कांटों भरी राह पर नंगे पैर : भाग 3

लखनऊ शहर की इस गंदी बस्ती में आज जश्न था, क्योंकि आज उन के महल्ले के एक लड़के की शादी एक अमीर और सवर्ण लड़की से जो हो गई थी. अगले दिन से ही अंजलि घर पर मेहंदी रचा कर नहीं बैठी, बल्कि चुनाव प्रचार में बिजी हो गई. पूरे शहर में अंजलि ने अपनेआप को ‘दलित समाज की बहू’ कह कर चुनाव प्रचार करवाया और अजीत कुमार के साथ दलित बस्तियों का दौरा भी किया और दोपहर का खाना भी लखनऊ शहर के ही राजाजीपुरम इलाके में रह रहे एक दलित परिवार के यहां खाया.

लोकल न्यूज चैनल पर इस खबर का खूब प्रचारप्रसार भी करवाया. चुनाव नतीजा तो आया, पर अंजलि की सोच के मुताबिक नहीं. वह अपने विरोधी से बुरी तरह चुनाव हार चुकी थी. पूरे 2 दिन तक वह घर से बाहर रही. अजीत कुमार ने उस का मोबाइल भी मिलाया, पर मोबाइल ‘नौट रीचेबल’ ही बताता रहा. फिर एक दिन अंजलि अचानक नाटकीय रूप से प्रकट हो गई. उस ने घर के किसी शख्स से बात तक नहीं की और न ही किसी की तरफ देखा भी. वह सीधा अपने कमरे में चली गई. अजीत कुमार उस के पीछेपीछे गया, तो अंजलि उस से कहने लगी, ‘‘देखो अजीत, मैं ने तुम से इसलिए शादी की थी, क्योंकि सोशल मीडिया पर तुम्हारे दलित फैंस को देख कर मुझे ऐसा लगा कि अगर मैं तुम से शादी कर के दलितों के वोट अपनी ओर कर लूंगी,

तो इलैक्शन जीत जाऊंगी, पर अफसोस, यह नहीं हो सका और मैं चुनाव हार गई…’’ सांस लेने के लिए अंजलि रुकी और फिर आगे कहना शुरू किया, ‘‘पर, अब मेरा इस गंदी बस्ती और तुम्हारे साथ दम घुट रहा है, इसलिए मैं यहां से जा रही हूं और अपने आदमियों से तलाक के कागज भी भिजवा दूंगी… साइन कर देना.’’ अजीत कुमार अवाक रह गया. अपनी जिंदगी में इतना बड़ा धोखा उस ने कभी नहीं खाया था. अंजलि जा चुकी थी और कुछ घंटे बाद ही उस के आदमी तलाक के कागज ले कर आए और अजीत कुमार से दस्तखत लेने लगे.

कुछ लोग अंजलि के कमरे का सामान ले जाने लगे, जिस में उस कमरे में लगा हुआ एसीकूलर वगैरह भी शामिल था. अजीत कुमार काफी बेइज्जती महसूस कर रहा था, पर करता भी क्या? एक दलित की जिंदगी कितनी कड़वी हो सकती है, यह सब उस की झांकी भर ही था. कुछ दिन तो अजीत कुमार भी सदमे में रहा. उसे लगा कि उसे मर जाना चाहिए, क्योंकि वह एक सवर्ण महिला द्वारा बेइज्जत किया जा चुका है. लोग सही कहते हैं… हम दलित लोगों की ‘ब्रेन वाशिंग’ इस तरह से कर दी गई है कि लगता है कि हमारे सोचनेसमझने की ताकत ही चली गई है.

तभी तो शायद हम समाज में सब से आखिरी पायदान पर हैं… तो क्या मर जाना ही इस का समाधान है, बिलकुल, जब जिंदगी ही नहीं रहेगी, तो कैसा दुख और कैसा दर्द. अपने मोबाइल को अजीत कुमार ने आखिरी बार निहारा. उस ने पाया कि उस के फेसबुक मैसेंजर पर बहुत से दलित भाइयों और जरूरतमंद लोगों के संदेश भरे हुए थे, जो उस से मदद मांग रहे थे… ‘तो फिर इन का क्या होगा? क्या मेरे मर जाने से इन की उम्मीदभरी नजरों को ठोकर नहीं लगेगी?’ एक बार ऐसा खयाल अजीत कुमार के जेहन में आया, तो उस ने मरने का विचार छोड़ दिया. ठंडे पानी का एक गिलास हलक के नीचे उतारा और अपने कमरे में वापस आया…

एक लंबे सफर की तैयारी जो करनी थी उसे. उस दिन के बाद से अजीत कुमार ने सोशल मीडिया को अपना हथियार बनाया और उस ने ‘फेसबुक लाइव’ के द्वारा लोगों को संबोधित किया और दलितों को जगाने और उन की सदियों से चली आ रही ‘ब्रेन वाशिंग’ को ही खत्म करने के कोशिश की. खुद के साथ हुए धोखे के बारे में लोगों को बताया कि लोग किस तरह से उन के भोलेपन का फायदा उठाते हैं. भोलेभाले लोग यह जानते ही नहीं कि सालों से उन्हें कमतर होने का एहसास कराया जाता रहा है, जिस से वे अपनेआप को नीचा समझने लगे हैं. दलित गरीब होता है,

इसलिए उन के उत्थान में सब से पहले पैसे की जरूरत थी. अजीत कुमार ने अपने महल्ले के बीचोंबीच एक डब्बा रखवाया और उस पर लिखवा दिया कि इस डब्बे में वे लोग हर रोज महज एकएक रुपया डाला करेंगे और इस से जो पैसे इकट्ठे होंगे, वे गरीब दलितों के काम आएंगे, मसलन बच्चों की पढ़ाईलिखाई और लड़कियों की शादी में. अजीत कुमार ने ऊंची नौकरी कर रहे कुछ दलित लोगों से भी बात की और उन से भी सहयोग करने को कहा. लोग सामने आए और अजीत कुमार के कंधे से कंधा भी मिलाया. अजीत कुमार ने अपनी पूरी जिंदगी ही दलित समाज के जागरण को समर्पित कर दी थी. यह सब इतना आसान नहीं था,

पर दृढ़ संकल्प से कुछ भी मुमकिन था. तकरीबन 15 साल की समाजसेवा के बाद अजीत कुमार एक जानामाना नाम बन गया था, जिस का एहसास उस चालाक राजपूतानी अंजलि को भी हो चुका था, तभी वह एक दिन अजीत कुमार के पास आई और अपने द्वारा दिए गए धोखे पर माफी मांगते हुए उस से दोबारा शादी करने की इजाजत मांगी, पर अजीत कुमार इतना भी बेवकूफ नहीं था कि अंजलि से दोबारा शादी करता. दलित उत्थान में अजीत कुमार अकेला चला तो था, पर उसे इस राह में कई लोग मिलते गए, जिन्होंने हर तरीके से उस की मदद की.

अजीत कुमार ने अपनी जिंदगी के कड़वे अनुभवों को ले कर आत्मकथा भी लिखी, जिस का नाम रखा गया ‘कांटों भरी राह पर नंगे पैर’. अजीत कुमार की आत्मकथा को पहले तो कोई प्रकाशक नहीं मिल रहा था, क्योंकि एक दलित की आत्मकथा को प्रकाशित करना उन्हें फायदे का सौदा नहीं लग रहा था, इसलिए अजीत कुमार ने अपनी आत्मकथा को ‘अमेजन किंडल’ पर प्रकाशित करने का फैसला लिया और यह आत्मकथा एक बैस्ट सैलर साबित हुई. अजीत कुमार के पास बधाइयों का तांता लग गया था. आज अपना 50वां जन्मदिन मनाने के लिए समाजसेवी अजीत कुमार एक दलित बस्ती में आया था. उसे चारों तरफ से लोगों ने घेर रखा था. अजीत कुमार के चेहरे पर एक मधुर मुसकराहट थी कि तभी भीड़ को चीरते हुए एक 25-26 साल की लड़की अजीत कुमार के पास आई और बोली, ‘‘मैं सुबोही…

आप की बहुत बड़ी फैन हूं. आप के बारे में सबकुछ आत्मकथा से जान चुकी हूं और आप के काम से प्रभावित हूं… आप से शादी करना चाहती हूं… और हां… मैं जाति से ठकुराइन हूं.’’ अजीत कुमार उस लड़की को बड़ी देर तक देखता रहा, फिर बोला, ‘‘पर, हमारी उम्र के बीच जो फासला है…?’’ ‘‘प्रेम कोई फासला नहीं जानता,’’ सुबोही ने मुसकराते हुए कहा. ‘‘पर, तुम्हें विधायकी का चुनाव तो नहीं लड़ना है न?’’ अजीत ने चुटकी ली और दोनों एकदूसरे की तरफ देख कर मुसकरा उठे. ‘‘बस करिए, अपनी आत्मकथा को कब तक निहारते रहेंगे…’’ सुबोही ने पूछा. ‘‘यह तो एक बहाना है… तुम से हुई पहली मुलाकात को याद करने का…’’ अजीत कुमार ने सुबोही से कहा.

झिलमिल सितारों का आंगन होगा

नीलमस्ती में गुनगुना रहा था, ‘‘मेरे रंग में रंगने वाली, परी हो या हो परियों की रानी,’’ तभी पीछे से उस की छोटी बहन अनु ने आ कर कहा, ‘‘भैया प्यार हो गया है क्या किसी से शादी के बाद?’’

नील बोला, ‘‘नहीं तो पर गाना तो गा ही सकता हूं.’’

अनु मुसकराते हुए अंदर चाय बनाने चली गई. तभी घर के बाहर कार के रुकने की आवाज आई. अनु ने खिड़की से देखा, राजीव भैया और मधु भाभी आ रहे थे.

अनु जब चाय ले कर कमरे में पहुंची तो राजीव भैया बोले, ‘‘अनु मेघा भाभी नहीं आई अब तक?’’

इस से पहले कि अनु कुछ बोल पाती, मम्मी बोलीं, ‘‘अरे मेघा के तो बैंक में बहुत काम चल रहा है देर रात घर में पहुंचती है. बेचारी का काम के बो झ के कारण चेहरा उतर जाता है.’’

नील बरबस बोल उठा, ‘‘अरे मम्मी बहू ही तुम्हारी काले मेघ जैसी है, तुम बेकार में ही काम को दोष दे रही हो.’’

मेघा ने तभी घर में कदम रखा था. नील की बात पर वह सकपका गई.

नील खुद ही अपने चुटकुले पर हंसने लगे. नील की मम्मी का माथा ठनका और बोलीं, ‘‘नील हंसीमजाक करने का भी एक स्तर होता है.’’

नील बोला, ‘‘मम्मी मेघा मेरी जीवनसाथी है. मेरे साथसाथ मेरे मजाक को भी सम झती है.’’

मगर मेघा को देख कर ऐसा नहीं लग रहा था. कुछ देर बाद मेघा तैयार हो कर बाहर आ गई. महरून सूट में बेहद सलोनी लग रही थी. परंतु नील बारबार मधु की तरफ देख रहा था.

राजीव नील का करीबी दोस्त था. अभी पिछले हफ्ते ही उन का विवाह हुआ था. मधु बेहद खूबसूरत थी, परंतु मेघा के तीखे नैननक्श भी कुछ कम नहीं थे.

डाइनिंगटेबल पर तरहतरह के पकवान सजे हुए थे. अनु बोली, ‘‘मधु भाभी यह फ्रूट कस्टर्ड और शाही पनीर हमारी मेघा भाभी की पसंद हैं.’’

राजीव बोल उठा, ‘‘अरे अनु, मधु कुछ भी फ्राइड या औयली नहीं लेती हैं. चेहरे पर दाने आ जाते हैं.’’

एकाएक नील प्रशंसात्मक स्वर में बोल उठा, ‘‘फिर गोरे रंग पर अलग से दिखते भी हैं. गहरे रंग में तो सब घुलमिल जाता है.’’

मेघा बोली, ‘‘हां सिवा प्यार के,’’ उस के बाद मेघा वहां रुकी नहीं और दनदनाती हुई अंदर चली गई. उस के बाद महफिल न जम सकी.

जब वे लोग जा रहे थे तो मेघा उन्हें छोड़ने बाहर भी नहीं आईर्. कमरे में घुसते ही नील बोला, ‘‘मेघा तुम बाहर क्यों नहीं आईं?’’

मेघा ने कहा, ‘‘क्योंकि मैं थक गई थी और तुम तो थे न वहां मधु का ध्यान रखने के लिए.’’

नील गुस्से में बोला, ‘‘इतनी असुरक्षित क्यों रहती हो? अगर कोई सुंदर है तो क्या उसे सुंदर कहने से मैं बेवफा हो जाऊंगा.’’

मेघा बोली, ‘‘नील मैं तुम्हारी तरह अपने पापा के साथ काम नहीं करती हूं कि जब मरजी हो तब जाओ और जब मरजी हो तब मत जाओ.’’

नील गुस्से में बोला, ‘‘बहुत घमंड है तुम्हें अपनी नौकरी का. जो भी करती हो अपने लिए करती हो. मेरे लिए तो तुम ने कभी कुछ नहीं किया है.’’

सुबह मेघा के दफ्तर जाने के बाद मम्मी नील से बोलीं, ‘‘नील, कुछ तो बिजनैस पर ध्यान दे. शादी को 7 महीने हो गए हैं. कल को तुम्हारे खर्चे भी बढ़ेंगे.’’

नील हमेशा की तरह मम्मी की बात को टाल कर चला गया. रात को खाने पर पापा गुस्से में नील से बोले, ‘‘तुम्हारा ध्यान कहां है? आज पूरा दिन तुम दफ्तर में नहीं थे. ऐसा ही रहा तो मैं तुम्हें खर्च देना बंद कर दूंगा.’’

नील बेशर्मी से बोला, ‘‘पापा, आप कमाते हो और मम्मी घर पर रहती हैं पर मेरे केस में मेरी बीवी कमाती है और मैं बाहर के काम देख लेता हूं.’’

मेघा हक्कीबक्की रह गई. अंदर कमरे में घुसते ही मेघा ने नील को आड़े हाथों लिया, ‘‘क्या तुम ने मु झ से शादी मेरी तनख्वाह के कारण की है? मैं ने तो सोचा था कि तुम घर की जिम्मेदारियां उठाओगे और मैं पैसे बचा कर एक घर खरीद लूंगी. कब तक मम्मीपापा पर बोझ बने रहेंगे.’’

नील भी गुस्से में बोला, ‘‘मैं ने भी सोचा था कि गोरीचिट्टी बीवी लाऊंगा, जो मु झे सम झेगी और मेरी मदद करेगी. पर तुम्हें तो अपनी नौकरी की बहुत अकड़ है.’’

हालांकि नील ने यह बात दिल से नहीं कही थी पर यह मेघा के दिल में फांस की तरह चुभ गई.

आज पूरा दिन बैंक में मेघा को नील का रहरह कर मधु को देखना याद आ रहा था. बारबार वह यही सोच रही थी कि क्या वह बस नील की जिंदगी में नौकरी के कारण है.

एकाएक उसे अपनी दादी की बात याद आ गई. दादी कितना कहती थीं कि बिट्टू यह गोरेपन की क्रीम लगा ले. आजकल काले को भी गोरी दुलहन चाहिए.

मेघा का जब गौरवर्ण नील से विवाह हो रहा था तो उस ने दादी से कहा था, ‘‘दादी, देखो तुम्हारी बिट्टू को गोरा दूल्हा मिल गया है और वह भी बिना फेयर ऐंड लवली के.’’

मगर आज मेघा को लगा था कि नील ने तो उस की नौकरी के कारण उस के काले रंग से सम झौता किया था.

मेघा की जिंदगी में वैसे तो सबकुछ नौर्मल था, पर एक अनकहा तनाव था, जो उस के और नील के बीच पसर गया था. नील को लगने लगा था कि मेघा को अपनी नौकरी का घमंड है तो मेघा को लगता था कि नील उस की दबी हुई रंगत के कारण अपने दोस्तों की बीवियों से हेय सम झता है. इसलिए नील उसे कभी भी अपने किसी दोस्त के घर ले कर नहीं जाता था.

उधर नील अपनी नाकामयाबियों के जाल में इतना फंस गया था कि उस ने अपना सामाजिक दायरा बहुत छोटा कर लिया था.

नील कुछ करना चाहता था. वह प्रयास भी करता पर विफल हो जाता था. पिता के व्यापार में उस का मन नहीं लगता था. वह अपने हिसाब से, अपनी तरह से काम करना चाहता था. आज उसे एक बहुत अच्छा प्रोपोजल आया था. काम ऐसा था, जिस में नील अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई को भी इस्तेमाल कर सकता था. परंतु अपने काम के लिए उसे पूंजी की जरूरत थी. नील को पता था कि  उस के पिता अपने पुराने अनुभवों के कारण उस की मदद नहीं करेंगे.

नील को लगा मेघा उस की जीवनसाथी है शायद वह उस की बात सम झ जाए. जब नील ने मेघा से कहा तो मेघा तुनक कर बोली, ‘‘अलग बिजनैस का इतना ही शौक है, तो अपनी कमाई से कर लो. मु झे तो लगता है कि तुम ने मु झ से शादी ही इस कारण से की है कि बीवी की कमाई से अपने सपने पूरे करोगे. फ्रीसैक्स मु झ से मिल ही रहा है. जेबखर्च 30 की उम्र में भी अपने पापा से लेते हो और बाहर घुमाने के लिए ये पतली, सुंदर और गोरी लड़कियां तो तुम्हारे पास होंगी ही न.’’

रात में खाने की मेज पर तनाव छाया रहा. अनु ने चुपके से पापा को सारी बात बता दी थी.

पापा ने मेघा से कहा, ‘‘बेटा एक बार नील की बात पर ठंडे दिमाग से सोचो. जब बच्चे हो जाएंगे तो वैसे ही तुम लोगों का हाथ तंग हो जाएगा.’’

मेघा भाभी फुफकार उठीं, ‘‘अच्छा बहाना ढूंढ़ा है पूरे परिवार ने पैसा उघाई का. जानती हूं एक काली लड़की का उद्धार क्यों किया है इस परिवार ने. अब कीमत तो चुकानी ही होगी न? इतना ही अच्छा बिजनैस प्रोपोजल है तो आप क्यों नहीं लगाते हो पैसा.’’

नील अपनाआपा खो बैठा और चिल्ला कर बोला, ‘‘काला तुम्हारी त्वचा का रंग नहीं पर दिल का रंग है मेघा, तुम से शादी मैं ने अपने दिल से की थी पर लगता है कुछ गलती कर दी है.’’

नील बेहद रोष में खाना अधूरा छोड़ कर चला गया था. यह जरूर था कि वह मेघा को चिढ़ाने के लिए कुछ भी बोल देता था पर उस के दिल में ऐसा कुछ नहीं था. आज मेघा वास्तव में विद्रूप लग रही थी. न जाने क्या सोच कर नील ने कार राजीव के घर की तरफ मोड़ दी थी.

3 बार घंटी बजाने के पश्चात नील मुड़ ही रहा था कि मधु ने दरवाजा खोला. एक रंग उड़ेगा उन में और छितरे हुए बालों में वह बेहद फूहड़ लग रही थी. लग ही नहीं रहा था कि उस के विवाह को एक माह ही हुआ है. अंदर का हाल देख कर तो नील चकरा ही गया. चारों तरफ कपड़ों का अंबार और धूल जमी हुई थी.

राजीव  झेंपते हुए बोला, ‘‘अरे, मधु को धूल से ऐलर्जी है. 2 दिन से कामवाली भी नहीं आ रही है.’’

मधु ट्रे में 2 कप चाय ले आई. अचानक नील को लगा कि वह कितना खुशहाल है मेघा कितनी सुघड़ है. नौकरी के साथसाथ घर भी कितनी अच्छी तरह संभालती है और एक वह है नकारा. अगर मेघा कुछ कहती भी है तो उस के भले के लिए ही कहती है. कब तक वह अपने परिवार पर बो झ बना रहेगा?

चाय पीने के बाद नील ने झिझकते हुए कहा, ‘‘राजीव यार, कुछ पैसे मिल सकते हैं क्या? मैं बिजनैस शुरू करना चाहता हूं.’’

राजीव बोला, ‘‘नील पूरी सेविंग शादी में खर्च हो गई है और मधु के नखरे देख कर लगता है अब सेविंग हो नहीं पाएगी.’’

रात में जब नील घर पहुंचा तो देखा मेघा जगी हुई थी. नील को देख कर बोली, ‘‘फोन क्यों स्विच औफ कर रखा है? नील क्या हम शांति से बात नहीं कर सकते हैं?’’

नील ने मेघा से कहा, ‘‘मेघा मैं कोशिश कर रहा हूं पर मु झे तुम्हारे साथ की जरूरत है.’’

मेघा भी भर्राए स्वर में बोली, ‘‘नील मैं जानती हूं पर जब तुम मेरे रंग पर  कटाक्ष करते हो, तु झे बहुत छोटा महसूस होता है.’’

नील बोला, ‘‘तुम पर नहीं मेघा, अपनी नाकामयाबी पर हताश हो कर कटाक्ष कर देता हूं. आज तक किसी से नहीं कहा पर मेघा बहुत कोशिश कर के भी अपनी नाकामयाबी की परछाईं से बाहर नहीं निकल पा रहा हूं. तुम अच्छी नौकरी में हो तुम नहीं सम झ सकती कि कितना मुश्किल है नाकामयाबी का बो झ ढोना.’’

मेघा सुबकते हुए बोली, ‘‘जानती हूं नील, कैसा लगता है जब लोग आप को रिजैक्ट कर देते हैं. तुम से पहले 10 लड़के मेरे रंग के कारण मु झे नकार चुके थे. तुम से विवाह के बाद ऐसा लगा जैसे सबकुछ ठीक हो गया है पर रहरह कर तुम्हारे मजाक मेरे दिल में कड़वाहट भर देते हैं.’’

नील बोला,’’ पगली ऐसा कुछ नहीं हैं, मैं ज्यादा बोलता हूं न तो कुछ भी बोल जाता हूं. तुम से ज्यादा सम झदार और प्यारी पत्नी मु झे नहीं मिल सकती है, यह मैं अच्छी तरह जानता हूं. हां तुम्हारा मु झे हेयदृष्टि से देखना पागल कर देता था और इस कारण मैं कभीकभी जानबू झ कर तुम्हें नीचा दिखाने के लिए कभीकभी कटाक्ष कर देता था.’’

 

चांद पर धब्बे – भाग 3 : नीटू को किसकी चीख सुनाई दी

शराब और दूसरे नशों की वजह से वह नामर्द हो गया था. मेरे सारे जेवर उस ने जुए में हार दिए थे, मैं फिर भी चुप रही. एक दिन कहने लगा, ‘तू बड़े भैया के साथ सो जा. हमारे घरों में तू जानती है कि यह सब आम है. अगर बच्चा हो गया तो कोई मुझे नामर्द नहीं कहेगा.’ ‘‘बस, मेरा खून खौल उठा. भैया को तो मैं ने कभी मुंह नहीं लगाया था. वे जब आते मुझे मुसकरा कर देखते. पर मेरे आदमी को कभी इस पर एतराज न हुआ. वह मेरे जिस्म की प्यास खुद बुझा नहीं पाया.

मैं खामोशी से यह दर्द भी पी रही थी. पर उस ने मुझे वेश्या बना दिया, यह सब मुझ से सहन न हुआ. ‘‘2-4 बार के बाद बड़े भैया बारबार मुझे बुलाने लगे, तो मैं तिलमिला उठी. मेरे मना करने पर मेरे पति ने उसी गुस्से में मुझे जान से मारना चाहा. मुझ पर झूठा इलजाम लगा दिया कि मैं कुलटा हूं. तब भी मैं चुप रही, इस कारण कि उस की कमजोरी के बारे में दूसरा कोई न जाने. आखिर वह मेरा मर्द था. ‘‘यह बेटी बड़े भैया की देन है, पर न तो बेटी जानती है और न भैया. उन्होंने न जाने कितनों से खेला है. कितनों से बच्चे किए हैं. बड़ी भाभी जानती हैं, पर चुप रहती हैं. मैं ने एक दिन बड़े भैया को मना किया, तो उन्होंने उबलता दूध मुझ पर डाल दिया.

‘‘उस के बाद मेरे मर्द ने खुदकुशी कर ली. मैं घर छोड़ कर निकल आई और यहां सब से यही कहा कि सोमी मेरे मर्द की बेटी है.’’ ‘‘ओह माया,’’ पद्मा के मुंह से सिर्फ एक गहरी सांस निकल गई. इस औरत की कुरबानी ने तो उसे हिला कर रख दिया था. माया आगे बोली, ‘‘मैं ने सोमी के साथ जीने का रास्ता तलाश लिया है. फिर छोटी बहू, उस के साथ उस पुरानी राह पर लौटना मुझे मंजूर न था. सोमी पढ़ रही है. पढ़ कर कोई ट्रेनिंग करा दूंगी तो अपने पैरों पर खड़ी हो जाएगी. वह कुछ बन जाए तो समझूंगी कि मेरी कुरबानी बेकार नहीं गई.’’ ‘‘चाय बन गई है मां. यहीं ले आऊं?’’

सोमी ने पुकारा, तो माया और पद्मा दोनों चौंक गईं. पद्मा ने सोमी की तरफ देखा. उस का मुसकराता चमकता चेहरा सूरज की पहली लाली जैसा लुभावना लग रहा था. बादलों से सूरज भी बाहर निकल आया था. घर लौटते समय माया और उस की बेटी भी नाव तक छोड़ने आईं. कई बार इच्छा हुई कि पर्स खोल कर उस की लड़की के हाथ पर कुछ रखने की, पर बारबार मांबेटी के चेहरे पर छाई खुशी पद्मा को रोक देती. पद्मा उन की राह का रोड़ा नहीं बनना चाहती थी. उस के पास एक दौलत थी,

अपनी इज्जत और हौसले की. और उस के साथ थी उस की बेटी, पद्मा की जेठ की बेटी. झील में काफी दूर आने पर भी सोमी का हिलता हाथ और माया के दुपट्टे का उड़ता हिस्सा पद्मा को देर तक नजर आता रहा. उस के बाद पद्मा न जाने कितनी ही बार माया के गांव गई और न जाने क्या लगता था कि सोमी को उस ने अपनी बेटी की तरह पालना शुरू कर दिया. पद्मा ने यह बात उसे नहीं बताई, क्योंकि कोई फायदा नहीं था.

बच्चे की चाह में : भौंरा ने कैसे सिखाया सबक

भौंरा की शादी हुए 5 साल हो गए थे. उस की पत्नी राजो सेहतमंद और खूबसूरत देह की मालकिन थी, लेकिन अब तक उन्हें कोई औलाद नहीं हुई थी. भौंरा अपने बड़े भाई के साथ खेतीबारी करता था. दिनभर काम कर के शाम को जब घर लौटता, सूनासूना सा घर काटने को दौड़ता.

भौंरा के बगल में ही उस का बड़ा भाई रहता था. उस की पत्नी रूपा के 3-3 बच्चे दिनभर घर में गदर मचाए रखते थे. अपना अकेलापन दूर करने के लिए राजो रूपा के बच्चों को बुला लेती और उन के साथ खुद भी बच्चा बन कर खेलने लगती. वह उन्हीं से अपना मन बहला लेती थी.

एक दिन राजो बच्चों को बुला कर उन के साथ खेल रही थी कि रूपा ने न जाने क्यों बच्चों को तुरंत वापस बुला लिया और उन्हें मारनेपीटने लगी.

उस की आवाज जोरजोर से आ रही थी, ‘‘तुम बारबार वहां मत जाया करो. वहां भूतप्रेत रहते हैं. उन्होंने उस की कोख उजाड़ दी है. वह बांझ है. तुम अपने घर में ही खेला करो.’’

राजो यह बात सुन कर उदास हो गई. कौन सी मनौती नहीं मानी थी… तमाम मंदिरों और पीरफकीरों के यहां माथा रगड़ आई, बीकमपुर वाली काली माई मंदिर की पुजारिन ने उस से कई टिन सरसों के तेल के दीए में मंदिर में जलवा दिए, लेकिन कुछ नहीं हुआ.

बीकमपुर वाला फकीर जबजब मंत्र फुंके हुए पानी में राख और पता नहीं कागज पर कुछ लिखा हुआ टुकड़ा घोल कर पीने को देता. बदले में उस से 100-100 के कई नोट ले लेता था. इतना सब करने के बाद भी उस की गोद सूनी ही रही… अब वह क्या करे?

राजो का जी चाहा कि वह खूब जोरजोर से रोए. उस में क्या कमी है जो उस की गोद खाली है? उस ने किसी का क्या बिगाड़ा है? रूपा जो कह रही थी, क्या सचमुच उस के घर में भूतप्रेत रहते हैं? लेकिन उस के साथ तो कभी ऐसी कोई अनहोनी घटना नहीं घटी, तो फिर कैसे वह यकीन करे?

राजो फिर से सोच में डूब गई, ‘लेकिन रूपा तो कह रही थी कि भूतप्रेत ही मेरी गोद नहीं भरने दे रहे हैं. हो सकता है कि रूपा सच कह रही हो. इस घर में कोई ऊपरी साया है, जो मुझे फलनेफूलने नहीं दे रहा है. नहीं तो रूपा की शादी मेरे साथ हुई थी. अब तक उस के 3-3 बच्चे हो गए हैं और मेरा एक भी नहीं. कुछ तो वजह है.’

भौंरा जब खेत से लौटा तो राजो ने उसे अपने मन की बात बताई. सुन कर भौंरा ने उसे गोद में उठा लिया और मुसकराते हुए कहा, ‘‘राजो, ये सब वाहियात बातें हैं. भूतप्रेत कुछ नहीं होता. रूपा भाभी अनपढ़गंवार हैं. वे आंख मूंद कर ऐसी बातों पर यकीन कर लेती हैं. तुम चिंता मत करो. हम कल ही अस्पताल चल कर तुम्हारा और अपना भी चैकअप करा लेते हैं.’’

भौंरा भी बच्चा नहीं होने से परेशान था. दूसरे दिन अस्पताल जाने के लिए भाई के घर गाड़ी मांगने गया. भौंरा के बड़े भाई ने जब सुना कि भौंरा राजो को अस्पताल ले जा रहा है तो उस ने भौंरा को खूब डांटा. वह कहने लगा, ‘‘अब यही बचा है. तुम्हारी औरत के शरीर से डाक्टर हाथ लगाएगा. उसे शर्म नहीं आएगी पराए मर्द से शरीर छुआने में. तुम भी बेशर्म हो गए हो.’’

‘‘अरे भैया, वहां लेडी डाक्टर भी होती हैं, जो केवल बच्चा जनने वाली औरतों को ही देखती हैं,’’ भौंरा ने समझाया.

‘‘चुप रहो. जैसा मैं कहता हूं वैसा करो. गांव के ओझा से झाड़फूंक कराओ. सब ठीक हो जाएगा.’’

भौंरा चुपचाप खड़ा रहा.

‘‘आज ही मैं ओझा से बात करता हूं. वह दोपहर तक आ जाएगा. गांव की ढेरों औरतों को उस ने झाड़ा है. वे ठीक हो गईं और उन के बच्चे भी हुए.’’

‘‘भैया, ओझा भूतप्रेत के नाम पर लोगों को ठगता है. झाड़फूंक से बच्चा नहीं होता. जिस्मानी कमजोरी के चलते भी बच्चा नहीं होता है. इसे केवल डाक्टर ही ठीक कर सकता है,’’ भौंरा ने फिर समझाया.

बड़ा भाई नहीं माना. दोपहर के समय ओझा आया. भौंरा का बड़ा भाई भी साथ था. भौंरा उस समय खेत पर गया था. राजो अकेली थी. वह राजो को ऊपर से नीचे तक घूरघूर कर देखने लगा.

राजो को ओझा मदारी की तरह लग रहा था. उस की आंखों में शैतानी चमक देख कर वह थोड़ी देर के लिए घबरा सी गई. साथ में बड़े भैया थे, इसलिए उस का डर कुछ कम हुआ.

ओझा ने ‘हुं..अ..अ’ की एक आवाज अपने मुंह से निकाली और बड़े भैया की ओर मुंह कर के बोला, ‘‘इस के ऊपर चुड़ैल का साया है. यह कभी बंसवारी में गई थी? पूछो इस से.‘‘

‘‘हां बहू, तुम वहां गई थीं क्या?’’ बड़े भैया ने पूछा.

‘‘शाम के समय गई थी मैं,’’ राजो ने कहा.

‘‘वहीं इस ने एक लाल कपडे़ को लांघ दिया था. वह चुड़ैल का रूमाल था. वह चुड़ैल किसी जवान औरत को अपनी चेली बना कर चुड़ैल विद्या सिखाना चाहती है. इस ने लांघा है. अब वह इसे डायन विद्या सिखाना चाहती है. तभी से वह इस के पीछे पड़ी है. वह इस का बच्चा नहीं होने देगी.’’

राजो यह सुन कर थरथर कांपने लगी.

‘‘क्या करना होगा?’’ बड़े भैया ने हाथ जोड़ कर पूछा.

‘‘पैसा खर्च करना होगा. मंत्रजाप से चुड़ैल को भगाना होगा,’’ ओझा ने कहा.

मंत्रजाप के लिए ओझा ने दारू, मुरगा व हवन का सामान मंगवा लिया. दूसरे दिन से ही ओझा वहां आने लगा. जब वह राजो को झाड़ने के लिए आता, रूपा भी राजो के पास आ जाती.

एक दिन रूपा को कोई काम याद आ गया. वह आ न सकी. घर में राजो को अकेला देख ओझा ने पूछा, ‘‘रूपा नहीं आई?’’

राजो ने ‘न’ में गरदन हिला दी.

ओझा ने अपना काम शुरू कर दिया. राजो ओझा के सामने बैठी थी. ओझा मुंह में कुछ बुदबुदाता हुआ राजो के पूरे शरीर को ऊपर से नीचे तक हाथ से छू रहा था. ऐसा उस ने कई बार दोहराया, फिर वह उस के कोमल अंगों को बारबार दबाने की कोशिश करने लगा.

राजो को समझते देर नहीं लगी कि ओझा उस के बदन से खेल रहा है. उस ने आव देखा न ताव एक झटके से खड़ी हो गई.

यह देख कर ओझा सकपका गया. वह कुछ बोलता, इस से पहले राजो ने दबी आवाज में उसे धमकाया, ‘‘तुम्हारे मन में क्या चल रहा है, मैं समझ रही हूं. तुम्हारी भलाई अब इसी में है कि चुपचाप यहां से दफा हो जाओ, नहीं  सचमुच मेरे ऊपर चुड़ैल सवार हो रही है.’’

ओझा ने चुपचाप अपना सामान उठाया और उलटे पैर भागा. उसी समय रूपा आ गई. उस ने सुन लिया कि राजो ने अभीअभी अपने ऊपर चुड़ैल सवार होने की बात कही है. वह नहीं चाहती थी कि राजो को बच्चा हो.

रूपा के दिमाग में चल रहा था कि राजो और भौंरा के बच्चे नहीं होंगे तो सारी जमीनजायदाद के मालिक उस के बच्चे हो जाएंगे.

भौंरा के बड़े भाई के मन में खोट नहीं था. वह चाहता था कि भौंरा और राजो के बच्चे हों. राजो को चुड़ैल अपनी चेली बनाना चाहती है, यह बात गांव वालों से छिपा कर रखी थी लेकिन रूपा जानती थी. उस की जबान बहुत चलती थी. उस ने राज की यह बात गांव की औरतों के बीच खोल दी.

धीरेधीरे यह बात पूरे गांव में फैलने लगी कि राजो बच्चा होने के लिए रात के अंधेरे में चुड़ैल के पास जाती है. अब तो गांव की औरतें राजो से कतराने लगीं. उस के सामने आने से बचने लगीं. राजो उन से कुछ पूछती भी तो वे उस से सीधे मुंह बात न कर के कन्नी काट कर निकल जातीं. पूरा गांव उसे शक की नजर से देखने लगा. राजो के बुलाने पर भी रूपा अपने बच्चों को उस के पास नहीं भेजती थी.

2-3 दिन से भौंरा का पड़ोसी रामदा का बेटा बीमार था. रामदा की पत्नी जानती थी कि राजो डायन विद्या सीख रही है. वह बेटे को गोद में उठा लाई और तेज आवाज में चिल्लाते हुए भौंरा के घर में घुसने लगी, ‘‘कहां है रे राजो डायन, तू डायन विद्या सीख रही है न… ले, मेरा बेटा बीमार हो गया है. इसे तू ने ही निशाना बनाया है. अगर अभी तू ने इसे ठीक नहीं किया तो मैं पूरे गांव में नंगा कर के नचाऊंगी.’’

शोर सुन कर लोगों की भीड़ जमा हो गई.

एक पड़ोसन फूलकली कह रही थी, ‘‘राजो ने ही बच्चे पर कुछ किया है, नहीं तो कल तक वह भलाचंगा खापी रहा था. यह सब इसी का कियाधरा है.’’

दूसरी पड़ोसन सुखिया कह रही थी, ‘‘राजो को सबक नहीं सिखाया गया तो वह गांव के सारे बच्चों को इसी तरह मार कर खा जाएगी.’’

राजो घर में अकेली थी. औरतों की बात सुन कर वह डर से रोने लगी. वह अपनेआप को कोसने लगी, ‘क्यों नहीं उन की बात मान कर अस्पताल चली गई. जेठजी के कहने में आ कर ओझा से इलाज कराना चाहा, मगर वह तो एक नंबर का घटिया इनसान था. अगर मैं उस की चाल में फंस गई होती तो भौंरा को मुंह दिखाने के लायक भी न रहती.’’

बाहर औरतें उसे घर से निकालने के लिए दरवाजा पीट रही थीं. तब तक भौंरा खेत से आ गया. अपने घर के बाहर जमा भीड़ देख कर वह डर गया, फिर हिम्मत कर के भौंरा ने पूछा, ‘‘क्या बात है भाभी, राजो को क्या हुआ है?’’

‘‘तुम्हारी औरत डायन विद्या सीख रही है. ये देखो, किशुना को क्या हाल कर दिया है. 4 दिनों से कुछ खायापीया भी नहीं है इस ने,’’ रामधनी काकी ने कहा.

गुस्से से पागल भौंरा ने गांव वालों को ललकारा, ‘‘खबरदार, किसी ने राजो पर इलजाम लगाया तो… वह मेरी जीवनसंगिनी है. उसे बदनाम मत करो. मैं एकएक को सचमुच में मार डालूंगा. किसी में हिम्मत है तो राजो पर हाथ उठा करदेख ले,’’ इतना कह कर वह रूपा भाभी का हाथ पकड़ कर खींच लाया.

‘‘यह सब इसी का कियाधरा है. बोलो भाभी, तुम ने ही गांव की औरतों को यह सब बताया है… झूठ मत बोलना. सरोजन चाची ने मुझे सबकुछ बता दिया है.’’ सरोजन चाची भी वहां सामने ही खड़ी थीं. रूपा उन्हें देख कर अंदर तक कांप गई. उस ने अपनी गलती मान ली. भौंरा ओझा को भी पकड़ लाया, ‘‘मक्कार कहीं का, तुम्हारी सजा जेल में होगी.’’

दूर खड़े बड़े भैया की नजरें झुकी हुई थीं. वे अपनी भूल पर पछतावा कर रहे थे.

कौन जिम्मेदार किशोरीलाल की मौत का

‘‘किशोरीलाल ने खुदकुशी कर ली…’’ किसी ने इतना कहा और चौराहे पर लोगों को चर्चा का यह मुद्दा मिल गया.

‘‘मगर क्यों की…?’’  भीड़ में से सवाल उछला.

‘‘अरे, अगर खुदकुशी नहीं करते, तो क्या घुटघुट कर मर जाते?’’ भीड़ में से ही किसी ने एक और सवाल उछाला.

‘‘आप के कहने का मतलब क्या है?’’ तीसरे आदमी ने सवाल पूछा.

‘‘अरे, किशोरीलाल की पत्नी कमला का संबंध मनमोहन से था. दुखी हो कर खुदकुशी न करते तो वे क्या करते?’’

‘‘अरे, ये भाई साहब ठीक कह रहे हैं. कमला किशोरीलाल की ब्याहता पत्नी जरूर थी, मगर उस के संबंध मनमोहन से थे और जब किशोरीलाल उन्हें रोकते, तब भी कमला मानती नहीं थी,’’ भीड़ में से किसी ने कहा.

चौराहे पर जितने लोग थे, उतनी ही बातें हो रही थीं. मगर इतना जरूर था कि किशोरीलाल की पत्नी कमला का चरित्र खराब था. किशोरीलाल भले ही उस के पति थे, मगर वह मनमोहन की रखैल थी. रातभर मनमोहन को अपने पास रखती थी. बेचारे किशोरीलाल अलग कमरे में पड़ेपड़े घुटते रहते थे. सुबह जब सूरज निकला, तो कमला के रोने की आवाज से आसपास और महल्ले वालों को हैरान कर गया. सब दौड़ेदौड़े घर में पहुंचे, तो देखा कि किशोरीलाल पंखे से लटके हुए थे.

यह बात पूरे शहर में फैल गई, क्योंकि यह मामला खुदकुशी का था या कत्ल का, अभी पता नहीं चला था. इसी बीच किसी ने पुलिस को सूचना दे दी. पुलिस आई और लाश को पोस्टमार्टम के लिए ले गई.

यह बात सही थी कि किशोरीलाल और कमला के बीच बनती नहीं थी. कमला किशोरीलाल को दबा कर रखती थी. दोनों के बीच हमेशा झगड़ा होता रहता था. कभीकभी झगड़ा हद पर पहुंच जाता था. यह मनमोहन कौन है? कमला से कैसे मिला? यह सब जानने के लिए कमला और किशोरीलाल की जिंदगी में झांकना होगा. जब कमला के साथ किशोरीलाल की शादी हुई थी, उस समय वे सरकारी अस्पताल में कंपाउंडर थे. किशोरीलाल की कम तनख्वाह से कमला संतुष्ट न थी. उसे अच्छी साडि़यां और अच्छा खाने को चाहिए था. वह उन से नाराज रहा करती थी.

इस तरह शादी के शुरुआती दिनों से ही उन के बीच मनमुटाव होने लगा था. कुछ दिनों के बाद कमला किशोरीलाल से नजरें चुरा कर चोरीछिपे देह धंधा करने लगी. धीरेधीरे उस का यह धंधा चलने लगा. वैसे, कमला ने लोगों को बताया था कि उस ने अगरबत्ती बनाने का घरेलू धंधा शुरू कर दिया है. इसी बीच उन के 2 बेटे हो गए, इसलिए जरूरतें और बढ़ गईं. मगर चोरीछिपे यह धंधा कब तक चल सकता था. एक दिन किशोरीलाल को इस की भनक लग गई. उन्होंने कमला से पूछा, ‘मैं यह क्या सुन रहा हूं?’

‘क्या सुन रहे हो?’ कमला ने भी अकड़ कर कहा.

‘क्या तुम देह बेचने का धंधा कर रही हो?’ किशोरीलाल ने पूछा.

‘तुम्हारी कम तनख्वाह से घर का खर्च पूरा नहीं हो पा रहा था, तो मैं ने यह धंधा अपना लिया है. कौन सा गुनाह कर दिया,’ कमला ने भी साफ बात कह कर अपने अपराध को कबूल कर लिया.

यह सुन कर किशोरीलाल को गुस्सा आया. वे कमला को थप्पड़ जड़ते हुए बोले, ‘बेगैरत, देह धंधा करती हो तुम?’

‘तो पैसे कमा कर लाओ, फिर छोड़ दूंगी यह धंधा. अरे, औरत तो ले आया, मगर उस की हर इच्छा को पूरा नहीं करता है. मैं कैसे भी कमा रही हूं, तेरे से तो नहीं मांग रही हूं,’ कमला भी जवाबी हमला करते हुए बोली और एक झटके से बाहर निकल गई.

किशोरीलाल कुछ नहीं कर पाए. इस तरह कई मौकों पर उन दोनों के बीच झगड़ा होता रहता था. इसी बीच शिक्षा विभाग से शिक्षकों की भरती हेतु थोक में नौकरियां निकलीं. कमला ने भी फार्म भर दिया. उसे सहायक टीचर के पद पर एक गांव में नौकरी मिल गई.

चूंकि गांव शहर से दूर था और उस समय आनेजाने के इतने साधन न थे, इसलिए मजबूरी में कमला को गांव में ही रहना पड़ा. गांव में रहने के चलते वह और आजाद हो गई. कमला ने 10-12 साल इसी गांव में गुजारे, फिर एक दिन उस ने अपने शहर के एक स्कूल में ट्रांसफर करवा लिया. मगर उन की लड़ाई अब भी नहीं थमी.

बच्चे अब बड़े हो रहे थे. वे भी मम्मीपापा का झगड़ा देख कर मन ही मन दुखी होते थे, मगर उन के झगड़े के बीच न पड़ते थे. जिस स्कूल में कमला पढ़ाती थी, वहीं पर मनमोहन भी थे. उन की पत्नी व बच्चे थे, मगर सभी उज्जैन में थे. मनमोहन यहां अकेले रहा करते थे. कमला और उन के बीच खिंचाव बढ़ा. ज्यादातर जगहों पर वे साथसाथ देखे गए. कई बार वे कमला के घर आते और घंटों बैठे रहते थे.

कमला भी धीरेधीरे मनमोहन के जिस्मानी आकर्षण में बंधती चली गई. ऐसे में किशोरीलाल कमला को कुछ कहते, तो वह अलग होने की धमकी देती, क्योंकि अब वह भी कमाने लगी थी. इसी बात को ले कर उन में झगड़ा बढ़ने लगा. फिर महल्ले में यह चर्चा चलती रही कि कमला के असली पति किशोरीलाल नहीं मनमोहन हैं. वे किशोरीलाल को समझाते थे कि कमला को रोको. वह कैसा खेल खेल रही है. इस से महल्ले की दूसरी लड़कियों और औरतों पर गलत असर पड़ेगा. मगर वे जितना समझाने की कोशिश करते, कमला उतनी ही शेरनी बनती.

जब भी मनमोहन कमला से मिलने घर पर आते, किशोरीलाल सड़कों पर घूमने निकल जाते और उन के जाने का इंतजार करते थे.

पिछली रात को भी वही हुआ. जब रात के 11 बजे किशोरीलाल घूम कर बैडरूम के पास पहुंचे, तो भीतर से खुसुरफुसुर की आवाजें आ रही थीं. वे सुनने के लिए खड़े हो गए. दरवाजे पर उन्होंने झांक कर देखा, तो शर्म के मारे आंखें बंद कर लीं.

सुबह किशोरीलाल की पंखे से टंगी लाश मिली. उन्होंने खुद को ही खत्म कर लिया था. घर के आसपास लोग इकट्ठा हो चुके थे. कमला की अब भी रोने की आवाज आ रही थी. इस मौत का जिम्मेदार कौन था? अब लाश के आने का इंतजार हो रहा था. शवयात्रा की पूरी तैयारी हो चुकी थी. जैसे ही लाश अस्पताल से आएगी, औपचारिकता पूरी कर के श्मशान की ओर बढ़ेगी.

तपस्या : क्या शिखर के दिल को पिघला पाई शैली?

नाजुक गुंडे : कौन थे वो नाजुक गुंडे

मुंबई से कुशीनगर ऐक्सप्रैस ट्रेन चली, तो गयादीन खुश हुआ. उस ने पत्नी को नए मोबाइल फोन से सूचना दी कि गाड़ी चल दी है और वह अच्छी तरह बैठ गया है.

गयादीन को इस घड़ी का तब से बेसब्री से इंतजार था, जब उस ने 2 महीने पहले टिकट रिजर्व कराया था. वह रेल टिकट को कई बार उलटपलट कर देखता था और हिसाब लगाता था कि सफर के कितने दिन बचे हैं.

सफर में सामान ज्यादा, खुद बुलाई मुसीबत होती है. गयादीन इस मुसीबत से बच नहीं पाता है. कितना भी कम करे, पर जब भी गांव जाता है, तो सामान बढ़ ही जाता है. इस स्लीपर बोगी में उस के जैसे सालछह महीने में कभीकभार घर जाने वाले कई मुसाफिर हैं. उन के साथ भी बहुत सामान है.

इस गाड़ी के बारे में कहा जाता है, आदमी कम सामान ज्यादा. पर आदमी कौन से कम होते हैं. हर डब्बे में ठसाठस भरे होते हैं, क्या जनरल बोगी, क्या स्लीपर बोगी.

गयादीन इस बार अपने गांव में तो मुश्किल से एकाध दिन ही ठहरेगा. पत्नी को ले कर ससुराल जाना होगा. एकलौते साले की शादी है. इस वजह से भी सामान ज्यादा हो गया है.

एक बड़ी अटैची, 2 बड़े बैग, एक प्लास्टिक की बड़ी बोरी और खानेपीने के सामान का एक थैला, जिसे उस ने खिड़की के पास लगी खूंटी पर टांग दिया था.

वैसे तो इस ट्रेन में पैंट्री कार होती है और चलती ट्रेन में ही खानेपीने का सामान बिकता है, लेकिन रेलवे की खानपान सेवा पर खर्च कर के खाली पैसे गंवाना है. पछतावे के अलावा कुछ नहीं मिलता. खानेपीने का सामान साथ हो, तो परेशानी नहीं उठानी पड़ती.

इस बार गयादीन मां के लिए 20 लिटर वाली स्टील की टंकी ले जा रहा था, जिस के चलते एक अदद बोरी का बोझ बढ़ गया था. हालांकि बोरी में बहुत सा छोटामोटा सामान भी रख लिया है. एक बैग तो वहां के मौसम को ध्यान में रखते हुए बढ़ा है.

मुंबई जैसा मौसम तो हर कहीं नहीं होता. सफर लंबा है. पहली रात तो सादा कपड़ों में कट जाएगी, पर अगले दिन और रात के लिए तो गरम कपड़ों की जरूरत होगी. कंबल भी बाहर निकालना होगा.

सुबहसुबह जब गाड़ी गोरखपुर पहुंचेगी, तो कुहरे भरी ठंड से हाड़ ही कांप जाएंगे. फिर गांव तक का खुले में बस का सफर. वहां कान भी बांधने पड़ते हैं, फिर भी सर्दी पीछा नहीं छोड़ती. लेकिन उसी पल पत्नी से मिलन और ससुराल में एकलौते साले की शादी में मिलने वाले मानसम्मान का खयाल आते ही गयादीन जोश से भर गया.

सामान ज्यादा होने की वजह से गयादीन को 2 दोस्त ट्रेन में बिठाने आए थे और वे ही बर्थ के नीचे सामान रखवा कर चले गए थे. उस की नीचे की ही बर्थ थी. कोच में सिर्फ रिजर्व टिकट वाले मुसाफिर थे. रेलवे स्टाफ ने कंफर्म टिकट वाले मुसाफिरों को ही कोच में सफर करने की इजाजत दी थी.

गयादीन ने चादर बिछाई. तकिए में हवा भरी और खिड़की की तरफ बैठ कर एक पतली सी पत्रिका निकाली. समय काटने के लिए उस ने रेलवे बुक स्टौल से कम कीमत की पत्रिका खरीद ली थी, जिस के कवर पर छपी लड़की की तसवीर ने उस का ध्यान खींचा था.

गयादीन अधलेटा हो कर पत्रिका के पन्ने पलटने लगा. सामने की बर्थ पर लेटे एक मुसाफिर ने उसे टोकते हुए सलाह दे दी, ‘‘भाई, रात बहुत हो गई है. लाइट बुझा कर सोने दो. आप भी सोओ. लंबा सफर है, दिन में पढ़ लेना.’’

साथी मुसाफिर की बात उसे ठीक लगी. पत्रिका बंद कर के पानी पी कर लाइट बुझाते हुए वह लेट गया.

दिनभर की आपाधापी के बावजूद उस की आंखों में नींद नहीं थी. एक तो घर जाने की खुशी, दूसरे सामान की चिंता.

नासिक रेलवे स्टेशन पर गाड़ी रुकी, तो भीड़ का एक रेला डब्बे में घुस आया. लोग कहते रहे कि रिजर्वेशन वाला डब्बा है, पर किसी ने नहीं सुनी. वे तीर्थ यात्री मालूम पड़ते थे और समूह में थे. उन में औरतें भी थीं.

गयादीन चादर ओढ़ कर बर्थ पर पूरा फैल कर लेट गया, ताकि उस की बर्थ पर कोई बैठ न सके, फिर भी ढीठ किस्म के 1-2 लोग यह कहते हुए थोड़ी देर का सफर है, उस के पैरों की तरफ बैठ ही गए.

गयादीन सफर में झगड़ेझंझट से बचना चाहता था, इसलिए ज्यादा विरोध नहीं किया, पर मन ही मन वह कुढ़ता रहा कि रिजर्वेशन का कोई मतलब नहीं. किसी की परेशानी को लोग समझते नहीं हैं. वह कच्ची नींद में अपने सामान पर नजर रखे रहा. हालांकि सामान को उस ने लोहे की चेन से अच्छी तरह बांध रखा था, लेकिन चोरों का क्या, चेन भी काट लेते हैं.

खैर, मनमाड़ और भुसावल स्टेशन आतेआते वे सब उतर गए. उस ने राहत की सांस ली और पूरी तरह सोने की कोशिश करने लगा. उसे नींद भी आ गई. बुरहानपुर स्टेशन पर चाय और केले बेचने वालों की आवाज से उस की नींद टूटी.

सुबह हो चुकी थी. बुरहानपुर स्टेशन का उसे इंतजार भी था. वहां मिलने वाले सस्ते और बड़े केले वह घर के लिए खरीदना चाहता था.

पर यह क्या, फिर भीड़ बढ़ने लगी. अब कंधे पर बैग टांगे या खाली हाथ दैनिक मुसाफिर ट्रेन में चढ़ आए थे. उस का अच्छाखासा तजरबा है, दैनिक मुसाफिर किसी तरह का लिहाज नहीं करते, सोते हुए को जगा देते हैं कि सवेरा हो गया और बैठ जाते हैं. एतराज करने पर भी नहीं मानते.

ट्रेन चली तो सामने वाले मुसाफिर को जगा कर गयादीन शौचालय गया. लौटा तो बीच की बर्थ खोल दी गई थी और नीचे उस की बर्थ पर कई लोग डटे थे. यही हाल सामने वाली बर्थ का था. वह कुछ देर खड़ा रहा तो एक दैनिक मुसाफिर ने उस पर तरस दिखाते हुए थोड़ा खिसक कर खिड़की की तरफ बैठने की जरा सी जगह बना दी, जहां उस का तकिया व चादर सिमटे रखे थे.

गयादीन झिझकते हुए सिकुड़ कर बैठ गया और अपने सामान पर नजर डाली. सामान महफूज था. चादर और तकिया जांघों पर रख कर खिड़की के बाहर देखने लगा. गाड़ी तेज रफ्तार से चल रही थी.

गयादीन गाल पर हाथ धरे उगते हुए सूरज को देख रहा था कि एकाएक किसी के धीमे से छूने का आभास हुआ. पलट कर देखा तो चमकती नीली सलवार और पीली कुरती वाली बहुत करीब थी. उस की कलाइयों में रंगबिरंगी चूडि़यां थीं व एक हाथ में 10-20 रुपए के कुछ नोट थे.

यह देख गयादीन अचकचा गया. उस ने मुंह ऊपर उठा कर देखा. लिपस्टिक से पुते हुए होंठों की फूहड़ मुसकराहट का वह सामना न कर सका और निगाहें नीचे कर लीं. उस ने खाली हाथ बढ़ाते हुए मर्दानी आवाज में रुपए की मांग की, ‘‘निकालो.’’

‘‘खुले पैसे नहीं हैं,’’ गयादीन ने झुंझलाहट से कहा और लापरवाही से खिड़की के बाहर देखने लगा.

‘‘कितना बड़ा नोट है राजा? सौ का, 5 सौ का, हजार का? निकालो तो सब तोड़ दूंगी,’’ भारी सी आवाज में उस ने तंज कसा.

‘‘जाओ, पैसे नहीं हैं.’’

‘‘अभी तो बड़े नोट वाले बन रहे थे और अब कहते हो कि पैसे नहीं हैं. रेल में सफर ऐसे ही कर रहे हो…’’ उस ने बेहयाई से हाथ भी मटकाया. इस बीच उस का एक साथी पास आ कर खड़ा हो गया, जो मर्दाने बदन पर साड़ी लपेटे था.

गयादीन को लगा कि अब इन से पार पाना मुश्किल है. बेमन से कमीज की जेब से 10 रुपए का एक नोट निकाला और बढ़ाया.

‘‘हायहाय, 10 का नोट… क्या आता है 10 रुपए में.’’

गयादीन ने 10 का एक और नोट निकाल कर चुपचाप बढ़ा दिया. वह उन से छुटकारा पाना चाहता था.

सलवारकुरती वाले ने दोनों नोट झट से लपक लिए और आगे बढ़ गए. वह अपने को ठगा सा महसूस करते हुए शर्मिंदा सा उन्हें देखता रह गया.

वे दूसरे मुसाफिरों से तगादा करने में लग गए थे. कोई उन का विरोध नहीं कर रहा था. सब अपने को बचा सा रहे थे.

कुछ दैनिक मुसाफिर उतरे, तो दूसरे आ गए. कुछ बिना रिजर्वेशन वाले और गुटका, तंबाकू, पेपर सोप बेचने वाले चढ़ आए. भीड़ इतनी बढ़ गई थी कि रिजर्व डब्बा जनरल डब्बे की तरह हो गया. इस बीच टिकट चैकर भी आया, पर उसे इन सब से कोई मतलब नहीं.

जब दिन चढ़ आया, तो दैनिक मुसाफिरों की आवाजाही तो जरूर कम हुई, पर बिना रिजर्व मुसाफिर बढ़ते रहे. हां, चैकिंग स्टाफ का दस्ता डब्बे में चढ़ा, तो उन के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. वे उन से जुर्माना वसूल कर रसीद पकड़ा गए.

रात में ठीक से नींद न आ पाने से गयादीन की सोने की इच्छा हो आई, पर वह लेट नहीं सकता था. वह बैठेबैठे ही ऊंघने लगा. सामने वाले मुसाफिर ने उसे जगा दिया, ‘‘अपने डब्बे में फिर गुंडे चढ़ आए हैं.’’

‘‘गुंडे, फिर से,’’ वह चौंका.

‘‘हां, हां, यह अपनेअपने इलाके के गुंडे ही तो हैं… नाजुक गुंडे.’’

अब की बार वे 4 थे. पहले वालों के मुकाबले ज्यादा हट्टेकट्टे और ढीठ. ताली बजाबजा कर बड़ी बेशर्मी से मुसाफिरों से रुपयों की मांग कर रहे थे. किसीकिसी से तो 50 के नोट तक झटक लिए थे. गयादीन के पास भी आए और ताली बजाते हुए मांग की.

गयादीन बोला, ‘‘पीछे वालों को दे चुके हैं.’’

‘‘दे चुके होंगे. लेकिन यह हमारा इलाका है.’’

‘‘इलाका तो गुंडों का होता है,’’ सामने वाले मुसाफिर ने कहा.

गयादीन को लगा कि गुंडा कहने से बुरा मान जाएंगे, पर बुरा नहीं माना. एक भौंहें मटकाते हुए बोला, ‘‘वे एमपी वाले थे. हम यूपी वाले हैं. हमारा रेट भी उन से ज्यादा है.’’

और वह दोनों से 50 का नोट लेकर ही माना. जब वे दूसरे डब्बे में चले गए, तो सामने वाला मुसाफिर बोला, ‘‘इन से पार पाना मुश्किल है. ये नंगई पर उतर आते हैं और छीनाझपटी भी कर सकते हैं. मुसाफिर बेचारा क्या करे.झगड़ाझंझट तो कर नहीं सकता.’’

‘‘इन का कोई इलाज नहीं? रेलवे पुलिस इन्हें नहीं रोकती?’’

‘‘पुलिस चाहे तो क्या नहीं कर सकती, पर आप तो जानते ही हैं. खैर,  रात के सफर में कोई परेशान नहीं करेगा. इन की शराफत है कि ये रात के सफर में मुसाफिरों को परेशान नहीं करते.’’

दोनों ने राहत की सांस ली.

अपना बेटा : मामाजी को देख क्यों परेशान हो उठे अंजलि और मुकेश

तपस्या- भाग 2 : क्या शिखर के दिल को पिघला पाई शैली?

‘ठीक है बेटी, अगर सुखनंदन भी यही कहेगा तो फिर मैं अब कभी जोर नहीं दूंगा,’ पिताजी का स्वर निराशा में डूबा हुआ था.

तभी अचानक शिखर के पिता को दिल का दौरा पड़ा था और उन्होंने अपने बेटे को सख्ती से कहा था कि वह अपने जीतेजी अपने मित्र को दिया गया वचन निभा देना चाहते हैं, उस के बाद ही वह शिखर को विदेश जाने की इजाजत देंगे. इसी दबाव में आ कर शिखर  शादी के लिए तैयार हो गया था. वह तो कुछ समझ ही नहीं पाई थी.  उस के पिता जरूर बेहद खुश थे और उन्होंने कहा था, ‘मैं न कहता था, आखिर सुखनंदन मेरा बचपन का मित्र है.’

‘पर, पिताजी…’ शैली का हृदय  अभी  भी अनचाही आशंका से धड़क रहा था.

‘तू चिंता मत कर बेटी. आखिरकार तू अपने रूप, गुण, समझदारी से सब का  दिल जीत लेगी.’

फिर गुड्डेगुडि़या की तरह ही तो आननफानन में उस की शादी की सभी रस्में अदा हो गई थीं. शादी के समय भी शिखर का तना सा चेहरा देख कर वह पल दो पल के लिए आशंकाओं से घिर गई थी. फिर सखीसहेलियों की चुहलबाजी में सबकुछ भूल गई थी.

शादी के बाद वह ससुराल आ गई थी. शादी की पहली रात मन धड़कता रहा था. आशा, उमंगें, बेचैनी और भय सब के मिलेजुले भाव थे. क्या होगा? पर शिखर आते ही एक कोने में पड़ रहा था, उस ने न कोई बातचीत की थी, न उस की ओर निहार कर देखा था.

वह कुछ समझ ही नहीं सकी थी. क्या गलती थी उस की? सुबह अंधेरे ही वह अपना सामान बांधने लगा था.

‘यह क्या, लालाजी, हनीमून पर जाने की तैयारियां भी शुरू हो गईं क्या?’ रिश्ते की किसी भाभी ने छेड़ा था.

‘नहीं, भाभी, नौकरी पर लौटना है. फिर अमरीका जाने के लिए पासपोर्ट वगैरह भी बनवाना है.’

तीर की तरह कमरे से बाहर निकल गया था वह. दूसरे कमरे में बैठी शैली ने सबकुछ सुना था. फिर दिनभर खुसरफुसर भी चलती रही थी. शायद सास ने कहा था, ‘अमरीका जाओ तो फिर बहू को भी लेते जाना.’

‘ले जाऊंगा, बाद में, पहले मुझे तो पहुंचने दो. शादी के लिए पीछे पड़े थे, हो गई शादी. अब तो चैन से बैठो.’

न चाहते हुए भी सबकुछ सुना था शैली ने. मन हुआ था कि जोर से सिसक पड़े. आखिर किस बात के लिए दंडित किया जा रहा था उसे? क्या कुसूर था उस का?

पिताजी कहा करते थे कि धीरेधीरे सब का मन जीत लेगी वह. सब सहज हो जाएगा. पर जिस का मन जीतना था वह तो दूसरे ही दिन चला गया था. एक हफ्ते बाद ही फिर दिल्ली से अमेरिका भी.

पहुंच कर पत्र भी आया था तो घर वालों के नाम. उस का कहीं कोई जिक्र नहीं था. रोती आंखों से वह देर तक घंटों पता नहीं क्याक्या सोचती रहती थी. घर में बूढ़े सासससुर थे. बड़ी शादीशुदा ननद शोभा अपने बच्चों के साथ शादी पर आई थी और अभी वहीं थी. सभी उस का ध्यान रखते थे. वे अकसर उसे घूमने भेज देते, कहते, ‘फिल्म देख आओ, बहू, किसी के साथ,’ पर पति से अपनेआप को अपमानित महसूस करती वह कहां कभी संतुष्ट हो पाती थी.

शोभा जीजी को भी अपनी ससुराल लौटना था. घर में फिर वह, मांजी और बाबूजी ही रह गए थे. महीने भर के अंदर ही उस के ससुर को दूसरा दिल का दौरा पड़ा था. सबकुछ अस्तव्यस्त हो गया. बड़ी कठिनाई से हफ्ते भर की छुट्टी ले कर शिखर भी अमेरिका से लौटा था, भागादौड़ी में ही दिन बीते थे. घर नातेरिश्तेदारों से भरा था और इस बार भी बिना उस से कुछ बोले ही वह लौट गया था.

‘मां, तुम अकेली हो, तुम्हें बहू की जरूरत है,’ यह जरूर कहा था उस ने.

शैली जब सोचने लगती है तो उसे लगता है जैसे किसी सिनेमा की रील की तरह ही सबकुछ घटित हो गया था उस के साथ. हर क्षण, हर पल वह जिस के बारे में सोचती रहती है उसे तो शायद कभी अवकाश ही नहीं था अपनी पत्नी के बारे में सोचने का या शायद उस ने उसे पत्नी रूप में स्वीकारा ही नहीं.

इधर सास का उस से स्नेह बढ़ता जा रहा था. वह उसे बेटी की तरह दुलराने लगी थीं. हर छोटीमोटी जरूरत के लिए वह उस पर आश्रित होती जा रही थीं. पति की मृत्यु तो उन्हें और बूढ़ा कर गई थी, गठिया का दर्द अब फिर बढ़ गया था. कईर् बार शैली की इच्छा होती, वापस पिता के पास लौट जाए. आगे पढ़ कर नौकरी करे. आखिर कब तक दबीघुटी जिंदगी जिएगी वह? पर सास की ममता ही उस का रास्ता रोक लेती थी.

‘‘बहूरानी, क्या लौट आई हो? मेरी दवाई मिली, बेटी? जोड़ों का दर्द फिर बढ़ गया है.’’

मां का स्वर सुन कर तंद्रा सी टूटी शैली की. शायद वह जाग गई थीं और उसे आवाज दे रही थीं.

‘‘अभी आती हूं, मांजी. आप के लिए चाय भी बना कर लाती हूं,’’ हाथमुंह धो कर सहज होने का प्रयास करने लगी थी शैली.

चाय ले कर कमरे में आई ही थी कि बाहर फाटक पर रिकशे से उतरती शोभा जीजी को देखते ही वह चौंक गई.

‘‘जीजी, आप इस तरह बिना खबर दिए. सब खैरियत तो है न? अकेले ही कैसे आईं?’’

बरामदे में ही शोभा ने उसे गले से लिपटा लिया था. अपनी आंखों को वह बारबार रूमाल से पोंछती जा रही थी.

‘‘अंदर तो चल.’’

और कमरे में आते ही उस की रुलाई फूट पड़ी थी. शोभा ने बताया कि अचानक ही जीजाजी की आंखों की रोशनी चली गई है, उन्हें अस्पताल में दाखिल करा कर वह सीधी आ रही है. डाक्टर ने कहा है कि फौरन आपरेशन होगा. कम से कम 10 हजार रुपए लगेंगे और अगर अभी आपरेशन नहीं हुआ तो आंख की रोशनी को बचाया न जा सकेगा.

तेंदूपत्ता : क्या था शर्मिष्ठा का असली सच

शर्मिष्ठा ने कार को धीमा करते हुए ब्रैक लगाई. झटका लगने से सहयात्री सीट पर बैठी जेनिथ, जो ऊंघ रही थी, की आंखें खुल गईं, उस ने आंखें मिचका कर आसपास देखा. समुद्रतट के साथ लगते गांव का कुदरती नजारा. बड़ेबड़े, ऊंचेऊंचे नारियल और पाम के पेड़, सर्वत्र नयनाभिराम हरियाली.

‘‘आप का गांव आ गया?’’

‘‘लगता तो है.’’ सड़क के किनारे लगे मील के पत्थर को पढ़ते शर्मिष्ठा ने कहा. दोढाई फुट ऊंचे, आधे सफेद आधे पीले रंग से रंगे मील के पत्थर पर अंगरेजी और मलयाली भाषा में गांव का नाम और मील की संख्या लिखी थी.

‘‘यहां भाषा की समस्या होगी?’’ जेनिथ ने पूछा.

‘नहीं, सारे भारत में से केरल सर्वसाक्षर प्रदेश है. यहां अंगरेजी भाषा सब बोल और समझ लेते हैं. मलयाली भाषा के साथसाथ अंगरेजी भाषा में बोलचाल सामान्य है.’’

‘‘तुम यहां पहले कभी आई हो?’’

‘‘नहीं, यह मेरा जन्मस्थान है, ऐसा बताते हैं. मगर मैं ने होश अमेरिका की ईसाई मिशनरी में संभाला था.’’ शर्मिष्ठा ने कहा.

‘‘तुम्हारी मेरी जीवनगाथा बिलकुल एकसमान है.’’

कार से उतर कर दोनों ने इधरउधर देखा. चारों तरफ फैले लंबेचौड़े धान के खेतों में धान की मोटीभारी बालियां लिए ऊंचेऊंचे पौधे लहरा रहे थे.

समुद्र से उठती ठंडी हवा का स्पर्श मनमस्तिष्क को ताजा कर रहा था. धान के खेतों से लगते बड़ेबड़े गुच्छों से लदे केले के पेड़ भी दिख रहे थे.

एक वृद्ध लाठी टेकता उन के समीप से गुजरा.

‘‘बाबा, यहां गांव का रास्ता कौन सा है?’’ थोड़े संकोचभरे स्वर में शर्मिष्ठा ने अंगरेजी में पूछा.

लाठी टेक कर वृद्ध खड़ा हो गया, बोला, ‘‘आप यहां बाहर से आए हो?’’ साफसुथरी अंगरेजी में उस वृद्ध ने पूछा.

‘‘जी हां.’’

‘‘यहां किस से मिलना है?’’

‘‘कौयिम्मा नाम की एक स्त्री से.’’

‘‘वह नाथर है या नादर? इस गांव में 2 कौयिम्मा हैं. एक सवर्ण जाति की है, दूसरी दलित है. पहली, आजकल सरकारी डाकबंगले में मालिन है, खाली समय में तेंदूपत्ते तोड़ कर बीडि़यां बनाती है. दूसरी, मरणासन्न अवस्था में बिस्तर पर पड़ी है.’’

फिर उस वृद्ध ने उन को एक कच्चा वृत्ताकार रास्ता दिखाया जो सरकारी डाकबंगले को जाता था. दोनों ने उस वृद्ध, जिस का नाम जौन मिथाई था और जो धर्मांतरण कर के ईसाई बना था, का धन्यवाद किया.

कार मंथर गति से चलती, डगमगाती, कच्चे रास्ते पर आगे बढ़ चली.

डाकबंगला अंगरेजों के जमाने का बना था व विशाल प्रागंण से घिरा था. चारदीवारी कहींकहीं से खस्ता थी. मगर एकमंजिली इमारत सदियों बाद भी पुख्ता थी. डाकबंगले का गेट भी पुराने जमाने की लकड़ी का बना था. गेट बंद था.

कार गेट के सामने रुकी. ‘‘यहां सुनसान है. दोपहर ढल रही है. यहां कहीं होटल होता?’’ जेनिथ ने कहा.

शर्मिष्ठा खामोश रही. उस ने कार से बाहर निकल डाकबंगले का गेट खोला और प्रागंण में झांका, सब तरफ सन्नाटा था.

एक सफेद सन के समान बालों वाली स्त्री एक क्यारी में खुरपी लिए गुड़ाई कर रही थी. उस ने सिर उठा कर शर्मिष्ठा की तरफ देखा और सधे स्वर में पूछा, ‘‘आप किस को देख रही हैं?’’

‘‘यहां कौन रहता है?’’

‘‘कोई नहीं. सरकारी डाकबंगला है. कभीकभी कोई सरकारी अफसर यहां दौरे पर आते हैं. तब उन के रहने का इंतजाम होता है,’’ वृद्ध स्त्री ने धीमेधीमे स्वर में कहा.

‘‘आप कौन हो?’’

‘मैं यहां मालिन हूं. कभीकभी खाना भी पकाना पड़ता है.’’

‘‘आप का नाम क्या है?’’

‘‘मैं कौयिम्मा नाथर हूं’’

शर्मिष्ठा खामोश नजरों से क्यारी में सब्जियों की गुड़ाई करती वृद्धा को देखती रही.

उस को अपनी मां की तलाश थी. मगर उस का पूरा नाम उस को मालूम नहीं था. कौयिम्मा नाथर या कौयिम्मा नादर.

‘‘आप को यहां डाकबंगले में  ठहरना है?’’ वृद्धा ने हाथ में पकड़ी खुरपी को एक तरफ रखते हुए कहा.

‘‘यहां कोई होटल या धर्मशाला है?’’

‘‘नहीं, यहां कौन आता है?’’

‘‘खानेपीने का इंतजाम क्या है?’’

‘‘रसोईघर है, मगर खाली बरतन हैं. लकड़ी से जलने वाला चूल्हा है. गांव की हाट से सामान ला कर खाना पका देते हैं.’’

‘‘बिस्तर वगैरा?’’

‘‘उस का इंतजाम अच्छा है.’’

‘‘यहां का मैनेजर कौन है?’’

‘‘कोई नहीं, सरकारी रजिस्टर है. ठहरने वाला खुद ही रजिस्टर में अपना नाम, पता, मकसद सब दर्ज करता है,’’ वृद्धा साफसुथरी अंगरेजी बोल रही थी.

‘‘आप अच्छी अंगरेजी बोलती हैं. कितनी पढ़ीलिखी हैं?’’

‘‘यहां मिडिल क्लास तक का सरकारी स्कूल है. ज्यादा ऊंची कक्षा तक का होता तो ज्यादा पढ़ जाती,’’ वृद्धा ने अपने मात्र मिडिल कक्षा यानी 8वीं कक्षा तक ही पढ़ेलिखे होने पर जैसे अफसोस किया.

शर्मिष्ठा और उस की अमेरिकन साथी जेनिथ को मात्र 8वीं कक्षा तक पढ़ीलिखी स्त्री को इतनी साफसुथरी अंगरेजी बोलने पर आश्चर्य हुआ.

वृद्धा ने एक बड़ा कमरा खोल दिया. साफसुथरा डबलबैड, पुराने जमाने का

2 बड़ेबड़े पंखों वाला खटरखटर करता सीलिंग फैन, आबनूस की मेज, बेत की कुरसियां.

चंद मिनटों बाद 2 कप कौफी और चावल के बने नमकीन कुरमुरे की प्लेट लिए कौयिम्मा नाथर आई.

‘‘आप पैसा दे दो, मैं गांव की हाट से सामान ले आऊं.’’

शर्मिष्ठा ने उस को 500 रुपए का एक नोट थमा दिया. एक थैला उठाए कौयिम्मा नाथर सधे कदमों से हाट की तरफ चली गई.

कौयिम्मा नाथर अच्छी कुक थी. उस ने शाकाहारी और मांसाहारी भोजन पकाया. मीठा हलवा भी बनाया. खाना खा दोनों सो गईं.

शाम को दोनों घूमने निकलीं. कौयिम्मा नाथर साथसाथ चली. बड़े खुले प्रागंण में ऊंचेऊंचे कगूंरों वाला मंदिर था.

‘‘यह प्राचीन मंदिर है. यहां दलितों प्रवेश निषेध है.’’

थोड़ा आगे खपरैलों से बनी हौलनुमा एक बड़ी झोंपड़ी थी. उस के ऊपर बांस से बनी बड़ी बूर्जि थी. उस पर एक सलीब टंगी थी.

‘‘यह चर्च है. जिन दलितों को मंदिर में प्रवेश नहीं मिलता था, वे सम्मानजनक जीवन जीने के लिए हिंदू धर्म को छोड़ कर ईसाई बन गए. उन सब ने मिल कर यह चर्च बनाया. हर रविवार को ईसाइयों का एक बड़ा समूह यहां मोमबत्ती जलाने आता है,’’ कौयिम्मा नाथर के स्वर में धर्मपरिवर्तन के लिए विवश करने वालों के प्रति रोष झलक रहा था.

मंथर गति से चलती तीनों गांव घूमने लगीं. सारा गांव बेतरतीब बसा था. कहींकहीं पक्के मकान थे, कहींकहीं खपरैलों से बनी छोटीबड़ी झोंपडि़यां.

एक बड़े मकान के प्रागंण में थोड़ीथोड़ी दूरी पर छोटीछोटी झोंपडि़यां बनी थीं.

‘‘प्रागंण की ये झोंपडि़यां क्या नौकरों के लिए हैं?’’

‘‘नहीं, ये बेटी और जंवाई की झोंपड़ी कहलाती हैं.’’

‘‘मतलब?’’

‘‘अधिकांश इलाके में मातृकुल का प्रचलन है. यहां बेटियों के पति घरजंवाई बन कर रहते आए हैं. अब इस परंपरा में धीरेधीरे परिवर्तन आ रहा है,’’ कौयिम्मा नाथर ने बताया.

‘‘मगर अलगअलग स्थानों पर झोंपडि़यां?’’

‘‘यहां बेटियां बहुतायत में होती हैं. आधा दर्जन या दर्जनभर बेटियां सामान्य बात है. शादी की रस्म साधारण सी है. जो पुरुष या लड़का, बेटी को पसंद आ जाता है उस से एक धोती लड़की को दिला दी जाती है. बस, वह उस की पत्नी बन जाती है.’’

‘‘और अगर संबंधविच्छेद करना हो तो?’’

‘‘वो भी एकदम सीधे ढंग से हो जाता है. पति का बिस्तर और चटाई लपेट कर झोंपड़ी के बाहर रख दी जाती है. पति संबंधविच्छेद हुआ समझा जाता है. वह चुपचाप अपना रास्ता पकड़ता है.’’

कौयिम्मा नाथर ने विद्रूपताभरे स्वर में कहा, ‘‘मानो, पति नहीं कोई खिलौना हो जिस को दिल भरते फेंक दिया जाता है.’’ वृद्धा ने आगे कहा, ‘‘मगर इस खिलौने की भी अपनी सामाजिक हैसियत है.’’

‘‘अच्छा, वह क्या?’’ जेनिथ, जो अब तक खामोश थी, ने पूछा.

‘‘मातृकुल परंपरा में भी पिता नाम के व्यक्ति का अपना स्थान है. समाज में अपना और संतान का सम्मान पाने के लिए किसी भद्र पुरुष की पत्नी होना या कहलाना जरूरी है.’’

शर्मिष्ठा और जेनिथ को कौयिम्मा नाथर का मंतव्य समझ आ रहा था.

‘‘आप का मतलब है कि स्त्री के गर्भ में पनप रहा बच्चा चाहे किसी असम्मानित व्यक्ति का हो मगर बच्चे को समाज में सम्मान पाने के लिए उस की माता का किसी सम्मानित पुरुष की पत्नी कहलाना जरूरी है,’’ जेनिथ ने कहा.

कौयिम्मा नाथर खामोश रही. शाम का धुंधलका गहरे अंधकार में बदल रहा था. तीनों डाकबंगले में लौट आईं.

अगली सुबह कौयिम्मा नाथर उन को नाश्ता करवाने के बाद तेंदूपत्ते की पत्तियां गोल करती, उन में तंबाकू भरती बीडि़यां बनाने बैठ गई. दोनों अपनेअपने कंधे पर कैमरा लटकाए गांव की तरफ निकलीं.

एक भारतीय लड़की और एक अंगरेज लड़की को गांव घूमते देखना ग्रामीणों के लिए सामान्य ही था. ऐसे पर्यटक वहां आतेजाते रहते थे.

चर्च का मुख्य पादरी अप्पा साहब बातूनी था. साथ ही, उस को गांव के सवर्ण या उच्च जाति वालों से खुंदक थी. सवर्ण जाति वालों के अनाचार और अपमान से त्रस्त हो कर उस ने धर्मपरिवर्तन कर ईसाईर् धर्म अपनाया था.

उस ने बताया कि कौयिम्मा नाथर एक सवर्ण जाति के परिवार से है जो गरीब परिवार था. गांव में सैकड़ों एकड़ उपजाऊ जमीन थी. जिस को आजादी से पहले तत्कालीन राजा के अधिकारी और कानूनगो ने जबरन गांव के अनेक परिवारों के नाम चढ़ा दी थी.

विवश हो उन परिवारों को खेती कर या मजदूरों से काम करवा कर राजा को लगान देना पड़ता था. एक बार लगान की वसूली के दौरान कानूनगो रास शंकरन की नजर नईनई जवान हुई कौयिम्मा नाथर पर पड़ी. उस ने उस को काबू कर लिया था.

जब उस को गर्भ ठहर गया तब कानूनगो ने कौयिम्मा को अपने एक कारिंदे कुरू कुनाल नाथर से धोती दिला दी थी. इस प्रकार कुरू नाथर कौयिम्मा का पति बन कर उस की झोंपड़ी में सोने लगा था.

जब कौयिम्मा नाथर को बेटी के रूप में एक संतान हो गई तब उस ने एक दोपहर कुरू कुनाल नाथर का बिस्तर और चटाई दरवाजे के बाहर रख दी. शाम को जब कुरू कुनाल नाथर लौटा तब उस को दरवाजा बंद मिला. तब वह चुपचाप अपना बिस्तर उठा किसी अन्य स्त्री को धोती देने चला गया.

बेटी का भविष्य भी मेरे ही समान न हो, इस आशय से कौयिम्मा नाथर ने एक रोज अपनी बेटी को ईसाई मिशनरी के अनाथालय में दे दिया था. वहां से वह बेटी केंद्रीय मिशनरी के अनाथालय में चली गई थी.

इतना वृतांत बताने के बाद पादरी खामोश हो गए. आगे की कहानी शर्मिष्ठा को मालूम थी. ईसाई मिशनरी के केंद्रीय अनाथालय से उस को अमेरिका में रहने वाले निसंतान दंपती ने गोद ले लिया था.

अब शर्मिष्ठा मल्टीनैशनल कंपनी में कार्यरत थी. जब उस को पता चला था कि वह घोष दंपती की गोद ली संतान है तो वह अपने वास्तविक मातापिता का पता लगाने के लिए भारत चली आई.

माता का पता चल गया था. पिता दो थे. एक जिस ने माता को गर्भवती किया था. दूसरा, जिस ने माता को समाज में सम्मान बनाए रखने के लिए धोती दी थी.

अजीब विडंबनात्मक स्थिति थी. सारे गांव को मालूम था. कौयिम्मा नाथर का असल पति कौन था. धोती देने वाला कौन था. तब भी थोथा सम्मान थोथी मानप्रतिष्ठा.

रिटायर्ड कानूनगो बीमार पड़ा था. उस के बड़े हवेलीनुमा मकान में पुरुषों की संख्या की अपेक्षा स्त्रियों की संख्या काफी ज्यादा थी. अपने सेवाकाल में पद के रोब में कानूनगो ने पता नहीं कितनी स्त्रियों को अपना शिकार बनाया था. बाद में बच्चे की वैध संतान कहलाने के लिए उस स्त्री को किसी जरूरतमंद से धोती दिला दी थी.

बाद में वही संतान अगर लड़की हुई, तो उस को बड़ी होने पर कोई प्रभावशाली भोगता और बाद में उस को धोती दिला दी जाती.

यह बहाना बना कर कि वे दोनों पुराने जमाने की हवेलियों पर पुस्तक लिख रही हैं, शर्मिष्ठा और जेनिथ हवेली और उस के कामुक मालिक को देख कर वापस लौट गईं.

धोती देने वाला पिता मंदिर के प्रागंण में बने एक कमरे में आश्रय लिए पड़ा था. उस को मंदिर से रोजाना भात और तरकारी मिल जाती थी. उस की इस स्थिति को देख कर शर्मिष्ठा दुखी हुई. मगर वह क्या कर सकती थी. दोनों चुपचाप डाकबंगले में लौट आईं.

दोनों पिताओं में किसी को भी शर्मिष्ठा अपना पिता नहीं कह सकती थी. मगर क्या माता उस को स्वीकार कर अपनी बेटी कहेगी? यह देखना था.

‘‘मुझे अपनी मां को पाना है, वे इसी गांव की निवासी हैं, क्या आप मदद कर सकती हैं?’’ अगली सुबह नाश्ता करते शर्मिष्ठा ने वृद्धा से सीधा सवाल किया.

‘‘उस का नाम क्या है?’’

‘‘कौयिम्मा.’’

‘‘नाथर या नादर?’’

‘‘मालूम नहीं. बस, इतना मालूम है कि कौयिम्मा है. उस ने मुझे यहां कि ईसाई मिशनरी के अनाथालय में डाल दिया था.’’

‘‘अब आप कहां रहती हो?’’

‘‘मैं अमेरिका में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में हूं. मुझे गोद लेने वाले मातापिता अमीर और प्रतिष्ठित हैं.’’

‘‘मां को ढूंढ़ कर क्या करोगी?’’

‘‘मां, मां होती है.’’

बेटी के इन शब्दों को सुन कर मां की आंखें भर आईं, वह मुंह फेर कर बाहर चली आई. रसोई में काम करते कौयिम्मा सोच रही थी, क्या करे, क्या उस को बताए कि वह उस की मां थी. मगर ऐसे में उस का भविष्य नहीं बिगड़ जाएगा.

अनाथालय ने ब्लैकहोल के समान शर्मिष्ठा के बैकग्राउंड, उस के अतीत को चूस कर उस को सिर्फ एक अनाथ की संज्ञा दे दी थी. जिस का न कोई धर्म था न कोई जाति या वर्ग. वहां वह सिर्फ एक अनाथ थी.

अब वह एक सम्मानित परिवार की बेटी थी. वैल स्टैंड थी. कौयिम्मा नाथर द्वारा यह स्वीकार करने पर कि वह उस कि मां थी, उस पर एक अवैध संतान होने का धब्बा लग सकता था.

एक निश्चय कर कौयिम्मा नाथर रसोई से बाहर आई. ‘‘मेम साहब,

आप को शायद गलतफहमी हो गई है. इस गांव में 2 कौयिम्मा हैं. एक मैं कौयिम्मा नाथर, दूसरी कौयिम्मा नादर. दोनों ही अविवाहित हैं. आप ने गांव कौन सा बताया है?’’

‘‘अप्पा नाडू.’’

‘‘यहां 3 गांवों के नाम अप्पा नाडू हैं. 2 यहां से अगली तहसील में पड़ते हैं. वहां पता करें.’’

शर्मिष्ठा खामोश थी. जेनिथ भी खामोश थी. मां बेटी को अपनी बेटी स्वीकार नहीं कर रही थी. कारण? कहीं उस का भविष्य न बिगड़ जाए. पिता को पिता कैसे कहे? कौन से पिता को पिता कहे.

कार में बैठने से पहले एक नोटों का बंडल बिना गिने बख्शिश के तौर पर शर्मिष्ठा ने अपनी जननी को थमाया और उस को प्रणाम कर कार में बैठ गई. कार वापस मुड़ गई.

‘‘कोई मां इतनी त्यागमयी भी होती है?’’ जेनिथ ने कहा.

‘‘मां मां होती है,’’ अश्रुपूरित नेत्रों से शर्मिष्ठा ने कहा. कार गति पकड़ती जा रही थी.

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