शायद उस का स्वभाव ही ऐसा था कि वह जल्दी किसी से घुलतामिलता नहीं था. मुझ से दोस्ती होना या तो इत्तिफाक था या सिर्फ मेरी जरूरत. इत्तिफाक इसलिए कि उस का दाखिला मेरे ही स्कूल में करवा दिया गया था और मुझे जिम्मेदारी दी गई उसे साथ में स्कूल ले जाने और लाने की. शहर में नया होने की वजह से खो जाने का डर था और जरूरत इसलिए कि मेरा उस के घर आनाजाना था. उस के भैया से मैं गणित के सवाल हल करवाने जाता था. उस के भैया और मेरे भैया दोस्त थे और साथ में ही पढ़ते थे. उसी स्कूल में, जिस में हम दोनों पढ़ रहे थे.
मेरे भैया पढ़ाई की वजह से इस शहर से दूसरे शहर चले गए और उस के भैया तो गांव से शहर आए थे, फिर वे और कौन से शहर जाते, इसलिए वे इसी शहर में पढ़ाई के साथसाथ अपनी दुकान भी संभालने लगे थे. मेरे भैया के दूसरे शहर चले जाने के बाद मेरे अब्बू ने मुझे सख्त हिदायत दी थी उस के यहां न जाने की, पर गणित की वजह से मुझे वहां जाने का बहाना मिल ही जाया करता था. मैं उस से बातें करना चाहता था. मैं ने कभी गांव नहीं देखा था, इसलिए मैं उस की नजरों से गांव घूमना चाहता था, गांव के दोस्तों के बारे में जानना चाहता था, पर वह कभी मुझ से खुल कर बात ही नहीं करता था. मेरे अब्बू को उस के घर का माहौल बिलकुल पसंद नहीं था. उस के यहां तकरीबन 20 लोग हमेशा ऐसे रहते थे, जैसे कारखानों में रहते हैं. उसी तरह खानाबदोश जिंदगी.
10-15 लोग तो बीड़ी के कारीगर हुआ करते थे, जो उस की दुकान के लिए बीड़ी बनाया करते थे. वहां दिनभर गानाबजाना चलता था, उलटीसीधी बातें होती रहती थीं, कोई बीड़ी पी रहा होता था, तो कोई खैनी खा रहा होता था. इन्हीं सब वजहों से मेरे अब्बू खफा होते थे. उन्हें लगता था कि मेरी आदत भी खराब हो जाएगी. हालांकि मेरे अब्बू खुद सिगरेट पीते थे, जो कि उसी की दुकान से आती थी. महल्ले में सिर्फ उस के घर में ही चापाकल था. अगर कभी किसी दिन नगरनिगम की सप्लाई वाला पानी नहीं आता था, तो लोग उस के ही घर से पानी लाते थे. वह मुझे अब भी इसलिए याद है, क्योंकि हम दोनों की जिंदगी एकजैसी थी. मेरे अब्बू मुझे महल्ले वाले बच्चों से अलग रखना चाहते थे, क्योंकि उन की नजर में महल्ले में कोई भी हम लोगों के लायक नहीं था. सब अनपढ़, जाहिल या कम पढ़ेलिखे थे और उस की जिंदगी ऐसी हो गई थी कि महल्ले के बच्चे उस से दोस्ती नहीं करना चाहते थे, क्योंकि वह बीड़ी वाले का लड़का और देहाती था. जब भी हम स्कूल के लिए निकलते,
तो उस के साथ स्कूल बैग के अलावा दुकान पर देने के लिए बीड़ी या राशन लाने के लिए थैला जरूर रहता था, क्योंकि रास्ते में ही उस की दुकान पड़ती थी. हम लोग बीड़ी देते हुए स्कूल चले जाते थे. इसी बहाने उस के साथसाथ मुझे भी कुछ चौकलेट मिल जाती थीं. रास्तेभर वह कोई न कोई कविता गुनगुनाता रहता था. उस के इतने काम करने और कविता गुनगुनाने की वजह से मैं ने उस का नाम ‘कामधारी सिंह दिनकर’ रख दिया था. समय के साथ हमारी 10वीं जमात हो गई और फिर वहां से आगे का सफर. जैसे वह गांव से पढ़ने शहर आया था, वैसे ही मुझे आगे की अच्छी पढ़ाई करने के लिए इस शहर से किसी बड़े शहर या तो मेरे भैया के पास या फिर कहीं और, पर जाना तो तय था. 10वीं जमात के आखिरी इम्तिहान के बाद वह बहुत खुश था. जिस गांव से वह खुशीखुशी शहर आया था, इम्तिहान के बाद वह उसी शहर से अपने गांव रौकेट की रफ्तार से लौट जाना चाहता था.
जब तक इम्तिहान के नतीजे नहीं आ जाते, तब तक वह वहीं रहेगा या किसी बहाने से आएगा ही नहीं. मैं ने पूछा भी था, ‘‘क्यों…?’’ उस ने हमेशा की तरह छोटा सा जवाब दिया था, ‘‘ऐसे ही?’’ उस के 2 लफ्ज ‘ऐसे ही’ बोलने के अंदाज में लाखों राज छिपे थे. नतीजे आ गए, पर वह नहीं आया और मुझे मेरे भैया के पास भेजने की तैयारी जोरों पर थी. जाने से पहले मैं उस से एक बार मिलना चाहता था, जो बिलकुल भी मुमकिन नहीं था. यह उस जमाने की बात है, जब मोबाइल फोन या इंटरनैट नहीं हुआ करते थे. तब लोगों से जुड़ाव कायम करने का एक ही जरीया था खत. मैं ने उस के भैया से पूछा था, ‘‘कब आएगा वह?’’ जवाब में उन्होंने न जाने कितनी लानतें भेजी थीं उस पर… ‘बेवकूफ’, ‘बदकिस्मत’ और न जाने क्याक्या कहा था उसे. वे अपनी मिसाल देने लगे थे कि वे तो आगे पढ़ना चाहते थे, पर अब्बा की ख्वाहिश की वजह से दुकान को संभालना पड़ा और एक वह है, जिसे सब यहां शहर में पढ़ाना चाहते हैं, पर उसे गांव में ही रह कर पढ़ना है. उस के भैया के जवाब के बाद मैं ‘बदकिस्मत’ की परिभाषा ढूंढ़ने लगा कि आखिर ‘बदकिस्मत’ कहते किस को हैं? मेरा मानना था कि अगर किसी की कोई दिली तमन्ना, ख्वाहिश पूरी न हो, तो वह ‘बदकिस्मत’ हुआ,
पर उस की दिली ख्वाहिश जो कि यह थी कि वह वापस शहर नहीं आएगा, पूरी हो गई थी. मेरी नजर में तो वह ‘खुशकिस्मत’ था. इस की एक वजह यह भी थी कि उस ने 10वीं जमात में ही खुद से एक फैसला लिया था और चाहे वजहें जो भी हों, सब ने वह फैसला मान भी लिया. फिर मैं खुद की किस्मत को कोसने लगा… शायद ‘बदकिस्मत’ तो मैं था. मैं भी दूसरे शहर जा कर पढ़ाई नहीं करना चाहता था, पर यह बात मैं अपने घर में फुसफुसाहट में भी नहीं कह सकता था, क्योंकि अब्बू तक यह खबर पहुंच गई, तो वे मेरा कीमा बना देते. यहीं पर मुझे लगा कि हम दोनों की जिंदगी एक सी नहीं है, क्योंकि मैं खुद से फैसला नहीं ले सकता था. वह शहर क्यों नहीं आना चाहता था? यह सिर्फ मैं जानता था. वह भी उस ने इम्तिहान के आखिरी दिन एक शर्त पर बताया था कि मैं किसी को नहीं बताऊं. उस दिन उस ने दिल खोल कर मुझ से बातें की थीं. घर वालों के फैसले पर जब वह शहर पढ़ने आया था, तो उस की खुद की एक खामोश वजह थी और वह वजह थी बिजली और टैलीविजन.
यहां शहर की रात की बिजली की चकाचौंध उसे बहुत भाती थी और किसी न किसी के घर में टैलीविजन देखने को तो मिल ही जाता था, जहां वह फिल्में और ‘शक्तिमान’ देख पाता था. गांव की लालटेन की धीमी रोशनी कुछ हद तक ही रोशन कर पाती थी. उस हद के बाद आसपास अंधेरा ही रहता था और अंधेरे उसे बहुत डराते थे. रात में उसे बाथरूम भी जाना होता था, तो वह अपनी अम्मी को साथ ले कर जाता था. गांव में वह अपनी अम्मी के साथ रात के 2 बजे ही जग जाया करता था, पर सूरज की रोशनी होने तक बिस्तर में ही दुबका रहता था. मैं ने पूछा था, ‘‘2 बजे ही क्यों?’’ वह बताना नहीं चाहता था, पर मेरे जोर देने पर उस ने बड़े फख्र से बताया था,