Story in Hindi

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ट्रिनट्रिन…फोन की घंटी बजते ही हम फोन की तरफ झपट पड़े. फोन पति ने उठाया. दूसरी ओर से भाईसाहब बात कर रहे थे. रिसीवर उठाए राजेश खामोशी से बात सुन रहे थे. अचानक भयमिश्रित स्वर में बोले, ‘‘कैंसर…’’ इस के बाद रिसीवर उन के हाथ में ही रह गया, वे पस्त हो सोफे पर बैठ गए. तो वही हुआ जिस का डर था. मां को कैंसर है. नहीं, नहीं, यह कोई बुरा सपना है. ऐसा कैसे हो सकता है? वे तो एकदम स्वस्थ थीं. उन्हें कैंसर हो ही नहीं सकता. एक मिनट में ही दिमाग में न जाने कैसेकैसे विचार तूफान मचाने लगे थे. 2 दिनों से जिन रिपोर्टों के परिणाम का इंतजार था आज अचानक ही वह काला सच बन कर सामने आ चुका था.
‘‘अब क्या होगा?’’ नैराश्य के स्वर में राजेश के मुंह से बोल फूटे. विचारों के भंवर से निकल कर मैं भी जैसे यह सुन कर अंदर ही अंदर सहम गई. ‘भाईसाहब से क्या बात हुई,’ यह जानने की उत्सुकता थी. औचक मैं चिल्ला पड़ी, ‘‘क्या हुआ मां को?’’ बच्चे भी यह सुन कर पास आ गए. राजेश का गला सूख गया. उन के मुंह से अब आवाज नहीं निकल रही थी. मैं दौड़ कर रसोई से एक गिलास पानी लाई और उन की पीठ सहलाते, उन्हें सांत्वना देते हुए पानी का गिलास उन्हें थमा दिया. पानी पी कर वे संयत होने का प्रयास करते हुए धीमी आवाज में बोले, ‘‘अरुणा, मां की जांच रिपोर्ट्स आ गई हैं. मां को स्तन कैंसर है,’’ कहते हुए वे फफकफफक कर बच्चों की तरह रोने लगे. हम सभी किंकर्तव्यविमूढ़ उन की तरफ देख रहे थे. किसी के भी मुंह से आवाज नहीं निकली. वातावरण में एक सन्नाटा पसर गया था. अब क्या होगा? इस प्रश्न ने सभी की बुद्धि पर मानो ताला जड़ दिया था. राजेश को रोते हुए देख कर ऐसा लगा, मानो सबकुछ बिखर गया है. मेरा घरपरिवार मानो किसी ऐसी भंवर में फंस गया जिस का कोई किनारा नजर नहीं आ रहा था.
मैं खुद को संयत करते हुए राजेश से बोली, ‘‘चुप हो जाओ राजेश. तुम्हें इस तरह मैं हिम्मत नहीं हारने दूंगी. संभालो अपनेआप को. देखो, बच्चे भी तुम्हें रोता देख कर रोने लगे हैं. तुम इतने कमजोर कैसे हो सकते हो? अभी तो हमारे संघर्ष की शुरुआत हुई है. अभी तो आप को मां और पूरे परिवार को संभालना है. ऐसा कुछ नहीं हुआ है, जो ठीक न किया जा सके. हम मां को यहां बुलाएंगे और उन का इलाज करवाएंगे. मैं ने पढ़ा है, स्तन कैंसर इलाज से पूरी तरह ठीक हो सकता है.’’
मेरी बातों का जैसे राजेश पर असर हुआ और वे कुछ संयत नजर आने लगे. सभी को सुला कर रात में जब मैं बिस्तर पर लेटी तो जैसे नींद आंखों से कोसों दूर हो गई हो. राजेश को तो संभाल लिया पर खुद मेरा मन चिंताओं के घने अंधेरे में उलझ चुका था. मन रहरह कर पुरानी बातें याद कर रहा था. 10 वर्ष पहले जब शादी कर मैं इस घर में आई थी तो लगा ही नहीं कि किसी दूसरे परिवार में आई हूं. लगा जैसे मैं तो वर्षों से यहीं रह रही थी. माताजी का स्नेहिल और शांत मुखमंडल जैसे हर समय मुझे अपनी मां का एहसास करा रहा था. पूरे घर में जैसे उन की ही शांत छवि समाई हुई थी. जैसा शांत उन का स्वभाव, वैसा ही उन का नाम भी शांति था. वे स्कूल में अध्यापिका थीं.
स्कूल के साथसाथ घर को भी मां ने जिस निपुणता से संभाला हुआ था, लगता था उन के पास कोई जादू की छड़ी है जो पलक झपकते ही सारी समस्याओं का समाधान कर देती है. घर के सभी सदस्य और दूरदूर तक रिश्तेदार उन की स्नेहिल डोर से सहज ही बंधे थे. घर में ससुरजी, भाईसाहब, भाभी और दीदी में भी मुझे उन के ही गुणों की छाया नजर आती थी. लगता था मम्मीजी के साथ रहतेरहते सभी उन्हीं के जैसे स्वभाव के हो गए हैं.
इन सारी मधुर स्मृतियों को याद करतेकरते मुझे वह क्षण भी याद आया जब राजेश का तबादला जयपुर हुआ था. मम्मीजी ने एक मिनट भी नहीं सोचा और तुरंत मुझे भी राजेश के साथ ही जयपुर भेज दिया. खुद वे मेरी गृहस्थी जमाने वहां आई थीं और सबकुछ ठीक कर के एक सप्ताह बाद ही लौट गई थीं. यह सब सोचतेसोचते न जाने कब मेरी आंख लग गई. अचानक सवेरे दूध वाले भैया ने दरवाजे की घंटी बजाई तो आवाज सुन कर हड़बड़ा कर मेरी आंख खुली. देखा साढ़े 6 बज चुके थे.
‘अरे, बच्चों को स्कूल के लिए कहीं देर न हो जाए,’ सोचते हुए झपपट पहले दूध लिया. दोनों को तैयार कर के स्कूल भेजतेभेजते दिमाग ने एक निर्णय ले लिया था. राजेश की चाय बना कर उन्हें उठाते हुए मैं ने अपने निर्णय से उन्हें अवगत करा दिया. मेरे निर्णय से राजेश भी सहमत थे. राजेश ने भाईसाहब को फोन किया, ‘‘आप मां को ले कर आज ही जयपुर आ जाइए. हम मां का इलाज यहीं करवाएंगे, लेकिन आप मां को उन की बीमारी के बारे में कुछ भी मत बताना. और हां, कैसे भी उन्हें यहां ले आइए.’’ भाईसाहब भी राजेश से बात कर के थोड़ा सहज हो गए थे और उसी दिन ढाई बजे की बस से रवाना होने को कह दिया.
‘राजेश के साथ पारिवारिक डाक्टर रवि के यहां हो आते हैं,’ मैं ने सोचा, फिर राजेश से बात की. वे राजेश के बहुत अच्छे मित्र भी हैं. हम दोनों को अचानक आया देख कर वे चौंक गए. जब हम ने उन्हें अपने आने का कारण बताया तो उन्होंने हमें महावीर कैंसर अस्पताल जाने की सलाह दी. उसी समय उन्होंने वहां अपने कैंसर स्पैशलिस्ट मित्र डा. हेमंत से फोन कर के दोपहर का अपौइंटमैंट ले लिया. डा. हेमंत से मिल कर कुछ सुकून मिला. उन्होंने बताया कि स्तन कैंसर से डरने की कोई बात नहीं है. आजकल तो यह पूरी तरह से ठीक हो जाता है. आप सब से पहले मुझे यह बताइए कि माताजी की यह समस्या कब सामने आई?
मैं ने बताया कि एक सप्ताह पहले माताजी ने झिझकते हुए मुझे अपने एक स्तन में गांठ होने की बात कही थी तो अंदर ही अंदर मैं डर गई थी. लेकिन मैं ने उन से कहा कि मम्मीजी, आप चिंता मत करो, सब ठीक हो जाएगा. जब 4-5 दिनों में वह गांठ कुछ ज्यादा ही उभर कर सामने आई तो मम्मीजी चिंतित हो गईं और उन की चिंता दूर करने के लिए भाईसाहब उन्हें दिखाने एक डाक्टर के पास ले गए. जब डाक्टर ने सभी जांच रिपोर्ट्स देखीं तो कैंसर की पुष्टि की.
सब सुनने के बाद डा. हेमंत ने भी कहा, ‘‘आप तुरंत माताजी को यहां ले आएं.’’ मैं ने उन्हें बता दिया कि वे आज शाम को ही यहां पहुंच रही हैं. डा. हेमंत ने अगले दिन सुबह आने का समय दे दिया. राहत की सांस ले कर हम घर चले आए.
रात साढ़े 8 बजे मम्मीजी भाईसाहब के साथ जयपुर पहुंच गईं. राजेश गाड़ी से उन्हें घर ले आए. आते ही मम्मीजी ने पूछा कि क्या हो गया है उन्हें? तुम ने यहां क्यों बुला लिया? मम्मीजी की बात सुन कर मैं ने सहज ही कहा, ‘‘मम्मीजी, ऐसा कुछ नहीं है. बच्चे आप को याद कर रहे थे और आप की गांठ की बात सुन कर राजेश भी कुछ विचलित हो गए थे, इसलिए मैं ने सामान्य चैकअप के लिए आप को यहां बुला लिया है. आप चिंता न करें, आप बिलकुल ठीक हैं.’’ मेरी बात सुन कर मम्मीजी सहज हो गईं. तभी बच्चों को चुप देख कर उन्होंने पूछा, ‘‘अरे, नीटूचीनू तुम दूर क्यों खड़े हो? यह देखो मैं तुम्हारे लिए क्याक्या लाई हूं.’’ बच्चे भी दादी को हंसते हुए देख दौड़ कर उन से लिपट पड़े. ‘‘दादीमां, आप कितने दिनों बाद यहां आई हो. अब हम आप को यहां से कभी भी जाने नहीं देंगे.’’ बच्चों के सहज स्नेह से अभिभूत मम्मीजी उन को अपने लाए खिलौने दिखाने में व्यस्त हो गईं, तो मैं रसोई में उन के लिए चाय बनाने चली गई. इसी बीच राजेश ने भाईसाहब को डा. हेमंत से हुई बातचीत बता दी. अगले दिन सुबह जल्दी तैयार हो कर मम्मीजी राजेश और भाईसाहब के साथ अस्पताल चली गईं.
कैंसर अस्पताल का बोर्ड देख कर मम्मी चौंकी थीं, पर राजेश ने होशियारी बरतते हुए कहा, ‘‘आप पढि़ए, यहां पर लिखा है, ‘भगवान महावीर कैंसर ऐंड रिसर्च इंस्टिट्यूट.’ कैंसर के इलाज के साथ जांचों के लिए यही बड़ा केंद्र है.’’ मां यह बात सुन कर चुप हो गई थीं. अगले 2 दिन जांचों में ही चले गए. इस दौरान उन्हें कुछ शंका हुई, वे बारबार मुझ से पूछतीं, ‘‘तुम ही बताओ, आखिर मुझे हुआ क्या है? ये दोनों भाई तो कुछ बताते नहीं. तुम तो कुछ बताओ. तुम्हें तो सब पता होगा?’’ मैं सहज रूप से कहती, ‘‘अरे, मम्मीजी, आप को कुछ नहीं हुआ है. यह स्तन की साधारण सी गांठ है, जिसे निकलवाना है. डाक्टर छोटी सी सर्जरी करेंगे और आप एकदम ठीक हो जाओगी.’’
‘‘पर यह गांठ कुछ दर्द तो करती नहीं है, फिर निकलवाने की क्या जरूरत है?’’ उन के मुंह से यह सुन कर मुझे सहज ही पता चल गया कि कैंसर के बारे में हमारी अज्ञानता ही इस रोग को बढ़ाती है. मम्मीजी ने तो मुझे यह भी बताया कि उन के स्कूल की एक अध्यापिका ने उन्हें एक वैद्य का पता बताया था जोकि बिना किसी सर्जरी के एक सप्ताह के भीतर अपनी आयुर्वेदिक गोलियों और चूर्ण से यह गांठ गला सकते हैं. मैं ने साफ कह दिया, ‘‘मम्मीजी, हमें इन चक्करों में नहीं पड़ना है.’’ मेरी बात सुन कर वे निरुत्तर हो गईं. जांच रिपोर्ट आने के तीसरे दिन ही डाक्टर ने औपरेशन की तारीख निश्चित कर दी थी. औपरेशन के एक दिन पहले ही रात को मम्मीजी को अस्पताल में भरती करवा दिया गया. राजेश और भाईसाहब मां की जरूरत का सामान बैग में ले कर अस्पताल चले गए.
अगले दिन ब्लडप्रैशर नौर्मल होने पर सवेरे 9 बजे मम्मीजी को औपरेशन थिएटर में ले जाया गया. हम लोग औपरेशन थिएटर के बाहर बैठ इंतजार कर रहे थे. साढ़े 11 बजे तक मम्मीजी का औपरेशन चला. उन के एक ही स्तन में 2 गांठें थीं. सर्जरी से डाक्टर ने पूरे स्तन को ही हटा दिया.
अचानक ही आईसीयू से पुकार हुई, ‘‘शांति के साथ कौन है?’ सुन कर हम सभी जड़ हो गए. राजेश को आगे धकेलते हुए हम ने जैसेतैसे कहा, ‘‘हम साथ हैं.’’ डाक्टर ने राजेश को अंदर बुलाया और कहा कि औपरेशन सफल रहा है. अब इस स्तन के टुकड़े को जांच के लिए मुंबई प्रयोगशाला में भेजेंगे ताकि यह पता लग सके कि कैंसर किस अवस्था में था. राजेश को उन्होंने कहा, ‘‘आप चिंता नहीं करें, आप की माताजी बिलकुल ठीक हैं. औपरेशन सफलतापूर्वक हो गया है तथा 4 से 6 घंटे बाद उन्हें होश आ जाएगा.’’
राजेश जब बाहर आए तो वे सहज थे. उन को शांत देख कर हमें भी चैन आया. तभी भाईसाहब ने परेशान होते हुए पूछा, ‘‘क्या हुआ? तुम्हें अंदर क्यों बुलाया था?’’ राजेश ने बताया कि चिंता की बात नहीं है. डाक्टर ने सर्जरी कर हटाए गए स्तन को दिखाने के लिए बुलाया था. मम्मीजी बिलकुल ठीक हैं.
शाम को करीब साढ़े 7 बजे मम्मीजी को होश आया. होश आते ही उन्होंने पानी मांगा. भाईसाहब ने उन्हें थोड़ा पानी पिलाया. तब तक दीदी भी बीकानेर से आ चुकी थीं. दीदी आते ही रोने लगीं तो हम ने उन्हें मां के सफल औपरेशन के बारे में बताया. जान कर दीदी भी शांत हो गईं. अगले दिन सुबह मां को आईसीयू से वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया. उन्हें हलका खाना जैसे खिचड़ी, दलिया, चायदूध देने की इजाजत दी गई थी.
3 दिनों तक तो उन्हें औपरेशन कहां हुआ है, यह पता ही नहीं चला, लेकिन जैसे ही पता चला वे बहुत दुखी हुईं और रोने लगीं. तब मैं ने उन्हें बताया, ‘‘मम्मीजी, अब चिंता की कोई बात नहीं है. एक संकट अचानक आया था और अब टल चुका है. अब आप एकदम स्वस्थ हैं.’’ 10 दिनों तक हम सभी हौस्पिटल के चक्कर लगाते रहे. मम्मीजी को अस्पताल से छुट्टी मिल गई तो फिर घर आ गए. घर पहुंच कर हम सभी ने राहत की सांस ली. भाईसाहब और दीदी को हम ने रवाना कर दिया. मां भी तब तक थोड़ा सहज हो गई थीं. अब उन्हें कैंसर के बारे में पता चल चुका था और वे समझ चुकी थीं कि औपरेशन ही इस का इलाज है.
एक महीने में उन के टांके सूख गए थे और हम ने हौस्पिटल जा कर उन के टांके कटवाए, क्योंकि वे एक मोटे लोहे के तार से बंधे थे. डाक्टर ने मम्मीजी का हौसला बढ़ाया तथा उन्हें बताया कि अब आप बिलकुल ठीक हैं. आप ने इस बीमारी का पहला पड़ाव सफलतापूर्वक पार कर लिया है. पहले पड़ाव की बात सुन कर हम सभी चौंक गए. ‘‘डाक्टर ये आप क्या कह रहे हैं?’’ राजेश ने जब डाक्टर से पूछा तो उन्होंने बताया कि आप की माताजी का औपरेशन तो अच्छी तरह हो गया है, लेकिन भविष्य में यह बीमारी फिर से उभर कर सामने न आए, इसलिए हमें दूसरे चरण को भी पार करना होगा और वह दूसरा चरण है, कीमोथेरैपी?
‘‘कीमोथेरैपी,’’ हम ने आश्चर्य जताया. डाक्टर ने बताया कि कैंसर अभी शुरुआती दौर में ही है. यह यहीं समाप्त हो जाए, इस के लिए हमें कीमोथेरैपी देनी होगी. कैंसर के कीटाणु के विकास की थोड़ीबहुत आशंका भी अगर हो तो उसे कीमोथेरैपी से खत्म कर दिया जाएगा. डाक्टर ने बताया कि आप की माताजी के टांके अब सूख चुके हैं. सो, ये कीमोथेरैपी के लिए बिलकुल तैयार हैं. अब आप इन्हें कीमोथेरैपी दिलाने के लिए 4 दिनों बाद यहां ले आएं तो ठीक रहेगा. पता चला, मां को कीमोथेरैपी दी जाएगी.
कैंसर में दी जाने वाली यह सब से जरूरी थेरैपी है. 4 दिनों बाद मैं और राजेश मां को ले कर हौस्पिटल पहुंचे. 9 बजे से कीमोथेरैपी देनी शुरू कर दी गई. थेरैपी से पहले मां को 3 दवाइयां दी गईं ताकि थेरैपी के दौरान उन्हें उलटियां न हों. 2 बोतल ग्लूकोज की पहले, फिर कैंसर से बचाव की वह लाल रंग की बड़ी बोतल और उस के बाद फिर से 3 बोतल ग्लूकोज की तथा एक और छोटी बोतल किसी और दवाई की ड्रिप द्वारा मां को चढ़ाई जा रही थीं. धीरेधीरे दी जाने वाली इस पहली थेरैपी के खत्म होतेहोते शाम के 7 बज चुके थे. मैं अकेली मां के पास बैठी थी. शाम को औफिस से राजेश सीधे हौस्पिटल ही आ गए थे.
रात को 8 बजे हम तीनों घर पहुंचे. थेरैपी की वजह से मम्मीजी का सिर चकरा रहा था. हलका खाना खा कर वे सो गईं. अब अगली थेरैपी उन्हें 21 दिनों के बाद दी जानी थी. पहली थेरैपी के बाद ही उन के घने लंबे बाल पूरी तरह झड़ गए. यह देख कर हम सभी काफी दुखी हुए. बाल झड़ने के कारण मां पूरे समय अपने सिर को स्कार्फ से ढक कर रखती थीं. कई बार मां इस दौरान कहतीं, ‘‘कैंसर के औपरेशन में इतनी तकलीफ नहीं हुई जितनी इस थेरैपी से हो रही है.’’
मैं उन को ढाढ़स बंधाती, ‘‘मम्मीजी, आप चिंता मत करो, यह तो पहली थेरैपी है न, इसलिए आप को ज्यादा तकलीफ हो रही है. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा.’’ थेरैपी के प्रभाव के फलस्वरूप उन की जीभ पर छाले उभर आए. पानी पीने के अलावा कोई चीज वे सहज रूप से नहीं खापी पाती थीं. यह देख कर हम सभी को बहुत कष्ट होता था. उन के लिए बिना मिर्च, नमक का दलिया, खिचड़ी बनाने लगी, ताकि वे कुछ तो खा सकें. फलों का जूस भी थोड़ाथोड़ा देती रहती थी ताकि उन को कुछ राहत मिले. इस तरह 21-21 दिन के अंतराल में उन की सभी 6 थेरैपी पूरी हुईं.
हालांकि ये थेरैपी मम्मीजी के लिए बहुत कष्टकारी थीं लेकिन हम सभी यही सोचते थे कि स्वास्थ्य की तरफ मां का यह दूसरा चरण भी सफलतापूर्वक संपन्न हो जाए, तो अच्छा है. जिस दिन अंतिम थेरैपी पूरी हुई तो मां के साथ मैं ने और राजेश ने भी राहत की सांस ली. जब डाक्टर से मिलने उन के कैबिन में गए तो खुश होते हुए डाक्टर ने हमें बधाई दी, ‘‘अब आप की माताजी बिलकुल स्वस्थ हैं. बस, वे अपने खानेपीने का ध्यान रखें. पौष्टिक भोजन, फल, सलाद और जूस लेती रहें. सामान्य व्यायाम, वाकिंग करती रहें, तो अच्छा होगा.’’ इस के साथ ही डाक्टर ने हमें यह हिदायत विशेषरूप से दी कि जिस स्तन का औपरेशन हुआ है उस तरफ के हाथ पर किसी तरह का कोई कट नहीं लगने पाए. डाक्टर से सारी हिदायतें और जानकारी ले कर हम घर आ गए. अब हर 6 महीने के अंतराल में मां की पूरी जांच करवाते रहना जरूरी था ताकि उन का स्वास्थ्य ठीक रहे और भविष्य में इस तरह की कोई परेशानी सामने न आए. एक महीने आराम के बाद मम्मीजी वापस बीकानेर लौट गई थीं.
6 साल हो गए हैं. अब तो डाक्टर ने जांच भी साल में एक बार कराने के लिए कह दिया. मम्मीजी का जीवन दोबारा उसी रफ्तार और क्रियाशीलता के साथ शुरू हो गया. आज मम्मीजी अपने स्कूल और महल्ले में सब की प्रेरणास्रोत हैं. आज वे पहले से भी अधिक ऐक्टिव हो गई हैं. अब वे 2 स्तरों पर अध्यापन करवाती हैं- एक अपने स्कूल में और दूसरे कैंसर के प्रति सभी को जागरूक व सजग रहने के लिए प्रेरित करती हैं. उन्हें स्वस्थ और प्रसन्न देख कर मेरे साथ पूरा परिवार और रिश्तेदार सभी फिर से उन के स्नेह की छत्रछाया में खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं.
‘‘4 घंटे की ड्यूटी में कोई एक पुलिस वाला अंदर का गेट पार कर के पेशाब के लिए तो जाएगा ही. हमें उसी समय अंदर का गेट बंद कर देना है. एक सिपाही रहेगा. बहुत आसानी रहेगी. और अगर किसी तरह हम मेन गेट के संतरी को अपने काम करने वाले कमरे तक ला सके और उसे किसी तरह कमरे में बंद कर दिया तो हमें ज्यादा समय मिल सकता है. बोलो, तैयार हो?’’
सब ने सहमति जताई. यह योजना बाकी चारों को बहुत पसंद आई थी. वे अब बारीक निगाहों से समय का, गेट के संतरी का, चाबी का, इमर्जैंसी सायरन पर ध्यान देने लगे थे.
इधर बूढ़े बाप के शरीर में अब इतनी ताकत नहीं थी कि वह चलफिर सके. बेटे की जिंदगी को ले कर जो इच्छाएं मन में थीं, वे तो खत्म होने के कगार पर थीं. बस यही आखिरी इच्छा थी कि मरने से पहले बेटा कैद से बाहर आ जाए.
बाप को बेटे की शादी की तो उम्मीद नहीं थी. कौन देगा जेल गए बेटे को अपनी लड़की? खेतीबारी बिक चुकी थी. मजदूरी करने की शरीर में ताकत नहीं थी. इस बुढ़ापे में वह मंदिर के पास पड़ा रहता. वकील से भी बहुत पहले कह दिया था कि हाईकोर्ट का जो फैसला हो, खबर भेज देना. वकील की एकमुश्त फीस दी जा चुकी थी.
आज मौका मिल ही गया उन पांचों को. दोपहर 2 बजे एक संतरी ने अपने साथ ड्यूटी करने वाले संतरी से कहा, ‘‘मैं हलका हो कर आता हूं.’’
जैसे ही उन्हें अंदर का गेट खोलने की आवाज आई, वे पांचों फुरती से बाहर निकले. एक ने दौड़ कर अंदर का गेट बंद किया. 2 लोग कैंची अड़ा कर संतरी को अंदर कमरे में ले गए. जो कपड़े सिल कर तैयार थे, उन्होंने पहन लिए थे. उस ने चाबी छीन कर मेन गेट पर लगाई.
एक कैदी ने इमर्जैंसी सायरन बंद करने की कोशिश की, लेकिन बात बन नहीं पाई. मेन गेट खुलते ही उस ने बाकी चारों से कहा, ‘‘जल्दी निकलो,’’ और वे तेज कदमों से बाहर की ओर बढ़े.
किसी काम से आते हुए एक संतरी ने उन्हें देख लिया. उसे हैरानी हुई. उस ने सोचा, ‘शायद पांचों की जमानत हो गई है या हाईकोर्ट से बरी हो गए हैं. लेकिन इन्हें तो शाम को छोड़ा जाता…’
उसे कुछ शक हुआ. वह तेजी से जेल की तरह बढ़ा. मेन गेट का दरवाजा खुला हुआ था और अंदर से दोनों संतरियों के चीखने की आवाजें आ रही थीं.
वह संतरी अंदर गया. उस ने अंदर के गेट का दरवाजा खोला. दोनों ने सारी बातें बताईं और तुरंत इमर्जैंसी सायरन के स्विच पर उंगली रखी.
सायरन की आवाज उन पांचों के कानों में पड़ी. वे मेन सड़क तक आ चुके थे. उन्होंने सामने से आती हुई बस देखी और बस के पीछे लटक गए. बसस्टैंड के आने से पहले ही वे पांचों अलगअलग हो गए.
उस ने पहले गांव जाने पर विचार किया, फिर तुरंत अपना इरादा बदला. वह पैदल ही शहर की भीड़भाड़ से गुजरते हुए आगे बढ़ता रहा. वह कहां जा रहा था, उसे खुद पता नहीं था.
वह शहर के बाहर चलते हुए खेतखलिहानों को पार करते हुए एक पहाड़ी पर पहुंचा. पहाड़ी पर एक उजाड़ सा मंदिर बना हुआ था. वह वहीं एक पत्थर पर बैठ गया. उसे नींद आई या वह बेहोश हो गया.
अचानक उस की नींद खुल गई. उसे कुछ खतरे का आभास हुआ. उस ने उजाड़ मंदिर की दीवार की आड़ से देखा. दर्जनभर हथियारबंद पुलिस वाले उसे तेजी से अपनी तरफ बढ़ते हुए दिखाई दिए. वह भागा. नीचे गहरी खाई थी. बड़ीबड़ी चट्टानों के बीच बहती हुई नदी थी. सिपाही उस पर बंदूकें ताने हुए थे.
एक सबइंस्पैक्टर था. उस ने उसे अपनी रिवौल्वर के निशाने पर लेते हुए कहा, ‘‘बचने का कोई रास्ता नहीं है. रुक जाओ, नहीं तो मारे जाओगे.’’
उस ने अपनेआप को पहाड़ से नीचे गिरा दिया. सैकड़ों फुट की ऊंचाई से गिरता हुआ वह पथरीली चट्टान से टकराया. तत्काल उस की मौत हो गई.
जेल से भागने के एक घंटे पहले ही हाईकोर्ट ने उसे बाइज्जत बरी कर दिया था. उस की रिहाई के आदेश जारी कर दिए गए थे. बूढ़े बाप तक वकील ने खुद गांव जा कर खबर सुनाई.
पर थोड़ी देर में गांव की चौकी से एक पुलिस वाले ने आ कर उस से कहा, ‘‘तुम्हारा बेटा 4 लोगों के साथ जेल तोड़ कर भागा था. 3 पकड़े गए हैं. एक भागते हुए ट्रक के नीचे आ गया और तुम्हारे बेटे ने पुलिस से बचने के लिए पहाड़ी से छलांग लगा दी और मर गया.’’
कुछ देर तक बाप सकते में रहा, फिर उस ने अपनेआप से कहा, ‘‘मेरी चिंता खत्म. आज सचमुच रिहा हो गया मेरा बेटा और मैं भी.’’ बाप भी लड़खड़ा कर गिर पड़ा और फिर दोबारा न उठ सका.
‘‘क्यों शर्मिंदा कर रही हो… इतना महंगा गिफ्ट मेरी हैसियत से बाहर की बात है.’’
जुबेदा बोली, ‘‘ऐसा कुछ भी नहीं है. यह तो पर्सनली तुम्हारे लिए है. मां ने कहा है कि जाने से पहले तुम्हारे भाई और बहन के लिए भी कुछ देना है…तुम्हें गिफ्ट पसंद आया या नहीं?’’
मैं ने कहा, ‘‘पसंद न आने का सवाल ही नहीं है. इतने सुंदर और कौस्टली गिफ्ट की तो मैं सपने में भी कल्पना नहीं कर सकता हूं.’’
‘‘खैर, बातें न बनाओ. मां ने कल दुबई मौल में मिलने को कहा है. मैं भी रहूंगी. गाड़ी भेज दूंगी, आ जाना.’’
अगले दिन शनिवार को जुबेदा ने गाड़ी भेज दी. मैं दुबई मौल में जुबेदा और उस की मां के साथ बैठा था. उस की मां ने मेरे पूरे परिवार के बारे में पूछा. फिर मौल से ही मेरे भाईबहन के लिए गिफ्ट खरीद कर देते हुए कहा, ‘‘तुम बहुत अच्छे लड़के हो. जुबेदा भी तुम्हारी तारीफ करते नहीं थकती है. अभी तो तुम्हारी शादी नहीं हुई है. अगर तुम्हें दुबई में अच्छी नौकरी मिले तो क्या यहां सैटल होना चाहोगे?’’
उन का अंतिम वाक्य मुझे कुछ अजीब सा लगा. मैं ने कहा, ‘‘दुबई बेशक बहुत अच्छी
जगह है, पर मेरे अपने लोग तो इंडिया में ही हैं. फिर भी वहां लौट कर सोचूंगा.’’
जुबेदा मेरी ओर प्रश्नभरी आंखों से देख रही थी. मानो कुछ कहना चाहती हो पर बोल नहीं पा रही थी. मौल से निकलने से पहले एक मिनट के लिए मुझ से अकेले में कहा कि उसे मेरे दुबई में सैटल होने के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए. खैर अगले दिन रविवार को मैं इंडिया लौट गया.
मेरे इंडिया पहुंचने के कुछ घंटों के अंदर ही जुबेदा ने मेरे कुशल पहुंचने की जानकारी ली. कुछ दिनों के अंदर ही फिर जुबेदा का फोन आया, बोली, ‘‘अशोक, तुम ने क्या फैसला लिया दुबई में सैटल होने के बारे में?’’
मैं ने कहा, ‘‘अभी तक कुछ नहीं सोचा… इतनी जल्दी यह सोचना आसान नहीं है.’’
‘‘अशोक, यह बात तो अब तक तुम भी समझ गए हो कि मैं तुम्हें चाहने लगी हूं. यहां तक कि मेरे मातापिता भी यह समझ रहे हैं. अच्छा, तुम साफसाफ बताओ कि क्या तुम मुझे नहीं चाहते?’’ जुबेदा बोली.
मैं ने कहा, ‘‘हां, मैं भी तुम्हें चाहता हूं. पर हर वह चीज जिसे हम चाहते हैं, मिल ही जाए जरूरी तो नहीं?’’
‘‘पर प्रयास तो करना चाहिए अपनी मंजिल तक पहुंचने के लिए,’’ जुबेदा बोली.
‘‘मुझे क्या करना होगा तुम्हारे मुताबिक?’’ मैं ने पूछा.
‘‘तुम्हें मुझ से निकाह करना होगा. इस के लिए तुम्हें सिर्फ एक काम करना होगा. यानी इसलाम कबूल करना होगा. बाकी सब यहां हम लोग संभाल लेंगे. और हां, चाहो तो अपने भाई को भी यहां बुला लेना. बाद में उसे भी अच्छी नौकरी दिला देंगे.’’
‘‘इस्लाम कबूल करना जरूरी है क्या? बिना इस के नहीं हो सकता है निकाह?’’
‘‘नहीं बिना इसलाम धर्म अपनाए यहां तुम मुझ से शादी नहीं कर सकते हो. तुम ने देखा है न कि मां के लिए मेरे पिता को भी हमारा धर्म स्वीकार करना पड़ा था. उन को यहां आ कर काफी फायदा भी हुआ. प्यार में कंप्रोमाइज करना बुरा नहीं.’’
‘‘सिर्फ फायदे के लिए ही सब काम नहीं किया जाता है और प्यार में कंप्रोमाइज से बेहतर सैक्रिफाइस होता है. मैं दुबई आ सकता हूं, तुम से शादी भी कर सकता हूं, पर मैं भी मजबूर हूं, अपना धर्म नहीं बदल सकता हूं… मैं एक विकल्प दे सकता हूं… तुम इंडिया आ सकती हो… यहां शादी कर सैटल हो सकती हो. मैं तुम्हें धर्म बदलने को मजबूर नहीं करूंगा. धर्म की दीवार हमारे बीच नहीं होगी.’’
‘‘नहीं, मेरे मातापिता इस की इजाजत नहीं देंगे. मेरी मां भी और मैं भी अपने मातापिता की एकलौती संतान हैं. हमारे यहां बड़ा बिजनैस और प्रौपर्टी है. फिर वैसे भी मुझे दूसरे धर्म के लड़के से शादी करने की न तो इजाजत मिलेगी और न ही इस की हिम्मत है मुझ में,’’ जुबेदा बोली.
मैं ने कहा, ‘‘मेरे औफर में किसी को धर्म बदलने की आवश्यकता नहीं होगी. मैं तुम्हें इंडिया में सारी खुशियां दूंगा. मेरा देश बहुत उदार है. यहां सभी धर्मों के लोग अमनचैन से रह सकते हैं, कुछ सैक्रिफाइस तुम करो, कुछ मैं करता हूं पर मैं अपना धर्म नहीं बदल सकता हूं.’’
‘‘तो यह तुम्हारा अंतिम फैसला है?’’
‘‘सौरी. मैं अपना धर्म नहीं बदल सकता हूं. मैं सोच रहा हूं कि जब अगली बार दुबई आऊंगा तुम्हारी हीरे की अंगूठी वापस कर दूंगा. इतनी कीमती चीज मुझ पर कर्ज है.’’
‘‘अशोक, प्लीज बुरा न मानो. इस अंगूठी को बीच में न लाओ. हमारी शादी का इस से कोई लेनादेना नहीं है. डायमंड आर फौर एवर, यू हैव टु कीप इट फौरएवर. इसे हमारे अधूरे प्यार की निशानी समझ कर हमेशा अपने साथ रखना. बाय टेक केयर औफ योरसैल्फ.’’
‘‘तुम भी सदा खुश रहो… यू टू टेक केयर औफ योरसैल्फ.’’
‘‘थैंक्स,’’ इतना कह कर जुबेदा ने फोन काट दिया. यह जुबेदा से मेरी आखिरी बात थी. उस की दी हुई हीरे की अंगूठी अभी तक मेरे पास है. यह हमारे अधूरे प्यार की अनमोल निशानी है.
अब व्यापार के काम के बहाने मैं हफ्तों फ्लोरेंस के घर पड़ा रहता था. धीरेधीरे शिलांग के साडि़यों के शोरूम की पूरी बागडोर उस ने अपने हाथों में ले ली थी. इधर मुझे यह खुशखयाली भी रहने लगी कि फ्लोरेंस की सारी जमीन अब मेरी है. मैं ही उस का असली मालिक हूं.
फ्लोरेेंस से मेरे संबंधों की खबर खुशी और मेरे परिवार वालों को लग गई थी जिस की वजह से खुशी बहुत दुखी रहने लगी थी. मैं जब भी घर जाता, वह मुझ से कहती, ‘देखो, तुम क्यों उस खासी युवती को इतनी अहमियत दे रहे हो? क्या मुझे और मेरे बेटे को तुम्हारा साथ, तुम्हारा वक्त नहीं चाहिए? आज तुम मानो या न मानो पर देखना, एक दिन वह खासी औरत तुम्हारा साड़ियों का शोरूम हड़प लेगी. तुम ने यहां का शोरूम भी नौकरों के भरोसे छोड़ दिया है. वहां की आमदनी पहले से आधी रह गई है. तुम क्यों अपना सर्वनाश करने पर तुले हुए हो?’
खुशी की बातें सुन कर मैं गुस्से में भर उठा था और उस को चांटा मार कर घर से बाहर निकल आया था.
उसी दिन मैं शिलांग चला गया था. समय पंख लगा कर उड़ता चला गया और मेरा बेटा बड़ा हो चला था. जैसेजैसे वह समझदार होता जा रहा था, वह भी मुझ से दूर होता जा रहा था. मैं उसे अपने करीब लाने की भरसक कोशिश करता, पर वह मुझ से हमेशा अनमना सा रहता और अजनबियों की तरह पेश आता.
फ्लोरेंस से भी मेरा एक बेटा था जिसे मैं बेहद प्यार करता था. जैसेजैसे वह बड़ा हो रहा था वह भी मेरे नियंत्रण से बाहर होता जा रहा था.
इधर पिछले कुछ सालों से खुशी का कुछ दूसरा ही रूप मुझे देखने को मिल रहा था. गुवाहाटी वाला साडि़यों का शोरूम अब खुशी संभाल रही थी. उस के देखभाल करने के बाद वहां की बिक्री लगभग दोगुनी हो गई थी.
अब मेरा बेटा आकाश भी बड़ा हो चला था और कालिज के बाद वह भी शोरूम में बैठने लगा था, लेकिन एक बात जो मुझे खाए जा रही थी वह यह कि खुशी के प्रति मेरे अवमाननापूर्ण व्यवहार के प्रतिक्रियास्वरूप वह मुझ से बहुत कटाकटा सा रहने लगा था और दुकान की तिजोरी की चाबी भी वह अपने पास रखने लगा था. इस वजह से मैं रुपएपैसे के मामले में उन का मोहताज हो गया था. जब कभी मुझे रुपएपैसों की जरूरत होती, खुशी ही मुझे थोड़ेबहुत रुपए दे देती. इस तरह रुपयों के लिए पूरी तरह खुशी पर निर्भर होने की वजह से मेरे आत्मसम्मान को बहुत ठेस पहुंची थी और मुझ में धीरेधीरे हीनता की भावना घर करती जा रही थी.
उधर जिस जमीन के लालच में मैं ने फ्लोरेंस से रिश्ता जोड़ा था, उस जमीन के कागजों की फ्लोरेंस ने मुझे हवा तक नहीं लगने दी. न जाने वह उन्हें कहां छिपा कर रखती थी. उस पर कई महीनों से फ्लोरेंस से मेरी गंभीर अनबन चल रही थी. वह मुझ पर बहुत जोर डाल रही थी कि मैं खुशी को तलाक दे कर उस से अदालत में शादी कर लूं. लेकिन मैं खुशी को तलाक नहीं देना चाहता था. शायद इस की वजह यह थी कि मैं खुशी से भावनात्मक रूप से बहुत जुड़ा हुआ था. इस वजह से फ्लोरेंस और मुझ में झगड़ा बढ़ता ही गया और एक दिन फ्लोरेंस और उस के बेटे हनी ने मिल कर शिलांग वाले साडि़यों के शोरूम पर पूरी तरह से अपना कब्जा जमा लिया था. मैं जब भी शिलांग वाले शोरूम में जाता, हनी मुझे तिजोरी को हाथ तक न लगाने देता.
अब मुझे एहसास होने लगा था कि फ्लोरेंस के साथ रिश्ता कायम कर के मैं ने जिंदगी के हर क्षेत्र में नुकसान उठाया था. फ्लोरेंस की वजह से मैं ने खुशी और आकाश की उपेक्षा और अवहेलना की. मैं ने अपनी पत्नी की उपेक्षा की जिस की वजह से मेरे बेटे ने मुझे कभी पिता का आदरमान नहीं दिया और मैं अपने ही घर में बेगाना बन कर रह गया.
फ्लोरेंस से रिश्ता रखने की वजह से मेरे परिवार वालों ने मुझे पुश्तैनी संपत्ति से बेदखल कर उसे खुशी और आकाश के नाम कर दिया था. मेरी लापरवाही के चलते मेरा गुवाहाटी का शोरूम भी खुशी और आकाश के कब्जे में चला गया था. अब मुझे एहसास हो रहा था कि मैं जिंदगी की लड़ाई में बुरी तरह से हार गया था.
एक वक्त था जब कुदरत ने मुझे दुनिया की हर नियामत बख्शी थी. सुशील पत्नी, एक प्यारा सा बेटा, चलता हुआ व्यापार, सामाजिक प्रतिष्ठा, लेकिन मैं ने यह सबकुछ अपनी ही बेवकूफी से गंवा दिया था. शायद यही मेरी गलतियों की सजा है, लेकिन अब मुझे अपनी गलतियों का एहसास हो चला है और इस के लिए मैं खुशी और आकाश से माफी मांगूंगा. फ्लोरेंस से अपने सारे संबंध हमेशा के लिए तोड़ लूंगा. दोबारा से शोरूम में बैठ कर व्यापार संभालूंगा. खुशी बहुत अच्छी है. वह जरूर मुझे माफ कर देगी.
शोरूम में बैठ कर काम संभालने के खयाल ने मुझे बहुत सुकून दिया था. फिर भी मन के एक कोने में कहीं यह डर छिपा हुआ था कि क्या आकाश और खुशी मुझे फिर से व्यापार संभालने देंगे? क्या वे दोनों मेरी पिछली भूलों को नजरअंदाज कर पाएंगे?
इसी डर और आशंका के साथ मैं शोरूम पर पहुंचा और खुशी से बोला, ‘खुशी, मैं ने पूरी जिंदगी तुम्हारे साथ बहुत अन्याय किया. अपने गलत आचरण से तुम्हारे दिल को बहुत दुखाया. मैं वादा करता हूं कि पुरानी भूलों को अब कभी नहीं दोहराऊंगा. मैं ने फ्लोरेंस और हनी से सारे रिश्ते तोड़ लिए हैं. बस…तुम मुझे एक बार माफ कर दो.’
खुशी तो कुछ नहीं बोली लेकिन आकाश बोल पड़ा, ‘अब आप को अपनी गलतियों का एहसास हो रहा है. मेरी मां ने कितने दिन और कितनी रातें आप की वजह से रोरो कर गुजारी हैं, यह मैं ने अपनी आंखों से देखा है और अब आप माफी मांग रहे हैं. नहीं, बिलकुल नहीं. आप हमारी माफी के बिलकुल भी हकदार नहीं हैं. इतने सालों तक हम ने बिना आप के सहारे के अकेले, अपने दम पर जिंदगी जी है, आगे भी जी लेंगे. अब आप कारोबार संभालने की बात कर रहे हैं, जबकि पहले आप ने ही सारा कारोबार चौपट कर दिया था. यह शोरूम बंद होने के कगार पर आ पहुंचा था. आप यहां से जाइए, हम दोनों की जिंदगी में अब आप की कोई जगह नहीं है.’
आकाश की इन कड़वी पर सच बातों को सुन कर मेरा दिल बैठ गया और मैं ने हताश कदमों व टूटे दिल से वापस लौटने के लिए कदम बढ़ाए थे कि तभी खुशी बोल पड़ी, ‘आकाश बेटा, पापा से ऐसा नहीं कहते. गलतियां किस से नहीं होतीं? पापा को अपनी गलतियों का एहसास हो गया, यही बहुत है. सुबह का भूला शाम को घर आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते. हां, पर अब आप को मेरी एक बात माननी पडे़गी कि आप भविष्य में फ्लोरेंस और हनी से कोई रिश्ता नहीं रखेंगे और न उन से मिलने शिलांग जाएंगे.’
‘खुशी, अगर तुम्हें मेरी बातों पर यकीन है तो मैं तुम्हारी कसम खा कर कहता हूं कि भविष्य में मैं उन से कोई संबंध नहीं रखूंगा. मैं ने उन से हमेशाहमेशा के लिए अपने रिश्ते तोड़ लिए हैं.’
यह सुन कर खुशी के चेहरे पर संतुष्टि के भाव परिलक्षित हुए. फिर अपनी कुरसी से उठते हुए उस ने मुझ से कहा, ‘यह जगह आप की है. आप आइए, यहां बैठिए.’
मैं एक बार फिर खुशी की अच्छाइयों के सामने नतमस्तक हो गया था. मुझ में एक बार फिर से जिंदगी जीने की तमन्ना जाग उठी थी.
ज्यों ही वंदना से उस का सामना हुआ, वह अपना आपा खो बैठी. उस ने वंदना को धिक्कारते हुए कहा, ‘‘तुम ने तो अपनी इमेज खराब कर ली, लेकिन तुम ने मेरे बारे में यह कैसे सोच लिया कि मैं भी तुम्हारे रास्ते चल पडूंगी.’’
‘‘क्यों… क्या हो गया?’’ वंदना ने ऐसे पूछा, जैसे वह कुछ जानती ही न हो.
‘‘वही हुआ, जो तुम ने सोचा था. मैं भी तुम्हारी तरह लालची और डरपोक होती तो शायद बच कर नहीं निकल पाती…’’ सुभांगी ने अपनी उफनती सांसों पर काबू पाते हुए कहा.
वंदना समझ गई कि सुभांगी उस की सचाई को जान गई है. उस ने पैतरा बदलते हुए कहा, ‘‘देखो सुभांगी, अगर तुम को आगे बढ़ना है, तो कई जगह समझौते करने पड़ेंगे. फिर क्या हर्ज है कि किसी एक पहुंच वाले आदमी के आगे झुक लिया जाए. मुझे देखो, आज मैं मंत्रीजी की वजह से ही इस मुकाम तक पहुंची हूं…’’
वंदना मंत्री से अपने संबंधों के चलते ही ब्लौक प्रमुख बनी थी. पहली बार जब वह आंगनबाड़ी में नौकरी करने की गरज से मंत्री के पास गई थी, तो उस का सामना एक भयंकर दुर्घटना से हुआ था.
उस की मजबूरी को भुनाते हुए मंत्री ने भरी दोपहरी में उस की इज्जत लूटी थी. एक बार तो उस को ऐसा सदमा लगा कि खुदकुशी का विचार उस के मन में आ गया था, लेकिन मंत्री ने उस के गालों को सहलाते हुए कहा था, ‘नौकरी कर के क्या करोगी… मुझे कभीकभार यों ही खुश कर दिया करो. बदले में मैं तुम्हें वह पहचान और पैसा दिलवा दूंगा, जिस की तुम ने कभी कल्पना भी न की हो.’
उस समय वंदना भी मंत्री के मुंह पर थूक कर भाग आई थी, लेकिन घर पहुंचने पर उस के मन में कई तरह के खयाल आए थे. कभी उस को लगता था कि फौरन जा कर पुलिस को सूचित करे और मंत्री के खिलाफ जंग का बिगुल बजा दे, लेकिन अगले ही पल उसे लगा कि मंत्री के खिलाफ लड़ने का अंजाम आखिरकार उस को ही भुगतना पड़ेगा.
जिन दिनों वंदना मंत्री के कारनामे से आहत हो कर घर में गुमसुम बैठी थी, उन्हीं दिनों उस की मुलाकात अर्चना से हुई थी. अर्चना कहने को तो टीचर थी, लेकिन उस के कारनामे बस्ती में काफी मशहूर थे.
अर्चना ने वंदना को सम झाया था, ‘औरत को तो हर जगह झुकना ही होता है बहन. कुछ लोग मजे ले कर चले जाते हैं और कुछ एहसान का बदला चुकाते हैं. मंत्रीजी ने जो किया, वह बेशक गलत था, लेकिन अब वे अपने किए का मुआवजा भी तो तुम को दे रहे हैं. झगड़ा मोल लोगी तो पछताओगी और अगर समझौता करोगी, तो आगे बढ़ती चली जाओगी.’
अर्चना ने वंदना को इतने हसीन सपने दिखाए थे कि उस से मना करते हुए नहीं बना. उस के साथ वह राजधानी पहुंची और कई दिनों तक मंत्री के लिए मनोरंजन का साधन बनी रही.
अब वंदना को पता चला कि मंत्री की एक रखैल अर्चना भी है. अर्चना की सेवा से खुश हो कर मंत्री ने उसे उसी स्कूल का प्रिंसिपल बना दिया, जिस में कभी मंत्री की मेहरबानी से वह टीचर बनी थी.
वंदना सत्ता के सपनीले गलियारों में कुछ यों उल झी कि उस को अपने पति से खिलाफत करते हुए भी झिझक नहीं हुई.
मंत्री के कारनामों से उस के पति अनजान नहीं थे. नौकरी के सिलसिले में वे अकसर घर से बाहर ही रहते थे, लेकिन अपनी बीवी की हर चाल से वे वाकिफ थे. पानी जब सिर से ऊपर गुजरने लगा, तो उन्होंने वंदना को रोकने की कोशिश की.
बच्चों का हवाला देते हुए उन्होंने वंदना से कहा था, ‘तुम 2 बच्चों की मां हो. बच्चों की पढ़ाई और परवरिश के लिए मैं जो कमाता हूं, वह काफी है. इज्जत की कमाई थोड़ी ही सही, लेकिन अच्छी लगती है.
‘‘ईमान और इज्जत बेच कर कोई लाखों रुपए भी कमा ले, तो दुनिया की थूथू से बच नहीं सकता. अभी देर नहीं हुई, मैं तुम्हारे अब तक के सारे गुनाह माफ करने को तैयार हूं, बशर्ते तुम इस गलत रास्ते से वापस लौट आओ…’
वंदना अब इतनी आगे बढ़ चुकी थी कि उस का किसी से कोई वास्ता नहीं रहा था. उस ने पति को दोटूक शब्दों में कह दिया था, ‘मैं जिंदगीभर तुम्हारी दासी बन कर नहीं रह सकती. अब तक मैं ने जो चुपचाप सहा, वह मेरी भूल थी. अब मुझे अपने रास्ते चलने दो.’
यह सुन कर वंदना का पति चुप हो गया था. उस को लगा कि वंदना को रोकना अब खतरनाक हो सकता है. उस की वजह से घर में क्लेश बढ़ सकता था. उस ने दोनों बच्चों को अपने साथ ले जाने का फैसला किया और वंदना को उसी के हाल पर छोड़ दिया.
वंदना ने भी पति के फैसले में कोई दखल नहीं दिया. अब उस के ऊपर बच्चों की देखरेख करने का जिम्मा भी नहीं रहा.
तमाम जिम्मेदारियों से छूट कर वंदना अब मंत्री की सेवा में खुद को पूरी तरह सौंप चुकी थी. बाहुबली मंत्री ने पंचायत चुनावों में अपने आपराधिक संपर्कों का इस्तेमाल कर वंदना को ब्लौक प्रमुख बना दिया. मंत्री से अपने संबंधों को उस ने जम कर भुनाया.
वंदना अपने दबदबे का इस्तेमाल जनता की भलाई के लिए करती तो लोगों का समर्थन हासिल करती, लेकिन लालच में अंधी हो कर उस ने मंत्री के दलाल की भूमिका निभानी शुरू कर दी.
अफसरों से पैसा वसूलना और अपने गुरगों को ठेके दिलवाने के अलावा अब वह आसपास के गांवों की भोलीभाली लड़कियों को नौकरी का लालच दे कर अपने आका के बैडरूम तक पहुंचाने लगी थी.
सुभांगी उस इलाके में अपनी स्वयंसेवी संस्था चलाती थी. वह पढ़ीलिखी और जु झारू थी. अपनी संस्था के जरीए वह औरतों और बच्चों को पढ़ाने की मुहिम चला रही थी.
वंदना और सुभांगी की मुलाकात एक सरकारी कार्यक्रम में हुई. शातिर वंदना की नजर सुभांगी पर लग चुकी थी. उस ने सुभांगी से दोस्ती बढ़ानी शुरू कर दी.
एक दिन मौका पा कर वंदना ने सुभांगी से पूछा, ‘तुम इतनी मेहनत करती हो. चंदा जुटा कर औरतों और बच्चों को पढ़ाती हो. ऐसे कामों के लिए सरकार अनुदान देती है. तुम खुद क्यों नहीं इस दिशा में कोशिश करती?’
‘सरकारी मदद लेने के लिए तो आंकड़े चाहिए और मेरी समस्या यह है कि मैं जमीन पर रह कर यह काम करती हूं, लेकिन फर्जी आंकड़े नहीं जुटा सकती…’ सुभांगी ने जवाब दिया.
‘तुम को फर्जी आंकड़े जुटाने की क्या जरूरत है? तुम्हारे पास तो ढेर सारे आंकड़े पहले से ही मौजूद हैं. तुम कहो तो मैं तुम्हारी मदद कर सकती हूं. इस इलाके के विधायक सरकार में मंत्री हैं और उन से मेरे अच्छे ताल्लुकात हैं,’ वंदना ने अपना जाल बिछाते हुए कहा.
सुभांगी को वंदना के असली कारनामों की जानकारी नहीं थी. वह उस की बातों में आ गई. उस ने सोचा कि चंदा वसूल कर अगर वह इतनी बड़ी मुहिम चला सकती है, तो सरकारी मदद मिलने पर इस को और भी सही ढंग से चला सकेगी.
उस शाम वंदना सुभांगी को ले कर मंत्री के घर पहुंची. उस का परिचय कराने के बाद वह तो कमरे से बाहर आ गई, लेकिन सुभांगी को वहीं छोड़ गई.
सुभांगी ने मंत्री की तरफ अपनी फाइल बढ़ाते हुए कहा, ‘इस में मेरे अब तक के काम का पूरा ब्योरा है. काम तो मैं यों भी कर ही रही हूं, लेकिन सरकार मदद दे दे तो मैं और भी बेहतर काम कर पाऊंगी.’
‘चिंता न करो, हम तुम को अच्छा अनुदान देंगे…’ मंत्री के मुंह से शराब की बदबू का भभका आया, तो सुभांगी के कान खड़े हो गए. वह फौरन कुरसी से उठी और बोली, ‘आप मेरी फाइल देख लीजिए… अभी मैं चलती हूं.’
सुभांगी दरवाजे की ओर मुड़ी ही थी कि नशे में धुत्त मंत्री ने उस को पीछे से दबोचते हुए कहा, ‘फाइल से पहले मैं तुम को तो देख लूं मेरी रानी…’
मंत्री ने सुभांगी को अपनी बांहों में मजबूती से जकड़ लिया. सुभांगी उस की गिरफ्त से बचने के लिए ऐसे छटपटाने लगी, जैसे कोई मजबूर मछली औक्टोपस की कैद से निकलने के लिए छटपटाती है.
देर तक सुभांगी मंत्री के चंगुल से निकलने के लिए छटपटाती रही और जब उस की ताकत जवाब दे गई, तो वह निढाल हो कर फर्श पर गिर पड़ी.
इस से पहले कि वह खूंख्वार शैतान उस की देह पर बिछता, उस ने चालाकी से अपने जूड़े में फंसी पिन मंत्री के मोटे गाल में घोंप दी. मंत्री की चीख निकल गई और वह एक किनारे हो गया. इस बीच सुभांगी बच कर भाग निकली.
मंत्री के कमरे से निकलते ही सुभांगी का सामना वंदना से हुआ. वह वंदना की सचाई समझ चुकी थी. उस को डपट कर वह पुलिस थाने पहुंची.
एक जवान लड़की को यों बदहवास भागते देख कर लोग सकते में आ गए. मीडिया को भी खबर लग गई. देखते ही देखते थाने में भीड़ जुट गई. दबाव में आ कर पुलिस ने न चाहते हुए भी रिपोर्ट दर्ज कर ली.
अगले दिन मंत्री के कारनामों की खबरें अखबारों में हैडलाइन बन कर छपीं. विपक्षी पार्टियों के दबाव में आ कर मंत्री को गिरफ्तार किया गया.
पुलिस जांच में पता चला कि सुभांगी के अलावा मंत्री ने कई मजबूर लड़कियों को अपनी हवस का शिकार बनाया और इस की सूत्रधार थी वंदना. वंदना को भी गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया.
आज वंदना जेल की कोठरी में कैद है. उस की सारी इच्छाएं खत्म हो चुकी हैं. अब उस को अपना अतीत याद आता है, जब उस के पति ने उस को बारबार सम झाया था कि गलत रास्ता छोड़ दे, लेकिन उस समय उस की आंखों पर पट्टी बंधी थी. वह खुद को सबकुछ समझ बैठी थी. सुभांगी की तरह उस ने भी हिम्मत कर मंत्री को सबक सिखाया होता, तो आज यह दिन न देखना पड़ता.
वंदना अब घुटघुट कर जी रही है. उस के पास अपनी करनी पर पछतावा करने के अलावा कोई और चारा नहीं है. उस को अब अपने बच्चों की याद सताती है. पति से अपने गुनाहों के लिए माफी मांगने के लिए वह छटपटाती रहती है, लेकिन उस का कोई अपना उस से मिलने को तैयार नहीं है.
दूसरी तरफ सुभांगी के हिम्मत की चारों ओर तारीफ हो रही है. राजधानी के नागरिक सुरक्षा मंच ने उस को सम्मानित ही नहीं किया, बल्कि अपनी महिला शाखा का प्रधान भी बना दिया.
आज सुभांगी को तमाम सम्मानों से उतनी खुशी नहीं मिलती, जितनी कि इस बात से कि उस के एक हिम्मती कारनामे ने उस दुष्ट औक्टोपस को कैद करवा दिया, जो सालों से मजबूर लड़कियों को जकड़ता चला आ रहा था.
उस को खुशी है तो इस बात की कि न तो उस ने वंदना और अर्चना की तरह समझौता किया और न ही उस ने हार मानी. उस ने हिम्मत से उस भयंकर औक्टोपस का सामना किया, जो तमाम मछलियों पर घात लगाए बैठा था.
एक दिन पिताजी ने दुखी हो कर कहा था, ‘संगीता, जिन संबंधों को बना नहीं सकते उन्हें ढोने से क्या फायदा. इस से बेहतर है कि कानूनी तौर पर अलग हो जाओ.’ इस बात का मां और भैया ने जम कर विरोध किया.
मां का कहना था कि यदि मेरी बेटी सुखी नहीं रह सकती तो मैं उसे भी सुखी नहीं रहने दूंगी. तलाक देने का मतलब है वह जहां चाहे रहे और ऐसा मैं होने नहीं दूंगी.
मुझे भी लगा यही ठीक निर्णय है. पिताजी इसी गम में दुनिया से ही चले गए और साल बीततेबीतते मां भी नहीं रहीं. मैं ने कभी सोचा भी न था कि मैं भी कभी अकेली हो जाऊंगी.
मैं ने अब तक अपनेआप को इस घर में व्यवस्थित कर लिया था. सुबह भाभी के साथ नाश्ता बनाने के बाद कालिज चली जाती. शाम को मेरे आने के बाद वह बच्चों में व्यस्त हो जातीं. मैं मन मार कर अपने कमरे में चली जाती. भैया के आने के बाद ही हम लोग पूरे दिन की दिनचर्या डायनिंग टेबल पर करते. मेरा उन से मिलना बस, यहीं तक सिमट चुका था.
जयपुर के निकट एक गांव में पति द्वारा पत्नी पर किए गए अत्याचारों की घटना की उस दिन बारबार टीवी पर चर्चा हो रही थी. खाना खाते हुए भैया बोले, ‘ऐसे व्यक्तियों को तो पेड़ पर लटका कर गोली मार देनी चाहिए.’
‘तुम अपना खाना खाओ,’ भाभी बोलीं, ‘यह काम सरकार का है, उसे ही करने दो.’
‘सरकार कुछ नहीं करती. औरतों को ही जागरूक होना चाहिए. अपनी संगीता को ही देख लो, संदीप को ऐसा सबक सिखाया है कि उम्र भर याद रखेगा. तलाक लेना चाहता था ताकि अपनी जिंदगी मनमाने ढंग से बिता सके. हम उसे भी सुख से नहीं रहने देंगे,’ भैया ने तेज स्वर में मेरी ओर देखते हुए कहा, ‘क्यों संगीता.’
‘तुम यह क्यों भूलते हो कि उसे तलाक न देने से खुद संगीता भी कभी अपना घर नहीं बसा सकती. मैं ने तो पहले ही इसे कहा था कि इस खाई को और न बढ़ाओ. तब मेरी सुनी ही किस ने थी. वह तो फिर भी पुरुष है, कोई न कोई रास्ता तो निकाल ही लेगा. वह अकेला रह सकता है पर संगीता नहीं.’
‘मैं क्यों नहीं घर बसा सकती,’ मैं ने प्रश्नवाचक निगाहें भाभी पर टिका दीं.
‘क्योंकि कानूनी तौर पर बिना उस से अलग हुए तुम्हारा संबंध अवैध है.’
भाभी की बातों में कितना कठोर सत्य छिपा हुआ था यह मैं ने उस दिन जाना. मुझे तो जैसे काठ मार गया हो.
उस रात नींद आंखों से दूर ही रही. मैं यथार्थ की दुनिया में आ गिरी. कहने के लिए यहां अपना कुछ भी नहीं था. मैं अब अपने ही बनाए हुए मकड़जाल में पूरी तरह फंस चुकी थी.
इस तनाव से मुक्ति पाने के लिए मैं ने एक रास्ता खोजा और वहां से दूर रहने लायक एक ठिकाना ढूंढ़ा. किसी का कुछ नहीं बिगड़ा और मैं रास्ते में अकेली खड़ी रह गई.
मेरी जिंदगी की दूसरी पारी शुरू हो चुकी थी. जाने वह कैसी मनहूस घड़ी थी जब मां की बातों में आ कर मैं ने अपना बसाबसाया घर उजाड़ लिया था. फिर से जिंदगी जीने की जंग शुरू हो गई. मैं ने संदीप को ढूंढ़ने का निर्णय लिया. जितना उसे ढूंढ़ती उतना ही गम के काले सायों में घिरती चली गई.
उस के आफिस के एक पुराने कुलीग से मुझे पता चला कि उस दिन जो युवती संदीप से मिलने घर आई थी वह उस के विभाग की नई हेड थी. संदीप चाहता था कि उसे अपना घर दिखा सके ताकि कंपनी द्वारा दी गई सुविधाओं को वह भी देख सके. किंतु उस दिन की घटना के बाद मैं ने फोन से जो कीचड़ उछाला था वह संदीप की तरक्की के मार्ग को बंद कर गया. वह अपनी बदनामी का सामना नहीं कर पाया और चुपचाप त्यागपत्र दे दिया. यह उस का मुझ से विवाह करने का इनाम था.
फिर तो मैं ने उसे ढूंढ़ने के सारे यत्न किए, पर सब बेकार साबित हुए. मैं चाहती थी एक बार मुझे संदीप मिल जाए तो मैं उस के चरणों में माथा रगड़ूं, अपनी गलती के लिए क्षमा मांगूं, लेकिन मेरी यह इच्छा भी पूरी नहीं हुई. न जाने किस सुख के प्रलोभन के लिए मैं उस से अलग हुई. न खुद ही जी पाई और न उस के जीने के लिए कोई कोना छोड़ा.
अब जब जीवन की शाम ढलने लगी है मैं भीतर तक पूरी तरह टूट चुकी हूं. उस के एक परिचित से पता चला था कि वह तमिलनाडु के सेलम शहर में है और आज इस पत्र के आते ही मेरा रहासहा उत्साह भी ठंडा हो गया.
कोई किसी की पीड़ा को नहीं बांट सकता. अपने हिस्से की पीड़ा मुझे खुद ही भोगनी पड़ेगी. मन के किसी कोने में छिपी हीन भावना से मैं कभी छुटकारा नहीं पा सकती.
पहली बार महसूस किया कि मैं ने वह वस्तु हमेशा के लिए खो दी है जो मेरे जीवन की सब से महत्त्वपूर्ण निधि थी. काश, संदीप कहीं से आ जाए तो मैं उस से क्षमादान मांगूं. वही मुझे अनिश्चितताओं के इस अंधेरे से बचा सकता है.
संध्या ने कोई जवाब नहीं दिया. इसी बीच एक बार सोमेन के दोस्त ने उन्हें खबर दी कि उस ने रिया और गोपाल को एकसाथ सिनेमाघर से निकलते देखा है.
इस के कुछ ही दिनों बाद संध्या के रिश्ते के एक भाई ने बताया कि उस ने गोपाल और रिया को रैस्टौरैंट में लंच करते देखा है.
सोमेन ने अपनी पत्नी संध्या से कहा, ‘‘रिया और गोपाल दोनों को कई बार सिनेमाघर या होटल में साथ देखा गया है. उसे समझाओ कि उस के लिए अच्छे घरों से रिश्ते आ रहे हैं. सिर्फ उस के हां कहने की देरी है.’’
संध्या बोली, ‘‘रिया ने मुझे बताया था कि वह गोपाल से प्यार करती है.’’
सोमेन चौंक पड़े और बोले, ‘‘क्या? रिया और गोपाल? यह तो बिलकुल भी नहीं हो सकता.’’
अगले दिन सोमेन ने रिया से कहा, ‘‘बेटी, तेरे रिश्ते के लिए काफी अच्छे औफर हैं. तू जिस से बोलेगी, हम आगे बात करेंगे’’
रिया ने कहा, ‘‘पापा, मैं बहुत दिनों से सोच रही थी कि आप को बताऊं कि मैं और गोपाल एकदूसरे को चाहते हैं. मैं ने मम्मी को बताया भी था कि पीजी पूरा कर के मैं शादी करूंगी.’’
‘‘बेटी, कहां गोपाल और कहां तुम? उस से तुम्हारी शादी नहीं हो सकती, उसे भूल जाओ. अपनी जाति के अच्छे रिश्ते तुम्हारे सामने हैं.’’
‘‘पापा, हम दोनों पिछले 5 सालों से एकदूसरे को चाहते हैं. आखिर उस में क्या कमी है?’’
‘‘वह एक आदिवासी है और हम ऊंची जाति के शहरी लोग हैं.’’
‘‘पापा, आजकल यह जातपांत, ऊंचनीच नहीं देखते. गोपाल भी एक अच्छा डाक्टर है और उस से भी पहले बहुत नेक इनसान है.’’
सोमेन ने गरज कर कहा, ‘‘मैं बारबार तुम्हें मना कर रहा हूं… तुम समझती क्यों नहीं हो?’’
‘‘पापा, मैं ने भी गोपाल को वचन दिया है कि मैं शादी उसी से करूंगी.’’
उसी समय संध्या भी वहां आ गई और बोली, ‘‘अगर रिया गोपाल को इतना ही चाहती है, तो उस से शादी करने में क्या दिक्कत है? मुझे तो गोपाल में कोई कमी नहीं दिखती है.’’
सोमेन चिल्ला कर बोले, ‘‘मेरे जीतेजी यह शादी नहीं हो सकती. मैं तो कहूंगा कि मेरे मरने के बाद भी ऐसा नहीं करना. तुम लोगों को मेरी कसम.’’
रिया बोली, ‘‘ठीक है, मैं शादी ही नहीं करूंगी. तब तो आप खुश हो जाएंगे.’’
सोमेन बोले, ‘‘नहीं बेटी, तुझे शादीशुदा देख कर मुझे बेहद खुशी होगी. पर तू गोपाल से शादी करने की जिद छोड़ दे.’’
‘‘पापा, मैं ने आप की एक बात मान ली. मैं गोपाल को भूल जाऊंगी. परंतु आप भी मेरी एक बात मान लें, मुझे किसी और से शादी करने के लिए मजबूर नहीं करेंगे.’’
ये बातें फिलहाल यहीं रुक गईं. रात में संध्या ने पति सोमेन से पूछा, ‘‘क्या आप बेटी को खुश नहीं देखना चाहते हैं? आखिर गोपाल में क्या कमी है?’’
सोमेन ने कहा, ‘‘गोपाल में कोई कमी नहीं है. उस के आदिवासी होने पर भी मुझे कोई एतराज नहीं है. वह सभी तरह से अच्छा लड़का है, फिर भी…’’
रिया को नींद नहीं आ रही थी. वह भी बगल के कमरे में उन की बातें सुन रही थी. वह अपने कमरे से बाहर आई और पापा से बोली, ‘‘फिर भी क्या…? जब गोपाल में कोई कमी नहीं है, फिर आप की यह जिद बेमानी है.’’
सोमेन बोले, ‘‘मैं नहीं चाहता कि तेरी शादी गोपाल से हो.’’
‘‘नहीं पापा, आखिर आप के न चाहने की कोई तो ठोस वजह होनी चाहिए. आप प्लीज मुझे बताएं, आप को मेरी कसम. अगर कोई ऐसी वजह है, तो मैं खुद ही पीछे हट जाऊंगी. प्लीज, मुझे बताएं.’’
सोमेन बहुत घबरा उठे. उन को पसीना छूटने लगा. पसीना पोंछ कर अपनेआप को संभालते हुए उन्होंने कहा, ‘‘यह शादी इसलिए नहीं हो सकती, क्योंकि…’’
वे बोल नहीं पा रहे थे, तो संध्या ने उन की पीठ सहलाते हुए उन को हिम्मत दी और कहा, ‘‘हां बोलिए आप, क्योंकि… क्या?’’
सोमेन बोले, ‘‘तो लो सुनो. यह शादी नहीं हो सकती है, क्योंकि गोपाल रिया का छोटा भाई है.
‘‘जब मैं हजारीबाग में अकेला रहता था, तब मुझ से यह भूल हो गई थी.’’
रिया और संध्या को काटो तो खून नहीं. दोनों हैरानी से सोमेन को देख रही थीं. रिया की आंखों से आंसू गिरने लगे. कुछ देर बाद वह सहज हुई और अपने कमरे में चली गई.
रात में ही उस ने गोपाल को फोन कर के कहा, ‘‘गोपाल, क्या तुम मुझ से सच्चा प्यार करते हो?’’
गोपाल बोला, ‘क्या इतनी रात गए यही पूछने के लिए फोन किया है?’
‘‘तुम ने सुना होगा कि प्यार सिर्फ पाने का नाम नहीं है, इस में कभी खोना भी पड़ता है.’’
गोपाल ने कहा, ‘हां, सुना तो है.’’
‘‘अगर यह सही है, तो तुम्हें मेरी एक बात माननी होगी. बोलो मानोगे?’’ रिया बोली.
गोपाल बोला, ‘यह कैसी बात कर रही हो आज? तुम्हारी हर जायज बात मैं मानूंगा.’
‘‘तो सुनो. बात बिलकुल जायज है, पर मैं इस की कोई वजह नहीं बता सकती हूं और न ही तुम पूछोगे. ठीक है?’’
‘ठीक है, नहीं पूछूंगा. अब बताओ तो सही.’
रिया बोली, ‘‘हम दोनों की शादी नहीं हो सकती. यह बिलकुल भी मुमकिन नहीं है. वजह जायज है और जैसा कि मैं ने पहले ही कहा है कि वजह न मैं बता सकती हूं, न तुम पूछना कभी.’’
गोपाल ने पूछा, ‘तो क्या हमारा प्यार झूठा था?’
रिया बोली, ‘‘प्यार सच्चा है, पर याद करो, हम ने तय किया था कि शादी नहीं होने तक हमारा प्यार ‘अधूरा प्यार’ रहेगा. बस, यही समझ लो.
‘‘अब तुम कहीं भी शादी कर लो, पर मेरातुम्हारा साथ बना रहेगा और तुम चाहोगे भी तो भी मैं कभी भी तुम्हारे घर आ धमकूंगी,’’ इतना कह कर रिया ने फोन रख दिया.
राजेश ने मेरे कंधों पर हाथ रखते हुए बड़े धैर्य से जवाब दिया, ‘‘यदि नहीं मिलना चाहेंगे या हमारा अपमान करेंगे, हम तुरंत लौट आएंगे और फिर दोबारा उन के पास नहीं जाएंगे. हम यही समझ लेंगे कि मम्मी तो अब इस दुनिया में नहीं हैं और पापा से अब हमारा कोई संबंध नहीं है.’’
मैं चुपचाप राजेश की बातें सुन रही थी.
‘‘तुम्हें मुझ से वादा करना होगा कि तुम उस के बाद पापा की चिंता करना छोड़ दोगी,’’ उन्होंने बड़े प्यार से कहा, ‘‘मुझ से मेरी बीवी उदास और बुझीबुझी देखी नहीं जाती इसलिए एक बार तो यह रिस्क लेना ही होगा. एक बार चल कर देखना ही होगा.’’
हम जब पापा के पास पहुंचे उस समय सुबह के लगभग 8 बज रहे थे. पापा बागबानी में लगे हुए थे. हमें देखते ही गेट तक आए और बोले, ‘‘अरे, तुम लोग बिना खबर दिए आए, खबर करते तो मैं स्टेशन आ जाता.’’
राजेश ने धीरे से मुझ से कहा, ‘‘रिया, गुस्से को जब्त रखना और अपनी तरफ से कुछ भी अपमानजनक नहीं करना,’’ राजेश ने टैक्सी से निकलते हुए कहा, ‘‘अचानक ही प्रोग्राम बन गया इसलिए चले आए,’’ मैं अपने क्रोध को किसी तरह रोकने की कोशिश कर रही थी, फिर भी मुंह से निकल ही गया, ‘‘हमें लगा, आप को फुरसत कहां होगी, फिर हमें लाने की आप को अनुमति मिले न मिले.’’
पापा कुछ भी न बोले. हमें अंदर लिवा लाए और बोले, ‘‘निम्मो, देखो कौन आया है?’’
पापा के मुंह से निम्मो सुन मैं अंदर ही अंदर तिलमिला गई. निर्मला आंटी तुरंत हाथ पोंछती हुई हमारे पास आ गईं, शायद किचन में थीं. आते ही बोलीं, ‘‘अरे बेटी रिया, कैसी हो? राजेश, रिंकू तुम सभी को देख कर बहुत खुशी हो रही है,’’ फिर रिंकू को दुलारते हुए बोलीं, ‘‘तुम लोग फ्रैश हो लो, मैं नाश्ते की तैयारी करती हूं. हम सभी साथ ही नाश्ता करेंगे.’’
मैं ने कुछ भी नहीं कहा. अपना मायका आज मुझे अपना सा लग ही नहीं रहा था. चुपचाप हम ने थोड़ाथोड़ा नाश्ता कर लिया. निर्मला आंटी ने राजेश के पसंद के आलू के परांठे बनाए थे तथा रिंकू की पसंद की गाढ़ी सेंवइयां भी बनाई थीं.
पापा का बैडरूम वैसा ही था जैसा मम्मी के समय रहता था. घर की साजसज्जा भी वैसी ही थी, जैसी मम्मी के समय रहती थी. परदे, चादरें सब मम्मी की पसंद के ही लगे हुए थे. बैडरूम में मम्मी की बड़ी सी तसवीर लगी हुई, उस पर सुंदर सी माला पड़ी हुई थी. मुझे मायके आए हुए 2 दिन हो चुके थे. निर्मला आंटी से मैं ने कोई बात नहीं की थी. पापा से भी कुछ खास बात नहीं हुई थी. शाम को पापा रिंकू को ले कर घूमने निकले थे, मैं और राजेश टैरेस पर गुमसुम बैठे हुए थे, तभी निर्मला आंटी आईं और मेरे हाथ में एक कागज थमाते हुए बोलीं, ‘‘बेटी रिया, इसे पढ़ लो. मैं खाना बनाने जा रही हूं. क्या खाना पसंद करोगी, बता देतीं तो अच्छा रहता.’’
मैं ने बेरुखी से कहा, ‘‘जो आप की इच्छा, हम लोगों को खास भूख नहीं है.’’
वे चली गईं. तब मैं ने कटाक्ष करते हुए राजेश से कहा, ‘‘खाना हमारी पसंद से बनेगा और शादी के समय हमारी पसंद कहां गई थी? हुंह, बात बनाना भी कोई इन से सीखे. कितनी बेशर्मी से नाटक जारी है,’’ कहते हुए मैं ने बेमन से कागज खोला, यह तो मम्मी का पत्र था :
प्यारी प्यारी निम्मो,
आज मैं तुझ से अपनी हेमेश की कसम तोड़ने की इजाजत लेते हुए पुनर्विवाह की बात कर रही हूं. आशा करती हूं, मेरी अंतिम इच्छा पूरी करने से ‘न’ नहीं करेगी. मेरी तो विदाई की वेला आ गई है. तुझ से, हेमेश से, बेटी रिया, राजेश, रिंकू सभी से इच्छा न होते हुए भी विदा तो मुझे होना ही पड़ेगा.
एक दिन मैं ने हेमेश और डाक्टर की बातें सुन ली थीं. मुझे अपनी बीमारी का हाल मिल गया था. मैं अच्छी तरह समझ चुकी थी कि मैं चंद दिनों की मेहमान हूं. मैं ने सब से नजर बचा कर यह पत्र लिखा क्योंकि अपनी अंतिम इच्छा बताना जरूरी था. मन की बात तुम लोगों को बताए बिना भी तो मेरी आत्मा को शांति न मिल सकेगी.
मेरे बाद हेमेश एकदम अकेले हो जाएंगे. तू भी अब रिटायर होने वाली है. मेरे हेमेश को अपना लेना. दोनों एकदूसरे का सहारा बन जाना. हेमेश को तो जानती ही है, अपनी सेहत के प्रति कितने लापरवाह रहते हैं, तू रहेगी तो उन्हें वक्त पर हर चीज मिलेगी. प्यारी निम्मो, हेमेश की साली साहिबा से बीवी साहिबा बन जाना.
रिया बेटी मेरे जाने से बहुत दुखी होगी. फिर धीरेधीरे रियाराजेश अपनी जिंदगी, अपनी गृहस्थी में मन लगा लेंगे. उन की आंटी से उन की मम्मी बन जाना. मेरी बेटी का मायका पूर्ववत बना रहेगा.
थक गई हूं, अब लिखा नहीं जा रहा है. बोल देती हूं, तुम दोनों की शादी ही तुम दोनों की तरफ से मेरे लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी.
तेरी,
हेमू
पत्र पढ़ कर मेरी आंखों से आंसू गिरने लगे. राजेश ने भी मेरे साथ ही पत्र पढ़ लिया था. उन्होंने मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया और बोले, ‘‘चलो, सारी गलतफहमियां दूर हो गईं. चल कर देखें मम्मी क्या कर रही हैं?’’
हम लोग किचन में गए. देखा, निर्मला आंटी खाना बनाने में व्यस्त थीं. पापा भी किचन में ही थे. वे सलाद काट रहे थे. मैं निर्मला आंटी के पास गई तथा बोली, ‘‘क्या बना रही हैं, मम्मी?’’
निर्मला आंटी की आंखें डबडबा आईं. उन्होंने प्यार से मेरा हाथ अपने हाथों में ले लिया फिर धीरे से कहा, ‘‘हेमेश और मेरा शादी करने का एकदम मन नहीं था. हम ने कभी एकदूसरे को इस नजर से देखा ही नहीं था लेकिन हेमू की अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए शादी करनी पड़ी. मंदिर में तुम्हारे बूआ, फूफा की उपस्थिति में हम ने एकदूसरे को माला पहनाई, हेमेश ने मेरी सूनी मांग में सिंदूर भर दिया, हो गई शादी. तुम्हारी नीता बूआ ने मिठाई खिला हमारा मुंह मीठा कराया.’’
मैं चुपचाप उन्हें देखे जा रही थी.
उन्होंने आगे कहा, ‘‘तुम्हें बताने की हिम्मत मुझ में और हेमेश में न थी.
तुम्हें बताने की जिम्मेदारी नीता ने ली, उस ने तुम्हें सारी बातें बताने की कोशिश की, लेकिन तुम ने उस के फोन काट दिए, बात नहीं सुनी उस की. वैसे बेटा, तुम ने भी वही किया जो एक बेटी अपनी मम्मी को खोने के बाद इस तरह की खबर सुन कर करेगी, हमें तुम से…’’
मैं ने बीच में ही निर्मला आंटी की बात काटते हुए कहा, ‘‘आप लोगों से माफी मांगने लायक तो नहीं हूं, लेकिन फिर भी हो सके तो मुझे माफ कर दीजिए. सौरी मम्मी, सौरी पापा.’’
मम्मीपापा दोनों ने आगे बढ़ कर मुझे गले से लगा लिया. मैं ने देखा राजेश, रिंकू को गोद में लिए पूरी तरह संतुष्ट नजर आ रहे थे. वे भी मुझ से नजर मिलते ही मुसकरा दिए. इस दौरान एक विचार दिल और दिमाग को लगातार मथ रहा था कि दो उदास और तन्हा प्राणियों को एक कर जीने का मौका देना क्या हमारा कर्तव्य नहीं बनता है? इस विचार के आते ही मम्मी के प्रति श्रद्धा से सिर झुक गया.
“तुम्हें भी शहर की हवा लग गई लगती है,” एक रोज मेघा ने सिगरेट के छल्ले उड़ाते विनोद से पूछा.
“जैसा देस, वैसा भेष,” विनोद ने एक हिंदी फिल्म का नाम लिया और हंस दिया.
“बिना भेष बदले क्या उस देस में रहने नहीं दिया जाता?” मेघा ने फिर पूछा जिस का जवाब विनोद को नहीं सूझा. वह चुपचाप नाक से धुआं खींचता मुंह से निकालता रहा.
मेघा चाह तो रही थी कि उस के हाथ से सिगरेट खींच ले लेकिन किस अधिकार से? बेशक विनोद के प्रति उस की कोमल भावनाएं हैं लेकिन इकतरफा भावनाओं की क्या अहमियत. मेघा पराजित सी खड़ी थी.
कुछ खास मौके ऐसे होते हैं जो महानगरों में बड़े शोरशराबे के साथ मनाए जाते हैं, वही छोटे शहर के लोग इन्हें हसरत के साथ ताका करते हैं. वैलेंटाइन डे भी ऐसा ही खास दिन है जिस का युवा दिलों को सालभर से इंतजार रहता है. मेघा भी बहुत उत्साहित थी कि उसे भी यह सुनहरा मौका मिला है जब वह प्रत्यक्ष रूप से इस अवसर की साक्षी बनने वाली है. अन्य लड़कियों की तरह वह गुलाब इकट्ठे करने वाली भीड़ का हिस्सा तो नहीं बन रही थी लेकिन एक गुलाब की प्रतीक्षा तो उसे भी थी ही.
प्रेम दिवस पर पूरे कालेज में गहमागहमी थी. लड़कियां बड़े मनोयोग से सजीसंवरी थी तो लड़के भी कुछ कम नहीं थे. किसी के हाथ में गुलाब तो किसी के पास चौकलेट, कोई टैडीबीयर हाथ में थामे था तो कोई मंदमंद मुसकान के साथ कार्ड में लिखे जज्बात पढ़ रहा था.
कोई जोड़ा कहीं किसी कैंटीन में सटा बैठा था तो कोई किसी कार की पिछली सीट पर प्रेमालाप में मगन था. कुछ जोड़े मोटरसाइकिल पर ऐसे चिपक कर घूम रहे थे कि मेघा को झुरझुरी सी हो आई. मेघा की आंखें ये नजारे देखदेख कर चकाचौंध हुई जा रही थी.
सुबह से दोपहर होने को आई लेकिन विनोद का कहीं अतापता नहीं था.
‘मेरे लिए गुलाब या गिफ्ट लेने गया होगा,’ से ले कर ‘पता नहीं कहां चला गया’ तक के भाव आ कर चले गए. लेकिन नहीं आया तो केवल विनोद.
‘क्यों न चल कर मैं ही मिल लूं,” सोचते हुए मेघा ने कालेज के बाहर अस्थाई रूप से लगी फूलों की दुकान से पीला गुलाब खरीदा और विनोद की तलाश में डिपार्टमैंट की तरफ चल दी.
“अभीअभी विनय के साथ निकला है,” किसी ने बताया.
विनय उन दोनों का कौमन फ्रैंड है. असाइनमैंट बनाने के चक्कर में तीनों कई बार विनय के कमरे पर मिल चुके हैं. मेघा सोच में पड़ गई.
‘क्या किया जाए, इंतजार या फिर विनय के कमरे पर धावा…’ आखिर मेघा ने विनोद को सरप्राइज देना तय किया और विनय के रूम पर जाने के लिए औटो में बैठ गई.
दिल उछल कर बाहर आने की कोशिश में था. औटो की खड़खड़ भी धड़कनों के शोर को दबा नहीं पा रही थी. पीला गुलाब उस ने बहुत सावधानी के साथ पकड़ा हुआ था. कहीं हवा के झोंके से पंखुड़ियां क्षतिग्रस्त न हो जाएं. आज वह जो करने जा रही है वह उस ने कभी सोचा तक नहीं था.
‘पता नहीं मुझे यह करना चाहिए या नहीं. कहीं विनोद इसे गलत न समझ ले. मेरा यह अतिआधुनिक रूप कहीं विनोद को ना भाया तो?’ ऐसे कितने ही प्रश्न थे जो मेघा को 2 कदम आगे और 4 कदम पीछे धकेल रहे थे.
ऊहापोह में घिरी मेघा के हाथ कमरे के बाहर लगी घंटी के बटन की तरफ बढ़ गए. तभी अचानक भीतर से आ रही आवाजों ने उसे ठिठकने को मजबूर कर दिया.
“अरे यार, आज तूने किसी को कोई लाल गुलाब नहीं दिया,” विनय के प्रश्न का जवाब सुनने के लिए मेघा अधीर हुई जा रही थी. अपने नाम का जिक्र सुनने की प्रतीक्षा उस की आंखों में लाली सी उतर आई. उस ने कान दरवाजे से सटा दिए.
“कोई जमी ही नहीं. सानिया पर दिल आया था लेकिन उसे तो कोई और ले उड़ा,” विनोद का जवाब सुन कर मेघा को यकीन नहीं हुआ.
“सानिया? वह तो तेरेमेरे जैसों को घास भी ना डाले,” विनोद ने ठहाका लगाया.
“मैं तो मेघा के बारे में बात कर रहा था. तुम दोनों की तो खूब घुटती थी ना, इसीलिए मैंने अंदाजा लगाया,” विनय ने आगे कहा.
उस के मुंह से अपना जिक्र सुन कर मेघा फिर से उत्सुक हुई.
“कौन? वह गांवड़ी? अरे नहीं यार, यहां आ कर भी अपने लिए कोई गांवड़ी ही ढूंढ़ी तो फिर क्या खाक तीर मारा,” विनोद ने लापरवाही से कहा तो मेघा के कान सुन्न से हो गए. उसे यकीन नहीं हो रहा था कि जो उस ने सुना वह सच है.
उस ने एक निगाह अपने हाथ में सहेजे पीले गुलाब पर डाली. फूल भी उसे अपने किरदार सा बेरौनक लगा. मेघा वापस मुड़ गई.
‘दिल टूटा क्या?’ कोई भीतर से कुनमुनाया.
‘ना रे, बिलकुल भी नहीं. मेरा दिल इतना कमजोर थोड़ी है. वैसे भी मैं यहां दिल तोड़ने या जोड़ने नहीं आई हूं,’ अपने भीतर को जवाब दे कर वह जोर से खिलखिलाई और फिर अपना दुपट्टा हवा में लहरा दिया.
मेघा हंसतेहंसते बुदबुदा रही थी, ‘गांवड़ी.’
औटो में बैठी मेघा ने 1-2 बार पीले गुलाब को खुद ही सूंघा और फिर उसे औटो में ही छोड़ कर नीचे उतर गई. फटी ओढ़नी बहुत नफासत के साथ रफू हो गई थी.