मेरे मम्मीपापा हमेशा एक दूसरे से लड़ते हैं, ऐसे में मुझे क्या करना चाहिए?

सवाल

मेरे मम्मीपापा हमेशा से एकदूसरे से लड़ते आए हैं. पहले मैं कालेज जाता था, तो शाम को घर आ कर अपने कमरे में बंद हो जाया करता था जिस से मुझे उन दोनों की बातें सुननी नहीं पड़ती थीं और न ही झगड़े. जब से हम सभी घर में रहने लगे हैं तब से मुझ से यह रोजरोज का लड़ाईझगड़ा सहा नहीं जा रहा. मुझे समझ नहीं आ रहा कि क्या ऐसा कोई उपाय है जिस से मैं इन दोनों को झगड़ने से रोक सकूं. अगर हाल ऐसा ही रहा तो शायद मैं पागल हो जाऊंगा.

जवाब

यह सही है कि इतना ज्यादा समय घर पर रहना, वह भी इस झगड़े के बीच, बेहद मुश्किल है. लेकिन, इस सिचुएशन से निकलने का तरीका सिर्फ यह है कि आप इस का सामना करें. मम्मीपापा झगड़ा करते हैं तो इस का कोई कारण तो होगा ही. आप को वह कारण पता हो तो उसे सुलझाने की कोशिश कीजिए. ज्यादा कुछ नहीं तो उन्हें समझाइए कि उन के इस तरह झगड़ने के कारण आप की शांति भंग हो रही है जो आप के मानसिक स्वास्थ्य के लिए सही नहीं है. कोशिश कीजिए कि मम्मी या पापा में से किसी एक के साथ या दोनों के साथ आप थोड़ाबहुत समय बिताएं जिस से उन्हें अपने आपसी झगड़े का ध्यान ही न रहे.

जिस समय वे झगड़ना शुरू करें, आप अपने कमरे में चले जाएं और उन से बात न करें. इस से हो सकता है कि उन्हें अपनी गलती का एहसास हो और शायद आप को नाराज न करने की गरज से ही वे झगड़ने से खुद को रोकें.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz
 
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बच्चे जब होस्टल से घर आएं तो उन्हें मेहमान न बनाएं

नुपूर की मां की तबीयत थोड़ी खराब रहती थी तो वे उम्मीदकर रही थीं कि बेटी घर आएगी तो उन्हें कुछ आराम मिलेगा, यानी बेटी उन के काम में हाथ बंटाएगी. लेकिन बेटी कुछ कहने पर भड़क जाती.

वह  कहती कि घर पर भी इंसान थोड़ी आजादी से नहीं रह पाता. हर बात पर टोकाटाकी. नुपूर की मां ने सोचा कि घर में शांति बनी रहे, इसलिए बेटी से कुछ कहना ही छोड़ दिया. उस का मन करे सोए या जागे. लेकिन जल्द इस खातिरदारी से वे थकने लगीं.

इंजीनियरिंग तृतीय वर्ष का छात्र रक्षित 2 महीने की लंबी छुट्टियों में  होस्टल से घर आया था. कई दिनों से उस के मम्मीपापा उस का इंतजार कर रहे थे. लेकिन वह घर आ कर अलगथलग रहने लगा था. दोपहर तक सोता रहता, पापा कब दफ्तर जाते हैं, उसे पता ही नहीं चलता. मम्मी नाश्ता ले कर उस का इंतजार करतीं कि कब वह सो कर उठे और वे सुबह के कामों से फारिग हों, जब खाना खाने बैठता तो काफी नखरे करता.

रात को जब सब सोने चले जाते तो वह देररात तक जागता रहता. पेरैंट्स के साथ कुछ मदद करना तो दूर, वह उलटा उन के रूटीन को बिगाड़ उन से अपेक्षा करता कि उसे कोई कुछ न कहे.

ऐसा व्यवहार एकदो घरों में ही नहीं, बल्कि आजकल सभी घरों में आम हो चला है. बच्चों पर आरोप लगते हैं कि वे तो खुद को नवाब समझते हैं. शुरू में लाड़प्यार में मातापिता को भी अच्छा लगता है कि बच्चा थक कर आया है, कुछ दिन आराम करे. पर बच्चों को यह एहसास ही नहीं होता कि उन का भी कुछ फर्ज बनता है. जिस तरह वे बचपन में हर चीज के लिए मां पर निर्भर रहते थे, वही सोच उन की अब भी बरकरार रहती है.

जिम्मेदारियों का एहसास कराएं

उन के घर से बाहर जाने पर इन वर्षों में मां पर भी उम्र की चादर चढ़ी है, यह उन्हें पता ही नहीं चलता. मां भावनाओं में बहती हुई स्नेहवश अपनी क्षमता से अधिक उसी तरह बच्चों की देखभाल और सेवा करती नहीं अघाती है, जैसे करती आई है.

ऐसा नहीं है कि सभी बच्चे आलसी और स्वार्थी होते हैं. जिन घरों में होस्टल या नौकरी से आए हुए बच्चों के साथ मेहमान की तरह नहीं, बल्कि घर के सदस्य की तरह व्यवहार किया जाता है, वहां बच्चे वक्त के साथ घर के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से भी अपडेट होते रहते हैं.

समृद्धि की मां का पेट का औपरेशन हुआ था. उन्हें आराम की सख्त जरूरत थी, उसी दौरान समृद्धि के कालेज की लंबी छुट्टियां हो गईं. समृद्धि हर छुट्टी की तरह इन छुट्टियों में भी देर तक सोने व घर के कामों से दूर रहने की फिराक में थी. दरअसल, उसे एहसास ही नहीं था कि उस की मां इस बार काम करने में असमर्थ हैं. 2-3 दिनों के बाद समृद्धि के पापा ने कड़े शब्दों में उसे उस की जिम्मेदारी का एहसास करवाया.

पापा के खुल कर समझाते ही उस का दिमाग मानो ठिकाने पर आ गया. फिर तो समृद्धि ने घर की सारी जिम्मेदारियां संभाल लीं और अपनी मां को पूरी तरह आराम करने दिया. उस की छुट्टी खत्म होने तक जहां समृद्धि की मां स्वस्थ हो गई थीं, वहीं वह भी इस दौरान रसोई और घर के कई काम सीख चुकी थी, जो जीवन में उसे बहुत काम आए.

हेमंत और हेमा जब भी लंबी छुट्टियों में घर आते तो दोनों भाईबहन अपनी मां को व्यस्त रखते. दोनों मम्मी से नईनई फरमाइशें करते. लेकिन इस बार मम्मी ने अपनी शर्त रख दी कि वे तभी उन की पसंद की डिशेज बनाएंगी जब वे दोनों उन की मदद करेंगे. दोनों ने काफी नानुकुर की क्योंकि ज्यादातर समय वे या तो सोते रहते या फिर अपने मोबाइल पर व्यस्त रहते और मां उन की फरमाइशों में व्यस्त रहतीं. नतीजा उन के जाने के बाद वे अकसर बीमार पड़ जातीं.

लेकिन इस बार उन्होंने ठान रखी थी कि उन्हें घर के रूटीन वर्क में शामिल करना है. आखिर उन्होंने सहयोग करना शुरू किया. पहले तो बेमन से, लेकिन फिर दोनों भाईबहन पूरी तत्परता से मां के साथ हाथ बंटाने लगे.

सब्जी लाने से ले कर रसोईघर में स्पैशल डिश बनाने के दौरान वे साथ रहते. एक तरफ जहां मां को आराम मिला वहीं दूसरी ओर उन के दिलों के राज और ख्वाइशों से भी वे परिचित हो गईं.

आनंदमोहन तो बेटे के आते ही उसे कई काम सौंप देते हैं, जैसे बिल पेमैंट्स, कार सर्विसिंग या फिर घर की मरम्मत करना आदि.

कहने का मतलब है कि होस्टल या नौकरी से आने वाले ग्रोनअप बच्चों को यह एहसास होना चाहिए कि वे होटल में नहीं, बल्कि घर आए हैं और भविष्य की जिम्मेदारियों की ट्रेनिंग लेनी भी जरूरी है. संयुक्त परिवारों के इतर एकल परिवारों में जब बच्चे आते हैं तो खुशी के मारे पेरैंट्स कुछ सनक सा जाते हैं. खुशी के अतिरेक में वे बच्चों की बिलकुल मेहमानवाजी ही करने लगते हैं.

बच्चों का प्यार से घर में स्वागत सही है पर यही वह समय होता है जब एक बच्चा घरसंसार की बातें सीखता है. बच्चों को अपने बदलते स्वास्थ्य और आर्थिक स्थिति से भी रूबरू कराते रहें. वे घर के सदस्य हैं, उन्हें किसी भ्रम में नहीं रखना चाहिए. दरअसल, बच्चों से बातें छिपा कर हम भी उन्हें बेगाना बनाते हैं.

जिम्मेदारियों का बोध कराना जरूरी है. वरना बेटा हो या बेटी, वे मेहमानों की ही तरह आतेजाते रहेंगे और धीरेधीरे अपनी ही दुनिया में रमते जाएंगे.

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