पिछले साल अप्रैल में प्रदर्शित फिल्म ‘बेगम जान’ निस्संदेह खास किस्म के दर्शकों को ध्यान में रखते हुए बनाई गई थी, लेकिन इस फिल्म में अभिनेत्री विद्या बालन का जीवंत अभिनय हर वर्ग के दर्शकों को पसंद आया. जिस ने भी फिल्म देखी, विद्या बालन की अभिनय प्रतिभा का लोहा माना.

बंगला फिल्म ‘राजकहिनी’ की रीमेक ‘बेगम जान’ कई मायनों में एक अहम फिल्म थी, जो भारत पाकिस्तान विभाजन की त्रासदी में तवायफों के दर्द को बयां करती थी, इस फिल्म की जान केंद्रीय पात्र बेगम जान उन्मुक्त और सख्त स्वभाव की औरत है, जो कोठा चलाती है. कोठा चलाना कभी भी आसान काम नहीं रहा, इस बात को श्याम बेनेगल निर्देशित फिल्म ‘मंडी’ में बड़ी ईमानदारी से दिखाया गया था.

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बंटवारे के दौरान कैसेकैसे कहर टूटे यह कई फिल्मों में दिखाया गया है, लेकिन बेगम जान के कोठे की बात ही कुछ और है. उस का कोठा एक ऐसी जगह बना हुआ है, जो दोनों देशों की सीमा पर है. इस कोठे को तोड़ना प्रशासनिक मजबूरी भी है और जरूरत भी. नाटकीय अंदाज में अधिकारी साम, दाम, दंड, भेद अपनाते हैं तो बेगम जान चौकन्नी हो जाती है. तवायफों से सख्ती से पेश आने वाली बेगम जान कोठा बचाने के लिए जीजान लगा देती है, पर सरकार से जीत नहीं पाती.

फिल्म का दूसरा अहम पहलू बेगम जान की कोठे और अपने पेशे के प्रति प्रतिबद्धता है. बेगम जान को आजादी से कोई सरोकार नहीं है, क्योंकि आर्थिक और सामाजिक रूप से गुलाम तवायफों की दुनिया कोठे तक ही सीमित रहती है. इस के बाहर वे झांकती तक नहीं कि कहां क्या हो रहा है? मसाला फिल्मों की तरह फिल्म आगे बढ़ती रहती है, उस के साथसाथ चलती है तवायफों की बेबस जिंदगी, अनिश्चितता, असुरक्षा और अकेलापन.

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