Editorial: वक्फ कानून पर राजनीति – असली मुद्दों से ध्यान हटाने की चाल?

Editorial: वक्फ कानून बनवा कर भारतीय जनता पार्टी एक अच्छा काम कर रही है. लोगों को लगातार लड़वा कर तमाशा दिखवा रही है. जब नौकरियां न हों, बिजली न हो, सड़कें न हों, अस्पताल में डाक्टर व दवाएं न हों, स्कूलों में टीचर न हों, हवा में सुगंध न हो, पीने को पानी न हो तो सब से अच्छा है कि किन्हीं 2 गुटों में लड़ाई करा दो ताकि लोग या तो लड़ कर या फिर तमाशा देख कर अपने दुखों को भूल जाएं.

वक्फ बिल का मकसद यही है कि हिंदूमुसलिम झगड़ा चालू रहे, हिंदू मंदिरों में जाते रहें. मुसलिम मसजिदों में जाते रहें और बाहर आ कर रोजीरोटी की चिंता न कर के एकदूसरे की बोटी नोंचने लगें.

वक्फ कानून मुसलमानों पर लागू होता है तो इस के सुधार की मांग मुसलमानों की ओर से आनी चाहिए न कि हिंदू धर्म की ठेकेदारी कर रही भारतीय जनता पार्टी की तरफ से. 85 फीसदी हिंदुओं के मुकाबले 15 फीसदी मुसलमानों को हिंदू सरकार का बनाया कानून तो मानना होगा क्योंकि यह हमेशा होता आया है कि राज्य का हुक्म हर जने को मानना होता था चाहे बसेबसाए घर को उजाड़ने का हुक्म हो या अपने बच्चों को राजा की सेना में सौंप देने का.

वक्फ मुसलमानों की दान या मरने के बाद बची जमीनजायदाद का सारे समाज के लिए संभालने के लिए बने थे. यह इसलाम को घरघर तक पहुंचाने की एक तरकीब भी थी कि लोग अपनी खुद की जायदाद न बनाएं और यह कुछ इसलाम के पहरेदारों के हाथों में चली जाए. इस में जबरन जमीनजायदाद कितनी ले ली जाती थी मरजी से दी गई कितनी होती थी, इस का सही अंदाजा नहीं लग सकता पर इस में घोटाले जम कर होते रहे हैं, यह पक्का है.

हिंदू नेताओं की इस जायदाद पर नजर बहुत सालों से है क्योंकि अब वे सोचते हैं कि सरकार उन की तो जमीनजायदाद भी उन की ही होनी चाहिए. सही है जिस के हाथ में लाठी उसी की भैंस होगी. डैमोक्रेसी में
कानून ने कुछ हाथ बांधने की कोशिश की थी. भाजपा लगातार कानूनों को बदल रही है कि संसद जिस की कानून उस का.

वक्फ कानून से जो फर्क पड़ेगा, पड़ेगा पर हिंदूमुसलिम दीवार और ऊंची ही जाएगी. मुसलमानों को यह पक्का होने लगेगा कि इस देश में उन की संपत्ति पर भी नजर है और कब कौन सा कानून बन जाए जो उन के हक छीन ले, पता नहीं. भाजपा तो हिंदुओं के हक भी नहीं छोड़ रही. किसान कानून इसीलिए बनाए गए थे. यह तो किसानों की हिम्मत थी कि उन्होंने सालभर तक लड़ कर वापस करा लिए.

मुसलमानों में तो यह हिम्मत भी नहीं बची क्योंकि उन्होंने जरा सा मुंह खोला नहीं कि उन पर देशद्रोही का चार्ज लगा कर जेल में बंद कर दिया जाएगा और बरसों तक अदालतें मामला सुनेंगी भी नहीं.

वक्फ कानून सिर्फ और सिर्फ मुसलमानों को डराने के लिए बनाया गया है. इस से देश को कोई फायदा नहीं होगा. इस से देश की इनकम नहीं बढ़ेगी. इस से शांति नहीं होगी. हां, इस से भाजपा के वोटों की गिनती बढ़ जाएगी कि देखो जिन्होंने हम पर 1,000 साल राज किया उन की संतानों का हक हम कम कर रहे हैं, इसलिए वोट हमें ही देना.

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गरीबों के बच्चे अपने मैलेकुचैले कमरों में भी सेफ नहीं हैं. जैसेजैसे अमीरों के यहां बच्चे कम होते जा रहे हैं, गरीबों की झुग्गियों से नए पैदा बच्चे उठा कर ले जाने और बेचने का धंधा चमकना शुरू हो चुका है. बिना औलाद वाले लाखों दे कर छोटा बच्चा खरीद रहे हैं और फिर शायद नकली बर्थ सर्टिफिकेट बनवा कर अपना जायज बच्चा बना कर पाल रहे हैं.

अब चूंकि गरीबों के बच्चे भी कम ही हो रहे हैं, हर खोए या चुराए बच्चे पर खासा हल्ला मचता है और पुलिस का मामला बनता है. पहले खोए बच्चे को खोया पालतू जानवर मान कर भुला दिया जाता था. पुलिस कुछ मामलों में तो उठाने वालों को पकड़ ही लेती है.

अब यह धंधा शहरों, राज्यों के बीच चलने लगा है. धंधा करने वाले असली खरीदार की इच्छा के हिसाब से गोरा, काला, लड़का, लड़की उठाते हैं और लाखों में बेचते हैं. जहां मांग होती है, पैसा होता है वहां सप्लाई तो हो ही जाती है और हो सकता है कि यह धंधा इतना जोर पकड़ने लगे कि लोगों को गरीबी के बावजूद अपने बच्चे को सेफ रखने के बीसियों तरीके अपनाने पड़ें.

अमीर घरों में लड़कियों को पहले अपने कैरियर की पड़ी रहती है और जब तक एहसास होता है कि वे अकेले पड़ रहे हैं, बच्चे पैदा करने की नई टैक्नोलौजी आने के बावजूद, बच्चा नहीं होता. अनाथालयों में अब बच्चे कम आते हैं और वहां से बच्चा पाना मुश्किल काम होता है और फिर जीवनभर उस बच्चे पर गोद लिए होने का ठप्पा लगा रहता है.

चुराए गए बच्चे को अपना बना कर उस को पालना अब आसान है. डौक्यूमैंट्स नकली बनवाना आसान है क्योंकि इन की जरूरत सिर्फ स्कूल के एडमिशन के समय पड़ती है. कुछ लोग किसी छोटे शहरगांव में भी रजिस्टर करा कर बच्चे को अपना घोषित कर सकते हैं. कभीकभार ही डीएनए टैस्ट की जरूरत होती है और हर मामले में डीएनए टैस्ट सही साबित हो यह जरूरी नहीं. जो चालाक होंगे वे डीएनए टैस्ट भी नकली बनवा कर रख लेंगे.

इस मांग को पूरी करने के लिए अब पूरी तरह से गैंग बन चुके हैं और पूरे देश में काम कर रहे हैं. बिना पेट में रखे बच्चा मिल जाए तो कहना क्या? अमीर लोग तो कुत्तों को अपना लेते हैं और उन से अपने बच्चों की तरह बात करते हैं, वे गरीब के चुराए बच्चे को न सिर्फ अपना लेंगे उसे प्यार भी देंगे और पैसा भी देंगे.

गरीबों का बच्चा खोया था, उस का मलाल उन्हें कभी न होगा क्योंकि उन के मन में तो होगा कि उन्होंने बच्चे की पूरी कीमत दी है, उसे फिर गलत क्यों समझा जाए.

अगर चोरी से लाए गए बच्चों पर कोई समय से कानून बना तो जरूर मुश्किल होगी पर उस में भी दिक्कत होगी कि चोरी के 5-7 साल बाद अगर बच्चे को पालने वालों से अलग करने की कोशिश की गई तो यह उस की सेहत पर बुरा असर डालेगा. बच्चे को तो कभी भी समझ नहीं थी कि उस के साथ क्या हो रहा है. वह तो उसे मां मानेगा जो उस को खाना खिलाती है, उसे पिता मानेगा, जो उस के साथ खेलेगा.

गरीबों को बच्चे पैदा करने वाली मशीन मान लेना अमीरों की आदत बन सकती है जैसे उन्होंने मेड्स को बच्चों को पालने वाली मशीनें बना दी हैं. आज सैकड़ों नहीं लाखों बच्चों को असल में उन को जन्म देने वाली मांएं नहीं मेड्स पाल रही हैं. किराए की कोख यानी सरोगेट मदर्स का धंधा भी चमक रहा है. इसी तरह चुराए बच्चों का धंधा भी चमकेगा यह पक्का है.

धार्मिक माहौल का बढ़ता दबदबा

पिछले कुछ सालों से खासकर कोरोना महामारी के तांडव के बाद दुनिया में एक बहुत बड़ा बदलाव आया है. यह बदलाव कोरोना से जीत हासिल करने की खुशी नहीं है, बल्कि पूरी दुनिया में धर्म का असर साफतौर पर दिखने लगा है. इस की सब से बड़ी वजह हताशा है. तमाम उदाहरण ऐसे हैं, जिन से पता चलता है कि हताशा में घिरा इनसान धर्म की शरण में चला जाता है.

एक समय था, जब कोरोना महामारी के चक्रव्यूह से बाहर निकलने का कोई रास्ता दिख नहीं रहा था. भारत में थाली बजाने, दीपक जलाने, ताली बजाने जैसे कामों के साथ ‘गो कोरोना गो’ जैसा माहौल बनाया गया. हताशा का माहौल यह था कि गिलोय जैसे खरपतवार का इतना ज्यादा इस्तेमाल हुआ कि बाद में इस के असर से पेट की तमाम बीमारियां हो गईं.

रामदेव ने अपनी एक दवा पेश की, जिस के बारे में कहा कि यह उन लोगों को भी फायदा देगी, जिन्हें कोरोना हो गया है और उन को भी कोरोना से बचाएगी, जिन्हें कोरोना नहीं हुआ है.

दुनिया में कोई ऐसी दवा नहीं होती, जो बचाव और इलाज दोनों करे. बुखार की दवा इलाज कर सकती है, लेकिन लक्षण दिखने के पहले इस का इस्तेमाल किया जाए तो वह बुखार को रोक नहीं सकती. बीमारी को रोकने के लिए अलग दवा का इस्तेमाल होता है और इलाज के लिए दूसरी दवा का इस्तेमाल होता है.

रामदेव ने अपनी दवा की खासीयत बताई कि वह बचाव और इलाज दोनों करेगी. हताशा में फंसे लोगों ने इस पर यकीन भी कर लिया.

कोरोना के बाद कई तरह की रिसर्च बताती हैं कि कोरोना की हताशा ने लोगों के मन में धर्म का असर बढ़ाने का काम किया. कोरोना के दौरान पूजास्थल भले ही बंद थे या सीमित कर दिए गए थे, लेकिन लोगों की धर्म के प्रति भावना बढ़ी थी.

नाकामी में फंसे लोग ज्यादा धार्मिक

भारत में इस बीच लोगों में धर्म का असर काफी बढ़ गया. धर्म का ही असर था कि लोगों में दानपुण्य की चाहत बढ़ गई. इस के अलगअलग रूप देखने को मिले. भूखे को खाना और प्यासे को पानी पिलाना पुण्य का काम माना जाता है. लोग मंदिरों के दर्शन के साथ ही साथ इन कामों में लग गए, जहां सामान्य दिनों में खानापानी बेचने का काम होता था.

कोरोना में लोग मुफ्त यह काम करने लगे. उन के मन में यह डर था कि कोरोना में जिंदगी रहेगी या नहीं, कुछ पता नहीं. ऐसे में सेवा कर के पुण्य कमा सकते हैं. डाक्टर, दवाएं और पैसा होते हुए भी लोगों की जान जा रही थी. इस हताशा भरे दौर में उस की आस्था ही सहारा बन रही थी. कुंडली दिखाना, हाथों की उंगली में रत्न पहनना, जादूटोना कराना ऐसे तमाम जरीए हैं, जिन से लोग अपनी हताशा से बाहर निकलने का काम करते हैं.

मंदिरों में जाने वाले ज्यादातर लोग वे हैं, जो कुछ न कुछ मांगने जाते हैं. आज का नौजवान तबका इतना धार्मिक इसलिए होता जा रहा है, क्योंकि उस के पास नौकरी नहीं है, काम करने के लिए नहीं है. आपस में होड़ बढ़ गई है.

पड़ोसी का बच्चा सरकारी नौकरी पा गया, तो उस का अलग दबाव बढ़ जाता है. वह निराश भाव से धर्म की शरण में जाता है. तमाम मंदिर ऐसे हैं, जिन के बारे में कहा जाता है कि यहां मनौती मांगने से चाहत पूरी होती है.

मुकदमा चल रहा हो तो लोग यहां आते हैं, बीमार हैं तो मनौती मांगने आते हैं कि बीमारी ठीक हो जाए. हर काम की आस धर्म, पूजा, मंदिर पर टिकी होती है.

बड़ेबड़े अमीर लोग भी अपनी दुकान के आगे नीबूमिर्ची लगवाते हैं, जिस से उन की दुकान पर किसी की नजर न लगे.

डाक्टरों के आपरेशन थिएटर में भगवान की मूर्ति या फोटो होती है. ड्राइवर अपनी गाड़ी के आगे भगवान की मूर्ति रखते हैं, जिस से कोई हादसा न हो.

धर्म और आस्था ने इतनी गहराई तक पैठ बना ली है कि हताशा और निराशा का इलाज कराने के लिए मैंटल हैल्थ वाले अस्पताल और डाक्टर के पास इलाज की जगह पूजापाठ और मंदिरों में जाते हैं. वे दवा की जगह अंगूठी और रत्नों में इलाज खोजने लगते हैं.

जैसेजैसे बेरोजगारी बढ़ेगी, कामधंधे नहीं होंगे, बीमारियां बढ़ेंगी, मुकदमे झगड़े होंगे, हताशा और निराशा बढ़ेगी, वैसेवैसे लोग धर्म के प्रति आस्था की ओर लोग धकेले जाएंगे. निराशहताश लोगों को यही हल दिखाई देगा. वे मंदिरमंदिर भटकेंगे और भगवान से आशीर्वाद में अपनी और अपने परिवार की तरक्की मांगेंगे.

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