उड़ीसा मेंं हुआ ट्रेन हादसा

उड़ीसा के बालासोर में 3 ट्रेनों के एक्सीडैंट में 300 लोगों के मरने की खबर है पर बहुत से लोग जनरल बोगियों में मरे लोगों की मौतों की बात नहीं कर रही जिन का कोई रिकार्ड नहीं रहता. सोशल मीडिया पर कहा जा रहा है कि खुली खिड़कियों वाले इन डिब्बों में मजदूर लोग सफर करते हैं और वे बिना रिजर्वेशन वाले टिकट लेते हैं.

यह बात इस से साबित होती है कि  एक औरत ने अपने 3 बच्चों को खिडक़ी से बाहर साथ में उगी घास पर फेंक दिया था जिस से वे बच गए. बच तो वह औरत और उस का मर्द भी गया. उस का मर्द चैन्नै में पलंबर का काम करता है.

रेल मंत्रालय ने बड़े गर्व से कहा है कि रिजर्व कंपार्टमैंटों में बहुत कम मौतें हुई हैं क्योंकि जो डिब्बें दो सवारी गाडिय़ों के चपेट में आए वे जनरल बोगियां थीं. ऊंचे पैसे वालों के बचने पर रेल मंत्रालय राहत की सांस ले रहा है. मजदूरों के मरने की गिनती नहीं हो पा रही तो यह प्रधानमंत्री, मंत्री और रेलवे के लिए अच्छा है. क्योंकि उन के लिए तो वे सफर करें तो पैदल ही करें तो ठीक.

यह न भूलें कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तावड़तोड़ ऊंचे लोगों के लिए वंदेभारत ट्रेनों का उद्घाटन कर रहे हैं जिन की रफ्तार आम ट्रेनों से 10-20 किलोमीटर रखें प्रति घंटा ही ज्यादा है पर दाम बहुत ज्यादा हैं ताकि मजदूर किस्म के लोग उस में सफर न कर सकें.

आजकल नई ट्रेनों, स्टेशनों, प्लेटफार्मों, तीर्थ यात्रियों के दल जाने पर प्रधानमंत्री खुद मौजूद रहते हैं इसलिए रेलवे की सारी सोच इस पर है कि रेलें नईनई चलाई जाएं, स्टेशनों में एयरकंडीशंड लाउंज बनें, लक्जरी सामान बिके, खाना मंहगा हो, पिज्जा, वर्गर मिले. पहले की तरह प्लेटफार्म पर ठेलों पर कुछ रुपए में 6 पूरी और सब्जी मिलना बंद हो गया है. यही हाल ट्रेन में डब्बों का है. ट्रेनें अमीरों के लिए चह रही हैं जिन्हें दिखावट चाहिए, सुरक्षा का ख्याल भी नहीं करते वे.

यह सोच गहरे नीचे तक रेल कर्मचारियों में पहुंच गई है. तेज चलो, सुरक्षा तो भगवान के हाथ में है. आखिर इतने मंदिर क्यों बन रहे हैं. उड़ीसा जहां यह हादसा हुआ तो मंदिर से पटा हुआ हर नेता, हर अफसर ऊंची जाति का पूजापाठी है. वहां तो भगवान तो वरदान देते हैं या दंड देते हैं.

जरूर यह गलती उन मरने वालों मजदूरों की है जो बिना दानपुण्य किए ट्रेन में चले. साष्टांग प्रणाम करने वाले, धर्माचार्यों के साए में रहने वाले प्रधानमंत्री, रेलमंत्री, रेल बोर्ड के चेयरमैन थोड़े ही दूसरों के पापों के जिम्मेदार होंगे.

राजस्थान: कांग्रेस और भाजपा की राह नहीं आसान

राज्य में विधानसभा चुनाव इसी साल दिसंबर महीने में हैं और दोनों बड़े दलों के नेता अपने दिल्ली के आकाओं की तरफ देख रहे हैं. दोनों दलों में जबरदस्त गुटबाजी है. हालांकि यहां कांग्रेस बेहतर हालत में दिख रही है, क्योंकि उस में सिर्फ 2 ही गुट हैं, अशोक गहलोत गुट और सचिन पायलट गुट.इस के उलट भारतीय जनता पार्टी में जहां ईंट फेंकोगे, एक नया गुट दिखाई देगा.

पर दोनों पार्टियों में राजस्थान में एक बेसिक फर्क दिखाई देता है. राजस्थान में कांग्रेस हाईकमान का कोई गुट नहीं है, जबकि भाजपा में हाईकमान का भी एक गुट है.आमतौर पर प्रदेश अध्यक्ष पार्टी हाईकमान का वफादार होता है, जबकि कांग्रेस में अशोक गहलोत ने अपने ही गुट का प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भी बनवा रखा है. कांग्रेस में अब दुविधा यह है कि वह सिर्फ अशोक गहलोत का चेहरा आगे रख कर चुनाव लड़ेगी या उन के साथ सचिन पायलट का चेहरा भी रखेगी. लेकिन उस में भी शक है कि अशोक गहलोत ऐसा होने देंगे क्या? राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा की सचिन गहलोत से नजदीकी के बावजूद अशोक गहलोत साल 2018 से सचिन पायलट को मात देते आ रहे हैं.

हाईकमान ने सचिन पायलट को प्रदेश अध्यक्ष के साथसाथ उपमुख्यमंत्री भी बनवा दिया था, लेकिन अशोक गहलोत ने उन्हें ऐसी कुंठा में डाला कि वे मुख्यमंत्री तो क्या बनते अपने दोनों पद भी गंवा बैठे. राजनीति में अपने विरोधियों को परेशानी में डालना बहुत ही ऊंचे दर्जे की राजनीति होती है. यह महारत या तो मध्य प्रदेश में अर्जुन सिंह की थी, या फिर राजस्थान में अशोक गहलोत की है.

सचिन पायलट ने साल 2018 में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा से नजदीकी के चलते साल 2020 में बगावत का डर दिखा कर और साल 2022 में अशोक गहलोत को कांग्रेस अध्यक्ष पद मिलने के मौके का फायदा उठा कर 3 बार मुख्यमंत्री बनने की कोशिश की थी, लेकिन अशोक गहलोत ने कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद ठुकरा कर 4 साल में तीसरी बार सचिन पायलट को मात दे दी थी.अब सचिन पायलट फिर परेशानी में आ गए हैं.

उन्हें उम्मीद थी कि राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ खत्म होने के बाद उन्हें प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बना दिया जाएगा. उन्हें यह भी उम्मीद थी कि मल्लिकार्जुन खड़गे उन 3 नेताओं पर कार्यवाही करेंगे, जिन्होंने 25 अक्तूबर, 2022 को खुद उन का अपमान किया था, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, तो सचिन पायलट के सब्र का प्याला एक बार फिर भर गया है.

सचिन पायलट ने कहा है कि अब तो बजट भी पेश हो चुका है, पार्टी नेतृत्व ने कई बार कहा था कि जल्द ही फैसला होगा, लेकिन अभी तक हाईकमान ने कोई भी फैसला नहीं किया है. बहुत हो चुका, हाईकमान को जो भी फैसला करना है, वह अब होना चाहिए.सचिन पायलट ने यह कह कर कांग्रेस हाईकमान को डराया है कि नरेंद्र मोदी राजस्थान में बहुत एग्रैसिव तरीके से प्रचार कर रहे हैं.

अगर कांग्रेस अपनी सत्ता बरकरार रखना चाहती है, तो तुरंत कदम उठाना चाहिए, ताकि कांग्रेस लड़ाई के लिए तैयार हो सके.दरअसल, सचिन पायलट हाईकमान को बताना यह चाहते हैं कि जितना एग्रैसिव हो कर वह काम कर सकते हैं, उतना एग्रैसिव अशोक गहलोत नहीं हो सकते, लेकिन राजनीति सिर्फ एग्रैसिव हो कर नहीं होती.

अगर वे अशोक गहलोत से सबक नहीं लेना चाहते, तो उन्हें वसुंधरा राजे से सबक लेना चाहिए. भाजपा हाईकमान पिछले 5 साल से उन्हें किनारे करने की कोशिश कर रहा है, पर वे जरा भी एग्रैसिव नहीं हुईं. अब चुनाव आते ही राजस्थान भाजपा की राजनीति में वे फिर से ताकतवर बन कर उभर रही हैं.अशोक गहलोत की तरह अपने विरोधियों को थका देने की महारत वसुंधरा राजे की भी है.

उन की हैसियत कम करने के लिए भाजपा आलाकमान ने हर मुमकिन उपाय किए, लेकिन जनता की नजरों में वसुंधरा राजे के सामने भाजपा हाईकमान की ही किरकिरी हुई. वसुंधरा राजे को किनारे लगा कर नया नेतृत्व उभारने के लिए 3 साल पहले कम अनुभवी सतीश पूनिया को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया और वसुंधरा राजे को किनारे लगाने का काम सौंपा गया, तब से वसुंधरा राजे ने खुद को पार्टी की गतिविधियों से अलग कर रखा था.लेकिन चुनाव सिर पर आते ही अशोक गहलोत के सामने भाजपा की कमजोरी देख कर आलाकमान ने वसुंधरा राजे को फिर से भाजपा के पोस्टरों में जगह देना शुरू कर दिया है. हालांकि प्रदेश भाजपा के नेता अभी भी दावा कर रहे हैं कि नरेंद्र मोदी के चेहरे पर ही चुनाव लड़ा जाएगा, लेकिन पार्टी कार्यकर्ता यह जानते हैं कि साल 2018 का चुनाव भी नरेंद्र मोदी के चेहरे पर ही लड़ा गया था.

तब वसुंधरा राजे से नाराज भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ही एक गुट ने नारा लगवाया था, ‘मोदी तुझ से बैर नहीं, वसुंधरा तेरी खैर नहीं’.लेकिन हुआ क्या, चुनाव प्रचार के आखिरी दौर में वसुंधरा राजे को ही आगे करना पड़ा, तभी भाजपा टक्कर में आ सकी और 77 सीटें हासिल कर सकी, जबकि उस से पहले तो भाजपा 20-30 सीटों पर निबटती दिख रही थी, इसलिए पार्टी कार्यकर्ता मांग कर रहे हैं कि गुलाबचंद कटारिया के राज्यपाल बनने से खाली हुए विपक्ष के नेता पद पर वसुंधरा राजे को बिठा कर जनता को साफ संदेश दिया जाए. लेकिन आलाकमान दुविधा में है.

अगर कांग्रेस में असमंजस है, तो भाजपा में उस से ज्यादा है.सतीश पूनिया पिछले 4 साल से भाजपा प्रदेश अध्यक्ष पद पर रहे हैं, लेकिन अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत किए बिना सचिन पायलट की तरह वे भी जल्दबाजी में अपनेआप को भावी मुख्यमंत्री के रूप में पेश करने लग गए थे. इस कारण पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं के कई धड़े बन गए और संगठन एकजुट होने के बजाय बिखर गया और सतीश पूनिया को अध्यक्ष पद से हाथ धोना पड़ा.राजस्थान की राजनीति में जाटों की बड़ी अहमियत रही है.

नाथूराम मिर्धा, रामनिवास मिर्धा, परसराम मदेरणा, शीशराम ओला, दौलतराम सारण जैसे बड़े जाट नेता हुए, केंद्र में कैबिनेट मंत्री बने, लेकिन कांग्रेस ने कभी किसी जाट को मुख्यमंत्री नहीं बनने दिया, लेकिन अब सतीश पूनिया को किनारे करने से नाराज जाट फिर से कांग्रेस की ओर रुख करेंगे.सतीश पूनिया जाट होने के कारण भाजपा के लिए भविष्य के नेता हो सकते थे, लेकिन उन की राह में हमउम्र और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के साथी रहे गजेंद्र सिंह शेखावत बैठे हैं, जो खुद भविष्य में मुख्यमंत्री पद के दावेदार बने हुए हैं.

गजेंद्र शेखावत को लगता है कि राजपूत होने के कारण और नरेंद्र मोदी व अमित शाह की मेहरबानी से वे मुख्यमंत्री बन सकते हैं, जबकि सचाई तो यह है कि केंद्रीय नेतृत्व के चाहने के बावजूद साल 2018 में वसुंधरा राजे ने उन्हें प्रदेश अध्यक्ष तक नहीं बनने दिया था. वहीं दूसरी तरफ प्रदेश के राजपूतों में राजेंद्र राठौड़ की लोकप्रियता गजेंद्र शेखावत से कहीं ज्यादा है और राजेंद्र राठौड़ भाजपा में गजेंद्र शेखावत से बहुत सीनियर भी हैं.राजस्थान में जाट और राजपूत समुदाय में पुरानी राजनीतिक रार है. कांग्रेस का जाटों पर और भाजपा का राजपूतों में असर रहा है.

राजनीतिक समीकरणों की नजर से वसुंधरा राजे बहुत एडवांटेज में हैं. वे राजपूत मां और मराठा पिता की बेटी हैं, जाट राजा की पत्नी हैं और घर में गुर्जर बहू है. जातीय समीकरण के नजरिए से भाजपा को वसुंधरा राजे ही फिट लगती हैं. जैसे अशोक गहलोत को उन की मरजी के बिना कांग्रेस में किनारे नहीं किया जा सकता, वैसे ही वसुंधरा राजे को उन की मरजी के बिना राजस्थान से भाजपा में किनारे नहीं किया जा सकता.

एक बार साल 2014 में भाजपा ने कोशिश की थी, तो पार्टी टूटने के कगार पर आ गई थी.भाजपा आलाकमान की मुसीबत यह है कि पिछले 20 सालों में वसुंधरा राजे के कद के आसपास भी कोई दूसरा भाजपा नेता राजस्थान में उभर नहीं सका है, जिस पर दांव लगाया जा सके. इसलिए एक बार फिर से चुनावों में वसुंधरा राजे को ही आगे करना नरेंद्र मोदी और अमित शाह की मजबूरी है. उन के सर्वे यही बता रहे हैं कि इस बार अशोक गहलोत से मुकाबला करना आसान नहीं होगा.

 

भाजपा, नरेंद्र मोदी और हनुमान..!

जनता पार्टी के स्थापना दिवस पर नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने मास्टर भाजपा को हनुमान सदृश्य बताया. भारतीय राजनीति में इन दिनों भाजपा जिस तरह हिंदुत्व को लेकर के पल पल ध्रुवीकरण में लगी हुई है वह सीधे-सीधे संविधान के विरुद्ध है नैतिकता के विरुद्ध है आने वाले भारत के लिए अनेक तरह के संकट लेकर आने वाला है. अगर नरेंद्र मोदी हनुमान जयंती पर भाजपा को राम से जोड़ देते हैं तो रामनवमी पर श्रीराम से इसी तरह हर एक हिंदुत्ववादी त्यौहार पर कुछ ऐसी बात करते हैं कि हिंदूवादी मतदाता भारतीय जनता पार्टी को गले लगा ले और आंख बंद करके उन्हें वोट देने लगे. यह एक जनतंत्र के लिए खतरनाक स्थिति है मगर सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर बैठ कर के नेताओं को साथ में रखने का नाम भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी का है.

हमारे देश की राजनीति का सौंदर्य यही है कि हमने दो दल की जगह अनेक दलों को तरजीह दी है मगर भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आने के बाद बाकी सभी दलों को नेस्तनाबूद कर देना चाहती है. अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की बात तो छोड़ दें भाजपा तो कांग्रेस को भी निगल जाना चाहती है.

दरअसल, हमारा देश लोकतांत्रिक है, इस सब के बावजूद भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में आने के बाद जिस तरह विपक्ष चाहे वह कांग्रेस हो या आप हो या समाजवादी पार्टी या बहुजन समाज पार्टी या अन्य छोटे बड़े राजनीतिक दल उन्हे नेस्तनाबूद करने की कोशिश की जा रही है, नेताओं को प्रताड़ित करने की चेष्टा जारी है उससे साफ संकेत मिलता है कि जैसा कि उद्धव ठाकरे ने कहा 2024 का लोकसभा चुनाव अगर नरेंद्र दामोदरदास मोदी के नेतृत्व में भाजपा अगरचे ऐन केन  जीत जाती है तो विपक्ष के लिए अंतिम चुनाव होगा. अगर हम देखते हैं तो कांग्रेस पार्टी की देश से सिमटते हुए अब कांग्रेस चुनिंदा राज्यों में ही राज कर रही है, ऐसे में छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल के  संरक्षण में कांग्रेस पार्टी के अधिवेशन पर भी  केंद्र सरकार ने ग्रहण लगाने की पुरजोर कोशिश की. यह चिंतन का विषय है कि भाजपा नेतृत्व को क्यों पीड़ा हो रही है. लोकतंत्र और देश ऐसे ही चलता आया है. यह भी सच है कि व्यवहार और हकीकत में अंतर होता  है . मगर जिस तरह अधिवेशन से पूर्व केंद्र की विधि यानी प्रवर्तन निदेशालय ने कांग्रेस के नेताओं पर गाज गिराई वह देश भर में चर्चा का विषय बन गया. जहां कांग्रेस रक्षात्मक है वही भारतीय जनता पार्टी और केंद्र सरकार आक्रमण होती जा रही है. इससे यह संकेत मिलता है कि कहीं न कहीं तो अधिवेशन से भय है. वस्तुत: भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी को यह नहीं भूलना चाहिए कि अगर कांग्रेस भी आपके जैसा व्यवहार करती तो भारतीय जनता पार्टी क्या पैदा हो पाती…? क्या भाजपा आज जिस मुकाम पर पहुंची है कभी पहुंच सकती थी. लोकशाही और तानाशाही में अंतर भाजपा के बड़े नेताओं को मालूम होना चाहिए और  एक देशहित और स्वस्थ स्पर्धा के रूप में अपनी भूमिका को निभाना चाहिए.

भारतीय जनता पार्टी हिंदुत्व ऐसे ही कुछ मुद्दों पर देश की आवाम को बरगलाने का लगातार प्रयास कर रही है ठीक है देश में हिंदू बहुसंख्यक हैं मगर आजादी के बाद देश को आगे बढ़ाने का जिम्मा जिन लोगों के हाथों में था उन्होंने यह निश्चय किया कि चाहे वह हिंदू हो या मुस्लिम या सिख ईसाई सभी इस देश के नागरिक हैं और सबका विकास समरसता के साथ देश में होना चाहिए .

मगर,आज देश में जो हो रहा है वह सारा देश देख रहा है. कांग्रेस जिसकी जड़ें बहुत मजबूत हैं उसे अगर नेस्तनाबूद करने की ख्वाहिश‌ अगर भाजपा पाल रही है तो यह तो मुंगेरीलाल के ख्वाब ही कहे जाएंगे, क्योंकि कांग्रेस एक राजनीतिक दल ही नहीं एक विचारधारा भी है, छत्तीसगढ़  में ईडी की कार्रवाई के बाद आवेश ने भी मोर्चा संभाल लिया और महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने कहा -छत्तीसगढ़ में पार्टी के कई नेताओं के खिलाफ है प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) की कार्रवाई को लेकर प्रधानमंत्री पर सीधा निशाना साधा. उन्होंने कहा कि कठपुतली एजेंसियों का डर दिखाकर देश की आवाज को दबाया नहीं जा सकता.

 हिंदू देवी देवता और भाजपा

जब भी कोई हिंदू त्यौहार आता है भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी  देश की बहुसंख्यक वोटरों को लुभाने के लिए कुछ ना कुछ कर जाते हैं. इस दफा संयोग से 6 अप्रैल को भारतीय जनता पार्टी का स्थापना दिवस था उसके साथ ही हनुमान जी की जयंती भी ऐसे में आप (नरेंद्र मोदी) भला कहां मौन रहने वाले थे . हनुमान जयंती के बारे में जिक्र करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने भगवान हनुमान और भाजपा के बीच समानताएं बताने लगे और कहा -” पार्टी निःस्वार्थ सेवा के आदर्शों में विश्वास करती है.” उन्होंने कहा -” आत्म संदेह को खत्म करने के बाद भगवान हनुमान की तरह ही भारत अपनी क्षमता का एहसास कर रहा है.” मोदी ने कहा- “अगर हम भगवान हनुमान का पूरा जीवन देखें तो उनमें ‘कर सकने वाला’ की प्रवृत्ति थी जिसकी वजह से उन्हें बड़ी सफलताएं हासिल हुईं.”दरअसल यह प्रवृत्ति लोकतंत्र के लिए अच्छी नहीं है अगर  कांग्रेस और अन्य राजनीतिक दल भी यही करने लगेंगे तो देश रसातल को चला जाएगा

किसान आंदोलन में खालिस्तान शामिल

पंजाब में शुरू हो चुके खालिस्तान आंदोलन और अमृतपाल ङ्क्षसह की अगुवाई में वारिस पंजाब दे के पनपने के लिए सीधेसीधे भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सरकार को जिम्मेदार ठहराना होगा. यह मामला कोई नया नहीं है क्योंकि भाजपा के पिट्टुओं ने 2 साल पहले चले किसान आंदोलन में खालिस्थानियों की बात उसी\ तरह खुल कर कही थी जैसे के देश की सरकार के खिलाफ बोलने वाले हर जने को पाकिस्तानी, अरबन नक्सल, देशद्रोही कह देते हैं.

सिखों में बेचैनी होने लगी थी यह इस से साफ है कि जब भाजपा के नरेंद्र मोदी को पूरे देश में गूंज ही रहा हो, पंजाब में पहले कांग्रेस की सरकार थी और फिर आम आदमी पार्टी की. भाजपा से अकाली दल का पूरी तरह नाता तोडऩा कोई सिर्फ राजनीतिक दावपेंच नहीं था, यह सिखों का बिफरना है.

जब भी ङ्क्षहदू, भारत माता, वंदेमातरम की बात की जाती है और पूरे देश की जनता को कहा जाता है कि इसे ही अपना मूलमंत्र माने मुसलिम ही नहीं, सिख, ईसाई, जैन, बौध और दूसरे छोटेछोटे संप्रदायों के लो कसमसाने लगते है. ङ्क्षहदू राष्ट्र की सोच इस कदर भाजपा के मंत्रियों की सोच में घुस गई है कि वे उस के बाहर सोच ही नहीं पा रहे और भूल रहे है कि यहां हर तरह के लोग सदियों से बसे हैं और नारों से न उन का रंगढंग बदला जा सकता है, न सोच.

आज का युग वैसे साइंस का है टैक्नोलोजी का है. उस में धर्म की कहीं कोई जगह ही नहीं है, गुंजाइश ही नहीं है, जरूरत ही नहीं है. अफगानिस्तान और पाकिस्तान का हाल हम देख रहे है जहां धर्म जनता पर हावी हो गया और लोगों के भूखे मरने की नौबत आ गई है.

अमृतपाल ङ्क्षसह जैसे लोग ऐसे मौकों की तलाश में रहते हैं कि कौर्य, धर्म, जाति के नाम पर अपना उल्लू सीधा कर सकें. किसान आंदोलन जो शुरू में फरम किसानों के नेताओं की अगुवाई में चला और राकेश टिकैत बाद में उभरे, सिखा गया कि देश की सरकार को सीधा करा जा सकता है. जरूरत है मुद्दे की जिस के सरकार बेबात में मौके देती रहती है.

आजकल मंदिर, मसजिद, गुरूद्वारों में कमाई करने की होड़ मची हुई है और चूंकि भक्ति का माहौल सरकारी पार्टी ही बात रही है, जिम्मेदारी उसी पर आती है. आजकल चारों और अगर कुछ बड़ा बन रहा है तो वह धर्म से जुड़ा है. अयोध्या तक में एक बड़ी सुंदर आकर्षक मसजिद की प्लाङ्क्षनग चल है रही है और पक्का है कि गरीबी में रह रहे मुसलमान भी पेट काट कर उस के लिए पैसा जमा कर लेंगे. जब ङ्क्षहदू और मुसलमानों की बात रोज होगी तो सिखों की क्यों नहीं होगी.

अमृतपाल ङ्क्षसह ने इसी का फायदा उठाया है और अजचलों में उस के साथियों ने एक कट्टरपंथी को पुलिस से फुड़वा कर साबित कर दिया कि उन की भीड़ जुटाने की वक्त है. अमृतपाल ङ्क्षसह गिरफ्तार होता है या वह कहीं विदेश में पहुंच जाता है अभी नहीं कह सकते. वह केंद्र सरकार के लोहे के बच निकलने की सोच भी सकता था, यही यह दिखाने के लिए बाफी है धर्म के नाम पर सुलगाई आग कब काबू से बाहर हो जाए और किस के घर जला दे कहां नहीं जा सकता. उम्मीद की जानी चाहिए कि अमृतपाल ङ्क्षसह के पंजाब का अमन खराब करने की इजाजत नहीं मिलेगी और सरकार इस मसले को जिद और पुलिस के

मसला: दलित नेता, दलितों के दुश्मन

29अगस्त, 2022 को नैशनल क्राइम रिकौर्ड ब्यूरो ने जो आंकड़े प्रकाशित किए, उन से पता चलता है कि उत्तर प्रदेश में साल 2021 में 1.02 फीसदी दलितों के खिलाफ जुल्म बढ़ने की रिपोर्टें दर्ज हुईं और मध्य प्रदेश में 6.4 फीसदी रिपोर्टें बढ़ीं. केंद्रीय मंत्री रामदास अठावले, जो खुद दलित हैं, ने मार्च, 2022 में माना कि भारतीय जनता पार्टी के राज में साल 2018 से साल 2020 में 1,38,825 तो जुल्मों की रिपोर्टें दर्ज हुई थीं.

दिसंबर, 2022 में तमिलनाडु में कोयंबटूर के पास के एक गांव में 102 साल की एक बूढ़ी औरत की लाश को कब्रिस्तान में गाड़ने की इजाजत न देने पर झगड़ा हुआ, पर देशभर में किसी ने कुछ नहीं बोला, जबकि दीपिका पादुकोण की बिकिनी के रंग पर सारा सोशल मीडिया बेर्श्मी से रंगा हुआ है. दलित मौतों पर न रिपोर्ट छपती है, न कोई खबर, पर सोशल मीडिया में हल्ला मचता है.

10 दिसंबर, 2022 को ही कानपुर, उत्तर प्रदेश में एक दलित दूल्हे को घोड़ी पर चढ़ कर ठाकुरों के घर के सामने से गुस्साए ठाकुरों ने दलित बरातियों की उन के विवाह स्थल पर जा कर जम कर पिटाई की जो ट्विटर पर वीडियो पर देखी जा सकती है.

इन सब मामलों में हिंदू रक्षावाहिनी वाले तो चुप रहे ही, कांग्रेसी, समाजवादी और सब से बड़ी बात मायावती तक ने मुंह नहीं खोला, क्योंकि ये सब दलितों के वोट चाहते हैं, उन्हें बराबर का दर्जा नहीं दिलाना चाहते. उलटे ये जाति व्यवस्था के ग्रंथों ‘गीता’, ‘मनुस्मृति’ व पुराणों को बारबार याद करते हैं और कहने की कोशिश करते हैं कि उन में जो कहा गया है, वही आज के हिंदू बनाम पौराणिक राज में चलेगा.

दलित नेता क्यों रहे पीछे

साल 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले देशभर में दलित राजनीति चरम पर थी. दलित वोटों को समेटने और गंवा देने की बेचैनी हर तरफ देखी जा रही थी. हर पार्टी, हर नेता को सिर्फ दलित ही दिखाई दे रहा था. खुद प्रधानमंत्री नरेंद मोदी तक प्रयागराज में कुंभ स्नान के दौरान मैला ढोने वालों के पैर अपने हाथों से पखार रहे थे.

दलितों को अपने पाले में रखने की रणनीति के तहत भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर प्रदेश में पंडित दीनदयाल उपाध्याय के ‘जन्म शताब्दी वर्ष’ के कार्यक्रमों में दलितों पर खासतौर पर फोकस किया था. दलितों के बीच लामबंदी तेज करने के लिए भाजपा ने पहली बार हर बूथ पर अनुसूचित मोरचा समिति तक बना डाली थी.

यही नहीं, दलितों की सब से बड़ी नेता कही जाने वाली मायावती ने अपनी दलित राजनीति और जनाधार को बचाए रखने के लिए विधानसभावार कार्यकर्ता सम्मेलन आयोजित किए थे, जिन में उन्होंने खुद बढ़चढ़ कर भाग लिया था. उन्होंने तब अपने सभी कोऔर्डिनेटरों को उत्तर प्रदेश में दलितों पर हो रहे जोरजुल्म के मामलों की जानकारी नियमित तौर पर प्रदेश हैडक्वार्टर भेजने का भी निर्देश दिया था.

दलितों पर अत्याचार के मामलों में पीडि़त पक्ष को कानूनी मदद मुहैया कराने के निर्देश भी दिए गए थे, मगर 17 जुलाई, 2019 को सोनभद्र में एक बड़ा दलित नरसंहार हो गया और मायावती को वहां जा कर पीडि़तों के जख्मों पर हमदर्दी का फाहा रखने का वक्त नहीं मिला.

दरअसल, उस वक्त के अपने भाई आनंद कुमार की नोएडा में कब्जाई तकरीबन 400 करोड़ रुपए की गैरकानूनी जमीन के मामले में उलझी हुई थीं, जिस पर प्रवर्तन निदेशालय और आयकर विभाग ने कार्यवाही की थी और उसे अटैच कर लिया था.

उस वक्त मायावती के लिए सोनभद्र में दलितों के नरसंहार का मामला इतना खास नहीं था, जितना उन के भाई आनंद कुमार की बेनामी जायदाद को बचाने का मामला.

मई, 2017 में सहारनपुर में दलितराजपूत हिंसा के बाद एक नए

नेता चंद्रशेखर आजाद रावण ने काफी सुर्खियां बटोरी थीं. कहा जाता है कि उन का बहुजन संगठन छुआछूत, भेदभाव, ऊंचनीच की भावनाओं को मिटा कर बहुजन समाज को उन का हक दिलाने के लिए काम कर रहा है.

साल 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान इस संगठन का काफी दबदबा दिख रहा था कि जब आचार संहिता उल्लंघन का आरोप लगा कर पुलिस ने चंद्रशेखर आजाद रावण को गिरफ्तार कर जेल भेजा और वहां से वे अस्पताल में शिफ्ट हुए तो कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी भी उन से मिलने गई थीं.

मगर चुनाव खत्म होते ही भीम आर्मी गायब हो गई. सोनभद्र के नरसंहार पर दलित हितैषी चंद्रशेखर आजाद रावण की चुप्पी भी आज तक हैरान करने वाली है.

गुजरात के वेरावल में दलितों की पिटाई के बाद भड़के दलित आंदोलन का नेतृत्व करने वाले जिग्नेश मेवाणी भी सोनभद्र में 10 दलितों की हत्याओं पर चुप रहे.

जिग्नेश मेवाणी वही नेता हैं, जिन्होंने घोषणा की थी कि अब दलित लोग समाज के लिए गंदा काम यानी मरे हुए पशुओं का चमड़ा निकालने, सिर पर मैला ढोने या नालियां या गटर साफ करने जैसा काम नहीं करेंगे.

उन्होंने सरकार से भूमिहीन दलितों को जमीन देने की मांग भी उठाई थी, मगर दलित हित की ये बड़ीबड़ी बातें चुनाव से पहले की हैं. चुनाव खत्म होते ही बातें भी खत्म हो गईं. दलित उसी दशा में हैं, उन्हीं कामों में लगे हुए हैं.

ऐक्टिविस्ट, वकील, नेता और गुजरात विधानसभा में कांग्रेस सीट पर विधायक बने जिग्नेश मेवाणी की दलितों के प्रति जिम्मेदारी और संवेदनशीलता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपने ट्विटर अकाउंट पर दलितों की बेहाली पर कमैंट डाल कर अपनी जिम्मेदारियों की इतिश्री समझ ली.

राजग सरकार में राज्यमंत्री रामदास अठावले दलित नेता हैं. महाराष्ट्र का दलित समाज उन पर बड़ा भरोसा करता है, मगर वे सदन में अपनी बेतुकी तुकबंदियों में ही अपनी सारी ऊर्जा बरबाद कर रहे हैं. दलितों की समस्याओं का समाधान उन के बस की बात नहीं है. हां, उन्होंने क्रिकेट में अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए 25 फीसदी आरक्षण की मांग जरूर रखी थी, जो कभी पूरी होगी, ऐसा लगता नहीं है.

बीकानेर के सांसद अर्जुनराम मेघवाल भी संसद में दलितों के मुद्दे पर बड़े मुखर हो कर बोलते हैं, लेकिन दलित समाज के बीच जा कर उन के दुखदर्द बांटने का मौका उन्हें भी कम ही रहता है. सोनभद्र पर भी उन का कोई बयान सुनाई नहीं पड़ा.

सुशील कुमार शिंदे हों, पीएल पुनिया या अब कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे, तीनों ही कांग्रेस के सीनियर दलित नेता हैं. इन की पहचान उच्च शिक्षित, शांत और सादगी रखने वाले नेताओं के तौर पर है, जिस का कोई फायदा दमन और उत्पीड़न से त्रस्त दलित समाज को नहीं मिलता है.

कांग्रेस के यह तीनों दलित नेता व्यक्तिगत रूप से न कभी दलित समाज के बीच उठतेबैठते हैं और न ही इस समाज के दर्द और परेशानियों से उन का कोई वास्ता है. ये चुनाव के दौरान ही सोनिया गांधी, राहुल गांधी या प्रियंका गांधी वाड्रा के पीछे नजर आते हैं.

पहले उग्र रहे दलित नेता उदित राज भी भाजपा से दुत्कारे जाने के बाद कभीकभी अखबारटीवी में दलित चर्चा कर लेते हैं.

उत्तर प्रदेश के राम नगर के खटीक परिवार में जनमे उदित राज ज्यादातर वक्त अपनी राजनीतिक जमीन खोजने में बिताते हैं. जब वे भाजपा से बाहर थे, तो भाजपा को गरियाते थे, पर फिर उन का दिल बदल गया और भाजपा की गोद में जा कर सांसद बन गए थे, तब उन के सुर भाजपा वाले हो जाते थे.

वहीं 5 बार लोकसभा सांसद और स्पीकर रह चुकी मीरा कुमार से भी दलित समाज को क्या मिला? उपप्रधानमंत्री रह चुके जगजीवन राम की बेटी मीरा कुमार ने साल 1985 में उत्तर प्रदेश के बिजनौर से चुनावी राजनीति में प्रवेश किया था और पहले ही चुनाव में रामविलास पासवान और मायावती को भारी मतों से हराया था.

दलित नेता के रूप में दलित समाज को उन से काफी उम्मीदें थीं, मगर वे कभी अपनों की उम्मीदों पर खरी नहीं उतरीं. कांग्रेस ने उन का इस्तेमाल ‘दलित हितैषी’ होने का संदेश देने के लिए किया और राष्ट्रपति पद के लिए मीरा कुमार का नाम कांग्रेस की तरफ से प्रस्तावित हुआ.

हालांकि बाद में देश के इस सर्वोच्च पद पर दलित रामनाथ कोविंद बैठे, जो उत्तर प्रदेश की गैरजाटव कोरी जाति से हैं. साल 1991 में भाजपा से जुड़ने के बाद रामनाथ कोविंद 1998-2002 के बीच भाजपा दलित मोरचा के अध्यक्ष रहे. रामनाथ कोविंद के बहाने भाजपा हाशिए पर पड़ी अपनी दलित राजनीति को केंद्र में ले आई.

रामनाथ कोविंद खुद के संघर्षपूर्ण जीवन का जिक्र करने से नहीं चूके और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने भी राष्ट्रपति पद पर उन की उम्मीदवारी का ऐलान करते वक्त तकरीबन 5 मिनट में 5 बार ‘दलित’ शब्द का जिक्र किया.

रामनाथ कोविंद के कारण भाजपा की दलित वोटों को ले कर रस्साकशी कुछ कम हुई और हिंदुत्ववादी राजनीति को भी नया तेवर मिला. कुछ दलित वोट भाजपा के पाले में खिसका, मगर देश के सर्वोच्च पद पर कोविंद की अहमियत सजावटी ही है, उन के जरीए दलित समाज का कोई उद्धार न हुआ और न होगा. वे भाजपा के हिंदुत्व जागरण के दलित एंबेसेडर बन कर रह गए.

दरअसल, रामनाथ कोविंद की पे्ररणा तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है. संघ और भाजपा ने सिर्फ अपने एजेंडे को लागू करने के लिए रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाया था, न कि दलितों के किसी फायदे के लिए. इन छद्म दलित नेताओं से दलित समाज का कोई उद्धार होगा, उन्हें इस देश में बराबरी का हक मिलेगा, इस भरम से अब इस तबके को निकल आना चाहिए.

वर्ण व्यवस्था मजबूत कर रहा है संघ

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहता है. संघ की उत्पत्ति ही इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए हुई थी. इसे वह कैसे छोड़ देगा? वह ऐसा हिंदू राष्ट्र चाहता है, जिस में वर्णाश्रम व्यवस्था पहले से कहीं ज्यादा मजबूत हो.

कितनी विरोधाभासी बात है कि यही संघ ‘समरसता’ का नारा देता है, यानी सब के साथ समान बरताव हो, लेकिन मूर्ख से मूर्ख आदमी भी यह सवाल उठाएगा कि जातीय श्रेष्ठता के भाव से पैदा हुए शोषण, उत्पीड़न को खत्म किए बगैर समरसता कैसे हो सकती है?

दलित समाज को भी इस बात पर चिंतन करना चाहिए. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चाहे दलितों के पांव पखारें या संघ दलितों की ओर शंकराचार्य, महामंडलेश्वर और मंदिर का पुजारी बनने का चुग्गा फेंकें, इन प्रलोभनों के पीछे छिपे सच की पड़ताल जरूरी है.

दलित, जिन्हें पहले अछूत कहा जाता था, वे भारत की कुल आबादी का 16.6 फीसदी हैं. इन्हें अब सरकारी आंकड़ों में अनुसूचित जातियों के नाम से जाना जाता है. साल 1850 से 1936 तक ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार इन्हें दबेकुचले वर्ग के नाम से बुलाती थी.

भारत में आज हिंदू दलितों की कुल आबादी तकरीबन 23 करोड़ है. अगर हम 2 करोड़ दलित ईसाइयों और 10 करोड़ दलित मुसलमानों को भी जोड़ लें, तो भारत में दलितों की कुल आबादी तकरीबन 35 करोड़ बैठती है. ये भारत की कुल आबादी के एकचौथाई से भी ज्यादा हैं.

भेदभाव, दमन, मंदिरों में प्रवेश से रोक और अत्याचारों से तंग दलित समुदाय आज बौद्ध धर्म की ओर खासा खिंचता है. बौद्ध धर्म में मूर्तिपूजा नहीं होती, इसलिए धर्म परिवर्तन के जरीए लाखों दलित बौद्ध धर्म स्वीकार कर चुके हैं.

अब हिंदू राष्ट्र के निर्माण की कल्पना पाले हिंदुत्ववादियों को यह डर सता रहा है कि कहीं बचे हुए 23 करोड़ दलित भी हिंदू धर्म न छोड़ दें. इस से उन की ताकत कम हो जाएगी.

दरअसल, मंदिरों में प्रवेश पर पाबंदी को ले कर अब दलित यह सवाल करने लगा है कि अगर हम भी हिंदू हैं तो फिर अछूत कैसे हैं? हमें मंदिरों में प्रवेश क्यों नहीं मिल सकता है और इसीलिए संघ ने ‘समरसता’ का नारा दे कर इन्हें जोड़े रखने की चाल चली है, इसीलिए एक मंदिर, एक श्मशान की बातें भी हो रही हैं. मगर वर्ण व्यवस्था को खत्म करने की बात कहीं नहीं सुनाई पड़ रही. सवर्ण दलित में रोटीबेटी के संबंध की बात भी नहीं सुनाई देती. जब तक यह नहीं तो समरसता कैसी?

दलितों को अपने साथ जोड़ने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपनी सभाओं के द्वार दलितों के लिए भी खोले. पर दलित वहां बैठने के लिए अपनी दरी अपने साथ लाया. सभा में सभी अपनीअपनी दरियां लाते हैं.

पहली लाइन में बैठने वाले सवर्णों की महीन रेशमी धागों से बुनी सुंदर कलाकृतियों वाली दरियां और आखिरी लाइनों में बैठने वाले निचली जाति के लोगों की मोटे धागेजूट की बनी दरियां. कौन ऊंचा और कौन दलित, यह फर्क दरी देख कर ही नजर आ जाता था, जबकि ‘समरसता’ का मंत्र दिया गया और सब की दरियों का रंग भगवा कर दिया गया है.

लिहाजा, ऊपरी तौर पर फर्क खत्म हो गया है. संघ से जुड़े दलितों की हीनभावना में भी कुछ कमी दिख रही है. सभा संदेश की तरफ उस का भी मन लगने लगा है, मगर दलितों को यह समझने की जरूरत है कि अंदरूनी तौर पर तो फर्क अभी भी ज्यों का त्यों बना हुआ है.

रेशमी भगवा दरियां और मोटे जूट की भगवा दरियों में फर्क तो है ही और यह फर्क उस पर बैठने वाले को ही अनुभव होता है यानी भगवा रंग के भीतर वर्ण व्यवस्था ज्यों की त्यों बरकरार है. फर्क वहीं का वहीं है. संघ की इस चालाकी को समझने की जरूरत है.  द्य

जाति के अधार पर होती है शादियां

ऊंची जातियोंखासतौर पर ब्राह्मणों को एक परेशानी यह रहती है कि हिंदू समाज में चतुर्वर्ण के नाम से जानी जाने वाली 4 जातियों के लोग कितने मिलते हैंयह न पता चले. 1872 से जब से अंगरेजों ने जनगणना शुरू की थीउन्होंने जाति के हिसाब से ही लोगों की गिनती शुरू की थी. उन्होंने तो धर्म को भी बाहर कर दिया था.

1949 में जब कांग्रेस सरकार आई तो वह मोटेतौर पर कट्टर तौर पर ब्राह्मणों की सरकार थी या उन की थी जो ब्राह्मणों के बोल को अपना भाग समझते थे. वल्लभभाई पटेलराजेंद्र प्रसाद जैसे नेता घोर जातिवादी थे. जवाहर लाल नेहरू ब्राह्मणवादी न होते हुए भी ब्राह्मण लौबी को मना नहीं पाए और भीमराव अंबेडकर की वजह से शैड्यूल कास्ट और शैड्यूल ट्राइबों की गिनती तो हुई पर बाकी ब्राह्मणोंक्षत्रियोंवैश्यों व शूद्रों यानी पिछड़ों की जातियों की गिनती नहीं हुई. कांग्रेस ने 195119611971198119912001 (वाजपेयी)2011 में जनगणना में जाति नहीं जोड़ी.

नरेंद्र मोदी की 2021 (जो टल गई) में तो जाति पूछने का सवाल ही नहीं उठता था. इसलिए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने चौंकाने वाला फैसला लिया कि वे अलग से एक माह में बिहार में जातियों के हिसाब से गिनती कराएंगे.

गिनती इसलिए जरूरी है कि पिछड़े जो एक अंदाजे से हिंदू आबादी के 60 फीसदी हैंसरकारी नौकरियोंपढ़ाईप्राइवेट नौकरियों में मुश्किल से 10 फीसदी हैं. जनता की 3 फीसदी ऊंची ब्राह्मण जातियों ने सरकारी रुतबे वाले ओहदों में से 60-70 फीसदी पर कब्जा कर रखा है. प्राइवेट सैक्टर का 60-70 फीसदी 3 फीसदी बनियों के पास है. 60-70 फीसदी पिछड़ों और 20 फीसदी शैड्यूल कास्टों के पास निचले मजदूरीकिसानीघरों में नौकरी करनेसेना में सिपाही बननेपुलिस में कांस्टेबलसफाईढुलाईमेकैनिक बनने जैसे काम हैं. उन्हें शराब व धर्म का नशा बहकाता है और इसी के बल पर पहले कांग्रेस ने राज किया और अब भाजपा कर रही है.

पढ़ाई के दरवाजे खोलने और सरकारी रुतबों वाली नौकरियां देने के लिए रिजर्वेशन एक अच्छा और अकेला तरीका है और सही रिजर्वेशन तभी दिया जा सकता है जब पता रहे कि कौन कितने हैं. जाति की गिनती का काम इसलिए जरूरी है कि देश के पंडों ने ही हिंदुओं को जातियों में बांट रखा है और अब थोड़ी मुट्ठीभर सस्ती पढ़ाई की सीटें या रुतबे वाली कुरसियां हाथ से निकल रही हैं तो वे जाति नहीं’ है का हल्ला मचा रहे हैं.

आज किसी युवक या युवती का शादी के लिए बायोडाटा देख लो. उस में जातिउपजातिगौत्र सब होगा. क्योंअगर जाति गायब हो गई है तो लोग क्यों एक ही जाति में शादी करें. अगर ब्राह्मणक्षत्रियवैश्य शादियां आपस में कर लें तो इसे अंतर्जातीय शादियां नहीं कहा जा सकता. समाज ब्राह्मण युवती के साथ जाट युवक और क्षत्रिय युवक के साथ शैड्यूल कास्ट युवती की शादी को जब तक आम बात न मान ले तब तक देश में जाति मौजूद हैमाना जाएगा.

रिजर्वेशन के लिए जाति गणना जरूरी है पर यह सामाजिक बुराई दूर करने की गारंटी नहीं है. लोगों के दफ्तरों में जाति गुट बना लिए. छात्रों ने स्कूलों और कालेजों में बना लिए हैं. नीतीश कुमार के पास इस मर्ज की कोई वैक्सीन है क्यारिजर्वेशन सरकारी शिक्षा की सीटें और पावर की सीटों पर छोटा सा हिस्सा देने के लिए ऐसा ही है जैसे कोविड के लिए डोलोपैरासीटामोल (क्रोसीन) लेनाइस से ज्यादा नहीं. यह बीमारी से नहीं लड़ने की ताकत देती हैबीमार को राहत देती है. पर जब तक वैक्सीन न बनेयही सही.

जातिवाद के नाम पर हुई जनगणना

ऊंची जातियों, खासतौर पर ब्राह्मणों को एक परेशानी यह रहती है कि हिंदू समाज में चतुर्वर्ण के नाम से जानी जाने वाली 4 जातियों के लोग कितने मिलते हैं, यह न पता चले. 1872 से जब से अंगरेजों ने जनगणना शुरू की थी, उन्होंने जाति के हिसाब से ही लोगों की गिनती शुरू की थी. उन्होंने तो धर्म को भी बाहर कर दिया था.

1949 में जब कांग्रेस सरकार आई तो वह मोटेतौर पर कट्टर तौर पर ब्राह्मणों की सरकार थी या उन की थी जो ब्राह्मणों के बोल को अपना भाग समझते थे. वल्लभभाई पटेल, राजेंद्र प्रसाद जैसे नेता घोर जातिवादी थे. जवाहर लाल नेहरू ब्राह्मणवादी न होते हुए भी ब्राह्मण लौबी को मना नहीं पाए और भीमराव अंबेडकर की वजह से शैड्यूल कास्ट और शैड्यूल ट्राइबों की गिनती तो हुई पर बाकी ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों व शूद्रों यानी पिछड़ों की जातियों की गिनती नहीं हुई. कांग्रेस ने 1951, 1961, 1971, 1981, 1991, 2001 (वाजपेयी), 2011 में जनगणना में जाति नहीं जोड़ी.

नरेंद्र मोदी की 2021 (जो टल गई) में तो जाति पूछने का सवाल ही नहीं उठता था. इसलिए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने चौंकाने वाला फैसला लिया कि वे अलग से एक माह में बिहार में जातियों के हिसाब से गिनती कराएंगे.

गिनती इसलिए जरूरी है कि पिछड़े जो एक अंदाजे से हिंदू आबादी के 60 फीसदी हैं, सरकारी नौकरियों, पढ़ाई, प्राइवेट नौकरियों में मुश्किल से 10 फीसदी हैं. जनता की 3 फीसदी ऊंची ब्राह्मण जातियों ने सरकारी रुतबे वाले ओहदों में से 60-70 फीसदी पर कब्जा कर रखा है. प्राइवेट सैक्टर का 60-70 फीसदी 3 फीसदी बनियों के पास है. 60-70 फीसदी पिछड़ों और 20 फीसदी शैड्यूल कास्टों के पास निचले मजदूरी, किसानी, घरों में नौकरी करने, सेना में सिपाही बनने, पुलिस में कांस्टेबल, सफाई, ढुलाई, मेकैनिक बनने जैसे काम हैं. उन्हें शराब व धर्म का नशा बहकाता है और इसी के बल पर पहले कांग्रेस ने राज किया और अब भाजपा कर रही है.

पढ़ाई के दरवाजे खोलने और सरकारी रुतबों वाली नौकरियां देने के लिए रिजर्वेशन एक अच्छा और अकेला तरीका है और सही रिजर्वेशन तभी दिया जा सकता है जब पता रहे कि कौन कितने हैं. जाति की गिनती का काम इसलिए जरूरी है कि देश के पंडों ने ही हिंदुओं को जातियों में बांट रखा है और अब थोड़ी मुट्ठीभर सस्ती पढ़ाई की सीटें या रुतबे वाली कुरसियां हाथ से निकल रही हैं तो वे ‘जाति नहीं’ है का हल्ला मचा रहे हैं.

आज किसी युवक या युवती का शादी के लिए बायोडाटा देख लो. उस में जाति, उपजाति, गौत्र सब होगा. क्यों? अगर जाति गायब हो गई है तो लोग क्यों एक ही जाति में शादी करें. अगर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शादियां आपस में कर लें तो इसे अंतर्जातीय शादियां नहीं कहा जा सकता. समाज ब्राह्मण युवती के साथ जाट युवक और क्षत्रिय युवक के साथ शैड्यूल कास्ट युवती की शादी को जब तक आम बात न मान ले तब तक देश में जाति मौजूद है, माना जाएगा.

रिजर्वेशन के लिए जाति गणना जरूरी है पर यह सामाजिक बुराई दूर करने की गारंटी नहीं है. लोगों के दफ्तरों में जाति गुट बना लिए. छात्रों ने स्कूलों और कालेजों में बना लिए हैं. नीतीश कुमार के पास इस मर्ज की कोई वैक्सीन है क्या? रिजर्वेशन सरकारी शिक्षा की सीटें और पावर की सीटों पर छोटा सा हिस्सा देने के लिए ऐसा ही है जैसे कोविड के लिए डोलो, पैरासीटामोल (क्रोसीन) लेना, इस से ज्यादा नहीं. यह बीमारी से नहीं लड़ने की ताकत देती है, बीमार को राहत देती है. पर जब तक वैक्सीन न बने, यही सही.

 

मसला: ‘‘पंच परमेश्वर’ पर भाजपा का ‘फंदा’

यह आज का कड़वा सच है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी और उन की सरकार का एक ही मकसद है सभी ‘संवैधानिक संस्थाओं’ को अपनी जेब में रख लेना और अपने हिसाब से देश को चलाना. किसी भी तरह के विरोध को नेस्तनाबूद कर देना.देश के संविधान की शपथ ले कर  सत्ता में आए भारतीय जनता पार्टी के ये चेहरे? ऐसा लगता है कि शायद संविधान पर आस्था नहीं रखते, जिस तरह इन्होंने अपने भाजपा के संगठन में उदार चेहरों को हाशिए पर डाल दिया है, वही हालात यहां भी कायम करना चाहते हैं. ये देश को उस दिशा में ले जाना चाहते हैं,

जो बहुतकुछ पाकिस्तान और अफगानिस्तान की है. यही वजह है कि अब कार्यपालिका, विधायिका के साथ चुनाव आयोग, सूचना आयोग को तकरीबन अपने कब्जे में लेने के बाद यह सुप्रीम कोर्ट यानी न्यायपालिका को भी अपने मनमुताबिक बनाने के लिए बड़े ही उद्दंड रूप में सामने आ चुकी है.

दरअसल, भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ी होती है, जो देश की आजादी और देश को संजोने के लिए अपने प्राण देने वाले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, भगत सिंह, डाक्टर बाबा साहेब अंबेडकर जैसे नायकों की विचारधारा से बिलकुल उलट है.

और जब कोई विपरीत विचारधारा सत्ता के सिंहासन पर विराजमान होती है, तो वह लोकतंत्र पर विश्वास नहीं करती, बल्कि तानाशाही को अपना आदर्श मान कर आम लोगों की भावनाओं को कुचल देना चाहती है और अपने विरोधियों को नेस्तनाबूद कर देना चाहती है.कोलेजियम से कष्ट हैआज सब से ज्यादा कष्ट केंद्र में बैठी नरेंद्र मोदी सरकार को सुप्रीम कोर्ट के कोलेजियम सिस्टम से है. भाजपा के नेता यह भूल जाते हैं कि जब कांग्रेस पार्टी सत्ता में थी या दूसरे दल देश चला रहे थे, तब भी यही सिस्टम काम कर रहा था, क्योंकि यही आज के हालात में सर्वोत्तम है. इसे बदल कर अपने मुताबिक करने की कोशिश देशहित या लोकतंत्र के हित में नहीं है.

कांग्रेस ने केंद्र सरकार पर न्यायपालिका पर कब्जा करने के लिए उसे डराने और धमकाने का आरोप लगाया है. कांग्रेस पार्टी ने यह आरोप केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू की ओर से प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ को लिखे उस पत्र के मद्देनजर लगाया, जिस में किरण रिजिजू ने सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के कोलेजियम में केंद्र और राज्यों के प्रतिनिधियों को शामिल करने का सुझाव दिया है.किरण रिजिजू ने प्रतिनिधियों को शामिल करने की मांग करते हुए कहा है कि इस से जस्टिसों की नियुक्ति में पारदर्शिता और जनता के प्रति जवाबदेही लाने में मदद मिलेगी.

इस पर कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने ट्वीट किया, ‘उपराष्ट्रपति ने हमला बोला. कानून मंत्री ने हमला किया. यह न्यायपालिका के साथ सुनियोजित टकराव है, ताकि उसे धमकाया जा सके और उस के बाद उस पर पूरी तरह से कब्जा किया जा सके.’ उन्होंने आगे कहा कि कोलेजियम में सुधार की जरूरत है, लेकिन यह सरकार उसे पूरी तरह से अधीन करना चाहती है. यह उपचार न्यायपालिका के लिए विष की गोली है.

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी इस मांग को बेहद खतरनाक करार दिया. उन्होंने ट्वीट किया, ‘यह खतरनाक है. न्यायिक  नियुक्तियों में सरकार का निश्चित तौर पर कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए.’भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा इतनी अलोकतांत्रिक है कि वह न तो विपक्ष चाहती है और न ही कहीं कोई विरोधअवरोध.

यही वजह है कि सत्ता में आने के बाद वह सारे राष्ट्रीय चिह्न और धरोहर, जो स्वाधीनता की लड़ाई से जुड़ी हुई हैं या कांग्रेस पार्टी से, उन्हें धीरेधीरे खत्म किया जा रहा है. इस के साथ ही सब से खतरनाक हालात ये हैं कि आज सत्ता बैठे हुए देश के जनप्रतिनिधि देश की संवैधानिक संस्थाओं को सुनियोजित तरीके से कमजोर करने की कोशिश कर रहे हैं और चाहते हैं कि यह संस्था उन की जेब में रहे और वे जो चाहें वही होना चाहिए.हम ने देखा है कि किस तरह चाहे वह राष्ट्रपति हो या उपराष्ट्रपति या फिर राज्यपालों की नियुक्तियां, भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी की सरकार ऐसे चेहरों को इन कुरसियों पर बैठा रही है, जो पूरी तरह से उन के लिए मुफीद हैं, जो एक गलत चलन है.

एक बेहतर लोकतंत्र के लिए विपक्ष उतना ही जरूरी है, जितना देश को गति देने के लिए सत्ता, मगर अब यह कोशिश की जा रही है कि विपक्ष खत्म कर दिया जाए और संवैधानिक संस्थाओं को अपनी जेब में रख कर देश को एक अंधेरे युग में धकेल दिया जाए, जहां वे जो चाहें वही अंतिम सत्य हो. पर ऐसा होना बड़ा मुश्किल है.

71,000 को नियुक्तिपत्र : नरेंद्र मोदी का ‘चुनावी बाण’

आज जब देश के 2 राज्यों गुजरात और हिमाचल प्रदेश में हाल ही में विधानसभा चुनाव हुए हैं, ऐसे में प्रधानमंत्री द्वारा लोगों को नौकरी का नियुक्तिपत्र दिया जाना एक ऐसा मसला बन कर सामने है, जो सीधेसीधे निष्पक्ष चुनाव को पलीता लगाने वाला कहा जा सकता है.

इस बारे में देश की जनता से एक ही सवाल है कि अगर आज टीएन शेषन मुख्य चुनाव अधिकारी होते तो क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 71,000 लोगों को तो क्या किसी एक को भी सरकारी नौकरी का नियुक्तिपत्र दे सकते थे?  इस का सीधा सा जवाब यही है कि बिलकुल नहीं.

देश का विपक्ष आज चुप है. देश की संवैधानिक संस्थाएं आज चुप हैं. इस आसान से लगने वाले एक मामले के आधार पर हम कह सकते हैं कि नरेंद्र मोदी सरकार और वे खुद लगातार कुछ न कुछ ऐसा कर रहे हैं, जिस से नियमकायदों और नैतिकता की धज्जियां उड़ रही हैं.

जैसा कि हम सब जानते हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 10 लाख कर्मियों के लिए भरती अभियान वाले ‘रोजगार मेला’ के तहत तकरीबन 71,000 नौजवानों को नियुक्तिपत्र सौंपे थे. प्रधानमंत्री कार्यालय ने एक बयान में यह जानकारी दी थी.

कहा गया था कि ‘रोजगार मेला’ नौजवानों को रोजगार के मौके देने को सर्वोच्च प्राथमिकता देने की दिशा में प्रधानमंत्री की प्रतिबद्धता को पूरा करने में एक बड़ा कदम है.

सभी जानते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गुजरात और हिमाचल प्रदेश  लगातार जा रहे थे और लोगों को संबोधित कर रहे थे. ऐसे में चुनाव के वक्त नियुक्तियों का यह झुनझुना सीधेसीधे मतदान को प्रभावित करने वाला था, इसलिए इस पर निर्वाचन आयोग को खुद संज्ञान ले कर रोक लगानी चाहिए. सरकारी नौकरियों का लौलीपौप

लाख टके का सवाल यही है कि आज जब गुजरात, जो नरेंद्र मोदी का गृह प्रदेश है और जहां से उन्होंने अपनी राजनीति का सफर शुरू किया था और प्रधानमंत्री पद पर पहुंचे हैं, सारा देश जानता है कि गुजरात प्रदेश का विधानसभा चुनाव नरेंद्र मोदी के लिए कितनी अहम जगह रखता है, क्योंकि गुजरात की जीत सीधेसीधे नरेंद्र मोदी की जीत और गुजरात की हार उन की हार कही जाएगी.

ऐसे में नियुक्तिपत्र का यह लौलीपौप संविधान के निष्पक्ष चुनाव के विरुद्ध है और हम नरेंद्र मोदी से पूछना चाहते हैं कि अगर वे खुद विपक्ष में होते और अगर सत्ताधारी पार्टी ऐसे करती तो क्या वे चुप रहते?

जैसा कि प्रधानमंत्री कार्यालय के बयान में कहा गया कि ‘यह’ रोजगार मेला रोजगार सृजन में उत्प्रेरक के रूप में काम करेगा और युवाओं को उन के सशक्तीकरण और राष्ट्रीय विकास में सीधी भागीदारी के लिए सार्थक अवसर प्रदान करेगा.

हम कह सकते हैं कि गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनाव के वक्त यह सब करना सीधेसीधे निष्पक्ष चुनाव को प्रभावित करने वाला था. आप को याद होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस से पहले अक्तूबर महीने में ‘रोजगार मेला’ की शुरुआत

की थी. उन्होंने एक समारोह में 71,000 नवनियुक्त कर्मियों को नियुक्तिपत्र सौंपे थे. हालांकि प्रधानमंत्री कार्यालय ने कहा है कि गुजरात और हिमाचल प्रदेश को छोड़ कर देश की 45 जगहों पर नियुक्त कर्मियों को नियुक्तिपत्र सौंपे जाएंगे. ऐसा कहना भी यह साबित करता है कि यह चुनाव वोटरों को प्रभावित करने का ही एक खेल था.

दरअसल, नियुक्तिपत्र बांटने का काम कर के यह बताया जा रहा है कि आने वाले समय में हम ऐसा काम करेंगे, जिस से साफ है कि यह वोटरों को प्रभावित करने की ही एक कोशिश है. पिछली बार जिन श्रेणियों में नौजवानों को नियुक्ति दी गई थी, उन के अलावा इस बार शिक्षक, व्याख्याता, नर्स, नर्सिंग अधिकारी, चिकित्सक, फार्मासिस्ट, रेडियोग्राफर और अन्य तकनीकी और पैरामैडिकल पदों पर भी नियुक्ति की जाएगी. प्रधानमंत्री कार्यालय ने बताया कि इस बार अच्छीखासी तादाद में केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा विभिन्न केंद्रीय बलों में भी नौजवानों को नियुक्ति दी गई है. प्रधानमंत्री नवनियुक्त कर्मियों के लिए आयोजित किए जाने वाले औनलाइन ओरिएंटेशन कोर्स ‘कर्मयोगी प्रारंभ’ की भी शुरुआत करेंगे.

इस में सरकारी कर्मचारियों के लिए आचार संहिता, कार्यस्थल, नैतिकता और ईमानदारी, मानव संसाधन नीतियां और अन्य लाभ व भत्ते से संबंधित जानकारियां शामिल होंगी, जो उन्हें नीतियों के अनुकूल और नवीन भूमिका में आसानी से ढल जाने में मदद करेंगी. इस सब के बावजूद हम तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से यही सवाल करते हैं कि क्या नियुक्तिपत्र देने का काम प्रधानमंत्री कार्यालय का है और यह कब से हो गया? नियमानुसार तो नियुक्तिपत्र वह विभाग देता है, जिस के अधीनस्थ कर्मचारी काम करता है. प्रधानमंत्री कार्यालय या प्रधानमंत्री का यह काम नहीं है और यह बात देश का हर नागरिक जानता है.

टैक्स: क्या थी सरकार की नीति

सस्ती या मुफ्त बिजलीपानीपढ़ाईखाने को ले कर प्रधानमंत्री ने रेवड़ी बांटो कल्चर कह कर बदनाम करना शुरू किया है. ये सस्ती चीजें देश के उन गरीबों को मिलती हैं जिन को समाज आज भी इतना कमाने का मौका नहीं दे रहा है कि वे अपने लिए जिंदगी जीने के लिए इन पहली चीजों का इंतजाम कर सकें. भारतीय जनता पार्टी ने चूंकि सरकारों का खजाना खाली कर दिया है और वह बेतहाशा पैसा अमीरों के लिए खर्च कर रही हैचुनावों में ये सस्ती चीजें देने की बात से उसे चिढ़ होने लगी है. भारतीय जनता पार्टी की कल्चर तो यह है कि सस्ता सिर्फ मंदिरों को मिले जो न बिजली का बिल देते हैं चाहे जितनी बिजली खर्च करेंन पानी का बिल देते हैं चाहे कितना बहाएंन नगरनिगम को टैक्स देते हैं चाहे जितना बनाएं. भारतीय जनता पार्टी के लिए सस्ती चीजें पाने वाले असल में पापी हैं जिन्होंने पिछले जन्मों में पुण्य नहीं किएदान नहीं दिया और अब उस की सजा भुगत रहे हैं. हमारे धर्मग्रंथ इन किस्सों से भरे हैं और प्रधानमंत्री व अन्य भाजपा नेताओं के मुंह से ये बातें निकलतीफिसलती रहती हैं.

गरीब जनता को सस्ती बिजलीपानी व खाना असल में अमीरों के फायदे के लिए होता है. जैसे ही एक गरीब घर को सस्ती बिजली व घर में मुफ्त पानी मिलने लगता हैउस की सेहत सुधर जाती हैउस के काम के घंटे बढ़ जाते हैं और वह कम तनख्वाह पर काम करने को तैयार होने लगता है.

दुनिया के कई देशों ने सस्ते घर भी अपने गरीब और मध्यम वर्गों को दिए और वहां वेतन काफी कम हो गए और लोग ज्यादा मेहनत करने लगे क्योंकि उन्हें छत के लिए दरदर नहीं भटकना पड़ता. दिल्लीमुंबईलखनऊ या किसी भी बड़े शहर की गरीब बस्ती को देख लें. वहां लोग घंटों पीने के पानीराशन की दुकानों और यहां तक कि शौच की जगह के लिए बरबाद करते हैं. उन घरों में एक आफत नौकरी होती है तो दूसरी यह कि चूल्हा कैसे जलेगापकेगा कैसेलोग नहाएंगे कैसेपीएंगे क्यादेश के व्यापारकारखानेखेत इतना पैसा नहीं दे पाते कि लोग पूरे दामों में कोई चीज खरीद सकें.

और फिर यह पूरा दाम क्या हैज्यादातर रोजमर्रा की चीजों में दाम असल में टैक्स से भरे होते हैं. हर चीज को बनानेपैदा करने में जितना पैसा लगता है उस का तीनचौथाई तक टैक्स होता है. तरहतरह के टैक्स जीएसटी के बावजूद मौजूद हैं. अगर ईमानदारी से टैक्स दिया जाए तो जीएसटी छोटे से दुकानदार के बड़े होलसेल दुकानदार से सिर पर सामान लाद कर अपनी 10×10 फुट की दुकान पर बेचता है तो उस की मेहनत पर भी टैक्स लग जाता है. वह अगर कोई चीज 100 रुपए में लाता है120 में बेचता है तो 20 रुपए पर टैक्स देना पड़ता है वह भी 12 से 18 फीसदी. गरीब को टैक्स से चूसने वाली सरकार को यह बुरा लग रहा है कि कोई इस गरीब को मुफ्त सामान दे कर उस को टैक्स की मार से फ्री कर रहा है. भारतीय जनता पार्टी के लिए जीएसटी तो जनता से जबरन वसूला गया दानपुण्य है और जो कहे कि यह सामान ही मुफ्त है वह इस दानपुण्य की महान हिंदू संस्कृति पर हमला कर रहा है. उसे रेवड़ी बांटना नहीं कहा जाए तो क्या कहा जाए. हमारे धर्मग्रंथ तो कहते हैं कि रेवड़ी बांटो नहींशूद्र के पास जो भी संपत्ति हो वह राजा जब्त कर ले.

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