दाग का सच : ललिया के कपड़ों पर कैसा दाग था

पूरे एक हफ्ते बाद आज शाम को सुनील घर लौटा. डरतेडरते डोरबैल बजाई. बीवी ललिया ने दरवाजा खोला और पूछा, ‘‘हो गई फुरसत तुम्हें?’’

‘‘हां… मुझे दूसरे राज्य में जाना पड़ा था न, सो…’’

‘‘चलिए, मैं चाय बना कर लाती हूं.’’

ललिया के रसोईघर में जाते ही सुनील ने चैन की सांस ली.

पहले तो जब सुनील को लौटने में कुछ दिन लग जाते थे तो ललिया का गुस्सा देखने लायक होता था मानो कोई समझ ही नहीं कि आखिर ट्रांसपोर्टर का काम ही ऐसा. वह किसी ड्राइवर को रख तो ले, पर क्या भरोसा कि वह कैसे चलाएगा? क्या करेगा?

और कौन सा सुनील बाकी ट्रक वालों की तरह बाहर जा कर धंधे वालियों के अड्डे पर मुंह मारता है.

चाहे जितने दिन हो जाएं, घर से ललिया के होंठों का रस पी कर जो निकलता तो दोबारा फिर घर में ही आ कर रसपान करता, लेकिन कौन समझाए ललिया को. वह तो इधर 2-4 बार से इस की आदत कुछकुछ सुधरी हुई है. तुनकती तो है, लेकिन प्यार दिखाते हुए.

चाय पीते समय भी सुनील को घबराहट हो रही थी. क्या पता, कब माथा सनक उठे.

माहौल को हलका बनाने के लिए सुनील ने पूछा, ‘‘आज खाने में क्या बना रही हो?’’

‘‘लिट्टीचोखा.’’

‘‘अरे वाह, लिट्टीचोखा… बहुत बढि़या तब तो…’’

‘‘हां, तुम्हारा मनपसंद जो है…’’

‘‘अरे हां, लेकिन इस से भी ज्यादा मनपसंद तो…’’ सुनील ने शरारत से ललिया को आंख मारी.

‘‘हांहां, वह तो मेरा भी,’’ ललिया ने भी इठलाते हुए कहा और रसोईघर में चली गई.

खाना खाते समय भी बारबार सुनील की नजर ललिया की छाती पर चली जाती. रहरह कर ललिया के हिस्से से जूठी लिट्टी के टुकड़े उठा लेता जबकि दोनों एक ही थाली में खा रहे थे.

‘‘अरे, तुम्हारी तरफ इतना सारा रखा हुआ है तो मेरा वाला क्यों ले रहे हो?’’

‘‘तुम ने दांतों से काट कर इस को और चटपटा जो बना दिया है.’’

‘‘हटो, खाना खाओ पहले अपना ठीक से. बहुत मेहनत करनी है आगे,’’ ललिया भी पूरे जोश में थी. दोनों ने भरपेट खाना खाया.

ललिया बरतन रखने चली गई और सुनील पिछवाड़े जा कर टहलने लगा. तभी उस ने देखा कि किसी की चप्पलें पड़ी हुई थीं.

‘‘ये कुत्ते भी क्याक्या उठा कर ले आते हैं,’’ सुनील ने झल्ला कर उन्हें लात मार कर दूर किया और घर में घुस कर दरवाजा बंद कर लिया.

सुनील बैडरूम में पहुंचा तो ललिया टैलीविजन देखती मिली. वह मच्छरदानी लगाने लगा.

‘‘दूध पीएंगे?’’ ललिया ने पूछा.

‘‘तो और क्या बिना पिए ही रह जाएंगे,’’ सुनील भी तपाक से बोला. ललिया ने सुनील का भाव समझ कर उसे एक चपत लगाई और बोली, ‘‘मैं भैंस के दूध की बात कर रही हूं.’’

‘‘न… न, वह नहीं. मेरा पेट लिट्टीचोखा से ही भर गया है,’’ सुनील ने कहा.

‘‘चलो तो फिर सोया जाए.’’

ललिया टैलीविजन बंद कर मच्छरदानी में आ गई. बत्ती तक बुझाने का किसी को होश नहीं रहा. कमरे का दरवाजा भी खुला रह गया जैसे उन को देखदेख कर शरमा रहा था. वैसे भी घर में उन दोनों के अलावा कोई रहता नहीं था.

सुबह 5 बजे सुनील की आंखें खुलीं तो देखा कि ललिया बिस्तर के पास खड़ी कपड़े पहन रही थी.

‘‘एक बार गले तो लग जाओ,’’ सुनील ने नींद भरी आवाज में कहा.

‘‘बाद में लग लेना, जरा जल्दी है मुझे बाथरूम जाने की…’’ कहते हुए ललिया जैसेतैसे अपने बालों का जूड़ा बांधते हुए वहां से भाग गई. सुनील ने करवट बदली तो ललिया के अंदरूनी कपड़ों पर हाथ पड़ गया. ललिया के अंदरूनी कपड़ों की महक सुनील को मदमस्त कर रही थी.

सुनील ललिया के लौटने का इंतजार करने लगा, तभी उस की नजर ललिया की पैंटी पर बने किसी दाग पर गई. उस का माथा अचानक से ठनक उठा.

‘‘यह दाग तो…’’

सुनील की सारी नींद झटके में गायब हो चुकी थी. वह हड़बड़ा कर उठा और ध्यान से देखने लगा. पूरी पैंटी पर कई जगह वैसे निशान थे. ब्रा का मुआयना किया तो उस का भी वही हाल था.

‘‘कल रात तो मैं ने इन का कोई इस्तेमाल नहीं किया. जो भी करना था सब तौलिए से… फिर ये…’’

सुनील का मन खट्टा होने लगा. क्या उस के पीछे ललिया के पास कोई…? क्या यही वजह है कि अब ललिया उस के कई दिनों बाद घर आने पर झगड़ा नहीं करती? नहींनहीं, ऐसे ही अपनी प्यारी बीवी पर शक करना सही नहीं है. पहले जांच करा ली जाए कि ये दाग हैं किस चीज के.

सुनील ने पैंटी को अपने बैग में छिपा दिया, तभी ललिया आ गई, ‘‘आप उठ गए… मुझे देर लग गई थोड़ी.’’

‘‘कोई बात नहीं,’’ कह कर सुनील बाथरूम में चला गया.

जब वह लौटा तो देखा कि ललिया कुछ ढूंढ़ रही थी.

‘‘क्या देख रही हो?’’

‘‘मेरी पैंटी न जाने कहां गायब हो गईं. ब्रा तो पहन ली है मैं ने.’’

‘‘चूहा ले गया होगा. चलो, नाश्ता बनाओ. मुझे आज जल्दी जाना है,’’ सुनील ने उस को टालने के अंदाज में कहा. ललिया भी मुसकरा उठी. नाश्ता कर सुनील सीधा अपने दोस्त मुकेश के पास पहुंचा. उस की पैथोलौजी की लैब थी.

सुनील ने मुकेश को सारी बात बताई. उस की सांसें घबराहट के मारे तेज होती जा रही थीं.

‘‘अरे, अपना हार्टफेल करा के अब तू मर मत… मैं चैक करता हूं.’’

सुनील ने मुकेश को पैंटी दे दी.

‘‘शाम को आना. बता दूंगा कि दाग किस चीज का है,’’ मुकेश ने कहा.

सुनील ने रजामंदी में सिर हिलाया और वहां से निकल गया. दिनभर पागलों की तरह घूमतेघूमते शाम हो गई. न खाने का होश, न पीने का. वह धड़कते दिल से मुकेश के पास पहुंचा.

‘‘क्या रिपोर्ट आई?’’

मुकेश ने भरे मन से जवाब दिया, ‘‘यार, दाग तो वही है जो तू सोच रहा है, लेकिन… अब इस से किसी फैसले पर तो…’’

सुनील जस का तस खड़ा रह गया. मुकेश उसे समझाने के लिए कुछकुछ बोले जा रहा था, लेकिन उस का माथा तो जैसे सुन्न हो चुका था.

सुनील घर पहुंचा तो ललिया दरवाजे पर ही खड़ी मिली.

‘‘कहां गायब थे दिनभर?’’ ललिया परेशान होते हुए बोली.

‘‘किसी से कुछ काम था,’’ कहता हुआ सुनील सिर पकड़ कर पलंग पर बैठ गया.

‘‘तबीयत तो ठीक है न आप की?’’ ललिया ने सुनील के पास बैठ कर उस के कंधे पर हाथ रखा.

‘‘सिर में बहुत तेज दर्द हो रहा है.’’

‘‘बैठिए, मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ कहते हुए ललिया रसोईघर में चली गई. सुनील ने ललिया की पैंटी को गद्दे के नीचे दबा दिया. चाय पी कर वह बिस्तर पर लेट गया.

रात को ललिया खाना ले कर आई और बोली, ‘‘अजी, अब आप मुझे भी मार देंगे. बताओ तो सही, क्या हुआ? ज्यादा दिक्कत है, तो चलो डाक्टर के पास ले चलती हूं.’’

‘‘कुछ बात नहीं, बस एक बहुत बड़े नुकसान का डर सता रहा है,’’ कह कर सुनील खाना खाने लगा.

‘‘अपना खयाल रखो,’’ कहते हुए ललिया सुनील के पास आ कर बैठ गई.

सुनील सोच रहा था कि ललिया का जो रूप अभी उस के सामने है, वह उस की सचाई या जो आज पता चली वह है. खाना खत्म कर वह छत पर चला गया. ललिया नीचे खाना खाते हुए आंगन में बैठी उस को ही देख रही थी.

सुनील का ध्यान अब कल रात पिछवाड़े में पड़ी चप्पलों पर जा रहा था. वह सोचने लगा, ‘लगता है वे चप्पलें भी इसी के यार की… नहीं, बिलकुल नहीं. ललिया ऐसी नहीं है…’

रात को सुनील ने नींद की एक गोली खा ली, पर नींद की गोली भी कम ताकत वाली निकली. सुनील को खीज सी होने लगी. पास में देखा तो ललिया सोई हुई थी. यह देख कर सुनील को गुस्सा आने लगा, ‘मैं जान देदे कर इस के सुख के लिए पागलों की तरह मेहनत करता हूं और यह अपना जिस्म किसी और को…’ कह कर वह उस पर चढ़ गया.

ललिया की नींद तब खुली जब उस को अपने बदन के निचले हिस्से पर जोर महसूस होने लगा.

‘‘अरे, जगा देते मुझे,’’ ललिया ने उठते ही उस को सहयोग करना शुरू किया, लेकिन सुनील तो अपनी ही धुन में था. कुछ ही देर में दोनों एकदूसरे के बगल में बेसुध लेटे हुए थे. ललिया ने अपनी समीज उठा कर ओढ़ ली.

सुनील ने जैसे ही उस को ऐसा करते देखा मानो उस पर भूत सा सवार हो गया. वह झटके से उठा और समीज को खींच कर बिस्तर के नीचे फेंक दिया और फिर से उस के ऊपर आ गया.

‘‘ओहहो, सारी टैंशन मुझ पर ही उतारेंगे क्या?’’ ललिया आहें भरते हुए बोली.

सुनील के मन में पल रही नाइंसाफी की भावना ने गुस्से का रूप ले लिया था.

ललिया को छुटकारा तब मिला जब सुनील थक कर चूर हो गया. गला तो ललिया का भी सूखने लगा था, लेकिन वह जानती थी कि उस का पति किसी बात से परेशान है.

ललिया ने अपनेआप को संभाला और उठ कर थोड़ा पानी पीने के बाद उसी की चिंता करतेकरते कब उस को दोबारा नींद आ गई, कुछ पता न चला.

ऐसे ही कुछ दिन गुजर गए. हंसनेहंसाने वाला सुनील अब बहुत गुमसुम रहने लगा था और रात को तो ललिया की एक न सुनना मानो उस की आदत बनती जा रही थी.

ललिया का दिल किसी अनहोनी बात से कांपने लगा था. वह सोचने लगी थी कि इन के मांपिताजी को बुला लेती हूं. वे ही समझा सकते हैं कुछ.

एक दिन ललिया बाजार गई हुई थी. सुनील छत पर टहल रहा था. शाम होने को थी. बादल घिर आए थे. मन में आया कि फोन लगा कर ललिया से कहे कि जल्दी घर लौट आए, लेकिन फिर मन उचट गया.

थोड़ी देर बाद ही सुनील ने सोचा, ‘कपड़े ही ले आता हूं छत से. सूख गए होंगे.’

सुनील छत पर गया ही था कि देखा पड़ोसी बीरबल बाबू के किराएदार का लड़का रंगवा जो कि 18-19 साल का होगा, दबे पैर उस की छत से ललिया के अंदरूनी कपड़े ले कर अपनी छत पर कूद गया. शायद उसे पता नहीं था कि घर में कोई है, क्योंकि ललिया उस के सामने बाहर गई थी.

यह देख कर सुनील चौंक गया. उस ने पूरी बात का पता लगाने का निश्चय किया. वह भी धीरे से उस की छत पर उतरा और सीढि़यों से नीचे आया. नीचे आते ही उस को एक कमरे से कुछ आवाजें सुनाई दीं.

सुनील ने झांक कर देखा तो रंगवा अपने हमउम्र ही किसी गुंडे से दिखने वाले लड़के से कुछ बातें कर रहा था.

‘‘अबे रंगवा, तेरी पड़ोसन तो बहुत अच्छा माल है रे…’’

‘‘हां, तभी तो उस की ब्रापैंटी के लिए भटकता हूं,’’ कह कर वह हंसने लगा.

इस के बाद सुनील ने जो कुछ  देखा, उसे देख कर उस की आंखें फटी रह गईं. दोनों ने ललिया के अंदरूनी कपड़ों पर अपना जोश निकाला और रंगवा बोला, ‘‘अब मैं वापस उस की छत पर रख आता हूं… वह लौटने वाली होगी.’’

‘‘अबे, कब तक ऐसे ही करते रहेंगे? कभी असली में उस को…’’

‘‘मिलेगीमिलेगी, लेकिन उस पर तो पतिव्रता होने का फुतूर है. वह किसी से बात तक नहीं करती. पति के बाहर जाते ही घर में झाड़ू भी लगाने का होश नहीं रहता उसे, न ही बाल संवारती है वह. कभी दबोचेंगे रात में उसे,’’ रंगवा कहते हुए कमरे के बाहर आने लगा.

सुनील जल्दी से वापस भागा और अपनी छत पर कूद के छिप गया. रंगवा भी पीछे से आया और उन गंदे किए कपड़ों को वापस तार पर डाल कर भाग गया.

सुनील को अब सारा मामला समझ आ गया था. रंगवा इलाके में आएदिन अपनी घटिया हरकतों के चलते थाने में अंदरबाहर होता रहता था. उस के बुरे संग से उस के मांबाप भी परेशान थे.

सुनील को ऐसा लग रहा था जैसे कोई अंदर से उस के सिर पर बर्फ रगड़ रहा है. उस का मन तेजी से पिछली चिंता से तो हटने लगा, लेकिन ललिया की हिफाजत की नई चुनौती ने फिर से उस के माथे पर बल ला दिया. उस ने तत्काल यह जगह छोड़ने का निश्चय कर लिया.

ललिया भी तब तक लौट आई. आते ही वह बोली, ‘‘सुनिए, आप की मां को फोन कर देती हूं. वे समझाएंगी अब आप को.’’

सुनील ने उस को सीने से कस कर चिपका लिया, ‘‘तुम साथ हो न, सब ठीक है और रहेगा…’’

‘‘अरे, लेकिन आप की यह उदासी मुझ से देखी नहीं जाती है अब…’’

‘‘आज के बाद यह उदासी नहीं दिखेगी… खुश?’’

‘‘मेरी जान ले कर ही मानेंगे आप,’’ बोलतेबोलते ललिया को रोना आ गया.

यह देख कर सुनील की आंखों से भी आंसू छलकने लगे थे. वह सिसकते हुए बोला, ‘‘अब मैं ड्राइवर रख लूंगा और खुद तुम्हारे पास ज्यादा से ज्यादा समय…’’ प्यार उन के चारों ओर मानो नाच करता फिर से मुसकराने लगा था.

कैसी दूरी : शीला की कसक

आधी रात का गहरा सन्नाटा. दूर कहीं थोड़ीथोड़ी देर में कुत्तों के भूंकने की आवाजें उस सन्नाटे को चीर रही थीं. ऐसे में भी सभी लोग नींद के आगोश में बेसुध सो रहे थे. अगर कोई जाग रहा था, तो वह शीला थी. उसे चाह कर भी नींद नहीं आ रही थी. पास में ही रवि सो रहे थे.

शीला को रहरह कर रवि पर गुस्सा आ रहा था. वह जाग रही थी, मगर वे चादर तान कर सो रहे थे. रवि के साथ शीला की शादी के 15 साल गुजर गए थे. वह एक बेटे और एक बेटी की मां बन चुकी थी.

शादी के शुरुआती दिन भी क्या दिन थे. वे सर्द रातों में एक ही रजाई में एकदूसरे से चिपक कर सोते थे. न किसी का डर था, न कोई कहने वाला. सच, उस समय तो नौजवान दिलों में खिंचाव हुआ करता था. शीला ने तब रवि के बारे में सुना था कि जब वे कुंआरे थे, तब आधीआधी रात तक दोस्तों के साथ गपशप किया करते थे. तब रवि की मां हर रोज दरवाजा खोल कर डांटते हुए कहती थीं, ‘रोजरोज देर से आ कर सोने भी नहीं देता. अब शादी कर ले, फिर तेरी घरवाली ही दरवाजा खोलेगी.’

रवि जवाब देने के बजाय हंस कर मां को चिढ़ाया करते थे.

जैसे ही रवि के साथ शीला की शादी हुई, दोस्तों से दोस्ती टूट गई. जैसे ही रात होती, रवि चले आते उस के पास और उस के शरीर के गुलाम बन जाते. भंवरे की तरह उस पर टूट पड़ते. उन दिनों वह भी तो फूल थी. मगर शादी के सालभर बाद जब बेटा हो गया, तब खिंचाव कम जरूर पड़ गया.

धीरेधीरे शरीर का यह खिंचाव खत्म तो नहीं हुआ, मगर मन में एक अजीब सा डर समाया रहता था कि कहीं पास सोए बच्चे जाग न जाएं. बच्चे जब बड़े हो गए, तब वे अपनी दादी के पास सोने लगे.

अब भी बच्चे दादी के पास ही सो रहे हैं, फिर भी रवि का शीला के प्रति वह खिंचाव नहीं रहा, जो पहले हुआ करता था. माना कि रवि उम्र के ढलते पायदान पर है, लेकिन आदमी की उम्र जब 40 साल की हो जाती है, तो वह बूढ़ा तो नहीं कहलाता है. बिस्तर पर पड़ेपड़े शीला सोच रही थी, ‘इस रात में हम दोनों के बीच में कोई भी तो नहीं है, फिर भी इन की तरफ से हलचल क्यों नहीं होती है? मैं बिस्तर पर लेटीलेटी छटपटा रही हूं, मगर ये जनाब तो मेरी इच्छा को समझ ही नहीं पा रहे हैं. ‘उन दिनों जब मेरी इच्छा नहीं होती थी, तब ये जबरदस्ती किया करते थे. आज तो हम पतिपत्नी के बीच कोई दीवार नहीं है, फिर भी क्यों नहीं पास आते हैं?’

शीला ने सुन ही नहीं रखा है, बल्कि ऐसे भी तमाम उदाहरण देखे हैं कि जिस आदमी से औरत की ख्वाहिश पूरी नहीं होती है, तब वह औरत दूसरे मर्द के ऊपर डोरे डालती है और अपने खूबसूरत अंगों से उन्हें पिघला देती है. फिर रवि के भीतर का मर्द क्यों मर गया है?

मगर शीला भी उन के पास जाने की हिम्मत क्यों नहीं कर पा रही है? वह क्यों उन की चादर में घुस नहीं जाती है? उन के बीच ऐसा कौन सा परदा है, जिस के पार वह नहीं जा सकती है?

तभी शीला ने कुछ ठाना और वह रवि की चादर में जबरदस्ती घुस गई. थोड़ी देर में उसे गरमाहट जरूर आ गई, मगर रवि अभी भी बेफिक्र हो कर सो रहे थे. वे इतनी गहरी नींद में हैं कि कोई चिंता ही नहीं.

शीला ने धीरे से रवि को हिलाया. अधकचरी नींद में रवि बोले, ‘‘शीला, प्लीज सोने दो.’’ ‘‘मुझे नींद नहीं आ रही है,’’ शीला शिकायत करते हुए बोली. ‘‘मुझे तो सोने दो. तुम सोने की कोशिश करो. नींद आ जाएगी तुम्हें,’’ रवि नींद में ही बड़बड़ाते हुए बोले और करवट बदल कर फिर सो गए. शीला ने उन्हें जगाने की कोशिश की, मगर वे नहीं जागे. फिर शीला गुस्से में अपनी चादर में आ कर लेट गई, मगर नींद उस की आंखों से कोसों दूर जा चुकी थी.

सुबह जब सूरज ऊपर चढ़ चुका था, तब तक शीला सो कर नहीं उठी थी. उस की सास भी घबरा गईं. सब से ज्यादा घबराए रवि. मां रवि के पास आ कर बोलीं, ‘‘देख रवि, बहू अभी तक सो कर नहीं उठी. कहीं उस की तबीयत तो खराब नहीं हो गई?’’

रवि बैडरूम की तरफ लपके. देखा कि शीला बेसुध सो रही थी. वे उसे झकझोरते हुए बोले, ‘‘शीला उठो.’’

‘‘सोने दो न, क्यों परेशान करते हो?’’ शीला नींद में ही बड़बड़ाई.

रवि को गुस्सा आ गया और उन्होंने पानी का एक गिलास भर कर उस के मुंह पर डाल दिया. शीला घबराते हुए उठी और गुस्से से बोली, ‘‘सोने क्यों नहीं दिया मुझे? रातभर नींद नहीं आई. सुबह होते ही नींद आई और आप ने उठा दिया.’’

‘‘देखो कितनी सुबह हो गई?’’ रवि चिल्ला कर बोले, तब आंखें मसल कर उठते हुए शीला बोली, ‘‘खुद तो ऐसे सोते हो कि रात को उठाया तो भी न उठे और मुझे उठा दिया,’’ इतना कह कर वह बाथरूम में घुस गई. यह एक रात की बात नहीं थी. तकरीबन हर रात की बात थी.

मगर रवि में पहले जैसा खिंचाव क्यों नहीं रहा? या उस से उन का मन भर गया? ऐसा सुना भी है कि जिस मर्द का अपनी औरत से मन भर जाता है, फिर उस का खिंचाव दूसरी तरफ हो जाता है. कहीं रवि भी… नहीं उन के रवि ऐसे नहीं हैं.

सुना है कि महल्ले के ही जमना प्रसाद की पत्नी माधुरी का चक्कर उन के ही पड़ोसी अरुण के साथ चल रहा है. यह बात पूरे महल्ले में फैल चुकी थी. जमना प्रसाद को भी पता थी, मगर वे चुप रहा करते थे. रात का सन्नाटा पसर चुका था. रवि और शीला बिस्तर में थे. उन्होंने चादर ओढ़ रखी थी.

रवि बोले, ‘‘आज मुझे थोड़ी ठंड सी लग रही है.’’

‘‘मगर, इस ठंड में भी आप तो घोडे़ बेच कर सोते रहते हो, मैं कितनी बार आप को जगाती हूं, फिर भी कहां जागते हो. ऐसे में कोई चोर भी घुस जाए तो पता नहीं चले. इतनी गहरी नींद क्यों आती है आप को?’’

‘‘अब बुढ़ापा आ रहा है शीला.’’

‘‘बुढ़ापा आ रहा है या मुझ से अब आप का मन भर गया है?’’

‘‘कैसी बात करती हो?’’

‘‘ठीक कहती हूं. आजकल आप को न जाने क्या हो गया,’’ यह कहते हुए शीला की आंखों में वासना दिख रही थी. रवि जवाब न दे कर शीला का मुंह ताकते रहे.

शीला बोली, ‘‘ऐसे क्या देख रहे हो? कभी देखा नहीं है क्या?’’

‘‘अरे, जब से शादी हुई है, तब से देख रहा हूं. मगर आज मेरी शीला कुछ अलग ही दिख रही है,’’ शरारत करते हुए रवि बोले.

‘‘कैसी दिख रही हूं? मैं तो वैसी ही हूं, जैसी तुम ब्याह कर लाए थे,’’ कह कर शीला ने ब्लाउज के बटन खोल दिए, ‘‘हां, आप अब वैसे नहीं रहे, जैसे पहले थे.’’

‘‘क्यों भला मुझ में बदलाव कैसे आ गया?’’ अचरज से रवि बोले.

‘‘मेरा इशारा अब भी नहीं समझ रहे हो. कहीं ऐसा न हो कि मैं भी जमना प्रसाद की पत्नी माधुरी बन जाऊं.’’

‘‘अरे शीला, जमना प्रसाद तो ढीले हैं, मगर मैं नहीं हूं,’’ कह कर रवि ने शीला को अपनी बांहों में भर कर उस के कई चुंबन ले लिए.

नेवीब्लू सूट : दोस्ती की अनमोल दास्तान

मैं हैदराबाद बैंक ट्रेनिंग सैंटर आई थी. आज ट्रेनिंग का आखिरी दिन है. कल मुझे लौट कर पटना जाना है, लेकिन मेरा बचपन का प्यारा मित्र आदर्श भी यहीं पर है. उस से मिले बिना मेरा जाना संभव नहीं है, बल्कि वह तो मित्र से भी बढ़ कर था. यह अलग बात है कि हम दोनों में से किसी ने भी मित्रता से आगे बढ़ने की पहल नहीं की. मुझे अपने बचपन के दिन याद आने लगे थे. उन दिनों मैं दक्षिणी पटना की कंकरबाग कालोनी में रहती थी. यह एक विशाल कालोनी है. पिताजी ने काफी पहले ही एक एमआईजी फ्लैट बुक कर रखा था. मेरे पिताजी राज्य सरकार में अधिकारी थे. यह कालोनी अभी विकसित हो रही थी. यहां से थोड़ी ही दूरी पर चिरैयाटांड महल्ला था. उस समय उत्तरी और दक्षिणी पटना को जोड़ने वाला एकमात्र पुल चिरैयाटांड में था. वहीं एक तंग गली में एक छोटे से घर में आदर्श रहता था. वहीं पास के ही सैंट्रल स्कूल में हम दोनों पढ़ते थे.

आदर्श बहुत सुशील था. वह देखने में भी स्मार्ट व पढ़ाई में अव्वल तो नहीं, पर पहले 5 विद्यार्थियों में था. फुटबौल टीम का कप्तान आदर्श क्रिकेट भी अच्छा खेलता था. इसलिए वह स्कूल के टीचर्स और स्टूडैंट्स दोनों में लोकप्रिय था. वह स्कूल के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी भाग लेता था. मैं भी उन कार्यक्रमों में भाग लेती थी. इस के अलावा मैं अच्छा गा भी लेती थी. हम दोनों एक ही बस से स्कूल जाते थे. आदर्श मुझे बहुत अच्छा लगता था. 10वीं कक्षा तक पहुंचतेपहुंचते हम दोनों अच्छे दोस्त बन चुके थे. स्कूल बस में कभीकभी कोई मनचला सीनियर मेरी चोटी को खींच कर चुपचाप निकल जाता था. इस बारे में एक बार मैं ने आदर्श से शिकायत भी की थी कि न जाने इन लड़कों को मेरे बालों से खिलवाड़ करने में क्या मजा आता है.

इस पर आदर्श ने कहा, ‘‘तुम इन्हें बौबकट करा लो… सच कहता हूं आरती, तुम फिर और भी सुंदर और क्यूट लगोगी.’’ मैं बस झेंप कर रह गई थी. कुछ दिन बाद मैं ने मां से कहा कि अब इतने लंबे बाल मुझ से संभाले नहीं जाते. इन पर मेरा समय बरबाद होता है, मैं इन्हें छोटा करा लेती हूं. मां ने इस पर कोई एतराज नहीं जताया था. कुछ ही दिन के अंदर मैं ने अपने बाल छोटे करा लिए थे. आदर्श ने इशारोंइशारों में मेरी प्रशंसा भी की थी. एक बार मैं ने भी उसे कहा था कि स्कूल का नेवीब्लू ब्लैजर उस पर बहुत फबता है. कुछ ही दिन बाद वह मेरे जन्मदिन पर वही नेवीब्लू सूट पहन कर मेरे घर आया था तो मैं ने भी इशारोंइशारों में उस की तारीफ की थी. बाद में आदर्श ने बताया कि यह सूट उसे उस के बड़े चाचा के लड़के की शादी में मिला था वरना उस की हैसियत इतनी नहीं है. शायद यहीं से हम दोनों की दोस्ती मूक प्यार में बदलने लगी थी.

लेकिन तभी आदर्श के साथ एक घटना घटी. आदर्श की 2 बड़ी बहनें भी थीं. उस के पिता एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करते थे. अचानक हार्ट फेल होने से उन का देहांत हो गया. उस के पिता के औफिस से जो रकम मिली, वही अब उस परिवार का सहारा थी. उन्होंने अपने हिस्से की गांव की जमीन बेच कर पटना में छोटा सा प्लाट खरीदा था. अभी बस रहने भर के लिए 2 कमरे ही बनवाए थे. उन का कहना था बाकी मकान बेटियों की शादी के बाद बनेगा या फिर आदर्श बड़ा हो कर इसे आगे बनाएगा. हम दोनों के परिवार के बीच तो आनाजाना नहीं था, पर मैं स्कूल के अन्य लड़कों के साथ यह दुखद समाचार सुन कर गई थी. हम लोग 10वीं बोर्ड की परीक्षा दे चुके थे. आदर्श ने कहा था कि वह मैडिकल पढ़ना चाहता है पर ऐसा संभव नहीं दिखता, क्योंकि इस में खर्च ज्यादा होगा, जो उस के पिता के लिए लगभग असंभव है. एक बार जब हम 12वीं की बोर्ड की परीक्षा दे चुके थे तो मैं ने अपनी बर्थडे पार्टी पर आदर्श को अपने घर बुलाया था. वह अब और स्मार्ट लग रहा था. मैं ने आगे बढ़ कर उस को रिसीव किया और कहा, ‘‘तुम ब्लूसूट पहन कर क्यों नहीं आए? तुम पर वह सूट बहुत फबता है.’’आदर्श बोला, ‘‘वह सूट अब छोटा पड़ गया है. जब सैटल हो जाऊंगा तो सब से पहले 2 जोड़ी ब्लूसूट बनवा लूंगा. ठीक रहेगा न?’’

हम दोनों एकसाथ हंस पड़े. फिर मैं आदर्श का हाथ पकड़ कर उसे टेबल के पास ले कर आई, जहां केक काटना था. मैं ने ही उसे अपने साथ मिल कर केक काटने को कहा. वह बहुत संकोच कर रहा था. फिर मैं ने केक का एक बड़ा टुकड़ा उस के मुंह में ठूंस दिया.केक की क्रीम और चौकलेट उस के मुंह के आसपास फैल गई, जिन्हें मैं ने खुद ही पेपर नैपकिन से साफ किया. बाद में मैं ने महसूस किया कि मेरी इस हरकत पर लोगों की प्रतिक्रिया कुछ अच्छी नहीं थी, खासकर खुद मेरी मां की. उन्होंने मुझे अलग  बुला कर थोड़ा डांटने के लहजे में कहा, ‘‘आरती, यह आदर्श कौन सा वीआईपी है जो तुम इसे इतना महत्त्व दे रही हो?’’मैं ने मां से कहा, ‘‘मा, वह मेरा सब से करीबी दोस्त है. बहुत अच्छा लड़का है, सब उसे पसंद करते हैं.’’

मा ने झट से पूछा, ‘‘और तू?’’

मैं ने भी कहा, ‘‘हां, मैं भी उसे पसंद करती हूं.’’

फिर चलतेचलते मां ने कहा, ‘‘दोस्ती और रिश्तेदारी बराबरी में ही अच्छी लगती है. तुम दोनों में फासला ज्यादा है. इस बात का खयाल रखना.’’

मैं ने भी मां से साफ लफ्जों में कह दिया था कि कृपया आदर्श के बारे में मुझ से ऐसी बात न करें.मैं ने महसूस किया कि आदर्श हमारी तरफ ही देखे जा रहा था, पर ठीक से कह नहीं सकती कि मां की बात उस ने भी सुनी हो, पर उस की बौडी लैंग्वेज से लगा कि वह कुछ ज्यादा ही सीरियस था.  बहरहाल, आदर्श मैथ्स में एमए करने लगा था. मैं ने बीए कर बैंक की नौकरी के लिए कोचिंग ली थी. दूसरे प्रयास में मुझे सफलता मिली और मुझे बैंक में जौब मिल गई. बैंक की तरफ से ही मुझे हैदराबाद टे्रनिंग के लिए भेजा गया. मैं आदर्श से ईमेल और फोन से संपर्क में थी. कभीकभी वह भी मुझे फोन कर लेता था. एक बार मैं ने उसे मेल भी किया था यह जानने के लिए कि क्या हम मात्र दोस्त ही रहेंगे या इस के आगे भी कुछ सोच सकते हैं. आदर्श ने लिखा था कि जब तक मेरी बड़ी बहनों की शादी नहीं हो जाती तब तक मैं चाह कर भी आगे की कुछ सोच नहीं सकता. मुझे उस का कहना ठीक लगा. आखिर अपनी दोनों बड़ी बहनों की शादी की जिम्मेदारी उसी पर थी, पर इधर मुझ पर भी मातापिता का दबाव था कि मेरी शादी हो जाए ताकि बाकी दोनों बहनों की शादी की बात आगे बढ़े. हम दोनों ही मजबूर थे और एकदूसरे की मजबूरी समझ रहे थे. आदर्श हैदराबाद की एक प्राइवेट कंपनी में अकाउंटैंट की पोस्ट पर कार्यरत था. उस की बड़ी बहन की शादी हो चुकी थी. अपनी मां और दूसरी बहन के साथ वह भी हैदराबाद में ही था.

मैं ने उसे फोन किया और ईमेल भी किया था कि आज शाम की फ्लाइट से मैं पटना लौट रही हूं. उस ने जवाब में बस ओके भर लिखा था. वह सिकंदराबाद में कहीं रहता था. उस के घर का पता मुझे मालूम तो था, पर नए शहर में वहां तक जाना कठिन लग रहा था और थोड़ा संकोच भी हो रहा था. मेरी फ्लाइट हैदराबाद के बेगमपेट एयरपोर्ट से थी, मैं एयरपोर्ट पर बेसब्री से आदर्श का इंतजार कर रही थी. बेगमपेट एयरपोर्ट से सिकंदराबाद ज्यादा दूर नहीं था, महज 5 किलोमीटर की दूरी होगी. मैं सोच रही थी कि वह जल्दी ही आ जाएगा, पर जैसेजैसे समय बीत रहा था, मेरी बेसब्री बढ़ रही थी. चैक इन बंद होने तक वह नहीं दिखा तो मैं ने अपना टिकट कैंसिल करा लिया. मैं आदर्श के घर जाने के लिए टैक्सी से निकल पड़ी थी. जब मैं वहां पहुंची तो उस की बहन ने आश्चर्य से कहा, ‘‘आरती, तुम यहां. भाई तो तुम से मिलने एयरपोर्ट गया है. अभी तक तो लौटा नहीं है. शुरू में आदर्श संकोच कर रहा था कि जाऊं कि नहीं पर मां ने उसे कहा कि उसे तुम से मिलना चाहिए, तभी वह जाने को तैयार हुआ. इसी असमंजस में घर से निकलने में उस ने देर कर दी.’’

मैं आदर्श के घर सभी के लिए गिफ्ट ले कर गई थी. मां और बहन को तो गिफ्ट मैं ने अपने हाथों से दिया. थोड़ी देर बाद मैं एक गिफ्ट पैकेट आदर्श के लिए छोड़ कर लौट गई. इसी बीच, आदर्श की बहन का फोन आया और उस ने कहा, ‘‘भाई को ट्रैफिक जैम और उस का स्कूटर पंक्चर होने के कारण एयरपोर्ट पहुंचने में देर हो गई और भाई ने सोचा कि तुम्हारी तो फ्लाइट जा चुकी होगी. मैं उसे तुम्हारी फ्लाइट के बारे में बता चुकी हूं.’’ आदर्श की बहन ने फोन कर उसे कहा, ‘‘भाई, तुम्हारे लिए आरती ने अपनी फ्लाइट कैंसिल कर दी. वह तुम से मिलने घर आई थी, पर थोड़ी देर पहले चली भी गई है. अभी वह रास्ते में होगी, बात कर लो.’’ लेकिन आदर्श ने फोन नहीं किया और न मैं ने किया. आदर्श ने जब घर पहुंच कर पैकेट खोला तो देखा कि उस में एक नेवीब्लू सूट और मेरी शादी का निमंत्रण कार्ड था. साथ में मेरा एक छोटा सा पत्र जिस में लिखा था, ‘बहुत इंतजार किया. मुझे अब शादी करनी ही होगी, क्योंकि मेरी शादी के बाद ही बाकी दोनों बहनों की शादी का रास्ता साफ होगा. एक नेवीब्लू सूट छोड़ कर जा रही हूं. मेरी शादी में इसे पहन कर जरूर आना, यह मेरी इच्छा है.’

एयरपोर्ट से मैं ने उसे फोन किया, ‘‘तुम से मिलने का बहुत जी कर रहा था आदर्श, खैर, इस बार तो नहीं मिल सकी. उम्मीद है शादी में जरूर आओगे. मैं तुम्हारा इंतजार करूंगी.’’ थोड़ी देर खामोश रहने के बाद आदर्श इतना ही कह पाया था, ‘‘हां… हां, आऊंगा.’’

सैरोगेट मदर: आबिदा ने अपने परिवार की खुशी के लिए लिया बड़ा फैसला

आबिदा अपनी गरीबी से काफी परेशान थी. सिर्फ उस के पति जैनुल की कमाई से घर चलता था. जैनुल कपड़े सिलता था. एक तो बड़ी मुश्किल से घर चलता था, दूसरे कुछ दिनों से उस की आंखों की रोशनी बहुत ज्यादा कमजोर हो गई थी. उस की आंखें बहुत साल से खराब चल रही थीं.

आबिदा जैनुल की आंखों की कम होती रोशनी और घटती ताकत से बहुत परेशान थी.

आबिदा के 2 बच्चे थे. दोनों स्कूल में पढ़ रहे थे. आबिदा घर की तंगहाली के चलते दोनों बच्चों को ठीक से पढ़ालिखा भी नहीं पा रही थी.

आबिदा सोच रही थी कि अगर जैनुल की आंखों का आपरेशन हो जाए तो आंख की रोशनी भी ठीक हो जाएगी और वह काम भी ज्यादा करने लगेगा, मगर इस के लिए पैसे नहीं थे. आंख का आपरेशन कराने में कम से 50,000 रुपए लगेंगे.

आबिदा अपनी पड़ोसन जैनब से किसी काम के बारे में पूछताछ करती रहती थी, मगर कोई ढंग का काम नहीं मिल रहा था.

एक दिन पड़ोसन जैनब ने आबिदा को सैरोगेट मदर के बारे में बताया. दरअसल, जैनब की एक सहेली ने सैरोगेट मदर बन कर 2 लाख रुपए कमाए थे. इस में अपनी कोख किराए पर देनी होती है. अपनी कोख में किसी पराए मर्द के बच्चे को पालना पड़ता है.

पड़ोसन जैनब की इस बात का असर आबिदा पर हुआ था. उस ने भी सैरोगेट मदर बनने की ठान ली थी.

इधर जैनुल की तबीयत और खराब रहने लगी थी. आबिदा को भी पड़ोसन जैनब ने सैरोगेट मदर बनने के लिए और ज्यादा उकसाया.

आबिदा ने कहा, ‘‘इस के लिए मुझे इजाजत नहीं मिल पाएगी.’’

जैनब ने पति से पूछने को कहा.

आबिदा ने सैरोगेट मदर बनने की बात अपने पति को बताई. यह सुनते ही वह भड़क गया, ‘‘कोई जरूरत नहीं है यह सब करने की. जैसे भी होगा, मैं घर चला लूंगा.’’

‘‘लेकिन इस में बुराई भी क्या है? जैनब की एक सहेली भी सैरोगेट मदर बन कर खुशहाल है. इस पैसे से तुम्हारी आंखों का आपरेशन भी हो जाएगा और बच्चों की पढ़ाईलिखाई भी ठीक से होने लगेगी. अब सैरोगेट मदर बनने में किसी के साथ सोना नहीं होता है. यह सब डाक्टर करते हैं,’’ आबिदा ने पति जैनुल को मनाते हुए कहा.

‘‘रिश्तेदार, पासपड़ोस के लोग क्या कहेंगे? सब तु झ पर हंसेंगे, मु झ पर थूकेंगे,’’ जैनुल बोला.

‘‘नहीं, कहीं कुछ गलत नहीं है. यह बुरा भी नहीं है. कितनी औरतें आज सैरोगेट मदर बन कर अपना काम बना रही हैं.’’

‘‘यह काम होता ही गुपचुप है. किसी को क्या पता चलेगा. इस में डाक्टरों को लाखों रुपए मिलते हैं. दलाल भी हजारों रुपए लेते हैं.

‘‘सब से बड़ी बात यह कि कोई जोड़ा औलाद की खुशी पाएगा, मेरी वजह से.’’

आबिदा के बहुत सम झाने और घरेलू हालात देख कर जैनुल ने आखिरकार इजाजत दे दी.

एक साल में आबिदा ने एक बच्चे को जन्म दिया, जिसे अस्पताल में मरा हुआ कह दिया गया. वह मन में खुशी दबाए लौट आई. उसे नहीं पता चला कि बच्चा किस का था और अब कहां है.

आबिदा ने सैरोगेट मदर बन कर अपने पति की आंखें ठीक कराईं, बच्चों को अच्छे स्कूल में दाखिल कराया. उन का घरखर्च भी आराम से चलने लगा था.

कुछ दिन बाद लड्डू खिलाते हुए आबिदा ने जैनुल से कहा, ‘‘लो, मुंह मीठा करो.’’

‘‘किसलिए?’’ जैनुल ने पूछा.

‘‘मैं आप के बच्चे की मां बनने जा रही हूं, किसी दूसरे के बच्चे की नहीं.’’

जैनुल की खुशी इस बार दोगुनी हो गई.

लेखक- मो. अफजल

अपने हुए पराए : लोग क्यों खून के रिश्तों के लिए रोते है

‘‘अजय, हम साधारण इनसान हैं. हमारा शरीर हाड़मांस का बना है. कोई नुकीली चीज चुभ जाए तो खून निकलना लाजिम है. सर्दी गरमी का हमारे शरीर पर असर जरूर होता है. हम लोहे के नहीं बने कि कोई पत्थर मारता रहे और हम खड़े मुसकराते रहें.

‘‘अपने को सर्वश्रेष्ठ समझने की भूल करेंगे तो शायद सामने वाले का सम्मान ही न कर पाएं. हम प्रकृति के विरुद्ध न ही जाएं तो बेहतर होगा. इनसानी कमजोरी से ओतप्रोत हम मात्र मानव हैं, महामानव न ही बनें तो शायद हमारे लिए उचित है.’’

बड़ी सादगी से श्वेता ने समझाने का प्रयास किया. मैं उस का चेहरा पढ़ता रहा. कुछ चेहरे होते हैं न किताब जैसे जिन पर ऐसा लगता है मानो सब लिखा रहता है. किताबी चेहरा है श्वेता का. रंग सांवला है, इतना सांवला कि काले की संज्ञा दी जा सकती है…और बड़ीबड़ी आंखें हैं जिन में जराजरा पानी हर पल भरा रहता है.

अकसर ऐसा होता है न जीवन में जब कोई ऐसा मिलता है जो इस तरह का चरित्र और हावभाव लिए होता है कि उस का एक ही आचरण, मात्र एक ही व्यवहार उस के भीतरबाहर को दिखा जाता है. लगता है कुछ भी छिपा सा नहीं है, सब सामने है. नजर आ तो रहा है सब, समझाने को है ही क्या, समझापरखा सब नजर आ तो रहा है. बस, देखने वाले के पास देखने वाली नजर होनी चाहिए.

‘‘तुम इतनी गहराई से सब कैसे समझा पाती हो, श्वेता. हैरान हूं मैं,’’ स्टाफरूम में बस हम दोनों ही थे सो खुल कर बात कर पा रहे थे.

‘‘तारीफ कर रहे हो या टांग खींच रहे हो?’’

श्वेता के चेहरे पर एक सपाट सा प्रश्न उभरा और होंठों पर भी. चेहरे पर तीखा सा भाव. मानो मेरा तारीफ करना उसे अच्छा नहीं लगा हो.

‘‘नहीं तो श्वेता, टांग क्यों खींचूंगा मैं.’’

‘‘मेरी वह उम्र नहीं रही अब जब तारीफ के दो बोल कानों में शहद की तरह घुलते हैं और ऐसा कुछ खास भी नहीं समझा दिया मैं ने जो तुम्हें स्वयं पता न हो. मेरी उम्र के ही हो तुम अजय, ऐसा भी नहीं कि तुम्हारा तजरबा मुझ से कम हो.’’

अचानक श्वेता का मूड ऐसा हो जाएगा, मैं ने नहीं सोचा था…और ऐसी बात जिस पर उसे लगा मैं उस की चापलूसी कर रहा हूं. अगर उस की उम्र अब वह नहीं जिस में प्रशंसा के दो बोल शहद जैसे लगें तो क्या मेरी उम्र अब वह है जिस में मैं चापलूसी करता अच्छा लगूं? और फिर मुझे उस से क्या स्वार्थ सिद्ध करना है जो मैं उस की चापलूसी करूंगा. अपमान सा लगा मुझे उस के शब्दों में, पता नहीं उस ने कहां का गुस्सा कहां निकाल दिया होगा.

‘‘अच्छा, बताओ, चाय लोगे या कौफी…सर्दी से पीठ अकड़ रही है. कुछ गरम पीने को दिल कर रहा है. क्या बनाऊं? आज सर्दी बहुत ज्यादा है न.’’

‘‘मेरा मन कुछ भी पीने को नहीं है.’’

‘‘नाराज हो गए हो क्या? तुम्हारा मन पीने को क्यों नहीं, मैं समझ सकती हूं. लेकिन…’’

‘‘लेकिन का क्या अर्थ है श्वेता, मेरी जरा सी बात का तुम ने अफसाना ही बना दिया.’’

‘‘अफसाना कहां बना दिया. अफसाना तो तब बनता जब तुम्हारी तारीफ पर मैं इतराने लगती और बात कहीं से कहीं ले जाते तुम. मुझे बिना वजह की तारीफ अच्छी नहीं लगती…’’

‘‘बिना वजह तारीफ नहीं की थी मैं ने, श्वेता. तुम वास्तव में किसी भी बात को बहुत अच्छी तरह समझा लेती हो और बिना किसी हेरफेर के भी.’’

‘‘वह शायद इसलिए भी हो सकता है क्योंकि तुम्हारा दृष्टिकोण भी वही होगा जो मेरा है. तुम इसीलिए मेरी बात समझ पाए क्योंकि मैं ने जो कहा तुम उस से सहमत थे. सहमत न होते तो अपनी बात कह कर मेरी बात झुठला सकते थे. मैं अपनेआप गलत प्रमाणित हो जाती.’’

‘‘तो क्या यह मेरा कुसूर हो गया, जो तुम्हारे विचारों से मेरे विचार मेल खा गए.’’

‘‘फैशन है न आजकल सामने वाले की तारीफ करना. आजकल की तहजीब है यह. कोई मिले तो उस की जम कर तारीफ करो. उस के बालों से…रंग से…शुरू हो जाओ, पैर के अंगूठे तक चलते जाओ. कितने पड़ाव आते हैं रास्ते में. आंखें हैं, मुसकान है, सुराहीदार गरदन है, हाथों की उंगलियां भी आकर्षक हो सकती हैं. अरे, भई क्या नहीं है. और नहीं तो जूते, चप्पल या पर्स तो है ही. आज की यही भाषा है. अपनी बात मनवानी हो या न भी मनवानी हो…बस, सामने वाले के सामने ऐसा दिखावा करो कि उसे लगे वही संसार का सब से समझदार इनसान है. जैसे ही पीठ पलटो अपनी ही पीठ थपथपाओ कि हम ने कितना अच्छा नाटक कर लिया…हम बहुत बड़े अभिनेता होते जा रहे हैं…क्या तुम्हें नहीं लगता, अजय?’’

‘‘हो सकता है श्वेता, संसार में हर तरह के लोग रहते हैं…जितने लोग उतने ही प्रकार का उन का व्यवहार भी होगा.’’

‘‘अच्छा, जरा मेरी बात का उत्तर देना. मैं कितनी सुंदर हूं तुम देख सकते हो न. मेरा रंग गोरा नहीं है और मैं अच्छेखासे काले लोगों की श्रेणी में आती हूं. अब अगर कोई मुझ से मिल कर यह कहना शुरू कर दे कि मैं संसार की सब से सुंदर औरत हूं तो क्या मैं जानबूझ कर बेवकूफ बन जाऊंगी? क्या मैं इतनी सुंदर हूं कि सामने वाले को प्रभावित कर सकूं?’’

‘‘तुम बहुत सुंदर हो, श्वेता. तुम से किस ने कह दिया कि तुम सुंदर नहीं हो.’’

सहसा मेरे होंठों से भी निकल गया और मैं कहीं भी कोई दिखावा या झूठ नहीं बोल रहा था. अवाक् सी मेरा मुंह ताकने लगी श्वेता. इतनी स्तब्ध रह गई मानो मैं ने जो कहा वह कोरा झूठ हो और मैं एक मंझा हुआ अभिनेता हूं जिसे अभिनय के लिए पद्मश्री सम्मान मिल चुका हो.

‘‘श्वेता, तुम्हारा व्यक्तित्व दूर से प्रभावित करता है. सुंदरता का अर्थ क्या है तुम्हारी नजर में, क्या समझा पाओगी मुझे?’’

मैं ने स्थिति को सहज रूप में संभाल लिया. उस पर जरा सा संतोष भी हुआ मुझे. फीकी सी मुसकान उभर आई थी श्वेता के चेहरे पर.

‘‘हम 40 पार कर चुके हैं. तुम सही कह रही थीं कि अब हमारी उम्र वह नहीं रही जब तारीफ के झूठे बोल हमारी समझ में न आएं. कम से कम सच्ची और ईमानदार तारीफ तो हमारी समझ में आनी चाहिए न. मैं तुम्हारी झूठी तारीफ क्यों करूंगा…जरा समझाओ मुझे. मेरा कोई रिश्तेदार तुम्हारा विद्यार्थी नहीं है जिसे पास कराना मेरी जरूरत हो और न ही मेरे बालबच्चे ही उस उम्र के हैं जिन के नंबरों के लिए मैं तुम्हारे आगे हाथ जोड़ूं. 2 बच्चियों का पिता हूं मैं और चाहूंगा कि मेरी बेटियां बड़ी हो कर तुम जैसी बनें.

‘‘हमारे विभाग में तुम्हारा कितना नाम है. क्या तुम्हें नहीं पता. तुम्हारी लिखी किताबें कितनी सीधी सरल हैं, तुम जानती हो न. हर बच्चा उन्हीं को खरीदना चाहता है क्योंकि वे जितनी व्यापक हैं उतनी ही सरल भी हैं. अपने विषय की तुम जीनियस हो.’’

इतना सब कह कर मैं ने मुसकराने का प्रयास किया लेकिन चेहरे की मांसपेशियां मुझे इतनी सख्त लगीं जैसे वे मेरे शरीर का हिस्सा ही न हों.

श्वेता एकटक निहारती रही मुझे. सहयोगी हैं हम. अकसर हमारा सामना होता रहता है. श्वेता का रंग सांवला है, लेकिन गोरे रंग को अंगूठा दिखाता उस का गरिमापूर्ण व्यक्तित्व इतना अच्छा है कि मैं अकसर सोचता हूं कि सुंदरता हो तो श्वेता जैसी. फीकेफीके रंगों की उस की साडि़यां बहुत सुंदर होती हैं. अकसर मैं अपनी पत्नी से श्वेता की बातें करता हूं. जैसी सौम्यता, जैसी सहजता मैं श्वेता में देखता हूं वैसी अकसर दिखाई नहीं देती. गरिमा से भरा व्यक्तित्व समझदारी अपने साथ ले कर आता है, यह भी साक्षात श्वेता में देखता हूं मैं.

‘‘अजय, कम से कम तुम तो ऐसी बात न करो,’’ सहसा अपने होंठ खोले श्वेता ने, ‘‘अच्छा नहीं लगता मुझे.’’

‘‘क्यों अच्छा नहीं लगता, श्वेता? अपने को कम क्यों समझती हो तुम?’’

‘‘न कम समझती हूं मैं और न ही ज्यादा… जितनी हूं कम से कम उतने में ही रहने दो मुझे.’’

‘‘तुम एक बहुत अच्छी इनसान हो.’’

अपने शब्दों पर जोर दिया मैं ने क्योंकि मैं चाहता हूं मेरे शब्दों की सचाई पर श्वेता ध्यान दे. सुंदरता किसे कहा जाता है, यह तो कहने वाले की सोच और उस की नजरों में होती है न, जो सुंदरता को देखता है और जिस के मन में वह जैसी छाप छोड़ती है. खूबसूरती तो सदा देखने वाले की नजर में होती है न कि उस में जिसे देखा जाए.

‘‘तुम चाय पिओगे कि नहीं, हां या ना…जल्दी से कहो. मेरे पास बेकार बातों के लिए समय नहीं है.’’

‘‘श्वेता, अकसर बेकार बातें ही बड़े काम की होती हैं, जिन बातों को हम जीवन भर बेकार की समझते रहते हैं वही बातें वास्तव में जीवन को जीवन बनाने वाली होती हैं. बड़ीबड़ी घटनाएं जीवन में बहुत कम होती हैं और हम पागल हैं, जो अपना जीवन उन की दिशा के साथ मोड़तेजोड़ते रहते हैं. हम आधी उम्र यही सोचते रहते हैं कि लोग हमारे बारे में क्या सोचते होंगे, तीनचौथाई उम्र यही सोचने में गुजार देते हैं कि वह कहीं हमारे बारे में बुरा तो नहीं सोचते होंगे.’’

धीरे से मुसकराने लगी श्वेता और फिर हंस कर बोली, ‘‘और उम्र के आखिरी हिस्से में आ कर हमें पता चलता है कि लोगों ने तो हमारे बारे में अच्छा या बुरा कभी सोचा ही नहीं था. लोग तो मात्र अपनी सुविधा और अपने सुख के बारे में सोचते हैं, हम से तो उन्हें कभी कुछ लेनादेना था ही नहीं.’’

जीवन का इतना बड़ा सत्य इतनी सरलता से कहने लगी श्वेता. मैं भी अपनी बात पूरी होते देख हंस पड़ा.

‘‘वह सब तो मैं पहले से ही समझती हूं. हालात और दुनिया ने सब समझाया है मुझे. बचपन से अपनी सूरत के बारे में इतना सुन चुकी हूं कि…’’

‘‘कि अपने अस्तित्व की सौम्यता भूल ही गई हो तुम. भीड़ में खड़ी अलग ही नजर आती हो और वह इसलिए नहीं कि तुम्हारा रंग काला है, वह इसलिए कि तुम गोरी मेकअप से लिपीपुती महिलाओं में खड़ी अलग ही नजर आती हो और समझा जाती हो कि सुंदरता किसी मेकअप की मोहताज नहीं है.

‘‘मैं पुरुष हूं और पुरुषों की नजर सुंदरता भांपने में कभी धोखा नहीं खाती. जिस तरह औरत पुरुष की नजर पहचानने में भूल नहीं करती… झट से पहचान जाती है कि नजरें साफ हैं या नहीं.’’

‘‘नजरें तो तुम्हारी साफ हैं, अजय, इस में कोई दो राय नहीं है,’’ उठ कर चाय बनाने लगी श्वेता.

‘‘धन्यवाद,’’ तनिक रुक गया मैं. नजरें उठा कर मुझे देखा श्वेता ने. कुछ पल को विषय थम सा गया. सांवले चेहरे पर सुनहरा चश्मा और कंधे पर गुलाबी रंग की कश्मीरी शाल, पारदर्शी, सम्मोहित सा करता श्वेता का व्यवहार.

‘‘अजय ऐसा नहीं है कि मैं खुश रहना नहीं चाहती. भाईबहन, रिश्तेदार, अपनों का प्यार किसे अच्छा नहीं लगता और फिर अकेली औरत को तो भाईबहन का ही सहारा होता है न. यह अलग बात है, वह सब की बूआ, सब की मौसी तो होती है लेकिन उस का कोई नहीं होता. ऐसा कोई नहीं होता जिस पर वह अधिकार से हाथ रख कर यह कह सके कि वह उस का है.’’

चाय बना लाई श्वेता और पास में बैठ कर बताने लगी:

‘‘मेरी छोटी बहन के पति मेरी जम कर तारीफ करते हैं और इस में बहन भी उन का साथ देती है. लेकिन वह जब भी जाते हैं, मेरा बैंक अकाउंट कुछ कम कर के जाते हैं. बच्चों की महंगी फीस का रोना कभी बहन रोती है और कभी भाभी. घर पर पड़ी नापसंद की गई साडि़यां मुझे उपहार में दे कर वे समझते हैं, मुझ पर एहसान कर रहे हैं. उन्हें क्या लगता है, मैं समझती नहीं हूं. अजय, मेरी बहन का पति वही इनसान है जो रिश्ते के लिए मुझे देखने आया था, मैं काली लगी सो छोटी को पसंद कर गया. तब मैं काली थी और आज मैं उस के लिए संसार की सब से सुंदर औरत हूं.’’

अवाक् रह गया था मैं.

‘‘मेरी तारीफ का अर्थ है मुझे लूटना.’’

‘‘तुम समझती हो तो लुटती क्यों हो?’’

‘‘जिस दिन लुटने से मना कर दिया उसी दिन शीशा दिख जाएगा मुझे…जिस दिन मैं ने अपने स्वाभिमान की रक्षा की, उसी दिन उन का अपमान हो जाएगा. मैं अकेली जान…भला मेरी क्या जरूरतें, जो मैं ने उन की मदद करने से मना कर दिया. मुझे कुछ हो गया तो मेरा घर, मेरा रुपयापैसा भला किस काम आएगा.’’

‘‘तुम्हें कुछ हो गया…इस का क्या मतलब? तुम्हें क्या होने वाला है, मैं समझा नहीं…’’

‘‘मेरी 40 साल की उम्र है. अब मेरी शादी करने की उम्र तो रही नहीं. किस के लिए है, जो सब मैं कमाती हूं. मैं जब मरूंगी तो सब उन का ही होगा न.’’

‘‘जब मरोगी तब मरोगी न. कौन कब जाने वाला है, इस का समय निश्चित है क्या? कौन पहले जाने वाला है कौन बाद में, इस का भी क्या पता… बुरा मत मानना श्वेता, अगर मैं तुम्हारी मौत की कामना कर तुम्हारी धनसंपदा पर नजर रखूं तो क्या मुझे अपनी मृत्यु का पता है कि वह कब आने वाली है. अपना भी खा सकूंगा इस की भी क्या गारंटी, जो तुम्हारा भी छीन लेने की आस पालूं. तुम्हारे भाई व बहन 100 साल जिएं लेकिन उन्हें तुम्हें लूटने का कोई अधिकार नहीं है.’’

पलकें भीग गईं श्वेता की. कमरे में देर तक सन्नाटा छाया रहा. चश्मा उतार कर आंखें पोंछीं श्वेता ने.

‘‘अजय, वक्त सब सिखा देता है. यह संसार और दुनियादारी बहुत बड़ा स्कूल है, जहां हर पल कुछ नया सीखने को मिलता है. बहुत अच्छा बनने की कोशिश भी इनसान को कहीं का नहीं छोड़ती. मानव से महामानव बनना आसान है लेकिन महामानव से मानव बनना आसान नहीं. किसी को सदा देने वाले हाथ मांगते हुए अच्छे नहीं लगते. मैं सदा देती हूं, जिस दिन इनकार करूंगी…’’

‘‘तुम्हें महामानव होने का प्रमाणपत्र किस ने दिया है? …तुम्हारे भाईबहन ने ही न. वे लोग कितने स्वार्थी हैं क्या तुम्हें दिखता नहीं. इस उम्र में क्या तुम्हारा घर नहीं बस सकता, मरने की बातें करती हो…अभी तुम ने जीवन जिया कहां है… तुम शादी क्यों नहीं कर लेतीं. इस काम में तुम चाहो तो मैं और मेरी पत्नी तुम्हारा साथ देने को तैयार हैं.’’

अवाक् रह गई थी श्वेता. इस तरह हैरान मानो जो सुना वह कभी हो ही नहीं सकता.

‘‘शायद तुम यह नहीं जानतीं कि हमारे घर में तुम्हारी चर्चा इसलिए भी है क्योंकि मेरी पत्नी और दोनों बेटियां भी सांवले रंग की हैं. पलपल स्वयं को दूसरों से कम समझना उन का भी स्वभाव बनता जा रहा है. तुम्हारी चर्चा कर के उन्हें यह समझाना चाहता हूं कि देखो, हमारी श्वेताजी कितनी सुंदर हैं और मैं सदा चाहूंगा कि मेरी दोनों बेटियां तुम जैसी बनें.’’

स्वर भर्रा गया था मेरा. श्वेता के अति व्यक्तिगत पहलू को इस तरह छू लूंगा मैं ने कभी सोचा भी नहीं था. चुप थी श्वेता. आंखें टपकने लगी थीं. पास जा कर कंधा थपथपा दिया मैं ने.

‘‘हम आफिस के सहयोगी हैं… अगर भाई बन कर तुम्हारा घर बसा पाऊं तो मुझे बहुत खुशी होगी. क्या हमारे साथ रिश्ता बांधना चाहोगी? देखो, हमारा खून का रिश्ता तो नहीं होगा लेकिन जैसा भी होगा निस्वार्थ होगा.’’

रोतेरोते हंसने लगी थी श्वेता. देर तक हंसती रही. चुपचाप निहारता रहा मैं. जब सब थमा तब ऐसा लगा मानो नई श्वेता से मिल रहा हूं. मेरा हाथ पकड़ देर तक सहलाती रही श्वेता. सर पर हाथ रखा मैं ने. शायद उसी से कुछ कहने की हिम्मत मिली उसे.

‘‘अजय, क्या पिता बन कर मेरा कन्यादान करोगे? मैं शादी करना चाहती हूं पर यह समझ नहीं पा रही कि सही कर रही हूं या गलत. कोई ऐसा अपना नहीं मिल रहा था जिस से बात कर पाती. ऐसा लग रहा था, कोई पाप कर रही हूं क्योंकि मेरे अपनों ने तो मुझे वहां ला कर खड़ा कर दिया है जहां अपने लिए सोचना भी बचकाना सा लगता है.’’

मैं सहसा चौंक सा गया. मैं तो बस सहज बात कर रहा था और वह बात एक निर्णय पर चली आएगी, शायद श्वेता ने भी नहीं सोचा होगा.

‘‘सच कह रही हो क्या?’’

‘‘हां. मेरे साथ ही पढ़ते थे वह. एम.ए. तक हम साथ थे. 15 साल पहले उन की शादी हो गई थी. मेरे पिताजी के गुजर जाने के बाद मुझ पर परिवार की जिम्मेदारी थी इसलिए मेरी मां ने भी मेरा घर बसा देना जरूरी नहीं समझा. भाईबहनों को ही पालतेब्याहते मैं बड़ी होती गई…ऊपर से मेरा रंग भी काला. सोने पर सुहागा.

‘‘पिछली बार जब मैं दिल्ली में होने वाले सेमिनार में गई थी तब सहायजी से वहां मुलाकात हुई थी.’’

‘‘सहायजी, वही जो दिल्ली विश्वविद्यालय में ही रसायन विभाग में हैं. हां, मैं उन्हें जानता हूं. 2 साल पहले कार एक्सीडेंट में उन की पत्नी और बेटे का देहांत हो गया था. उन की बेटी यहीं लुधियाना में है.’’

‘‘और मैं उस बच्ची की स्थानीय अभिभावक हूं,’’ धीरे से कहा श्वेता ने. एक हलकी सी चमक आ गई उस की नजरों में. मैं समझ सकता हूं उस बच्ची की वजह से श्वेता के मन में ममता का अंकुर फूटा होगा. सहाय भी बहुत अच्छे इनसान हैं. बहुत सम्मान है उन का दिल्ली में.

‘‘क्या सहाय ने खुद तुम्हारा हाथ मांगा है?’’

‘‘वह और उन की बेटी दोनों ही चाहते हैं. मैं कोई निर्णय नहीं ले पा रही हूं. मैं क्या करूं, अजय. कहीं इस में उन का भी कोई स्वार्थ तो नहीं है.’’

‘‘जरा सा स्वार्थी तो हर किसी को होना ही चाहिए न. उन्हें पत्नी चाहिए, तुम्हें पति और बच्ची को मां. श्वेता, 3 अधूरे लोग मिल कर एक सुखी घर की स्थापना कर सकते हैं. जरूरतें इनसानों को जोड़ती हैं और जुड़ने के बाद प्यार भी पनपता है. मुझे 2 दिन का समय दो. मैं अपने तरीके से सहाय के बारे में छानबीन कर के तुम्हें बताता हूं.’’

शायद श्वेता के शब्दों का ही प्रभाव होगा, एक पिता जैसी भावना मन को भिगोने लगी. माथा सहला दिया मैं ने श्वेता का.

‘‘मैं और तुम्हारी भाभी सदा तुम्हारे साथ हैं, श्वेता. तुम अपना घर बसाओ और खुश रहो.’’

श्वेता की आंखों में रुका पानी झिलमिलाने लगा था. पसंद तो मैं उस को सदा से करता था, उस से एक रिश्ता भी बंध जाएगा पता न था. उस का मेरा हाथ अपने माथे से लगा कर सम्मान सहित चूम लेना मैं आज भी भूला नहीं हूं. रिश्ता तो वह होता है न जो मन का हो, रक्त के रिश्ते और उन का सत्य अब सत्य कहां रह गया है. किसी चिंतक ने सही कहा है, जो रक्त पिए वही रक्त का रिश्तेदार.

सहाय, श्वेता और वह बच्ची मृदुला, तीनों आज मेरे परिवार का हिस्सा हैं. श्वेता के भाईबहन उस से मिलतेजुलते नहीं हैं. नाराज हैं, क्या फर्क पड़ता है, आज रूठे हैं, कल मान भी जाएंगे. आज का सत्य यही है कि श्वेता के माथे की सिंदूरी आभा बहुत सुंदर लगती है. अपनी गृहस्थी में वह बहुत खुश है. मेरा घर उस का मायका है. एक प्यारी सी बेटी की तरह वह चली आती है मेरी पत्नी के पास. दोनों का प्यार देख कभीकभी सोचता हूं लोग क्यों खून के रिश्तों के लिए रोते हैं. दाहसंस्कार करने के अलावा भला यह काम कहां आता है.

बंद लिफाफा : दिल्ली पहुंच केशव की कैसी बदली जिंदगी

केशव को दिल्ली गए 2 दिन हो गए थे और लौटने में 4-5 दिन और लगने की संभावना थी. ये चंद दिन काटने भी रजनी के लिए बहुत मुश्किल हो रहे थे. केशव के बिना रहने का उस का यह पहला अवसर था. बिस्तर पर पड़ेपड़े आखिर कोई करवटें भी कब तक बदलता रहेगा. खीज कर उसे उठना पड़ा था.

रजनी ने घड़ी में समय देखा, 9 बज गए थे और सारा घर बिखरा पड़ा था. केशव को इस तरह के बिखराव से बहुत चिढ़ थी. अगर वह होता तो रजनी को डांटने के बजाय खुद ही सामान सलीके से रखना शुरू कर देता और उसे काम में लगे देख कर रजनी सारा आलस्य भूल कर उठती और स्वयं भी काम में लग जाती. केशव की याद आते ही रजनी के गालों पर लालिमा छा गई. उस ने उठ कर घर को संवारना शुरू कर दिया.

बिस्तर की चादर उठाई ही थी कि एक बंद लिफाफे पर रजनी की नजर टिक गई. हाथ में उठा कर उसे कुछ क्षणों तक देखती रही. मां की चिट्ठी थी और पिछले 10 दिन से इसी तरह तकिए के नीचे दबी पड़ी थी. केशव ने तो कई बार कहा था, ‘‘खोल कर पढ़ लो, आखिर मां की ही तो चिट्ठी है.’’

पर रजनी का मन ही नहीं हुआ. वह समझती थी कि पत्र पढ़ कर उसे मानसिक तनाव ही होगा. फिर से उस लिफाफे को तकिए के नीचे दबाती हुई वह बिस्तर पर लेट गई और अतीत में विचरण करने लगी:

मां का नाराज होना स्वाभाविक था, परंतु इस में भी कोई शक नहीं कि वे रजनी को बहुत प्यार करती थीं.

मां कहा करतीं, ‘मेरी रजनी तो परी है,’ अपनी खूबसूरत बेटी पर उन्हें बड़ा नाज था. पासपड़ोस और रिश्तेदारों में हर तरफ रजनी की सुंदरता के चर्चे थे. सिर्फ सुंदर ही नहीं, वह गुणवती भी थी. मां ने उसे सिलाईकढ़ाई, चित्रकला और नृत्य की भी शिक्षा दिलाई थी. रजनी के लिए तब से रिश्ते आने लगे थे जब वह बालिग भी नहीं हुई थी. पिताजी सिर्फ रजनी की पढ़ाई की ही चिंता करते, पर मां का तो सारा ध्यान लड़के की तलाश में लगा था.

यह तो अच्छा था कि उस के लिए जो भी रिश्ते आए, उन में से कोई भी लड़का मां को पसंद नहीं आया था.

आसपड़ोस और रिश्तेदारों के सामने रजनी की सुंदरता का बखान करते हुए मां कहतीं, ‘कुंआरी बेटी छाती पर बोझ होती है और वह अगर सुंदर होने के साथसाथ गुणी भी हो तो बोझ दोगुना हो जाता है. रजनी के लिए योग्य वर ढूंढ़ना बड़ा कठिन काम है. हम अकेले क्या कर लेंगे? आप भी ध्यान रखिएगा.’

बारबार मां के यही कहते रहने से उन की मुंहबोली बहन सुलभा अपने रिश्ते के एक लड़के का प्रस्ताव रजनी के लिए लाई लेकिन लड़के का फोटो देखते ही मां सुलभा पर बरस पड़ीं, ‘अरी सुलभा, तेरी आंखों को क्या हो गया है जो मेरी बेटी के लिए काना दूल्हा ढूंढ़ कर लाई है.’

‘काना? यह तू क्या कह रही है, कमला. लड़के की एक आंख दूसरी से थोड़ी छोटी है तो क्या वह काना हो गया,’ सुलभा मौसी भी चिढ़ गईं.

‘और नहीं तो क्या…एक छोटी, दूसरी बड़ी, काना नहीं तो और क्या कहूं?’ मां हाथ नचाती बोलीं, ‘मेरी बेटी में कोई खोट नहीं, फिर मैं क्यों ब्याहने लगी इस से…’ मां का क्रोध दोगुना हो गया था.

उस दिन मां ने सुलभा मौसी से हमेशा के लिए रिश्ता तोड़ दिया. इस घटना के बाद मां रिश्तेदारों में इस बात को ले कर मशहूर होती गईं कि उन्हें अपनी बेटी की सुंदरता पर बड़ा घमंड है, इसीलिए बेटी के लिए जो भी रिश्ता आता है, बस लड़के के दोष ही ढूंढ़ कर निकालती रहती हैं. मां का तनाव बढ़ रहा था पर रजनी और पिताजी मां की पीड़ा से अनभिज्ञ थे. रजनी जल्दी से जल्दी एम.ए. कर लेना चाहती थी. उसे स्वयं भी इस बात का डर था कि अगर मां को कोई अच्छा लड़का मिल जाएगा तो उस की पढ़ाई पूरी न हो पाएगी.

आखिर रजनी की एम.ए. की पढ़ाई भी हो गई पर मां अपनी तलाश में असफल ही रहीं. रजनी नौकरी करना चाहती थी तो पिताजी ने चुपके से उसे इजाजत भी दे दी. उस ने आवेदनपत्र भेजने शुरू कर दिए. इस बीच उस के लिए रिश्ते भी आते रहे. अब तो उस की सुंदरता के साथसाथ पढ़ाई को भी ध्यान में रखा जाने लगा, जिस से मां की परेशानी और बढ़ गई.

जब रजनी के लिए कानपुर के एक कालेज से व्याख्याता पद के लिए नियुक्तिपत्र आया तो मां और पिताजी के बीच जम कर झगड़ा हुआ और अंत में मां का निर्णयात्मक स्वर उभरा, ‘रजनी नहीं जाएगी.’

‘क्यों नहीं?’ मां के निर्णय का खंडन करते हुए पिताजी का प्रश्न सुनाई दिया.

‘बेकार सवाल मत कीजिए. मैं अपनी खूबसूरत और जवान बेटी को अकेली दूसरे शहर जा कर नौकरी करने की इजाजत नहीं दे सकती और अगर इसे नौकरी करनी ही है तो यहीं शहर में करे.’

‘कमला, समझने की कोशिश करो. रजनी अब छोटी बच्ची नहीं रही…और फिर अच्छी नौकरी बारबार नहीं मिलती. तुम यह न समझना कि मैं उस का पक्ष ले रहा हूं. वह अपना फैसला खुद कर चुकी है और हमें उस के निर्णय में दखलंदाजी का हक नहीं है,’ पिताजी ने मां को समझाते हुए कहा.

‘क्यों नहीं है हक? क्या हम उस के कोई…’ अब मां का स्वर भीग गया था.

रजनी का दिल भर आया. मां उस की दुश्मन नहीं थीं पर रजनी भी हाथ आया मौका खोना नहीं चाहती थी. धीरे से उस ने मां के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘मां, मैं अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती हूं. मुझे मत रोको.’

रजनी के हाथों को अपने कंधों से झटकते हुए मां पिताजी पर ही बरस पड़ीं,  ‘देख लीजिएगा, आप की लाड़ली हमारी नाक कटवा कर ही मानेगी. दूसरे शहर में कोई रोकटोक न रहेगी. अपनी मनमानी करती फिरेगी. घर की इज्जत मिट्टी में मिल गई तो सिर पीटने से कोई फायदा नहीं होगा.’

मां अनापशनाप कहे जा रही थीं और पिताजी सिर थामे सोफे पर चुप बैठे थे. रजनी उन्हें अकेला छोड़ कर कमरे से निकल गई थी.

मां की लाख कोशिशों के बावजूद पिताजी ने एक बार भी रजनी को जाने से मना नहीं किया. नए शहर, नए माहौल और एक नई व्यस्तता भरी जिंदगी में वह अपनेआप को ढालने का प्रयास करने लगी. देखने में रजनी स्वयं एक छात्रा सी लगती थी. अपने से ऊंचे कद के लड़कों को पढ़ाते समय प्राय: वह घबरा सी जाती थी. लड़के उस के इसी शांत और डरेडरे से स्वभाव का फायदा उठा कर उसे छेड़ बैठते और तब बेबस रजनी का मन होता कि नौकरी ही छोड़ दे. कभीकभी तो वह अपनेआप को बेहद अकेली महसूस करती. कालेज के अन्य प्राध्यापकों से वह वैसे भी घुलमिल नहीं पा रही थी. बस, अपने काम से ही मतलब रखती थी.

एक दिन कुछ शरारती छात्रों ने कालेज से लौट रही रजनी को रास्ते में रोक लिया. हलकी सी बूंदाबांदी भी हो रही थी और लग रहा था कि कुछ ही मिनटों में जोरों की बारिश शुरू हो जाएगी. ऐसे में अपनेआप को इन लड़कों से घिरा पा कर उसे कंपकंपी छूटने लगी.

‘मैडम, आज आप ने जो कुछ पढ़ाया, वह हमारी समझ में नहीं आया. कृपया जरा समझा दीजिए,’ एक छात्र ने उस के समीप आ कर कहा.

‘क्यों, कक्षा में क्या करते रहते हैं आप लोग?’ चेहरे पर क्रोध भरा तनाव लाने का असफल प्रयास करते हुए रजनी ने पूछा.

‘दरअसल मैडम, हम कोशिश तो करते हैं कि पढ़ाई में ध्यान दें, पर आप हैं ही इतनी सुंदर कि पढ़ाई भूल कर बस आप को ही देखे चले जाते हैं…’ दूसरे छात्र ने कहा और जैसे ही उस ने अपना हाथ रजनी के चेहरे की ओर बढ़ाया, एक मजबूत हाथ ने उसे रोक लिया. प्रोफेसर केशव को पास पा कर रजनी को तसल्ली हुई.

‘कल सवेरे आप सब प्रिंसिपल साहब के कक्ष में मुझ से मिलिएगा. अब फूटिए यहां से…’ प्रोफेसर केशव के धीमे किंतु आदेशात्मक स्वर से सभी छात्र वहां से खिसक गए. रजनी चुपचाप केशव के साथ चल पड़ी. वैसे रजनी कई बार उन से मिल चुकी थी, पर ज्यादा बातचीत कभी नहीं हुई थी.

‘कहां रहती हैं आप?’ केशव ने चलतेचलते पूछा.

‘होस्टल में,’ रजनी ने धीमे से कहा.

‘पहले कहां थीं?’

‘जयपुर में.’

फिर दोनों के बीच एक गहरी चुप्पी छा गई. वे चुपचाप चल रहे थे कि केशव ने कहा, ‘आप में अभी तक आत्म- विश्वास नहीं आया है. आप पढ़ाते समय इतना ज्यादा घबराती हैं कि छात्रछात्राओं पर गहरा प्रभाव नहीं छोड़ पातीं.’

‘जी, मैं जानती हूं, पर यह मेरा पहला अवसर है.’

‘कोई बात नहीं,’ प्रोफेसर केशव मुसकरा दिए थे, ‘पर अब यह कोशिश कीजिएगा कि आत्मविश्वास हमेशा बना रहे. वैसे उन छात्रों से मैं निबट लूंगा. अब वे आप को कभी परेशान नहीं करेंगे.’

रजनी ने एक बार सिर उठा कर उन्हें देखा था. आकर्षक व्यक्तित्व वाले केशव के सांवले चेहरे का सब से बड़ा आकर्षण था उन की लंबी नाक. रजनी प्रभावित हुए बिना न रह सकी.

उस रात रजनी ढंग से सो भी न सकी. लड़कों की शरारत और केशव की शराफत का खयाल दिमाग में ऐसे कुलबुलाता रहा कि वह रात भर करवटें ही बदलती रही. उसे लगा कि वह केशव की मदद को आजीवन भूल न सकेगी.

दूसरे दिन रजनी केशव से मिली तो केशव के चेहरे पर उस घटना की याद का जैसे कोई चिह्न ही नहीं था. रजनी के नमस्कार का जवाब दे कर वे आगे बढ़ गए थे. धीरेधीरे रजनी का केशव के प्रति आकर्षण बढ़ता चला गया. केशव ने कभी भी यह जताने की कोशिश नहीं की थी कि रजनी की मदद कर के उन्होंने कोई एहसान किया हो.

रजनी जब भी केशव को देखती, अपलक उन्हें देखती रह जाती. उसे इस प्रकार अपनी ओर देखते हुए पा कर केशव धीरे से मुसकरा देते और यही मुसकराहट एक तीर सी रजनी के हृदय को भेद जाती. धीरेधीरे रजनी का यह आकर्षण प्रेम बन कर फूटने लगा तो उस ने निर्णय लिया कि वह केशव के सामने विवाह का प्रस्ताव रखेगी.

एक दिन रजनी ने प्रोफेसर केशव को दोपहर के खाने का आमंत्रण दे दिया. होटल में रजनी केशव के सामने यही सोच कर झेंपी सी बैठी रही कि वह इस बात को कहेगी कैसे. सोचतेसोचते वह परेशान सी हो गई.

‘क्या बात है, रजनी?’ केशव ने बातचीत में पहल की, ‘तुम खामोश क्यों हो?’

रजनी चुप रही.

‘कुछ कहना चाहती हो?’

‘हां…’

‘क्या बात है? क्या फिर किसी ने परेशान किया?’ केशव ने शरारत और आत्मीयता से भरा प्रश्न किया तो रजनी की आंखों से आंसू बहने लगे. प्रेम की विवशता और शर्म की खाई के बीच सिर्फ आंसुओं का ही सहारा था, जो शायद उस के प्रेम की गहराई को स्पष्ट कर पाते. वह धीरे से बोली, ‘मैं आप से प्रेम करती हूं और शादी भी करना चाहती हूं.’

‘शादीब्याह में इतनी जल्दबाजी ठीक नहीं,’ केशव ने कहा तो सुन कर रजनी चौंक गई. क्या केशव उस के प्यार को ठुकरा रहा है?

‘तुम मेरे बारे में कुछ भी नहीं जानतीं,’ केशव ने आगे कहा, ‘पहले जान लो, फिर निर्णय लेना.

‘शादी के बाद शायद मैं तुम पर बोझ बन जाऊं,’ कहते हुए केशव ने अपनी पैंट को घुटने तक खींच लिया. उस का घुटने से नीचे नकली पैर लगा था.

देखते ही रजनी की चीख निकल गई. वह धीरे से बोली, ‘यह कैसे हुआ?’

‘सड़क दुर्घटना से…’

रजनी की आंखों से अश्रुधारा बह चली थी. उस के निर्णय में एकाएक परिवर्तन आया. पल भर में ही उस ने सोच लिया कि वह शादी के बाद ही मां और पिताजी को सूचना देगी. वह जानती थी कि मां एक अपाहिज को अपने दामाद के रूप में कभी भी स्वीकार नहीं कर पाएंगी. एक सादे से समारोह में रजनी ने केशव से विवाह कर लिया.

मां को पत्र लिखने के कुछ ही दिन बाद उन का जवाब आ गया. पर रजनी लिफाफा खोल न सकी. वह सोचने लगी कि मां का दिल अवश्य ही टूटा होगा और पत्र भी उन्होंने उसे कोसते हुए ही लिखा होगा. रजनी को हमेशा पिताजी का खयाल आता था. मां इस घटना के लिए पिताजी को ही जिम्मेदार ठहराती होंगी. पिताजी को भी शायद अब पछतावा ही होता होगा कि रजनी को यहां क्यों भेजा.

अभी वह यह सब सोच ही रही थी कि नौकरानी की आवाज सुनाई दी तो वह अतीत से निकल कर वर्तमान में आ गई.

‘‘मालकिन, आप की माताजी आई हैं.’’

‘‘मां?’’ रजनी चौंक गई, ‘‘कब आईं?’’

‘‘अभी कुछ देर पहले. नहा रही हैं.’’

रजनी के मन में कई तरह के विचार आने लगे. मां के आने से उस का मन शंकित हो उठा. न जाने वे क्या सोच कर आई हैं और केशव के साथ कैसा व्यवहार करेंगी? अचानक उसे लिफाफे का खयाल आया. दौड़ते हुए गई और तकिए के नीचे दबे लिफाफे को खोल कर पढ़ने लगी :

‘बेटी रजनी,

नहीं जानती कि अगर तू ने शादी के पहले मुझे यह बताया होता कि केशव अपाहिज है तो मैं क्या निर्णय लेती, पर बाद में पता चला तो थोड़ी सी पीड़ा सिर्फ यह सोच कर हुई कि अपने हाथों से तुझे दुलहन न बना सकी.

धीरेधीरे मैं यह महसूस करने लगी हूं कि तू ने गलत निर्णय नहीं लिया है बल्कि अपने इस निर्णय से यह साबित कर दिया है कि तू अपनी मां की तरह शारीरिक सुंदरता को महत्त्व देने वाली नहीं, वरन हृदय की सुंदरता को पहचानने वाली पारखी है. तेरे निर्णय पर मुझे नाज है. मैं तुझ से मिलने आ रही हूं.

तुम्हारी मां.’

रजनी को लगा कि मारे खुशी के वह पागल हो जाएगी. उसी तरह लिफाफे को तकिए के नीचे रख कर वह जोर से स्नानघर का दरवाजा पीटने लगी, ‘‘जल्दी आओ न मां, तुम्हें देखने को आंखें तरस गई हैं.’’

‘‘इतनी बड़ी हो गई है, पर अभी बचपना नहीं गया,’’ मां का बुदबुदाता सा स्वर सुनाई दिया.

रजनी को लगा कि मां जल्दीजल्दी से शरीर पर पानी डालने लगी हैं.

तुम प्रेमी क्यों नहीं : क्या खरी उतरी नीरू

शेखर के लिए मन लगा कर चाय बनाई थी, पर बाहर जाने की हड़बड़ी दिखाते हुए एकदम झपट कर उस ने प्याला उठा लिया और एक ही घूंट में पी गया. घर से बाहर जाते वक्त लड़ा भी तो नहीं जाता. वह तो दिनभर बाहर रहेगा और मैं पछताती रहूंगी. ऐसे समय में उसे घूरने के सिवा कुछ कर ही नहीं पाती.

मैं सोचती, ‘कितना अजीब है यह शेखर भी. किसी मशीन की तरह नीरस और बेजान. उस के होंठों पर कहकहे देखने के लिए तो आदमी तरस ही जाए. उस का हर काम बटन दबाने की तरह होता है.’ कई बार तो मारे गुस्से के आंखें भर आतीं. कभीकभी तो सिसक भी पड़ती, पर कहती उस से कुछ भी नहीं.

शादी को अभी 3 साल ही तो गुजरे थे. एक गुड्डी हो गई थी. सुंदर तो मैं पहले ही थी. हां, कुछ दुबली सी थी. मां बनने के बाद वह कसर भी पूरी सी हो गई. आईने में जब भी अपने को देखती हूं तो सोचती हूं कि शेखर अंदर से अवश्य मुरदा है, वरना मुझे देख कर जरा सी भी प्रशंसा न करे, असंभव है. कालिज में तो मेरे लिए नारा ही था, ‘एक अनार सौ बीमार.’

दूसरी ओर पड़ोस में ही किशोर बाबू की लड़की थी नीरू. बस, सामान्य सी कदकाठी की थी. सुंदरता के किसी भी मापदंड पर खरी नहीं उतरती थी. परंतु वह जिस से प्यार करती थी वह उस की एकएक अदा पर ऐसी तारीफों के पुल बांधता कि वह आत्मविभोर हो जाती. दिनरात नीरू के होंठों पर मुसकान थिरकती रहती. कभीकभी उस की बहनें ही उस से जल उठतीं.

नीरू मुझ से कहती, ‘‘क्या करूं, दीदी. वह मुझ से खूब प्यार भरी बातें करता है. हर समय मेरी प्रशंसा करता रहता है. मैं मुसकराऊं कैसे नहीं. कल मैं उस के लिए गाजर का हलवा बना कर ले गई तो उस ने इतनी तारीफ की कि मेरी सारी मेहनत सफल हो गई.’’

वास्तव में नीरू की बात गलत न थी. अब कोई मेहनत कर के आग की आंच में पसीनेपसीने हो कर खाना बनाए और खाने वाला ऐसे खाए जैसे कोई गुनाह कर रहा हो तब बनाने वाले पर क्या गुजरती है, यह कोई भुक्तभोगी ही जान सकता है.

जाने शेखर ही ऐसा क्यों है. कभीकभी सोचती हूं, उस की अपनी परेशानियां होंगी, जिन में वह उलझा रहता होगा. दफ्तर की ही क्या कम भागदौड़ है. बिक्री अधिकारी है. आज यहां है तो कल वहां है. आज इस समस्या से उलझ रहा है तो कल किसी दूसरी परेशानी में फंसा है. परंतु फिर यह तर्क भी बेकार लगता है. सोचती हूं, ‘एक शेखर ही तो बिक्री अधिकारी नहीं है, हजारों होंगे. क्या सभी अपनी पत्नियों से ऐसा ही व्यवहार करते होंगे?’

वैसे आर्थिक रूप से शेखर बहुत सुरक्षित है. उस का वेतन हमारी गृहस्थी के लिए बहुत अधिक ही है. वह एक भरेपूरे घर का ऐसा मालिक भी नहीं है कि रोज नईनई उलझनों से पाला पड़े. परिवार में पतिपत्नी के अलावा एक गुड्डी ही तो है. सबकुछ तो है शेखर के पास. बस, केवल नहीं हैं तो उस के होंठों में शब्द और एक प्रेमी अथवा पति का उदार मन. इस के साथ नीरू तो दो पल भी न रहे.

मुझे याद नहीं पड़ता कि कभी शेखर ने मुंह पर मेरे व्यवहार या सुंदरता की तारीफ की हो. मुझ पर कभी मुग्ध हो कर स्वयं को सराहा हो.

अब उस दिन की ही बात लो. नीरू ने गहरे पीले रंग की साड़ी पहन ली थी, जोकि उस के काले रंग पर बिलकुल ही बेमेल लग रही थी. परंतु रवि जाने किस मिट्टी का बना था कि वह नीरू की प्रशंसा में शेर पर शेर सुनाता रहा.

नीरू को तो जैसे खुशी के पंख लग गए थे. वह आते ही मेरी गोद में गिर पड़ी थी. मैं ने घबरा कर पूछा, ‘‘क्या हुआ नीरू, कोई बात हुई?’’

‘‘बात क्या होगी,’’ नीरू ने मेरी बांह में चिकोटी काट कर कहा, ‘‘आज क्या मैं सच में पीली साड़ी में कहर बरपा रही थी. कहो तो.’’

मैं क्या उत्तर देती. पीली साड़ी में वह कुछ खास अच्छी न लग रही थी, पर उसे खुश करने की गरज से कहा, ‘‘हां, सचमुच तुम आज बहुत सुंदर लग रही हो.’’

‘‘बिलकुल ठीक,’’ नीरू चहक उठी, ‘‘रवि भी ऐसा ही कहता था. बस, वह मुझे देखते ही कवि बन जाता है.’’

मुझे याद है, एक बार पायल पहनने का फैशन चल पड़ा था. ऐसे में मुझे भी शौक चढ़ा कि मैं भी पायल पहन लूं. मेरे पैर पायलों में बंध कर निहायत सुंदर हो उठे थे. जिस ने भी उन दिनों मेरे पैर देखे, बहुत तारीफ की. पर चाहे मैं पैर पटक कर चलूं या साड़ी उठा कर चलूं, पायलों का सुंदर जोड़ा चमकचमक कर भी शेखर को अपनी ओर न खींच पाया था. एक दिन तो मैं ने खीझ कर कहा, ‘‘कमाल है, पूरी कालोनी में मेरी पायलों की चर्चा हो रही है, पर तुम्हें ये अभी तक दिखाई ही नहीं दीं.’’?

‘‘ऐं,’’ शेखर ने चौंक कर कहा, ‘‘यह वही पायलों का सेट है न, जो पिछले महीने खरीदा था. बिलकुल चांदी की लग रही हैं.’’

अब कैसे कहती कि चांदी या पायलों को नहीं, शेखर साहब, मेरे पैरों के बारे में कुछ कहिए. असल बात तो पैरों की तारीफ की है, पर कह न पाई थी.

यह भी तो तभी की बात है. नीरू ने भी मेरी पसंद की पायलें खरीदी थीं. उन्हें पहन कर वह रवि के पास गई थी. बस, जरा सी ही तो उन की झंकार होती थी, मगर बड़ी दूर से ही वे रवि के कानों में बजने लगी थीं. रवि ने मुग्ध भाव से उस के पैरों की ओर देखते हुए कहा था, ‘‘तुम्हारे पैर कितने सुंदर हैं, नीरू.’’

कितनी छोटीछोटी बातों की समझ थी रवि में. सुनसुन कर अचरज होता था. अगर नीरू ने उस से शादी कर ली तो दोनों की जिंदगी कितनी प्रेममय हो जाएगी.

मैं नीरू को सलाह देती, ‘‘नीरू, रवि से शादी क्यों नहीं कर लेती?’’

पर नीरू को मेरी यह सलाह नहीं भाती. मुसकरा कर कहती, ‘‘रवि अभी प्रेमी ही बना रहना चाहता है, जब तक कि उस के मन की कविता खत्म न हो जाए.’’

‘‘कविता?’’ मैं चौंक कर रह जाती. रवि का मन कविता से भरा है, तभी उस से इतनी तारीफ हो पाती है. कितना आकुल रहता है वह नीरू के लिए. शेखर के मन में कविता ही नहीं बची है, वह तो पत्थर है, एकदम पत्थर. सामान्य दिनों को अगर मैं नजरअंदाज भी कर दूं तो भी बीमारी आदि होने पर तो उसे मेरा खयाल करना ही चाहिए. इधर बीमार पड़ी, उधर डाक्टर को फोन कर दिया. फिर दवाइयां आईं और मैं दूसरे दिन से ही फिर रसोई के कामों में जुट गई.

मुझे याद है, एक बार मैं फ्लू की चपेट में आ गई थी. शेखर ने बिना देर किए दवा मंगा दी थी, पर मैं जानबूझ कर अपने को बीमार दिखा कर बिस्तर पर ही पड़ी रही थी. शेखर ने तुरंत मायके से मेरी छोटी बहन सुलू को बुला लिया था. मैं चाहती थी कि शेखर नीरू के रवि की तरह ही मेरी तीमारदारी करे, मेरे स्वास्थ्य के बारे में बारबार पूछे, मनाए, हंसाए, मगर ऐसा कुछ न हुआ. बीमारी आई और भाग गई.

इतना ही नहीं, शेखर स्वयं बीमार पड़ता तो इस बात की मुझ से कभी अपेक्षा नहीं करता कि मैं उस की सेवाटहल में लगी रहूं. मैं जानबूझ कर उस के पास बैठ भी जाऊं तो मुझे जबरन उठा कर किसी काम में लगवा देता या अपने दफ्तरी हिसाब के जोड़तोड़ में लग जाता. ऐसी स्थिति में मैं गुस्से से उबल पड़ती. अगर कभी रवि बीमार होता तो उस की डाक्टर सिर्फ नीरू होती.

‘‘मैं रवि को पा कर कभी निराश नहीं होऊंगी, दीदी,’’ नीरू अकसर कहती, ‘‘उसे हमेशा मेरी चिंता सताती रहती है. मैं अगर चाहूं तो भी लापरवाह नहीं हो सकती. पहले ही वह टोक देगा. कभीकभी उस की याददाश्त पर मैं दंग हो जाती हूं. लगता है, जैसे वह डायरी या कैलेंडर हो.’’

याददाश्त के मामले में भी शेखर बिलकुल कोरा है. अगर कहीं जाने का कार्यक्रम बने तो वह अधिकतर भूल ही जाता है. सोचती हूं कि किसी दिन वह कहीं मुझे ही न भूल जाए.

एक दिन मैं ने शादी वाली साड़ी पहनी थी. शेखर ने देखा और एक हलकी सी मिठास से वह घुल भी गया, पर वह बात नहीं आई जो नीरू के रवि में पैदा होती. मुझे इतना गुस्सा आया कि मुंह फुला कर बैठ गई. घंटों उस से कुछ न बोली. शेखर को किसी भी चीज की जरूरत पड़ी तो गुड्डी के हाथों भिजवा दी. शेखर ने रूठ कर कहा, ‘‘अगर गुड्डी न होती तो आप हमें ये चीजें किस तरह से देतीं?’’

‘‘डाक से भेज देती,’’ मैं ने ताव खा कर कहा. शेखर हंसने लगा, ‘‘इतनी सी बात पर इतना गुस्सा. हमें पता होता कि बीवियों की हर बात की प्रशंसा करनी पड़ती है तो शादी से पहले हम कुछ ऐसीवैसी किताबें जरूर पढ़ लेते.’’

मैं ने भन्ना कर शेखर को देखा और बिलकुल रोनेरोने को हो आई, ‘‘प्रेमी होना हर किसी के बस की बात नहीं होती. तुम कभी प्रेमी न बन पाओगे. रवि को तो तुम ने देखा होगा?’’

‘‘कौन रवि?’’ शेखर चौंका, ‘‘कहीं वह नीरू का प्रेमी तो नहीं?’’

‘‘जी हां, वही,’’ मैं ने नमकमिर्च लगाते हुए कहा, ‘‘नीरू की एकएक बात की तारीफ हजार शब्दों में करता है. तुम्हारी तरह हर समय चुप्पी साधे नहीं रहता. बातचीत में भी इतनी कंजूसी अच्छी नहीं होती.’’

‘‘अरे, तो मैं क्या करूं. बिना प्रेम का पाठ पढ़े ही ब्याह के खूंटे से बांध दिए गए. वैसे एक बात है, प्रेमी बनना बड़ा आसान काम है समझीं, मगर पति बनना बहुत मुश्किल है.

‘‘जाने कितनी योग्यताएं चाहिए पति बनने के लिए. पहले तो उत्तम वेतन वाली नौकरी जिस से लड़की का गुजारा भलीभांति हो सके. सिर पर अपनी छत है या नहीं, घर कैसा है, उस के घर के लोग कैसे हैं, घर में कितने लोग हैं. लड़के में कोई बुराई तो नहीं, उस के अच्छे चालचलन के लिए पासपड़ोसियों का प्रमाणपत्र आदि चाहिए और जब पूरी तरह पति बन जाओ तो अपनी सुंदर पत्नी की बुराइयों को दूर करने का प्रयत्न करो. अपनेआप को ही लो. तुम्हें सोना, सजनासंवरना, गपें मारना, फिल्में देखना आदि यही सब तो आता था. नकचढ़ी भी कितनी थीं तुम. हमारे घर की सीमित सुविधाओं में तुम्हारा दम घुटता था.’’

अब शेखर बिलकुल गंभीर हो गया था, ‘‘तुम जानती ही हो कैसे मैं ने धीरेधीरे तुम्हें बिलकुल बदल दिया. व्यर्थ गपें मारना, फिल्में देखना सब तुम ने बंद कर दिया. फिर तुम ने मुझे भी तो बदला है,’’ शेखर ने रुक कर पूछा, ‘‘अब कहो, तुम्हें शेखर की भूमिका पसंद है या रवि की?’’

‘‘रवि की,’’ मैं दृढ़ता से बोली, ‘‘प्रेम ही जिंदगी है, यह तुम क्यों भूल जाते हो?’’

‘‘क्यों, मैं क्या तुम से प्रेम नहीं करता. हर तरह से तुम्हारा खयाल रखता हूं. जो बना कर देती हो, खा लेता हूं. दफ्तर से छुट्टी मिलते ही फालतू गपशप में उलझने के बजाय सीधा घर आता हूं. तुम्हें जरा सी छींक भी आए तो फौरन डाक्टर हाजिर कर देता हूं. क्या यह प्रेम नहीं है?’’

‘‘यह प्रेम है या कद्दू की सब्जी?’’ मैं बिलकुल झल्ला गई, ‘‘तुम्हें प्रेम करना रवि से सीखना पड़ेगा. दिनरात नीरू से जाने क्याक्या बातें करता रहता है. उस की तो बातें ही खत्म नहीं होतीं. नीरू कुछ भी ओढ़ेपहने, खाएपकाए रवि उस की प्रशंसा करते नहीं थकता. नीरू तो उसे पा कर किसी और चीज की तमन्ना ही नहीं रखती.’’

‘‘अच्छा तो यह बात है. तब तुम ने नीरू से कभी यह क्यों नहीं कहा कि वह रवि से शादी कर ले.’’

‘‘कहा तो है…’’

‘‘फिर वह विवाह उस से क्यों नहीं करता?’’

‘‘रवि का कहना है कि जब तक उस के अंदर की कविता शेष न हो जाए तब तक वह विवाह नहीं करना चाहता. विवाह से प्रेम खत्म हो जाता है.’’

‘‘सब बकवास है,’’ शेखर उत्तेजित हो कर बोला, ‘‘आदमी की कविता भी कभी मरती है? जिस व्यक्ति ने सभ्यता को विनाशकारी अणुबम दिया, उस के अंदर की भी कविता खत्म नहीं हुई थी. ऐसा होता तो वह कभी अपने अपराधबोध के कारण आत्महत्या नहीं करता, समझीं. असल में रवि कभी भी नीरू से शादी नहीं करेगा. यह सब उस का एक खेल है, धोखा है.’’

‘‘क्यों?’’ मैं ने घबरा कर पूछा.

‘‘असल में बात तो प्रेमी और पति बनने के अंतर की है, यह रवि का चौथा प्रेम है. इस से पहले भी उस ने 3 लड़कियों से प्रेम किया था.

‘‘जब पति बनने का अवसर आया, वह भाग निकला. प्रेमी बनना बड़ा आसान है. कुछ हुस्नइश्क के शेर रट लो. कुछ विशेष आदतें पाल लो…और सब से बड़ी बात अपने सामने बैठी महिला की जी भर कर तारीफ करो. बस, आप सफल प्रेमी बन गए.

‘‘जब भी शादी की बात आएगी, देखना कैसे दुम दबा कर भाग निकलेगा.

‘‘तुम देखती चलो, आगेआगे होता है क्या? अब भी तुम्हें शिकायत है कि मैं रवि जैसा प्रेमी क्यों नहीं हूं? और अगर है तो ठीक है, कल से मैं भी कवितागजल की पुस्तकें ला कर तैयारी करूंगा. कल से मेरी नौकरी बंद. गुड्डी की देखभाल बंद, तुम्हारे शिकवेशिकायतें सुनना बंद, बाजारघर का काम बंद. बस, दिनरात तुम्हारे हुस्न की तारीफ करता रहूंगा.’’

शेखर के भोलेपन पर मेरी हंसी छूट गई. अब मैं कहती भी क्या क्योंकि यथार्थ की जमीन पर आ कर मेरे पैर जो टिक गए थे.

मसीहा: शांति की लगन

दोपहर का खाना खा कर लेटे ही थे कि डाकिया आ गया. कई पत्रों के बीच राजपुरा से किसी शांति नाम की महिला का एक रजिस्टर्ड पत्र 20 हजार रुपए के ड्राफ्ट के साथ था. उत्सुकतावश मैं एक ही सांस में पूरा पत्र पढ़ गई, जिस में उस महिला ने अपने कठिनाई भरे दौर में हमारे द्वारा दिए गए इन रुपयों के लिए धन्यवाद लिखा था और आज 10 सालों के बाद वे रुपए हमें लौटाए थे. वह खुद आना चाहती थी पर यह सोच कर नहीं आई कि संभवत: उस के द्वारा लौटाए जाने पर हम वह रुपए वापस न लें.

पत्र पढ़ने के बाद मैं देर तक उस महिला के बारे में सोचती रही पर ठीक से कुछ याद नहीं आ रहा था.

‘‘अरे, सुमि, शांति कहीं वही लड़की तो नहीं जो बरसों पहले कुछ समय तक मुझ से पढ़ती रही थी,’’ मेरे पति अभिनव अतीत को कुरेदते हुए बोले तो एकाएक मुझे सब याद आ गया.

उन दिनों शांति अपनी मां बंती के साथ मेरे घर का काम करने आती थी. एक दिन वह अकेली ही आई. पूछने पर पता चला कि उस की मां की तबीयत ठीक नहीं है. 2-3 दिन बाद जब बंती फिर काम पर आई तो बहुत कमजोर दिख रही थी. जैसे ही मैं ने उस का हाल पूछा वह अपना काम छोड़ मेरे सामने बैठ कर रोने लगी. मैं हतप्रभ भी और परेशान भी कि अकारण ही उस की किस दुखती रग पर मैं ने हाथ रख दिया.

बंती ने बताया कि उस ने अब तक के अपने जीवन में दुख और अभाव ही देखे हैं. 5 बेटियां होने पर ससुराल में केवल प्रताड़ना ही मिलती रही. बड़ी 4 बेटियों की तो किसी न किसी तरह शादी कर दी है. बस, अब तो शांति को ब्याहने की ही चिंता है पर वह पढ़ना चाहती है.

बंती कुछ देर को रुकी फिर आगे बोली कि अपनी मेहनत से शांति 10वीं तक पहुंच गई है पर अब ट्यूशन की जरूरत पड़ेगी जिस के लिए उस के पास पैसा नहीं है. तब मैं ने अभिनव से इस बारे में बात की जो उसे निशुल्क पढ़ाने के लिए तैयार हो गए. अपनी लगन व परिश्रम से शांति 10वीं में अच्छे नंबरों में पास हो गई. उस के बाद उस ने सिलाईकढ़ाई भी सीखी. कुछ समय बाद थोड़ा दानदहेज जोड़ कर बंती ने उस के हाथ पीले कर दिए.

अभी शांति की शादी हुए साल भर बीता था कि वह एक बेटे की मां बन गई. एक दिन जब वह अपने बच्चे सहित मुझ से मिलने आई तो उस का चेहरा देख मैं हैरान हो गई. कहां एक साल पहले का सुंदरसजीला लाल जोड़े में सिमटा खिलाखिला शांति का चेहरा और कहां यह बीमार सा दिखने वाला बुझाबुझा चेहरा.

‘क्या बात है, बंती, शांति सुखी तो है न अपने घर में?’ मैं ने सशंकित हो पूछा.

व्यथित मन से बंती बोली, ‘लड़कियों का क्या सुख और क्या दुख बीबी, जिस खूंटे से बांध दो बंधी रहती हैं बेचारी चुपचाप.’

‘फिर भी कोई बात तो होगी जो सूख कर कांटा हो गई है,’ मेरे पुन: पूछने पर बंती तो खामोश रही पर शांति ने बताया, ‘विवाह के 3-4 महीने तक तो सब ठीक रहा पर धीरेधीरे पति का पाशविक रूप सामने आता गया. वह जुआरी और शराबी था. हर रात नशे में धुत हो घर लौटने पर अकारण ही गालीगलौज करता, मारपीट करता और कई बार तो मुझे आधी रात को बच्चे सहित घर से बाहर धकेल देता. सासससुर भी मुझ में ही दोष खोजते हुए बुराभला कहते. मैं कईकई दिन भूखीप्यासी पड़ी रहती पर किसी को मेरी जरा भी परवा नहीं थी. अब तो मेरा जीवन नरक समान हो गया है.’

उस रात मैं ठीक से सो नहीं पाई. मानव मन भी अबूझ होता है. कभीकभी तो खून के रिश्तों को भी भीड़ समझ उन से दूर भागने की कोशिश करता है तो कभी अनाम रिश्तों को अकारण ही गले लगा उन के दुखों को अपने ऊपर ओढ़ लेता है. कुछ ऐसा ही रिश्ता शांति से जुड़ गया था मेरा.

अगले दिन जब बंती काम पर आई तो मैं उसे देर तक समझाती रही कि शांति पढ़ीलिखी है, सिलाईकढ़ाई जानती है, इसलिए वह उसे दोबारा उस के ससुराल न भेज कर उस की योग्यता के आधार पर उस से कपड़े सीने का काम करवाए. पति व ससुराल वालों के अत्याचारों से छुटकारा मिल सके मेरे इस सुझाव पर बंती ने कोई उत्तर नहीं दिया और चुपचाप अपना काम समाप्त कर बोझिल कदमों से घर लौट गई.

एक सप्ताह बाद पता चला कि शांति को उस की ससुराल वाले वापस ले गए हैं. मैं कर भी क्या सकती थी, ठगी सी बैठी रह गई.

देखते ही देखते 2 साल बीत गए. इस बीच मैं ने बंती से शांति के बारे में कभी कोई बात नहीं की पर एक दिन शांति के दूसरे बेटे के जन्म के बारे में जान कर मैं बंती पर बहुत बिगड़ी कि आखिर उस ने शांति को ससुराल भेजा ही क्यों? बंती अपराधबोध से पीडि़त हो बिलखती रही पर निर्धनता, एकाकीपन और अपने असुरक्षित भविष्य को ले कर वह शांति के लिए करती भी तो क्या? वह तो केवल अपनी स्थिति और सामाजिक परिवेश को ही कोस सकती थी, जहां निम्नवर्गीय परिवार की अधिकांश स्त्रियों की स्थिति पशुओं से भी गईगुजरी होती है.

पहले तो जन्म लेते ही मातापिता के घर लड़की होने के कारण दुत्कारी जाती हैं और विवाह के बाद अर्थी उठने तक ससुराल वालों के अत्याचार सहती हैं. भोग की वस्तु बनी निरंतर बच्चे जनती हैं और कीड़ेमकोड़ों की तरह हर पल रौंदी जाती हैं, फिर भी अनवरत मौन धारण किए ऐसे यातना भरे नारकीय जीवन को ही अपनी तकदीर मान जीने का नाटक करते हुए एक दिन चुपचाप मर जाती हैं.

शांति के साथ भी तो यही सब हो रहा था. ऐसी स्थिति में ही वह तीसरी बार फिर मां बनने को हुई. उसे गर्भ धारण किए अभी 7 महीने ही हुए थे कि कमजोरी और कई दूसरे कारणों के चलते उस ने एक मृत बच्चे को जन्म दिया. इत्तेफाक से उन दिनों वह बंती के पास आई हुई थी. तब मैं ने शांति से परिवार नियोजन के बारे में बात की तो बुझे स्वर में उस ने कहा कि फैसला करने वाले तो उस की ससुराल वाले हैं और उन का विचार है कि संतान तो भगवान की देन है इसलिए इस पर रोक लगाना उचित नहीं है.

मेरे बारबार समझाने पर शांति ने अपने बिगड़ते स्वास्थ्य और बच्चों के भविष्य को देखते हुए मेरी बात मान ली और आपरेशन करवा लिया. यों तो अब मैं संतुष्ट थी फिर भी शांति की हालत और बंती की आर्थिक स्थिति को देखते हुए परेशान भी थी. मेरी परेशानी को भांपते हुए मेरे पति ने सहज भाव से 20 हजार रुपए शांति को देने की बात कही ताकि पूरी तरह स्वस्थ हो जाने के बाद वह इन रुपयों से कोई छोटामोटा काम शुरू कर के अपने पैरों पर खड़ी हो सके. पति की यह बात सुन मैं कुछ पल को समस्त चिंताओं से मुक्त हो गई.

अगले ही दिन शांति को साथ ले जा कर मैं ने बैंक में उस के नाम का खाता खुलवा दिया और वह रकम उस में जमा करवा दी ताकि जरूरत पड़ने पर वह उस का लाभ उठा सके.

अभी इस बात को 2-4 दिन ही बीते थे कि हमें अपनी भतीजी की शादी में हैदराबाद जाना पड़ा. 15-20 दिन बाद जब हम वापस लौटे तो मुझे शांति का ध्यान हो आया सो बंती के घर चली गई, जहां ताला पड़ा था. उस की पड़ोसिन ने शांति के बारे में जो कुछ बताया उसे सुन मैं अवाक् रह गई.

हमारे हैदराबाद जाने के अगले दिन ही शांति का पति आया और उसे बच्चों सहित यह कह कर अपने घर ले गया कि वहां उसे पूरा आराम और अच्छी खुराक मिल पाएगी जिस की उसे जरूरत है. किंतु 2 दिन बाद ही यह खबर आग की तरह फैल गई कि शांति ने अपने दोनों बच्चों सहित भाखड़ा नहर में कूद कर जान दे दी है. तब से बंती का भी कुछ पता नहीं, कौन जाने करमजली जीवित भी है या मर गई.

कैसी निढाल हो गई थी मैं उस क्षण यह सब जान कर और कई दिनों तक बिस्तर पर पड़ी रही थी. पर आज शांति का पत्र मिलने पर एक सुखद आश्चर्य का सैलाब मेरे हर ओर उमड़ पड़ा है. साथ ही कई प्रश्न मुझे बेचैन भी करने लगे हैं जिन का शांति से मिल कर समाधान चाहती हूं.

जब मैं ने अभिनव से अपने मन की बात कही तो मेरी बेचैनी को देखते हुए वह मेरे साथ राजपुरा चलने को तैयार हो गए. 1-2 दिन बाद जब हम पत्र में लिखे पते के अनुसार शांति के घर पहुंचे तो दरवाजा एक 12-13 साल के लड़के ने खोला और यह जान कर कि हम शांति से मिलने आए हैं, वह हमें बैठक में ले गया. अभी हम बैठे ही थे कि वह आ गई. वही सादासलोना रूप, हां, शरीर पहले की अपेक्षा कुछ भर गया था. आते ही वह मेरे गले से लिपट गई. मैं कुछ देर उस की पीठ सहलाती रही, फिर भावावेश में डूब बोली, ‘‘शांति, यह कैसी बचकानी हरकत की थी तुम ने नहर में कूद कर जान देने की. अपने बच्चों के बारे में भी कुछ नहीं सोचा, कोई ऐसा भी करता है क्या? बच्चे तो ठीक हैं न, उन्हें कुछ हुआ तो नहीं?’’

बच्चों के बारे में पूछने पर वह एकाएक रोने लगी. फिर भरे गले से बोली, ‘‘छुटका नहीं रहा आंटीजी, डूब कर मर गया. मुझे और सतीश को किनारे खड़े लोगों ने किसी तरह बचा लिया. आप के आने पर जिस ने दरवाजा खोला था, वह सतीश ही है.’’

इतना कह वह चुप हो गई और कुछ देर शून्य में ताकती रही. फिर उस ने अपने अतीत के सभी पृष्ठ एकएक कर के हमारे सामने खोल कर रख दिए.

उस ने बताया, ‘‘आंटीजी, एक ही शहर में रहने के कारण मेरी ससुराल वालों को जल्दी ही पता चल गया कि मैं ने परिवार नियोजन के उद्देश्य से अपना आपरेशन करवा लिया है. इस पर अंदर ही अंदर वे गुस्से से भर उठे थे पर ऊपरी सहानुभूति दिखाते हुए दुर्बल अवस्था में ही मुझे अपने साथ वापस ले गए.

‘‘घर पहुंच कर पति ने जम कर पिटाई की और सास ने चूल्हे में से जलती लकड़ी निकाल पीठ दाग दी. मेरे चिल्लाने पर पति मेरे बाल पकड़ कर खींचते हुए कमरे में ले गया और चीखते हुए बोला, ‘तुझे बहुत पर निकल आए हैं जो तू अपनी मनमानी पर उतर आई है. ले, अब पड़ी रह दिन भर भूखीप्यासी अपने इन पिल्लों के साथ.’ इतना कह उस ने आंगन में खेल रहे दोनों बच्चों को बेरहमी से ला कर मेरे पास पटक दिया और दरवाजा बाहर से बंद कर चला गया.

‘‘तड़पती रही थी मैं दिन भर जले के दर्द से. आपरेशन के टांके कच्चे होने के कारण टूट गए थे. बच्चे भूख से बेहाल थे, पर मां हो कर भी मैं कुछ नहीं कर पा रही थी उन के लिए. इसी तरह दोपहर से शाम और शाम से रात हो गई. भविष्य अंधकारमय दिखने लगा था और जीने की कोई लालसा शेष नहीं रह गई थी.

‘‘अपने उन्हीं दुर्बल क्षणों में मैं ने आत्महत्या कर लेने का निर्णय ले लिया. अभी पौ फटी ही थी कि दोनों सोते बच्चों सहित मैं कमरे की खिड़की से, जो बहुत ऊंची नहीं थी, कूद कर सड़क पर तेजी से चलने लगी. घर से नहर ज्यादा दूर नहीं थी, सो आत्महत्या को ही अंतिम विकल्प मान आंखें बंद कर बच्चों सहित उस में कूद गई. जब होश आया तो अपनेआप को अस्पताल में पाया. सतीश को आक्सीजन लगी हुई थी और छुटका जीवनमुक्त हो कहीं दूर बह गया था.

‘‘डाक्टर इस घटना को पुलिस केस मान बारबार मेरे घर वालों के बारे में पूछताछ कर रहे थे. मैं इस बात से बहुत डर गई थी क्योंकि मेरे पति को यदि मेरे बारे में कुछ भी पता चल जाता तो मैं पुन: उसी नरक में धकेल दी जाती, जो मैं चाहती नहीं थी. तब मैं ने एक सहृदय

डा. अमर को अपनी आपबीती सुनाते हुए उन से मदद मांगी तो मेरी हालत को देखते हुए उन्होंने इस घटना को अधिक तूल न दे कर जल्दी ही मामला रफादफा करवा दिया और मैं पुलिस के चक्करों  में पड़ने से बच गई.

‘‘अब तक डा. अमर मेरे बारे में सबकुछ जान चुके थे इसलिए वह मुझे बेटे सहित अपने घर ले गए, जहां उन की मां ने मुझे बहुत सहारा दिया. सप्ताह  भर मैं उन के घर रही. इस बीच डाक्टर साहब ने आप के द्वारा दिए उन 20 हजार रुपयों की मदद से यहां राजपुरा में हमें एक कमरा किराए पर ले कर दिया. साथ ही मेरे लिए सिलाई का सारा इंतजाम भी कर दिया. पर मुझे इस बात की चिंता थी कि मेरे सिले कपड़े बिकेंगे कैसे?

‘‘इस बारे में जब मैं ने डा. अमर से बात की तो उन्होंने मुझे एक गैरसरकारी संस्था के अध्यक्ष से मिलवाया जो निर्धन व निराश्रित स्त्रियों की सहायता करते थे. उन्होंने मुझे भी सहायता देने का आश्वासन दिया और मेरे द्वारा सिले कुछ वस्त्र यहां के वस्त्र विके्रताओं को दिखाए जिन्होंने मुझे फैशन के अनुसार कपड़े सिलने के कुछ सुझाव दिए.

‘‘मैं ने उन के सुझावों के मुताबिक कपड़े सिलने शुरू कर दिए जो धीरेधीरे लोकप्रिय होते गए. नतीजतन, मेरा काम दिनोंदिन बढ़ता चला गया. आज मेरे पास सिर ढकने को अपनी छत है और दो वक्त की इज्जत की रोटी भी नसीब हो जाती है.’’

इतना कह शांति हमें अपना घर दिखाने लगी. छोटा सा, सादा सा घर, किंतु मेहनत की गमक से महकता हुआ.  सिलाई वाला कमरा तो बुटीक ही लगता था, जहां उस के द्वारा सिले सुंदर डिजाइन के कपड़े टंगे थे.

हम दोनों पतिपत्नी, शांति की हिम्मत, लगन और प्रगति देख कर बेहद खुश हुए और उस के भविष्य के प्रति आश्वस्त भी. शांति से बातें करते बहुत समय बीत चला था और अब दोपहर ढलने को थी इसलिए हम पटियाला वापस जाने के लिए उठ खड़े हुए. चलने से पहले अभिनव ने एक लिफाफा शांति को थमाते हुए कहा, ‘‘बेटी, ये वही रुपए हैं जो तुम ने हमें लौटाए थे. मैं अनुमान लगा सकता हूं कि किनकिन कठिनाइयों को झेलते हुए तुम ने ये रुपए जोड़े होंगे. भले ही आज तुम आत्मनिर्भर हो गई हो, फिर भी सतीश का जीवन संवारने का एक लंबा सफर तुम्हारे सामने है. उसे पढ़ालिखा कर स्वावलंबी बनाना है तुम्हें, और उस के लिए बहुत पैसा चाहिए. यह थोड़ा सा धन तुम अपने पास ही रखो, भविष्य में सतीश के काम आएगा. हां, एक बात और, इन पैसों को ले कर कभी भी अपने मन पर बोझ न रखना.’’

अभिनव की बात सुन कर शांति कुछ देर चुप बैठी रही, फिर धीरे से बोली, ‘‘अंकलजी, आप ने मेरे लिए जो किया वह आज के समय में दुर्लभ है. आज मुझे आभास हुआ है कि इस संसार में यदि मेरे पति जैसे राक्षसी प्रवृत्ति के लोग हैं तो

डा. अमर और आप जैसे महान लोग भी हैं जो मसीहा बन कर आते हैं और हम निर्बल और असहाय लोगों का संबल बन उन्हें जीने की सही राह दिखाते हैं.’’

इतना कह सजल नेत्रों से हमारा आभार प्रकट करते हुए वह अभिनव के चरणों में झुक गई.     द्य

गांव द्रौपदी का: एक औरत और पांच आदमी

‘‘मैं क्या अंदर आ सकता हूं सर?’’

‘‘हांहां, क्या बात है भूपेंद्र?’’

‘‘यह छुट्टी की अर्जी है सर. मुझे 20 दिन की छुट्टी चाहिए.’’

‘‘20 दिन की छुट्टी क्यों चाहिए? अभी तो तुम ने नईनई नौकरी जौइन की है और अभी छुट्टी चाहिए.’’

‘‘हां सर, पता है. पर मुझे शादी में जाना है.’’

‘‘किस की शादी है?’’

‘‘मेरी शादी है, मतलब हमारी.’’

‘‘हमारी मतलब किसी और की भी शादी हो रही है क्या?’’

‘‘मेरे साथ मेरे भाई की भी शादी हो रही है.’’

‘‘अच्छा, साथ में ही होगी?’’

‘‘जी सर.’’

‘‘कब है शादी?’’

‘‘अगले महीने की 10 तारीख को.’’

‘‘ठीक है, देखते हैं.’’

अगले दिन सर ने भूपेंद्र को बुलाया और कहा, ‘‘भूपेंद्र, तुम्हारी छुट्टी मंजूर हो गई है.’’

‘‘शुक्रिया सर.’’

‘‘तुम्हारे पापा क्या करते हैं?’’

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‘‘बड़े पापा घर पर रह कर ही सब की देखभाल करते हैं. दूसरे पापा और तीसरे पापा शहर में रह कर नौकरी करते हैं.’’

‘‘तुम लोग चाचाताऊ को भी पापा ही बुलाते हो?’’

‘‘नहीं, सब मेरे पापा ही हैं.’’

‘‘कैसे?’’

‘‘मेरी मां की तीनों से शादी हुई है.’’

‘‘यह क्या बात हुई?’’

‘‘मेरे गांव में ऐसा ही होता है.’’

‘‘मतलब, तुम्हारी और तुम्हारे भाई की शादी एक ही लड़की से हो रही है क्या?’’

‘‘जी.’’

भूपेंद्र की यह बात सुन कर उस का मैनेजर प्रशांत हैरान रह गया. उस ने पूछा, ‘‘कहां है तुम्हारा गांव?’’

‘‘दिल्ली से 4 सौ किलोमीटर दूर देहरादून में पांच नाम का एक गांव है. वहीं मेरा घर है. जमीन भी है, जिसे मेरे बड़े पापा दिलीप संभालते हैं,’’ भूपेंद्र ने बताया.

प्रशांत ने ज्यादा पूछना ठीक नहीं समझा, पर उस की जानने की जिज्ञासा और बढ़ गई.

‘‘भूपेंद्र, क्या हम को अपनी शादी में नहीं बुलाओगे?’’

‘‘आप आएंगे?’’

‘‘हम जरूर आएंगे. तुम बुलाओगे, तो क्यों नहीं आएंगे.’’

फिर भूपेंद्र ने बड़े प्यार से प्रशांत को शादी का कार्ड दिया. प्रशांत को देशदुनिया घूमना, हर सभ्यता को जानना अच्छा लगता है. अगर वह नौकरी नहीं करता, तो जरूर रिपोर्टर बनता. प्रशांत और उस का स्टाफ जब भूपेंद्र के घर जाने लगा, तो बड़ी परेशानी हुई. रास्ता बड़ा ही ऊबड़खाबड़, मुश्किलों से भरा था, पर खूबसूरत और रोमांच से भरपूर था. आखिर क्या वजह है कि यह प्रथा आज भी चली आ रही है? क्या होता होगा? कैसे निभती होगी ऐसी शादी? यह सब जानने के लिए वे सब उतावले हुए जा रहे थे, पर उन्हें डर भी लग रहा था कि कहीं वे लोग बुरा न मान जाएं. गांव में बड़ी चहलपहल थी. एक प्यारी सी लड़की चायनाश्ता ले कर आई.

‘‘सर, यह मेरी बहन नंदिनी है.’’

‘‘जीती रहो,’’ प्रशांत ने नंदिनी से कहा.

बगल के ही गांव में शादी थी, इसीलिए सुबह 11 बजे बरात चल पड़ी. प्रशांत का मन रोमांचित हो रहा था. भूपेंद्र और उस का छोटा भाई बलबीर दोनों ही दूल्हे की पोशाक में जंच रहे थे. शादी के सब रीतिरिवाज, मंडप, उस की सजावट, गानाबजाना हमारे जैसा ही था.

शादी शुरू हो गई. पंडितजी मंत्र बोलने के साथ शादी कराने लगे. जब फेरों की बारी आई, तो एक ही दूल्हे के साथ फेरे पड़े. पूछने पर पंडितजी बोले कि फेरे तो किसी एक के साथ ही होंगे, शादी  अपनेआप सब के साथ हो जाएगी. बहुत ही कम समय में शादी हो गई. भूपेंद्र हमें अपनी पत्नी से मिलवाने ले गया. प्रशांत जो उपहार लाया था, लड़की के हाथ में दिया. वह बड़ी खुश थी. उसे देख कर यह नहीं लग रहा था कि वह 2 भाइयों से शादी कर के दुखी है.

प्रशांत ने सोचा कि भूपेंद्र के बड़े पापा दिलीप से कुछ बात की जाए.

‘‘किसी बात की कोई तकलीफ तो नहीं हुई?’’ भूपेंद्र के बड़े पापा ने पूछा.

‘‘नहींनहीं, आप सब से मिल कर बड़ा अच्छा लगा. क्या मैं इस शादी के बारे में आप से कुछ पूछ सकता हूं?’’ प्रशांत ने कहा.

‘‘जी जरूर.’’

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‘‘क्या वजह है कि एक ही लड़की से सब भाइयों की शादी हो जाती है?’’

‘‘ऐसा है सर कि हमें नहीं पता कि यह प्रथा क्यों और कब से चल रही है, पर मेरी दादी, मेरी मां सब की ऐसी ही शादी हुई हैं. हम 3 भाइयों की भी शादी एक ही लड़की से हुई है.’’

‘‘मान लीजिए कि छोटे भाई की उम्र लड़की से बहुत कम है, तो…?’’

‘‘तो वह अपनी पसंद की लड़की से शादी कर सकता है.’’

‘‘अच्छा. ऐसी शादी निभाने में आप सभी को मुश्किलें तो बहुत आती होंगी?’’

‘‘नहीं जी, कोई मुश्किल नहीं आती, बल्कि जिंदगी और अच्छी तरह से चलती है.’’

‘‘कैसे?’’

‘‘हमारे यहां जमीन बहुत कम होती है. अलगअलग लड़की से शादी होगी, तो जमीन, घर का बंटवारा हो जाएगा, बच्चे भी ज्यादा होंगे.

‘‘दूसरी बात यह कि बारिश के मौसम में यहां पहाड़ों पर कोई काम नहीं होता है, तो बाहर जा कर कमाना जरूरी हो जाता है, फिर घर में भी तो कोई चाहिए देखभाल करने के लिए. 4 भाई कमाएं और खर्च एक ही जगह हो, तो पैसे की भी बचत होती है.’’

‘‘दिलीपजी, एक पर्सनल बात पूछ सकता हूं?’’ प्रशांत बोला.

‘‘जी, जरूर.’’

‘‘सभी भाई पत्नी के साथ संबंध कैसे बनाते हैं?’’

‘‘जब जिस का मन होता है, कमरे में चला जाता है.’’

‘‘अगर कभी सब का एकसाथ मन हो गया तो…?’’

‘‘तो सभी साथ में चले जाते हैं, कमरे में, आखिर पत्नी तो हम सब की ही है.’’

प्रशांत यह सुन कर हैरान था. वह सोचने लगा कि पत्नी पर क्या गुजरती होगी?

‘‘आप कहें, तो क्या मैं आप की पत्नी से मिल सकता हूं?’’ प्रशांत ने पूछा.

‘‘जी जरूर. ये हैं हमारी पत्नी सुनंदा.’’

‘‘नमस्ते सुनंदाजी.’’

‘‘नमस्ते,’’ उन्होंने कहा. वे घूंघट में थीं, पर चेहरा दिख रहा था.

‘‘कैसी हैं आप?’’

‘‘अच्छी हूं,’’ वे हंसते हुए बोलीं.

‘‘अब बहू आ गई है, तो आप को आराम हो जाएगा.’’

‘‘जी सरजी,’’ वे बहुत ही कम शब्दों में जवाब दे रही थीं.

‘‘आप से कुछ पूछूं सुनंदाजी?’’

उन्होंने ‘हां’ में सिर हिला दिया.

‘‘जब आप की शादी हुई थी, तब आप की उम्र क्या थी?’’

‘‘17 साल.’’

‘‘मुश्किलें तो बहुत आई होंगी घर संभालने में?’’

‘‘बहुत आई थीं, पर अब तो सब ठीक है.’’

‘‘कभी आप को ऐसा नहीं लगता कि एक से ही शादी होती, तो अच्छा होता? कम से कम जिंदगी अच्छी तरह से गुजरती?’’

‘‘ऐसा कभी सोचा नहीं. यही सब देखती आई हूं और फिर यहां यही परंपरा है, तो सब ठीक है.’’

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‘‘तीनों पतियों को संभालना, उन की हर जरूरत को पूरा करना, थक नहीं जातीं आप?’’

‘‘मैं कभी नहीं थकती. द्रौपदी भी तो 5 पतियों की पत्नी थी.’’

‘‘पर, उन की मजबूरी थी. द्रौपदी तो अर्जुन को ही ज्यादा प्यार करती थी. क्या आप भी किसी एक को ज्यादा पसंद करती हैं?’’

‘‘मैं सब को बराबर पसंद करती हूं, सब का खयाल रखती हूं, नहीं तो पाप लगेगा.’’

प्रशांत ने कभी पढ़ा था कि यूरोप में कहींकहीं बहुपत्नी प्रथा का चलन है. तिब्बत में भी छोटेछोटे गांवों में ऐसा होता है, दक्षिण अमेरिका में भी, पर हिंदुस्तान में तो एक गांव ऐसा है, जहां आज भी हजारों द्रौपदी हैं. शास्त्रीजी, जो वहां के पुजारी थे, उन से भी जानकारी मिली. वे कहने लगे, ‘‘हम अपनी पुरानी परंपरा से खुश हैं. हम इसे बुरा नहीं मानते हैं.’’

प्रशांत को पता चला कि आज के पढ़ेलिखे लोग भी इस परंपरा को बुरा नहीं मानते हैं. आज की पीढ़ी इस मुद्दे पर बात करने से झिझक महसूस नहीं करती है. दुख हो या खुशियां आपस में बांट लेती हैं.

ऐसा नहीं है कि एक ही जाति है, जो इस परंपरा को मानती है. इस गांव में सभी जाति के लोग इस प्रथा को निभाते हैं. अगर कोई लड़का इस शादी में नहीं रहना चाहे, तो वह दूसरी लड़की से शादी कर सकता है.

प्रशांत ने दिलीपजी से पूछा, ‘‘आप भाइयों में कभी किसी बात को ले कर झगड़ा नहीं होता.’’

‘‘नहीं जी, ऐसा कभी नहीं होता.’’

सब से बड़ा सवाल अब भी जवाब के इंतजार में था. इस प्रथा का सब से बड़ा उदाहरण पांडवों और द्रौपदी से जुड़ा ही मिलता है. इतिहास या पुराणों में कहीं भी इस प्रथा का कोई उदाहरण नहीं मिलता है. तो सवाल यह उठता है कि दूर हिमालय में बसे लोग इस प्रथा को क्यों और कब से मान रहे हैं?

प्रशांत की सोच इस परंपरा को वहां तक ले जाती है कि जोड़ीदार से शादी होने का मतलब काम करने वाले ज्यादा और खाने वाले कम, ताकि परिवार न बढ़े और बंटवारा न हो. शायद यही बात इस परंपरा को जिंदा रखे हुए है. सवाल यह नहीं है कि यह प्रथा सही है या गलत, सवाल यह भी नहीं है कि यह प्रथा रहे या खत्म हो जाए, बल्कि इस प्रथा को मानने या रोकने का फैसला इन्हीं लोगों पर छोड़ देना चाहिए.

यहां आ कर इस तरह की शादी देखना प्रशांत की जिंदगी का सब से बड़ा तजरबा रहा. सब से हंसीखुशी से मिल कर वे लोग उस गांव से विदा हो लिए. साथ में थीं कुछ मीठी और कभी न भूलने वाली यादें.

इक विश्वास था : किसने भेजा 1 लाख डालर का गिफ्ट

मेरी बेटी की शादी थी और मैं कुछ दिनों की छुट्टी ले कर शादी के तमाम इंतजाम को देख रहा था. उस दिन सफर से लौट कर मैं घर आया तो पत्नी ने आ कर एक लिफाफा मुझे पकड़ा दिया. लिफाफा अनजाना था लेकिन प्रेषक का नाम देख कर मुझे एक आश्चर्यमिश्रित जिज्ञासा हुई.

‘अमर विश्वास’ एक ऐसा नाम जिसे मिले मुझे वर्षों बीत गए थे. मैं ने लिफाफा खोला तो उस में 1 लाख डालर का चेक और एक चिट्ठी थी. इतनी बड़ी राशि वह भी मेरे नाम पर. मैं ने जल्दी से चिट्ठी खोली और एक सांस में ही सारा पत्र पढ़ डाला. पत्र किसी परी कथा की तरह मुझे अचंभित कर गया. लिखा था :

आदरणीय सर, मैं एक छोटी सी भेंट आप को दे रहा हूं. मुझे नहीं लगता कि आप के एहसानों का कर्ज मैं कभी उतार पाऊंगा. ये उपहार मेरी अनदेखी बहन के लिए है. घर पर सभी को मेरा प्रणाम.

आप का, अमर. मेरी आंखों में वर्षों पुराने दिन सहसा किसी चलचित्र की तरह तैर गए.

एक दिन मैं चंडीगढ़ में टहलते हुए एक किताबों की दुकान पर अपनी मनपसंद पत्रिकाएं उलटपलट रहा था कि मेरी नजर बाहर पुस्तकों के एक छोटे से ढेर के पास खड़े एक लड़के पर पड़ी. वह पुस्तक की दुकान में घुसते हर संभ्रांत व्यक्ति से कुछ अनुनयविनय करता और कोई प्रतिक्रिया न मिलने पर वापस अपनी जगह पर जा कर खड़ा हो जाता. मैं काफी देर तक मूकदर्शक की तरह यह नजारा देखता रहा. पहली नजर में यह फुटपाथ पर दुकान लगाने वालों द्वारा की जाने वाली सामान्य सी व्यवस्था लगी, लेकिन उस लड़के के चेहरे की निराशा सामान्य नहीं थी. वह हर बार नई आशा के साथ अपनी कोशिश करता, फिर वही निराशा.

मैं काफी देर तक उसे देखने के बाद अपनी उत्सुकता दबा नहीं पाया और उस लड़के के पास जा कर खड़ा हो गया. वह लड़का कुछ सामान्य सी विज्ञान की पुस्तकें बेच रहा था. मुझे देख कर उस में फिर उम्मीद का संचार हुआ और बड़ी ऊर्जा के साथ उस ने मुझे पुस्तकें दिखानी शुरू कीं. मैं ने उस लड़के को ध्यान से देखा. साफसुथरा, चेहरे पर आत्मविश्वास लेकिन पहनावा बहुत ही साधारण. ठंड का मौसम था और वह केवल एक हलका सा स्वेटर पहने हुए था. पुस्तकें मेरे किसी काम की नहीं थीं फिर भी मैं ने जैसे किसी सम्मोहन से बंध कर उस से पूछा, ‘बच्चे, ये सारी पुस्तकें कितने की हैं?’

‘आप कितना दे सकते हैं, सर?’

‘अरे, कुछ तुम ने सोचा तो होगा.’

‘आप जो दे देंगे,’ लड़का थोड़ा निराश हो कर बोला.

‘तुम्हें कितना चाहिए?’ उस लड़के ने अब यह समझना शुरू कर दिया कि मैं अपना समय उस के साथ गुजार रहा हूं.

‘5 हजार रुपए,’ वह लड़का कुछ कड़वाहट में बोला.

‘इन पुस्तकों का कोई 500 भी दे दे तो बहुत है,’ मैं उसे दुखी नहीं करना चाहता था फिर भी अनायास मुंह से निकल गया.

अब उस लड़के का चेहरा देखने लायक था. जैसे ढेर सारी निराशा किसी ने उस के चेहरे पर उड़ेल दी हो. मुझे अब अपने कहे पर पछतावा हुआ. मैं ने अपना एक हाथ उस के कंधे पर रखा और उस से सांत्वना भरे शब्दों में फिर पूछा, ‘देखो बेटे, मुझे तुम पुस्तक बेचने वाले तो नहीं लगते, क्या बात है. साफसाफ बताओ कि क्या जरूरत है?’

वह लड़का तब जैसे फूट पड़ा. शायद काफी समय निराशा का उतारचढ़ाव अब उस के बरदाश्त के बाहर था.

‘सर, मैं 10+2 कर चुका हूं. मेरे पिता एक छोटे से रेस्तरां में काम करते हैं. मेरा मेडिकल में चयन हो चुका है. अब उस में प्रवेश के लिए मुझे पैसे की जरूरत है. कुछ तो मेरे पिताजी देने के लिए तैयार हैं, कुछ का इंतजाम वह अभी नहीं कर सकते,’ लड़के ने एक ही सांस में बड़ी अच्छी अंगरेजी में कहा.

‘तुम्हारा नाम क्या है?’ मैं ने मंत्रमुग्ध हो कर पूछा.

‘अमर विश्वास.’

‘तुम विश्वास हो और दिल छोटा करते हो. कितना पैसा चाहिए?’

‘5 हजार,’ अब की बार उस के स्वर में दीनता थी.

‘अगर मैं तुम्हें यह रकम दे दूं तो क्या मुझे वापस कर पाओगे? इन पुस्तकों की इतनी कीमत तो है नहीं,’ इस बार मैं ने थोड़ा हंस कर पूछा.

‘सर, आप ने ही तो कहा कि मैं विश्वास हूं. आप मुझ पर विश्वास कर सकते हैं. मैं पिछले 4 दिन से यहां आता हूं, आप पहले आदमी हैं जिस ने इतना पूछा. अगर पैसे का इंतजाम नहीं हो पाया तो मैं भी आप को किसी होटल में कपप्लेटें धोता हुआ मिलूंगा,’ उस के स्वर में अपने भविष्य के डूबने की आशंका थी.

उस के स्वर में जाने क्या बात थी जो मेरे जेहन में उस के लिए सहयोग की भावना तैरने लगी. मस्तिष्क उसे एक जालसाज से ज्यादा कुछ मानने को तैयार नहीं था, जबकि दिल में उस की बात को स्वीकार करने का स्वर उठने लगा था. आखिर में दिल जीत गया. मैं ने अपने पर्स से 5 हजार रुपए निकाले, जिन को मैं शेयर मार्किट में निवेश करने की सोच रहा था, उसे पकड़ा दिए. वैसे इतने रुपए तो मेरे लिए भी माने रखते थे, लेकिन न जाने किस मोह ने मुझ से वह पैसे निकलवा लिए.

‘देखो बेटे, मैं नहीं जानता कि तुम्हारी बातों में, तुम्हारी इच्छाशक्ति में कितना दम है, लेकिन मेरा दिल कहता है कि तुम्हारी मदद करनी चाहिए, इसीलिए कर रहा हूं. तुम से 4-5 साल छोटी मेरी बेटी भी है मिनी. सोचूंगा उस के लिए ही कोई खिलौना खरीद लिया,’ मैं ने पैसे अमर की तरफ बढ़ाते हुए कहा.

अमर हतप्रभ था. शायद उसे यकीन नहीं आ रहा था. उस की आंखों में आंसू तैर आए. उस ने मेरे पैर छुए तो आंखों से निकली दो बूंदें मेरे पैरों को चूम गईं.

‘ये पुस्तकें मैं आप की गाड़ी में रख दूं?’

‘कोई जरूरत नहीं. इन्हें तुम अपने पास रखो. यह मेरा कार्ड है, जब भी कोई जरूरत हो तो मुझे बताना.’

वह मूर्ति बन कर खड़ा रहा और मैं ने उस का कंधा थपथपाया, कार स्टार्ट कर आगे बढ़ा दी.

कार को चलाते हुए वह घटना मेरे दिमाग में घूम रही थी और मैं अपने खेले जुए के बारे में सोच रहा था, जिस में अनिश्चितता ही ज्यादा थी. कोई दूसरा सुनेगा तो मुझे एक भावुक मूर्ख से ज्यादा कुछ नहीं समझेगा. अत: मैं ने यह घटना किसी को न बताने का फैसला किया.

दिन गुजरते गए. अमर ने अपने मेडिकल में दाखिले की सूचना मुझे एक पत्र के माध्यम से दी. मुझे अपनी मूर्खता में कुछ मानवता नजर आई. एक अनजान सी शक्ति में या कहें दिल में अंदर बैठे मानव ने मुझे प्रेरित किया कि मैं हजार 2 हजार रुपए उस के पते पर फिर भेज दूं. भावनाएं जीतीं और मैं ने अपनी मूर्खता फिर दोहराई. दिन हवा होते गए. उस का संक्षिप्त सा पत्र आता जिस में 4 लाइनें होतीं. 2 मेरे लिए, एक अपनी पढ़ाई पर और एक मिनी के लिए, जिसे वह अपनी बहन बोलता था. मैं अपनी मूर्खता दोहराता और उसे भूल जाता. मैं ने कभी चेष्टा भी नहीं की कि उस के पास जा कर अपने पैसे का उपयोग देखूं, न कभी वह मेरे घर आया. कुछ साल तक यही क्रम चलता रहा. एक दिन उस का पत्र आया कि वह उच्च शिक्षा के लिए आस्ट्रेलिया जा रहा है. छात्रवृत्तियों के बारे में भी बताया था और एक लाइन मिनी के लिए लिखना वह अब भी नहीं भूला.

मुझे अपनी उस मूर्खता पर दूसरी बार फख्र हुआ, बिना उस पत्र की सचाई जाने. समय पंख लगा कर उड़ता रहा. अमर ने अपनी शादी का कार्ड भेजा. वह शायद आस्ट्रेलिया में ही बसने के विचार में था. मिनी भी अपनी पढ़ाई पूरी कर चुकी थी. एक बड़े परिवार में उस का रिश्ता तय हुआ था. अब मुझे मिनी की शादी लड़के वालों की हैसियत के हिसाब से करनी थी. एक सरकारी उपक्रम का बड़ा अफसर कागजी शेर ही होता है. शादी के प्रबंध के लिए ढेर सारे पैसे का इंतजाम…उधेड़बुन…और अब वह चेक?

मैं वापस अपनी दुनिया में लौट आया. मैं ने अमर को एक बार फिर याद किया और मिनी की शादी का एक कार्ड अमर को भी भेज दिया.

शादी की गहमागहमी चल रही थी. मैं और मेरी पत्नी व्यवस्थाओं में व्यस्त थे और मिनी अपनी सहेलियों में. एक बड़ी सी गाड़ी पोर्च में आ कर रुकी. एक संभ्रांत से शख्स के लिए ड्राइवर ने गाड़ी का गेट खोला तो उस शख्स के साथ उस की पत्नी जिस की गोद में एक बच्चा था, भी गाड़ी से बाहर निकले.

मैं अपने दरवाजे पर जा कर खड़ा हुआ तो लगा कि इस व्यक्ति को पहले भी कहीं देखा है. उस ने आ कर मेरी पत्नी और मेरे पैर छुए.

‘‘सर, मैं अमर…’’ वह बड़ी श्रद्धा से बोला.

मेरी पत्नी अचंभित सी खड़ी थी. मैं ने बड़े गर्व से उसे सीने से लगा लिया. उस का बेटा मेरी पत्नी की गोद में घर सा अनुभव कर रहा था. मिनी अब भी संशय में थी. अमर अपने साथ ढेर सारे उपहार ले कर आया था. मिनी को उस ने बड़ी आत्मीयता से गले लगाया. मिनी भाई पा कर बड़ी खुश थी.

अमर शादी में एक बड़े भाई की रस्म हर तरह से निभाने में लगा रहा. उस ने न तो कोई बड़ी जिम्मेदारी मुझ पर डाली और न ही मेरे चाहते हुए मुझे एक भी पैसा खर्च करने दिया. उस के भारत प्रवास के दिन जैसे पंख लगा कर उड़ गए.

इस बार अमर जब आस्ट्रेलिया वापस लौटा तो हवाई अड्डे पर उस को विदा करते हुए न केवल मेरी बल्कि मेरी पत्नी, मिनी सभी की आंखें नम थीं. हवाई जहाज ऊंचा और ऊंचा आकाश को छूने चल दिया और उसी के साथसाथ मेरा विश्वास भी आसमान छू रहा था.

मैं अपनी मूर्खता पर एक बार फिर गर्वित था और सोच रहा था कि इस नश्वर संसार को चलाने वाला कोई भगवान नहीं हमारा विश्वास ही है.

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