अविनाश साबले की दिलचस्प कहानी

हाल ही में हुए पैरिस ओलिंपिक, 2024 खेलों में भारत ने कुल 6 मैडल जीते, पर कुछ इवैंट्स में भारतीय खिलाडि़यों ने इतिहास रच दिया. आज ऐसे ही एक होनहार खिलाड़ी की बात करते हैं, जिन का नाम अविनाश साबले है. 3000 मीटर की स्टीपलचेज यानी बाधा दौड़ में वे ऐसे पहले भारतीय खिलाड़ी बन गए हैं, जिन्होंने फाइनल मुकाबले में अपनी जगह बनाई.

स्टीपलचेज एक ऐसी प्रतियोगिता होती है, जिस में खिलाडि़यों को ट्रैक पर आने वाली बाधाओं को पार करना होता है और पानी में छलांग लगानी होती है.

13 सितंबर, 1994 को जनमे अविनाश साबले महाराष्ट्र के बीड जिले में अष्टि तालुका के एक छोटे से गांव मंडवा में पलेबढ़े हैं और पैरिस ओलिंपिक तक पहुंच कर उन्होंने अपने गांव और जिले के साथसाथ पूरे देश का नाम रोशन किया है.

अविनाश साबले ने बताया कि उन का एक सामान्य परिवार में जन्म हुआ है, लेकिन ईंटभट्ठे में मजदूरी करने वाले उन के मातापिता ने हमेशा से अपने बच्चों को बेहतर तालीम दिलाना ही अपनी जिंदगी का मकसद माना है.

3 भाईबहनों में अविनाश बचपन से ही दौड़ में नंबर वन रहे हैं. यही नहीं, 5-6 साल की उम्र में ही अपने मातापिता की मुश्किलों को देख कर उन्होंने तय कर लिया था कि वे अपने घरपरिवार का संबल बनेंगे.

अविनाश साबले की मां गांव के ईंटभट्ठे पर मजदूरी करती थीं और खाना बना कर अविनाश के पिता के साथ काम पर चली जाती थीं. एक दफा सुबह घर से निकलने के बाद वे सब लोग उन्हें सिर्फ रात में ही मिल पाते थे. उन्हें ऐसे काम करते हुए देख कर अविनाश को उन की कड़ी मेहनत का अंदाजा नहीं था. यहीं से अविनाश को यह प्रेरणा मिली कि उन्हें कुछ बहुत बड़ा काम करना है.

अविनाश साबले के घर से स्कूल की दूरी महज 6 किलोमीटर थी. ऐसे में वे दौड़ कर स्कूल पहुंच जाते थे और धीरेधीरे दौड़ना उसे अच्छा लगने लगा. अविनाश को दौड़ते हुए स्कूल जाते देख कर मास्टरों ने उन की रेस उन से बड़ी क्लास के छात्र के साथ कराई, जिस में अविनाश के जीतने के बाद मास्टरों ने उन की इस प्रतिभा पर भी ध्यान देना शुरू किया.

इस के बाद अविनाश साबले को 500 मीटर की रेस में ले जाया गया. उस समय वे प्राइमरी स्कूल के छात्र थे और उन की उम्र तब 9 साल ही थी. इस रेस को ले कर उन्होंने कोई तैयारी भी नहीं की थी. मगर अविनाश ने मास्टरों और स्कूल को निराश नहीं किया. मजेदार बात तो यह है कि उस दिन रेस के साथसाथ अविनाश ने 100 रुपए का नकद इनाम भी जीता था, जिसे याद कर के वे आज भी खुश हो जाते हैं.

इस के बाद अविनाश साबले को स्कूल के मास्टर 2 साल धनोरा मैराथन ले गए थे. इस में भी अविनाश दोनों बार रेस में जीते. इस कारण से भी अविनाश को शिक्षकों का विशेष स्नेह मिलता था. 12वीं क्लास पास करने के बाद अविनाश सेना भरती परीक्षा में सफल हुए और पैरिस ओलिंपिक के बाद तो चर्चित चेहरे बन गए हैं.

याद रहे कि कभी अविनाश साबले बीड जिले के मंडवा गांव में राजमिस्त्री का काम किया करते थे. वहां से निकल कर आज वे भारत के सब से बेहतरीन लंबी दूरी के धावक बन कर सामने आए हैं.

साल 2017 में एक दौड़ के दौरान सेना के कोच अमरीश कुमार ने अविनाश साबले की तेज रफ्तार को देखा और फिर उन्हें स्टीपलचेज वर्ग में दौड़ने की सलाह दी. बता दें कि साल 2017 के फैडरेशन कप में अविनाश साबले 5वें नंबर पर रहे  थे और फिर चेन्नई में ओपन नैशनल में स्टीपलचेज नैशनल रिकौर्ड से सिर्फ 9 सैकंड दूर रहे थे.

इस के बाद भुवनेश्वर में आयोजित साल 2018 में ओपन नैशनल में अविनाश साबले ने 3000 मीटर स्टीपलचेज में 8:29.88 का समय लेते हुए 30 साल के नैशनल रिकौर्ड को 0.12 सैकंड से तोड़ कर इतिहास रच दिया था.

गरीब किसान की बेटी प्रिति पाल ने पैरिस पैरालिंपिक में रचा इतिहास

‘प्रीति’ का शाब्दिक अर्थ है प्यार, प्रेम. पर किसी लड़की का नाम प्रीति रख देने से उसे समाज में प्यार और प्रेम मिलेगा, यह जरूरी नहीं है. और अगर उस प्रीति में कोई शारीरिक खोट है, तो आप समझ सकते हैं कि उस की मानसिक दशा क्या रही होगी.

ऐसी ही कहानी 23 साल की प्रीति पाल की है, जो आज खेल की दुनिया का चमकता सितारा बन गई हैं, पर इस रोशनी को पाने के लिए प्रीति ने कितने अंधेरों का सामना किया है, यह तो वे ही बता सकती हैं.

हम बात कर रहे हैं उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर के एक छोटे से गांव हशमपुर में रहने वाली प्रीति पाल की, जिन्होंने पैरिस पैरालिंपिक खेलों में महिलाओं की टी35 100 मीटर दौड़ और टी35 200 मीटर दौड़ में कांसे का तमगा जीत कर इतिहास रच दिया है. इतना ही नहीं, प्रीति पाल पैरालिंपिक खेलों में  एथलैटिक्स में मैडल जीतने वाली पहली भारतीय धावक बन गई हैं. टी35 में वे खिलाड़ी हिस्सा लेते हैं, जिन में हाइपरटोनिया, अटैक्सिया और एथेटोसिस जैसे विकार होते हैं.

प्रीति पाल बचपन में ही सेरेब्रल पाल्सी नामक बीमारी से पीड़ित रही हैं. यह एक तरह का मस्तिष्क पक्षाघात होता है, जिस से मांसपेशियों की गति पर असर पड़ता है. नतीजतन, पीड़ित के चलनेफिरने और संतुलन बनाने में कमी आ जाती है. प्रीति का भी इलाज चला था और 5वीं तक की पढ़ाई गांव में करने के बाद वे मेरठ आ गई थीं. फिर और अच्छा इलाज कराने के मकसद से उन्हें दिल्ली लाया गया जहां, जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में कोच गजेंद्र सिंह से के मार्गदर्शन में उन्होंने ट्रेनिंग लेना शुरू किया.

इसी का नतीजा है कि आज प्रीति पाल ने 2 मैडल जीत कर देश का नाम रोशन किया है. पर प्रीति के लिए शारीरिक और मानसिक कष्ट के साथसाथ एक और कष्ट था, इन का भविष्य क्या होगा?

प्रीति के पिता अनिल कुमार पाल ने एक इंटरव्यू में बताया था, “प्रीति के मामले में हम ने अलग तरह की बातें सुनी हैं. अकसर लोग कहते थे कि प्रीति विकलांग है, आगे चल कर बड़ी दिक्कत हो जाएगी. लड़की है तो शादीब्याह में भी अड़चन आएगी. पर आज वही लोग कहते हैं कि लड़की ने बहुत अच्छा किया है.”

अनिल कुमार पाल एक गरीब किसान हैं, जो छोटी सी डेयरी से अपने परिवार का लालनपालन कर रहे हैं. प्रीति के 3 बहनभाई हैं और आज वे सभी प्रीति की इस कामयाबी से खुश हैं.

फिल्मों में न होते तो क्रिकेट की दुनिया के होते बड़े खिलाड़ी

ऐसे कई सितारे है जो फिल्मों में आने से पहले क्रिकेट की दुनिया से जुड़े थे. इस फील्ड में नाम कमाया भी और कमाना भी चाहते थे. लेकिन शायद उन सितारों की किस्मत में ही कुछ और था. वे खेल छोड़ एक्टिंग में ही लग गए. तो ऐसे कई सितारे है. जिनका जिक्र करना जरूरी है.

 

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अंगद बेदी

अंगद बेदी को आपने टाइगर जिंदा मूवी में जरूर देखा होगा. अंगद बेदी कभी पूर्व क्रिकेट कप्तान बिशन सिंह बेटी के बेटे है जो कभी अंडर 19 टीम खेला करते थे. इसके बाद उन्होंने एक्टिंग की तरफ अपना मन बना लिया. नेहा धूपिया उनकी पत्नी हैं.

हार्डी संधु

एक्टर और सिंगर हार्डी संधु अंडर 19 टीम में क्रिकेट खेल चुके हैं. वो शिखर धवन के साथ मैदान में उतर चुके हैं. खास बात ये है कि ट्रेनर मदन लाल से ली थी.

करण वाही

टीवी के फेवरेट होस्ट में से एक करण वाही भी दिल्ली की अंडर 19 टीम से खेल चुके हैं.

समर्थ जुरेल

बिग बौस में हाल ही में नजर आए समर्थ जुरेल भी क्रिकेटर रहे हैं. उन्होंने प्रोफेशनल स्टेट लेवल क्रिकेट खेला है.

सलिल अंकोला

एक्टिंग की दुनिया में आने से पहले लंबे चौड़े कद के सलिल अंकोला भी क्रिकेटर थे. सलिल अंकोला ने 20 वनडे और टेस्ट मैच भी खेले हुए हैं.

आयुष्मान खुराना

आयुष्मान खुराना फिल्मों में आने से पहले एक VJ थे ये सभी जानते हैं. लेकिन ये कम ही लोग जानते हैं कि आयुष्मान खुराना एक क्रिकेटर भी रहे हैं. वो अंडर 19 टीम में क्रिकेट खेल चुके हैं.

साकिब सलीम

हुमा कुरैशी के भाई साकिब सलीम भी क्रिकेटर रह चुके हैं. फिल्म 83 में वो मोहिंदर अमरनाथ के रोल में दिखाई दिए थे. वो दिल्ली और जम्मूकश्मीर की टीम से क्रिकेट खेल चुके हैं.

एथलीट राम बाबू : मनरेगा मजदूर से मैडल तक का सफर

4 राज्यों झारखंड, बिहार, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की सरहदों से लगे हुए उत्तर प्रदेश के आखिरी छोर पर बसा सोनभद्र का बहुअरा गांव इन दिनों सुर्खियों में है. वाराणसीशक्तिनगर हाईवे से लगा हुआ यह गांव सोनभद्रचंदौली का सरहदी गांव भी है.

कभी नक्सलियों की धमक से दहलने वाले चंदौली के नौगढ़ से लगा हुआ यह गांव नक्सलियों की आहट से सहमा हुआ करता था, लेकिन अब यह गांव दूसरी वजह से सुर्खियों में बना हुआ है.

सिर्फ एक ही नाम के चर्चे इन दिनों हरेक की जबान पर हैं. वह नाम कोई और नहीं, बल्कि एक साधारण से गरीब आदिवासी परिवार के नौजवान रामबाबू का है. इस साधारण से लड़के ने गरीबी और बेरोजगारी को पीछे छोड़ते हुए इन्हें ढाल न बना कर, बल्कि चुनौती के रूप में स्वीकार करते हुए इंटरनैशनल लैवल पर अपने कामयाबी के झंडे गाड़ते हुए उन लोगों  के लिए एक मिसाल पेश की है, जो चुनौतियों से घबरा कर हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाते हैं.

चीन के हांग शहर में हुए 19वें 35 किलोमीटर पैदल चाल इवैंट में कांसे का तमगा हासिल करने वाले 24 साल के रामबाबू ने गांव के प्राइमरी स्कूल में पढ़ाई शुरू कर नवोदय विद्यालय में इंटर तक की तालीम हासिल करने के बाद इंटरनैशनल लैवल पर छाने के लिए हर उस चुनौती का सामना किया है, जो उन राह में रोड़ा बनी हुई थी.

रामबाबू के परिवार में पिता छोटेलाल उर्फ छोटू और माता मीना देवी हैं. 2 बड़ी बहनों किरन और पूजा की शादी हो चुकी है, जबकि छोटी बहन सुमन प्रयागराज में रह कर इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रही है.

रोजाना दौड़ने की आदत को अपनी दिनचर्या में शामिल करने के बाद रामबाबू का धावक बनने

का सफर शुरू हुआ था. सुबहशाम गांव की पगडंडियों, खाली पड़े खेतखलिहानों में दौड़ लगाने के साथसाथ वे मेहनत के कामों से जी नहीं चुराया करते थे. अपने मकसद को हासिल करने के लिए मेहनतमजदूरी से भी पैर पीछे नहीं हटाया.

इस तरह अति पिछड़े गांव से बाहर निकल कर नैशनल लैवल पर छा गए रामबाबू साल 2022 में गुजरात में हुए राष्ट्रीय पैदल चाल इवैंट में एक नए रिकौर्ड के साथसाथ गोल्ड मैडल हासिल करने में कामयाब हुए थे.

इस 35 किलोमीटर की दूरी की प्रतियोगिता को उन्होंने महज 2 घंटे, 36 मिनट और 34 सैकंड में पूरा कर अपने कामयाबी के झंडे गाड़ दिए थे.

बताते चलें कि इस के पहले यह रिकौर्ड हरियाणा के मोहम्मद जुनैद के नाम था. रामबाबू ने मोहम्मद जुनैद को हरा कर ही गोल्ड मैडल जीता था.

इस के बाद 15 फरवरी, 2023 को रामबाबू ने झारखंड राज्य की राजधानी रांची में आयोजित राष्ट्रीय पैदल चाल गेम्स में अपना ही रिकौर्ड तोड़ते हुए

2 घंटे, 30 मिनट और 36 सैकंड का एक नया रिकौर्ड कायम किया था. इस के बाद 25 मार्च, 2023 को स्लोवाकिया में 2 घंटे, 29 मिनट और 56 सैकंड में यही दूरी तय करते हुए रामबाबू ने अपने नाम एक और रिकौर्ड किया था.

गुरबत में गुजरबसर कुछ समय पहले तक रामबाबू का घरपरिवार उन सभी बुनियादी सुविधाओं से महरूम था, जिन की उसे रोजाना जरूरत होती है. पीने का पानी लाने के लिए एक किलोमीटर दूर जाना पड़ता था. आवास के नाम पर खपरैल और झोंपड़ी वाला मकान लाचार नजर आता है.

वह तो भला हो सोनभद्र के कलक्टर चंद्र विजय सिंह का, जिन्होंने राष्ट्रीय खेलों में गोल्ड मैडल हासिल करने वाले रामबाबू की कामयाबी के बाद उन के घर पहुंच कर पानी की समस्या को हल करने के लिए तत्काल हैंडपंप लगवाए जाने का निर्देश दिया था.

कलक्टर के निर्देश का असर ही कहा जाएगा कि रामबाबू के परिवार को पानी की समस्या से नजात मिल गई है. उन्होंने 10 बिस्वा जमीन भी पट्टा करने के साथसाथ आवास के लिए अलग से एक बिस्वा जमीन मुहैया कराई.

पर अफसोस यह है कि रामबाबू के परिवार को भले ही कहने के लिए कलक्टर ने आवास, खेतीकिसानी के लिए जमीन आवंटित कर दी है, लेकिन देखा जाए तो यह रामबाबू के परिवार के लिए बेकार है. वजह, जो जमीन मिली है, वह भी डूब क्षेत्र में 10 बिस्वा मिली है.

बहुअरा बंगाल में एक बिस्वा जमीन आवास के लिए मिली है. यह जमीन मार्च, 2023 में मिली थी. लेकिन लेखपाल और प्रधान ने मनमानी करते हुए बाद में दूसरी जगह नाप दी है, जहां से 11,000 पावर की टावर लाइन गुजरती है, जबकि बगल में ही ग्राम समाज की जमीन खाली पड़ी हुई है. वहां जमीन न दे कर कलक्टर के आदेश को भी एक तरह से दरकिनार करते हुए मनमानी की गई है.

दबंगों का खौफ रामबाबू का जो घर है, वह अब जर्जर हो चुका है. उन के परिवार वाले बताते हैं कि वे लोग 35 सालों से गांव में रहते आ रहे हैं. गांव के ही एक आदमी को 10 बिस्वा का पैसा आज से 25 साल पहले दिया था, इस के बावजूद वह न जमीन दे रहा है, न ही पैसा वापस कर रहा है, बल्कि दबंग लोग कच्चे घर के खपरैल को भी तोड़ देते हैं.

कई बार शिकायत करने के बाद भी अभी तक कोई सुनवाई नहीं हो पाई है, जिस से सर्दी, बरसात के थपेड़ों को सहते हुए जंगली जीवजंतुओं के डर के बीच रहने को मजबूर होना पड़ रहा है.

रामबाबू के घर तक सड़क, खड़ंजा नाली की कमी बनी हुई है. हलकी बारिश में भी पानी भरने के साथ कीचड़ में चलना दूभर हो जाता है, जबकि लिंक मार्ग से रामबाबू का घर लगा हुआ है. अगर 50 मीटर तक खड़ंजा बिछा दिया जाए, तो कीचड़ से राहत मिल जाए, लेकिन इस के लिए न तो प्रधान ने पहल की और न ही किसी और जनप्रतिनिधि ने.

वेटर और मनरेगा मजदूर

भारत में लौकडाउन के दौरान जब समूचा मजदूर तबका हलकान और परेशान हो उठा था, उस दौर में भी रामबाबू ने हिम्मत नहीं हारी थी. साल 2020 में जब वे भोपाल में प्रैक्टिस कर रहे थे, तब लौकडाउन  के दौरान वे गांव लौट आए थे. वहां मातापिता के साथ मिल कर मनरेगा के तहत मजदूरी किया करते थे. इस के पहले वे वाराणसी में एक होटल में वेटर का भी काम कर चुके हैं.

रामबाबू भारतीय सेना में हवलदार हैं. उन का अगला टारगेट पैरिस ओलिंपिक, 2024 में तमगा हासिल करना है.

फल बेचने वाले की बेटी चमकी

सोनभद्र के रामबाबू के साथ ही जौनपुर जिले के रामपुर विकास खंड क्षेत्र के अंतर्गत सुलतानपुर गांव की रहने वाली ऐश्वर्या ने भी गोल्ड मैडल हासिल कर अपने जिले का मान बढ़ाया है.

हालांकि ऐश्वर्या और उन के मातापिता मुंबई में रहते हैं, फिर भी उन के गांव में उन की कामयाबी के चर्चे हर जबान पर होते रहे हैं.

ऐश्वर्या के पिता कैलाश मिश्रा मुंबई में रह कर फल बेचने का कारोबार करते हैं. उन की बेटी ऐश्वर्या ने चीन में एशियन गेम्स में गोल्ड मैडल जीता है. ऐश्वर्या का जन्म व पढ़ाईलिखाई मुंबई में ही हुई है. उन के परिवार वाले बताते हैं कि इस की तैयारी ऐश्वर्या पिछले 11 साल से कर रही थीं.

देश के लिए ऐश्वर्या ने यह चौथा मैडल जीता है. सब से पहले वे थाईलैंड में पहला मैडल जीती थीं. ऐश्वर्या की जीत पर प्रधानमंत्री ने भी ट्वीट कर के बधाई दी थी.

जब नैशनल खेलने के लिए अस्पताल से भाग गई थी यह बौक्सर, बाद में रच दिया इतिहास

हरियाणा की एक बेटी हैं, जिन्होंने अपने मुक्कों से बड़ेबड़े कंपीटिशन जीत कर देश की झोली सोने के तमगों से भर दी है. इन का सब से बड़ा कारनामा साल 2023 में तब देखने को मिला था, जब दिल्ली में हुई आईबीए वर्ल्ड वुमन बौक्सिंग चैंपियनशिप में इन्होंने गोल्ड मैडल जीता था.

शनिवार, 25 मार्च, 2023 को इस बौक्सर ने 75-81 किलोग्राम भारवर्ग में चीन की वांग लीना को 4-1 से हरा कर नया इतिहास रचा था. पर अगर उन के अतीत में झांकें तो पता चलता है कि इस गोल्ड मैडल को चूमने के लिए उन्होंने कई बलिदान दिए हैं.

इन बौक्सर का नाम है स्वीटी बूरा जो मूलरूप से हरियाणा के एक गांव घिराये की रहने वाली हैं. उन के पिता महेंद्र सिंह बूरा किसान हैं और मां सुरेश कुमारी गृहिणी हैं. स्वीटी बूरा का जन्म 10 जनवरी, 1993 को गांव घिराये में हुआ था. उन्होंने जाट कालेज हिसार से 12वीं कक्षा पास की और उस के बाद गवर्नमैंट पीजी कालेज से बीए की, फिर एमपीएड (मास्टर औफ फिजिकल ऐजूकेशन) भी की.

याद रहे कि स्वीटी बूरा एक समय कबड्डी खिलाड़ी थीं, लेकिन उन्होंने अपने पिता महेंद्र सिंह की सलाह पर मुक्केबाजी की ओर रुख किया. साल 2009 में 15 साल की उम्र में पहली बार स्वीटी बूरा ने बौक्सिंग ट्रेनिंग सैंटर जौइन किया था. वे खेल से तो जुड़ गई थीं, पर उन्हें शुरू में काफी बाधाओं और रिश्तेदारों के विरोध से पार पाना पड़ा था. वे जुते हुए खेतों में ट्रेनिंग करती थीं.

बौक्सिंग खेल को अपनाने को ले कर स्वीटी बूरा ने बताया, “बचपन से मेरे हाथ बहुत चलते थे. कोई किसी के साथ गलत करता था, तो मैं उस को मार कर कचूमर बना देती थी. जब पहली बार मैं ने बौक्सिंग ग्लव्स पहने थे, तब मैं साई (स्पोर्ट्स अथौरिटी औफ इंडिया) के हिसार सैंटर पर मामा और भाई के साथ 2008 में ट्रायल के लिए गई थी.

“मेरे सामने वाली बौक्सर 6-7 महीने से बौक्सिंग कर रही थी. जब मैं रिंग में गई, तो उस ने मारमार कर मेरा मुंह लाल बना दिया था. पहले राउंड के बाद रैस्ट के समय में मेरा भाई बोला था, ‘दिखा दिए तुझे दिन में तारे’.

“यह सुन कर मुझे इतना गुस्सा आया कि मैं रिंग में वापस गई. अब मुझे पता है कि उस को अपरकट बोलते हैं, पर तब नहीं पता था. मैं ने उस को इतना जोर से अपरकट मारा कि वह लड़की उधर ही गिर गई.”

स्वीटी बूरा खेल को ले कर अपनी जद्दोजेहद पर आगे बताती हैं, “एक महिला खिलाड़ी के परिवार को लोगों की बहुत सी कड़वी बातें झेलनी पड़ती हैं. वे कहते हैं कि क्यों लड़की को खेल में डाला, यह बिगड़ जाएगी. किसी के साथ भाग जाएगी. अगर सारा पैसा इस के खेल पर लगा दोगे तो इस की शादी कैसे करोगे. शादी के बाद यह पराए घर चली जाएगी तो आप के पल्ले क्या आएगा.

“जब खेत में प्रैक्टिस करती थी तो मेरे दिमाग में यही बातें गूंजती थीं. मैं और ज्यादा मेहनत करती थी. मुझे उलटी तक हो जाती थी. पर मैं ने ठान लिया था कि आज अगर मेरे मांबाप ने मुझे खेलने की आजादी दी है, तो मैं उन की सोच और फैसले को सही साबित करूंगी. लड़कियां भी अपने मांबाप के लिए कुछ भी कर सकती हैं.”

जब मौत को मारा मुक्का

स्वीटी बूरा ने अपनी जिंदगी से जुड़ी एक बड़ी घटना या टर्निंग प्वाइंट के बारे में बताया, “साल 2014 में मैं अस्पताल में भरती थी. हुआ यों था कि पिछले 3 साल से मुझे टायफाइड था और मेरी हालत ऐसी थी कि मैं खुद खड़ी भी नहीं हो सकती थी. इस के बावजूद मैं प्रैक्टिस करती रही थी. प्रैक्टिस करने की वजह से मेरी आंतें इतनी ज्यादा सड़ गई थीं कि मैं अस्पताल में भरती हो गई थी.

“तभी अस्पताल में मेरे पास फोन आया कि इस बार जो नैशनल प्रतियोगिता में गोल्ड मैडल जीतेगा, वही दक्षिण कोरिया में आगे इंटरनैशनल लैवल पर खेलने जाएगा. यह सुन कर मैं परेशान हो गई और डाक्टर से कहा कि आप मुझे आज ही ठीक कर दो.

“तब डाक्टर बोले थे, ‘मैं कोई जादूगर थोड़े ही न हूं, जो चुटकी बजा कर आप को ठीक कर दूंगा. अभी पूरी जिंदगी बची है. अगर आप खेले तो आप की जान चली जाएगी. अगर आप ने वार्मअप भी किया, तो आप की आंत फट जाएगी. बौक्सिंग को तो फिलहाल भूल ही जाओ.’

“पर मुझे तो किसी भी तरह खेलने जाना था. जब यह बात मेरे मातापिता को पता चली, तो वे भी परेशान हो गए. उन्होंने साफ मना कर दिया, जबकि मेरे मन में यही सवाल चल रहा था कि अब जब मैं बिस्तर से उठ नहीं सकती, तभी ऐसा नियम आना था?

“यह वह पल था जब मुझे बौक्सिंग और जिंदगी में से एक चीज को चुनना था. मुझे पता था कि हमारे हिसार से शाम को साढ़े 4 बजे गोरखधाम ऐक्सप्रैस ट्रेन जाती थी. दिन में जब मम्मी मुझ से मिलने आईं, तब पापा अस्पताल में नहीं थे. मैं ने मम्मी को दवा लाने के बहाने भेज दिया और बाद में खुद ही ड्रिप हटा कर अस्पताल से भाग गई.

“घर जा कर मैं कपड़े लिए और एक सूटकेस में भर कर स्टेशन चली गई. पर जिंदगी शायद मेरा कड़ा इम्तिहान ले रही थी, क्योंकि तब तक ट्रेन प्लेटफार्म से चल चुकी थी. मैं ने सोचा कि अगर यह ट्रेन अब छूट गई तो मैं कभी अपना सपना कभी पूरा नहीं कर पाऊंगी. बस, अपनी सारी हिम्मत जुटा कर मैं ने स्प्रिंट मारी और जैसेतैसे अपने सूटकेस को उठाए हुए इतनी तेज दौड़ी कि मरतेमराते ट्रेन पकड़ ली, पर उस में चढ़ते ही मैं जैसे अपने होश खो बैठी और टौयलेट के पास गिर कर बेहोश हो गई.

“इसी बीच अस्पताल में पापा और मम्मी को पता चल गया था कि मैं अस्पताल से भाग गई हूं. वे बहुत ज्यादा घबरा गए. उन्होंने मुझे फोन कई किए, पर मैं तो ट्रेन में बेहोश पड़ी थी. लोगों की मदद से जब मुझे होश आया और पापा से फोन पर बात हुई, तो उन्होंने मुझे अपना वास्ता देते हुए कहा कि अगले स्टेशन पर उतर जा. मैं तुझे लेने आ रहा हूं, पर मुझ पर तो एक ही धुन सवार थी कि चाहे कुछ भी हो जाए, मुझे बौक्सिंग नहीं छोड़नी. मैं ने अपनी पूरी हिम्मत जुटा कर उन से कहा कि अगर आप यहां आए, तो ट्रेन से कूद कर अपनी जान दे दूंगी. पापा अच्छे से जानते थे कि मैं ऐसा कर भी सकती हूं, तब उन्होंने बड़े दुखी मन से कहा था, ‘अभी तो तुझे समझ नहीं आएगा, पर जब तेरे औलाद होगी, तो तब अपने मांबाप का दर्द पता चलेगा.’

“मेरे मम्मीपापा ने बड़े बेमन से मुझे ट्रायल की इजाजत दी. वहां सैंटर पर मेरा मुकाबला चैंपियन लड़कियों से था. सब दमदार बौक्सर थीं. मुझ में तो जैसे जान ही नहीं थी, इस के बावजूद मैं बड़ी मुश्किल से रिंग तक जाती थी, पर रिंग में उतरते ही मुझे न जाने क्या हो जाता था कि सामने वाली बौक्सर पर दे दनादन मुक्के बरसा देती थी.

“मैं नैशनल का वह गोल्ड मैडल जीती थी और बाद में दक्षिण कोरिया में हुई वर्ल्ड वुमन बौक्सिंग चैंपियनशिप में सिल्वर मैडल भी जीता था. ये वे पल थे जब मैं ने जिंदगी के बजाय बौक्सिंग को चुना था और आज अपनी लगन और मेहनत से वर्ल्ड चैंपियन हूं.”

इतने बड़े मैडल इन के नाम

स्वीटी बूरा ने अपने शानदार खेल से यूथ बौक्सिंग ट्रेनिंग कंपीटिशन, 2011 में गोल्ड मैडल जीता था. उन्होंने नवंबर, 2014 में एआईबीए वर्ल्ड वुमन बौक्सिंग चैंपियनशिप दक्षिण कोरिया में सिल्वर मैडल अपने नाम किया था. अगस्त, 2015 में एबीएसी एशियन कौन्फैडरेशन बौक्सिंग चैंपियनशिप में सिल्वर मैडल जीता था. इसी तरह जूनजुलाई, 2015 में इंडियाआस्ट्रेलिया प्रतियोगिता में सिल्वर मैडल जीता था. फरवरी, 2018 में फर्स्ट ओपन इंडिया इंटरनैशनल प्रतियोगिता में सिल्वर मैडल जीता था. 13 जून, 2018 में रूस के कौस्पिक में हुए उमाखानोव मैमोरियल टूर्नामैंट में गोल्ड मैडल और साल 2021 में एशिया चैंपियनशिप में ब्रॉन्ज मैडल जीता था.

शीतल देवी : बिना हाथों की तीरंदाज

एशियाई पैरा गेम्स 2023 में एक ऐसा इतिहास रच गया, जिस की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. एक तो दिव्यांगता उस के बाद ऐसा हौसला और जज्बा कि आप शीतल देवी की पीठ थपथपा दें, वाहवाह कर उठें.

शीतल देवी दोनों हाथों से खेल नहीं सकती हैं, मगर जब वे अपने पैरों और मुंह का हुनर दिखाती हैं, तो लोग हैरान हो जाते हैं. दरअसल, इस प्रतिभा का उदय पहली दफा किश्तवाड़ में भारतीय सेना की एक प्रतियोगिता में हुआ था.

गोल्ड मैडल जीतने वाली शीतल देवी ने सचमुच एक ऐसा इतिहास रच दिया है, जो अब सुनहरे अक्षरों में लिखा जाएगा. 16 साल की शीतल देवी ने चीन के हांगझाऊ में हुए एशियाई पैरा खेलों में 2 गोल्ड समेत 3 मैडल जीत कर इतिहास रच दिया. वे एक ही संस्करण में 2 गोल्ड मैडल जीतने वाली पहली भारतीय महिला भी हैं.

शीतल देवी के पिता एक किसान हैं और मां सामान्य गृहिणी, जो घर में भेड़बकरियों की देखभाल करती हैं. एक साधारण परिवार की इस बेटी का जीवन जन्म से ही संघर्षपूर्ण रहा है.

शीतल देवी के जन्म से ही दोनों हाथ नहीं थे. वे ‘फोकोमेलिया’ नामक  बीमारी से पीडि़त हैं. इस बीमारी में अंग पूरी तरह से विकसित नहीं होते हैं. पर अहम बात यह है कि बाजू न होना शीतल देवी के लिए दिव्यांगता का अभिशाप बन नहीं सका. वे बिना दोनों बाजू के सिर्फ छाती के सहारे दांतों और पैरों से तीरंदाजी का अभ्यास करती थीं.

ट्रेनिंग के शुरुआती दिनों में शीतल देवी धनुष तक को नहीं खींच पाती थीं, मगर कोच ने ऐसा धनुष तैयार कराया, ताकि वे पैर से आसानी से धनुष उठा सकें और कंधे से तीर चलाने लगें.

महज 16 साल की उम्र में शीतल देवी ने अपने नाम कई उपलब्धियां दर्ज की हैं. ट्रेनिंग के 6 महीने बाद शीतल देवी ने वह कर दिखाया, जिस का इंतजार सब को था. उन्होंने हरियाणा के सोनीपत में पैरा ओपन नैशनल्स में सिल्वर मैडल हासिल किया.

यही नहीं, साल 2023 की शुरुआत में उन्होंने चैक गणराज्य के पिलसेन में वर्ल्ड कप तीरंदाजी चैंपियन में भी सिल्वर मैडल जीता. वे फाइनल में तुर्की की ओजनूर क्योर से हार गई थीं, लेकिन वर्ल्ड चैंपियनशिप में मैडल जीतने वाली बिना हाथों वाली पहली महिला तीरंदाज बन गई थीं.

एशियाई पैरा गेम्स में शीतल देवी ने 2 गोल्ड और एक सिल्वर मैडल हासिल किया. उन के शानदार प्रदर्शन को देख कर उद्योगपति आनंद महिंद्रा ने उन्हें अपनी कंपनी की कोई भी मनचाही कार लेने की पेशकश की.

शीतल देवी के लिए एक पोस्ट साझा करते हुए आनंद महिंद्रा ने लिखा, ‘मैं अपने जीवन की छोटीमोटी समस्याओं पर शिकायत नहीं करूंगा. शीतल, आप सभी के लिए एक शिक्षक हैं. कृपया हमारी रेंज में से कोई भी कार अपने लिए चुनें और हम इसे आप की सुविधा के अनुसार कस्टमाइज कर आप को तोहफे में देंगे.’

कुलमिला कर शीतल देवी की कहानी किसी फिल्मी पटकथा से कम नहीं लगती है. जो शीतल देवी धनुष नहीं उठा पाती थीं, उन्होंने दाएं पैर से धनुष उठाने का अभ्यास किया और 2 साल की कड़ी मेहनत की बदौलत जीत का परचम लहरा दिया.

साल 2021 में 14 साल की उम्र में बतौर तीरंदाज कैरियर की शुरुआत करने वाली शीतल देवी ने पहली बार किश्तवाड़ में भारतीय सेना की एक युवा प्रतियोगिता में हिस्सा लिया था. ट्रेनिंग के दौरान उन के लिए एक खास तरह का धनुष तैयार कराया गया, ताकि वे पैर से आसानी से धनुष उठा सकें और कंधे से तीर को खींच सकें.

शीतल देवी के कोच अभिलाषा चौधरी और कुलदीप वेदवान हैं. महज 2 साल की होतेहोते 16 साल की उम्र में शीतल देवी ने अपने नाम कई उपलब्धियां दर्ज की हैं. ट्रेनिंग के 6 महीने बाद उन्होंने वह कर दिखाया, जिस का इंतजार सब को था.

इस से पहले उन्होंने सोनीपत में पैरा ओपन नैशनल्स में सिल्वर मैडल हासिल कर के दिखा दिया था कि वे देश के लिए आगे इतिहास रचने वाली हैं और एक रोल मौडल बनने वाली हैं.

आदिवासी क्रिकेटर रौबिन मिंज की दहाड़, पिता ने कह दी हैरान कर देने वाली बात

Sports News in Hindi: आज की तारीख में रौबिन मिंज एक ऐसा नाम है, जो पूरे देश में चर्चा में है. रौबिन सिंह ने अनुसूचित जनजाति का प्रतिनिधित्व करते हुए आईपीएल क्रिकेट में अपने बूते एक मुकाम बनाया है और अपनी अद्भुत प्रतिभा से जता दिया है कि ‘हम किसी से काम नहीं’.

साल 2023 में 19 दिसंबर को ‘आईपीएल 17’ के लिए दुबई में हुई नीलामी में 21 साल के विकेटकीपर और बाएं हाथ के बल्लेबाज रौबिन मिंज को गुजरात टाइटंस ने 3.60 करोड़ रुपए में खरीदा. इस के साथ ही वे आईपीएल में पहुंचने वाले पहले आदिवासी खिलाड़ी बन गए हैं.

राबिन मिंज ने मीडिया को बताया, “मैं बचपन से ही क्रिकेट टीम में शामिल होने का सपना देखता रहा और अब यह सच हो गया है. हां, इस नीलामी को ले कर मैं यह समझ रहा था कि 20 लाख में भी कोई टीम खरीद ले तो कोई बात नहीं, लेकिन राशि बढ़ती चली गई. टीम में चुने जाने के बाद जब मैं ने अपनी मां से मोबाइल पर बात की तो वे रोने लगीं. पापा भी रोने लगे.”

रौबिन मिंज झारखंड के हैं और भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान रह चुके महेंद्र सिंह धौनी को अपना आदर्श मानते हैं. वे पिछले कुछ सालों से झारखंड टीम के साथ जुड़े हुए हैं. मजेदार बात यह है कि इस दौरान उन्हें कई बार महेंद्र सिंह धौनी से मुलाकात करने और उन से खेल के गुर सीखने का मौका मिला.

रौबिन मिंज कहते हैं, “धोनी सर ने हमेशा यही कहा कि दिमाग को शांत रख कर खेलो और हमेशा आगे की सोचो.”

रौबिन मिंज गुमला जिले के रायडीह ब्लौक के सिलम पांदनटोली गांव के रहने वाले हैं. यहीं से उन की प्राथमिक शिक्षा हुई और क्रिकेट के प्रति प्रेम जागा. उन के पिता फ्रांसिस जेवियर मिंज एक रिटार्यड सैनिक हैं और फिलहाल रांची एयरपोर्ट पर बतौर सिक्योरिटी गार्ड इनर सर्किल में बोर्डिंग पास चैक करते हैं.

रौबिन मिंज के पिता के मुताबिक, “आईपीएल में रौबिन का चयन सौ फीसदी होगा, इस को ले कर तो मैं तैयार ही था. मैं उतने में ही खुश था. मगर रौबिन को जो ऊंचाई मिली है, वह आनंदित करने वाली है.”

दूसरी तरफ रौबिन की मां एलिस मिंज ने कहा, “इस साल क्रिसमस का इस से बड़ा तोहफा मेरे लिए कुछ नहीं हो सकता. जब से यह खबर मिली है, मुझे तो बस रोना आ रहा है. मेरा तो बस यही सपना है कि जिस तरह धौनी ने झारखंड का नाम रोशन किया है, मेरा बेटा भी करे.”

पिता जेवियर मिंज ने कहा, “जब रौबिन 2 साल का था, तब से ही डंडा ले कर गेंद पर मारना शुरू कर दिया था. मैं खुद भी फुटबाल और हौकी का खिलाड़ी रहा हूं. मैं ने इस को जब टैनिस गेंद ला कर दी तो यह दाएं हाथ के बजाय बाएं हाथ से खेलने लगा. यही बात मेरे मन में घर कर गई, क्योंकि मेरे परिवार में कोई भी बाएं हाथ से काम करने वाला नहीं है. यह भी क्रिकेट खेलने के अलावा सब काम दाएं हाथ से ही करता है. 5 साल की उम्र में मैं ने इसे क्रिकेट कोचिंग में डाल दिया था.”

पहला आदिवासी क्रिकेटर वाली बात पर पिता जेवियर मिंज का कहना है, “हम तो यही कहते हैं कि अगर कोई इतिहास लिखने वाले हैं, तो इस बात को पहले पन्ने पर लिखना चाहिए.”

क्या क्रिकेट बन रहा है भारत में हिंदूमुसलिम करने वाला खेल?

आम भारतीयों के लिए चाहे क्रिकेट एक आस्था वाला खेल है, दुनिया के लिए यह केवल गोरे अंगरेजों के साहबों का खेल है जिसे दक्षिणी एशिया के गुलाम रहे देशों में दिल से अपना लिया गया. पहले इसे भारत की फुरसत को गिनाने के लिए 5-5 दिन खेला जाता था और सिर्फ साहब लोग खेलते थे जैसा आमिर खान की फिल्म ‘लगान’ में दिखाया गया था. अब नए साहबों का खेल हो गया है पर यह गुलाम देशों से ज्यादा जगह नहीं खेला जा रहा है और इस बार भी 184-185 देशों में से कुल जमा 10 देशों के खेल को वर्ल्ड कप कहा गया और उसी में भारतीय महीनेभर से ज्यादा अपना समय बरबाद करते रहे.

क्रिकेट ऐसा खेल है जिस में खिलाड़ी तो 22 होते हैं पर 9 तो सिर्फ स्टेडियम में बैठे रहते हैं और कुछ देर 1 को हिलनाडुलना होता है तो कुछ देर 2 से 5 तक को, बाकी समय फील्ड पर 10-11 खिलाड़ी खड़े ही रहते हैं. यह जैंटलमैनों का खेल है पर भारत में काले साहबों को भी खुश करने के लिए ले लिया गया और धीरेधीरे इसी खेल ने राजनीतिक रंग ले लिया और भारतपाकिस्तान खेल होता है तो देशप्रेम का सवाल भी उठ खड़ा होता है.

क्रिकेट का भारत और पाकिस्तान में खेल से ज्यादा धर्म से संबंध हो गया है. भारत की क्रिकेट टीम खेलती है तो हिंदू आरोप लगाते हैं कि मुसलिम दुआ करते हैं कि भारत हार जाए और पाकिस्तान खेल रहा हो तो हिंदू प्रार्थना करते हैं कि पाकिस्तान हार जाए. ये हिंदूमुसलिम किस देश में रह रहे हैं इस का कोई फर्क नहीं पड़ता. इंगलैंड में पाकिस्तान और आस्ट्रेलिया खेल रहे हों तो भारत से गए हिंदू तालियां पाकिस्तान की हार पर बजाते हैं.

इस तरह का हिंदूमुसलिम करने वाला खेल असल में तो पढ़ेलिखे तार्किक लोगों के लिए एक टैबू होना चाहिए पर जिस तरह भारतपाकिस्तान और फाइनल में भारतआस्ट्रेलिया मैचों में भीड़ उमड़ी थी और हर जगह बड़ी स्क्रीनें लगा कर हंगामा मचा था उस से यह तो साफ है कि यह कभी एक जमीन, एक देश में रहे लोगों के बीच की रेखाओं में से एक है.

भारतीय टीम का 2023 के वर्ल्ड कप फाइनल में 6 विकेट से हार जाना अपनेआप में कोई बड़ी बात नहीं है क्योंकि खेलों में हारजीत चलती है. भारत पहले इसी कप में आस्ट्रेलिया को हरा चुका था इसलिए उम्मीद थी कि यह फाइनल भी जीतेगा पर आस्ट्रेलिया ने जता दिया कि इस खेल में कला और कौशल के साथ बहुतकुछ और भी है.

यह खेल असल में सब से बड़ा जुआ बन चुका है. हर बात पर शर्तें लगती हैं. खिलाडि़यों पर आरोप लगते हैं कि वे शर्तों के व्यापार में लगे लोगों से रिश्वतें लेते हैं. हर क्रिकेट बोर्ड पर कोई राजनीतिक हैसियत वाला बैठा है क्योंकि वही ही रिश्वतों की, जुए की और विज्ञापनों से होने वाली आमदनी को जेब में रखने का हकदार है. क्रिकेट को धर्म की तरह बेचा जाता है जिस के धर्मगुरु हैं, पुजारी हैं, देवीदेवता हैं, कुछ देवीदेवता दूसरे खेमें में चले गए तो उन्हें दस्युओं की तरह आज के पंडों ने निकाल फेंका है.

आस्ट्रेलिया से वर्ल्ड कप हारने का मतलब यह नहीं कि भारतीय टीम कम हो गई है. शायद इस का कारण यही है आस्ट्रेलिया के खिलाड़ी बैटिंग (जुए वाली बैटिंग) के अनुसार खेलने को तैयार नहीं थे. भारत ने जीत की पूरी तैयारी कर ली थी. नरेंद्र मोदी और अमित शाह पूरे समय स्टेडियम में डटे रहे. इस दौरान देश पर कोई आर्थिक संकट नहीं आया. उत्तराखंड की सुरंग में फंसे दलितशूद्र मजदूरों का कोई खयाल नहीं आया क्योंकि यह क्रिकेट धर्म का मामला था.

भारत की तैयारी बेकार गई पर पैसा जिस का बनना था, पूरा बना होगा. यह कितना पैसा था, कितना लोगों ने खोया, कितना कमाया यह अंदाजा लगाना आसान नहीं है. बस अब अगले खेल के रिजल्ट का इंतजार है 3 दिसंबर को 5 विधानसभाओं के और 2024 में लोकसभा के. वे भी क्रिकेट की तरह ही हैं.

World Cup Final: सट्टेबाजी, देशभक्ति और धर्मभक्ति के अंधकार में गुम होता खेल

Sports News in Hindi: हाथ को आया, पर मुंह न लगा. यह इस बार भारतीय क्रिकेट टीम (Indian Cricket Team) के साथ हुआ. फाइनल मुकाबले से पहले लगातार 10 मैच जीतने वाली नीली जर्सी पहने ‘टीम इंडिया’ (Team India) के सामने पीली जर्सी वाले आस्ट्रेलियाई खिलाड़ी खड़े थे, जो बड़े मैचों में गजब का खेल दिखाते हैं. 19 नवंबर, 2023 को अहमदाबाद के नरेंद्र मोदी स्टेडियम (Narender Modi Stadium) में भी यही हुआ. तकरीबन एक लाख, 30 हजार दर्शकों से खचाखच भरे स्टेडियम में उन्होंने भारी दबाव पर पार पाते हुए एक शानदार जीत हासिल की और भारत को 6 विकेट से हराते हुए चमचमाती ट्रॉफी अपने नाम कर ली. दरअसल, आस्ट्रेलिया क्रिकेट टीम की एक बड़ी खासीयत यह है कि वह दबाव वाले मैचों में सामने वाली टीम पर एकदम से हावी हो जाती है. इस टीम की बल्लेबाजी और गेंदबाजी तो बढ़िया है ही, इन की फील्डिंग भी कमाल की होती है.

इस के अलावा यह टीम मानसिक रूप से बहुत ज्यादा मजबूत है. जब यह मैदान पर होती है, तो अलग ही रोब से अपना हर काम करती है. हर खिलाड़ी सामने वाली टीम के बल्लेबाजों पर हावी होने की फिराक में रहता है. गलती की नहीं कि भुगतो खमियाजा.

पर क्या आज की तारीख में क्रिकेट मनोरंजन करने का साधन भर रह गया है? ऐसा नहीं है. भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के पास आज अथाह पैसा है. इतना ज्यादा कि वह अपने खिलाड़ियों को मालामाल रखता है. इस बोर्ड पर काबिज होने के लिए नेता तक उतावले रहते हैं. अगर वे खुद नहीं कोई पद पाते हैं, तो अपने बच्चों को दिला देते हैं.

फिलहाल गृह मंत्री अमित शाह के बेटे जय शाह बीसीसीआई के सचिव हैं और उन का पूरे बोर्ड पर दबदबा साफ दिखाई देता है. वजह साफ है कि बीसीसीआई सोने का अंडा देने वाली मुरगी है, जो आईसीसी पर भी रोब दिखाने में कोताही नहीं बरतती है.

एक कड़वी हकीकत यह भी है कि क्रिकेट चंद देशों में खेला जाने वाला खेल है खासकर यह उन देशों में ज्यादा मशहूर है, जो कभी अंगरेजों के गुलाम रहे थे. इंगलैंड, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, दक्षिण अफ्रीका में तो इसे आज भी ‘जैंटलमैन का गेम’ कहा जाता है, पर भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बंगलादेश, श्रीलंका में यह गलीकूचों में गेंदबल्ले से खेला जाने वाला सस्ता खेल है.

यही वजह है कि यह भारत और पाकिस्तान में हौकी जैसे उस खेल को खा गया है, जो कभी इन दोनों देशों की शान हुआ करता था. पाकिस्तान तो हौकी के लिहाज से ज्यादा गहरे गड्ढे में है. भारत के भी कुछ खास अच्छे हालात नहीं हैं.

सट्टेबाजी की गिरफ्त में

जहां अथाह पैसा होगा, वहां गैरकानूनी काम भी खूब होंगे. जब से बीसीसीआई ने क्रिकेट को कमाई का धंधा बना लिया है, तब से यह खेल मैदान से ज्यादा सट्टेबाजों के ठिकानों पर खेला जाने लगा है. लोग भले ही इस भरम में रहें कि इस वर्ल्ड कप को आस्ट्रेलिया ने जीता है, पर असली जीत तो हमेशा सटोरियों की होती है.

पता नहीं सटोरियों के उस पैसे का किस तरह का गलत इस्तेमाल होता है, वह ड्रग्स में लगता है या आतंकवाद को बढ़ावा देने में या फिर गैरकानूनी हथियार खरीदने में झोंक दिया जाता है, किसे पता. पर बेवकूफ लोग लगा देते हैं अपनी गाढ़ी कमाई इस गंदे कारोबार में.

‘फ्री प्रैस जर्नल’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, एक सट्टेबाज ने कहा था कि उस ने पहले कभी इतना तनाव और उत्साह नहीं देखा. मैच को ले कर लोगों में एक अलग लैवल का क्रेज देखने को मिला.

‘फ्री प्रैस जनरल’ के ही मुताबिक, दाऊद इब्राहिम गिरोह मुंबई, इंदौर, दिल्ली, अहमदाबाद, कराची, दुबई और बैंकौक में फैले सट्टेबाजों के अपने विशाल नैटवर्क के जरीए पूरी फौर्म में दिखा.

‘टीवी-9’ की रिपोर्ट को मानें तो फाइनल मुकाबले में 70,000 करोड़ रुपए का सट्टा लगाया गया था, जबकि भारत और पाकिस्तान के मैच पर 40,000 करोड़ की सट्टेबाजी हुई थी. एक और जानकारी के मुताबिक, इस फाइनल मुकाबले से पहले 500 से ज्यादा बैटिंग वैबसाइट और 200 के आसपास मोबाइल एप्स ऐक्टिव हो गए थे.

इतना ही नहीं, क्रिकेट वर्ल्ड कप में सट्टा लगवाने के आरोप में पतिपत्नी को नंदग्राम पुलिस ने गिरफ्तार किया था. वे दोनों राजनगर ऐक्सटैंशन, गाजियाबाद की एक सोसाइटी में फ्लैट किराए पर ले कर हाई प्रोफाइल लोगों को सट्टा लगवाते थे. इस के लिए वे दुबई से औनलाइन सट्टे की ट्रेनिंग ले कर आए थे.

पुलिस के मुताबिक, दोनों पतिपत्नी ने वर्ल्ड कप के और दूसरे मैचों के दौरान भी सट्टेबाजी करवाई थी. अंदाजा है कि उन्होंने 100 से ज्यादा लोगों के जरीए एक करोड़ रुपए से ज्यादा की सट्टेबाजी की है. आरोपियों के पास से पुलिस ने एक लैपटौप, 4 मोबाइल फोन और 5 सिमकार्ड बरामद किए.

इन के मुंह पर भी तमाचा

फाइनल मुकाबले में भारत की हार से उन लोगों को तो कड़ा सबक मिल गया होगा, जो खेलों को खेल से ज्यादा देशभक्ति या धर्मभक्ति से जोड़ कर देखते हैं. उन के लिए खेल किसी रणभूमि सा हो जाता है और वे अपने योद्धाओं को अजेय समझ लेते हैं. उन्हें तथाकथित ऊपर वाले का दूत मान बैठते हैं.

फाइनल मुकाबला शुरू होने से पहले एक अखबार ‘दैनिक जागरण’ की हैडिंग थी कि ‘आज होगा धर्मयुद्ध’. इस तरह की बचकाना हैडिंग का क्या मतलब? क्या अहमदाबाद में कोई ‘महाभारत’ रचा जा रहे था? ऐसे शीर्षक देश को भरमाने वाले होते हैं और लोगों को उकसाते हैं कि जीतने पर अपने खिलाड़ियों को भगवान मान लें और हारने पर उन्हें राक्षस का सा दर्जा दे दें.

इतना ही, बहुत से लोगों ने तो नरेंद्र मोदी को ही इस हार का जिम्मेदार ठहरा दिया और उन्हें ‘पनौती’ कहा, क्योंकि वे मैच देखने स्टेडियम गए थे. वैसे, यह जो देश का आज का माहौल है, उस में भारतीय जनता पार्टी का भी बड़ा खास रोल है, क्योंकि वह हर बात को देशभक्ति या धर्मभक्ति से जोड़ देती है.

देशभक्ति और धर्मभक्ति के नाम पर किसी गरीब के घर पर बुलडोजर चला दो या किसी का एनकाउंटर कर दो, सब सही मान लिया जाता है. ऐसा ही कुछ आलम इस बार स्टेडियमों में भी दिखा. भारत के मैचों में ‘वंदे मातरम’ और ‘भारत माता की जय’ के नारे लग रहे थे. लोगों के घरों में हवन कराए जा रहे थे.

उत्तर प्रदेश के कानपुर में वर्ल्ड कप के फाइनल में भारत की जीत के लिए कानपुर युवा उद्योग व्यापार मंडल श्याम बिहारी गुट के पदाधिकारियों ने झकरकटी में बने आशा माता मंदिर में हवनपूजन किया था. हरियाणा में अंबाला जिले के काली माता मंदिर में हवनयज्ञ कर भारत की जीत की कामना की गई थी.

क्रिकेटर विराट कोहली दिल्ली में पश्चिम विहार की जिस कालोनी में 10 सालों तक रहे थे, वहां के लोगों ने भारतीय टीम के जीतने और विराट कोहली की 51वीं सैंचुरी के लिए हवन किया था.

उत्तराखंड के कुमाऊं में पत्थरचट्टा में आनंदी मंदिर धाम में लोगों ने भारत की जीत के लिए हवनपूजन किया था, तो वहीं सीरगोटिया में मुसलिम औरतों ने दुआ मांगी था.

इतना ही नहीं, दोनों टीमों की कुंडलियों को खंगाला जा रहा था. सूर्य, मंगल, बुध, शनि, राहुकेतु की दशा और दिशा तय की जा रही थीं.

अहमदाबाद के एक ज्योतिषी कौशिक भाई जोशी ने दावा किया था कि भारतीय क्रिकेट टीम जीतेगी, क्योंकि मकर का चंद्रमा कमाल करेगा.

पंडित संजय उपाध्याय ने मैच से पहले ‘एबीपी न्यूज’ से बातचीत के दौरान बताया, ‘ज्योतिष विद्या के अनुसार इस समय बृहस्पति मेष राशि और राहु मीन राशि में मौजूद है और शनि राशि अपने मूल त्रिकोण राशि में मौजूद है. इस के अलावा मंगल राशि भी वृश्चिक राशि के साथ है.

‘वहीं दूसरी तरफ आस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों के भी राशि अनुकूल ही है, इसलिए निश्चित तौर पर आज होने वाले भारतआस्ट्रेलिया फाइनल मुकाबले में एक कड़ा रोमांचक मुकाबले देखने को मिल सकता है, लेकिन परिणाम भारत के पक्ष में बनने की ज्यादा स्थितियां देखी जा रही हैं.’

मेरठ के ज्योतिषाचार्य डाक्टर संजीव शर्मा के मुताबिक, ‘जैसा मैं ने देखा है कल मैच के समय की जो कुंडली रहेगी वह कुंभ लग्न की रहेगी. इस समय भारतवर्ष का शनि बहुत अच्छा चल रहा है और शनि देव गोचर में अपनी राशि में ही भ्रमण कर रहे हैं. जो स्टेडियम का नाम है वह नरेंद्र मोदी स्टेडियम है और हमारे प्रधानमंत्री श्री मोदीजी का शनि भी बहुत अच्छा है.

‘… कुलमिला कर कल अपने तिरंगे की शान व प्रतिष्ठा के लिए 140 करोड़ भारतीय अपने सब्र का फल चखेंगे. दोस्तो, 19 नवंबर, 2023 इतिहास के पन्नों में दर्ज होने वाला है. कल कुछ अलग चमत्कारिक रिकौर्ड बनने वाले हैं. हम सब इस अविस्मरणीय पल का साक्षी बनें. कुछ तो बात है इस देश की माटी में जिस ने सचिन और विराट जैसे खिलाड़ियों को जन्मा है.’

एक ज्योतिषी ने तो भारत को स्टीवन स्मिथ, डेविड वार्नर और पैट कमिंस से बचने की सलाह दी थी. वे तीनों तो ज्यादा करामात नहीं कर पाए, लेकिन फिर भी भारत हार गया.

एक और ज्योतिषी ने तो यह तक कह दिया था कि भारत टौस हारेगा, पर मैच जीतेगा. कुलदीप यादव और रवींद्र जडेजा गेंदबाजी में कमाल दिखाएंगे, पर ऐसा भी नहीं हो पाया.

एक मैच को जिताने की खातिर न जाने कितने लोगों ने अपना कीमती समय खराब कर दिया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के काफिले ने स्टेडियम के आसपास के सिक्योरिटी के सारे इंतजाम गड़बड़ा दिए होंगे. मतलब हर तरह का कर्मकांड किया गया, देशभक्ति और धर्मभक्ति का हर पैतरा आजमाया गया, राजनीतिक कद को भुनाने की कोशिश की गई, पर कोई फायदा नहीं निकला.

दूसरी तरफ आस्ट्रेलिया के लोग थे. स्टेडियम में सिर्फ ‘नीली जर्सी’ ही हर तरफ दिखाई दे रही थी. ‘पीली जर्सी’ के समर्थक न के बराबर थे. अगर यह इतना ही बड़ा उत्सव होता तो यकीनन आस्ट्रेलियाई लोग भी भारत आने को उतावले दिखते, पर ऐसा हुआ नहीं.

याद रहे कि हर चीज में देशभक्ति और धर्मभक्ति को ऊपर रखना एक खतरनाक ट्रैंड है, जो भविष्य में भारत की एकता के लिए महंगा पड़ सकता है, क्योंकि ऐसा दिमागी अंधापन लोगों के मन में जहर भर देता है.

यह ठीक है कि भारतीय क्रिकेट टीम देश की नुमाइंदगी करती है, पर उसे हर मैच के लिए पैसे मिलते हैं. वह एक प्रोफैशनल टीम है और उसे अपनी हारजीत का इतना ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है कि उसे देशभक्ति या धर्मभक्ति से जोड़ दिया जाए.

फाइनल मैच में हारने के बाद भारतीय खिलाड़ियों ने आस्ट्रेलिया की टीम को गले लग कर बधाई दी थी, फिर यह धर्मयुद्ध कैसे हो गया? वैसे भी इस वर्ल्ड कप में विजेता टीम आस्ट्रेलिया को तकरीबन 33 करोड़ रुपए मिले हैं और भारत को तकरीबन 16 करोड़ रुपए. वे तो सभी मालामाल हो गए हैं और लोग दकियानूसी बातों में उलझ कर अपना कीमती समय बरबाद कर रहे हैं.

28 गोल्ड, 38 सिल्वर और 41 ब्रॉन्ज से चमका भारत

‘बूस्ट इज द सीक्रेट औफ माय ऐनर्जी’. इस कैचलाइन से हम किसी सामान का प्रचार नहीं कर रहे हैं, पर कुछ शब्द ऐसे होते हैं जो हमारा हौसले बढ़ाने में शानदार काम करते हैं. ऐसा ही कुछ दिखा इस बार के 19वें एशियाई खेलों में. 23 सितंबर, 2023 को चीन के हांगझोऊ (हांगजो) शहर में शुरू हुए खेलों के इस महाकुंभ में भारतीय दल ‘इस बार, सौ पार’ के हौसला बढ़ाते शब्दों के साथ खेल के मैदान में उतरा था.


दरअसल, अब तक भारत ने इस खेल प्रतियोगिता में सब से ज्यादा साल 2018 में (जकार्ता, इंडोनेशिया) में 16 गोल्ड, 23 सिल्वर और 31 ब्रॉन्ज मिला कर कुल 70 मैडल जीते थे और चूंकि एशियाई खेलों का मोटो है ‘हमेशा आगे’, तो इसी आगे बढ़ने की भावना से ‘इस बार, सौ पार’ का नारा दिलों में ले कर 655 भारतीय खिलाड़ियों ने चीन की ओर कूच किया था.

अब सब से बड़ा सवाल यह था कि 70 से 100 तक कैसे पहुंचेंगे? वजह, इन एशियाई खेलों की शुरुआत में ही भारत के लिए अच्छी खबर नहीं आई थी. वेटलिफ्टिंग में अपने रिकौर्ड तोड़ने की आदत बनाने वाली मीराबाई चानू, जिन से गोल्ड मैडल की उम्मीद थी, 49 किलो भारवर्ग में चौथे नंबर पर रही थीं.

इतना ही नहीं, बैडमिंटन में पीवी सिंधू और कुश्ती की फ्रीस्टाइल कैटेगरी में 65 किलोग्राम भारवर्ग में बजरंग पूनिया, जो गोल्ड मैडल के दावेदार थे, ब्रॉन्ज मैडल तक की खुशबू तक नहीं सूंघ पाए.

 

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इस तिहरे झटके के बावजूद भारतीय दल ने कई खेल प्रतियोगिता में उम्मीद से बढ़ कर भी मैडल जीते, जिस में महिला टेबल टैनिस टीम का ब्रॉन्ज (सुतीर्था मुखर्जी और अहिका मुखर्जी) शामिल है. पारुल चौधरी ने महिलाओं की 5000 मीटर दौड़ में आखिरी 30 मीटर में कमाल कर के गोल्ड मैडल जीत लिया.

इतना ही नहीं, भाला फेंक में ओलिंपिक और वर्ल्ड चैंपियन नीरज चोपड़ा ने गोल्ड मैडल तो जीता ही, साथ ही किशोर जेना ने सिल्वर मैडल अपने नाम किया. केनोइंग में अर्जुन सिंह और सुनील सिंह ने ऐतिहासिक ब्रॉन्ज जीता, जबकि 35 किलोमीटर की पैदल चाल में रामबाबू और मंजू रानी को भी ब्रॉन्ज मैडल अपनी झोली में डाला.

इसी का नतीजा था कि इस बार भारत ने न केवल 100 मैडल जीतने का आंकड़ा पार किया, बल्कि 28 गोल्ड, 38 सिल्वर और 41 ब्रॉन्ज मैडल मतलब कुल 107 मैडलों की शानदार सौगात देश की जनता को दी.

भारत ने एक और कारनामा किया कि वह कई साल के बाद चौथे नंबर पर रहा. पहले नंबर पर चीन रहा जिस ने कुल 383 मैडल जीते. दूसरे नंबर पर 188 मैडलों के जापान ने बाजी मारी, जबकि तीसरे नंबर पर दक्षिण कोरिया था, जिस ने वैसे तो 190 मैडल जीते थे, पर चूंकि जापान ने गोल्ड मैडल ज्यादा जीते थे, इसलिए उसे यह तीसरा नंबर हासिल हुआ.

वैसे, भारत साल 1951 में दूसरे नंबर पर रहा था और साल 1962 में तीसरे नंबर पर. अब कई साल बाद चौथे नंबर पर आना एक उपलब्धि के तौर पर देखा जा रहा है.

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