अभी करवाचौथ बीते 4 दिन भी नहीं हुए थे कि अष्टमी आ पहुंची. इसी- लिए नारायणी को छोड़ कर सब कांप रहे थे. और जैसे ही नारायणी ने चेतावनी दी कि कोई खटपट न करे तो शत्रु दल में भगदड़ मच गई. तनाव के कुछ तार बाकी थे, वे सब एकसाथ झनझना उठे. जैसे ही देवीलाल ने कहा कि खटपट वह शुरू कर रही है तो रोनापीटना शुरू हो गया.
एक दिन पहले ही नारायणी सब बच्चों से पूछ रही थी कि अष्टमी के दिन क्या बनाएं. बच्चों ने बड़े चाव से अपनी- अपनी पसंद बताई थी. काफी तैयारी भी हो चुकी थी. बच्चे बेसब्री से अष्टमी की प्रतीक्षा कर रहे थे. मन ही मन कह भी रहे थे कि चाहे कुछ भी हो वे मां को प्रसन्न रखेंगे.
पर ऐसा न पिछले कई वर्षों से हुआ था और न इस साल होने के आसार दिखाई दे रहे थे. नारायणी तो आंसू टपका कर बिस्तर पर जा गिरी और घर का भार आ पड़ा निर्मला के नन्हेनन्हे नाजुक कंधों पर. उस ने जैसेतैसे चाय बनाई, नाश्ता बनाया और सब को खिलाया. पर उस के गले से कुछ न उतरा.
देवीलाल ने गला खंखारते हुए पूछा, ‘‘बाजार से कुछ लाना है?’’
नारायणी चुप रही.
‘‘अरे, बाजार से कुछ लाना है?’’
नारायणी फिर भी चुप रही.
निर्मला ने मां के पास जा कर कंधा हिलाते हुए कहा, ‘‘अम्मां, बाबूजी बाजार जा रहे हैं, कुछ मंगाना है क्या?’’
‘‘भाड़ में जाओ सब.’’
‘‘वह तो चले जाएंगे, पर अभी कुछ लाना हो तो बताओ,’’ देवीलाल ने कहा.
‘‘थोड़े मखाने ले आना. खरबूजे के बीज और एक नारियल. खोया मिले तो ले आना. जो सब्जी समझ में आए, ले लेना पर मटर लाना मत भूलना. आज आलूमटर की कचौडि़यां बनाऊंगी. सोनू का बड़ा मन था. मूंगदाल की पीठी ले आना, हलवा बनाना है. दहीबड़े खाने हों तो उड़द की दाल की पीठी और दही ले आना,’’ नारायणी एक सांस में बोल गई.
देवीलाल ने गहरी सांस भर कर कहा, ‘‘एकसाथ इतना सामान कैसे लाऊंगा?’’
‘‘सोनू को साथ ले जाओ.’’
‘‘चल बेटा, सोनू चल. बरतन और थैला उठा ले. पूछ ले अम्मां से घीतेल तो है न? कहीं ऐन मौके पर उस के लिए भी भागना पड़े.’’
‘‘अरे, अभी तो लाए थे करवाचौथ के दिन. सब का सब रखा है. खर्च ही कहां हुआ?’’
करवाचौथ के नाम से फिर एक बार दहशत छा गई. इस से पहले कि कुछ गड़बड़ हो, देवीलाल बाहर सड़क पर आ गए और सोनू की प्रतीक्षा करने लगे.
कुछ देर तक तो शांतिअशांति के उतारचढ़ाव में दिन निकला. पर जहां नारायणी जैसी धार्मिक तथा कट्टर व्रत वाली औरत हो, वहां तूफान न आए यह असंभव था. वह बारीबारी से देवीलाल और बच्चों को आड़े हाथों लेती रही. कभी इसे झिड़कती तो कभी उसे डांटती. देवीलाल को तो एक क्षण चैन नहीं लेने दिया.
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बोली, ‘‘मेरी मां तो सीधी थी, एकदम गऊ. आज उसी की शिक्षा है कि मैं भी इतनी सीधी हूं. मुंह से एक शब्द नहीं निकलता. दूसरी औरतों को देखो, कितनी तेजतर्रार हैं. सारे महल्ले का मुंह बंद कर देती हैं, बस, एक बार बोलना शुरू कर दें.’’
देवीलाल ने बच्चों की ओर देखा. वे मुसकराने का असफल प्रयत्न कर रहे थे. ठंडी सांस भर कर देवीलाल ने कहा, ‘‘सो तो है. तुम्हारे जैसी सीधी तो अंगरेजी कुत्ते की पूंछ भी नहीं होती.’’
नारायणी पहले तो समझी कि उस की प्रशंसा हो रही है, पर जब उस की समझ में आया तो चिढ़ कर बोली, ‘‘तुम मेरी मां की हंसी तो नहीं उड़ा रहे?’’
‘‘तुम्हारी मां तो गऊ थीं. कोई उन की हंसी उड़ाएगा. मैं तो बैल की सोच रहा था.’’
नारायणी ने आंखें तरेर कर कहा, ‘‘क्या कुछ मजाक कर रहे हो?’’
‘‘नहीं तो,’’ देवीलाल ने बात बदल कर कहा, ‘‘बेटी निर्मला, खाली हो तो एक प्याला चाय ही बना दे.’’
कुछ देर शांति रही, पर कब तक? फिर वही शाम और पूजा की तैयारी. फिर वही चांद की प्रतीक्षा. लो कल सप्तमी के दिन तो ऐसी फुरती से निकल आया कि पूछो मत और आज अष्टमी है तो ऐसा गायब जैसे गधे के सिर से सींग. सारा परिवार पागलों की तरह चांद की तलाश में ऊपरनीचे, अंदरबाहर घूम रहा था.
9 बज गए. पिछली बार की तरह फिर एक बार खतरे की घंटी बजी. पर वह चांद न था, केवल उस की परछाईं थी.
‘‘अरे, जा न,’’ नारायणी ने सोनू को डांटा, ‘‘जाता है कि नहीं.’’
‘‘अभी तो देख कर आ कर बैठा हूं,’’ सोनू ने झल्ला कर कहा, ‘‘अब नहीं जाता.’’
‘‘जा, गोलू, तू ही जा. यह तो मेरी जान ले कर छोड़ेगा. मरा, न जाने किस घड़ी में पैदा हुआ था,’’ नारायणी ने कोसा.
‘‘अम्मां, मैं नहीं जाता. मेरी टांगें तो टूट गई हैं ऊपरनीचे होते,’’ गोलू ने घुटने दबाते हुए कहा, ‘‘सोनू को कहो. यह बीच सीढ़ी से ही लौट आता है.’’
‘‘सत्यानास,’’ नारायणी एकदम आपा खो बैठी, ‘‘एक तो तुम्हारे लिए भूखप्यास से तड़प रही हूं और तुम लोगों से इतना सा भी नहीं होता.’’
‘‘छोड़ो, अम्मां,’’ सोनू ने हलके से कहा, ‘‘जा कर पिताजी की चांद देख लो. असली चांद से ज्यादा चमकती है.’’
नारायणी ने चिल्ला कर कहा, ‘‘मर जाओ एकएक कर के. मजाल है कि तुम्हारा मुंह भी देखूं.’’
देवीलाल ने कहा, ‘‘क्या कह रही हो, नारायणी? बच्चों के लिए व्रत रख रही हो और उन्हें ही कोस रही हो? ऐसा व्रत रखने का क्या लाभ है?’’
‘‘करम फूट गए जो ऐसी औलाद पैदा हुई. इस से तो बिना संतान ही भली थी,’’ नारायणी ने क्रोध में कहा. वह तनाव के अंतिम क्षणों में पहुंच गई थी.
इतने में ‘चांद निकल आया’ का शोर आने लगा. नारायणी ने फिर से अपनी गोटे वाली साड़ी को ठीक किया और सजीसजाई पूजा की थाली को ले कर छत की भीड़ में गुम हो गई. सोचती जा रही थी कि बाईं आंख फड़क रही है, कहीं फिर कुछ बदशगुनी न हो जाए.
जब खाना खाने बैठे तो किसी की इच्छा खाना खाने की न हुई. सब थोड़ा- बहुत खापी कर उठ गए. इस तरह मंगल कामना करते हुए बच्चों के लिए अष्टमी का व्रत पूरा हुआ.
दूसरे दिन पड़ोस वाली शीला ने पूछा, ‘‘अरे, नारायणी चाची, कल श्याम चाचा के यहां खाने पर क्यों नहीं आईं?’’
‘‘खाने पर,’’ नारायणी ने पूछा, ‘‘कैसा खाना था श्याम के यहां?’’
‘‘अरे, क्या तुम्हें निमंत्रण नहीं मिला? उन के बेटे की सगाई थी न.’’
‘‘पता नहीं,’’ नारायणी ने मुरझा कर कहा.
सहसा शीला को याद आया, ‘‘पर वैसे भी तुम कहां आतीं. कल तो तुम ने अहोई अष्टमी का व्रत रखा होगा. सच, बड़ा कठिन है. मैं तो एक बार भी व्रत नहीं रख पाई. मुझे तो चक्कर आने लगते हैं.’’
नारायणी ने कहा, ‘‘अगर निमंत्रण आया होता तो मैं अवश्य आती.’’
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‘‘क्यों, क्या व्रत नहीं रखतीं?’’
‘‘व्रत?’’ नारायणी ने क्रोध में कहा, ‘‘ऐसे नासपीटे बच्चों के लिए व्रत रखना तो महान अपराध है.’’
शीला अवाक् हो कर नारायणी का मुंह देख रही थी. उस ने कभी उसे इतना उत्तेजित नहीं देखा था.
सहज हो कर नारायणी ने पूछा, ‘‘क्याक्या बना था दावत में?’’