मना कर दिया. मुझे अजीब सा लगा, कैसी लड़की है, सुबह से मेरे साथ घूम रही है और खानेपीने का नाम तक न लिया. कब तक भूखी रहेगी. मैं उसे जबरदस्ती पास के एक रेस्तरां में ले गया और जबरदस्ती डोसा खिलाया. आधा डोसा मुझे ही खाना पड़ा.

Short Story: गृहस्थी की डोर

लेखक- एन.के. सोमानी

मनीष उस समय 27 साल का था. उस ने अपनी शिक्षा पूरी कर मुंबई के उपनगर शिवड़ी स्थित एक काल सेंटर से अपने कैरियर की शुरुआत की, जहां का ज्यादातर काम रात को ही होता था. अमेरिका के ग्राहकों का जब दिन होता तो भारत की रात, अत: दिनचर्या अब रातचर्या में बदल गई.

मनीष एक खातेपीते परिवार का बेटा था. सातरस्ते पर उस का परिवार एक ऊंची इमारत में रहता था. पिता का मंगलदास मार्केट में कपड़े का थोक व्यापार था. मनीष की उस पुरानी गंदी गलियों में स्थित मार्केट में पुश्तैनी काम करने में कोई रुचि नहीं थी. परिवार के मना करने पर भी आई.टी. क्षेत्र में नौकरी शुरू की, जो रात को 9 बजे से सुबह 8 बजे तक की ड्यूटी के रूप में करनी पड़ती. खानापीना, सोनाउठना सभी उलटे हो गए थे.

जवानी व नई नौकरी का जोश, सभी साथी लड़केलड़कियां उसी की उम्र के थे. दफ्तर में ही कैंटीन का खाना, व्यायाम का जिमनेजियम व आराम करने के लिए रूम थे. उस कमरे में जोरजोर से पश्चिमी तर्ज व ताल पर संगीत चीखता रहता. सभी युवा काम से ऊबने पर थोड़ी देर आ कर नाच लेते. साथ ही सिगरेट के साथ एक्स्टेसी की गोली का भी बियर के साथ प्रचलन था, जिस से होश, बदहोश, मदहोश का सिलसिला चलता रहता.

शोभना एक आम मध्यम आय वाले परिवार की लड़की थी. हैदराबाद से शिक्षा पूरी कर मुंबई आई थी और मनीष के ही काल सेंटर में काम करती थी. वह 3 अन्य सहेलियों के साथ एक छोटे से फ्लैट में रहती थी. फ्लैट का किराया व बिजलीपानी का जो भी खर्च आता वे तीनों सहेलियां आपस में बांट लेतीं. भोजन दोनों समय बाहर ही होता. एक समय तो कंपनी की कैंटीन में और दिन में कहीं भी सुविधानुसार.

रात को 2-3 बजे के बीच मनीष व शोभना को डिनर बे्रक व आराम का समय मिलता. डिनर तो पिज्जा या बर्गर के रूप में होता, बाकी समय डांस में गुजरता. थोड़े ही दिनों में दफ्तर के एक छोटे बूथ में दोनों का यौन संबंध हो गया. मित्रों के बीच उन के प्रेम के चर्चे आम होने लगे तो साल भर बीतने पर दोनों का विवाह भी हो गया, जिस में उन के काल सेंटर के अधिकांश सहकर्मी व स्टाफ आया था. विवाह उपनगर के एक हालीडे रिजोर्ट में हुआ. उस दिन सभी वहां से नशे में धुत हो कर निकले थे.

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दूसरे साल मनीष ने काल सेंटर की नौकरी से इस्तीफा दे कर अपने एक मित्र के छोटे से दफ्तर में एक मेज लगवा कर एक्सपोर्ट का काम शुरू किया. उन दिनों रेडीमेड कपड़ों की पश्चिमी देशों में काफी मांग थी. अत: नियमित आर्डर के मुताबिक वह कंटेनर से कोच्चि से माल भिजवाने लगा. उधर शोभना उसी जगह काम करती रही थी. अब उन दोनों की दिनचर्या में इतना अंतराल आ गया कि वे एक जगह रहते हुए भी हफ्तों तक अपने दुखसुख की बात नहीं कर पाते, गपशप की तो बात ही क्या थी. दोनों ही को फिलहाल बच्चे नहीं चाहिए थे, अत: शोभना इस की व्यवस्था स्वयं रखती. इस के अलावा घर की साफसफाई तो दूर, फ्लैट में कपड़े भी ठीक से नहीं रखे जाते और वे चारों ओर बिखरे रहते. मनीष शोभना के भरोसे रहता और उसे काम से आने के बाद बिलकुल भी सुध न रहती. पलंग पर आ कर धम्म से पड़ जाती थी.

मनीष का रहनसहन व संगत अब ऐसी हो गई थी कि उसे हर दूसरे दिन पार्टियों में जाना पड़ता था जहां रात भर पी कर नाचना और उस पर से ड्रग लेना पड़ता था. इन सब में और दूसरी औरतों के संग शारीरिक संबंध बनाने में इतना समय व रुपए खर्च होने लगे कि उस के अच्छेभले व्यवसाय से अब खर्च पूरा नहीं पड़ता.

किसी विशेष दिन शोभना छुट्टी ले कर मनीष के साथ रहना चाहती तो वह उस से रूखा व्यवहार करता. साथ में रहना या रेस्तरां में जाना उसे गवारा न होता. शोभना मन मार कर अपने काम में लगी रहती.

यद्यपि शोभना ने कई बार मनीष को बातोंबातों में सावधान रहने व पीने, ड्रग  आदि से दूर रहने के संकेत दिए थे पर वह झुंझला कर सुनीअनसुनी कर देता, ‘‘तुम क्या जानो कमाई कैसे की जाती है. नेटवर्क तो बनाना ही पड़ता है.’’

एक बार मनीष ने एक कंटेनर में फटेपुराने चिथड़े भर कर रेडीमेड के नाम से दस्तावेज बना कर बैंक से रकम ले ली, लेकिन जब पोर्ट के एक जूनियर अधिकारी ने कंटेनर खोल कर तलाशी ली तो मनीष के होश उड़ गए. कोर्ट में केस न दर्ज हो इस के लिए उस ने 15 लाख में मामला तय कर अपना पीछा छुड़ाया, लेकिन उस के लिए उसे कोच्चि का अपना फ्लैट बेचना पड़ा था. वहां से बैंक को बिना बताए वापस मुंबई शोभना के साथ आ कर रहने लगा. बैंक का अकाउंट भी गलत बयानी के आधार पर खोला था. अत: उन लोगों ने एफ.आई.आर. दर्ज करा कर फाइल बंद कर दी.

इस बीच मनीष की जीवनशैली के कारण उस के लिवर ने धीरेधीरे काम करना बंद कर दिया. खानापीना व किडनी के ठीक न चलने से डाक्टरों ने उसे सलाह दी कि लिवर ट्रांसप्लांट के बिना अब कुछ नहीं हो सकता. इस बीच 4-6 महीने मनीष आयुर्वेदिक दवाआें के चक्कर में भी पड़ा रहा. लेकिन कोई फायदा न होता देख कर आखिर शोभना से उसे बात करनी पड़ी कि लिवर नया लगा कर पूरी प्रक्रिया में 3-4 महीने लगेंगे, 12-15 लाख का खर्च है. पर सब से बड़ी दुविधा है नया लिवर मिलने की.

‘‘मैं ने आप से कितनी बार मना किया था कि खानेपीने व ड्रग के मामले में सावधानी बरतो पर आप मेरी सुनें तब न.’’

‘‘अब सुनासुना कर छलनी करने से क्या मैं ठीक हो जाऊंगा?’’

सारी परिस्थिति समझ कर शोभना ने मुंबई के जे.जे. अस्पताल में जा कर अपने लिवर की जांच कराई. उस का लिवर ऐसा निकला जिसे मनीष के शरीर ने मंजूर कर लिया. अपने गहनेजेवर व फ्लैट को गिरवी रख एवं बाकी राशि मनीष के परिवार से जुटा कर दोनों अस्पताल में इस बड़ी शल्यक्रिया के लिए भरती हो गए.

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मनीष को 6 महीने लगे पूरी तरह ठीक होने में. उस ने अब अपनी जीवन पद्धति को पूरी तरह से बदलने व शोभना के साथ संतोषपूर्वक जीवन बिताने का निश्चय कर लिया है. दोनों अब बच्चे की सोचने लगे हैं, ता

Serial Story: दस्विदानिया भाग 1

दीपक उत्तरी बिहार के छोटे से शहर वैशाली का रहने वाला था. वैशाली पटना से लगभग 30 किलोमीटर दूर है. 1982 में गंगा नदी पर गांधी सेतु बन जाने के बाद वैशाली से पटना आनाजाना आसान हो गया था. वैशाली की अपनी एक अलग ऐतिहासिक पहचान भी है.

दीपक इसी वैशाली के एनएनएस कालेज से बीएससी कर रहा था. उस की मां का देहांत बचपन में ही हो चुका था. उस के पिता रामलाल की कपड़े की दुकान थी. दुकान न छोटी थी न बड़ी. आमदनी बस इतनी थी कि बापबेटे का गुजारा हो जाता था. बचत तो न के बराबर थी. वैशाली में ही एक छोटा सा पुश्तैनी मकान था. और कोई संपत्ति नहीं थी. दीपक तो पटना जा कर पढ़ना चाहता था, पर पिता की कम आमदनी के चलते ऐसा नहीं हो सका.

दीपक अभी फाइनल ईयर में ही था कि अचानक दिल के दौरे से उस के पिता भी चल बसे. उस ने किसी तरह पढ़ाई पूरी की. वह दुकान पर नहीं बैठना चाहता था. अब उसे नौकरी की तलाश थी. उस ने तो इंडियन सिविल सर्विस के सपने देखे थे या फिर बिहार लोक सेवा आयोग के द्वारा राज्य सरकार के अधिकारी के. पर अब तो उसे नौकरी तुरंत चाहिए थी.

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दीपक ने भारतीय वायुसेना में एअरमैन की नियुक्ति का विज्ञापन पढ़ा, तो आवेदन कर दिया. उसे लिखित, इंटरव्यू और मैडिकल टैस्ट सभी में सफलता मिली. उस ने वायुसेना के टैक्नीकल ट्रेड में एअरमैन का पद जौइन कर लिया. ट्रेनिंग के बाद उस की पोस्टिंग पठानकोट एअरबेस में हुई. ट्रेनिंग के दौरान ही वह सीनियर अधिकारियों की प्रशंसा का पात्र बन गया. पोस्टिंग के बाद एअरबेस पर उस की कार्यकुशलता से सीनियर अधिकारी बहुत खुश थे.

वायुसेना के रसियन प्लेन को बीचबीच में मैंटेनैंस के लिए रूस जाना पड़ता था. दीपक के अफसर ने उसे बताया कि उसे भी जल्दी रूस जाना होगा. वह यह सुन कर बहुत खुश हुआ. उस ने जल्दीजल्दी कुछ आमतौर पर इस्तेमाल होने वाले रसियन शब्द और वाक्य सीख लिए. अपने एक दोस्त, जो 2 बार रूस जा चुका था से हैवी रसियन ओवरकोट भी उधार ले लिया. रूस की जबरदस्त ठंड के लिए यह जरूरी था.

1 महीने के अंदर ही दीपक को एक रसियन प्लेन के साथ बेलारूस की राजधानी मिंस्क जाना पड़ा. उस जहाज का कारखाना वहीं था. तब तक सोवियत संघ का बंटवारा हो चुका था और बेलारूस एक अलग राष्ट्र बन गया था.

अपने दोस्तों की सलाह पर उस ने भारत से कुछ चीजें जो रूसियों को बेहद पसंद थीं रख लीं. ये स्थानीय लोगों को मित्र बनाने में काम आती थीं. चूंकि जहाज अपना ही था, इसलिए वजन की सीमा नहीं थी. उस ने टूथपेस्ट, परफ्यूम, सुगंधित दार्जिलिंग चायपत्ती, ब्रैंडेड कौस्मैटिक आदि साथ रख लिए.

‘‘लेडीज कौस्मैटिक वहां की लड़कियों को इंप्रैस करने में बहुत काम आएंगे,’’ ऐसा चलते समय दोस्तों ने कहा था.

मिंस्क में लैंड करने के बाद दीपक का सामना जोरदार ठंड से हुआ. मार्च के मध्य में भी न्यूनतम तापमान शून्य से थोड़ा नीचे था. मिंस्क में उस के कम से कम 2 सप्ताह रुकने की संभावना थी. खैर, उस के मित्र का ओवरकोट प्लेन से निकलते ही काम आया.

दीपक के साथ पायलट, कोपायलट, इंजीनियर और क्रू  मैंबर्स भी थे. दीपक को एक होटल में एक सहकर्मी के साथ रूम शेयर करना था. वह दोस्त पहले भी मिंस्क आ चुका था. उस ने दीपक को रसियन से दोस्ती के टिप्स भी दिए.

अगले दिन से दीपक को कारखाना जाना था. उस की टीम को एक इंस्ट्रक्टर जहाज के कलपुरजों, रखरखाव के बारे में रूसी भाषा में समझाता था. साथ में एक लड़की इंटरप्रेटर उसे अंगरेजी में अनुवाद कर समझाती थी.

नताशा नाम था उस लड़की का. बला की खूबसूरत थी वह. उम्र 20 साल के आसपास होगी. गोरा रंग तो वहां सभी का होता है, पर नताशा में कुछ विशेष आकर्षण था जो जबरन किसी को उस की तारीफ करने को मजबूर कर देता. सुंदर चेहरा, बड़ीबड़ी नीली आंखें, सुनहरे बाल और छरहरे बदन को दीपक ने पहली बार इतने करीब से देखा था.

दीपक की नजरें बारबार नताशा पर जा टिकती थीं. जब कभी नताशा उस की ओर देखती दीपक अपनी निगाहें फेर लेता. वह धीमे से मुसकरा देती. जब वह सुबहसुबह मिलती तो दीपक हाथ मिला कर रूसी भाषा में गुड मौर्निंग यानी दोबरोय उत्रो बोलता और कुछ देर तक उस का हाथ पकड़े रहता.

नताशा मुसकरा कर गुड मौर्निंग कह आगे बोलती कि प्रस्तिते पजालास्ता ऐक्सक्यूज मी, प्लीज, हाथ तो छोड़ो. तब दीपक झेंप कर जल्दी से उस का हाथ छोड़ देता.

उस की हरकत पर उस के साथी और इंस्ट्रक्टर भी हंस पड़ते थे. लंच के समय कारखाने की कैंटीन में दीपक, नताशा और इंस्ट्रक्टर एक ही टेबल पर बैठते थे. 1 सप्ताह में वे कुछ फ्रैंक हो गए थे. इस में इंडिया से साथ लाए गिफ्ट आइटम्स की अहम भूमिका थी.

नताशा के साथ अब कुछ पर्सनल बातें भी होने लगी थीं. उस ने दीपक को बताया कि रूसी लोग इंडियंस को बहुत पसंद करते हैं. उस के मातापिता का डिवोर्स बहुत पहले हो चुका था और कुछ अरसा पहले मां का भी देहांत हो गया था. उस के पिता चेर्नोबिल न्यूक्लियर प्लांट में काम करते थे और वह उन से मिलती रहती थी.

लगभग 10 दिन बाद दीपक को पता चला कि प्लेन को क्लीयरैंस मिलने में अभी 10 दिन और लगेंगे. एक दिन दीपक ने इंस्ट्रक्टर से कहा कि उस की मास्को देखने की इच्छा है.

इंस्ट्रक्टर ने कहा, ‘‘ओचिन खराशो (बहुत अच्छा) शनिवार को नताशा भी किसी काम से मास्को जा रही है. तुम भी उसी की फ्लाइट से चले जाओ. मात्र 1 घंटे की फ्लाइट है.’’

‘‘स्पासिबा (थैंक्स) गुड आइडिया,’’ दीपक बोला और फिर उसी समय नताशा से फोन पर अपनी इच्छा बताई तो वह बोली नेत प्रौब्लेमा (नो प्रौब्लम).

दीपक बहुत खुश हुआ. उस ने अपने दोस्त से मास्को यात्रा की चर्चा करते हुए पूछा, ‘‘अगर मुझे किसी रूसी लड़की के कपड़ों की तारीफ करनी हो तो क्या कहना चाहिए?’’

जवाब में दोस्त ने उसे एक रूसी शब्द बताया. शनिवार को दीपक और नताशा मास्को पहुंचे. दोनों होटल में आसपास के कमरों में रुके. नताशा ने उसे क्रेमलिन, बोलशोई थिएटर, बैले डांस, रसियन सर्कस आदि दिखाए.

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1 अप्रैल की सुबह दोनों मिले. उसी दिन शाम को उन्हें मिंस्क लौटना था. नताशा नीले रंग के लौंग फ्रौक में थी, कमर पर सुनहरे रंग की बैल्टनुमा डोरी बंधी थी, जिस के दोनों छोरों पर पीले गुलाब के फूलों की तरह झालर लटक रही थी. फ्रौक का कपड़ा पारदर्शी तो नहीं था, पर पतला था जिस के चलते उस के अंत:वस्त्र कुछ झलक रहे थे. वह दीपक के कमरे में सोफे पर बैठी थी.

दीपक बोला, ‘‘दोबरोय उत्रो. तिह क्रासावित्सा (यू आर लुकिंग ब्यूटीफुल).’’

‘‘स्पासिबा (धन्यवाद).’’

वह नताशा की ओर देख कर बोला ‘‘ओचिन खराशो तृसिकी.’’

‘‘व्हाट? तुम ने कैसे देखा?’’

‘‘अपनी दोनों आंखों से.’’

‘‘तुम्हारी आंखें मुझ में बस यही देख रही थीं?’’

फिर अचानक नताशा सोफे से उठ खड़ी हुई और बोली, ‘‘मैं इंडियंस की इज्जत करती हूं.’’

‘‘दा (यस).’’

‘‘व्हाट दा. मैं तुम्हें अच्छा आदमी समझती थी. मुझे तुम से ऐसी उम्मीद नहीं थी,’’ और फिर बिना दीपक की ओर देखे कमरे से तेजी से निकल गई.

दीपक को मानो लकवा मार गया. वह नताशा के कमरे के दरवाजे की जितनी बार बैल बजाता एक ही बात सुनने को मिलती कि चले जाओ. मैं तुम से बात नहीं करना चाहती हूं.

उसी दिन शाम की फ्लाइट से दोनों मिंस्क लौट आए. पर नताशा ने अपनी सीट अलग ले ली थी. दोनों में कोई बात नहीं हुई.

अगले दिन लंच के समय कारखाने की कैंटीन में दीपक, उस का मित्र, नताशा और इंस्ट्रक्टर एक टेबल पर बैठे थे. दीपक बारबार नताशा की ओर देख रहा था पर नताशा उसे नजरअंदाज कर देती. दीपक ने इंस्ट्रक्टर के कान में धीरे से कुछ कहा तो इंस्ट्रक्टर ने नताशा से धीरे से कुछ कहा.

नताशा से कुछ बात कर इंस्ट्रक्टर ने दीपक से पूछा, ‘‘तुम ने नताशा से कोई गंदी बात की थी? वह बहुत नाराज है तुम से.’’

‘‘मैं ने तो ऐसी कोई बात नहीं की थी,’’ बोल कर दीपक ने जो आखिरी बात नताशा को कही थी उसे दोहरा दिया.

इंस्ट्रक्टर ने भी सिर पीटते हुए कहा, ‘‘बेवकूफ यह तुम ने क्या कह दिया? इस का मतलब समझते हो?’’

‘‘हां, तुम्हारी ड्रैस बहुत अच्छी है?’’

‘‘नेत (नो), इस का अर्थ तुम्हारी पैंटी बहुत अच्छी है, होता है बेवकूफ.’’

तब दीपक अपने मित्र की ओर सवालिया आंखों से देखने लगा. फिर कहा, ‘‘तुम ने ही सिखाया था यह शब्द मुझे.’’

नताशा भी आश्चर्य से उस की तरफ देखने लगी थी. दोस्त भी अपनी सफाई में बोला, ‘‘अरे यार मैं ने तो यों ही बता दिया था. मुझे लेडीज ड्रैस का यही एक शब्द आता था. मुझे क्या पता था कि तू नताशा को बोलने जा रहा है. आई एम सौरी.’’

फिर नताशा की ओर देख कर बोला, ‘‘आई एम सौरी नताशा. मेरी वजह से यह गड़बड़ हुई है. दरअसल, दीपक ने तुम्हारी ड्रैस की तारीफ करनी चाही होगी… यह बेचारा बेकुसूर है.’’

यह सुन कर सभी एकसाथ हंस पड़े.

दीपक ने नताशा से कहा, ‘‘ईजवीनीते (सौरी) नताशा. मैं ने जानबूझ कर उस समय ऐसा नहीं कहा था.’’

‘‘ईजवीनीते. प्रस्तिते (सौरी, ऐक्सक्यूज मी). हम दोनों गलतफहमी के शिकार हुए.’’

इंस्ट्रक्टर बोला, ‘‘चलो इसे भी एक अप्रैल फूल जोक समझ कर भूल जाओ.’’

इस के बाद नताशा और दीपक में मित्रता और गहरी हो चली. दोनों शालीनतापूर्वक अपनी दोस्ती निभा रहे थे. दीपक तो इस रिश्ते को धीरेधीरे दोस्ती से आगे ले जाना चाहता था, पर कुछ संकोच से, कुछ दोस्ती टूटने के भय से और कुछ समय के अभाव से मन की बात जबान पर नहीं ला रहा था.

इसी बीच दीपक के इंडिया लौटने का दिन भी आ गया था. एअरपोर्ट पर नताशा दीपक को बिदा करने आई थी. उस ने आंखों में छलक आए आंसू छिपाने के लिए रंगीन चश्मा पहन लिया. दीपक को पहली बार महसूस हुआ जैसे वह भी मन की कुछ बात चाह कर भी नहीं कर पा रही है. दीपक के चेहरे की उदासी किसी से छिपी नहीं थी.

‘‘दस्विदानिया, (गुड बाई), होप टु सी यू अगेन,’’ बोल कर दोनों गले मिले.

Serial Story: दस्विदानिया भाग 2

दीपक भारत लौट आया. नताशा से उस का संपर्क फोन से लगातार बना हुआ था. इसी बीच डिपार्टमैंटल परीक्षा और इंटरव्यू द्वारा दीपक को वायुसेना में कमीशन मिल गया. वह अफसर बन गया. हालांकि उस के ऊपर कोई बंदिश नहीं थी, उस के मातापिता गुजर चुके थे, फिर भी अभी तक उस ने शादी नहीं की थी.

इस बीच नताशा ने उसे बताया कि उस के पापा भी चल बसे. उन्हें कैंसर था. संदेह था कि चेर्नोबिल न्यूक्लियर प्लांट में हुई भयानक दुर्घटना के बाद कुछ लोगों में रैडिएशन की मात्रा काफी बढ़ गई थी. शायद उन के कैंसर की यही वजह रही होगी.

पिता की बीमारी में नताशा महीनों उन के साथ रही थी. इसलिए उस ने नौकरी भी छोड़ दी थी. फिलहाल कोई नौकरी नहीं थी और पिता के घर का कर्ज भी चुकाना था. वह एक नाइट क्लब में डांस कर और मसाज पार्लर जौइन कर काम चला रही थी. उस ने दीपक से इस बारे में कुछ नहीं कहा था, पर बराबर संपर्क बना हुआ था.

लगभग 2 साल बाद दीपक दिल्ली एअरपोर्ट पर था. अचानक उस की नजर नताशा पर पड़ी. वह दौड़ कर उस के पास गया और बोला, ‘‘नताशा, अचानक तुम यहां? मुझे खबर क्यों नहीं की?’’

नताशा भी अकस्मात उसे देख कर घबरा उठी. फिर अपनेआप को कुछ सहज कर कहा, ‘‘मुझे भी अचानक यहां आना पड़ा. समय नहीं मिल सका बात करने के लिए…तुम यहां कैसे?’’

‘‘मैं अभी एक घरेलू उड़ान से यहां आया हूं. खैर, चलो कहीं बैठ कर कौफी पीते हैं. बाकी बातें वहीं होंगी.’’

दोनों एअरपोर्ट के रेस्तरां में बैठे कौफी पी रहे थे. दीपक ने फिर पूछा, ‘‘अब बताओ यहां किस लिए आई हो?’’

नताशा खामोश थी. फिर कौफी की चुसकी लेते हुए बोली, ‘‘एक जरूरी काम से किसी से मिलना है. 2 दिन बाद लौट जाऊंगी.’’

‘‘ठीक है पर क्या काम है, किस से मिलना है, मुझे नहीं बताओगी? क्या मैं भी तुम्हारे साथ चल सकता हूं?’’

‘‘नहीं, मुझे वहां अकेले ही जाना होगा.’’

‘‘चलो, मैं तुम्हें ड्रौप कर दूंगा.’’

‘‘नेत, स्पासिबा (नो, थैंक्स). मेरी कार बाहर खड़ी होगी.’’

‘‘कार को वापस भेज देंगे. कम से कम कुछ देर तक तो तुम्हारे साथ ऐंजौय कर लूंगा.’’

‘‘क्यों मेरे पीछे पड़े हो?’’ बोल कर नताशा उठ कर जाने लगी.

दीपक ने उस का हाथ पकड़ कर रोका और कहा, ‘‘ठीक है, तुम जाओ, मगर मुझ से नाराजगी का कारण बताती जाओ.’’

नताशा तो रुक गई, पर अपने आंसुओं को गालों पर गिरने से न रोक सकी.

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दीपक के द्वारा बारबार पूछे जाने पर वह रो पड़ी और फिर उस ने अपनी पूरी कहानी बताई, ‘‘मैं तुम से क्या कहती? अभी तक तो मैं सिर्फ डांस या मसाज करती आई थी पर मैं पिता का घर किसी भी कीमत पर बचाना चाहती हूं. मैं ने एक ऐस्कौर्ट एजेंसी जौइन कर ली है. शायद आने वाले 2 दिन मुझे किसी बड़े बिजनैसमैन के साथ ही गुजारने पड़ेंगे. तुम समझ रहे हो न मैं क्या कहना चाहती हूं? ’’

‘‘हां, मैं समझ सकता हूं. तुम्हें किस ने हायर किया है, मुझे बता सकती हो?’’

‘‘नो, सौरी. हो सकता है जो नाम मैं जानती हूं वह गलत हो. मैं ने भी उसे अपना सही नाम नहीं बताया है. वैसे भी इस प्रोफैशन की बात किसी तीसरे आदमी को हम नहीं बताते हैं. मैं बस इतना जानती हूं कि मुझे 3 दिनों के लिए 4000 डौलर मिले हैं.’’

‘‘तुम उसे फोन करो, उसे पैसे वापस कर देंगे.’’

‘‘नहीं, यह आसान नहीं है. वह मेरी एजेंसी का पुराना भरोसे वाला ग्राहक है.’’

कुछ देर सोचने के बाद दीपक ने कहा ‘‘एक आइडिया है, उम्मीद है काम कर जाएगा. उस का फोन नंबर तो होगा तुम्हारे पास?’’

‘‘नहीं, मुझे होटल का नंबर और रूम नंबर पता है.’’

‘‘गुड, तुम उसे फोन लगाओ और कहो कि तुम्हें कस्टम वालों ने पकड़ लिया है. तुम्हारे पर्स में कुछ ड्रग्स मिले. तुम्हें खुद पता नहीं कि कहां से ड्रग्स पर्स में आ गए और अब वही तुम्हारी सहायता कर सकता है.’’

नताशा ने फोन कर उस बिजनैसमैन से बात कर वैसा ही कहा.

उधर से वह फोन पर गुस्सा हो कर नताशा से बोला, ‘‘यू इडियट, तुम ने मेरे या

इस होटल के बारे में कस्टम औफिसर को क्या बताया है?’’

‘‘सर, मैं ने तो अभी तक कुछ नहीं बताया है… पर परदेश में बस आप का ही सहारा है. आप कुछ कोशिश करें तो मामला रफादफा हो जाएगा. मैं अपने डौलर तो साथ लाई नहीं हूं.’’

‘‘मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता हूं. खबरदार दोबारा फोन करने की कोशिश की.

अब तुम जानो और तुम्हारा काम… भाड़ में जाओ तुम और तुम्हारे 4000 डौलर,’’ और उस ने फोन काट दिया.

बिजनैसमैन की बातें सुन कर दोनों एकसाथ खुशी से उछल पड़े. नताशा बोली, ‘‘अब तो मेरे डौलर भी बच गए. पापा के घर का काफी कर्ज चुका सकती हूं. मेरा रिटर्न टिकट तो 2 दिन बाद का है. फिर भी मैं कोशिश करती हूं कि आज रात की फ्लाइट मिल जाए,’’ कह वह रसियन एअरलाइन एरोफ्लोट के काउंटर की तरफ बढ़ी.

दीपक ने उसे रोक कर कहा, ‘‘रुको, इस की कोई जरूरत नहीं है. तुम अभी मेरे साथ चलो. कम से कम 2 दिन तो मेरा साथ दो.’’

दीपक ने नताशा को एक होटल में ठहराया. काफी देर दोनों बातें करते रहे. दोनोें एकदूसरे का दुखसुख समझ रहे थे. रात में डिनर के बाद दीपक चलने लगा. उसे गले से लगाते हुए होंठों पर ऊंगली फेरते हुए बोला, ‘‘नताशा, या लुवलुवा (आई लव यू). कल सुबह फिर मिलते हैं. दोबरोय नोचि (गुड नाइट).’’

‘‘आई लव यू टू,’’ दीपक के बालों को सहलाते हुए नताशा ने कहा.

अगले दिन जब दीपक नताशा से मिलने आया तो वह स्कारलेट कलर के सुंदर लौंग फ्रौक में बैठी थी. बिलकुल उसी तरह जैसे मास्को के होटल में मिली थी.

दीपक बोला, ‘‘दोबरोय उत्रो. क्रासावित्सा (गुड मौर्निंग, ब्यूटीफुल).’’

‘‘कौन ब्यूटीफुल है मैं या तृसिकी?’’ वह हंसते हुए बोली ‘‘दोनों.’’

‘‘यू नौटी बौय,’’ बोल कर नताशा दीपक से सट कर खड़ी हो गई.

दीपक ने उसे अपनी बांहों में ले कर कहा, ‘‘अब तुम कहीं नहीं जाओगी. मैं तुम से शादी करना चाहता हूं. मैं कल ही अपनी शादी के लिए औफिस में अर्जी दे दूंगा.’’

‘‘आई लव यू दीपक, पर मुझे कल जाने दो. मैं ने पिता की निशानी बचाने के लिए अपनी अस्मिता दांव पर लगा दी… मुझे अपने देश जा कर सबकुछ ठीक करने के लिए मुझे कुछ समय दो.’’

अगले दिन नताशा एरोफ्लोट की फ्लाइट से मास्को जा रही थी. दीपक उसे छोड़ने दिल्ली एअरपोर्ट आया था. उस के चेहरे पर उदासी देख कर वह बोली, ‘‘उम्मीद है फिर जल्दी मिलेंगे. डौंट गैट अपसैट. बाय, टेक केयर, दस्विदानिया,’’ और वह एरोफ्लोट की काउंटर पर चैक इन करने बढ़ गई. दोनों हाथ हिला कर एकदूसरे से बिदा ले रहे थे.

कुछ दिनों बाद दीपक ने अपने सीनियर से शादी की अर्जी दे कर इजाजत मांगने की बात की तो सीनियर ने कहा, ‘‘सेना का कोई भी सिपाही किसी विदेशी से शादी नहीं कर सकता है, तुम्हें पता है कि नहीं?’’

‘‘सर, पता है, इसीलिए तो पहले मैं इस की इजाजत लेना चाहता हूं.’’

‘‘और तुम सोचते हो तुम्हें इजाजत मिल जाएगी? यह सेना के नियमों के विरुद्ध है, तुम्हें इस की इजाजत कोईर् भी नहीं दे सकता है.’’

‘‘सर, हम दोनों एकदूसरे से बहुत प्यार करते हैं. मैं शादी उसी से करूंगा.’’

‘‘बेवकूफी नहीं करो, अपने देश में क्या लड़कियों की कमी है?’’

‘‘बेशक नहीं है सर, पर प्यार तो एक से ही किया है मैं ने, सिर्फ नताशा से.’’

‘‘तुम अपना और मेरा समय बरबाद कर रहे हो. तुम्हारा कमीशन पूरा होने में कितना वक्त बाकी है अभी?’’

‘‘सर, अभी तो करीब 12 साल बाकी हैं.’’

‘‘तब 2 ही उपाय हैं या तो 12 साल इंतजार करो या फिर नताशा को अपनी नागरिकता छोड़ने को कहो. और कोई उपाय नहीं है.’’

‘‘अगर मैं त्यागपत्र देना चाहूं तो?’’

‘‘वह भी स्वीकार नहीं होगा. देश और सेना के प्रति तुम्हारा कुछ कर्तव्य बनता है जो प्यार से ज्यादा जरूरी है, याद रखना.’’

‘‘यस सर, मैं अपनी ड्यूटी भी निभाऊंगा… मैं कमीशन पूरा होने तक इंतजार करूंगा,’’ कह वह सोचने लगा कि पता नहीं नताशा इतने लंबे समय तक मेरी प्रतीक्षा करेगी या नहीं. फिर सोचा कि नताशा को सभी बातें बता दे.

दीपक ने जब नताशा से बात की तो उस ने कहा, ‘‘12 साल क्या मैं कयामत तक तुम्हारा इंतजार कर सकती हूं… तुम बेशक देश के प्रति अपना फर्ज निभाओ. मैं इंतजार कर लूंगी.’’

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Serial Story: दस्विदानिया भाग 3

नताशा से बात कर दीपक को खुशी हुई. दोनों में प्यारभरी बातें होती रहती थीं. वे बराबर एकदूसरे के संपर्क में रहते. धीरेधीरे समय बीतता जा रहा था. करीब 2 साल बाद एक बार नताशा दीपक से मिलने इंडिया आई थी. दीपक ने महसूस किया उस के चेहरे पर पहले जैसी चमक नहीं थी. स्वास्थ्य भी कुछ गिरा सा लग रहा था.

दीपक के पूछने पर उस ने कहा, ‘‘कोई खास बात नहीं है, सफर की थकावट और थोड़ा सिरदर्द है.’’

दोनों में मर्यादित प्रेम संबंध बना हुआ था. एक दिन बाद नताशा ने लौटते समय कहा, ‘‘इंतजार का समय 2 साल कम हो गया.’’

‘‘हां, बाकी भी कट जाएगा.’’

बेलारूस लौटने के बाद से नताशा का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता था. कभी जोर से सिरदर्द, कभी बुखार तो कभी नाक से खून बहता. सारे टैस्ट किए गए तो पता चला कि उसे ब्लड कैंसर है. डाक्टर ने बताया कि फिलहाल दवा लेती रहो, पर 2 साल के अंदर कुछ भी हो सकता है. नताशा अपनी जिंदगी से निराश हो चली थी. एक तरफ अकेलापन तो दूसरी ओर जानलेवा बीमारी. फिर भी उस ने दीपक को कुछ नहीं बताया.

इधर कुछ महीने बाद दीपक को 3-4 दिनों से तेज बुखार था.

वह अपने एअरफोर्स के अस्पताल में दिखाने गया. उस समय फ्लाइट लैफ्टिनैंट डाक्टर ईशा ड्यूटी पर थीं. चैकअप किया तो दीपक को 103 डिग्री से ज्यादा ही फीवर था.

डाक्टर बोली, ‘‘तुम्हें एडमिट होना होगा. आज फीवर का चौथा दिन है…कुछ ब्लड टैस्ट करूंगी.’’

दीपक अस्पताल में भरती था. टैस्ट से पता चला कि उसे टाईफाइड है.

डा. ईशा ने पूछा, ‘‘तुम्हारे घर में और कौनकौन हैं, आई मीन वाइफ, बच्चे?’’

‘‘मैं बैचलर हूं डाक्टर… वैसे भी और कोई नहीं है मेरा.’’

‘‘डौंट वरी, हम लोग हैं न,’’ डाक्टर उस की नब्ज देखते हुए बोलीं.

बीचबीच में कभीकभी दीपक का खुबार 103 से 104 डिग्री तक हो जाता तो वह नताशानताशा पुकारता. डा. ईशा के पूछने पर उस ने नताशा के बारे में बता दिया. डाक्टर ने नताशा का फोन नंबर ले कर उसे फोन कर दिया. 2 दिन बाद नताशा दीपक से मिलने पहुंच गई. उस दिन दीपक का फीवर कम था. नताशा उस के कैबिन में दीपक के बालों को सहला रही थी.

तभी डा. ईशा ने प्रवेश किया. बोलीं, ‘‘आई एम सौरी, मैं बाद में आ जाती हूं. बस रूटीन चैकअप करना है. आज इन्हें कुछ आराम है.’’

दीपक बोला, ‘‘नहीं डाक्टर, आप को जाने की जरूरत नहीं है. आप अपना काम कर लें… अब नताशा आ गई है, तो मैं ठीक हो जाऊंगा.’’

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डा. ईशा ने नताशा से पूछा, ‘‘तुम इंडिया कितने दिनों के लिए आई हो?’’

‘‘ज्यादा से ज्यादा 2 दिन तक रुक सकती हूं.’’

‘‘ठीक है, इन का बुखार उतरना शुरू हो गया है. उम्मीद है कल तक कुछ और आराम मिलेगा.’’

डाक्टर के जाने के बाद दीपक ने नताशा से पूछा, ‘‘क्या बात है, तुम्हारी तबीयत तो ठीक है? थकीथकी लग रही हो?’’

‘‘नहीं, मैं बिलकुल ठीक हूं. तुम आराम करो. मैं अभी चलती हूं. फिर आऊंगी शाम को विजिटिंग आवर्स में.’’

नताशा डा. ईशा से मिलने उन के कैबिन में गई तो डा. ईशा बोलीं, ‘‘आप लंच मेरे साथ लेंगी… मेरे क्वार्टर में आ जाना, मैं वेट करूंगी.’’

लंच के बाद नताशा डा. ईशा से बैठी बातें कर रही थी. डा. ईशा ने कहा, ‘‘क्या बात है, इंडियन खाना पसंद नहीं आया? तुम ने तो कुछ खाया ही नहीं. तुम्हें तो इंडियन खाने की आदत डालनी होगी.’’

‘‘नहीं, खाना बहुत अच्छा था. मैं ने भरपेट खा लिया है.’’

‘‘दीपक तुम्हें बहुत चाहते हैं… तुम्हारे लिए लंबा इंतजार करने को तैयार हैं.’’

उसी समय नताशा के सिर में जोर का दर्द हुआ और नाक से खून रिसने लगा. डा. ईशा उसे सहारा दे कर वाशबेसिन तक ले गई, फिर बैड पर आराम करने के लिए लिटा दिया और पूछा, ‘‘तुम्हें क्या तकलीफ है और ऐसा कितने दिनों से हो रहा है?’’

नताशा ने अपने बैग से दवा खाई और अपनी पूरी बीमारी विस्तार से बता दी. फिर अपनी फाइल और रिपोर्ट उन्हें दिखा कर कहा, ‘‘अब मेरी जिंदगी कुछ ही महीनों की बची है. डाक्टर ने कहा है कि ज्यादा से ज्यादा 1 साल. मैं चाहती हूं आप दीपक को धीरेधीरे समझाएं… हो सकता है मैं इस के बाद अब उस से मिल न सकूं, क्योंकि लंबी यात्रा के लायक नहीं रहूंगी.’’

अगले दिन दीपक को अस्पताल से छुट्टी मिल गई. वह अपने क्वार्टर में नताशा के साथ था. नताशा को अगले दिन जाना था. दीपक बोला, ‘‘मैं तो एअरफोर्स में हूं, मेरा विदेश जाना संभव नहीं है. तुम्हीं मिलने आ जाया करो. मुझे बहुत अच्छा लगता है तुम से मिल कर.’’

‘‘अच्छा तो मुझे भी लगता है, पर मुझे लगता है तुम्हारी देखभाल करने वाला कोई यहां होना चाहिए. मेरे इंतजार में कहीं तुम्हारे स्वास्थ्य पर बुरा असर न पड़े.’’

‘‘नहीं, ऐसा कुछ नहीं होगा. मैं वेट कर लूंगा.’’

नताशा जा रही थी. दीपक से बिदा लेते समय उस की आंखों से आंसू बह रहे थे. डाक्टर ने दीपक को एअरपोर्ट जाने से मना कर दिया था.

नताशा बोली, ‘‘दस्विदानिया, दोस्त.’’

डा. ईशा नताशा के साथ एअरपोर्ट आई थीं.

नताशा बोली, ‘‘डाक्टर, अब मैं दीपक से मिलने नहीं आ सकती हूं…आप समझ ही रही हैं न… मैं ने दीपक से कुछ नहीं कहा है. पर आप उसे सच बता दीजिएगा.’’

नताशा चली गई. डा. ईशा ने उस की बीमारी के बारे में दीपक को बता दिया. वह बहुत दुखी हुआ. डा. ईशा दीपक से अकसर मिलने आतीं और उसे समझातीं. लगभग 6 महीने बाद नताशा का आखिरी फोन उसे मिला. वह अस्पताल में अंतिम सांसें गिन रही थी.

नताशा ने कहा, ‘‘सौरी दोस्त, मैं अब और तुम्हारा इंतजार नहीं कर सकती हूं. किसी भी पल आखिरी सांस ले सकती हूं. टेक केयर औफ योरसैल्फ. दस्विदानिया, प्राश्चे नवसेदगा (गुड बाय सदा के लिए).’’

करीब आधे घंटे के बाद नताशा की मृत्यु की खबर दीपक को मिली. वह बहुत दुखी हुआ. उस की आंखों से भी लगातार आंसू बह रहे थे. डा. ईशा दीपक को सांत्वना दे रही थी.

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बीमारी के बाद दीपक और ईशा दोनों अकसर मिलने लगे थे. एक दिन दोनों साथ बैठे थे. दीपक थोड़ा सहज हो चला था. वह बोला, ‘‘अकेलापन काटने को दौड़ता है.’’

‘‘आप देश के बहादुर सैनिक हो. अपना मनोबल बनाए रखो. ड्यूटी के बाद कुछ अन्य कार्यों में अपनेआप को व्यस्त रखो.’’

‘‘मैं नताशा को भुला नहीं पा रहा हूं.’’

‘‘यादें इतनी आसानी से नहीं भूलतीं, पर कभीकभी यादों को हाशिए पर रख कर जिंदगी में आगे बढ़ना होता है. मैं भी उसे कहां भूल सकी हूं.’’

‘‘किसे?’’

‘‘फ्लाइंग अफसर राकेश से मेरी शादी तय हुई थी. हम दोनों एकदूसरे को चाहते भी थे, पर एक टैस्ट फ्लाइट के क्रैश होने से वह नहीं रहा.’’

‘‘उफ , सो सौरी.’’

कुछ दिन बाद क्लब में डा. ईशा और दीपक एक सीनियर अफसर स्क्वाड्रन लीडर उमेश के साथ बैठे थे. उमेश ने कहा, ‘‘तुम दोनों की कहानी मिलतीजुलती है. क्यों न तुम दोनों एक हो कर एकदूसरे के सुखदुख में साथ दो.’’

डा. ईशा और दीपक एकदूसरे को देखने लगे. उमेश ने महसूस किया कि दोनों की आंखों से स्वीकृति का भाव साफ छलक रहा है.

राशनकार्ड: निठल्ले गैंग ने नरेश की बेटियों के साथ किया बलात्कार

राशनकार्ड: पार्ट 1

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

‘‘पापा, सब लोग हम को घर में घुस कर देख क्यों रहे हैं? ऐसा लग रहा है, जैसे वे कोई अजूबा देख रहे हों,’’ नरेश की 22 साला बेटी नेहा बेटी ने पूछा.

‘‘वह… दरअसल, आज हम लोग शहर से आने के बाद क्वारंटीन सैंटर में 14 दिन रहने के बाद अपने घर जा रहे हैं न, इसीलिए सब लोग हमें अजीब नजरों से देख रहे हैं,’’ गांव में नरेश ने अपनी बेटी नेहा को बताया.

नरेश पिछले 20 साल से दिल्ली शहर में रह रहा था. अपनी शादी के कुछ दिनों बाद ही वह अपनी पत्नी के साथ शहर चला गया था.

शहर में कोई काम शुरू करने के लिए नरेश के पास रकम तो थी नहीं, बस थोड़ाबहुत पैसा अपने बड़े भाई से मांग कर ले गया था, जो वहां सामान खरीदने में ही खर्च हो गया.

पर नरेश ने हिम्मत नहीं हारी और महल्ले के लोगों की गाडि़यां साफ करने का काम ले लिया. बस एक बालटी, एक पुराना कपड़ा, कार शैंपू और पानी तो कार वालों के यहां मिल ही जाता था.

जैसेजैसे लोगों के पास गाडि़यां  बढ़ीं, वैसेवैसे नरेश का काम भी बढ़ता चला गया और वह ठीकठाक पैसे कमाने लगा.

शहर में ही नरेश की पत्नी ने 2 बेटियों को जन्म दिया और अब तो बड़ी बेटी नेहा 22 साल की हो चली थी और छोटी बेटी 16 साल की.

नेहा के लिए तो लड़के वालों से बातचीत भी हो गई थी और रिश्ता भी पक्का हो गया था, पर इस लौकडाउन ने तो सभी के सपनों पर पानी ही फेर दिया. बहुत सारे मजदूरों को शहर छोड़ने पर मजबूर कर दिया था.

माना कि यह संकट कुछ महीनों में चला जाएगा, पर तब तक नरेश के पास इतनी जमापूंजी तो थी नहीं कि वह हालात सामान्य होने का इंतजार कर ले और वैसे भी बहुत से कार मालिकों ने अब नरेश को काम से हटा दिया था.

इस कोरोना काल में नरेश और उस का परिवार जितना सामान साथ ले सकते थे उतना ले आए और बाकी का सामान उन्हें मजबूरी के चलते शहर में ही छोड़ना पड़ गया था. पर मरता क्या न करता, जान बचाने के आगे भला सामान की चिंता कौन करता.

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गांव में नरेश के बड़े भाई राजू का परिवार था. जब नरेश का परिवार गांव में अपने घर के दरवाजे पर पहुंचा तो सिर्फ राजू ही दरवाजे पर खड़ा था. उस ने उंगली के इशारे से ही नरेश और उस के परिवार को वहीं बाहर वाले कमरे में रुक जाने को कहा. उस कमरे में बरसात के दिनों में जानवरों को बांधा जाता था.

नरेश को पहले तो बहुत बुरा लगा, पर बाद में मन मार कर उस ने उसी कमरे को अपना घर बना लिया.

‘‘मैं ने पहले से ही कुछ दिनों का राशनपानी, एक चूल्हा और ईंधन इसी कमरे में रखवा दिया था, ताकि जब तुम लोग आओ तो दिक्कत का सामना न करना पड़े,’’ राजू ने नरेश से कहा.

‘‘हां भैया, बहुत अच्छा किया आप ने,’’ नरेश ने कहा और मन ही मन सोचने लगा, ‘भैया ने तो पानी भी नहीं पूछा और उलटा हम से अछूतों जैसा बरताव कर रहे हैं.’

नरेश रोज सुबह राजू को बैलों की जोड़ी को हांक कर खेत ले जाते देखता, तो उस का भी मन हो आता कि वह भी इस तरह ही खेती करे.

‘‘हां… तो जाते क्यों नहीं… खेती और मकान में हम लोगों का भी तो हिस्सा होगा न,’’ नरेश की पत्नी संध्या  ने कहा.

‘‘हां… होना तो चाहिए… पर इतने बरसों से इस जमीन की देखभाल भैया ही कर रहे हैं, इसलिए पूछने की हिम्मत नहीं हो रही है,’’ नरेश ने संध्या से कहा.

‘‘पर नहीं पूछोगे, तो यहां गांव में क्या करोगे… किस के सहारे 2 बेटियों को ब्याहोगे… और खुद भी क्या  खाओगे भला,’’ संध्या ने नरेश को समझाते हुए कहा.

जब नरेश को उस कमरे में रहते हुए 15 दिन हो गए, तो एक दिन जब राजू खेत की ओर जा रहा, तो नरेश भी वहां पहुंच गया और बोला. ‘‘भैया वहां गांव के बाहर भी हम सैंटर में 14 दिन रुके थे और अब अपने घर के बाहर भी हम 15 दिन तक पड़े रहे हैं… तो क्या अब हम घर के अंदर आ जाएं?’’

‘‘हां… कोई जरूरत हो तो आ जाना. वैसे, उस कमरे में भी कोई दिक्कत तो होगी नहीं तुम को…’’ राजू ने पूछा.

‘‘नहीं भैया… दिक्कत तो कोई नहीं है… साथ ही, मैं यह बात जानना चाह रहा था कि खेती में हमारा भी तो हिस्सा होगा, तो वह भी बता दीजिए, तो हम

भी अपना धंधापानी शुरू कर दें,’’ नरेश ने कहा.

इतना सुनते ही राजू के तेवर बदल गए. वह घर के अंदर गया. थोड़ी ही देर में वापस आ गया और एक कागज नरेश को दिखाते हुए बोला, ‘‘लो… पहचानो इस कागज को… शहर जाते समय जब तुम्हें पैसे की जरूरत थी, तब तुम्हीं ने तो अपने हिस्से का मकान और खेत सब मेरे नाम कर दिया था. देखो, तुम्हारा ही तो अंगूठा लगा है न?’’

यह सुन कर सन्न रह गया था नरेश… उसे आज भी अच्छी तरह याद था कि शहर जाने के लिए जब उसे कुछ पैसे की जरूरत थी, तब उस ने अपने बड़े भाई से पैसे मांगे थे. तब राजू ने यह कह कर उसे पैसे दिए थे कि वह ये पैसे गांव के चौधरी से ले कर आया है और उसे इस पैसे पर एक निश्चित ब्याज हर महीने देना होगा. इसी बात के इकरारनामे पर अंगूठा लगाया था नरेश ने… अपने ही सगे भाई ने लूट लिया था उसे.

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‘‘अरे, यह तो मैं बड़ा भाई होने का फर्ज निभा रहा हूं जो तुम्हें घर में आने भी दिया है, वरना तो तुम लोग बीमारी फैलाने वाले बम से कम नहीं हो इस समय. देख लो गांव में जा कर, कोई पास भी खड़ा हो जाए तो नाम बदल देना मेरा,’’ राजू बोला.

नरेश चुपचाप वहां से लौट गया. नरेश के पास राशन अब खत्म होने को आया था. पत्नी के साथ बातचीत के बाद उस ने सोचा कि क्यों न गांव में बनी दुकान से कुछ राशन उधार ले आऊं, बाद में कुछ काम जम जाएगा, तो लाला का उधार चुकता कर देगा.

‘‘लालाजी, कुछ राशन चाहिए… पर पैसा अभी नहीं दे पाऊंगा… कुछ दिनों बाद काम जमते ही मैं आप को पूरे पैसे दे दूंगा,’’ नरेश ने लाला के पास जा

कर कहा.

‘‘अरे भैया… खुद हमारे पास ही सामान ज्यादा नहीं बचा है और पीछे से भी आवक बंद है. ऐसे में अगर तुम उधार की बात करोगे, तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी… उधार तो नहीं दे पाऊंगा अब. जब तुम्हारे पास पैसे हों… तब गल्ला ले जाना आ कर,’’ लाला की बात सुन कर अपना सा मुंह ले कर रह गया था नरेश.

नरेश अब उलझन में पड़ गया  था. बच्चों का पेट तो भरना ही होगा,  पर कैसे?

राशनकार्ड: पार्ट 2

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

अब नरेश के पास आखिरी चारा था कि कुछ सामान गिरवी रख दिया जाए, जिस के बदले में जो पैसे मिलें उस से राशन खरीद लिया जाए.

जब नरेश ने यह बात संध्या को बताई, तो वह अपने कान की बालियां ले आई और बोली, ‘‘आप इन्हीं को गिरवी रख दीजिए और जो पैसे मिलें उस से सामान खरीद लाइए.’’

कोई चारा न देख नरेश बालियां ले कर गांव के एक पैसे वाले आदमी के पास पहुंचा, जो गांठगिरवी का काम करता था.

‘‘अरे भैया… ये सारे काम तो हम ने बहुत पहले से ही बंद कर रखे हैं. और अब तो सरकार का भी इतना दबाव है, फिर तुम तो शहर से आए हो… तुम्हारे पास से ली हुई किसी भी चीज से बीमारी लगने का ज्यादा खतरा है…

‘‘भाई, तुम से तो हम चाह कर भी कुछ नहीं ले सकते… हमें माफ करना भाई… हम तुम्हारी कोई मदद नहीं कर पाएंगे,’’ उस आदमी के दोटूक शब्द थे.

इधर नरेश गल्ला और पैसे के लिए परेशान हो रहा था, तो उधर उस की पत्नी संध्या और बेटियां एक दूसरी ही तरह की समस्या से जूझ रही थीं.

दरअसल, गांव की लड़कियों के पहनावे और शहर की लड़कियों के पहनावे में बहुत फर्क होता है. शहरों में किसी भी तबके की लड़की के लिए लोअर, टीशर्ट और जींस पहनना आम बात है, पर गांवों में अभी भी लड़कियां सलवारसूट पहनती हैं और ऊपर से दुपट्टा भी डालती हैं. यही फर्क नरेश की बेटियों के लिए परेशानी का सबब बन रहा था. गांव के लड़के तो लड़के, बड़ी उम्र के लोग भी उन्हें अजीब ललचाई नजरों से देखते थे.

एक दिन की बात है. गांव के नजदीक बहने वाली नदी के पानी में एक निठल्ले गैंग के 5 लड़के पैर डाल कर बैठे हुए थे.

‘‘यार, वह जो परिवार दिल्ली से आया है, उस में माल बहुत मस्त है…’’ पहले लड़के ने कहा.

‘‘लड़कियां तो लड़कियां… उन की मां भी बहुत मस्त है,’’ दूसरा लड़का बोला.

‘‘अरे यार, उन लड़कियों से दोस्ती करवा दो मेरी… मैं हमेशा से ही जींस वाली लड़कियों से दोस्ती करना चाहता था…’’ तीसरा लड़का बोला.

‘‘ठीक है भाई… तू उन लड़कियों  से दोस्ती करना और हम लोग… तो करेंगे प्रोग्राम…’’

‘‘नहींनहीं… भाई ऐसी बात भी मन में मत लाना… वे लोग शहर से आए हैं और अगर उन लड़कियों के साथ प्रोग्राम किया, तो हम लोगों को भी कोरोना हो जाएगा,’’ थोड़ी समझदारी दिखाते हुए एक लड़का बोला, जो मोबाइल और इंटरनैट की कुछ जानकारी रखता था.

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‘‘वह तो सब हो जाएगा… सरकार का कहना है कि अगर हम रबड़ के दस्ताने इस्तेमाल करेंगे, तो इंफैक्शन  का खतरा नहीं होगा,’’ पहले वाले ने ज्ञान बघारा.

‘‘अबे तो फिर क्या तू पूरे शरीर में रबड़ पहनेगा?’’ ठहाका मारते हुए एक लड़का बोला.

उस के बाद सब आपस में प्लान बनाने में बिजी हो गए.

नरेश अपनी उधेड़बुन में परेशान चला आ रहा था… उस की समझ में नहीं आ रहा था कि अब शहर से गांव आ कर कैसे गुजारा करेगा, शहर में होता तो कुछ भी काम कर लेता, पर यहां गांव में न तो काम है और न ही कोई किसी भी तरह से मदद करने को तैयार है.

‘‘चाचाजी, नमस्ते.’’

नरेश ने आवाज की दिशा में सिर घुमाया, तो सामने निठल्ले गैंग का हैड खड़ा था.

नरेश जब से गांव में आया था, तब से सब लोगों की अनदेखी ही झेल रहा था, ऐसे में अपने लिए चाचाजी के संबोधन ने उसे बड़ा अच्छा महसूस कराया.

नरेश के होंठों पर एक मुसकराहट दौड़ गई, ‘‘भैया नमस्ते.’’

‘‘अरे चाचा… क्यों परेशान दिख  रहे हैं… कोई समस्या है क्या?’’ वह लड़का बोला.

‘‘भैया… अब क्या बताऊं… वहां की सारी समस्याएं झेल कर परिवार के साथ अपने गांव में पहुंचा हूं, पर यहां भी राशन खत्म हो गया है. न ही कोई पैसे उधार दे रहा है और न ही कोई गल्ला देने को तैयार है,’’ नरेश ने अपनी लाचारी दिखाते हुए कहा.

‘‘अरे तो इस में क्या दिक्कत है चाचा… सरकार की तरफ से सब लोगों को मुफ्त राशन दिया तो जा रहा है,’’ वह लड़का बोला.

‘‘पर भैया… उस के लिए तो राशनकार्ड होना चाहिए… और हमारे पास राशनकार्ड तो है नहीं,’’ नरेश  ने कहा.

‘‘अरे चाचा तो इस में कौन सी बड़ी बात है… रोज दोपहर यहां स्कूल में राशनकार्ड वाले बाबूजी बैठते हैं, जो गांव आए हुए लोगों का राशनकार्ड बनाते हैं… बस, आप को इतना करना है कि पूरे परिवार समेत कल दोपहर स्कूल पर पहुंच जाना. मेरी बाबूजी से अच्छी पहचान है… मैं उन से कह कर आप का कार्ड बनवा दूंगा, और फिर जितना चाहो उतना राशन भी दिलवा दूंगा आप को,’’ निठल्ले गैंग के हैड ने कहा.

अचानक से अपनी समस्याओं का अंत होते देख कर नरेश बहुत खुश हो गया और घर आ कर कल दोपहर होने का इंतजार करने लगा. वह सोचने लगा, ‘एक बार पेट भरने की समस्या का अंत हो जाए, फिर यही गांव के बाजार में कुछ कामधंधा जमाऊंगा. कुछ पैसा बैंक से लोन ले कर, शहर से सामान ले कर बाजार में बेचा करूंगा और फिर भैया का यह कमरा भी छोड़ दूंगा. फिर आराम से अपनी बेटियों का ब्याह करूंगा,’ बस इसी तरह के भविष्य के सपनों में नरेश की आंख लग गई.

अगले दिन 12 बजने से पहले ही नरेश अपनी दोनों बेटियों और पत्नी  को ले कर स्कूल में बाबू से मिलने चलने लगा.

अचानक से रास्ते में निठल्ले गैंग का हैड नरेश के सामने आ गया और नरेश की पत्नी और लड़कियों को घूरते हुए बोला, ‘‘अरे चाचा, वे राशनकार्ड वाले बाबूजी कह रहे थे कि आप सब लोगों का एक पहचानपत्र भी जरूरी है. क्या उस की कौपी लाए हैं आप लोग?’’

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‘‘नहीं भैया… आप ने तो कल ऐसा कुछ बताया ही नहीं था…’’ अपनी नासमझी पर परेशान हो उठा था नरेश.

राशनकार्ड: पार्ट 3

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

‘‘अरे चाचा… आप परेशान हो रहे हो… वे देखो सामने मेरी झोंपड़ी है. उस में इन बच्चों को आराम से बिठा देते हैं. और हम और आप चल कर पहचानपत्र ले आते हैं,’’ लड़के ने कहा.

‘‘हां, ठीक?है… ऐसा है संध्या… जब तक हम लोग अपना पहचानपत्र नहीं ले कर आते, तुम वहीं झोंपड़ी में बैठ जाओ,’’ नरेश ने अपनी पत्नी से कहा.

नरेश उस लड़के के साथ वापस हो लिया, जबकि उस की पत्नी संध्या अपनी दोनों बेटियों के साथ झोंपड़ी में चारपाई पर जा बैठीं.

रास्ते में जब नरेश उस लड़के के साथ आ रहा था, तब एक जगह वह लड़का रुका और बोला, ‘‘चाचा, बड़ी गरमी है. सामने ही मेरे दोस्त का घर है. पहले एक गिलास पानी पी लें, फिर चलते हैं.’’

दोनों के सामने बिसकुट और शरबत आया. शरबत पीते ही नरेश का अपने शरीर पर कोई जोर नहीं रहा और उसे बेहोशी आने लगी. वह वहीं गिर गया.

उधर जिस झोंपड़ी में नरेश अपने परिवार को छोड़ कर आया था, वहां पर 3-4 लड़के एकसाथ आ गए.

‘‘वाह भाई… आज तो हम शहरी माल के साथ सटासट करेंगे… चलो पहले कौन है लाइन में,’’ बेशर्मी से निठल्ले गैंग का एक लड़का बोल रहा था.

संध्या को उन लड़कों की नीयत पर शक हो गया और वह बचाव का रास्ता खोजने लगी.

अचानक एक लड़के ने संध्या के सीने को हाथों से भींच लिया, जिसे देख कर दूसरा लड़का हंसने लगा.

‘‘अरे, जब बछिया पास में हो तो… गाय को काहे को परेशान करना…’’

‘‘अरे, तुझे बछिया के साथ मजे लेने हैं, तो उस के साथ ले… मुझे तो यह गाय ही पसंद आ गई है.’’

दूसरे लड़के ने संध्या को चारपाई पर बांध दिया और इसी तरह जबरदस्ती  उस की दोनों बेटियों के भी हाथमुंह बांध दिए गए.

पूरा निठल्ला गैंग इस परिवार पर टूट पड़ा और लड़के बलात्कार करने में जुट गए, इतने में वहां गैंग का हैड भी आ गया.

‘‘अरे, अकेले ही सब माल मत खा जाना… मेरे लिए भी छोड़ देना.’’

‘‘अरे, लो यार… आज तो 3-3 हैं. जिस के साथ चाहो, उस के साथ  मजे करो.’’

और उस निठल्ले गैंग के पांचों लड़कों ने बारीबारी से और बारबार संध्या और उस की बेटियों का बलात्कार किया और इतना ही नहीं, बल्कि जो लड़का इंटरनैट की जानकारी रखता था, उस ने अपने मोबाइल से अश्लील वीडियो भी शूट किया और जी भर जाने के बाद वहां से भाग गए.

कुछ ही देर में संध्या का सबकुछ लुट चुका था. आज उस के ही सामने उस की बेटियों और उस का बलात्कार हो गया. उसे और कुछ समझ नहीं आ रहा था. वह पागल सी हो रही थी. अचानक उस ने अपनी दोनों बेटियों को साथ लिया और गांव के नजदीक बहने वाली नदी में छलांग लगा दी.

इधर जब नरेश होश में आया, तो दौड़ कर उस झोंपड़ी में पहुंचा. पर, वहां के हालात तो कुछ और ही बयान कर रहे थे. अब भी उस की कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि अचानक उस का परिवार कहां चला गया.

तभी नरेश की नजर अंदर बैठे हुए निठल्ले गैंग के लड़कों पर पड़ी, जिन पर मस्ती का नशा अब भी चढ़ा हुआ था. वह उन की ओर लपका.

‘‘ऐ भैया… हम अपनी पत्नी और बेटियों को यहीं छोड़ कर गए थे… अब कहां हैं वे सब… कुछ समझ नहीं आ रहा है हम को.’’

‘‘ओह… तो तू होश में आ गया… ले यह मोबाइल में देख ले और समझ ले कि तेरे बच्चे कहां हैं,’’ उस मोबाइल वाले लड़के ने मोबाइल पर बलात्कार का वीडियो नरेश की आंखों के सामने कर दिया.

अपनी बेटियों और पत्नी का एकसाथ बलात्कार होते देख नरेश का खून खौल गया. उस ने कोने में रखी लाठी उठाई और उन लड़कों पर हमला कर दिया. एक तो नरेश पर नशे का असर अब भी था, ऊपर से वे जवान  5 लड़के.

उन लड़कों ने नरेश के हाथों से लाठी छीन ली और तब तक मारा जब तक वह मर नहीं गया.

इस कोरोना संकट और गांव पलायन ने नरेश की मेहनत से बनाए हुए सपनों के छोटेमोटे घोंसले को बरबाद कर दिया था.

नरेश और उस का पूरा परिवार अब खत्म हो चुका था. अब उसे न तो घर की जरूरत थी, न पैसे की, न नौकरी की, न ही राशन की और न ही राशनकार्ड की…

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