फिल्म: कंठों
कलाकार: शिबोप्रसाद मुखर्जी, पाउली डाम
रेटिंगः 4 स्टार
बौलीवुड ही नहीं हौलीवुड में भी जानलेवा बीमारी कैंसर पर कई फिल्में बन चुकी हैं. हर फिल्म में कैंसर की बीमारी के चलते मरीजों की होने वाली मौत का चित्रण होता है अथवा कैंसर की बीमारी का भावनात्मक रूप से फिल्म की कहानी में दोहन किया जाता है. मगर पहली बार फिल्मकार शिबोप्रसाद मुखर्जी और नंदिता रौय बंगला भाषा की फिल्म ‘‘कंठों’’ में कैंसर की बीमारी का इलाज कराकर स्वस्थ होने के बाद उस इंसान पर क्या गुजरती है? उसे किस तरह के संबल की जरुरत होती है? सहित कई बातों का अति सुंदर और संजीदा माानवीय चित्रण किया है. यह फिल्म ऐसे रेडियो जौकी की है जो कि गले के कैंसर के चलते अपनी आवाज खो देने के बाद किस तरह पुनः अपने रेडियो जौकी के प्रोफेशन@काम को अंजाम देना शुरू करता है. यह कहानी है उम्मीद, आशा, संघर्ष, दोस्ती और रिश्तों की. यह कहानी है मानवीय स्प्रिट की.
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फिल्म की कहानी कलकत्ता के एक अति मशहूर रेडियो जौकी अर्जुन मलिक (शिबोप्रसाद मुखर्जी) के इर्द गिर्द घूमती है.जिसकी पत्नी प्रिथा मलिक (पाउली डाम)भी रेडियो स्टेशन में काम करती है. उनका आठ साल का बेटा है. अर्जुन मलिक को सुनने वाले श्रोता तुरंत उनसे जुड़ जाते हैं. अर्जुन मलिक की आवाज में संगीत का जादू है. एक दिन एक लड़की अंजली अपने मकान की इमारत की छत पर बैठकर आत्महत्या करने से पहले अर्जुन मलिक को फोन करती है. उसका मकसद पूरे संसार को बताना है कि उसके माता पिता उसे प्यार नही करते. उसकी मां डौक्टर राधिका चौधरी है. और पिता बिजनेसमैन. अर्जुन मलिक, अंजली से बातें करते करते उसकी मां का नंबर मांग लेता है, फिर अंजली को अपने एक गीत को सुनने के लिए कहकर अंजली की मां से बात कर सच बयां कर देते हैं. फिर अंजली व उसकी मां की फोन पर बात कराकर सारे गिले शिकवे दूर करवा देते हैं. कहानी आगे बढ़ती है. अर्जुन मलिक को सर्वश्रेष्ठ रेडियो जौकी का अवार्ड मिलता है, अवार्ड मिलने के बाद जब वह कुछ कहना चाहता है, तो पता चलता है कि उसकी आवाज जा चुकी है. डौक्टर कहते हैं उसे गले का कैंसर है. औपरेशन से वह ठीक हो जाएंगे, पर आवाज वापस नही आएगी. औपरेशन के बाद डौक्टर अर्जुन मलिक को एक स्लेट व चौक दे देते हैं कि अब वह लोगों से लिखकर अपनी बात कहा करेंगे. घर पर अर्जुन मलिक का बेबस चेहरा उसके बेटे व पत्नी प्रिथा से देखा नहीं जाता. प्रिथा एक डौक्टर से बात करती है. डौक्टर उन्हें फिजियोथेरेपिस्ट डौक्टर राधिका चौधरी से मिलने के लिए कहता है. वह हर मरीज को निजी स्तर पर ट्रेनिंग देती हैं. अर्जुन मलिक अपने बेटे के साथ डौ. राधिका चौधरी (कनिका बंदोपाध्याय) के पास जाता है. डौ राधिका चौधरी उन्हें यह कह कर मना कर देती हैं कि वह कलकत्ता छोड़कर हमेशा के लिए ढाका जा रही हैं. अर्जुन अपना विजिटिंग कार्ड देकर वापस घर आ जाता है और खुद को एक कमरे में बंद कर लेता है. अब अर्जुन यह सोचकर डिप्रेशन का शिकार होने लगते हैं कि वह कभी भी रेडियो जौकी के तौर पर काम नही कर पाएंगे. उधर जब अंजली घर पहुंचती है, तो अर्जुन मलिक का विजिटिंग कार्ड देखकर अपनी मां से अर्जुन मलिक के बारे में सवाल करती है और उन्हें बताती है कि यह वही रेडियो जौकी अर्जुन मलिक है, जिनकी वजह से मां बेटी एक साथ हैं. तब डौ राधिका कुछ दिन के लिए ढाका जाने का कार्यक्रम रद्द कर अर्जुन को ट्रेनिंग देती है और वह पहले ही दिन अर्जुन मलिक से कह देती है कि एक दिन उनकी जरुर आवाज वापस आएगी.
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डौ. राधिका हर दिन अर्जुन को अपने तरीके से बोलना सिखाती रहती है. कई घटनाक्रम तेजी से बदलते हैं. प्रिथा को बहुत कुछ सहना पड़ता है. अंततः उसी रेडियो स्टेशन पर अर्जुन मलिक पुनः अपना एक नया कार्यक्रम देने के लिए तैयार है. इस बीच नारी स्वभाव के चलते प्रिथा को लगता है कि डॉ.राधिका का अर्जुन के साथ कोई रिश्ता बनता जा रहा है. प्रिथा, डौ. राधिका के घर जाकर उन्हें उनकी पूरी फीस के पैसे देते हुए कहती है कि वह अर्जन के कार्यक्रम के दौरान रेडियो स्टेशन न आए. डौ. राधिका मुस्कुराकर उन्हें पैसे वापस लौटाते हुए कुछ किताबें देते हुए कहती है कि वह चाहती है कि भविष्य में वह लोग इन किताबों के माध्यम से दूसरे मरीजों को ट्रेनिंग व प्रेरणा देने का काम करे. इधर रेडियो स्टेशन पर अर्जुन का नया कार्यक्रम प्रसारित होता है, उधर डां.राधिका व उनकी बेटी अंजली ढाका के लिए हवाई जहाज पकड़ते हैं. पता चलता है कि डा.राधिका ने तो अर्जुन मलिक को अपना बड़ा भाई माना था.
लेखन व निर्देशनः
फिल्म के लेखक और निर्देशकद्वय शुबोप्रसाद और नंदिता रौय की अपनी कुशलता व रचनात्मक सोच के चलते फिल्म ‘‘कंठों’’ पहले दृश्य के साथ ही हर इंसान को भावनात्मक रूप से इस कदर बांध लेती है कि दर्शक कहानी के बहाव व किरदारों के जीवन के उतार चढ़ाव के साथ खुद बहता रहता है. अमूमन फिल्मकार अपनी फिल्म के माध्यम से संदेश देते समय कहानी व भावनाओं से भटक कर मनोरंजन तत्व को भी भुला बैठते हैं. मगर ‘कंठों’ एक बेहतरीन मकसदपूर्ण फिल्म है, जो कि मनोरंजन के साथ-साथ अपने मकसद व सीख को भी लोगों तक पहुंचाने में सफल रहती है. फिल्म में तमाम दृश्य ऐसे हैं, जिन्हें दर्शको को रूलाने के मकसद से निर्देशक अति मेलोड्रमैटिक बना सकते थे, पर शिबोप्रसाद मुखर्जी व नंदिता रौय ने ऐसा करने की बजाय दृश्यों का यथार्थपरक चित्रण किया है.इसके बावजूद दर्शकों की आंखे नम हो जाती हैं.
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यूं तो बंगला फिल्मों में यह निर्देशकीय जोड़ी किसी परिचय की मोहताज नहीं है. अब तक यह जोड़ी ‘‘मुक्तधरा’’, ‘‘अलिक सुख’’, ‘‘राम धानू’’,‘‘बेला सेशे’’,‘‘हामी’’,‘‘प्रकटन’’ और ‘‘पास्टो’’ जैसी सफल फिल्में दे चुकी है. मगर ‘कंठों’’इन दोनों के निदेशकीय प्रतिभा को और उचां उठाती है. फिल्म ‘‘कंठों’’ सिर्फ कैंसर के मरीजों के लिए ही नही, बल्कि किसी भी तरह की बीमारी के शिकार मरीज,उनके पारिवारिक सदस्यों के साथ साथ डाक्टरी पेशे से जुडे़ हर इंसान को बिना किसी उपदेशात्मक भाषण के बहुत कुछ सिखा जाती है. यह फिल्म इंसानी रिश्तों को बरकरार रखने की भी बात करती है. यह फिल्म मानवीय जीवन की मानवीय कहानी है. फिल्म ‘‘कंठों’’ बंगला भाषा में है और अंग्रेजी के सब टाइटल के साथ प्रदर्शित की गयी है.पर यह ऐसी फिल्म है,जिसे हर दर्शक को एक बार अवश्य देखनी चाहिए. काश!. हिंदी भाषी फिल्मकार भी इसी तरह की बेहतरीन फिल्म बनाने पर विचार करते.
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अभिनयः
फिल्म के सह निर्देशक शिबोप्र्रसाद मुखर्जी ने ही फिल्म में अर्जुन मलिक की मुख्य भूमिका निभायी है. उन्होंने अपने शानदार अभिनय से अर्जुन मलिक को जीवंतता प्रदान की है. कैंसर की बीमारी का पता चलने, आवाज चले जाने, डां राधिका के इंकार करने के बाद जिस तरह गम के साथ बेबसी के भाव उनके चेहरे पर आते हैं, वह उन्हें एक उत्कृष्ट कलाकार की श्रेणी में ला देते हैं. अर्जुन की पत्नी प्रिथा के किरदार में पाउली डाम तथा डौ. राधिका के किरदार में कनिका बंदोपाध्याय ने भी उत्कृष्ट अभिनय किया है. अन्य कलाकार भी ठीक-ठाक ही रहे.
Edited by- Rosy