तुम्हें पाने की जिद में – भाग 2 : रत्ना की क्या जिद थी

‘आप ने तो पूर्ण स्वस्थ और सुयोग्य जीतेंद्र से मेरा विवाह किया था न? मैं ने जिंदगी की हर खुशी इन से पाई है. स्वस्थ व्यक्ति कभी बीमार भी हो सकता है तो क्या बीमार को छोड़ दिया जाता है. इन की इस बीमारी को मैं ने एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया है. दुनिया में संघर्षशील व्यक्ति न जाने कितने असंभव कार्यों को चुनौती के रूप में स्वीकार करते हैं, तो क्या मैं मानव सेवा परम धर्म के संस्कार वाले समाज में अपने पति की सेवा का प्रण नहीं ले सकती.

‘जीतेंद्र को इस हाल में छोड़ कर आप अपने दिल से पूछिए, क्या वाकई मैं आप के पास खुश रह पाऊंगी. यह मातापिता की अवहेलना से आहत हैं… पत्नी के भी साथ छोड़ देने से इन का क्या हाल होगा जरा सोचिए.

‘मम्मी, आप पुत्री मोह में आसक्त हो कर ऐसा सोच रही हैं लेकिन मैं ऐसा करना तो दूर ऐसा सोच भी नहीं सकती. हां, आप कुछ दिन यहां रुक जाइए… यश और गौरव को नानानानी का साथ अच्छा लगेगा. इन दिनों मैं उन पर ध्यान भी कम ही दे पाती हूं.’

रत्ना धीरेधीरे अपनी बात स्पष्ट कर रही थी. वह कुछ और कहती इस से पहले रत्ना के पापा, जो चुपचाप हमारी बात सुन रहे थे, उठ कर रत्ना को गले लगा कर बोले, ‘बेटी, मुझे तुम से यही उम्मीद थी. इसी तरह हौसला बनाए रहो, बेटी.’

रत्ना के निर्णय ने मेरे अंतर्मन को झकझोर दिया था. ऐसा लगा कि मेरी शिक्षा अधूरी थी. मैं ने रत्ना को जीवन संघर्ष मानने का मंत्र तो दिया मगर सहजता से जिम्मेदारियों का वहन करते हुए कर्तव्य पथ पर अग्रसर होने का पाठ मुझे रत्ना ने पढ़ाया. मैं उस के सिर पर हाथ फेर कर भरे गले से सिर्फ इतना ही कह पाई थी, ‘बेटी, मैं तुम्हारे प्यार में हार गई लेकिन तुम अपने कर्तव्यों की निष्ठा में जरूर जीतोगी.’

कुछ दिन रत्ना और बच्चों के साथ गुजार कर मैं धीरज के साथ वापस आ गई थी. हम रहते तो ग्वालियर में थे मगर मन रत्ना के आसपास ही रहता था. दोनों बेटे अपने बच्चों और पत्नी के परिवार में खुश थे. मैं उन की तरफ से निश्चिंत थी. हम सभी चिंतित थे तो बस, रत्ना पर आई मुसीबत से. धीरज छुट्टियां ले कर मेरे साथ हरसंभव कोशिश करते जबतब इंदौर पहुंचने की.

रत्ना के ससुर इस मुश्किल समय में रत्ना को सहारा दे रहे थे. उन्होंने बडे़ संघर्षों के साथ अपने दोनों बेटों को लायक बनाया था. जीतेंद्र ही आर्थिक रूप से घर को सुदृढ़ कर रहे थे. हर्ष तब मेडिकल कालिज में पढ़ रहा था. इसलिए घर की आर्थिक स्थिति डांवांडोल होने लगी थी. बीमारी की वजह से जीतेंद्र को महीनों अवकाश पर रहना पड़ता था. अनेक बार छुट्टियां अवैतनिक हो जाती थीं. दवाइयों का खर्च तो था ही. काफी समय आगरा में अस्पताल में भी रहना पड़ता था.

 

एक डाली के तीन फूल- भाग 1: 3 भाईयों ने जब सालो बाद साथ मनाई दीवाली

भाई साहब की चिट्ठी मेरे सामने मेज पर पड़ी थी. मैं उसे 3 बार पढ़ चुका था. वैसे जब औफिस संबंधी डाक के साथ भाई साहब की चिट्ठी भी मिली तो मैं चौंक गया, क्योंकि एक लंबे अरसे से हमारे  बीच एकदूसरे को पत्र लिखने का सिलसिला लगभग खत्म हो गया था. जब कभी भूलेभटके एकदूसरे का हाल पूछना होता तो या तो हम टेलीफोन पर बात कर लिया करते या फिर कंप्यूटर पर 2 पंक्तियों की इलेक्ट्रौनिक मेल भेज देते.

दूसरी तरफ  से तत्काल कंप्यूटर की स्क्रीन पर 2 पंक्तियों का जवाब हाजिर हो जाता, ‘‘रिसीव्ड योर मैसेज. थैंक्स. वी आर फाइन हियर. होप यू…’’ कंप्यूटर की स्क्रीन पर इस संक्षिप्त इलेक्ट्रौनिक चिट्ठी को पढ़ते हुए ऐसा लगता जैसे कि 2 पदाधिकारी अपनी राजकीय भाषा में एकदूसरे को पत्र लिख रहे हों. भाइयों के रिश्तों की गरमाहट तनिक भी महसूस नहीं होती.

हालांकि भाई साहब का यह पत्र भी एकदम संक्षिप्त व बिलकुल प्रासंगिक था, मगर पत्र के एकएक शब्द हृदय को छूने वाले थे. इस छोटे से कागज के टुकड़े पर कलम व स्याही से भाई साहब की उंगलियों ने जो चंद पंक्तियां लिखी थीं वे इतनी प्रभावशाली थीं कि तमाम टेलीफोन कौल व हजार इलेक्ट्रौनिक मेल इन का स्थान कभी भी नहीं ले सकती थीं. मेरे हाथ चिट्ठी की ओर बारबार बढ़ जाते और मैं हाथों में भाई साहब की चिट्ठी थाम कर पढ़ने लग जाता.

प्रिय श्याम,

कई साल बीत गए. शायद मां के गुजरने के बाद हम तीनों भाइयों ने कभी एकसाथ दीवाली नहीं मनाई. तुम्हें याद है जब तक मां जीवित थीं हम तीनों भाई देश के चाहे किसी भी कोने में हों, दीवाली पर इकट्ठे होते थे. क्यों न हम तीनों भाई अपनेअपने परिवारों सहित एक छत के नीचे इकट्ठा हो कर इस बार दीवाली को धूमधाम से मनाएं व अपने रिश्तों को मधुरता दें. आशा है तुम कोई असमर्थता व्यक्त नहीं करोगे और दीवाली से कम से कम एक दिन पूर्व देहरादून, मेरे निवास पर अवश्य पहुंच जाओगे. मैं गोपाल को भी पत्र लिख रहा हूं.

तुम्हारा भाई,

मनमोहन.

दरअसल, मां के गुजरने के बाद, यानी पिछले 25 सालों से हम तीनों भाइयों ने कभी दीवाली एकसाथ नहीं मनाई. जब तक मां जीवित थीं हम तीनों भाई हर साल दीवाली एकसाथ मनाते थे. मां हम तीनों को ही दीवाली पर गांव, अपने घर आने को बाध्य कर देती थीं. और हम चाहे किसी भी शहर में पढ़ाई या नौकरी कर रहे हों दीवाली के मौके पर अवश्य एकसाथ हो जाते थे.

हम तीनों मां के साथ लग कर गांव के अपने उस छोटे से घर को दीयों व मोमबत्तियों से सजाया करते. मां घर के भीतर मिट्टी के बने फर्श पर बैठी दीवाली की तैयारियां कर रही होतीं और हम तीनों भाई बाहर धूमधड़ाका कर रहे होते. मां मिठाई से भरी थाली ले कर बाहर चौक पर आतीं, जमीन पर घूमती चक्कर घिन्नियों व फूटते बम की चिनगारियों में अपने नंगे पैरों को बचाती हुई हमारे पास आतीं व मिठाई एकएक कर के हमारे मुंह में ठूंस दिया करतीं.

फिर वह चौक से रसोईघर में जाती सीढि़यों पर बैठ जाया करतीं और मंत्रमुग्ध हो कर हम तीनों भाइयों को मस्ती करते हुए निहारा करतीं. उस समय मां के चेहरे पर आत्मसंतुष्टि के जो भाव रहते थे, उन से ऐसा प्रतीत होता था जैसे कि दुनिया जहान की खुशियां उन के घर के आंगन में थिरक रही हैं.

हम केवल अपनी मां को ही जानते थे. पिता की हमें धुंधली सी ही याद थी. हमें मां ने ही बताया था कि पूरा गांव जब हैजे की चपेट में आया था तो हमारे पिता भी उस महामारी में चल बसे थे. छोटा यानी गोपाल उस समय डेढ़, मैं साढ़े 3 व भाई साहब 8 वर्ष के थे. मां के परिश्रमों, कुर्बानियों का कायल पूरा गांव रहता था. वस्तुत: हम तीनों भाइयों के शहरों में जा कर उच्च शिक्षा हासिल करने, उस के बाद अच्छे पदों पर आसीन होने में मां के जीवन के घोर संघर्ष व कई बलिदान निहित थे.

मां हम से कहा करतीं, तुम एक डाली के 3 फूल हो. तुम तीनों अलगअलग शहरों में नौकरी करते हो. एक छत के नीचे एकसाथ रहना तुम्हारे लिए संभव नहीं, लेकिन यह प्रण करो कि एकदूसरे के सुखदुख में तुम हमेशा साथ रहोगे और दीवाली हमेशा साथ मनाओगे.’

हम तीनों भाई एक स्वर में हां कर देते, लेकिन मां संतुष्ट न होतीं और फिर बोलतीं, ‘ऐसे नहीं, मेरे सिर पर हाथ रख कर प्रतिज्ञा करो.’

हम तीनों भाई आगे बढ़ कर मां के सिर पर हाथ रख कर प्रतिज्ञा करते, मां आत्मविभोर हो उठतीं. उन की आंखों से खुशी के आंसू छलक जाते.

मां के मरने के बाद गांव छूटा. दीवाली पर इकट्ठा होना छूटा. और फिर धीरेधीरे बहुतकुछ छूटने लगा. आपसी निकटता, रिश्तों की गरमी, त्योहारों का उत्साह सभीकुछ लुप्त हो गया.

कहा जाता है कि खून के रिश्ते इतने गहरे, इतने स्थायी होते हैं कि कभी मिटते नहीं हैं, मगर दूरी हर रिश्ते को मिटा देती है. रिश्ता चाहे दिल का हो, जज्बात का हो या खून का, अगर जीवंत रखना है तो सब से पहले आपस की दूरी को पाट कर एकदूसरे के नजदीक आना होगा.

हम तीनों भाई एकदूसरे से दूर होते गए. हम एक डाली के 3 फूल नहीं रह गए थे. हमारी अपनी टहनियां, अपने स्तंभ व अपनी अलग जड़ बन गई थीं. भाई साहब देहरादून में मकान बना कर बस गए थे. मैं मुंबई में फ्लैट खरीद कर व्यवस्थित हो गया था. गोपाल ने बेंगलुरु में अपना मकान बना लिया था. तीनों के ही अपनेअपने मकान, अपनेअपने व्यवसाय व अपनेअपने परिवार थे.

तुम्हें पाने की जिद में – भाग 1 : रत्ना की क्या जिद थी

ट्रेन में बैठते ही सुकून की सांस ली. धीरज ने सारा सामान बर्थ के नीचे एडजस्ट कर दिया था. टे्रन के चलते ही ठंडी हवा के झोंकों ने मुझे कुछ राहत दी. मैं अपने बड़े नाती गौरव की शादी में शामिल होने इंदौर जा रही हूं.

हर बार की घुटन से अलग इस बार इंदौर जाते हुए लग रहा है कि अब कष्टों का अंधेरा मेरी बेटी की जिंदगी से छंट चुका है. आज जब मैं अपनी बेटी की खुशियों में शामिल होने इंदौर जा रही हूं तो मेरा मन सफर में किसी पत्रिका में सिर छिपा कर बैठने की जगह उस की जिंदगी की किताब को पन्ने दर पन्ने पलटने का कर  रहा है.

कितने खुश थे हम जब अपनी प्यारी बिटिया रत्ना के लिए योग्य वर ढूंढ़ने में अपने सारे अनुभव और प्रयासों के निचोड़ से जीतेंद्र को सर्वथा उपयुक्त वर समझा था. आकर्षक व्यक्तित्व का धनी जीतेंद्र इंदौर के प्रतिष्ठित कालिज में सहायक प्राध्यापक है. अपने मातापिता और भाई हर्ष के साथ रहने वाले जीतेंद्र से ब्याह कर मेरी रत्ना भी परिवार का हिस्सा बन गई. गुजरते वक्त के साथ गौरव और यश भी रत्ना की गोद में आ गए. जीतेंद्र गंभीर और अंतर्मुखी थे. उन की गंभीरता ने उन्हें एकांतप्रिय बना कर नीरसता की ओर ढकेलना शुरू कर दिया था.

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जीतेंद्र के छोटे भाई चपल और हंसमुख हर्ष के मेडिकल कालिज में चयनित होते ही मातापिता का प्यार और झुकाव उस के प्रति अधिक हो गया. यों भी जोशीले हर्ष के सामने अंतर्मुखी जीतेंद्र को वे दब्बू और संकोची मानते आ रहे थे. भावी डाक्टर के आगे कालिज में लेक्चरर बेटे को मातापिता द्वारा नाकाबिल करार देना जीतेंद्र को विचलित कर गया.

बारबार नकारा और दब्बू घोषित किए जाने का नतीजा यह निकला कि जीतेंद्र गहरे अवसाद से ग्रस्त हो गए. संवेदनशील होने के कारण उन्हें जब यह एहसास और बढ़ा तो वह लिहाज की सीमाओं को लांघ कर अपने मातापिता, खासकर मां को अपना सब से बड़ा दुश्मन समझने लगे. वैचारिक असंतुलन की स्थिति में जीतेंद्र के कानों में कुछ आवाजें गूंजती प्रतीत होती थीं जिन से उत्तेजित हो कर वह अपने मातापिता को गालियां देने से भी नहीं चूकते थे.

शांत कराने या विरोध का नतीजा मारपीट और सामान फेंकने तक पहुंच जाता था. वह मां से खुद को खतरा बतला कर उन का परोसा हुआ खाना पहले उन्हें ही चखने को मजबूर करते थे. उन्हें संदेह रहता कि इस में जहर मिला होगा.

जीतेंद्र को रत्ना का अपनी सास से बात करना भी स्वीकार न था. वह हिंसक होने की स्थिति में उन का कोप भाजन नन्हे गौरव और यश को भी बनना पड़ता था.

मेरी रत्ना का सुखी संसार क्लेश का अखाड़ा बन गया था. अपने स्तर पर प्यारदुलार से जीतेंद्र के मातापिता और हर्ष ने सबकुछ सामान्य करने की कोशिश की थी मगर तब तक पानी सिर से ऊपर जा चुका था. यह मानसिक ग्रंथि कुछ पलोें में नहीं शायद बचपन से ही जीतेंद्र के मन में पल रही थी.

दौरों की बढ़ती संख्या और विकरालता को देखते हुए हर्ष और उन के मातापिता जीतेंद्र को मानसिक आरोग्यशाला आगरा ले कर गए. मनोचिकित्सक ने मेडिकल हिस्ट्री जानने के बाद कुछ परीक्षणों व सी.टी. स्केन की रिपोर्ट को देख कर उन की बीमारी को सीजोफे्रनिया बताया. उन्होंने यह भी कहा कि इस रोग का उपचार लंबा और धीमा है. रोगी के परिजनों को बहुत धैर्य और संयम से काम लेना होता है. रोगी के आक्रामक होने पर खुद का बचाव और रोगी को शांत कर दवा दे कर सुलाना कोई आसान काम नहीं था. उन्हें लगातार काउंसलिंग की आवश्यकता थी.

हम परिस्थितियों से अनजान ही रहते यदि गौरव और यश को अचंभित करने यों अचानक इंदौर न पहुंचते. हालात बदले हुए थे. जीतेंद्र बरसों के मरीज दिखाई दे रहे थे. रत्ना पति के क्रोध की निशानियों को शरीर पर छिपाती हुई मेरे गले लग गई थी. मेरा कलेजा मुंह को आ रहा था. जिस रत्ना को एक ठोकर लगने पर मैं तड़प जाती थी वही रत्ना इतने मानसिक और शारीरिक कष्टों को खुद में समेटे हुए थी.

जब कोई उपाय नहीं रहता था तो पास के नर्सिंग होम से नर्स को बुला कर हाथपांव पकड़ कर इंजेक्शन लगवाना ही आखिरी उपाय रहता था.

इतने पर भी रत्ना की आशा और  विश्वास कायम था, ‘मां, यह बीमारी लाइलाज नहीं है.’ मेरी बड़ी बहू का प्रसव समय नजदीक आ रहा था सो मैं रत्ना को हौसला दे कर भारी मन से वापस आ गई थी.

रत्ना मुझे चिंतामुक्त रखने के लिए अपनी लड़ाई खुद लड़ कर मुझे तटस्थ रखना चाहती थी. इस दौरान मेरे बेटे मयंक और आकाश जीतेंद्र को दोबारा आगरा मानसिक आरोग्यशाला ले कर गए. जीतेंद्र को वहां एडमिट किया जाना आवश्यक था, लेकिन उसे अकेले वहां छोड़ने को इन का दिल गवारा न करता और उसे काउंसलिंग और परीक्षणों के बाद आवश्यक हिदायतों और दवाओं के साथ वापस ले आते थे.

मैं बेटों के वापस आने पर पलपल की जानकारी चाहती थी. मगर वे ‘डाक्टर का कहना है कि जीतेंद्र जल्दी ही अच्छे हो जाएंगे,’ कह कर दाएंबाएं हो जाते थे.

कहां भूलता है वह दिन जब मेरे नाती यश ने रोते हुए मुझे फोन किया था. यश सुबकते हुए बहुत कुछ कहना चाह रहा था और गौरव फुसफुसा कर रोक रहा था, ‘फोन पर कुछ मत बोलो…नानी परेशान हो जाएंगी.’

लेकिन जब मैं ने उसे सबकुछ बताने का हौसला दिया तो उस ने रोतेरोते बताया, ‘नानी, आज फिर पापा ने सारा घर सिर पर उठाया हुआ है. किसी भी तरह मनाने पर दवा नहीं ले रहे हैं. मम्मी को उन्होंने जोर से जूता मारा जो उन्हें घुटने में लगा और बेचारी लंगड़ा कर चल रही हैं. मम्मी तो आप को कुछ भी बताने से मना करती हैं, मगर हम छिप कर फोन कर रहे हैं. पापा इस हालत में हमें अपने पापा नहीं लगते हैं. हमें उन से डर लगता है. नानी, आप प्लीज, जल्दी आओ,’ आगे रुंधे गले से वह कुछ न कह सका था.

तब मैं और धीरज फोन रखते ही जल्दी से इंदौर के लिए रवाना हो गए थे. उस बार मैं बेटी की जिंदगी तबाह होने से बचाने के लिए उतावलेपन से बहुत ही कड़ा निर्णय ले चुकी थी लेकिन धीरज अपने नाम के अनुरूप धैर्यवान हैं, मेरी तरह उतावले नहीं होते.

इंदौर पहुंच कर मेरे मन में हर बार की तरह जीतेंद्र के लिए कोई सहानुभूति न थी बल्कि वह मेरी बेटी की जिंदगी तबाह करने का दोषी था. तब मेरा ध्येय केवल रत्ना, यश और गौरव को वहां से मुक्त करा कर अपने साथ वापस लाना था. जीतेंद्र की इस दशा के दोषी उस के मातापिता हैं तो वही उस का ध्यान रखें. मेरी बेटी क्यों उस पागल के साथ घुटघुट कर अपना जीवन बरबाद करे.

उफ, मेरी रत्ना को कितनी यंत्रणा और दुर्दशा सहनी पड़ रही थी. जीतेंद्र सो रहे थे. उन्हें बड़ी मुश्किल से दवा दे कर सुलाया गया था.

एकांत देख कर मैं ने अपने मन की बात रत्ना के सामने रख दी थी, ‘बस, बहुत हो गई सेवा. हमारे लिए तुम बोझ नहीं हो जो जीतेंद्र की मार खा कर यहां पड़ी रहो. करने दो इस के मांबाप को इस की सेवा. तुम जरूरी सामान बांधो और बच्चों को ले कर हमारे साथ चलो.’

तब यश और गौरव सहमे हुए मेरी बात से सहमत दिखाई दे रहे थे. आखिरकार उन्होंने ही तो मुझे समस्या से उबरने के लिए यहां बुलाया था. ‘क्या सोच रही हो, रत्ना. चलने की तैयारी करो,’ मैं ने उसे चुप देख कर जोर से कहा था.

‘सोच रही हूं कि मां बेटी के प्यार में कितनी कमजोर हो जाती है. आप को इन हालात से निकलने का सब से सरल उपाय मेरा आप के साथ चलना ही लग रहा है. ‘जीवन एक संघर्ष है’ यह घुट्टी आप ने ही पिलाई है और बेटी के प्यार में यह मंत्र आप ही भूले जा रही हैं… और लोगों की तरह आप भी इन्हें पागल की उपमा दे रही हैं जबकि यह केवल एक बीमार हैं.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

पहल -भाग 1 : क्या तारेश और सोमल के ‘गे’ होने का सच सब स्वीकार कर पाए?

‘‘तारेश. यह क्या नाम रखा है मां तुम ने मेरा? एक तो नाम ऐसा और ऊपर से सर नेम का पुछल्ला तिवाड़ी… पता है स्कूल में सब मुझे कैसे चिढ़ाते हैं?’’ तारेश ने स्कूल बैग को सोफे पर पटकते हुए शिकायत की.

‘‘क्या कहते हैं?’’

‘‘तारू तिवाड़ी…खोल दे किवाड़ी…’’ तारेश गुस्से में बोला.

मां मुसकरा दीं. बोलीं, ‘‘तुम्हारा यह नाम तुम्हारी दादी ने रखा था, क्योंकि जब तुम पैदा हुए थे उस वक्त भोर होने वाली थी और आसमान में सिर्फ भोर का तारा ही दिखाई दे रहा था.’’

‘‘मगर नाम तो मेरा है न और स्कूल भी मुझे ही जाना पड़ता है दादी को नहीं. मुझे यह नाम बिलकुल पसंद नहीं… आप मेरा नाम बदल दो बस,’’ तारेश जैसे जिद पर अड़ा था.

‘‘तारेश यानी तारों का राजा यानी चांद… तुम तारेश हो तभी तो चांद सी दुलहन आएगी…’’ मां ने प्यार से समझाते हुए कहा.

‘‘नहीं चाहिए मुझे चांद सी दुलहन… मुझे तो तेज धूप और रोशनी वाला सूरज पसंद है,’’ तारेश गुस्से में चीखा. मगर तब तारेश खुद भी कहां जानता था कि उसे सूरज क्यों पसंद है.

‘‘बधाई हो, बेटी हुई है,’’ नर्स ने आ कर कहा तो तारेश जैसे सपने से जागा.

‘‘क्या मैं उसे देख सकता हूं, उसे छू सकता हूं?’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं,’’ तारेश का उतावलापन देख कर नर्स मुसकरा दी.

‘‘नर्ममुलायम… एकदम रुई के फाहे सी… इतनी छोटी कि उस की एक हथेली में ही समा गई. बंद आंखों से भी मानो उसे ही देख रही हो,’’ तारेश ने प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरा.

‘‘तुम्हारी यह निशानी बिलकुल तुम पर गई है सोमल…’’ तारेश बुदबुदाया. फिर उस ने हौले से नवजात को चूमा और उस की सैरोगेट मां की बगल में लिटा दिया.

स्कूल के दिनों से ही तारेश सब से अलग था. हालांकि वह पढ़ने में बहुत तेज था, मगर उसे लड़कियों के प्रति कोई आकर्षण नहीं था. हां, उस के स्पोर्ट्स टीचर अशोक सर उसे बहुत अच्छे लगते थे. खासकर उन का बलिष्ठ शरीर…जब वे ग्राउंड में प्रैक्टिस करवाते थे तो तारेश किनारे बैठ कर उन के चौड़े सीने और लंबी मजबूत भुजाओं को निहारा करता था. वैसे तो उस की स्पोर्ट्स में कोई खास रुचि नहीं थी, फिर भी सिर्फ अशोक सर का सानिध्य पाने के लिए वह गेम्स पीरियड में जिमनास्टिक सीखने जाने लगा. जब अशोक सर प्रैक्टिस करवाते समय उस के शरीर को यहांवहां छूते थे तो तारेश के पूरे बदन में जैसे बिजली सी दौड़ जाती थी. उस की सांसें अनियंत्रित हो जाती थीं. वह आंखें बंद कर अपने शरीर को ढीला छोड़ देता था और अशोक सर की बांहों में झूल जाता था. सब हंसने लगते तब उसे होश आता और वह शरमा कर प्रैक्टिसहौल से बाहर निकल जाता.

कालेज में भी जहां सब लड़के अपनी मनपसंद लड़की को पटाने के चक्कर में रहते, वह बस अपनेआप में ही खोया रहता. लेकिन सोमल में कुछ ऐसा था कि बस उसे देखा तो उस में डूबता ही चला गया. सोमल को भी शायद तारेश का साथ पसंद आया और जल्दी दोनों बहुत अच्छे साथी बन गए. दोनों क्लास में पीछे की सीट पर बैठ कर पूरा पीरियड न जाने क्या खुसरफुसर करते रहते. तारेश तो उस का दीवाना ही हो गया. कालेज में एक दिन की छुट्टी भी उसे नागवार लगती. वह तो शाम से ही अगली सुबह होने का इंतजार करने लगता.

कालेज खत्म कर के दोनों ने ही बिजनैस मैनेजमैंट में मास्टर डिग्री करना तय किया. दोनों साथ ही रहेंगे, सोच कर दोनों के ही घर वालों ने खुशीखुशी जाने की इजाजत दे दी. तारेश को तो जैसे मुंह मांगी मुराद मिल गई. दिल्ली के एक बड़े कालेज में दोनों को ऐडमिशन मिल गया और 1 कमरे का फ्लैट दोनों ने मिल कर किराए पर ले लिया.

सब कुछ सामान्य चल रहा था. दोनों साथसाथ कालेज जाते, साथसाथ घूमतेफिरते और मजे करते. कभी खाना बाहर खाते, कभी बाहर से मंगवाते, तो कभीकभी दोनों मिल कर रसोई में हाथ आजमाते… दोनों की जोड़ी कालेज में ‘रामलखन’ के नाम से मशहूर थी.

देखते ही देखते लास्ट सैमैस्टर आ गया और कालेज में कैंपस इंटरव्यू शुरू हो गए. लगभग सभी स्टूडैंट्स का अच्छीअच्छी कंपनियों में प्लेसमैंट हो गया. तारेश को बैंगलुरु की कंपनी ने चुना तो सोमल को हैदराबाद की कंपनी ने. पैकेज से तो दोनों ही बेहद खुश थे, मगर एकदूसरे से जुदा होना अब दोनों को ही गवारा नहीं था. घर आ कर दोनों देर तक गुमसुम बैठे रहे. क्या करें क्या न करें की स्थिति थी. मगर एक को तो छोड़ना ही पड़ेगा… चाहे नौकरी चाहे साथी.

 

सपना -भाग 3 : कौनसे सपने में खो गई थी नेहा

‘जी, क्या?’ आकाश अनजान बनते हुए पूछने लगा.

‘वही जो अभीअभी आप ने मेरे साथ किया.’

‘देखिए नेहाजी, प्लीज…’ आकाश वाक्य अधूरा छोड़ थूक सटकने लगा.

‘ओह हो, नेहाजी? अभीअभी तो मैं तुम थी?’ नेहा अब पूरी तरह आकाश पर रोब झाड़ने लगी.

‘नहीं… नहीं, नेहाजी… मैं…’ आकाश को समझ नहीं आ रहा था कि वह अब क्या कहे. उधर नेहा उस की घबराहट पर मन ही मन मुसकरा रही थी. तभी आकाश ने पलटा खाया, ‘प्लीज, नेहा,’ अचानक आकाश ने उस का हाथ थामा और तड़प के साथ इसरार भरे लहजे में कहने लगा, ‘मत सताओ न मुझे,’ आकाश नेहा का हाथ अपने होंठों के पास ले जा रहा था.

‘क्या?’ उस ने चौंकते हुए अपना हाथ पीछे झटका. अब घबराने की बारी नेहा की थी. उस ने सकुचाते हुए आकाश की आंखों में झांका. आकाश की आंखों में अब शरारत ही शरारत महसूस हो रही थी. ऐसी शरारत जो दैहिक नहीं बल्कि आत्मिक प्रेम में नजर आती है. दोनों अब खिलखिला कर हंस पड़े.

बाहर ठंड बढ़ती जा रही थी. बस का कंडक्टर शीशे के साथ की सीट पर पसरा पड़ा था. ड्राइवर बेहद धीमी आवाज में पंजाबी गाने बजा रहा था. पंजाबी गीतों की मस्ती उस पर स्पष्ट झलक रही थी. थोड़ीथोड़ी देर बाद वह अपनी सीट पर नाचने लगता. पहले तो उसे देख कर लगा शायद बस ने झटका खाया, लेकिन एकदम सीधी सड़क पर भी वह सीट पर बारबार उछलता और एक हाथ ऊपर उठा कर भांगड़ा करता, इस से समझ आया कि वह नाच रहा है. पहले तो नेहा ने समझा कि उस के हाथ स्टेयरिंग पकड़ेपकड़े थक गए हैं, तभी वह कभी दायां तो कभी बायां हाथ ऊपर उठा लेता.

उस के और ड्राइवर के बीच कैबिन का शीशा होने के कारण उस तरफ की आवाज नेहा तक नहीं आ रही थी, लेकिन बिना म्यूजिक के ड्राइवर का डांस बहुत मजेदार लग रहा था. आकाश भी ड्राइवर का डांस देख कर नेहा की तरफ देख कर मुसकरा रहा था. शायद 2 प्रेमियों के मिलन की खुशी से उत्सर्जित तरंगें ड्राइवर को भी खुशी से सराबोर कर रही थीं. मन कर रहा था कि वह भी ड्राइवर के कैबिन में जा कर उस के साथ डांस करे. नेहा के सामीप्य और संवाद से बड़ी खुशी क्या हो सकती थी? आकाश को लग रहा था कि शायद ड्राइवर उस के मन की खुशी का ही इजहार कर रहा है.

‘बाहर चलोगी?’ बस एक जगह 20 मिनट के लिए रुकी थी.

‘बाहर… किसलिए… ठंड है बाहर,’ नेहा ने खिड़की से बाहर झांकते हुए कहा.

‘चलो न प्लीज, बस दो मिनट के लिए.’

‘अरे?’ नेहा अचंभित हो कर बोली. लेकिन आकाश नेहा का हाथ थामे सीट से उठने लगा.

‘अरे…रे… रुको तो, क्या करते हो यार?’ नेहा ने बनावटी गुस्से में कहा.

‘बाहर कितनी धुंध है, पता भी है तुम्हें?’ नेहा ने आंखें दिखाते हुए कहा.

‘वही तो…’ आकाश ने लंबी सांस ली और कुछ देर बाद बोला, ‘नेहा तुम जानती हो न… मुझे धुंध की खुशबू बहुत अच्छी लगती है. सोचो, गहरी धुंध में हम दोनों बाइक पर 80-100 की स्पीड में जा रहे होते और तुम ठंड से कांपती हुई मुझ से लिपटतीं…’

‘आकाश…’ नेहा के चेहरे पर लाज, हैरानी की मुसकराहट एकसाथ फैल गई.

‘नेहा…’ आकाश ने पुकारा… ‘मैं आज तुम्हें उस आकाश को दिखाना चाहता हूं… देखो यह… आकाश आज अकेला नहीं है… देखो… उसे जिस की तलाश थी वह आज उस के साथ है.’

नेहा की मुसकराहट गायब हो चुकी थी. उस ने आकाश में चांद को देखा. न जाने उस ने कितनी रातें चांद से यह कहते हुए बिताई थीं कि तुम देखना चांद, वह रात भी आएगी जब वह अकेली नहीं होगी. इन तमाम सूनी रातों की कसम… वह रात जरूर आएगी जब उस का चांद उस के साथ होगा. तुम देखना चांद, वह आएगा… जरूर आएगा…

‘अरे, कहां खो गई? बस चली जाएगी,’ आकाश उस के कानों के पास फुसफुसाते हुए बोला. वह चुपचाप बस के भीतर चली आई. आकाश बहुत खुश था. इन चंद घंटों में वह नेहा को न जाने क्याक्या बता चुका था. पढ़ाई के लिए अमेरिका जाना और जाने से पहले पिता की जिद पूरी करने के लिए शादी करना उस की विवशता थी. अचानक मातापिता की एक कार ऐक्सिडैंट में मृत्यु हो गई. उसे वापस इंडिया लौटना पड़ा, लेकिन अपनी पत्नी को किसी और के साथ प्रेमालाप करते देख उस ने उसे तलाक दे दिया और मुक्त हो गया.

रात्रि धीरेधीरे खत्म हो रही थी. सुबह के साढ़े 3 बज रहे थे. नेहा ने समय देखा और दोबारा अपनी अमूर्त दुनिया में खो गई. जिंदगी भी कितनी अजीब है. पलपल खत्म होती जाती है. न हम समय को रोक पाते हैं और न ही जिंदगी को, खासकर तब जब सब निरर्थक सा हो जाए. बस, अब अपने गंतव्य पर पहुंचने के लिए आधे घंटे का सफर और था. बस की सवारियां अपनी मंजिल तक पहुंचेंगी या नहीं यह तो कहना आसान नहीं था, लेकिन आकाश की फ्लाइट है, वह वापस अमेरिका चला जाएगा और वह अपनी सहेली के घर शादी अटैंड कर 2 दिन बाद लौट जाएगी, अपने घर. फिर से वही… पुरानी एकाकी जिंदगी.

‘‘क्यों सोच रही हो?’’ आकाश ने ‘क्या’ के बजाय ‘क्यों’ कहा तो उस ने सिर उठा कर आकाश की तरफ देखा. उस की आंखों में प्रकाश की नई उम्मीद बिखरी नजर आ रही थी.

‘तुम जानते हो आकाश, दिल्ली बाईपास पर राधाकृष्ण की बड़ी सी मूर्ति हाल ही में स्थापित हुई है, रजत के कृष्ण और ताम्र की राधा.’

‘क्या कहना चाहती हो?’ आकाश ने असमंजस भाव से पूछा.

‘बस, यही कि कई बार कुछ चीजें दूर से कितनी सुंदर लगती हैं, पर करीब से… आकाश छूने की इच्छा धरती के हर कण की होती है लेकिन हवा के सहारे ताम्र रंजित धूल आकाश की तरफ उड़ती हुई प्रतीत तो होती है, पर कभी आकाश तक पहुंच नहीं पाती. उस की नियति यथार्थ की धरा पर गिरना और वहीं दम तोड़ना है वह कभी…’

‘राधा और कृष्ण कभी अलग नहीं हुए,’ आकाश ने भारी स्वर में कहा.

‘हां, लेकिन मरने के बाद,’ नेहा की आवाज में निराशा झलक रही थी.

‘ऐसा नहीं है नेहा, असल में राधा और कृष्ण के दिव्य प्रेम को समझना सहज नहीं,’ आकाश गंभीर स्वर में बोला.

‘क्या?’ नेहा पूछने लगी, ‘राधा और कान्हा को देख कर तुम यह सोचती हो?’ आकाश की आवाज की खनक शायद नेहा को समझ नहीं आ रही थी. वह मौन बैठी रही. आकाश पुन: बोला, ‘ऐसा नहीं है नेहा, प्रेम की अनुभूति यथार्थ है, प्रेम की तार्किकता नहीं.’

‘क्या कह रहे हो आकाश? मुझे सिर्फ प्रेम चाहिए, शाब्दिक जाल नहीं,’ नेहा जैसे अपनी नियति प्रकट कर उठी.

‘वही तो नेहा, मेरा प्यार सिर्फ नेहा के लिए है, शाश्वत प्रेम जो जन्मजन्मांतरों से है, न तुम मुझ से कभी दूर थीं और न कभी होंगी.’

‘आकाश प्लीज, मुझे बहलाओ मत, मैं इंसान हूं, मुझे इंसानी प्यार की जरूरत है तुम्हारे सहारे की, जिस में खो कर मैं अपूर्ण से पूर्ण हो जाऊं.’’

‘‘तुम्हें पता है नेहा, एक बार राधा ने कृष्ण से पूछा मैं कहां हूं? कृष्ण ने मुसकरा कर कहा, ‘सब जगह, मेरे मनमस्तिष्क, तन के रोमरोम में,’ फिर राधा ने दूसरा प्रश्न किया, ‘मैं कहां नहीं हूं?’ कृष्ण ने फिर से मुसकरा कर कहा, ‘मेरी नियति में,’ राधा पुन: बोली, ‘प्रेम मुझ से करते हो और विवाह रुक्मिणी से?’

कृष्ण ने फिर कहा, ‘राधा, विवाह 2 में होता है जो पृथकपृथक हों, तुम और मैं तो एक हैं. हम कभी अलग हुए ही नहीं, फिर विवाह की क्या आवश्यकता है?’

‘आकाश, तुम मुझे क्या समझते हो? मैं अमूर्त हूं, मेरी कामनाएं निष्ठुर हैं.’

‘तुम रुको, मैं बताता हूं तुम्हें, रुको तुम,’ आकाश उठा, इस से पहले कि नेहा कुछ समझ पाती वह जोर से पुकारने लगा. ‘खड़ी हो जाओ तुम,’ आकाश ने जैसे आदेश दिया.

‘अरे, लेकिन तुम कर क्या रहे हो?’ नेहा ने अचरज भरे स्वर में पूछा.

‘खड़ी हो जाओ, आज के बाद तुम कृष्णराधा की तरह केवल प्रेम के प्रतीक के रूप में याद रखी जाओगी, जो कभी अलग नहीं होते, जो सिर्फ नाम से अलग हैं, लेकिन वे यथार्थ में एक हैं, शाश्वत रूप से एक…’

नेहा ने देखा आकाश के हाथ में एक लिपस्टिक थी जो शायद उस ने उसी के हैंडबैग से निकाली थी, उस से आकाश ने अपनी उंगलियां लाल कर ली थीं.

‘अब सब गवाह रहना,’ आकाश ने बुलंद आवाज में कहा.

नेहा ने देखा बस का सन्नाटा टूट चुका था. सभी यात्री खड़े हो कर इस अद्भुत नजारे को देख रहे थे. इस से पहले कि वह कुछ समझ पाती आकाश की उंगलियां उस के माथे पर लाल रंग सजा चुकी थीं. लोगों ने तालियां बजा कर उन्हें आशीर्वाद दिया. उन के चेहरों पर दिव्य संतुष्टि प्रसन्नता बिखेर रही थी और मुबारकबाद, शुभकामनाओं और करतल ध्वनि के बीच अलौकिक नजारा बन गया था.

आकाश नतमस्तक हुआ और उस ने सब का आशीर्वाद लिया.

बाहर खिड़की से राधाकृष्ण की मूर्ति दिख रही थी जो अब लगातार उन के नजदीक आ रही थी… पास… और पास… जैसे आकाश और नेहा उस में समा रहे हों.

‘‘नेहा… नेहा… उठो… दिल्ली आ गया. कब तक सोई रहोगी?’’ नेहा की सहेली बेसुध पड़ी नेहा को झिंझोड़ कर उठाने का प्रयास करने लगी. कुछ देर बाद नेहा आंखें मलती हुई उठने का प्रयास करने लगी.

सफर खत्म हो गया था… मंजिल आ चुकी थी. लेकिन नेहा अब भी शायद जागना नहीं चाह रही थी. उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था… वे सब क्या था? काश, जिंदगी का सफर भी कुछ इसी तरह चलता रहे… वह पुन: सपने में खो जाना चाहती थी.

सपना -भाग 2 : कौनसे सपने में खो गई थी नेहा

नेहा को कोई चोट नहीं लगी, लेकिन एक हाथ पीछे से उस के सिर और गरदन से होता हुआ उस के चेहरे और खिड़की के बीच सट गया था. नेहा ने अपने सिर को हिलाडुला कर उस हाथ को अपने गालों तक आने दिया. कोई सर्द सी चीज उस के होंठों को छू रही थी, शायद यह वही हाथ था जो नेहा को सुखद स्पर्श प्रदान कर रहा  था. उंगलियां बड़ी कोमलता से कभी उस के गालों पर तो कभी उस के होंठों पर महसूस हो रही थीं. उंगलियों के पोरों का स्पर्श उसे अपने बालों पर भी महसूस हो रहा था. ऐसा स्पर्श जो सिर्फ प्रेमानुभूति प्रदान करता है. नेहा इस सुकून को अपने मनमस्तिष्क में कैद कर लेना चाहती थी. इस स्पर्श के प्रति वह सम्मोहित सी खिंची चली जा रही थी.

नेहा को पता नहीं था कि यह सपना था या हकीकत, लेकिन यह उस का अभीष्ट सपना था, वही सपना… उस का अपना स्वप्न… हां, वही सपनों का राजकुमार… पता नहीं क्यों उस को अकेला देख कर बरबस चला आता था. उस के गालों को छू लेता, उस की नींद से बोझिल पलकों को हौले से सहलाता, उस के चेहरे को थाम कर धीरे से अपने चेहरे के करीब ले आता. उस की सांसों की गर्माहट उसे जैसे सपने में महसूस होती. उस का सिर उस के कंधे पर टिक जाता, उस के दिल की धड़कन को वह बड़ी शिद्दत से महसूस करती, दिल की धड़कन की गूंज उसे सपने की हकीकत का स्पष्ट एहसास कराती. एक हाथ उस के चेहरे को ठुड्डी से ऊपर उठाता… वह सुकून से मुसकराने लगती.

नींद से ज्यादा वह कोई और सुखद नशा सा महसूस करने लगती. उस का बदन लरजने लगता. वह लहरा कर उस की बांहों में समा जाती. उस के होंठ भी अपने राजकुमार के होंठों से स्पर्श करने लगते. बदन में होती सनसनाहट उसे इस दुनिया से दूर ले जाती, जहां न तनहाई होती न एकाकीपन, बस एक संबल, एक पूर्णता का एहसास होता, जिस की तलाश उसे हमेशा रहती.

बस ने एक झटका लिया. उस की तंद्रा उसे मदहोशी में घेरे हुए थी. उसे अपने आसपास तूफानी सांसों की आवाज सुनाई दी. वह फिर से मुसकराने लगी, तभी पता नहीं कैसे 2 अंगारे उसी के होंठों से हट गए. वह झटके से उठी… आसपास अब भी अंधियारा फैला था. बस की खिड़की का परदा पूरी तरह तना था. उस की सीट ड्राइवर की तरफ पहले वाली थी, इसलिए जब भी सामने वाला परदा हवा से हिलता तो ड्राइवर के सामने वाले शीशे से बाहर सड़क का ट्रैफिक और बाहरी नजारा उसे वास्तविकता की दुनिया से रूबरू कराता. वह धीरे से अपनी रुकी सांस छोड़ती व प्यास से सूखे होंठों को अपनी जबान से तर करती. उस ने उड़ती नजर अपनी सहेली पर डाली, लेकिन वह अभी भी गहन निद्रा में अलमस्त और सपनों में खोई सी बेसुध दिखी.

उस की नजर अचानक अपनी साथ वाली सीट पर पड़ी. वहां एक पुरुष साया बैठा था. उस ने घबरा कर सामने हिल रहे परदे को देखा. उस की हथेलियां पसीने से लथपथ हो उठीं. डर और घबराहट में नेहा ने अपनी जैकेट को कस कर पकड़ लिया. थोड़ी हिम्मत जुटा कर, थूक सटकते हुए उस ने अपनी साथ वाली सीट को फिर देखा. वह साया अभी तक वहीं बैठा नजर आ रहा था. उसे अपनी सांस गले में अटकी महसूस हुई. अब चौकन्नी हो कर वह सीधी बैठ गई और कनखियों से उस साए को दोबारा घूरने लगी. साया अब साफ दिखाई पड़ने लगा था. बंद आंखों के बावजूद जैसे वह नेहा को ही देख रहा था. सुंदरसजीले, नौजवान के चेहरे की कशिश सामान्य नहीं थी. नेहा को यह कुछ जानापहचाना सा चेहरा लगा. नेहा भ्रमित हो गई. अभी जो स्वप्न देखा वह हकीकत था या… कहीं सच में यह हकीकत तो नहीं? क्या इसी ने उसे सोया हुआ समझ कर चुंबन किया था? उस के चेहरे की हवाइयां उड़ने लगीं.

‘क्या हुआ तुम्हें?’ यह उस साए की आवाज थी. वह फिर से अपने करीब बैठे युवक को घूरने लगी. युवक उस की ओर देखता हुआ मुसकरा रहा था.

‘क्या हुआ? तुम ठीक तो हो?’ युवक पूछने लगा, लेकिन इस बार उस के चेहरे पर हलकी सी घबराहट नजर आ रही थी. नेहा के चेहरे की उड़ी हवाइयों को देख वह युवक और घबरा गया. ‘लीजिए, पानी पी लीजिए…’ युवक ने जल्दी से अपनी पानी की बोतल नेहा को थमाते हुए कहा. नेहा मौननिस्तब्ध उसे घूरे जा रही थी. ‘पी लीजिए न प्लीज,’ युवक जिद करने लगा.

नेहा ने एक अजीब सा सम्मोहन महसूस किया और वह पानी के 2-3 घूंट पी गई.

‘अब ठीक हो न तुम?’ उस ने कहा.

नेहा के मुंह से एक भी शब्द नहीं निकला. पता नहीं क्यों युवक की बेचैनी देख कर उसे हंसी आने लगी. नेहा को हंसते देख वह युवक सकपकाने लगा. तनाव से कसे उस के कंधे अब रिलैक्स की मुद्रा में थे. अब वह आराम से बैठा था और नेहा की आंखों में आंखें डाल उसे निहारने लगा था. उस युवक की तीक्ष्ण नजरें नेहा को बेचैन करने लगीं, लेकिन युवक की कशिश नेहा को असीम सुख देती महसूस हुई.

‘आप का नाम पूछ सकती हूं?’ नेहा ने बात शुरू करते हुए पूछा.

‘आकाश,’ युवक अभी भी कुछ सकपकाया सा था.

‘मेरा नाम नहीं पूछोगे?’ नेहा खनकते स्वर में बोली.

‘जी, बताइए न, आप का नाम क्या है?’ आकाश ने व्यग्र हो कर पूछा.

‘नेहा,’ वह मुसकरा कर बोली.

‘नेहा,’ आकाश उस का नाम दोहराने लगा. नेहा को लगा जैसे आकाश कुछ खोज रहा है.

‘वैसे अभी ये सब क्या था मिस्टर?’ अचानक नेहा की आवाज में सख्ती दिखी. नेहा के ऐसे सवाल से आकाश का दिल बैठने लगा.

 

एक तीर से कई निशाने : भाग 3

मिताली को अपने पिता के मुंह से दिनेश के लिए ऐसे शब्दों का इस्तेमाल अच्छा नहीं लगा था, क्योंकि यह दिनेश ही तो था जिस ने मिताली की जान बचाई थी और वह यह भी जानती थी कि गोबर से बायोगैस बनाने का प्लांट उस के चालाक पिता इसलिए लगवाना चाहते हैं, ताकि अगले चुनाव में वे गांव वालों के सामने इसे एक उपलब्धि के तौर पर गिनाना और भुनाना चाहेंगे.

कुछ दिन तक दिनेश लगातार ठाकुर साहब से मिलने आता रहा और बात करता रहा. ठाकुर साहब आराम से बैठे रहते, जबकि दिनेश को कभी बैठने तक को नहीं कहते. वह हमेशा अदब के साथ ही खड़ा रहता. मिताली जानती थी कि उस के ठाकुर पिता दिनेश को कभी बैठने को नहीं कहेंगे, क्योंकि वे सिर्फ अपनी ऊंची जाति वालों के साथ ही उठनाबैठना पसंद करते हैं. ठाकुर साहब की हवेली के सामने वाले बाग के पास ही बायोगैस प्लांट लगने की तैयारी शुरू हो गई थी.

दिनेश देर शाम तक काम करता था. उस के साथ काम करने वालों की 6-7 लोगों की एक टीम भी थी. मिताली अकसर ही उन लोगों के पास आ जाती और उन्हें लगन के साथ काम करते देखती. कभीकभी कुछ तकनीकी बातों के बारे में दिनेश से सवालजवाब भी करती. दिनेश का ज्ञान और काम के प्रति लगन ये सब बातें मिताली को बहुत पसंद आईं और वह उस की तरफ कब खिंचती चली गई, यह मिताली को भी पता नहीं चला. मिताली ने अपना प्रेम दिनेश से छिपाया भी नहीं. दिनेश मिताली की बात सुन कर हक्काबक्का रह गया. हालांकि अंदर ही अंदर उस के मन में में भी मिताली के प्रति प्रेम पनप चुका था, पर वह जानता था कि एक दलित और ठकुराइन का प्रेम ऊंची जाति वालों को कभी रास नहीं आएगा,

इसलिए उस ने मिताली से यह सब ज्यादा गंभीरता से लेने को मना किया. ठाकुर साहब ने भी गाहेबगाहे मिताली को दिनेश से बात करते हुए देख लिया था और उन्हें यह मेलजोल पसंद नहीं आ रहा था. उन्होंने शाम को मिताली को इस तरह से दिनेश से बात करने से मना कर दिया, पर मिताली ने अपने पिता से कह ही दिया कि आखिर दिनेश में बुराई ही क्या है? वह आत्मनिर्भर है और पढ़ालिखा है. ‘‘यह सब तुझे शहर भेजने का नतीजा है… तू हमारी नाक कटवा कर रहेगी…

सुनती हो ठकुराइन, अब तुम्हारी लड़की एक नीच जाति के लड़के से इश्कबाजी करने लगी है और कहती है कि शादी भी रचाएगी… जी में आता है कि इस की गरदन ही काट दूं…’’ ठाकुर साहब का गुस्सा अपनी हद पर था. पर ठकुराइन ने बीचबचाव कर के ठाकुर साहब को शांत किया, पर अपनी आनबानशान और ऊंची जाति के मद में भरे ठाकुर साहब ने मिताली को एक कमरे में बंद कर दिया. ठाकुर साहब ने अपने गुरगों को दिनेश की हड्डीपसली तोड़ कर गांव के बाहर जाती हुई सड़क पर फेंक देने को कहा, पर इस से पहले कि वे सब दिनेश तक पहुंचते,

मिताली ने दिनेश को अपने मोबाइल से फोन कर के उस से यहां से भाग जाने को कह दिया था और यह भी बता दिया था कि अगर वह नहीं गया तो ठाकुर साहब के गुंडे उसे मार डालेंगे. यह खबर पाते ही दिनेश फौरन शहर की ओर भाग निकला. ठाकुर साहब के गुरगे दिनेश को पा न सके और हाथ मलते रह गए. हालांकि, दिनेश के इस तरह भाग जाने से ठाकुर साहब भी बहुत तिलमिलाए, पर मन ही मन उन्हें अपनी जीत का भान हो रहा था कि कम से कम उन की बेटी का एक दलित के साथ प्रेमप्रसंग तो खत्म हो गया और वे निश्चिंत भाव से मिताली के लिए एक अच्छे वर की तलाश में जुट गए. एक दिन मंदिर के पंडितजी ने ठाकुर साहब को बताया कि इस बार किसानों के खेत में आलू की फसल अच्छी नहीं हुई है और सरकार द्वारा भी

किसानों को कोई राहत नहीं दी जा रही है. कुछ किसान तो अपनी फसल सड़कों पर फेंक कर सरकार के खिलाफ गुस्सा जाहिर कर रहे हैं. पंडितजी की बात सुन कर ठाकुर साहब ने थोड़ा सोच कर कहा, ‘‘अरे तो पंडितजी, यही तो समय है जब तुम गांव वालों को ईश्वर का डर दिखा कर दान की उगाही कर सकते हो.’’ जब इस बात को पंडितजी समझ नहीं पाए तो ठाकुर साहब ने उन्हें बताया कि किसी भी कुदरती कहर को वे ईश्वर का क्रोध बताएं या मूर्तियों से नकली आंसू निकलवाएं, जिस से डर कर गांव वाले पूजापाठ और दान करेंगे, जिस से ज्यादा चढ़ावा आएगा. यह बात पंडितजी की समझ में आ गई थी. 2-3 दिन के बाद पंडितजी फिर ठाकुर साहब के पास आए. इस बार उन के साथ पैंटशर्ट पहने हुए एक आदमी भी था.

उस आदमी के हाथ में एक नक्शा था. उस ने ठाकुर साहब को बताया कि गांव के शुरुआती छोर पर बना हुआ मंदिर अब तोड़ना पड़ेगा, क्योंकि वहां से एक हाईवे निकाला जा रहा है, जिस के बदले में मंदिर के मालिक को अच्छाखासा मुआवजा भी दिया जाएगा. ‘‘पर, वह तो हमारे पुरखों का मंदिर है. उसे कोई कैसे तोड़ सकता है?’’ ठाकुर साहब थोड़ा तैश में आए, पर उन की तैश का कोई फायदा नहीं हुआ, क्योंकि उस आदमी ने मुसकराते हुए कहा कि यह तो सरकारी काम है… इस में बाधा भला कौन डाल सकता है. ठाकुर विक्रम सिंह का शातिर दिमाग समझ गया था कि सरकार ने भी आगामी चुनाव के तहत अपनी तैयारियां शुरू कर दी थीं और अब उन के पुरखों का मंदिर तोड़ा जाना तय ही था.

ठाकुर साहब ने शांत भाव से उस सरकारी आदमी को चायनाश्ता करा कर विदा कर दिया और तेजी से हुक्का गुड़गुड़ाने लगे. इस समय उन के दिमाग में एकसाथ कई चीजें चल रही थीं. शाम को ठाकुर साहब अपनी पत्नी के साथ मिताली के कमरे में गए, जहां पर वह गुमसुम बैठी हुई थी. ‘‘मिताली, तुम हमारी एकलौती बेटी हो. हम तुम्हें दुखी नहीं देख सकते, पर क्या करें… हम इस गांव के ठाकुर जो ठहरे, सब आगापीछा भी तो हमें ही देखना है न.’’ ठाकुर मिताली से प्यार जता रहे थे और उन्होंने मिताली से यह भी कहा कि उन्हें मिताली और दिनेश की शादी से एतराज नहीं है,

पर अगर उस ने इस शादी के लिए हां कर दी तो गांव वालों के सामने उस की और ठाकुर खानदान की किरकिरी हो जाएगी, इसलिए वह दिनेश को वापस बुला ले और पुरखों के मंदिर में रात के अंधेरे में चुपचाप शादी कर ले और शहर जा कर अपनी आगे की जिंदगी गुजारे. ठाकुर साहब ने अपने इस बदलाव की वजह यह बताई कि ठाकुर खानदान की सभी लड़कियों की शादी उसी मंदिर में होती आई हैं और अब उसे तोड़ने का फरमान आ गया है, इसलिए वे चाहते हैं कि मिताली भी जल्दी से जल्दी उसी मंदिर में शादी कर ले. अचानक अपने पिता के इस बरताव से मिताली हैरान तो थी, पर ठाकुर साहब की बातों में उसे सचाई भी नजर आ रही थी, इसलिए उस ने दिनेश को फोन कर के वापस आने को कहा और अपने पिता में आए इस बदलाव की वजह मिताली के प्रति ठाकुर के प्यार को बताया. दिनेश को एकदम से यकीन नहीं हुआ, पर जब उस ने इंटरनैट खंगाला तो गांव के सामने से हाईवे बनाए जाने की बात सच निकली. उसे लगा कि मिताली की बातें ठीक हैं और गांव लौटने में कोई बुराई नहीं है.

अगले दिन दिनेश ने मिताली को बताया कि वह सुबह ठीक 9 बजे कुलदेवी के मंदिर में उस का इंतजार करेगा. मिताली ने लाल जोड़ा पहना हुआ था, क्योंकि भले ही वह चोरीछिपे शादी कर रही थी, पर उसे अपने पिता की रजामंदी मिली हुई थी. ठाकुर साहब ने बड़े आराम से गाड़ी में मिताली और ठकुराइन को बिठाया और खुद भी बैठ गए. मंदिर के बाहर दिनेश मिताली का इंतजार कर रहा था. उस ने ठाकुर और ठकुराइन के पैर छूने चाहे, पर ठाकुर साहब ने यह कह कर रोक दिया कि वे लोग घर के दामाद से पैर नहीं छुआते. ठाकुर साहब ने दिनेश से कहा कि चूंकि मिताली मांगलिक है, इसलिए उस की शादी पहले एक नीम के पेड़ के साथ करनी होगी, ताकि मंगल के सब दोष खत्म हो जाएं.

इस सब में कुलमिला कर एक घंटा लगेगा और इस पूजा को दुलहन का परिवार ही देखता है, इसलिए दिनेश को मंदिर में ही रुकना होगा. दिनेश को इस बात पर यकीन नहीं हो रहा था. अभी तक तो उस ने ठाकुरों के जोरजुल्म के किस्से ही सुने थे, पर यह कैसा ठाकुर था जो अपनी बेटी का ब्याह एक दलित के साथ कर रहा था. ‘‘आओ भाई, अंदर आ जाओ,’’ पंडितजी ने दिनेश को मंदिर में बुलाया. दिनेश के पैर मंदिर में घुसते समय कांप रहे थे… ‘शायद ज्यादा खुशी के चलते ऐसा हो रहा होगा,’ दिनेश ने सोचा. पुजारी ने खुद एक स्टील की प्लेट में कुछ मिठाइयां और फल रख कर दिनेश की ओर बढ़ाए और कहा, ‘‘प्रसाद है… सारा खा लो… ऐसी रीति है.’’ दिनेश ने सिर झुका कर पंडितजी की आज्ञा का पालन किया और प्रसाद खाने लगा. बीचबीच में उस की नजरें मंदिर परिसर के बाहर दरवाजे की तरफ घूम जाती थीं.

उसे मिताली का इंतजार था. अचानक दिनेश को पेट में जलन और मरोड़ सी महसूस हुई. उस ने अपना गला पकड़ा और बाहर की ओर भागा. दिनेश को लगा कि उस का दम घुट रहा है और उस के शरीर का सारा खून बाहर की ओर आने पर आमादा है. दिनेश कुछ समझ नहीं पाया. एक अजीब सी अकड़न उस के जिस्म में फैल रही थी और उस का गला भी सूख रहा था. वह पानी तलाश रहा था. उस के गले से आवाज नहीं निकल पा रही थी. दिनेश मंदिर के बाहर लगे नल के पास पहुंच तो गया, पर उस का पानी नहीं पी सका और वहीं धड़ाम से गिर गया. उस के मुंह से झाग निकल रहा था. मिठाई में मिले जहर ने अपना काम पूरी ईमानदारी से कर दिया था. पंडितजी ने ठाकुर साहब को इस बात की जानकारी मोबाइल फोन पर दी. ठाकुर साहब मिताली के साथ लौट आए थे.

मिताली को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि अभी तो दिनेश ठीक था, इतनी देर में उसे क्या हो गया. ‘‘कुलदेवी के मंदिर में कोई दलित घुस कर उन की मूर्ति को हाथ लगाए, यह कुलदेवी को मंजूर नहीं हुआ… आखिरकार उन्होंने इस पापी को खुद ही सजा दे दी,’’ पंडितजी जोरजोर से चीख रहे थे मानो वे यह बात सब को बताना चाह रहे हों. सुबह होने तक गांव में यह खबर फैल चुकी थी और डरेसहमे हुए लोग मंदिर से कुछ दूरी पर रह कर सारा घटनाक्रम देख रहे थे. पुलिस को खबर न लगे, इसलिए ठाकुर साहब ने फौरन ही दिनेश का क्रियाकर्म करवा दिया. ‘‘कुलदेवी की मूर्ति को दलित ने छू दिया है… मूर्ति और मंदिर अपवित्र हो गए हैं, इसलिए इस मूर्ति को गंगा में प्रवाहित करना होगा और एक नई मूर्ति हवेली के ठीक सामने एक नया मंदिर बनवा कर उस में रखनी होगी,’’

ठाकुर साहब ने सब गांव वालों के सामने कहा और यह भी बता दिया कि पुराने मंदिर की जगह को वे गांव वालों की भलाई के लिए सरकार को दान दे रहे हैं, ताकि वहां से शहर आसानी से आनेजाने के लिए हाईवे बनाया जा सके. गांव वाले ठाकुर साहब की दरियादिली और दानशीलता से बहुत खुश थे. दिनेश के मर जाने से मिताली कई महीनों तक सदमे में रही और जब वह दिनेश का गम नहीं सह पाई तो उसी नदी में डूब कर उस ने अपनी जान दे दी, जहां पर दिनेश ने उसे डूबने से बचाया था. ठाकुर को बेटी के मरने का गम तो हुआ,

पर मंदिर के पुजारी ने उन्हें ज्ञान दिया कि जो हुआ वह अच्छा है. अब कम से कम ठाकुर की बेटी एक दलित से तो नहीं ब्याही जाएगी. कुलदेवी ने एक दलित को खुद सजा दी है, इस डर से नए मंदिर में गांव वालों ने जम कर दान करना शुरू कर दिया था. पंडितजी की तनख्वाह ठाकुर साहब ने अब दोगुनी कर दी थी. इस तरह ठाकुर साहब ने एक तीर से कई निशाने साध लिए थे. द्य

सपना -भाग 1 : कौनसे सपने में खो गई थी नेहा

सरपट दौड़ती बस अपने गंतव्य की ओर बढ़ रही थी. बस में सवार नेहा का सिर अनायास ही खिड़की से सट गया. उस का अंतर्मन सोचविचार में डूबा था. खूबसूरत शाम धीरेधीरे अंधेरी रात में तबदील होती जा रही थी. विचारमंथन में डूबी नेहा सोच रही थी कि जिंदगी भी कितनी अजीब पहेली है. यह कितने रंग दिखाती है? कुछ समझ आते हैं तो कुछ को समझ ही नहीं पाते? वक्त के हाथों से एक लमहा भी छिटके तो कहानी बन जाती है. बस, कुछ ऐसी ही कहानी थी उस की भी… नेहा ने एक नजर सहयात्रियों पर डाली. सब अपनी दुनिया में खोए थे. उन्हें देख कर ऐसा लग रहा था जैसे उन्हें अपने साथ के लोगों से कोई लेनादेना ही नहीं था. सच ही तो है, आजकल जिंदगी की कहानी में मतलब के सिवा और बचा ही क्या है.

वह फिर से विचारों में खो गई… मुहब्बत… कैसा विचित्र शब्द है न मुहब्बत, एक ही पल में न जाने कितने सपने, कितने नाम, कितने वादे, कितनी खुशियां, कितने गम, कितने मिलन, कितनी जुदाइयां आंखों के सामने साकार होने लगती हैं इस शब्द के मन में आते ही. कितना अधूरापन… कितनी ललक, कितनी तड़प, कितनी आहें, कितनी अंधेरी रातें सीने में तीर की तरह चुभने लगती हैं और न जाने कितनी अकेली रातों का सूनापन शूल सा बन कर नसनस में चुभने लगता है. पता नहीं क्यों… यह शाम की गहराई उस के दिल को डराने लगती है…

एसी बस के अंदर शाम का धुंधलका पसरने लगा था. बस में सवार सभी यात्री मौन व निस्तब्ध थे. उस ने लंबी सांस छोड़ते हुए सहयात्रियों पर दोबारा नजर डाली. अधिकांश यात्री या तो सो रहे थे या फिर सोने का बहाना कर रहे थे. वह शायद समझ नहीं पा रही थी. थोड़ी देर नेहा यों ही बेचैन सी बैठी रही. उस का मन अशांत था. न जाने क्यों इस शांतनीरव माहौल में वह अपनी जिंदगी की अंधेरी गलियों में गुम होती जा रही थी. कुछ ऐसी ही तो थी उस की जिंदगी, अथाह अंधकार लिए दिग्भ्रमित सी, जहां उस के बारे में सोचने वाला कोई नहीं था. आत्मसाक्षात्कार भी अकसर कितना भयावह होता है? इंसान जिन बातों को याद नहीं करना चाहता, वे रहरह कर उस के अंतर्मन में जबरदस्ती उपस्थिति दर्ज कराने से नहीं चूकतीं. जिंदगी की कमियां, अधूरापन अकसर बहुत तकलीफ देते हैं. नेहा इन से भागती आई थी लेकिन कुछ चीजें उस का पीछा नहीं छोड़ती थीं. वह अपना ध्यान बरबस उन से हटा कर कल्पनाओं की तरफ मोड़ने लगी.

उन यादों की सुखद कल्पनाएं थीं, उस की मुहब्बत थी और उसे चाहने वाला वह राजकुमार, जो उस पर जान छिड़कता था और उस से अटूट प्यार करता था.

नेहा पुन: हकीकत की दुनिया में लौटी. बस की तेज रफ्तार से पीछे छूटती रोशनी अब गुम होने लगी थी. अकेलेपन से उकता कर उस का मन हुआ कि किसी से बात करे, लेकिन यहां बस में उस की सीट के आसपास जानपहचान वाला कोई नहीं था. उस की सहेली पीछे वाली सीट पर सो रही थी. बस में भीड़ भी नहीं थी. यों तो उसे रात का सफर पसंद नहीं था, लेकिन कुछ मजबूरी थी. बस की रफ्तार से कदमताल करती वह अपनी जिंदगी का सफर पुन: तय करने लगी.

नेहा दोबारा सोचने लगी, ‘रात में इस तरह अकेले सफर करने पर उस की चिंता करने वाला कौन था? मां उसे मंझधार में छोड़ कर जा चुकी थीं. भाइयों के पास इतना समय ही कहां था कि पूछते उसे कहां जाना है और क्यों?’

रात गहरा चुकी थी. उस ने समय देखा तो रात के 12 बज रहे थे. उस ने सोने का प्रयास किया, लेकिन उस का मनमस्तिष्क तो जीवनमंथन की प्रक्रिया से मुक्त होने को तैयार ही नहीं था. सोचतेसोचते उसे कब नींद आई उसे कुछ याद नहीं. नींद के साथ सपने जुड़े होते हैं और नेहा भी सपनों से दूर कैसे रह सकती थी? एक खूबसूरत सपना जो अकसर उस की तनहाइयों का हमसफर था. उस का सिर नींद के झोंके में बस की खिड़की से टकरातेटकराते बचा. बस हिचकोले खाती हुई झटके के साथ रुकी.

 

कांटों भरी राह पर नंगे पैर : भाग 1

‘यह बताइए कि आप ने जिंदगी के 55वें साल में दूसरी शादी क्यों की? आप की पहली पत्नी भी एक सवर्ण राजपूत परिवार से थीं और दूसरी पत्नी, जो अभी महज 30 साल की हैं, भी सवर्ण हैं… क्या यह आप का सवर्णों से शादी करने का कोई खास एजेंडा है?’’ एक पत्रकार ने बातचीत के दौरान अजीत कुमार से सवाल पूछा. ‘‘देखिए, जहां तक मेरी पहली पत्नी की बात है, तो वह एक खास मकसद से मेरे पास आई और रही… दूसरी पत्नी ने भी मुझे खुद ही प्रपोज किया…

मैं खुद किसी के पास नहीं गया था,’’ अजीत कुमार ने मुसकराते हुए कहा. ‘‘पर, चाकू तरबूज पर गिरे या तरबूज चाकू पर, कटेगा तो तरबूज ही न,’’ एक महिला पत्रकार ने सवाल दागा, तो अजीत कुमार ने कहा, ‘‘हां वह तो है… किसी भी हालत में तरबूज को ही कटना होगा, चाकू तो कटने से रहा…’’ कुछ और सवालजवाब के बाद पत्रकार की बातचीत खत्म हो चुकी थी और अजीत कुमार अपनी कुरसी से उठ चुका था. अजीत कुमार एक समाजसेवी और लेखक था और लगातार दलितों के उत्थान के लिए काम कर रहा था. अजीत कुमार का लखनऊ के एक शानदार इलाके गोमती नगर में बंगला था. अपने घर के दालान में लगे हुए झूले में अजीत कुमार बैठा तो उस की पत्नी सुबोही चाय ले आई.

‘‘एक निचली जाति वाले से शादी कर के तुम्हें पछतावा तो जरूर हो रहा होगा सुबोही?’’ अजीत कुमार ने सुबोही का हाथ पकड़ते हुए पूछा. ‘‘निचली जाति नहीं, निचली समझी जाने वाली जाति कहिए,’’ सुबोही ने कहा. हाल में ही अजीत कुमार ने अपनी आत्मकथा प्रकाशित की थी और उस में बहुत सी ऐसी बातें थीं, जो बहुत से लोगों को अखर रही थीं और उन्होंने इस आत्मकथा को एक खास तबके के खिलाफ गुस्सा और जहर उगलने वाली बताया था. बहुत से लोगों ने इसे सस्ती लोकप्रियता हासिल करने का तरीका बताया था, पर सच तो यह था कि अजीत कुमार ने इस में कड़वे सच को उजागर करने वाली बातें लिखी थीं, जो लोगों को बुरी लग रही थीं.

अजीत कुमार ने अपनी आत्मकथा की एक किताब उठाई और दलितों का यह सच्चा हमदर्द अपनी जिंदगी के पुराने पन्नों की परतें पलटने लगा. अजीत कुमार तब लखनऊ की एक मलिन बस्ती में रहता था और मोबाइल फोन की एक दुकान में काम करता था. वह नई तकनीक की भी अच्छी समझ रखता था. भले ही यह शहर लखनऊ था, पर इस बस्ती के अंदर शहरीकरण का कोई नामोनिशान नहीं था. यहां पर जिंदगी जरूर थी, पर जीने की बुनियादी सुविधाएं तक नहीं थीं. इस बस्ती के बाशिंदे छोटे काम और साफसफाई करने वाले थे.

 

कांटों भरी राह पर नंगे पैर : भाग 2

21 साल के अजीत कुमार के पिताजी सफाई मुलाजिमों के सुपरवाइजर थे. इस बस्ती में रहने वाले लोग उन्हें दिल से इज्जत देते थे. एक बार बस्ती में कलुआ की अम्मां बीमार पड़ गईं. उन्हें तेज बुखार था. आसपास के लोग फौरन एक ओझा के पास पहुंचे और उन्हें ठीक करने की गुहार लगाई. ओझा ने अम्मां की कलाई पकड़ी और उन की पलकों को देखा. अम्मां के आसपास कुछ धुआं सा फैलाने के बाद एक अनूठी भाषा में न जाने क्याक्या बोलने लगा.

इस सारे काम को अजीत कुमार बड़ी देर से देख रहा था. पहले तो वह जिज्ञासावश ओझा की हरकतों का रस लेता रहा, पर थोड़ी देर बाद उसे लगा कि यह तरीका किसी भी बीमारी को भगाने का तो हो नहीं सकता, इसलिए वह कलुआ के पास जा कर खड़ा हो गया और उस ने लोगों से मरीज को डाक्टर के पास ले जाने के लिए कहा. एक छोटे लड़के की बात सुन कर ओझा उसे घूरने लगा. ‘‘नहीं भैया, यह वाला बुखार तो हमारे ओझाजी ही सही करते हैं, कोई भी डाक्टर सही नहीं कर पाएगा,’’ किसी ने कहा. बस्ती वालों के दिमाग में जो सालों से कूड़ा भरा गया था, वे बेचारे उसी के हिसाब से बात कर रहे थे, पर अजीत कुमार लगातार कलुआ की अम्मां को डाक्टर के पास ले जाने की जिद कर रहा था, जबकि बस्ती के लोग झाड़फूंक पर ही जोर दे रहे थे. जब काफी देर तक ओझा से कोई फायदा होता नहीं दिखा,

तब अजीत कुमार से रहा नहीं गया और वह कलुआ की अम्मां को उन के सिर के पास से पकड़ कर उठाने लगा, जिस पर बहुत से लोगों ने विरोध प्रकट किया और उसे ऐसा करने से रोक भी दिया. ‘‘हमारा इलाज ऐसे ही होता आया है और आगे भी ऐसे ही होता रहेगा,’’ एक आदमी बोला और ओझा को उस का काम आगे बढ़ाने को कहने लगा. अजीत कुमार ने हार मान ली, क्योंकि वह समझ गया था कि इन लोगों का जाति के नाम पर इस तरह से ब्रेन वाश किया जा चुका है कि ये सभी अपनेआप को समाज की मुख्यधारा से अलग ही मानने लगे हैं. ओझा का तंत्रमंत्र काम न आया.

कुछ दिन बाद ही कलुआ की अम्मां की मौत हो गई. कुछ दिन बाद महल्ले के बाहर धार्मिक कार्यक्रम होना था, जिस के लिए चंदे की उगाही की जा रही थी. कुछ लोग अजीत कुमार के महल्ले में भी चंदा मांगने आए तो लोग अपनी पूरी श्रद्धा से चंदा देने लग गए. अजीत कुमार को जब यह पता चला, तब उस ने चंदा देने का विरोध करते हुए कहा कि जब हम किसी तरह के धार्मिक कार्यक्रम में शामिल नहीं होते तो चंदा भी क्यों दें? पर बस्ती के लोगों ने उस की इस बात का पुरजोर विरोध किया और बोले कि अगर वे धार्मिक कार्यक्रम में चंदा नहीं देंगे, तो उन का कुछ बुरा हो जाएगा.

महल्ले वालों ने खूब दान किया, जबकि अजीत कुमार और उस के परिवार ने एक भी पैसे का दान नहीं करते हुए महल्लेभर की नाराजगी भी मोल ली थी. अजीत कुमार समझ चुका था कि इस बस्ती के लोग इसलिए आगे नहीं बढ़ पाए हैं, क्योंकि बरसों से उन के मन में यह बात कूटकूट कर भर दी गई है कि वे समाज की आखिरी कड़ी हैं और इसी तरह से डर कर जीना ही उन की नियति है. अजीत कुमार नौजवान था. उस के मन में आगे बढ़ने और कुछ करगुजरने की ख्वाहिश थी. उसे लगा कि दलितों और पिछड़ों को एकजुट करने की दिशा में बहुत ज्यादा मेहनत करनी होगी और इस दिशा में एक मजबूत पहल की बहुत जरूरत भी है, इसलिए अजीत कुमार ने दलितों और पिछड़े लोगों को एकजुट करने का बीड़ा उठाया और सोशल मीडिया को अपना हथियार बनाया. इस सिलसिले में अजीत कुमार ने फेसबुक पर ‘दलित जाग’ नाम से एक पेज बनाया, जिस पर वह अपने कुछ संदेशों को टाइप करता और पेज पर पोस्ट कर देता. कुछ दिनों बाद वह खुद के वीडियो बना कर पेज पर पोस्ट करने लगा, जिन में वह दलित जागरण और उन के उत्थान की बातें करता.

एक गरीब को कैसे आगे बढ़ना चाहिए, यह बात भी अजीत कुमार बखूबी जानता था. लगा था कि ऐसा कर के वह दलितों और पिछड़ों के मन में कुछ ऊर्जा भर देगा या उन्हें अपने हकों के प्रति जागरूक बना देगा. पर, अजीत कुमार का यह सोचना गलत था, क्योंकि उस की बस्ती के कुछ लोग ही एंड्रौइड मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते थे और जो नौजवान मोबाइल रखते थे, वे तो अजीत कुमार के साथ में आ गए, पर जो लोग 40 साल के पार के थे, वे मोबाइल पर सिर्फ मूवी देखते और गाने ही सुनते थे. ऐसे लोग सोशल मीडिया जैसी किसी चीज का इस्तेमाल करना नहीं जानते थे,

लिहाजा अजीत कुमार की मुहिम उस के अपने महल्ले में कुछ रंग नहीं ला सकी. अलबत्ता, महल्ले से बाहर उस की गतिविधियों को अच्छी तरह से नोट किया गया. अजीत कुमार ने महल्ले के लोगों के दिमाग पर धूल की परतें हटाने के लिए दूसरा रास्ता अपनाना शुरू किया. जब रोज शाम को वह काम से वापस आता, तो अपने महल्ले में 2-4 दोस्तों के साथ खड़े हो कर जोरजोर से बोलता और जब कुछ लोगों की भीड़ इकट्ठी हो जाती, तब वह उन से अपनी बात कहता, पर उस की बात कम लोगों को ही समझ में आ रही थी… हम गुलाम कहां हैं… हम तो आजाद हैं… फिर यह सब क्या बता रहा है हम को… अजीत कुमार के मांबाप ने भी उसे अपने काम पर ध्यान देने को कहा. इधर अजीत कुमार को नुक्कड़ नाटक खेलने का ध्यान आया, क्योंकि इस तरीके से वह आसानी से अपनी बात बस्ती के लोगों तक पहुंचा सकता था.

उस की बात बस्ती के नौजवानों के साथसाथ अब और लोगों को भी समझ आने लगी थी. सोशल मीडिया पर अजीत कुमार के सादगी भरे वीडियो लोगों को पसंद आने लग गए और जल्दी ही 21 साल का वह नौजवान दलित पिछड़ों के नेता के रूप में पहचाना जाने लगा. सोशल मीडिया पर ही अजीत कुमार से कई लोग जुड़ने लगे थे. उन में से एक अंजलि भी थी. दोनों एकदूसरे से सोशल मीडिया पर अपनी भावनाओं का इजहार करते थे. अजीत कुमार दुकान पर काम कर रहा था, पर अंजलि एमए कर चुकी थी और अब वह राजनीति में अपने पैर जमाने की कोशिश कर रही थी.

जो बातें सोशल मीडिया से संदेशों के द्वारा शुरू हुई थीं, वे अब मुलाकातों तक जा पहुंची थीं और एक दिन अंजलि ने अजीत कुमार को शादी करने का प्रस्ताव दिया. ‘‘पर, तुम ठहरी पैसे और ऊंची जाति वाली राजपूतानी और मैं एक दलित… मलिन बस्ती में रहने वाला… तुम भला मुझ से क्यों शादी करना चाहोगी?’’ ‘‘तुम्हारी इसी सादगी पर ही तो मरमिटी हूं मैं.’’ ‘‘पर, तुम्हारे मातापिता… वे क्या कहेंगे?’’ अजीत कुमार के इस सवाल पर अंजलि बिना मुसकराए न रह सकी,

क्योंकि अंजलि ने पहले ही अजीत को बता रखा था कि वह माली तौर पूरी तरह आजाद है और इस बार विधायक के चुनाव में खड़ी होने वाली है और उस के घर वाले उस के फैसले में कोई भी दखल नहीं देते हैं. अजीत कुमार ने अंजलि की बात का भरोसा कर लिया और अपने मांबाप से अंजलि के बारे में बताया तो उस के घर वाले भी एक सवर्ण लड़की के बहू बन कर आने से खुश हो गए. अजीत कुमार की शादी होने से पहले ही अंजलि ने खुद ही अजीत के घर का रंगरोगन करवाया, अपने लिए अलग टौयलेट और एक कमरे को साफसुथरा करवा कर उस में एसीकूलर वगैरह की सुविधाएं जुटा लीं. अजीत कुमार की सवालिया नजरों को समझते हुए अंजलि ने उसे बताया कि वह शादी के बाद इसे अपना दफ्तर बनाएगी, इसीलिए ये सारी सुविधाएं जुटा रही है.

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