पारिवारिक अपराध घरपरिवार पर दोहरी मुसीबत ले कर आते हैं. एक तरफ परिवार को नुकसान उठाना होता है, तो वहीं दूसरी तरफ जेल में बंद परिवार के सदस्य को सजा से बचाने के लिए जेल से ले कर कचहरी तक परिवार के बचे लोगों को दौड़ना पड़ता है. वकील और पुलिस के चक्कर में फंस कर केवल पैसा ही नहीं,  समय भी बरबाद होता है. कितने गरीब परिवारों को अपने घर और जमीन तक बेचने या गिरवी रखने पड़ते हैं. परिवार का जेल गया सदस्य जब तक जेल से बाहर आता है, तब तक उस का बचा हुआ परिवार टूट कर बिखर चुका होता है. देश की न्याय प्रणाली की भारीभरकम कीमत ने ज्यादातर भारतीयों की पहुंच से इस को दूर कर दिया है. बहुत से मामलों में सजा पाए लोग लोअर कोर्ट से आगे हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जाने की बात सोच ही नहीं सकते.

बेंगलुरु के गैरसरकारी संगठन ‘एक्सेस टू जस्टिस’ की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि 90 फीसदी अपील करने वाले वे लोग हैं, जो साल में 3 लाख रुपए से कम कमाते हैं. अपील पर आने वाला उन का औसत खर्च एक बार का 16 हजार रुपए हो जाता है.

आंकड़ों से अलग कचहरी में आने वाले खर्च और परेशानियों की हकीकत बहुत अलग होती है. परेशानी की बात यह है कि परिवार में बढ़ते तनाव, जरूरतों और इच्छाओं के चलते अपराध की वारदातें बढ़ रही हैं.

ऐसी वारदातें 25 साल से 35 साल की उम्र में ज्यादा होती हैं. इस समय  नौजवान अपने कैरियर में कामयाबी की तरफ बढ़ रहा होता है. यहां पर अपराध की वारदातों में फंस कर पूरा परिवार तबाह हो जाता है. घरों में होने वाले ऐसे अपराध की सब से बड़ी वजह नाजायज संबंध या पारिवारिक तनातनी होती है.

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