जितिन प्रसाद: माहिर या मौकापरस्त

लेखक- राधेश्याम त्रिपाठी

शाहजहांपुर, उत्तर प्रदेश  के जितिन प्रसाद का कांग्रेस छोड़ कर भारतीय जनता पार्टी में शामिल होना यकीनन कांग्रेस के लिए एक  झटका है. इस बात में कोई दोराय नहीं है, लेकिन यह प्रचारित करना कि कांग्रेस में उन की अनदेखी हो रही थी, सम झ से परे है.

जितिन प्रसाद कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे शाहजहांपुर के जितेंद्र प्रसाद उर्फ ‘बाबा साहब’ के बेटे और ज्योति प्रसाद जैसी शख्सीयत के पोते हैं.

जितिन प्रसाद साल 2004 में शाहजहांपुर क्षेत्र से लोकसभा का चुनाव जीते थे और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह  के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार में उन्हें इस्पात मंत्री का कार्यभार भी सौंपा गया था.  साल 2009 में लखीमपुर की धौरहरा लोकसभा सीट से जितिन प्रसाद को उम्मीदवार बनाया गया था और उन्होंने फिर से जीत दर्ज की थी. तब उन्हें पैट्रोलियम व प्राकृतिक गैस, सड़क परिवहन और राजमार्ग व मानव संसाधन विकास राज्यमंत्री बनाया गया था.

साल 2014 के लोकसभा चुनाव में जितिन प्रसाद धौरहरा क्षेत्र से हार गए थे. लिहाजा, साल 2017 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने लखीमपुर के मोहम्मदी विधानसभा क्षेत्र से उम्मीदवार बनना चाहा था, लेकिन बरबर नगर पंचायत के चेयरमैन संजय शर्मा को यहां से उम्मीदवार बनाया जा चुका था.

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संजय शर्मा मोहम्मदी क्षेत्र के कांग्रेस विधायक और नगर पंचायत बरबर के चेयरमैन रहते आए राम भजन शर्मा के बेटे थे.

संजय शर्मा की उम्मीदवारी घोषित होने के बाद ही जितिन प्रसाद ने बगावत का  झंडा उठाया था और भारतीय जनता पार्टी में शामिल होने के लिए काफिले समेत लखनऊशाहजहांपुर मार्ग पर महोली तक पहुंच भी गए थे, पर कहा जाता है कि महोली पहुंचते ही प्रियंका गांधी वाड्रा ने उन से फोन पर बात की और वे वापस लौट आए थे.

वापसी पर जितिन प्रसाद को उन के गृह जनपद या यों कहें ‘बाबा साहब’ के गढ़ जनपद शाहजहांपुर के निकट तिलहर विधानसभा से कांग्रेस का उम्मीदवार घोषित किया गया था.

गृह जनपद और प्रभावशाली नेतृत्व के वजूद के साथ 2-2 बार केंद्र में मंत्रिमंडल में सम्मिलित रहने वाले जितिन प्रसाद विधानसभा चुनाव में बुरी तरह से हारे थे.

इस हार को वैसे तो भाजपा की लहर में डूबने की हालत मानी जाती है, लेकिन जितिन प्रसाद जैसे नेता के लिए अपने गढ़ में ही बुरी तरह हारना बहुत ही शर्मनाक बात कही जा सकती है.

साल 2019 में भी जितिन प्रसाद को लोकसभा धौरहरा से उम्मीदवार बनाया गया था, लेकिन उस में भी उन का स्थान सम्मानजनक तक नहीं रहा था.

कुछ भी हो, जितिन प्रसाद के पार्टी छोड़ने व भाजपा में सम्मिलित होने को कांग्रेस के लिए अच्छा नहीं माना जा सकता, लेकिन जिस तौरतरीके के लिए कांग्रेस की लानतमलामत की जा रही है, वह कांग्रेस पर लागू नहीं होता.

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साल 2004 में शाहजहांपुर से व साल 2009 में धौरहरा लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेस के उम्मीदवार के तौर पर जीतना जितिन प्रसाद का कोई करिश्मा भी नहीं माना जा सकता. करिश्मा तो तब माना जाता, जब वे साल 2017 में अपने गृह जनपद के तिलहर विधानसभा क्षेत्र से ही विधायक बन कर दिखाते.

साल 2014 और साल 2019 के लोकसभा चुनाव में भी जितिन प्रसाद को धौरहरा से उम्मीदवार बनाया गया था और उन का हार जाना कोई अप्रत्याशित नहीं माना जा सकता, लेकिन तिलहर विधानसभा चुनाव में हार जाना जितिन प्रसाद की कदकाठी के मुताबिक नहीं था. साल 2014 व 2019 के लोकसभा चुनाव या 2017 के विधानसभा चुनाव में तो कांग्रेस भी हारी थी, कांग्रेस की  झोली में तब क्या था?

युवा जितिन प्रसाद जैसा ‘महान’ नेता, जो 2 बार केंद्रीय मंत्रिमंडल में रहा हो, अपने गढ़ तिलहर से हार कर निचली पायदान पर पहुंचा हो, उसे कांग्रेस दे ही क्या सकती थी?

भले ही कांग्रेस की गलतियां रही होंगी, लेकिन कांग्रेस कर भी क्या सकती थी, उस इनसान के लिए, जिस के सिर पर 2004 व 2009 में केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह दे कर मंत्री पद का ताज रखा गया और वह मोहम्मदी क्षेत्र से विधानसभा टिकट संजय शर्मा को मिल जाने के गम में कांग्रेस छोड़ कर साल 2017 में ही भाजपा में जाने के लिए धूमधाम से घोषणा कर के पलायन कर रहा था.

निश्चित ब्राह्मण होने के नाते जितिन प्रसाद को पार्टी में अहम जगह दी जा सकती थी, लेकिन प्रमोद तिवारी वगैरह जैसे कई ब्राह्मण नेताओं ने भले ही केंद्र में मंत्रिमंडल में जगह न पाई हो, लेकिन उन की हालत व जन महत्त्व तो इसी से साबित होता है कि वे लगातार 7 बार अपने क्षेत्र से विधायक चुने जाते रहे और खुद राज्यसभा सदस्य बन जाने के बाद जब साल 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के 7 विधायक ही जीत सके थे, तब भी प्रमोद तिवारी की बेटी मोना उस चुनाव में विधायक बन कर विधानसभा में नेता कांग्रेस हैं.

भले ही अजय कुमार लल्लू को विधानसभा में कांग्रेस के नेता पद से प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नियुक्त कर दिया हो, यह पार्टीगत नीति और सोच रही हो, लेकिन 2 बार कांग्रेस सांसद रह कर केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह पाने के बाद भी विधानसभा चुनाव हार जाने वाले नेता जितिन प्रसाद को क्या अहमियत दी जा सकती थी, सम झ से परे है. उन्हें ब्राह्मणों को प्रदेश में एकत्र करने, संगठित करने की जिम्मेदारी दी गई, लेकिन क्या हो सका है अभी तक वे क्या कर सके?

यह तय है कि 2 बार केंद्रीय मंत्रिमंडल में रहने वाला आदमी बड़ा नेता होना चाहिए, बड़ी जिम्मेदारी मिलनी चाहिए, लेकिन कौन सी सीट पर विधानसभा में कौन सी जिम्मेदारी दे दी जाती, विधानपरिषद या राज्यसभा में किस क्षेत्र से भेजा जा सकता था और कांग्रेस की औकात भी थी भेजने की? और यह औकात तो तब बनती, जब ऐसे लोग अपनेअपने गृह क्षेत्र तक से विधानसभा चुनाव जीतने की हैसियत में होते.

कांग्रेस की वर्तमान हालत न तो सोनिया गांधी की वजह से है और न ही इस के लिए राहुल गांधी जिम्मेदार हैं. आखिर एक आदमी कितने दिनों तक अकेले रेत में खड़ी नाव पर सवार ‘जोर लगा कर हईशा’ भी नहीं कह सकते, चिल्लाना नहीं चाहते, तो न तो नाव रेत से निकलेगी और न ही नदी के उस पार जा पाएगी. एक अकेला कब तक मुरदा लाशों को ढो कर उन के सिर पर ताज पहनाने का काम करता रह सकता है. यही वजह है कि राहुल गांधी अपने साथियों से हताशनिराश हो कर नाव की पतवार संभालने की इच्छा ही नहीं रख पा रहे हैं.

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‘राहुल सक्रिय नहीं हैं’ का जुमला उछालने वाले कितने सक्रिय हैं, यह उन्हें खुद सोचना चाहिए और नाव की सवारी कर रहे ‘जोर लगा कर हईशा’ तक न कर पाने वाले स्वार्थ के लिए उस दल को छोड़ कर भागे, जिस ने उन को राजनीति में आने के साथ ही 2 बार सांसद ही नहीं, बल्कि केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल होने का सुख दिया, केवल मोहम्मदी  विधानसभा क्षेत्र से किसी दूसरे को उम्मीदवार बना देने के चलते जिस ने अपना काफिला भाजपा की ओर बढ़ा दिया और तिलहर से टिकट दिए जाने के बावजूद बुरी तरह से हारा.

अच्छा है कि अब जितिन प्रसाद भाजपा में करिश्मा दिखाएं, लेकिन जलती आग तापने वाले अपनी भी गतिविधियों का आकलन करते तो अच्छा होता.

गरीब की ताकत है पढ़ाई

हमारे देश में ही नहीं, लगभग सभी देशों में गरीब, मोहताज, कमजोर पीढ़ी दर पीढ़ी जुल्मों के शिकार लोग रहे हैं. इसकी असली वजह दमदारों के हथियार नहीं, गरीबों की शिक्षा और मुंह खोलने की कमजोरी रही है. धर्म के नाम पर शिक्षा को कुछ की बपौती माना गया है और उसी धर्म देश के सहारे राजाओं ने अपनी जनता को पढ़ने-लिखने नहीं दिया. समाज का वही अंग पीढ़ी दर पीढ़ी राज करता रहा जो पढ़-लिख और बोल सका.

2019 के चुनाव में भी यही दिख रहा है. पहले बोलने या कहने के साधन बस समाचारपत्र या टीवी थे. समाचारपत्र धन्ना सेठों के हैं और टीवी कुछ साल पहले तक सरकारी था. इन दोनों को गरीबों से कोई मतलब नहीं था. अब डिजिटल मीडिया आ गया है, पर स्मार्टफोन, डेटा, वीडियो बनाना, अपलोड करना खासा तकनीकी काम है जिस में पैसा और समय दोनों लगते हैं जो गरीबों के पास नहीं हैं.

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गरीबों की आवाज 2019 के चुनावों में भी दब कर रह गई है. विपक्ष ने तो कोशिश की है पर सरकार ने लगातार राष्ट्रवाद, देश की सुरक्षा, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर जनता को बहकाने की कोशिश की है ताकि गरीबों की आवाज को जगह ही न मिले. सरकार से डरे हुए या सरकारी पक्ष के जातिवादी रुख से सहमत मीडिया के सभी अंग कमोबेश एक ही बात कह रहे हैं, गरीब को गरीब, अनजान, बीमार चुप रहने दो.

चूंकि सोशल, इलैक्ट्रोनिक व प्रिंट मीडिया पढ़ेलिखों के हाथों में है, उन्हीं का शोर सुनाई दे रहा है. आरक्षण पाने के बाद भी सदियों तक जुल्म सहने वाले भी शिक्षित बनने के बाद भी आज भी मुंह खोलने से डरते हैं कि कहीं वह शिक्षित ऊंचा समाज जिस का वे हिस्सा बनने की कोशिश कर रहे हैं उन का तिरस्कार न कर दे. कन्हैया कुमार जैसे अपवाद हैं. उन को भीड़ मिल रही है पर उन जैसे और जमा नहीं हो रहे. 15-20 साल बाद कन्हैया कुमार क्या होंगे कोई नहीं कह सकता क्योंकि रामविलास पासवान जैसों को देख कर आज कोई नहीं कह सकता कि उन के पुरखों के साथ क्या हुआ. रामविलास पासवान, प्रकाश अंबेडकर, मायावती, मीरा कुमार जैसे पढ़लिख कर व पैसा पा कर अपने समाज से कट गए हैं.

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2019 के चुनावों के दौरान राहुल गांधी गरीबों की बात करते नजर आए पर वोट की खातिर या दिल से, कहा नहीं जा सकता. पिछड़ों, दलितों ने उन की बातों पर अपनी हामी की मोहर लगाई, दिख नहीं रहा. दलितों से जो व्यवहार पिछले 5 सालों में हुआ उस पर दलितों की चुप्पी साफ करती है कि यह समाज अभी गरीबी के दलदल से नहीं निकल पाएगा. हां, सरकार बदलवा दे यह ताकत आज उस में है पर सिर्फ उस से उस का कल नहीं सुधरेगा. उसे तो पढ़ना और कहना दोनों सीखना होगा. आज ही सीखना होगा. पैन ही डंडे का जवाब है.

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