अस्तित्व- भाग 1: क्या तनु ने प्रणव को अपने अस्तित्व का एहसास करा पाई?

लेखिका- नीलमणि शर्मा

तनु ने हमेशा झूठे अहम में डूबे प्रणव की भावनाओं का सम्मान किया. लेकिन बदले में प्रणव ने उसे दिया कदमकदम पर अपमान का कटु दंश. और एक दिन तो हद ही हो गई, जब प्रणव ने जीवन भर के इस रिश्ते को ताक पर रख दिया. उम्र भर पति के ताने सहन करती आई तनु क्या प्रणव को अपने अस्तित्व का एहसास करा पाई?

कालिज पहुंचते ही तनु ने आज सब से पहले स्टाफ क्वार्टर के लिए आवेदन किया. इतने साल हो गए उसे कालिज में पढ़ाते हुए, चाहती तो कभी का क्वार्टर ले सकती थी पर इतना बड़ा बंगला छोड़ कर यों स्टाफ क्वार्टर में रहने की उस ने कभी कल्पना भी नहीं की थी. फिर प्रणव को भी तनु के घर आ कर रहना पसंद नहीं था. उन का अभिमान आहत होता था. उन्हें लगता कि वहां वह  ‘मिस्टर तनुश्री राय’ बन कर ही रह जाएंगे. और यह बात उन्हें कतई मंजूर न थी.

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आज सुबह ही प्रणव ने उसे अपने घर से निकल जाने को कह दिया जबकि तनु को इस घर में 30 साल गुजर चुके हैं. कहने को तो प्रणव ने उसे सबकुछ दिया है, बढि़या सा घर, 2 बच्चे, जमाने की हर सुखसुविधा…लेकिन नहीं दिया तो बस, आत्मसम्मान से जीने का हक. हर अच्छी बात का श्रेय खुद लेना, तनु के हर काम में मीनमेख निकालना और बातबात पर उस को  ‘मिडिल क्लास मानसिकता’ का ताना देना, यही तो किया है प्रणव ने शुरू से अब तक. पलंग पर लेटेलेटे तनु अपने ही जीवन से जुड़ी घटनाओं का तानाबाना बुनने लगी.

इतने वर्षों से तनु को लगने लगा था कि उसे यह सब सहने की आदत सी हो गई है पर आज सुबह उस का धैर्य जवाब दे गया. जैसेजैसे उम्र बढ़ रही थी प्रणव का कहनासुनना बढ़ता जा रहा था और तनु की सहनशीलता खत्म होती जा रही थी.

तनु जानती है कि अमेरिका में रह रहे बेटे के विवाह कर लेने की खबर प्रणव बरदाश्त नहीं कर पा रहे हैं, बल्कि उन के अहम को चोट पहुंची है. अब तक हर बात का फैसला लेने का एकाधिकार उस से छिन जो गया था. प्रणव की नजरों में इस के  लिए तनु ही दोषी है. बच्चों को अच्छे संस्कार जो नहीं दे पाई है…यही तो कहते हैं प्रणव बच्चों की हर गलती या जिद पर.

जबकि वह अच्छी तरह जानते हैं कि बच्चों के बारे में किसी भी तरह का निर्णय लेने का कोई अधिकार उन्होंने तनु को नहीं दिया. यहां तक कि उस के गर्भ के दौरान किस डाक्टर से चैकअप कराना है, क्या खाना है, कितना खाना है आदि बातों में भी अपनी ही मर्जी चलाता. शुरू में तो तनु को यह बात अच्छी लगी थी कि कितना केयरिंग हसबैंड मिला है लेकिन धीरेधीरे पता चला यह केयर नहीं, अपितु स्टेटस का सवाल था.

कितना चाहा था तनु ने कि बेटी कला के क्षेत्र में नाम कमाए पर उसे डाक्टर बनाना पड़ा, क्योंकि प्रणव यही चाहते थे. बेटे को आई.ए.एस. बनाने की चाह भी तनु के मन में धरी की धरी रह गई और वह प्रणव के आदेशानुसार वैज्ञानिक ही बना, जो आजकल नासा में कार्यरत है.

ऐसा नहीं कि बच्चों की सफलता से तनु खुश नहीं है या बच्चे अपने प्राप्यों से संतुष्ट नहीं हैं लेकिन यह भी सत्य है कि प्रणव इस सब से इसलिए संतुष्ट हैं कि बच्चों को इन क्षेत्रों में भेजने से वह और तनु आज सोसाइटी में सब से अलग नजर आ रहे हैं.

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पूरी जिंदगी सबकुछ अपनी इच्छा और पसंद को ही सर्वश्रेष्ठ मानने की आदत होने के कारण बेटे की शादी प्रणव को अपनी हार प्रतीत हो रही है. यही हार गुस्से के रूप में पिछले एक सप्ताह से किसी न किसी कारण तनु पर निकल रही है. प्रणव को वैसे भी गुस्सा करने का कोई न कोई कारण सदा से मिलता ही रहा है.

प्रणव यह क्यों नहीं समझते कि बेटे के इस तरह विवाह कर लेने से तनु को भी तो दुख हुआ होगा. पर उन्हें उस की खुशी या दुख से कब सरोकार रहा है. जब बेटे का फोन आया था तो तनु ने कहा भी था,  ‘खुशी है कि तुम्हारी शादी होगी, लेकिन तुम अगर हमें अपनी पसंद बताते तो हम यहीं बुला कर तुम्हारी शादी करवा देते. सभी लोगों को दावत देते…वहां बहू को कैसा लगेगा, जब घर पर नई बहू का स्वागत करने वाला कोई भी नहीं होगा.’

‘क्या मौम आप भी, कोई कैसे नहीं होगा, दीदी और जीजाजी आ रहे हैं न. आप को तो पता है कि अपनी पसंद बताने पर पापा कभी नहीं होने देते यह शादी. दीदी की बार का याद नहीं है आप को. डा. सोमेश को तो दीदी ने उस तरह पसंद भी नहीं किया था. बस, पापा ने उन्हें रेस्तरां में साथ बैठे ही तो देखा था. घर में कितने दिनों तक हंगामा रहा था. दीदी ने कितना कहा था कि डा. सोमेश केवल उन के कुलीग हैं पर कभी पापा ने सुनी? उन्होंने आननफानन में कैसे अपने दोस्त के डा. बेटे के साथ शादी करवा दी. यह ठीक है कि  जीजाजी भी एकदम परफेक्ट हैं.

‘सौरी मौम, मेरी शादी के कारण आप को पापा के गुस्से का सामना करना पडे़गा. रीयली मौम, आज मैं महसूस करता हूं कि आप कैसे उन के साथ इतने वर्षों से निभा रही हैं. यू आर ग्रेट मौम…आई सेल्यूट यू…ओ.के., फोन रखता हूं. शादी की फोटो ईमेल कर दूंगा.’

तनु बेटे की इन बातों से सोच में पड़ गई. सच ही तो कहा था उस ने. लेकिन वह गुस्सा एक बार में खत्म नहीं हुआ था. पिछले एक सप्ताह से रोज ही उसे इस स्थिति से दोचार होना पड़ रहा है. सुबह यही तो हुआ था जब प्रणव ने पूछा था, ‘सुना, कल तुम निमिषा के यहां गई थीं.’

‘हां.’

‘मुझे बताया क्यों नहीं.’

‘कल रात आप बहुत लेट आए तो ध्यान नहीं रहा.’

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‘‘ध्यान नहीं रहा’ का क्या मतलब है, फोन कर के बता सकती थीं. कोई काम था वहां?’

‘निमिषा बहुत दिनों से बुला रही थी. कालिज में कल शाम की क्लास थी नहीं, सोचा उस से मिलती चलूं.’

‘तुम्हें मौका मिल गया न मुझे नीचा दिखाने का. तुम्हें शर्म नहीं आई कि बेटे ने ऐसी करतूत की और तुम रिश्तेदारी निभाती फिर रही हो.’

‘निमिषा आप की बहन होने के साथसाथ कालिज के जमाने की मेरी सहेली भी है…और रही बात बेटे की, तो उस ने शादी ही तो की है, गुनाह तो नहीं.’

‘पता है मुझे, तुम्हारी ही शह से बिगड़ा है वह. जब मां बिना पूछे काम करती है तो बेटे को कैसे रोक सकती है. भूल जाती हो तुम कि अभी मैं जिंदा हूं, इस- घर का मालिक हूं.’

‘मैं ने क्या काम किया है आप से बिना पूछे. इस घर में कोई सांस तो ले नहीं सकता बिना आप की अनुमति के…हवा भी आप से इजाजत ले कर यहां प्रवेश करती है…जिंदगी की छोटीछोटी खुशियों को भी जीने नहीं दिया…यह तो मैं ही हूं कि जो यह सब सहन करती रही….’

‘क्या सहन कर रही हो तुम, जरा मैं भी तो सुनूं. ऐसा स्टेटस, ऐसी शान, सोसाइटी में एक पहचान है तुम्हारी…और कौन सी खुशियां चाहिए?’

अस्तित्व: क्या तनु ने प्रणव को अपने अस्तित्व का एहसास करा पाई?

क्षमादान: आखिर मां क्षितिज की पत्नी से क्यों माफी मांगी?

क्षमादान- भाग 1: आखिर मां क्षितिज की पत्नी से क्यों माफी मांगी?

टैक्सी से उतरते हुए प्राची के दिल की धड़कन तेज हो गई थी. पहली बार अपने ही घर के दरवाजे पर उस के पैर ठिठक गए थे. वह जड़वत खड़ी रह गई थी.

‘‘क्या हुआ?’’ क्षितिज ने उस के चेहरे पर अपनी गहरी दृष्टि डाली थी.

‘‘डर लग रहा है. चलो, लौट चलते हैं. मां को फोन पर खबर कर देंगे. जब उन का गुस्सा शांत हो जाएगा तब आ कर मिल लेंगे,’’ प्राची ने मुड़ने का उपक्रम किया था.

‘‘यह क्या कर रही हो. ऐसा करने से तो मां और भी नाराज होंगी…और अपने पापा की सोचो, उन पर क्या बीतेगी,’’ क्षितिज ने प्राची को आगे बढ़ने के लिए कहा था.

प्राची ने खुद को इतना असहाय कभी महसूस नहीं किया था. उस ने क्षितिज की बात मानी ही क्यों. आधा जीवन तो कट ही गया था, शेष भी इसी तरह बीत जाता. अनवरत विचार शृंखला के बीच अनजाने में ही उस का हाथ कालबेल की ओर बढ़ गया था. घर के अंदर से दरवाजे तक आने वाली मां की पदचाप को वह बखूबी पहचानती थी. दरवाजा खुलते ही वह और क्षितिज मां के कदमों में झुक गए. पर मीरा देवी चौंक कर पीछे हट गईं.

‘‘यह क्या है, प्राची?’’ उन्होंने एक के बाद एक कर प्राची के जरीदार सूट, गले में पड़ी फूलमाला और मांग में लगे सिंदूर पर निगाह डाली थी.

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‘‘मां, मैं ने क्षितिज से विवाह कर लिया है,’’ प्राची ने क्षितिज की ओर संकेत किया था.

‘‘मैं ने मना किया था न, पर जब तुम ने मेरी इच्छा के विरुद्ध विवाह कर ही लिया है तो यहां क्या लेने आई हो?’’ मीरा देवी फुफकार उठी थीं.

‘‘क्या कह रही हो, मां. वीणा, निधि और राजा ने भी तो अपनी इच्छा से विवाह किया था.’’

‘‘हां, पर तुम्हारी तरह विवाह कर के आशीर्वाद लेने द्वार पर नहीं आ खड़े हुए थे.’’

‘‘मां, प्रयत्न तो मैं ने भी किया था, पर आप ने मेरी एक नहीं सुनी.’’

‘‘इसीलिए तुम ने अपनी मनमानी कर ली? विवाह ही करना था तो मुझ से कहतीं, अपनी जाति में क्या लड़कों की कमी थी. अरे, इस ने तो तुम से तुम्हारे मोटे वेतन के लिए विवाह किया है. मैं तुम्हें श्राप देती हूं कि तुम ने मां का दिल दुखाया है, तुम कभी चैन से नहीं रहोगी,’’ और इस के बाद वह ऐसे बिलखने लगीं जैसे घर में किसी की मृत्यु हो गई हो.

‘‘मां,’’ बस, इतना बोल कर प्राची अविश्वास से उन की ओर ताकती रह गई. मां के प्रति उस के मन में बड़ा आदर था. अपना वैवाहिक जीवन वह उन के श्राप के साथ शुरू करेगी, ऐसा तो उस ने सपने में भी नहीं सोचा था. अनजाने ही आंखों से अश्रुधारा बह चली थी.

‘‘ठीक है मां, एक बार पापा से मिल लें, फिर चले जाएंगे,’’ प्राची ने कदम आगे बढ़ाया ही था कि मीरा देवी फिर भड़क उठीं.

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‘‘कोई जरूरत नहीं है यह दिखावा करने की. विवाह करते समय नहीं सोचा अपने अपाहिज पिता के बारे में, तो अब यह सब रहने ही दो. मैं उन की देखभाल करने में पूर्णतया सक्षम हूं. मुझे किसी की दया नहीं चाहिए,’’ मीरा देवी ने प्राची का रास्ता रोक दिया.

‘‘कौन है. मीरा?’’ अंदर से नीरज बाबू का स्वर उभरा था.

‘‘मैं उन्हें समझा दूंगी कि उन की प्यारी बेटी प्राची अपनी इच्छा से विवाह कर के घर छोड़ कर चली गई,’’ वह क्षितिज को लक्ष्य कर के कुछ बोलना ही नहीं चाहती थीं मानो वह वहां हो ही नहीं.

‘‘चलो, चलें,’’ आखिर मौन क्षितिज ने ही तोड़ा. वह सहारा दे कर प्राची को टैक्सी तक ले गया और प्राची टैक्सी में बैठी देर तक सुबकती रही. क्षितिज लगातार उसे चुप कराने की कोशिश करता रहा.

‘‘देखा तुम ने, क्षितिज, पापा को पक्षाघात होने पर मैं ने पढ़ाई छोड़ कर नौकरी की. आगे की पढ़ाई सांध्य विद्यालय में पढ़ कर पूरी की. निधि, राजा, प्रवीण, वीणा की पढ़ाई का भार, पापा के इलाज के साथसाथ घर के अन्य खर्चों को पूरा करने में मैं तो जैसे मशीन बन गई थी. मैं ने अपने बारे में कभी सोचा ही नहीं. निधि, राजा और वीणा ने नौकरी करते ही अपनी इच्छा से विवाह कर लिया. तब तो मां ने दोस्तों, संबंधियों को बुला कर विधिविधान से विवाह कराया, दावत दीं. पर आज मुझे देख कर उन की आंखों में खून उतर आया. आशीर्वाद देने की जगह श्राप दे डाला,’’ आक्रोश से प्राची का गला रुंध गया और वह फिर से फूटफूट कर रोने लगी.

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‘‘शांत हो जाओ, प्राची. हमारे जीवन का सुखचैन किसी के श्राप या वरदान पर नहीं, हमारे अपने नजरिए पर निर्भर करता है,’’ क्षितिज ने समझाना चाहा था, पर सच तो यह था कि मां के व्यवहार से वह भी बुरी तरह आहत हुआ था. अपने फ्लैट के सामने पहुंचते ही क्षितिज ने फ्लैट की चाबी प्राची को थमा दी और बोला, ‘‘यही है अपना गरीबखाना.’’

प्राची ने चारों ओर निगाह डाली, घूम कर देखा और मुसकरा दी. डबल बेडरूम वाला छोटा सा फ्लैट बड़े सुरुचिपूर्ण ढंग से सजाया गया था.

अस्तित्व- भाग 2: क्या तनु ने प्रणव को अपने अस्तित्व का एहसास करा पाई?

लेखिका- नीलमणि शर्मा

‘नहीं सहन होता तो चली जाओ यहां से, जहां अच्छा लगता है वहां चली जाओ. क्यों रह रही हो फिर यहां.’

‘चली जाऊं, छोड़ दूं, उम्र के इस पड़ाव पर, आप को बेशक यह कहते शर्म नहीं आई हो, पर मुझे सुनने में जरूर आई है. इस उम्र में चली जाऊं, शादी के 30 साल तक सब झेलती रही, अब कहते हो चली जाओ. जाना होता तो कब की सबकुछ छोड़ कर चली गई होती.’

तनु तड़प उठी थी. जिंदगी का सुख प्रणव ने केवल भौतिक सुखसुविधा ही जाना था. पूरी जिंदगी अपनेआप को मार कर जीना ही अपनी तकदीर मान जिस के साथ निष्ठा से बिता दी, उसी ने आज कितनी आसानी से उसे घर से चले जाने को कह दिया.

‘हां, आज मुझे यह घर छोड़ ही देना चाहिए. अब तक पूरी जिंदगी प्रणव के हिसाब से ही जी है, यह भी सही.’ सारी रात तनु ने इसी सोच के साथ बिता दी.

शादी के बाद कितने समय तक तो तनु प्रणव का व्यवहार समझ ही नहीं पाई थी. किस बात पर झगड़ा होगा और किस बात पर प्यार बरसाने लगेंगे, कहा नहीं जा सकता. कालिज से आने में देर हो गई तो क्यों हो गई, घरबार की चिंता नहीं है, और अगर जल्दी आ गई तो कालिज टाइम पास का बहाना है, बच्चों को पढ़ाना थोड़े ही है.

दुनिया की नजर में प्रणव से आदर्श पति और कोई हो ही नहीं सकता. मेरी हर सुखसुविधा का खयाल रखना, विदेशों में घुमाना, एक से एक महंगी साडि़यां खरीदवाना, जेवर, गाड़ी, बंगला, क्या नहीं दिया लेकिन वह यह नहीं समझ सके कि सुखसुविधा और खुशी में बहुत फर्क होता है.

तनु की विचारशृंखला टूटने का नाम ही नहीं ले रही थी…मैं इन की बिना पसंद के एक रूमाल तक नहीं खरीद सकती, बिना इन की इच्छा के बालकनी में नहीं खड़ी हो सकती, इन की इच्छा के बिना घर में फर्नीचर इधर से उधर एक इंच भी सरका नहीं सकती, नया खरीदना तो दूर की बात… क्योंकि इन की नजर में मुझे इन चीजों की, इन बातों की समझ नहीं है. बस, एक नौकरी ही है, जो मैं ने छोड़ी नहीं. प्रणव ने बहुत कहा कि सोसाइटी में सभी की बीवियां किसी न किसी सोशल काम से जुड़ी रहती हैं. तुम भी कुछ ऐसा ही करो. देखो, निमिषा भी तो यही कर रही है पर तुम्हें क्या पता…पहले हमारे बीच खूब बहस होती थी, पर धीरेधीरे मैं ने ही बहस करना छोड़ दिया.

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आज मैं थक गई थी ऐसी जिंदगी से. बच्चों ने तो अपना नीड़ अलग बना लिया, अब क्या इस उम्र में मैं…हां…शायद यही उचित होगा…कम से कम जिंदगी की संध्या मैं बिना किसी मानसिक पीड़ा के बिताना चाहती हूं.

प्रणव तो इतना सबकुछ होने के बाद भी सुबह की उड़ान से अपने काम के सिलसिले में एक सप्ताह के लिए फ्रैंकफर्ट चले गए. उन के जाने के बाद तनु ने रात में सोची गई अपनी विचारधारा पर अमल करना शुरू कर दिया. अभी तो रिटायरमेंट में 5-6 वर्ष बाकी हैं इसलिए अभी क्वार्टर लेना ही ठीक है, आगे की आगे देखी जाएगी.

तनु को क्वार्टर मिले आज कई दिन हो गए, लेकिन प्रणव को वह कैसे बताए, कई दिनों से इसी असमंजस में थी. दिन बीतते जा रहे थे. प्रोफेसर दीप्ति, जो तनु के ही विभाग में है और क्वार्टर भी तनु को उस के साथ वाला ही मिला है, कई बार उस से शिफ्ट करने के बारे में पूछ चुकी थी. तनु थी कि बस, आजकल करती टाल रही थी.

सच तो यह है कि तनु ने उस दिन आहत हो कर क्वार्टर के लिए आवेदन कर दिया था और ले भी लिया, पर इस उम्र में पति से अलग होने की हिम्मत वह जुटा नहीं पा रही थी. यह उस के मध्यवर्गीय संस्कार ही थे जिन का प्रणव ने हमेशा ही मजाक उड़ाया है.

ऐसे ही एक महीना बीत गया. इस बीच कई बार छोटीमोटी बातें हुईं पर तनु ने अब खुद को तटस्थ कर लिया, लेकिन वह भूल गई थी कि प्रणव के विस्फोट का एक बहाना उस ने स्वयं ही उसे थाली में परोस कर दे दिया है.

कालिज से मिलने वाली तनख्वाह बेशक प्रणव ने कभी उस से नहीं ली और न ही बैंक मेें जमा पैसे का कभी हिसाब मांगा पर तनु अपनी तनख्वाह का चेक हमेशा ही प्रणव के हाथ में रखती रही है. वह भी उसे बिना देखे लौटा देते हैं. इतने वर्षों से यही नियम चला आ रहा है.

तनु ने जब इस महीने भी चेक ला कर प्रणव को दिया तो उस पर एक नजर डाल कर वह पूछ बैठे, ‘‘इस बार चेक में अमाउंट कम क्यों है?’’

पहली बार ऐसा सवाल सुन कर तनु चौंक गई. उस ने सोचा ही नहीं था कि प्रणव चेक को इतने गौर से देखते हैं. अब उसे बताना ही पड़ा,  ‘‘अगले महीने से ठीक हो जाएगा. इस महीने शायद स्टाफ क्वार्टर के कट गए होंगे.’’

अभी उस का वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था, ‘‘स्टाफ क्वार्टर के…किस का…तुम्हारा…कब लिया…क्यों लिया… और मुझे बताया भी नहीं?’’

तनु से जवाब देते नहीं बना. बहुत मुश्किल से टूटेफूटे शब्द निकले,  ‘‘एकडेढ़ महीना हो गया…मैं बताना चाह रही थी…लेकिन मौका ही नहीं मिला…वैसे भी अब मैं उसे वापस करने की सोच रही हूं…’’

‘‘एक महीने से तुम्हें मौका नहीं मिला…मैं मर गया था क्या? यों कहो कि तुम बताना नहीं चाहती थीं…और जब लिया है तो वापस करने की क्या जरूरत है…रहो उस में… ’’

‘‘नहीं…नहीं, मैं ने रहने के लिए नहीं लिया…’’

‘‘फिर किसलिए लिया है?’’

‘‘उस दिन आप ने ही तो मुझे घर से निकल जाने को कहा था.’’

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‘‘तो गईं क्यों नहीं अब तक…मैं पूछता हूं अब तक यहां क्या कर रही हो?’’

‘‘आप की वजह से नहीं गई. समाज क्या कहेगा आप को कि इस उम्र में अपनी पत्नी को निकाल दिया…आप क्या जवाब देंगे…आप की जरूरतों का ध्यान कौन रखेगा?’’

‘‘मैं समाज से नहीं डरता…किस में हिम्मत है जो मुझ से प्रश्न करेगा और मेरी जरूरतों के लिए तुम्हें परेशान होने की आवश्यकता नहीं है…जिस के मुंह पर भी चार पैसे मारूंगा…दौड़ कर मेरा काम करेगा…मेरा खयाल कर के नहीं गई…चार पैसे की नौकरी पर इतराती हो. अरे, मेरे बिना तुम हो क्या…तुम्हें समाज में लोग मिसिज प्रणव राय के नाम से जानते हैं.’’

तनु का क्रोध आज फिर अपना चरम पार करने लगा, ‘‘चुप रहिए, मैं ने पहले ही कहा था कि अब मुझ से बरदाश्त नहीं होता. ’’

‘‘कौन कहता है कि बरदाश्त करो…अब तो तुम ने मकान भी ले लिया है. जाओ…चली जाओ यहां से…मैं भूल गया था कि तुम जैसी मिडिल क्लास को कोठीबंगले रास नहीं आते. तुम्हारे लिए तो वही 2-3 कमरों का दड़बा ही ठीक है.’’

तनु इस अपमान को सह नहीं पाई और तुरंत ही अंदर जा कर अपना सूटकेस तैयार किया और वहां से निकल पड़ी. आंखों में आंसू लिए आज कोठी के फाटक को पार करते ही तनु को ऐसा लगा मानो कितने बरसों की घुटन के बाद उस ने खुली हवा में सांस ली है.

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अस्तित्व- भाग 3: क्या तनु ने प्रणव को अपने अस्तित्व का एहसास करा पाई?

लेखिका- नीलमणि शर्मा

‘‘बाहर से ताला खुला देखा इसलिए बेल बजा दी. कब आईं आप?’’ शालीनता से पूछा था दीप्ति ने.

‘‘रात ही में.’’

‘‘ओह, अच्छा…पता ही नहीं चला. और मिस्टर राय?’’

‘‘वह बाहर गए हैं…तब तक दोचार दिन मैं यहां रह कर देखती हूं, फिर देखेंगे.’’

दीप्ति भेदभरी मुसकान से ‘बाय’ कह कर वहां से चल दी.

पूरा दिन निकल गया प्रतीक्षा में. तनु को बारबार लग रहा था प्रणव अब आए, तब आए. पर वह नहीं ही आए.

रात होतेहोते तनु ने अपने मन को समझा लिया था कि यह किस का इंतजार था मुझे? उस का जिस ने घर से निकाल दिया. अगर उन्हें आना ही होता तो मुझे निकालते ही क्यों…सचमुच मैं उन की जिंदगी का अवांछनीय अध्याय हूं. लेकिन ऐसा तो नहीं कि मैं जबरदस्ती ही उन की जिंदगी में शामिल हुई थी…

कालिज में मैं और निमिषा एक साथ पढ़ते थे. एक ही कक्षा और एक जैसी रुचियां होने के कारण हमारी शीघ्र ही दोस्ती हो गई. निमिषा और मुझ में कुछ अंतर था तो बस, यही कि वह अपनी कार से कालिज आती जिसे शोफर चलाता और बड़ी इज्जत के साथ कार का गेट खोल कर उसे उतारताबैठाता, और मैं डीटीसी की बस में सफर करती, जो सचमुच ही कभीकभी अंगरेजी भाषा का  ‘सफर’ हो जाता था. मेरा मुख्य उद्देश्य था शिक्षा के क्षेत्र में अपना कैरियर बनाना और निमिषा का केवल ग्रेजुएशन की डिगरी लेना. इस के बावजूद वह पढ़ाई में बहुत बुद्धिमान थी और अभी भी है…

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ग्रेजुएशन करने तक मैं कभी निमिषा के घर नहीं गई…अच्छी दोस्ती होने के बाद भी मुझे लगता कि मुझे उस से एक दूरी बनानी है…कहां वह और कहां मैं…लेकिन जब मैं ने एम.ए. का फार्म भरा तो मुझे देख उस ने भी भर दिया और इस तरह हम 2 वर्ष तक और एकसाथ हो गए. इस दौरान मुझे दोचार बार उस के घर जाने का मौका मिला. घर क्या था, महल था.

मेरी हैरानी तब और बढ़ गई जब एम.फिल. के लिए मेरे साथसाथ उस ने भी आवेदन कर दिया. मेरे पूछने पर निमिषा ने कहा था, ‘यार, मम्मीपापा शादी के लिए लड़का ढूंढ़ रहे हैं, जब तक नहीं मिलता, पढ़ लेते हैं. तेरे साथसाथ जब तक चला जाए…’ बिना किसी लक्ष्य के निमिषा मेरे साथ कदम-दर-कदम मिलाती हुई बढ़ती जा रही थी और एक दिन हम दोनों को ही लेक्चरर के लिए नियुक्त कर लिया गया.

इस खुशी में उस के घर में एक भव्य पार्टी का आयोजन किया गया था. उसी पार्टी में पहली बार उस के भाई प्रणव से मेरी मुलाकात हुई. बाद में मुझे पता चला कि उस दिन पार्टी में मेरे रूपसौंदर्य से प्रभावित हो कर निमिषा के मम्मीपापा ने निमिषा की शादी के बाद मुझे अपनी बहू बनाने पर विचार किया, जिस पर अंतिम मोहर मेरे घर वालों को लगानी थी जो इस रिश्ते से मन में खुश भी थे और उन की शानोशौकत से भयभीत भी.

इस सब में लगभग एक साल का समय लगा. प्रणव कई बार मुझ से मिले, वह जानते थे कि मैं एक आम भारतीय समाज की उपज हूं…शानोशौकत मेरे खून में नहीं…लेकिन शादी के पहले मेरी यही बातें, मेरी सादगी, उन्हें अच्छी लगती थी, जो उन की सोसाइटी में पाई जाने वाली लड़कियों से मुझे अलग करती थी.

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तनु को यहां रहते एक महीना हो चुका था. कुछ दिन तो दरवाजे की हर घंटी पर वह प्रणव की उम्मीद लगाती, लेकिन उम्मीदें होती ही टूटने के लिए हैं. इस अकेलेपन को तनु समझ ही नहीं पा रही थी. कभी तो अपने छोटे से घर में 55 वर्षीय प्रोफेसर डा. तनुश्री राय का मन कालिज गर्ल की तरह कुलाचें मार रहा होता कि यहां यह मिरर वर्क वाली वाल हैंगिंग सही लगेगी…और यह स्टूल यहां…नहीं…इसे इस कोने में रख देती हूं.

घर में कपडे़ की वाल हैंगिंग लगाते समय तनु को याद आया जब वह जनपथ से यह खरीद कर लाई थी और उसे ड्राइंग रूम में लगाने लगी तो प्रणव ने कैसे डांट कर मना कर दिया था कि यह सौ रुपल्ली का घटिया सा कपडे़ का टुकड़ा यहां लगाओगी…इस का पोंछा बना लो…वही ठीक रहेगा…नहीं तो अपने जैसी ही किसी को भेंट दे देना.

तनु अब अपनी इच्छा से हर चीज सजा रही थी. कोई मीनमेख निकालने वाला या उस का हाथ रोकने वाला नहीं था, लेकिन फिर भी जीवन को किसी रीतेपन ने अपने घेरे में घेर लिया था.

कालिज की फाइनल परीक्षाएं समाप्त हो चुकी थीं. सभी कहीं न कहीं जाने की तैयारियों में थे. प्रणव के साथ मैं भी हमेशा इन दिनों बाहर चली जाया करती थी…सोच कर अचानक तनु को याद आया कि बेटा  ‘यश’ के पास जाना चाहिए…उस की शादी पर तो नहीं जा पाई थी…फिर वहीं से बेटी के पास भी हो कर आऊंगी.

बस, तुरतफुरत बेटे को फोन किया और अपनी तैयारियों में लग गई. कितनी प्रसन्नता झलक रही थी यश की आवाज में. और 3 दिन बाद ही अमेरिका से हवाई जहाज का टिकट भी भेज दिया था.

फ्लाइट का समय हो रहा था… ड्राइवर सामान नीचे ले जा चुका था, तनु हाथ में चाबी ले कर बाहर निकलने को ही थी कि दरवाजे पर दस्तक हुई, उफ, इस समय कौन होगा. देखा, दरवाजे पर प्रणव खड़े हैं.

क्षण भर को तो तनु किंकर्तव्य- विमूढ़ हो गई. उफ, 2 महीनों में ही यह क्या हो गया प्रणव को. मानो बरसों के मरीज हों.

‘‘कहीं जा रही हो क्या?’’ प्रणव ने उस की तंद्रा तोड़ते हुए पूछा.

‘‘हां, यश के पास…पर आप अंदर तो आओ.’’

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‘‘अंदर बैठा कर तनु प्रणव के लिए पानी लेने को मुड़ी ही थी कि उस ने तनु का हाथ पकड़ लिया, ‘‘तनु, मुझे माफ नहीं करोगी. इन 2 महीनों में ही मुझे अपने झूठे अहम का एहसास हो गया. जिस प्यार और सम्मान की तुम अधिकारिणी थीं, तुम्हें वह नहीं दे पाया. अपने  ‘स्वाभिमान’ के आवरण में घिरा हुआ मैं तुम्हारे अस्तित्व को पहचान ही नहीं पाया. मैं भूल गया कि तुम से ही मेरा अस्तित्व है. मैं तुम्हारे बिना अधूरा हूं…यह सच है तनु, मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूं…पहले भी करता था पर अपने अहम के कारण कहा नहीं, आज कहता हूं तनु, तुम्हारे बिना मैं मर जाऊंगा…मुझे माफ कर दो और अपने घर चलो. बहू को पहली बार अपने घर बुलाने के लिए उस के स्वागत की तैयारी भी तो करनी है…मुझे एक मौका दो अपनी गलती सुधारने का.’’

तनु बुढ़ापे में पहली बार अपने पति के प्यार से सराबोर खुशी के आंसू पोंछती हुई अपने बेटे को अपने न आ पाने की सूचना देने के लिए फोन करने लग जाती है.

Serial Story: धनिया का बदला- भाग 2

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

‘‘अरे धनिया, आप चिंता क्यों करती हो… आप तो बस दवा खाओ और आराम करो… हम खाना भी बना लेंगे और बच्चों को भी संभाल लेंगे,’’ छंगा कह रहा था. उस की बात सुन कर खटिया पर लेटी हुई धनिया की आंखों में आंसू आ गए.

बीरू के मर जाने के बाद उस के हिस्से की जमीन धनिया के नाम कर दी गई थी. छंगा के मन में तो खोट था. वह उस जमीन को अपने नाम पर करा कर धनिया से छुटकारा पाना चाहता था, इसलिए एक दिन जब धनिया बुखार की दवा खा कर सो रही थी, तब धोखे से छंगा ने जमीन के कागजों पर धनिया का अंगूठा लगवा लिया.

शायद छंगा को इसी दिन का इंतजार ही था कि कागजों पर अंगूठा लग जाए और वह अकेला ही इस जमीन पर  राज करे.

जब कुछ दिनों बाद धनिया की सेहत में सुधार हो गया, तब उस ने गौर किया कि छंगा का उस के और उस की बेटियों के प्रति बरताव बदल सा गया है. जहां पहले वह बच्चियों के लिए खानेपीने की चीजें लाता था, वहीं अब वह खाली हाथ चला आता है और सीधे मुंह बात भी नहीं करता और उन्हें मारनापीटना भी शुरू कर दिया है.

‘‘अब तो तुम्हारा बुखार सही हो गया है… कुछ कामधाम भी किया करो… सारा दिन तुम्हारे बच्चे मुझे तंग करते रहते हैं और मेरे पैसे खर्च करवाते हैं. अब इन का और खर्चा मुझ से नहीं उठाया जाता,’’ छंगा गरज रहा था.

‘शायद बाहर की कुछ परेशानी होगी, तभी तो ऐसे कह रहा है छंगा, नहीं तो मीठा बोलने वाला छंगा इतना कड़वा क्यों बोलता,’ ऐसा सोच कर धनिया खुद ही खेत की तरफ सब्जी तोड़ने चल दी.

खेत पर पहुंचते ही उस की आंखें हैरत से फटी रह गईं. खेत में खड़े नीम के पेड़ की छांव में गांव के कुछ मुस्टंडे शराब और मांस खा रहे थे.

‘‘तुम लोग मेरे खेत में गंदगी क्यों फैला रहे हो… क्या तुम लोगों को और कोई जगह नहीं मिली… चलो, भागो यहां से,’’ धनिया चीख रही थी.

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‘‘तुम्हारा खेत… पर, यह खेत तो तुम अपनी मरजी से छंगा के नाम पर चुकी हो… और उसी ने हमें यहां बुला कर खानेपीने का इंतजाम करवाया है. अगर हमारी बात पर यकीन न आ रहा हो, तो पंचायत बुला कर पूछ लो,’’ उन में से एक ने धनिया से कहा.

धनिया ने उन लोगों को तो किसी तरह वहां से चलता किया, पर उन लोगों की बात उस के कानों में गूंजती रही.

धनिया घर लौटी, तो अपनी बेटियों को उस ने दरवाजे पर ही रोते पाया.

‘‘देखो अम्मां… पापा ने हमें मार कर घर से बाहर निकाल दिया है,’’ एक बेटी ने बताया.

धनिया का दिल दहल उठा था. उस ने बाहर से ही छंगा को आवाज लगाई.

‘‘अब मुझे तेरी जरूरत नहीं है… तू मेरी जिंदगी से चली जा, तुझ में है ही क्या? भला कोई 2 बेटियों की मां के साथ कैसे खुश रह सकता है,’’ छंगा अंदर से ही बोला और दरवाजा बंद  कर लिया.

रोती हुई धनिया पंचायत पहुंची. पंचों ने तुरंत ही छंगा को तलब किया और उस से पूछा कि जिस औरत के साथ अभी कुछ दिन पहले ही तुम ने ब्याह किया है, आज उस के साथ ऐसा सुलूक क्यों कर रहे हो?

‘‘भला मैं ऐसा सुलूक करने वाला कौन होता हूं… इस कागज पर खुद धनिया का अंगूठा लगा है और जिस में लिखा हुआ है कि मैं अब अपनी सारी खेती छंगा के नाम कर रही हूं और अपनी मरजी से छंगा का घर छोड़ कर जा रही हूं, इसलिए भविष्य में उसे मेरा पति और मुझे उस की पत्नी न समझा जाए,’’ कह कर छंगा ने कागज आगे बढ़ा दिया.

पंचों ने उन कागजों को उलटापलटा. कागज पर यही लिखा हुआ था, जिस के नीचे धनिया का अंगूठा भी लगा हुआ था.

‘‘तुम ने तो अपनी मरजी से ही ये सब किया है… यह अंगूठे का निशान तो तुम्हारा ही है न?’’ पंचों में से  एक ने कागज दिखाते हुए पूछा.

धनिया हैरान थी. अंगूठे का निशान तो उसी का था, पर भला वह क्यों ऐसा करने लगी? यह सोच कर वह परेशान हो उठी.

कागजों के आगे पंच भी मजबूर थे, इसलिए उन्होंने छंगा के हक में फैसला सुना दिया और धनिया सड़क पर आ गई.

रात हुई तो धनिया को डर लगने लगा. कुछ सोच कर वह बेटियों को ले कर अपने घर गई. दरवाजा अंदर से भिड़ा हुआ था. सामने छंगा बैठा हुआ ढेर सारे नोटों की गड्डियां गिन रहा था.

धनिया सन्न रह गई थी, उस की आंखें फटी की फटी रह गई थीं. आखिरकार आज से पहले इतना पैसा तो छंगा के पास नहीं देखा था उस ने.

‘‘ऐसे चुड़ैल की तरह क्या देख रही है… क्या कभी पैसा नहीं देखा… और फिर मेरे घर क्यों आई हो, जब तुझे पंचायत में शिकायत ले कर जाना ही है… अब मुझे तेरा साथ नहीं चाहिए,’’ छंगा ने धनिया को देख कर कहा.

‘‘मैं कोई भीख मांगने नहीं आई… मेरे हिस्से की जमीन…’’

‘‘तेरी कोई जमीन नहीं… और जो जमीन तू ने मेरे नाम कर दी थी, वह भी मैं ने कालिया को बेच दी है,’’ कह कर छंगा ने दरवाजा बंद कर दिया था.

क्षमादान- भाग 2: आखिर मां क्षितिज की पत्नी से क्यों माफी मांगी?

प्राची ड्राइंगरूम में पड़े सोफे पर पसर गई. मन का बोझ कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था. मन अजीब से अपराधबोध से पीडि़त था. पता नहीं क्षितिज से विवाह का उस का फैसला सही था या गलत? हर ओर से उठते सवालों की बौछार से भयभीत हो कर उस ने आंखें मूंद लीं तो पिछले कुछ समय की यादें उस के मन रूपी सागरतट से टकराने लगी थीं.

‘तुम जियो हजारों साल, साल के दिन हों पचास हजार,’ उस दिन प्राची ने अपने जन्मदिन का केक काट कर मोमबत्तियां बुझाई ही थीं कि पूरा कमरा इस गीत की धुन से गूंज उठा था. क्षितिज ने ऊपर लगा बड़ा सा गुब्बारा फोड़ दिया था. उस में से रंगबिरंगे कागज के फूल उस के ऊपर और पूरे कमरे में बिखर गए थे. उस के सभी सहकर्मियों ने करतल ध्वनि के साथ उसे बधाई दी थी और गीत गाने लगे थे.

जन्मदिन की चहलपहल, धूमधाम के बीच शाम कैसे बीत गई थी पता ही नहीं चला था. अपने सहकर्मियों को उस ने इसी बहाने आमंत्रित कर लिया था. उस की बहन वीणा और निधि तथा भाई राजा और प्रवीण में से कोई एक भी नहीं आया था. प्रवीण तो अपने कार्यालय के काम से सिंगापुर गया हुआ था पर अन्य सभी तो इसी शहर में थे.

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सभी अतिथियों को विदा करने के बाद प्राची निढाल हो कर अपने कक्ष में पड़ी सोच रही थी कि चलो, इसी बहाने सहकर्मियों को घर बुलाने का अवसर तो मिला वरना तो इस आयु में किस का मन होता है जन्मदिन मनाने का. एक और वर्ष जुड़ गया उस की आयु के खाते में. आज पूरे 35 वसंत देख लिए उस ने.

अंधकार में आंखें खोल कर प्राची शून्य में ताक रही थी. अनेक तरह की आकृतियां अंधेरे में आकार ले रही थीं. वे आकृतियां, जिन का कोई अर्थ नहीं था, ठीक उस के जीवन की तरह.

‘प्राची, ओ प्राची,’ तभी मां का स्वर गूंजा था.

‘क्या है, मां?

‘बेटी, सो गई क्या?’

‘नहीं तो, थक गई थी, सो आराम कर रही हूं. मां, राजा, निधि और वीणा में से कोई नहीं आया,’ प्राची ने शिकायत की थी.

‘अरे, हां, मैं तो तुझे बताना ही भूल गई. राजा का फोन आया था, बता रहा था कि अचानक ही उस के दफ्तर का कोई बड़ा अफसर आ गया इसलिए उसे रुकना पड़ गया है. वीणा और निधि को तो तुम जानती ही हो, अपनी गृहस्थी में कुछ इस प्रकार डूबी हैं कि उन्हें दीनदुनिया का होश तक नहीं है,’ मां ने उन सब की ओर से सफाई दी थी.

‘फिर भी थोड़ी देर के लिए तो आ ही सकती थीं.’

‘वीणा तो फोन पर यह कह कर हंस रही थी कि इस बुढ़ापे में दीदी को जन्मदिन मनाने की क्या सूझी?’ यह कह कर मां खिलखिला कर हंसी थीं.

मां की यह हंसी प्राची के कानों में सीसा घोल गई थी. वह रोंआसी हो कर बोली, ‘पहले कहना चाहिए था न मां कि तुम्हारी प्राची को वृद्धावस्था में जन्मदिन मनाने का साहस नहीं करना चाहिए.’

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‘अरे, बेटी, मैं तो यों ही मजाक कर रही थी. तू तो बुरा मान गई. 35 वर्ष की आयु में तो आजकल लोग जीवन शुरू करते हैं,’ मां ने जैसे भूल सुधार की मुद्रा में कहा, ‘इस तरह अंधेरे में क्यों बैठी है. आ चल, उपहार खोलते हैं. देखेंगे किस ने क्या दिया है.’

मां की बच्चों जैसी उत्सुकता देख कर प्राची उठ कर दालान में चली आई. अब मां हर उपहार को खोलतीं, उस के दाम का अनुमान लगातीं और एक ओर सरका देतीं.

‘मां, डब्बे पर देखो, नाम लिखा होगा,’ प्राची बोली थी.

‘मेरा चश्मा दूसरे कमरे में रखा है. ले, तू ही पढ़ ले,’ उन्होंने डब्बा और उस पर लिपटा कागज दोनों प्राची की ओर बढ़ा दिए थे.

‘क्षितिज गोखले,’ प्राची ने नाम पढ़ा और चुप रह गई थी. मां दूसरे उपहारों में व्यस्त थीं. नाम के बाद एक वाक्य और लिखा हुआ था, ‘प्यार के साथ, संसार की सब से सुंदर लड़की के लिए.’ अनजाने ही प्राची का चेहरा शर्म से लाल हो गया था.

‘यह देख, कितना सुंदर बुके है…पर सच कहूं, बुके का पैसा व्यर्थ जाता है. कल तक फूल मुरझा जाएंगे, फिर फेंकने के अलावा क्या होगा इन का?’

‘मां, फूलों की अपनी ही भाषा होती है. कुछ देर के लिए ही सही, अपने सौंदर्य और सुगंध से सब को चमत्कृत करने के साथ ही जीवन की क्षणभंगुरता का उपदेश भी दे ही जाते हैं,’ प्राची मुसकराई थी.

‘तुम्हारे दार्शनिक विचार मेरे पल्ले तो पड़ते नहीं हैं. चलो, आराम करो, मुझे भी बड़ी थकान लग रही है,’ कहती हुई मां उठ खड़ी हुई थीं.

सोने से पहले हर दिन की तरह उस दिन भी अपने पिता नीरज बाबू के लिए दूध ले कर गई थी प्राची.

‘बेटी, बड़ी अच्छी रही तेरे जन्मदिन की पार्टी. बड़ा आनंद आया. हर साल क्यों नहीं मनाती अपना जन्मदिन? इसी बहाने तेरे अपाहिज पिता को भी थोड़ी सी खुशी मिल जाएगी,’ नीरज बाबू भीगे स्वर में बोले थे.

प्राची पिता का हाथ थामे कुछ देर उन के पास बैठी रही थी.

‘कोई अच्छा सा युवक देख कर विवाह कर ले, प्राची. अब तो राजा, प्रवीण, वीणा और निधि सभी सुव्यवस्थित हो गए हैं. रहा हम दोनों का तो किसी तरह संभाल ही लेंगे.’

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‘क्यों उपहास करते हैं पापा. मेरी क्या अब विवाह करने की उम्र है? वैसे भी अब किसी और के सांचे में ढलना मेरे लिए संभव नहीं होगा,’ वह हंस दी थी. नीरज बाबू को रजाई उढ़ा कर और पास की मेज पर पानी रख प्राची अपने कमरे में आई तो आंखों में नींद का नामोनिशान नहीं था.

शायद 5 वर्ष हुए होंगे, जब उस के सहपाठी सौरभ ने उस के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा था. बाद में उस के मातापिता घर भी आए थे पर मां ने इस विवाह के प्रस्ताव को नहीं माना था.

‘बेटा समझ कर तुम्हें पाला है. अब तुम प्रेम के चक्कर में पड़ कर विवाह कर लोगी तो इन छोटे बहनभाइयों का क्या होगा?’ मां क्रोधित स्वर में बोली थीं.

सौरभ ने अपने लंबे प्रेमप्रकरण का हवाला दिया तो वह भी अड़ गई थी.

‘मां, मैं ने और सौरभ ने विवाह करने का निर्णय लिया है. आप चिंता न करें. मैं पहले की तरह ही परिवार की सहायता करती रहूंगी,’ प्राची ने दोटूक निर्णय सुनाया था.

‘कहने और करने में बहुत अंतर होता है. विवाह के बाद तो बेटे भी पराए हो जाते हैं, फिर बेटियां तो होती ही हैं पराया धन,’ और इस के बाद तो मां अनशन पर ही बैठ गई थीं. जब 3 दिन तक मां ने पानी की एक बूंद तक गले के नीचे नहीं उतारी तो वह घबरा गई और उस ने सौरभ से कह दिया था कि उन दोनों का विवाह संभव नहीं है.

उस के बाद वह सौरभ से कभी नहीं मिली. सुना है विदेश जा कर वहीं बस गया है वह. इन्हीं खयालों में खोई वह नींद की गोद में समा गई थी.

Mother’s Day Special- मां का साहस: भाग 1

मां उसे सम झा रही थीं, ‘‘दामादजी सिंगापुर जा रहे हैं. ऐसे में तुम नौकरी पर जाओगी तो बच्चे की परवरिश ठीक से नहीं हो पाएगी. वैसे भी अभी तुम्हें नौकरी करने की क्या जरूरत है. दामादजी भी अच्छाखासा कमा रहे हैं. तुम्हारा अपना घर है, गाड़ी है…’’

‘‘तुम साफसाफ यह क्यों नहीं कहती हो कि मैं नौकरी छोड़ दूं. तुम भी क्या दकियानूसी बातें करती हो मां,’’ वनिता बिफर कर बोली, ‘‘इतनी मेहनत और खर्च कर के मैं ने अपनी पढ़ाई पूरी की है, वह क्या यों ही बरबाद हो जाने दूं. तुम्हें मेरे पास रह कर गुडि़या को नहीं संभालना तो साफसाफ बोल दो. मेरी सास भी बहाने बनाने लगती हैं. अब यह मेरा मामला है तो मैं ही सुल झा लूंगी. भुंगी को मैं ने सबकुछ सम झा दिया है. वह यहीं मेरे साथ रहने को राजी है.’’

‘‘ऐसी बात नहीं है वनिता…’’ मां उसे सम झाने की कोशिश करते हुए बोलीं, ‘‘अब हम लोगों की उम्र ढल गई है. अपना ही शरीर नहीं संभलता, तो दूसरे को हम बूढ़ी औरतें क्या संभाल पाएंगी. सौ तरह के रोग लगे हैं शरीर में, इसलिए ऐसा कह रही थी. बच्चे की सिर्फ मां ही बेहतर देखभाल कर सकती है.’’

‘‘मैं फिर कहती हूं कि मैं ने इतनी मेहनत से पढ़ाईलिखाई की है. मु झे बड़ी मुश्किल से यह नौकरी मिली है, जिस के लिए हजारों लोग खाक छानते फिरते हैं और तुम कहती हो कि इसे छोड़ दूं.’’

‘‘मांजी का वह मतलब नहीं था, जो तुम सम झ रही हो…’’ शेखर बीच में बोला, ‘‘अभी गुडि़या बहुत छोटी है. और मांजी अपने जमाने के हिसाब से बातें समझा रही हैं. गुडि़या की चंचल हरकतें बढ़ती जा रही हैं. 2 साल की उम्र ही क्या होती है.’’

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‘‘तुम तो नौकरी छोड़ने के लिए बोलोगे ही… आखिर मर्द हो न.’’

‘‘अब जो तुम्हारे जी में आए सो करो…’’ शेखर पैर पटकते हुए वहां से जाते हुए बोला, ‘‘परसों मु झे सिंगापुर के लिए निकलना है. महीनेभर का कार्यक्रम है. बस, मेरी गुडि़या को कुछ नहीं होना चाहिए.’’

‘‘मेम साहब, मैं बच्ची देख लूंगी…’’ भुंगी पान चबाते हुए बीच में आ कर बोली, ‘‘आखिर हमें भी तो अपना पेट पालना है.’’

‘‘तुम्हें अपने बनावसिंगार से फुरसत हो तब तो तुम बच्ची को देखोगी…’’ वनिता की सास बीच में आ कर बोलीं, ‘‘हम जरा बीमार क्या हुए, फालतू हो गए. घर में सौ तरह के काम हैं. सब तरफ से भरेपूरे हैं हम. एक बच्चे की कमी थी, वह भी पूरी हो गई. हमें और और क्या चाहिए.’’

‘‘देखिए बहनजी, आप ही इसे सम झाएं कि ऐसे में कोई जरूरी तो नहीं कि यह नौकरी करे…’’ अब वे वनिता की मां से मुखातिब थीं, ‘‘4 साल तो नौकरी कर ली. अब यह  झं झट छोड़े और चैन से घर में रहे.’’

‘‘अब मैं आप लोगों के मुंह नहीं लगने वाली. मैं साफसाफ कहे देती हूं कि मैं नौकरी नहीं छोड़ने वाली. मु झे भी अपनी जिंदगी जीने का हक है. मु झे भी अपनी आजादी चाहिए. मैं आम औरतों की तरह नहीं जी सकती.’’

‘‘मु झे भी तो काम और पैसा चाहिए मेम साहब…’’ भुंगी खीसें निपोर कर बोली, ‘‘आप निश्चिंत हो कर चाकरी करो. मैं भी चार रोटी खा कर यहीं पड़ी रहूंगी. घर और गुडि़या को देख लूंगी.’’

‘‘भुंगी, मु झे तुम पर पूरा यकीन है…’’ वनिता चहकते हुए बोली, ‘‘ये पुराने जमाने के लोग हैं. आगे की क्या सोचेंगे. मु झ में हुनर है, तो मु झे इस का फायदा मिलना ही चाहिए. औफिस में मेरा नाम और इज्जत है. आखिर नाम कमाना किस को अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘पता नहीं, कहां से आई है यह भुंगी…’’ वनिता की मां उस की सास से बोलीं, ‘‘न पता, न ठिकाना. मु झे इस के लक्षण भी ठीक नहीं दिखते. पता नहीं, क्या पट्टी पढ़ा दी है कि इस वनिता की तो मति मारी गई है.’’

भुंगी इस महल्ले में  झाड़ूपोंछे का काम करती थी. उस ने वनिता के घर में भी काम पकड़ लिया था. अब वह वनिता की भरोसेमंद बन गई थी. काम के बहाने वह ज्यादातर यहीं रह कर वनिता की हमराज भी बन गई थी. वनिता उसे पा कर खुश थी.

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घर में बूढ़े सासससुर थे, मगर वे अपनी ही बीमारी के चलते ज्यादा चलफिर नहीं पाते थे. शेखर अपने संस्थान के खास इंजीनियर थे. सिंगापुर की एक नामी यूनिवर्सिटी में एक महीने की खास ट्रेनिंग के लिए उन का चयन किया गया था. इस ट्रेनिंग के पूरा होने के बाद उन की डायरैक्टर के पद पर प्रमोशन तय था. मगर उन का नन्ही सी गुडि़या को छोड़ कर जाने का मन नहीं हो रहा था. वे उस की हिफाजत और देखभाल के लिए आश्वस्त होना चाहते थे, इसलिए वनिता ने अपनी मां को यहां बुलाना चाहा था. मगर मां ने साफतौर पर मना कर दिया तो वनिता को निराशा हुई. अब वह भुंगी के चलते आश्वस्त थी कि सबकुछ ठीकठाक चल जाएगा.

दसेक दिन तो ठीकठाक ही चले. भुंगी के साथ गुडि़या हिलमिल गई थी और उस के खानपान और रखरखाव में अब कोई परेशानी नहीं थी.

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