हाल ही में 3 अक्तूबर, 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने जेलों में जाति पर आधारित भेदभाव रोकने के लिए दायर जनहित याचिका पर ऐतिहासिक फैसला सुनाया.
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि जेल नियमावली जाति के आधार पर कामों का बंटवारा कर के सीधे भेदभाव करती है. सफाई का काम सिर्फ निचली जाति के कैदियों को देना और खाना बनाने का काम ऊंची जाति वालों को देना आर्टिकल 15 का उल्लंघन है.
सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को जेल मैन्युअल के उन प्रावधानों को बदलने का निर्देश दिया है, जो जेलों में जातिगत भेदभाव को बढ़ावा देते हैं.
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला यह तो साफतौर पर जाहिर करता है कि आजादी के 77 साल बाद भी छुआछूत समाज में ही नहीं, बल्कि सरकारी सिस्टम पर भी बुरी तरह हावी है.
जेलों के अंदर जातिगत भेदभाव आम बात है. जेल में कैदियों की जाति के आधार पर उन्हें काम सौंपा जाता है, जहां दलितों को अकसर साफसफाई जैसे काम करने के लिए मजबूर किया जाता है.
समाज में जातिगत भेदभाव कोई नई बात नहीं है. आएदिन देश के अलगअलग इलाकों में दलितों से छुआछूत रखने और उन पर जोरजुल्म करने की घटनाएं होती रहती हैं.
आज भी गांवकसबों के सामाजिक ढांचे में ऊंची जाति के दबंगों के रसूख और गुंडागर्दी के चलते दलित और पिछड़े तबके के लोग जिल्लतभरी जिंदगी जी रहे हैं.
गांवों में होने वाली शादी में दलितों व पिछडे़ तबके को खुले मैदान में बैठ कर खाना खिलाया जाता है और खाने के बाद अपनी पत्तलें उन्हें खुद उठा कर फेंकनी पड़ती हैं.
टीचर मानकलाल अहिरवार बताते हैं कि गांवों में मजदूरी का काम दलित और कम पढ़ेलिखे पिछड़ों को करना पड़ता है. दबंग परिवार के लोग अपने घर के दीगर कामों के अलावा अनाज बोने से ले कर फसल काटने तक के सारे काम करवाते हैं और बाकी मौकों पर छुआछूत रखते हैं. छुआछूत बनाए रखने में पंडेपुजारी धर्म का डर दिखाते हैं.
25 साल की होनहार लड़की काव्या यों तो गांव में पलीबढ़ी, पर अपनी पढ़ाई के बलबूते वह बैंक में क्लर्क सिलैक्ट हो गई और उस की पोस्टिंग इंदौर में हो गई.
इंदौर में नौकरी करते वह अपने साथ बैंक में काम करने वाले हमउम्र लड़के की तरफ आकर्षित हुई. वह लड़का भी उसे चाहता था.
काव्या ने घर में बिना बताए उस लड़के से शादी कर ली. वह जानती थी कि उस के मातापिता शादी करने की इजाजत हरगिज नहीं देंगे, क्योंकि वह लड़का दलित जाति का था.
देरसवेर इस बात की जानकारी गांव में रहने वाले मातापिता को लग ही गई. इस बात को ले कर वे काफी आगबबूला हो गए और इंदौर पहुंच कर तुरंत ही काव्या को गांव ले आए.
घर में काव्या को दलित लड़के से शादी करने की बात को ले कर इतना टौर्चर किया गया कि उस ने फांसी लगा कर खुदकुशी कर ली.
साल 2024 के मार्च महीने में मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले से आई इस खबर ने साबित कर दिया है कि समाज में छुआछूत आज भी बदस्तूर जारी है. किस तरह पढ़ेलिखे गांव के मातापिता ने अपने ?ाठे मानसम्मान के लिए अपनी बेटी की खुशियां ही छीन लीं.
गांवकसबों और छोटे शहरों में आज भी लड़की को यह हक नहीं है कि वह अपनी मरजी और पसंद के लड़के से शादी कर सके. दूसरी जाति और धर्म में शादी करने पर परिवार और समाज के बहिष्कार का सामना करना पड़ता है और कई बार तो जान से हाथ भी धोना पड़ता है.
गांवकसबों में छुआछूत का आलम यह है कि दलितों के महल्ले, बसावट अलग हैं. इन के पानी पीने के नल और मंदिर तक अलग हैं. भूल से भी इन्हें ऊंची जाति के लोगों के नल को छूने और उन के मंदिर में घुसने की इजाजत नहीं है.
अपने चुनावी फायदे के लिए केंद्र और राज्य सरकारें दलितों को साधने के लिए भले ही करोड़ों रुपए खर्च कर संत रविदास का मंदिर बनवा रहे हों, लेकिन देश के ग्रामीण अंचलों में आज भी दलितों को छुआछूत का सामना करना पड़ रहा है.
मध्य प्रदेश सरकार गांवकसबों में छुआछूत मिटाने के लिए भले ही ‘स्नेह यात्राएं’ निकाले, गांधी जयंती पर ‘समरसता’ भोज कराए, मगर गरीब और दलितों के लिए सामाजिक समरसता का सपना अभी भी अधूरा है, क्योंकि तमाम कोशिशों के बाद भी आज लोग अपनी छोटी सोच से बाहर नहीं आ पाए हैं.
छुआछूत का एक मामला मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में दलित औरतों के साथ सरकारी नल पर पानी भरने को ले कर पिछले साल सामने आया था.
17 अगस्त, 2023 को छतरपुर जिले के गांव पहरा के गौरिहार थाना क्षेत्र के पहरा चौकी की रहने वाली 2 औरतें गांव में पानी की कमी के चलते एक सरकारी नल पर पानी भरने गई हुई थीं.
यह नल गांव के यादव परिवार के घर के सामने लगा हुआ था. जैसे ही इन उन औरतों ने पानी भरने के लिए बरतन हैंडपंप के नीचे रखा और नल चलाना शुरू किया, तभी वहां मंगल यादव, दंगल यादव और देशराज यादव आ गए और उन के बरतन फेंकते हुए कहा, ‘तुम दलित जाति की हो, तुम ने हमारे इलाके के इस नल को कैसे छुआ? तुम्हारे छूने से नल अशुद्ध हो गया.’
सरकारी नल पर पानी भरने गई दलित औरतों संदीपा और अभिलाषा ने जब उन से मिन्नतें करते हुए कहा, ‘हमारे घर में पानी नहीं है. पानी के बिना खाना भी नहीं बना है, बच्चे भूख से बेचैन हैं.’
इस बात पर हमदर्दी दिखाने के बजाय इन दबंगों ने मारपीट शुरू कर दी. अपने साथ हुई मारपीट की शिकायत करने पुलिस थाना पहुंची इन दोनों औरतों को पुलिस ने भी दुत्कार दिया.
छुआछूत से जुड़ी यह कोई अकेली घटना नहीं है. मध्य प्रदेश के अलगअलग इलाकों में इस तरह की घटनाएं आएदिन होती रहती हैं. कभी स्कूलों में दलित बच्चों के जूठे बरतन धोने से मना किया जाता है, तो कभी उन्हें धर्मस्थलों पर घुसने नहीं दिया जाता.
छुआछूत से जूझते हैं लोग
60 साल की उम्र पार कर चले लोगों की पीढ़ी ने छुआछूत का जो रूप समाज में देखा था, उसे उन्होंने उस समय के हालात के लिहाज से सहज तरीके से अपना लिया था, मगर मौजूदा दौर की नौजवान पीढ़ी को यह नागवार गुजरता है.
72 वसंत देख चुके डोभी गांव के सालक राम अहिरवार बताते हैं कि आजादी मिलने के बाद देश से अंगरेज भले ही चले गए थे, मगर गांव में रहने वाले ऊंची जाति के जमींदारों का जुल्म कम नहीं हुआ था. दलित तबके का कोई भी इन जमींदारों की हवेली के सामने से गुजरता था, तो अपने पैर के जूतों को सिर पर रख कर निकलता था.
दलितों के बेटों को शादी में घोड़ी पर चढ़ने की मनाही थी. गांव के ऊंची जाति के लोग उन्हें शादीब्याह में बुलाते तो थे, मगर भोजन उन्हें जमीन पर बैठ कर करना होता था और अपनी पत्तल खुद ही फेंकनी पड़ती थी. पीने के लिए घर से पानी भर कर ले जाना पड़ता था.
उस दौर की पीढ़ी को यह बुरा भी नहीं लगता था. वक्त बदलने के साथ जब आज की नौजवान पीढ़ी पढ़लिख कर पुराने रिवाजों को नहीं मानती, तो टकराव के हालात बनते हैं और दलितों को जोरजुल्म का सामना करना पड़ता है.
मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड इलाके में हर साल दलितों के घुड़चढ़ी करने और बरात में डीजे बजाने पर ?ागड़ा होता है.
पढ़ीलिखी नई पीढ़ी इन दकियानूसी रिवाजों को नहीं मानती. गांवकसबों में आज शादियों में बफे सिस्टम तो लागू हो गया है, मगर दलित समुदाय के लिए अलग काउंटर बनाए जाते हैं, उन्हें ऊंची जाति के लोगों के साथ दावत करने की आजादी आज भी नहीं है.
ऐसा नहीं है कि दलितों से छुआछूत बिना पढ़ेलिखे लोगों या गांवकसबों तक सीमित है, बल्कि पढ़ेलिखे लोग भी इसे बदस्तूर अपना रहे हैं.
2 साल पहले मध्य प्रदेश के एक मंत्री, जो दलित समुदाय से आते थे, भी ऊंची जाति के लोगों से छुआछूत के शिकार हुए थे.
दरअसल, वे मंत्री ठाकुरों के परिवार में मातमपुरसी के लिए गए थे. वहां और भी ऊंची जाति के नेता मौजूद थे. जब खानेपीने की बारी आई, तो ऊंची जाति के दूसरे लोगों को स्टील की थाली में खाना परोसा गया और दलित समुदाय से आने वाले मंत्री को डिस्पोजल थाली परोसी गई थी.
समाज में छुआछूत के लिए धर्म और मनुवादी व्यवस्था भी जिम्मेदार है. मनुवादियों ने अपने फायदे के लिए वर्ण व्यवस्था लागू की. ब्राह्मणों ने अपने को श्रेष्ठ साबित कर समाज को 4 वर्णों में बांटा और शूद्रों को उन के मौलिक अधिकारों से दूर रखा. उन्हें शिक्षा का अधिकार नहीं दिया गया. इस के पीछे की वजह भी यही थी कि ये लोग पढ़लिख कर काबिल न बन सकें. यही वजह रही कि दलितों ने धर्म परिवर्तन का रास्ता अपनाया.
स्कूलकालेज भी नहीं अछूते
राष्ट्र निर्माण की शिक्षा देने वाले सरकारी संस्थान भी छुआछूत को खत्म नहीं कर पा रहे हैं. ‘ऐजूकेशन मौल’ कहे जाने वाले इंगलिश मीडियम प्राइवेट स्कूलों में सरकारी अफसरों और ऊंची जाति के पैसे वाले लोगों के बच्चे पढ़ रहे हैं और सरकारी स्कूलों में गरीब, मजदूर, दलितपिछड़े तबके के बच्चे पढ़ रहे हैं.
सरकारी स्कूलों में दिए जाने वाले मिड डे मील में भी दलित और ऊंची जाति के छात्रछात्राओं के बीच गुटबाजी देखने को मिलती है.
स्कूल में ऊंची जाति के बच्चे दलित और पिछड़ी जाति के बच्चों के साथ भोजन करना पसंद नहीं करते. उन्हें यह सीख अपने घर से तो मिलती ही है, टीचर भी इस खाई को नहीं पाट रहे.
अगर कोई दलित जाति की महिला भोजन बना कर परोसती है, तब भी ऊंची जाति के बच्चे वह भोजन नहीं करते. अगर कोई ऊंची जाति की रसोइया खाना बनाती है, तो वह दलित बच्चों के जूठे बरतन नहीं धोती.
साल 2022 में मध्य प्रदेश के जबलपुर जिले से 50 किलोमीटर दूर चरगवां थाना क्षेत्र से सटे गांव सूखा में दलित बच्चों से सरकारी स्कूल में खाने के बरतन धुलवाए जाने का मामला सामने आया था.
इसी साल गुजरात के मोरबी जिले के एक गांव में प्राइमरी स्कूल में मिड डे मील का खाना पिछड़े समुदाय के छात्रों ने इसलिए नहीं खाया, क्योंकि यह दलित औरत द्वारा बनाया गया था
मिड डे मील बनाने वाली दलित महिला गरमी की छुट्टियों के बाद जब स्कूल पहुंची, तो प्रिंसिपल ने 100 बच्चों के लिए खाना बनाने के लिए कहा, लेकिन एससी जाति के केवल 7 बच्चे ही भोजन के लिए पहुंचे. दूसरे दिन प्रिंसिपल ने 50 बच्चों के लिए खाना बनाने को कहा, जिसे सिर्फ दलित बच्चों ने ही खाया.
साल 2023 में कर्नाटक के तुमकुरु जिले से बेहद ही हैरान कर देने वाला मामला सामने आया था. सिरा तालुका के नरगोंडानहल्ली सरकारी स्कूल में कुछ बच्चों ने मिड डे मील के भोजन का बहिष्कार कर दिया था, जिस की वजह भी एक दलित महिला द्वारा भोजन पकाया जाना थी.
छुआछूत की समस्या स्कूलों में नासमझ बच्चों के बीच ही नहीं, बल्कि भविष्य गढ़ने वाले टीचरों के बीच भी है. लंच टाइम में ऊंची जाति के टीचर भी दलित जाति के टीचरों के साथ लंच बौक्स शेयर करना पसंद नहीं करते. स्कूल के अलावा दूसरे दफ्तरों में भी उन के साथ जातिगत भेदभाव किया जाता है.
दलित जाति के चपरासी से दफ्तरों में झाड़ू लगाने और शौचालय साफ करने का काम करवाया जाता है, मगर उन के हाथ से खानेपीने की चीज और पानी नहीं मंगाया जाता.
जातियों में बंट गए देवीदेवता
जिस तरह समाज जातियों में बंटा हुआ है, उसी तरह उन्होंने देवीदेवता को भी बांट लिया है. पंडितों ने परशुराम को, कायस्थों ने चित्रगुप्त को, तो यादवों ने कृष्ण को ले लिया. कुशवाहा ने कुश से संबंध जोड़ लिया, कुर्मियों ने लव को पकड़ लिया, तो कहारों ने जरासंध को अपना पूर्वज बता दिया. लोहारों ने विश्वकर्मा के साथ संबंध जोड़ लिया.
दलितों की एक जाति ने वाल्मीकि से अपना नाता जोड़ा, तो एक तबका रैदास को भगवान मानने लगा. कुम्हारों ने अपना संबंध ब्रह्मा से बता दिया. तमाम जातियों को कोई न कोई देवता या कुलदेवता या ऋषि पूर्वज के तौर पर मिल गए.
ऊंची जाति के लोगों से हुई बेइज्जती से छुटकारा पाने का ये इन जातियों का अपना तरीका था. शूद्र और अतिशूद्र होने की बेइज्जती से छुटकारा पाने के लिए उन्होंने देवीदेवताओं का ढाल बना लिया. यह जाति व्यवस्था से विद्रोह भी था और ऊंची जातियों की तरह बनने की लालसा भी थी.
अमीर ऊंची जाति वालों की होड़ में दलितों ने भी अपनेअपने देवीदेवताओं के मंदिर बना लिए, मगर पुजारी की कुरसी उन की जेब ढीली करने वाले पंडितों के हाथ में ही रही.
‘गुलामगिरी’ किताब से सबक लें सरकार हिंदूमुसलिम का भेद करा कर कट्टरवादी हिंदुत्व की हिमायती तो बनती है, पर हिंदुओं के बीच ही जातिवाद की दीवार तोड़ने और दलितपिछड़े तबके के लोगों पर दबंग हिंदुओं के द्वारा किए जाने वाले जोरजुल्म पर चुप्पी साधे रहती है.
मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के पेशे से वकील मनीष अहिरवार कहते हैं कि एक इनसान का दूसरे इनसान के साथ गुलामों सरीखा बरताव करना सभ्यता के सब से शर्मनाक अध्यायों में से एक है. लेकिन अफसोस है कि यह शर्मनाक अध्याय दुनियाभर की तकरीबन सभी सभ्यताओं के इतिहास में दर्ज है. भारत में जाति प्रथा के चलते पैदा हुआ भेदभाव आज तक बना हुआ है.
वे आगे कहते हैं कि एक बार ज्योतिबा फुले की किताब ‘गुलामगिरी’ पढ़ लें, तो उन की आंखों के चश्मे पर पड़ी धूल साफ हो जाएगी. साल 1873 में लिखी गई इस किताब का मकसद दलितपिछड़ों को तार्किक तरीके से ब्राह्मण तबके की उच्चता के ?ाठे दंभ से परिचित कराना था.
इस किताब के जरीए ज्योतिबा फुले ने दलितों को हीनताबोध से बाहर निकल कर इज्जत से जीने के लिए भी प्रेरित किया था. इस माने में यह किताब काफी खास है कि यहां इनसानों में भेद पैदा करने वाली आस्था को तार्किक तरीके से कठघरे में खड़ा किया गया है.
दलितपिछड़ों की हमदर्द बनने का ढोंग करने वाली सरकारें पीडि़त लोगों को केवल मुआवजे का झनझना हाथों में थमा देती हैं. सामाजिक, मानसिक, शारीरिक और आर्थिक रूप से दलितों का उत्पीड़न कर बाद में केवल मुआवजा दे कर उन के जख्म नहीं भर सकते. ऐसे में किस तरह यह उम्मीद की जा सकती है कि आजादी के
77 साल बाद भी अंबेडकर के संविधान की दुहाई देने वाला भारत छुआछूत से मुक्त हो पाएगा?
जिस तरह किसान आंदोलन ने सरकार की गलत नीतियों का विरोध कर के सरकार को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था, उसी तरह दलितपिछड़ों को भी अपने हक की लड़ाई लड़ने के लिए एकजुट होना होगा.