कोई शक नहीं कि भारत हर क्षेत्र में आगे बढ़ रहा है. क्षेत्र चाहे विज्ञान, तकनीकी विकास का हो या फैशन और स्टाइल का महंगाई और धोखाधड़ी का हो या फिर हिंसा का और लूटमार का. अपराध क्षेत्र की ओर देखें, तो राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, भारत हत्याओं के मामले में भी नंबर वन है. वर्ष 2007 में यहां हत्या की कुल 32,719 वारदातें हुईं जो संख्या में दूसरे देशों के मुकाबले सब से ज्यादा हैं.
प्रश्न यह उठता है कि भारत जैसा धर्मपरायण देश, जहां धर्मभीरु लोगों की पूरी फौज है, ऐसी वारदातों में इतना आगे कैसे बढ़ गया? धर्म की नजर से देखें तो हत्या ऐसा महापाप है जो व्यक्ति को पतन और नर्क की खाई में धकेलता है. जाहिर है, रातदिन धर्म के पोथे खोल कर बैठे धर्मपुरोहितों के उपदेशों का असर ज्यादातर पर होता ही नहीं.
बहुत से लोग पाक्षिक पत्रिका सरिता पर जनता को धर्म के खिलाफ बरगलाने का आरोप लगाते हैं. आक्षेप ये भी लगते हैं कि सालों से धर्म के खिलाफ आवाज उठाने के बावजूद यह पत्रिका लोगों की धार्मिक प्रवृत्ति पर अंकुश नहीं लगा सकी. यदि इस बात को एक पल के लिए सच मान भी लिया जाए तो क्या इस सच से इनकार किया जा सकता है कि सदियों से धर्म की बुनियाद पक्की करते ये तथाकथित धर्मगुरु आज तक अपने उद्देश्य में सफल नहीं हुए. आखिर क्यों हत्या, बलात्कार, चोरी, धोखाधड़ी की खबरों से अखबारों के पृष्ठ रंगे नजर आते हैं?
विसंगतियों की धुंध
विवाह को धार्मिक अनुष्ठान मानने और इस रिश्ते को जन्मजन्मांतर का संबंध बताने वाला धर्म तब कहां रहता है जब पतिपत्नी एकदूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं? आग की जिन लपटों के चारों तरफ फेरे दिला कर पुरोहित नवदंपती को एकदूसरे का साथ देने के 7 वचन दिलाते हैं, क्यों दहेज के नाम पर उन्हीं लपटों में लड़की को जला कर मार दिया जाता है.
छोटीछोटी बातों पर धार्मिक स्थलों और पंडेपुजारियों का चक्कर लगाने वाले लोग अपनों को, बड़ेबड़े धोखे देने से बाज नहीं आते.
धर्म का हाल तो यह है कि लोग किसी काम में सफल होने की मनौती मांगते हैं. बाद में चढ़ावा चढ़ा कर अपनी मनौती पूरी करते हैं. क्या यह एक तरह से ईश्वर को घूस देने की कवायद नहीं?
वैसे तो हर धर्म व्यक्ति को सदाचार, ईमानदारी और अहिंसा के मार्ग पर चलने का पाठ पढ़ाता है. फिर क्यों रिश्तों का खून करते वक्त और मानवता की धज्जियां उड़ाते वक्त लोग अपने धर्मग्रंथों का ध्यान नहीं करते?
लड़कियों के पहनावे को ले कर धर्मगुरुओं द्वारा फतवे जारी किए जाते हैं, धर्म और नीति की दुहाइयां दी जाती हैं, सदन में हंगामा खड़ा हो जाता है, उसी लड़की की जब इज्जत लुटती है, उसे निर्वस्त्र किया जाता है, तो धर्म उस की सुरक्षा के लिए आगे क्यों नहीं आता?
जिस महिला को धार्मिक कर्मकांडों के दौरान बराबरी के आसन पर बैठाया जाता है, जिस के बगैर कोई धार्मिक अनुष्ठान पूरा नहीं माना जाता, उसे ही घर में कभी समान दर्जा नहीं मिलता. आएदिन वह घरेलू हिंसा का शिकार बनती है, क्यों?
पूर्वजों के लिए दान, तप, पूजा कराने वाला व्यक्ति जीतेजी अपने वृद्ध मांबाप की सेवा नहीं करता.
मंदिरों में जा कर चढ़ावा चढ़ाते लोग दूसरे के हक की रोटी छीनते समय शर्म महसूस नहीं करते.
दावा किया जाता है कि हर धर्म अहिंसा का पाठ पढ़ाता है. फिर क्यों धर्म के नाम पर हिंसाएं होती हैं? एक धर्म के लोग दूसरे धर्म के लोगों के खून के प्यासे बन जाते हैं. सैकड़ों, हजारों जानें जाती हैं, बच्चे अनाथ होते हैं. ज्यादातर दंगों के पीछे धर्म के धंधेबाजों का ही हाथ होता है.
मोटेतौर पर माना जाता है कि धर्म इसलिए है ताकि इनसान ईश्वर या कर्मफलों के भय से गलत काम न करे. पर विडंबना यह कि धर्मग्रंथों में ऐसे विधान और कथाएं भरी पड़ी हैं जिन के मुताबिक आप चाहे जितना भी पाप कर चुके हों, परमात्मा के नाम का जाप कर लें, ईश्वर की प्रार्थना कर लें, सारे पाप धुल जाएंगे. पर हकीकत में जो जैसा करता है उस को उस का फल मिलता है.
देखा जाए तो धर्म की उत्पत्ति का आधार भय है. व्यक्ति जब खुद को असहाय और असुरक्षित महसूस करता है, तो धर्म की तरफ मुखातिब होता है. भले ही घर के बड़ेबुजुर्ग या धर्म पुरोहित यह कह कर व्यक्ति को धार्मिक कर्मकांडों के लपेटे में लेते हैं कि इस से उन्हें शक्ति मिलेगी. वे मजबूत बनेंगे, मगर सच तो यह है कि इस से सिर्फ परावलंबन की मनोवृत्ति मजबूत होती है. धर्म के तथाकथित ठेकेदार इनसान की इसी कमजोरी का फायदा उठाते हैं. वे एक ऐसा वर्ग तैयार करना चाहते हैं जो उन्हें भरपूर समर्थन दे ताकि उन का खर्चापानी चलता रहे.
धर्म व्यक्ति को डरपोक तो बना सकता है मगर उस की प्रवृत्ति को बदल नहीं सकता. ज्यादातर लोग सोचते हैं कि जिंदगी में जितना हासिल हो सके उतना हासिल कर लो. इस के लिए वे कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं. कुछ धर्मस्थलों में जा कर हाथ बांधे ईश्वर से अपनी इच्छा मनवाने का प्रयास करते हैं तो कुछ हाथों में हथियार थाम कर मनचाही चीज दूसरों से छीन लेते हैं. आवेश के क्षणों में उन्हें न तो धर्म का पाठ याद रहता है न धर्मगुरु. वैसे भी लोगों ने धर्म के सिर्फ बाहरी स्वरूप को स्वीकारा है जिस के अंतर्गत कर्मकांड, पूजा और तरहतरह के ढकोसले आते हैं. ज्यादातर व्यक्ति धर्म की गहराई में उतर ही नहीं पाते.