रस्मों की मौजमस्ती धर्म में फंसाने का धंधा

धर्म को ईश्वर से मिलाने का माध्यम माना गया है. धर्म मोहमाया, सांसारिक सुखों के त्याग की सीख देता है. धर्मग्रंथों में धर्म की कई परिभाषाएं दी गई हैं. कहा गया है कि धर्म तो वह मार्ग है जिस पर चल कर मनुष्य मोक्ष की मंजिल तय कर सकता है. ईश्वर के करीब पहुंच सकता है. धर्म के मानवीय गुण प्रेम, शांति, करुणा, दया, क्षमा, अहिंसा को व्यक्ति जीवन में उतार कर  मनुष्यता धारण कर सकता है. सांसारिक सुखदुख के जंजाल से छुटकारा पा सकता है. जिस ने धर्म के इस मार्ग पर चल कर ईश्वर को पा लिया वह संसार सागर से पार हो गया.

लेकिन व्यवहार में धर्म क्या है? धर्म का वह मार्ग कैसा है? लोग किस मार्ग पर चल रहे हैं? हिंदू समाज में धार्मिक उसे माना जाता है जो मंदिर जाता है, पूजापाठ करता है, जागरणकीर्तन, हवनयज्ञ कराता है, लोगों को भोजन कराता है, गुरु को आदरमान देता है, प्रवचन सुनता है, धार्मिक कर्मकांड कराता है, जीवन में पगपग पर धर्म के नाम पर रची गई रस्मों को निभाता चलता है और इन सब में दानदक्षिणा जरूर देता है.

धर्मग्रंथ और धर्मगुरु व साधुसंत कहते हैं कि धर्म के मार्ग पर चलने के लिए ये सब करो तो बेड़ा पार हो जाएगा.

ईश्वर तक पहुंचाने वाले इस धर्म का असल स्वरूप कैसा है? हिंदू समाज में धर्म के नाम पर वास्तव में रस्मों का आडंबर है. चारों तरफ रस्मों की ही महिमा है. पगपग पर रस्में बिछी हैं. ‘पीने वालों को पीने का बहाना चाहिए’ की तर्ज पर धार्मिक रस्मों में नाचना, गाना, खानापीना, कीर्तन, यात्रा, किट्टी पार्टी, गपबाजी, विरोधियों की पोल खोलना, आदि  शामिल हैं. हिंदू समाज में जन्म से ले कर मृत्यु और उस के बाद तक अलगअलग तरह की रस्में हैं. अंधभक्त धर्म के नाम पर बनी इन रस्मों को बड़े उत्साह से निभाते हैं. वे इन रस्मों में उल्लास के साथ भाग लेते हैं.

विवाहशादी, जनममरण की रस्में छोड़ भी दें तो जीवन में और बहुत सारी धार्मिक रस्मों का पाखंड व्याप्त है. पाखंड से भरे रस्मों के प्रति लोगों के निरंतर प्रचार के कारण श्रद्धा बढ़ रही है.

कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर दही हांडी फोड़ने के साथ नाचगाने व अन्य मनोरंजक रस्में महाराष्ट्र में जगहजगह होती हैं. गणेशोत्सव पर तरहतरह की झांकियां निकाली जाती हैं. इन में बच्चे व बड़े हाथी की सूंड लगाए, देवीदेवताओं के मुखौटे चढ़ाए नाचतेगाते दिखते हैं. जागरणों- कीर्तनों की धूम दिखाई देती है. इस तरह पूरे साल धार्मिक रस्में चलती रहती हैं. रस्मों का महाजाल बिछा है. कुछ लोग भय से, लालच से और आनंद उठाने के लिए धार्मिक रस्मों को करने में लगे हुए हैं.

धार्मिक रस्मों में पूजा कई रूपों में की जाती है. पूजापाठ के अनोखे तरीके हैं. नाचगाने, फिल्मी धुनों पर भजनों की बहार के साथ उछलतेकूदते भक्तगणों की टोलियां नाइट क्लबों की तरह करतब दिखाती नजर आती हैं. भक्त मूर्ति को प्रतीकात्मक तौर पर खाद्य सामग्री, पानी और पुष्प चढ़ाते हैं. मूर्ति के आगे  मोमबत्ती या अगरबत्ती जला कर घुमाई जाती है. फिर घंटी बजाने की रस्म की जाती है. भगवान का नाम बारबार जपा जाता है. भगवान को खाने की जो चीज चढाई जाती है उसे ‘प्रसाद’ कहा जाता है. इस ‘प्रसाद’ के बारे में प्रचारित किया गया है कि ‘प्रसाद’ खाना ‘आत्मा’ के लिए लाभप्रद है.

हर धर्म में तीर्थयात्रा जरूर बताई गई है. नदी के किनारे बसे शहरों की तीर्थ यात्रा पर गए लोग नदी में जलता हुआ दीपक और पुष्प रखा हुआ दोना बहाते हैं, मंदिरों में जलते हुए दीपक की लौ को सिरआंखों पर लगाते हैं. राख या चंदन का तिलक माथे के अलावा गले, छाती, नाभि पर लगाते हैं.

ऐसा करने के पीछे कोई तार्किकता नहीं है पर लोगों को ऐसा करने के लिए फायदा होने का लालच दिखाया गया है. दोना बहाने पर सुखसमृद्धि व पतिपत्नी के रिश्ते दूर तक चलने और दीपक की लौ से रोगदोष कटने की बात कही जाती है. हां, इन्हें देखना बड़ा सुखद लगता है, दृश्य फिल्मी हो जाता है.

जागरणकीर्तन की रस्म में लोग फिल्मी धुनों पर रचे भजन गाते हैं और थिरकते हैं. परिवार सहित अन्य लोगों को आमंत्रित किया जाता है तथा सब को भोजन कराया जाता है. धर्म की कमाई नहीं आनंद, मौजमस्ती की कमाई होती है.

लोग कहते फिरते हैं कि धार्मिक रस्में बहुत सुंदर होती हैं. प्रशंसा करते नहीं अघाते कि वाह, कैसा सुंदर जागरण- कीर्तन था. खूब मजा आया. झांकी कितनी खूबसूरत थी यानी मामला भगवान के पास जाने का नहीं, मनोरंजन का है.

रस्मों के नाम पर कहीं सुंदर नए वस्त्र पहने जाते हैं, कहीं तलवार, लाठीबाजी के करतब भी किए जाते हैं तो कहीं जुआ खेला जाता है. शिवरात्रि पर भांग पीना भी एक रस्म मानी जाती है. भंडारा यानी खानापीना और दान की रस्में तो सर्वोपरि हैं. इन रस्मों के बिना तो धर्म ही अधूरा है. सारा पुण्यकर्म ही बेकार है. धार्मिक कार्यक्रमों में भोजन कराना बड़े पुण्य का काम समझा जाता है. इसे प्रसाद मान कर लोगों को खिलाया जाता है. यहां भी बच्चों और बड़े भक्तों का मनोरंजन ही सर्वोपरि होता है. ऊबाऊ फीकी रस्मों के पीछे कम लोग ही पागल होते हैं.

महिलाओं को लुभाने के लिए उन्हें सजनेसंवरने के लिए सुंदर वस्त्र, आभूषण पहनने, घर को सजाने में रुचि रखने वाली औरतों के लिए घर के द्वार पर वंदनवार बांधने, कलश स्थापना जैसी रस्में भी रची गई हैं. औरतें अपनी सब से सुंदर साडि़यां पहन कर, जेवरों से लदफद कर, मोटा मेकअप कर के भगवान के सन्निकट आने के लिए घर का कामकाज छोड़छाड़ कर निकलती हैं. रस्मों के दौरान खूब हंसीठट्ठा होता है. हाहा हीही होती है. छेड़खानी होती है. आसपास मर्द हों तो उन्हें आकर्षित करने का अवसर नहीं छोड़ा जाता.

भांग खाने, जुआसट्टा खेलने की रस्म, गरबा खेलने की रस्म, धार्मिक उत्सवों में लाठी, तलवारबाजी की रस्में की जाती हैं. यहां भी आड़ भगवान की ले ली जाती है यानी रस्म के नाम पर नशेबाजों, जुआसट्टेबाजों, रोमांच, रोमांस के शौकीनों को भी धर्म के फंदे में फंसा लिया गया है. होली, दशहरा, नवरात्र, शिवरात्रि जैसे धार्मिक उत्सवों पर नशा, छेड़छाड़, गरबा, डांडिया उत्सव में रोमांस के मौके उपलब्ध होते हैं.

अरे, वाह, ईश्वर तक पहुंचने का क्या खूब रास्ता है. भगवान तक पहुंचने का यह मार्ग है तभी लोगों की भीड़ बेकाबू होती है.

दक्षिण भारत में धार्मिक रस्मों के नाम पर लोग लोहे की नुकीली लंबीलंबी कीलें दोनों गालों के आरपार निकालने का करतब दिखाते हैं. कई लोग धर्मस्थलों तक मीलों पैदल चल कर जाते हैं, कुछ लेट कर पेट के बल चल कर जाते हैं. यह सबकुछ सर्कसों में भी होता है. गोदान, शैयादान करने की रस्म, बेजान मूर्तियों के आगे देवदासियों (जवान युवतियों) के नाचने की भी रस्म है. कहीं बाल कटवाने की रस्म है, कहीं मंदिरों में पेड़ों पर कलावा, नारियल, घंटी बांधने की रस्म है. कुछ समय पहले तक तीर्थों पर पंडों द्वारा युवा स्त्रियों को दान करवा लेने की परंपरा थी. शुद्धिकरण, पंडों के चरण धो कर गंदा पानी पीने की रस्म, मनों दूध नदियों में बहाने, मनों घी, हवन सामग्री को अग्नि में फूंक डालने की रस्म है. जानवरों को मार कर खाना, देवीदेवताओं को चढ़ाना रस्म है, और यही मांस बतौर प्रसाद फिर खाने को मिलता है क्योंकि भगवान तो आ कर खाने से रहे.

अरे, भाई, यह क्या पागलपन है. क्या भगवान तक पहुंचने का मार्ग ढूंढ़ा जा रहा है या खानेपीने का लाभ होता है? शायद लोहे के सरियों से जबड़े फाड़ कर, भांग पी कर, जुआ खेल कर, गंजे हो कर, नाचगा कर ईश्वर तक पहुंचने के बजाय बोरियत दूर की जाती है. चूंकि धर्म का धंधा इसी पर टिका है, पंडेपुजारियों ने इस तरह के रोमांच, रोमांस, मौजमस्ती वाली रस्में रची हैं.

रस्मों में खानेपीने यानी भंडारे और दान की रस्म का खास महत्त्व है. ये रस्में हर धर्म में हैं. बाद में खाने की अनापशनाप सामग्री चाहे कूड़े के ढेर में फेंकनी पड़े. धर्म के नाम पर खाना खिलाने की यह रस्म इस गरीब देश के लिए शर्म की बात है. जहां देश की 20 प्रतिशत आबादी को दो वक्त की भरपेट रोटी नहीं मिलती, वहां ऐसी रस्मों में टनों खाद्य सामग्री बरबाद की जाती है.

कुंभ जैसे धार्मिक मेलों में तो रस्मों के नाम पर बड़े मजेदार तमाशे देखने को मिलते हैं. पिछले नासिक कुंभ मेले में इस प्रतिनिधि ने स्वयं देखा, रस्मों के नाम पर लोग गोदावरी के गंदे पानी में बड़ी श्रद्धा से स्नान कर रहे थे, पुष्प, जलते दीपक का दोना नदी में बहा रहे थे. ‘अमृत लूटने वाले दिन’ दोपहर को जब एक महामंडलेश्वर की मंडली घाट पर आई और उस ने नदी में पैसे, प्रसाद फेंके तो भक्तों की भीड़ इस ‘अमृत’ को लूटने के लिए नदी में कूद पड़ी. पैसे के लिए मची, भगदड़ में कई भक्त मोक्ष पा गए.

मेले में कहीं रस्सी के सहारे बाबा लटके हुए थे, इन के आगे एक बोर्ड लगा था और उस पर लिखा था, बाबा खड़ेश्वरी. आगे एक दानपात्र पड़ा था. कहीं लाल मिर्च का ढेर लगा था और 30 मिर्चों को जला कर हवन किया जा रहा था. स्नान के लिए गुरुओं की झांकियां निकल रही थीं. भिखमंगों, अपंगों की भीड़ उमड़ी पड़ी थी. धर्म में बहुरूप धरने वालों का भी रिवाज है. मेले में तरहतरह के बहुरुपिए नजर आ रहे थे. कोई शिव, कोई हनुमान, कोई बंदर, कोई गरुड़ बना हुआ था लेकिन इन के हाथों में कटोरा अवश्य था. हर जगह ऐसा लग रहा था मानो मदारियों को जमा कर रखा है. अगर ये मदारी न हों तो कुंभ मेले में शायद कोई जाए ही नहीं.

दरअसल, रस्मों का यह एक मोहजाल फैलाया गया है. रस्मों के नाम पर इन में मौजमस्ती, रोमांच ज्यादा है. रस्में बनाई ही इसलिए गई हैं कि ज्यादा से ज्यादा लोगों को आकर्षित किया जा सके क्योंकि मस्ती, मनोरंजन, खानपान, रोमांच के प्रति मनुष्य का जन्मजात स्वभाव है.

धर्म में इन रस्मों का यह स्वरूप आदमी की कमजोरी को भांप कर धीरेधीरे निर्धारित किया गया क्योंकि ज्यादातर हिंदुओं का धार्मिक जीवन देवीदेवताओं पर केंद्रित होता है. लोग नाच कर, गा कर, खाना खा कर, तरह- तरह के मनोरंजक तमाशे कर के खुश होते हैं और बहाना बनाते हैं पूजा करने का. पंडेपुजारी इस  बात को जानते हैं और वे इवेंट मैनेजर बन जाते हैं.

असल में रस्में अंधविश्वासों का जाल हैं. यह संसार का एक विचित्र गोरखधंधा है. तरक्की रोकने की बाधाएं हैं. असल बात तो यह है कि धर्म के पेशेवर धंधेबाजों ने रस्मों के नाम पर जेब खाली कराने के लिए सैकड़ों रास्ते निकाल लिए हैं. भिन्नभिन्न प्रकार की चतुराई भरी तरकीबों से हर धार्मिक, सामाजिक उत्सवों  पर रस्में रच दी गईं. इन रस्मों के ऊपर दानदक्षिणा, चंदा मांगने की रस्म और बना दी गई. कह दिया गया कि दान के बिना धर्म का हर काम अधूरा है. जनता अपने पसीने की कमाई में से रस्मों के नाम पर पैसा देना अपना धर्म समझती है.

हरिदास परंपरा के संगीत, सूरदास, कबीर, मीराबाई के भजन आखिर हों क्यों? क्यों शब्दजाल से सम्मोहित किया जाता है. भक्तों का मनोरंजन उद्देश्य है या ईश्वर की प्राप्ति? अब इस गीतसंगीत की जगह फिल्मी गीतसंगीत ने ले ली है. अच्छा है. नए युग में नया मनोरंजन. पुराने भजनों से भक्त आकर्षित नहीं होते. लिहाजा भक्तों की रुचि का पूरा खयाल रखा जाता है और अब उन्हें ‘ये लड़की आंख मारे’, ‘चोली के पीछे क्या है’ जैसे उत्तेजक फिल्मी गीतसंगीत पर रचे भजन गाएसुनाए जाते हैं.

धर्म के धंधेबाज लोगों में भय और लालच फैलाते हैं कि फलां रस्म न की गई तो ऐसा अनर्थ हो जाएगा व फलां रस्म की गई तो यह पुण्य होगा, इच्छाएं पूरी होंगी. सुखसमृद्धि आएगी. जन्म के बाद बच्चे का मुंडन नहीं कराया, इसलिए बच्चा बीमार रहने लगा. चाहे किसी कारणवश बच्चा बीमार हो गया हो, दोष रस्म न करना मान लिया जाता है. इस तरह के सैकड़ों भय दिखा कर लोगों को दिमागी गुलाम बना दिया गया है.

भयभीत, अनर्थ से आशंकित लोग यंत्रवत हर धार्मिक रस्म करने को आतुर हैं. चाहे जेब इजाजत दे या न दे. कर्ज ले कर धार्मिक रस्म तो करनी ही है. लोग खुशीखुशी अपनी जमा पूंजी खर्च कर देते हैं, क्योंकि मुंडन पर सैकड़ों को बुला कर खाना खिलाने का अवसर मिलता है. रिश्तेदार जमा होते हैं. देवरभाभी, जीजासाली घंटों चुहलबाजी करते हैं.

घर में बच्चा पैदा हुआ है, यह बताने के लिए डाक्टरी विज्ञान है. विज्ञान पढ़ कर भी इसे भगवान की कृपा मान कर जागरणकीर्तन की रस्म की जाती है. खाना, कपड़े, गहने दान किए जाते हैं. जागरण में अंशिमांएं भरी जाती हैं, सिर नवा कर भगवान को अर्पित कौन करता है? क्या यही सब करने से भक्त भगवान का दर्शन पा जाते हैं?

हम अपने धर्म, संस्कृति को महान बताते रहे. इस की श्रेष्ठता, महानता, गुरुता का गुण गाते रहे पर दूसरी जातियों और संस्कृतियों शक, हूण, यवन, अंगरेजों ने देश में आ कर हमें सैकड़ों सालों तक गुलाम बना कर रखा फिर भी हम अपना पागलपन नहीं त्याग पाए हैं. यह सब इसी पागलपन के कारण हुआ.

धर्म में अगर रस्मों के नाम पर इस तरह के मनोरंजक तमाशे न हों तो सबकुछ नीरस, फीकाफीका, ऊबाऊ लगेगा. रस, मौजमस्ती चाहने वालों की भीड़ नहीं जुटेगी. रस्मों की मौजमस्ती का धर्म की खिचड़ी में तड़का लगा दिया गया, इसलिए भक्तों को स्वाद आने लगा. आनंदरस मिलने लगा. यही कारण है कि धर्म हर किसी को लुभाता है और रस्में धर्म की जान बन गईं.

असल में धर्म का महल रस्मों के इन्हीं खंभों पर ही तो टिका है. तभी तो इस के रखवालों में जरा सी आलोचना से खलबली मच जाती है. घबरा उठते हैं वे कि कहीं असलियत सामने न आ जाए. पोल न खुल जाए. अगर धर्म मनोरंजन करने का एजेंट न बने तो धर्म बेजान, बेकार, दिवालिया सा दिखाई दे. धर्म की दुकानें सूनी, वीरान नजर आएं. क्या फिर ऐसे फीके, उबाऊ धर्म की ओर कोई झांकेगा.

जाहिर सी बात है, हर एजेंट अपना माल बेचने के लिए उसे तरहतरह से सजाएगा, संवारेगा, चांदी सी चमकती वर्क लगा कर दिखाएगा, प्रदर्शित करेगा. ग्राहकों को सब्जबाग दिखाएगा तभी तो ग्राहक आकर्षित होंगे. हिंदू धर्म में औरों से ज्यादा मनोरंजक तमाशे, रस्मों की मौजमस्ती हैं इसलिए यहां अधिक पैसा बरसता है. धर्म मालामाल है. यह सब मनोरंजन, मौजमस्ती न होती तो धर्म का अस्तित्व न होता. यही तो धर्म का मर्म है.

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