Raksha Bandhan 2022: स्लीपिंग पार्टनर- मनु की नजरों में अनुपम भैया

पूर्व कथा

मनु को एक दिन पत्र मिलता है जिसे देख कर वह चौंक जाती है कि उस की भाभी यानी अनुपम भैया की पत्नी नहीं रहीं. वह भैया, जो उसे बचपन में ‘डोर कीपर’ कह कर चिढ़ाया करते थे.

पत्र पढ़ते ही मनु अतीत के गलियारे में भटकती हुई पुराने घर में जा पहुंचती है, जहां उस का बचपन बीता था, लेकिन पति दिवाकर की आवाज सुन कर वह वर्तमान में लौट आती है. वह अनुपम भैया के पत्र के बारे में दिवाकर को बताती है और फिर अतीत में खो जाती है कि उस की मौसी अपनी बेटी की शादी के लिए कुछ दिन सपरिवार रहने आ रही हैं. और सारा इंतजाम उन्हें करने को कहती हैं.

आखिर वह दिन भी आ जाता है जब मौसी आ जाती हैं. घर में आते ही वह पूरे घर का निरीक्षण करना शुरू कर देती हैं और पूरे घर की जिम्मेदारी अपने हाथों में ले लेती हैं. पूरे घर में उन का हुक्म चलता है.

बातबात पर वह अपनी बहू रजनी (अनुपम भैया की पत्नी) को अपमानित करती हैं, जबकि वह दिनरात घर वालों की सेवा में हाजिर रहती है और मौसी का पक्ष लेती है. एक दिन अचानक बड़ी मौसी, रजनी को मनु की मां के साथ खाना खाने पर डांटना शुरू कर देती है तो रजनी खाना छोड़ कर चली जाती है. फिर मनु की मां भी नहीं खाती. मौसी, मां से खाना न खाने का कारण पूछती है,

और अब आगे…

मां की आवाज भर्रा गई थी, ‘दीदी, मेरी रसोई से कोई रो कर थाली छोड़ कर उठ जाए, तो मेरे गले से कौर कैसे उतरेगा?’

‘पागल है तू भी, उस की क्या फिक्र करनी, वह तो यों ही फूहड़ मेरे पल्ले पड़ी है, मैं ही जानती हूं कि कैसे इसे निभा रही हूं.’

शादी के दिन पास आते जा रहे थे. मां ने मुझे सब के कपड़े एक अटैची में रखने को कहा तो मैं बक्सों की कोठरी में कपड़े छांटने के लिए बैठ गई. कोठरी से लगा हुआ बड़ा कमरा था. अनजाने ही मेरे कानों में फुसफुसाहट के स्वर आने लगे.

प्रमिला दीदी का दांत पीसते हुए स्वर सुनाई पड़ा, ‘बड़ी भली बनने की कोशिश कर रही हो न? सब जानती हूं मैं, मौसी तो गुस्से से आग हो रही थीं, क्यों सब के सामने बेचारी बनने का नाटक करती हो, क्या चाहती हो, सब के सामने हमारी बदनामी हो? खुश हो जाओगी न तब? जबान खोली तो खींच लूंगी.’

मुझे लगा कि वहां काफी लोग खडे़ हैं, जो इस बात से अनजान हैं कि मैं वहां हूं, थोड़ा झांक कर देखने की कोशिश की तो अनुपम भैया भी वहीं खडे़ थे. एक के बाद एक आश्चर्य के द्वार मेरे सामने खुल रहे थे कि किसी घर के लोग अपनी बहू का इतना अपमान कर सकते हैं और वहीं खड़ा हुआ उस का पति इस अपमान का साक्षी बना हुआ है. छि:, घृणा से मेरा तनबदन जलने लगा पर मैं वहां से उठ कर बाहर आने का साहस नहीं जुटा सकी और घृणा, क्रोध, आक्रोश की बरसात उस एक अकेली जान पर न जाने कब तक चलती रहती अगर तभी निर्मला दीदी न आ गई होतीं.

‘क्या हो गया है तुम सब को? वहां मेरे सासससुर ने अगर इस झगडे़ की जरा सी भी भनक पा ली तो मेरा ससुराल में जीना मुश्किल हो जाएगा. इन्हें पहले से ही समझाबुझा कर लाना चाहिए था मां, अब तमाशा करने से क्या फायदा?’

सब चुपचाप कमरे से चले गए थे. यह सोच कर मैं अंदर के कमरे से बाहर निकल आई, पर रजनी भाभी वहां अभी भी आंसू बहाती बैठी हैं, यह मुझे पता नहीं था. अचानक मुझे देख कर वह चौंक उठीं. कोई एक जब उन के इतने अपमान का साक्षी बन गया, यह उन की सोच से बाहर की बात थी. ‘आप? आप कहां थीं दीदी.’

पर मेरा सवाल दूसरा था, ‘क्यों सहती हैं आप इतना?’

‘क्या?  सहना कैसा? मैं तो हूं ही इतनी बेककूफ, क्या करूं? मुझ से अपने बच्चे तक नहीं संभलते. अम्मांजी जैसी होशियार तो बहुत कम औरतें होती हैं, पर छोडि़ए, यह सब तो चलता ही रहता है, कह कर वह बाहर निकल गईं.

आज की घटना ने मुझे पूरी तरह झकझोर दिया था. बारबार मन में यह सवाल उठ रहा था, छि:, इतने बडे़ शहर के लोग, और इतनी संकीर्ण सोच?

सब से ज्यादा खीज मुझे अनुपम भैया पर आ रही थी, उन का स्वभाव घर के सब सदस्यों से अलग था. कभी वह रसोई में व्यस्त मां को बाहर बैठा कर गप्पें मारने लगते. मेरी तो हरपल की उन्हें खबर रहती. अचानक ही कहीं से आ कर मेरे सिर पर स्नेह से हाथ रख देते, ‘चाय पिएगी? या खाना नहीं खाया अभी तक, चल साथसाथ खाएंगे.’

मेरा ही मन अनुपम भैया से ज्यादा बात करने को नहीं होता. यही लगता कि जो आदमी दूसरों से अपनी पत्नी को अपमानित होते हुए देखता रह सकता है वह कैसे एक अच्छा इनसान हो सकता है. पर वह सचमुच एक अच्छे इनसान थे, जो व्यस्त रहने के बावजूद समय निकाल कर अपने उपेक्षित पिता से भी कुछ बातें कर लेते, होने वाले प्रबंध के बारे में भी उन्हें जानकारी दे देते थे.

घर का आर्थिक ढांचा पूरी तरह चरमरा रहा था. मां किसी हद तक खुद को ही दोषी मान रही थीं पर वह अपनी कृष्णा बहन से कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं थीं. जिंदगी में संघर्षों को झेलते हुए मौसी इतनी कठोर हो गई थीं कि मां की भावुकता और संवेदनशीलता को वह बेकार की सोच समझती थीं.

शादी के स्थान और बाकी सबकुछ का प्रबंध बाबूजी से उन के बेटों ने समझ लिया था और पूरी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी. अब यहां पर बाबूजी एक महत्त्वहीन मेहमान बन कर रह गए थे. मां को तो यहां आ कर भी रसोई से मुक्ति नहीं मिली थी और हम भाईबहन अपने में ही व्यस्त रहने लगे थे.

बहुत हिम्मत कर के एक दिन मैं ने अनुपम भैया को तब पकड़ लिया जब वह अपनी छिपी हुई बिटिया को ढूंढ़ते हुए हमारे कमरे में आ गए थे. मुझे देख कर खुश हो गए और बोले, ‘अब प्रमिला की शादी से छुट्टी पा कर तेरे लिए देखता हूं कोई अच्छा लड़का…’

‘मुझे नहीं करनी शादीवादी,’ गुस्से से भड़क उठी मैं.

चेहरे पर बेहद हैरानी का भाव आ गया, फिर नकली गंभीरता दिखाते हुए बोले, ‘हां, ठीक है…मत करना, वैसे भी तेरी जैसी लड़की के लिए लड़का ढूंढ़ना होगा भी खासा मुश्किल काम.’

‘मुझ से फालतू बात मत कीजिए, मैं आप से कुछ गंभीर बात करना चाहती हूं, मुझे यह बताइए कि आप रजनी भाभी के साथ ऐसा व्यवहार क्यों करते हैं?’ मैं जल्दीजल्दी उन से अपनी बात कह देना चाहती थी.

‘कैसा व्यवहार?’

‘मुझ से मत छिपाइए, क्यों, आप के सामने ही सब आप की पत्नी की इस तरह बेइज्जती करते हैं, क्या उन के लिए आप की कोई जिम्मेदारी नहीं है? मौसी तो खैर बड़ी हैं, उन का सम्मान करना आप का कर्तव्य है, पर आप से छोटे अजय भैया, सुधीर भैया और प्रमिला दीदी भी जब चाहें उन्हें डांटफटकार देती हैं. क्या वह कोई नौकरानी हैं?’ मेरा चेहरा गुस्से से लाल हो रहा था.

वह कुछ देर तक मुझे गौर से देखते रहे, ‘लगता है, बड़ी हो गई है मेरी नन्ही- मुन्नी बहन.’

‘बात को टालिए मत…’ मैं ने बीच में ही बात काट कर कहा.

‘तेरी बात का क्या जवाब दूं, यही सोच रहा हूं. आज तक किसी ने उस के और मेरे मन की व्यथा को महसूस नहीं किया. धीरेधीरे उस व्यथा पर वक्त ने ऐसी चादर डाली कि अब कुछ महसूस ही नहीं होता. आज तू ने जो सवाल पूछा है, किसी दिन उस का उत्तर ढूंढ़ सका तो जरूर दूंगा, पर इतने सारे लोगों और घर के इतने सदस्यों के होते हुए भी वह अब सुरक्षित है, तू कुछ कर सके या नहीं पर उस की तकलीफ को समझेगी यही उस के लिए बहुत बड़ी बात होगी. बस, किसी तरह उसे यह बात समझा देनी होगी…’

बाहर भैया के नाम की आवाजें लगने लगी थीं, सो वह बात को बीच में ही छोड़ कर चले गए थे…

शादी ठीकठाक तरह से बीत गई थी.

प्रमिला दीदी विदा हो कर चली गईं. उस के बाद तो जैसे जाने वालों का तांता ही लग गया. धीरेधीरे कर के सभी लोग चले गए. किसी तरह की कृतज्ञता  की उम्मीद तो उन की ओर से किसी ने की भी नहीं थी पर जातेजाते भी बाबूजी पर सब आरोप लगा ही गए. कुछ दिन तो लग गए घर के ढांचे को ठीक करने में, फिर सबकुछ स्वाभाविक गति से चलने लगा.

फिर एक दिन एक बड़ा सा लिफाफा आया, वह भी मेरे नाम. आज के दौर की लड़कियां मेरी स्थिति का अनुभव नहीं लगा सकेंगी कि संयुक्त परिवार में किसी कुंआरी लड़की के नाम का लिफाफा आना कितने आश्चर्य की बात होती है. गनीमत यह रही कि वह लिफाफा मां के हाथ लगा. नीचे का पता देख कर मां खुश हो गईं, ‘अरे, यह तो अनुपम का पत्र है पर उस ने तुझे क्यों पत्र लिखा है?’

‘जब तक मैं खोल कर पढ़ूंगी नहीं तो कैसे बता सकती हूं कि उन्होंने मुझे पत्र क्यों लिखा है.’

मेरे हाथ में लिफाफा दे कर मां अपने घरेलू कामों में व्यस्त हो गईं.

मैं भी अपनी किताब बंद कर के लिफाफा खोल कर पढ़ने लगी.

‘मनु,

ताज्जुब होगा, मेरा पत्र देख कर, पर मेरी बहन, इतने दिनों बाद बहुत सोच कर तुझे लिखने की हिम्मत जुटा पाया हूं. तेरा सवाल मुझे वहां उस व्यस्तता  में भी मथता रहा और यहां आ कर भी. उसे मन से निकाल नहीं पाया हूं. अपने इस अपराधबोध से उबरना चाहता हूं पर तुझे भी विश्वास दिलाना होगा कि मेरे मन के गुबार को किसी और तक नहीं पहुंचने देगी क्योंकि कैसी भी है वह मेरी मां हैं और मौसी मेरी मां की बहन है, जो अपनी बहन के खिलाफ कुछ भी सहन नहीं कर पाएंगी. हां, तुझे मैं वह सब बताना चाहता हूं जो आजतक मैं किसी से भी नहीं कह पाया.

अपनी मां से तू ने मेरी मां के बारे में कितना कुछ सुना है, मैं नहीं जानता पर मैं और मेरे दूसरे सभी भाईबहन उन के अंधभक्त हैं. हम सभी मां के कहे हुए कटु वचनों को भी अमृत की तरह ग्रहण करते हैं. बहुत संघर्षों और कठिनाइयों के बीच मां ने अपने परिवार को संभाला है. बाबूजी ने आर्थिक रूप से कभी कोई सहायता नहीं की इसलिए उन पर मां के आक्रोश का अंत नहीं था. घर की गरीबी का जिम्मेदार मां बाबूजी को ही मानती थीं और उन्हें नकारा, बेगैरत जैसे शब्दों से हर दम चोट पहुंचातीं, जिसे गुजरते समय के साथ बाबूजी ने ओढ़ लिया था.

बचपन से मां को कठिनाइयां झेलते देख कर ही मैं बड़ा हुआ सो मन में एक उत्साह था कि किसी लायक हुआ तो मां के साथ ही इस आर्थिक भार को अपने कंधों पर ले लूंगा. बड़ा हूं, यही मेरा कर्तव्य है, पर मेरे उत्साह पर मां ने तब पानी फेर दिया जब 10वीं करते ही भागदौड़ कर के अपनी पहुंच का पूरा इस्तेमाल कर उन्होंने मुझे एक दफ्तर में क्लर्क की नौकरी दिलवा दी.

कच्ची उम्र में इतने बड़े बोझे को संभालना मेरे लिए तो खासा मुश्किल था पर मैं ने महसूस किया कि मां किसी को भी मेरी सहायता का काम करने को कोई खास महत्त्व नहीं देना चाहती थीं. कभी कोई पड़ोसिन कहती कि अरी, काहे की चिंता करती है, अब तो तेरा बेटा कमाऊ हो गया तो झल्ला कर मां कहतीं कि तो मुझे कौन से सोने के कौर खिलाएगा, अब तक हाड़ तोड़ कर इन सब का पेट पालती आई हूं, अब भी कर लूंगी.

मैं समझ गया था कि मां अब तक अपनी आत्मप्रशंसा की इतनी आदी हो गई थीं कि अपने बेटे की प्रशंसा से उन्हें ईर्ष्या होने लगी थी. इसीलिए उन्होंने मेरा विवाह ठेठ ग्रामीण लड़की से किया ताकि कभी भी वह सिर उठा कर उन के सामने बोल न सके. अपनी सत्ता के प्रति उन की सतर्कता देख सकने में समर्थ होते हुए भी मैं उन का विरोध नहीं कर सका.

शुरू से ही उस के फूहड़पन, बेवकूफी की बातों को ले कर मां के साथ छोटे भाईबहन भी व्यंग्यपूर्वक हंसते, मजाक उड़ाते और बेवजह उस को अपमानित कर के नीचा दिखाने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देते.

मनु, मुझे शायद शुरू से ही इतना दबा कर रखा गया था कि मैं दब्बू प्रवृत्ति का हो गया. स्वभाव में किसी प्रकार की तेजी या अपने अस्तित्व का आभास मुझे था ही नहीं, फिर भी मैं ने एकआध बार अपने छोटे भाईबहनों को समझाने की कोशिश की थी पर उस का नतीजा जान कर तू चकित रह जाएगी.

मां ने सभी के सामने मुझे अपने ही छोटे भाईबहनों से माफी मांगने को मजबूर किया था, वरना वह खाने को हाथ नहीं लगाएंगी. मां खाना नहीं खाएंगी, यह बात मुझे मंजूर नहीं थी, मुश्किल से तो कोशिश की थी अपनी केंचुल से बाहर निकलने की, पर जल्दी ही फिर उसी केंचुल में घुस गया.

जिंदगी फिर उसी ढर्र्रे पर चल निकली. रजनी भी इस अपमान की आदी हो गई. मेरी विवशता को वह शायद समझ गई थी. आज घर में मेरे सभी भाईबहन अच्छे पदों पर हैं और मां इस का सारा के्रडिट गर्व से खुद ले लेती हैं. वह भूल जाती हैं कि एक कम उम्र लड़के ने भी उन के कंधे का जुआ उठाने में उन की मदद की थी या उस लड़की को जिस के योगदान का एहसास किसी को नहीं है.

एक शब्द है मनु ‘स्लीपिंग पार्टनर’ यानी वह साझीदार जिस कोएहसास ही न हो कि इस तरक्की में उस का भी कोई योगदान है और न जानने वाले जान सके कि उन्होंने उस का कितना फायदा उठाया है. सो रानी बहन, ऐसी ही है तेरी भाभी, एक ‘स्लीपिंग पार्टनर.’

तेरा भाई, अनुपम.’

मनु ने कितनी बार वह पत्र पढ़ा पर अंत तक वह यह नहीं समझ पाई कि किसे दोषी माने, अपनी मौसी को, जो किसी रूप में भी मौसी जैसी स्नेहमयी नहीं लगती थीं. अपनी ही अनुशंसा से अभिभूत वह किसी को भी अपनी सत्ता के आसपास नहीं फटकने देती थीं, जिस से भी उन्हें यह भय हुआ उसी को अपनी कूटनीति द्वारा सब की निगाहों में नकारा साबित करने में एक पल भी देर नहीं लगाई, चाहे वह उन के पति रहे हों या उन्हीं की संतान या बहू. बच्चों की मातृभक्ति का भी दुरुपयोग किया उन्होंने.

दूसरे अभियोगी खुद अनुपमभैया हैं, जो पराए घर से लाई हुई लड़की को उस का उचित मानसम्मान नहीं दिला सके, मां की छत्रछाया में एक दब्बू, डरपोक मातृभक्त पुत्र बन सके, पर एक अच्छे पति नहीं बने.

तीसरी अभियोगी तो स्वयं भाभी ही थीं, जिन्होंने बारबार अपने पर लगने वाले आरोपों को सिरमाथे लगाया कि खुद को फूहड़, नकारा समझने लगीं. उन के मन में ये बातें इतने गहरे तक बैठ गईं कि उन्हें बारबार उन के अस्तित्व के प्रति सचेत कराना नामुमकिन ही था और यही सब सोचतेसोचते मैं ने पत्र रख दिया था.

इनसान चाहे कितना कुछ भूल जाए, पर वक्त अपनी चाल चलना नहीं भूलता. कितना पानी गुजर गया पुल के नीचे से. अब मैं खुद भी एक विवाहिता और बालबच्चों वाली औरत हूं. घर परिवार में हर पल व्यस्त रहते मैं रजनी भाभी के अस्तित्व को भी भूल गई थी.

आज इस पत्र ने कितनी बीती बातों को आंखों के सामने चलचित्र की भांति ला खड़ा किया और सचमुच ही उन रजनी भाभी के लिए मेरी आंखों में आंसू उमड़ पडे़.

विदा भाभी अलविदा, तुम्हें मेरी श्रद्धांजलि स्वीकार हो.

Raksha Bandhan 2022: राखी का उपहार

इस समय रात के 12 बज रहे हैं. सारा घर सो रहा है पर मेरी आंखों से नींद गायब है. जब मुझे नींद नहीं आई, तब मैं उठ कर बाहर आ गया. अंदर की उमस से बाहर चलती बयार बेहतर लगी, तो मैं बरामदे में रखी आरामकुरसी पर बैठ गया. वहां जब मैं ने आंखें मूंद लीं तो मेरे मन के घोड़े बेलगाम दौड़ने लगे. सच ही तो कह रही थी नेहा, आखिर मुझे अपनी व्यस्त जिंदगी में इतनी फुरसत ही कहां है कि मैं अपनी पत्नी स्वाति की तरफ देख सकूं.

‘‘भैया, मशीन बन कर रह गए हैं आप. घर को भी आप ने एक कारखाने में तबदील कर दिया है,’’ आज सुबह चाय देते वक्त मेरी बहन नेहा मुझ से उलझ पड़ी थी. ‘‘तू इन बेकार की बातों में मत उलझ. अमेरिका से 5 साल बाद लौटी है तू. घूम, मौजमस्ती कर. और सुन, मेरी गाड़ी ले जा. और हां, रक्षाबंधन पर जो भी तुझे चाहिए, प्लीज वह भी खरीद लेना और मुझ से पैसे ले लेना.’’

‘‘आप को सभी की फिक्र है पर अपने घर को आप ने कभी देखा है?’’ अचानक ही नेहा मुखर हो उठी थी, ‘‘भैया, कभी फुरसत के 2 पल निकाल कर भाभी की तरफ तो देखो. क्या उन की सूनी आंखें आप से कुछ पूछती नहीं हैं?’’

‘‘ओह, तो यह बात है. उस ने जरूर तुम से मेरी चुगली की है. जो कुछ कहना था मुझ से कहती, तुम्हें क्यों मोहरा बनाया?’’

‘‘न भैया न, ऐसा न कहो,’’ नेहा का दर्द भरा स्वर उभरा, ‘‘बस, उन का निस्तेज चेहरा और सूनी आंखें देख कर ही मुझे उन के दर्द का एहसास हुआ. उन्होंने मुझ से कुछ नहीं कहा.’’ फिर वह मुझ से पूछने लगी, ‘‘बड़े मनोयोग से तिनकातिनका जोड़ कर अपनी गृहस्थी को सजाती और संवारती भाभी के प्रति क्या आप ने कभी कोई उत्साह दिखाया है? आप को याद होगा, जब भाभी शादी कर के इस परिवार में आई थीं, तो हंसना, खिलखिलाना, हाजिरजवाबी सभी कुछ उन के स्वभाव में कूटकूट कर भरा था. लेकिन आप के शुष्क स्वभाव से सब कुछ दबता चला गया.

‘‘भैया आप अपनी भावनाओं के प्रदर्शन में इतने अनुदार क्यों हो जबकि यह तो भाभी का हक है?’’

‘‘हक… उसे हक देने में मैं ने कभी कोई कोताही नहीं बरती,’’ मैं उस समय अपना आपा खो बैठा था, ‘‘क्या कमी है स्वाति को? नौकरचाकर, बड़ा घर, ऐशोआराम के सभी सामान क्या कुछ नहीं है उस के पास. फिर भी वह…’’

‘‘अपने मन की भावनाओं का प्रदर्शन शायद आप को सतही लगता हो, लेकिन भैया प्रेम की अभिव्यक्ति भी एक औरत के लिए जरूरी है.’’

‘‘पर नेहा, क्या तुम यह चाहती हो कि मैं अपना सारा काम छोड़ कर स्वाति के पल्लू से जा बंधूं? अब मैं कोई दिलफेंक आशिक नहीं हूं, बल्कि ऐसा प्रौढ हूं जिस से अब सिर्फ समझदारी की ही अपेक्षा की जा सकती है.’’

‘‘पर भैया मैं यह थोड़े ही न कह रही हूं कि आप अपना सारा कामधाम छोड़ कर बैठ जाओ. बल्कि मेरा तो सिर्फ यह कहना है कि आप अपने बिजी शैड्यूल में से थोड़ा सा वक्त भाभी के लिए भी निकाल लो. भाभी को आप का पूरा नहीं बल्कि थोड़ा सा समय चाहिए, जब आप उन की सुनें और कुछ अपनी कहें. ‘‘सराहना, प्रशंसा तो ऐसे टौनिक हैं जिन से शादीशुदा जीवन फलताफूलता है. आप सिर्फ उन छोटीछोटी खुशियों को समेट लो, जो अनायास ही आप की मुट्ठी से फिसलती जा रही हैं. कभी शांत मन से उन का दिल पढ़ कर तो देखो, आप को वहां झील सी गहराई तो मिलेगी, लेकिन चंचल नदी सा अल्हड़पन नदारद मिलेगा.’’

अचानक ही वह मेरे नजदीक आ गई और उस ने चुपके से कल की पिक्चर के 2 टिकट मुझे पकड़ा दिए. फिर भरे मन से बोली, ‘‘भैया, इस से पहले कि भाभी डिप्रेशन में चली जाएं संभाल लो उन को.’’

‘‘पर नेहा, मुझे तो ऐसा कभी नहीं लगा कि वह इतनी खिन्न, इतनी परेशान है,’’ मैं अभी भी नेहा की बात मानने को तैयार नहीं था.

‘‘भैया, ऊपरी तौर पर तो भाभी सामान्य ही लगती हैं, लेकिन आप को उन का सूना मन पढ़ना होगा. आप जिस सुख और वैभव की बात कर रहे हो, उस का लेशमात्र भी लोभ नहीं है भाभी को. एक बार उन की अलमारी खोल कर देखो, तो आप को पता चलेगा कि आप के दिए हुए सारे महंगे उपहार ज्यों के त्यों पड़े हैं और कुछ उपहारों की तो पैकिंग भी नहीं खुली है. उन्होंने आप के लिए क्या नहीं किया. आप को और आप के बेटों अंशु व नमन को शिखर तक पहुंचाने में उन का योगदान कम नहीं रहा. मांबाबूजी और मेरे प्रति अपने कर्तव्यों को उन्होंने बिना शिकायत पूरा किया, तो आप अपने कर्तव्य से विमुख क्यों हो रहे हैं?’’

‘‘पर पगली, पहले तू यह तो बता कि इतने ज्ञान की बातें कहां से सीख गई? तू तो अब तक एक अल्हड़ और बेपरवाह सी लड़की थी,’’ मैं नेहा की बातों से अचंभे में था.

‘‘क्यों भैया, क्या मैं शादीशुदा नहीं हूं. मेरा भी एक सफल गृहस्थ जीवन है. समर का स्नेहिल साथ मुझे एक ऊर्जा से भर देता है. सच भैया, उन की एक प्यार भरी मुसकान ही मेरी सारी थकान दूर कर देती है,’’ इतना कहतेकहते नेहा के गाल शर्म से लाल हो गए थे. ‘‘अच्छा, ये सब छोड़ो भैया और जरा मेरी बातों पर गौर करो. अगर आप 1 कदम भी उन की तरफ बढ़ाओगे तो वे 10 कदम बढ़ा कर आप के पास आ जाएंगी.’’

‘‘अच्छा मेरी मां, अब बस भी कर. मुझे औफिस जाने दे, लेट हो रहा हूं मैं,’’ इतना कह कर मैं तेजी से बाहर निकल गया था. वैसे तो मैं सारा दिन औफिस में काम करता रहा पर मेरा मन नेहा की बातों में ही उलझा रहा. फिर घर लौटा तो यही सब सोचतेसोचते कब मेरी आंख लगी, मुझे पता ही नहीं चला. मैं उसी आरामकुरसी पर सिर टिकाएटिकाए सो गया.

‘‘भैया ये लो चाय की ट्रे और अंदर जा कर भाभी के साथ चाय पीओ,’’ नेहा की इस आवाज से मेरी आंख खुलीं.

‘‘तू भी अपना कप ले आ, तीनों एकसाथ ही चाय पिएंगे,’’ मैं आंखें मलता हुआ बोला.

‘‘न बाबा न, मुझे कबाब में हड्डी बनने का कोई शौक नहीं है,’’ इतना कह कर वह मुझे चाय की ट्रे थमा कर अंदर चली गई.

जब मैं ट्रे ले कर स्वाति के पास पहुंचा तो मुझे अचानक देख कर वह हड़बड़ा गई, ‘‘आप चाय ले कर आए, मुझे जगा दिया होता. और नेहा को भी चाय देनी है, मैं दे कर आती हूं,’’ कह कर वह बैड से उठने लगी तो मैं उस से बोला,

‘‘मैडम, इतनी परेशान न हो, नेहा भी चाय पी रही है.’’ फिर मैं ने चाय का कप उस की तरफ बढ़ा दिया. चाय पीते वक्त जब मैं ने स्वाति की तरफ देखा तो पाया कि नेहा सही कह रही है. हर समय हंसती रहने वाली स्वाति के चेहरे पर एक अजीब सी उदासी थी, जिसे मैं आज तक या तो देख नहीं पाया था या उस की अनदेखी करता आया था. जितनी देर में हम ने चाय खत्म की, उतनी देर तक स्वाति चुप ही रही.

‘‘अच्छा भाई. अब आप दोनों जल्दीजल्दी नहाधो कर तैयार हो जाओ, नहीं तो आप लोगों की मूवी मिस हो जाएगी,’’ नेहा आ कर हमारे खाली कप उठाते हुए बोली.

‘‘लेकिन नेहा, तुम तो बिलकुल अकेली रह जाओगी. तुम भी चलो न हमारे साथ,’’ मैं उस से बोला.

‘‘न बाबा न, मैं तो आप लोगों के साथ बिलकुल भी नहीं चल सकती क्योंकि मेरा तो अपने कालेज की सहेलियों के साथ सारा दिन मौजमस्ती करने का प्रोग्राम है. और हां, शायद डिनर भी बाहर ही हो जाए.’’ फिर नेहा और हम दोनों तैयार हो गए. नेहा को हम ने उस की सहेली के यहां ड्रौप कर दिया फिर हम लोग पिक्चर हौल की तरफ बढ़ गए.

‘‘कुछ तो बोलो. क्यों इतनी चुप हो?’’ मैं ने कार ड्राइव करते समय स्वाति से कहा पर वह फिर भी चुप ही रही. मैं ने सड़क के किनारे अपनी कार रोक दी और उस का सिर अपने कंधे पर टिका दिया. मेरे प्यार की ऊष्मा पाते ही स्वाति फूटफूट कर रो पड़ी और थोड़ी देर रो लेने के बाद जब उस के मन का आवेग शांत हुआ, तब मैं ने अपनी कार पिक्चर हौल की तरफ बढ़ा दी. मूवी वाकई बढि़या थी, उस के बाद हम ने डिनर भी बाहर ही किया. घर पहुंचने पर हम दोनों के बीच वह सब हुआ, जिसे हम लगभग भूल चुके थे. बैड के 2 सिरों पर सोने वाले हम पतिपत्नी के बीच पसरी हुई दूरी आज अचानक ही गायब हो गई थी और तब हम दोनों दो जिस्म और एक जान हो गए थे. मेरा साथ, मेरा प्यार पा कर स्वाति तो एक नवयौवना सी खिल उठी थी. फिर तो उस ने मुझे रात भर सोने नहीं दिया था. हम दोनों थोड़ी देर सो कर सुबह जब उठे, तब हम दोनों ने ही एक ऐसी ताजगी को महसूस किया जिसे शायद हम दोनों ही भूल चुके थे. बारिश के गहन उमस के बाद आई बारिश के मौसम की पहली बारिश से जैसे सारी प्रकृति नवजीवन पा जाती है, वैसे ही हमारे मृतप्राय संबंध मेरी इस पहल से मानो जीवंत हो उठे थे.

रक्षाबंधन वाले दिन जब मैं ने नेहा को उपहारस्वरूप हीरे की अंगूठी दी तो वह भावविभोर सी हो उठी और बोली, ‘‘खाली इस अंगूठी से काम नहीं चलेगा, मुझे तो कुछ और भी चाहिए.’’

‘‘तो बता न और क्या चाहिए तुझे?’’ मैं मिठाई खाते हुए बोला.

‘‘इस अंगूठी के साथसाथ एक वादा भी चाहिए और वह यह कि आज के बाद आप दोनों ऐसे ही खिलखिलाते रहेंगे. मैं जब भी इंडिया आऊंगी मुझे यह घर एक घर लगना चाहिए, कोई मकान नहीं.’’

‘‘अच्छा मेरी मां, आज के बाद ऐसा ही होगा,’’ इतना कह कर मैं ने उसे अपने गले से लगा लिया. मेरा मन अचानक ही भर आया और मैं भावुक होते हुए बोला, ‘‘वैसे तो रक्षाबंधन पर भाई ही बहन की रक्षा का जिम्मा लेते हैं पर यहां तो मेरी बहन मेरा उद्धार कर गई.’’

‘‘यह जरूरी नहीं है भैया कि कर्तव्यों का जिम्मा सिर्फ भाइयों के ही हिस्से में आए. क्या बहनों का कोई कर्तव्य नहीं बनता? और वैसे भी अगर बात मायके की हो तो मैं तो क्या हर लड़की इस बात की पुरजोर कोशिश करेगी कि उस के मायके की खुशियां ताउम्र बनी रहें.’’ इतना कह कर वह रो पड़ी. तब स्वाति ने आगे बढ़ कर उसे गले से लगा लिया

Rakhsha Bandhan 2022: ज्योति- भाग 3

दूसरी नौकरी की तलाश में सुबह का निकला रोहन देरशाम ही घर लौट पाता था. उस का दिनभर दफ्तरों के चक्कर लगाने में गुजर जाता. मगर नई नौकरी मिलना आसान नहीं था. कहीं मनमुताबिक तनख्वाह नहीं मिल रही थी तो कहीं काम उस की योग्यता के मुताबिक नहीं था. जिंदगी की कड़वी हकीकत जेब में पड़ी डिगरियों को मुंह चिढ़ा रही थी.

सुमित और मनीष ने रोहन की मदद करने के लिए अपने स्तर पर कोशिश की, मगर बात कहीं बन नहीं पा रही थी.

एक के बाद एक इंटरव्यू देदे कर रोहन का सब्र जवाब देने लगा था. अपने भविष्य की चिंता में उस का शरीर सूख कर कांटा हो चला था. पास में जो कुछ जमा पूंजी थी वह भी कब तक टिकती, 2 महीने से तो वह अपने हिस्से का किराया भी नहीं दे पा रहा था.

सुमित और मनीष उस की स्थिति समझ कर उसे कुछ कहते नहीं थे. मगर यों भी कब तक चलता.

सुबह का भूखाप्यासा रोहन एक दिन शाम को जब घर आया तो सारा बदन तप रहा था. उस के होंठ सूख रहे थे. उसे महसूस हुआ मानो शरीर में जान ही नहीं बची. ज्योति उसे कई दिनों से इस हालत में देख रही थी. इस वक्त वह शाम के खाने की तैयारी में जुटी थी. रोहन सुधबुध भुला कर मय जूते के बिस्तर पर निढाल पड़ गया.

ज्योति ने पास जा कर उस का माथा छुआ. रोहन को बहुत तेज बुखार था. वह पानी ले कर आई. उस ने रोहन को जरा सहारा दे कर उठाया और पानी का गिलास उस के मुंह से लगाया. ‘‘क्या हाल बना लिया है भैया आप ने अपना?’’

‘‘ज्योति, फ्रिज में दवाइयां रखी हैं, जरा मुझे ला कर दे दो,’’ अस्फुट स्वर में रोहन ने कहा.

दवाई खा कर रोहन फिर से लेट गया. सुबह से पेट में कुछ गया नहीं था, उसे उबकाई सी महसूस हुई. ‘‘रोहन भैया, पहले कुछ खा लो, फिर सो जाना,’’ हाथ में एक तश्तरी लिए ज्योति उस के पास आई.

रोहन को तकिए के सहारे बिठा कर ज्योति ने उसे चम्मच से खिचड़ी खिलाई बिलकुल किसी मां की तरह जैसे अपने बच्चों को खिलाती है.

रोहन को अपनी मां की याद आ गई. आज कई दिनों बाद उसी प्यार से किसी ने उसे खिलाया था. दूसरे दिन जब वह सो कर उठा तो उस की तबीयत में सुधार था. बुखार अब उतर चुका था, लेकिन कमजोरी की वजह से उसे चलनेफिरने में दिक्कत हो रही थी. सुमित और मनीष ने उसे कुछ दिन आराम करने की सलाह दी. साथ ही, हौसला भी बंधाया कि वह अकेला नहीं है.

ज्योति उस के लिए कभी दलिया तो कभी खिचड़ी पकाती और बड़े मनुहार से खिलाती. रोहन उसे अब दीदी बुलाने लगा था.

‘‘दीदी, आप को देने के लिए मेरे पास पैसे नहीं हैं फिलहाल, मगर वादा करता हूं नौकरी लगते ही आप का सारा पैसा चुका दूंगा,’’ रोहन ने ज्योति से कहा.

‘‘कैसी बातें कर रहे हो रोहन भैया. आप बस, जल्दी से ठीक हो जाओ. मैं आप से पैसे नहीं लूंगी.’’

‘‘लेकिन, मुझे इस तरह मुफ्त का खाने में शर्म आती है,’’ रोहन उदास था.

‘‘भैया, मेरी एक बेटी है 10 साल की, स्कूल जाती है. मेरा सपना है कि मेरी बेटी पढ़लिख कर कुछ बने. पर मेरे पास इतना वक्त नहीं कि उसे घर पर पढ़ा सकूं और उसे ट्यूशन भेजने की मेरी हैसियत नहीं है. घर का किराया, मुन्नी के स्कूल की फीस और राशनपानी के बाद बचता ही क्या है. अगर आप मेरी बेटी को ट्यूशन पढ़ा देंगे तो बड़ी मेहरबानी होगी. आप से मैं खाना बनाने के पैसे नहीं लूंगी, समझ लूंगी वही मेरी पगार है.’’

बात तो ठीक थी. रोहन को भला क्या परेशानी होती. रोज शाम मुन्नी अब अपनी मां के साथ आने लगी. रोहन उसे दिल लगा कर पढ़ाता.

ज्योति कई घरों में काम करती थी. उस ने अपनी जानपहचान के एक बड़े साहब को रोहन का बायोडाटा दिया. रोहन को इंटरव्यू के लिए बुलाया गया. मेहनती और योग्य तो वह था ही, इस बार समय ने भी उस का साथ दिया और उस की नौकरी पक्की हो गई.

सुमित और मनीष भी खुश थे. रोहन सब से ज्यादा एहसानमंद ज्योति का था. जिस निस्वार्थ भाव से ज्योति ने उस की मदद की थी, रोहन के दिल में ज्योति का स्थान अब किसी सगी बहन से कम नहीं था. ज्योति भी रोहन की कामयाबी से खुश थी, साथ ही, उस की बेटी की पढ़ाई को ले कर चिंता भी हट चुकी थी. घर में जिस तरह बड़ी बहन का सम्मान होता है, कुछ ऐसा ही अब ज्योति का सुमित और उस के दोस्तों के घर में था.

ज्योति की उपस्थिति में ही बहुत बार नेहा मनीष से मिलने घर आती थी. शुरूशुरू में मनीष को कुछ झिझक हुई, मगर ज्योति अपने काम से मतलब रखती. वह दूसरी कामवाली बाइयों की तरह इन बातों को चुगली का साधन नहीं बनाती थी.

मनीष और नेहा की एक दिन किसी बात पर तूतूमैंमैं हो गई. ज्योति उस वक्त रसोई में अपना काम कर रही थी. दोनों की बातें उसे साफसाफ सुनाई दे रही थीं.

मनीष के व्यवहार से आहत, रोती हुई नेहा वहां से चली गई. उस के जाने के बाद मनीष भी गुमसुम बैठ गया.

ज्योति आमतौर पर ऐसे मामले में नहीं पड़ती थी. वह अपने काम से काम रखती थी, मगर नेहा और मनीष को इस तरह लड़ते देख कर उस से रहा नहीं गया. उस ने मनीष से पूछा तो मनीष ने बताया कि कुछ महीनों से शादी की बात को ले कर नेहा के साथ उस की खटपट चल रही है.

‘‘लेकिन भैया, इस में गलत क्या है? कभी न कभी तो आप नेहा दीदी से शादी करेंगे ही.’’

‘‘यह शादी होनी बहुत मुश्किल है ज्योति. तुम नहीं समझोगी, मेरे घर वाले जातपांत पर बहुत यकीन करते हैं और नेहा हमारी जाति की नहीं है.’’

‘‘वैसे तो मुझे आप के मामले में बोलने का कोई हक नहीं है मनीष भैया, मगर एक बात कहना चाहती हूं.’’

मनीष ने प्रश्नात्मक ढंग से उस की तरफ देखा.

‘‘मेरी बात का बुरा मत मानिए मनीष भैया. नेहा दीदी को तो आप बहुत पहले से जानते हैं, मगर जातपांत का खयाल आप को अब आ रहा है. मैं भी एक औरत हूं. मैं समझ सकती हूं कि नेहा दीदी को कैसा लग रहा होगा जब आप ने उन्हें शादी के लिए मना किया होगा. इतना आसान नहीं होता किसी भी लड़की के लिए इतने लंबे अरसे बाद अचानक संबंध तोड़ लेना. यह समाज सिर्फ लड़की पर ही उंगली उठाता है. आप दोनों के रिश्ते की बात जान कर क्या भविष्य में उन की शादी में अड़चन नहीं आएगी? क्या नेहा दीदी और आप एकदूसरे को भूल पाएंगे? जरा इन बातों को सोच कर देखिए.

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