साढ़े 4 बजने में अभी पूरा आधा घंटा बाकी था पर रश्मि के लिए दफ्तर में बैठना दूभर हो रहा था. छटपटाता मन बारबार बेटे को याद कर रहा था. जाने क्या कर रहा होगा? स्कूल से आ कर दूध पिया या नहीं? खाना ठीक से खाया या नहीं? सास को ठीक से दिखाई नहीं देता. मोतियाबिंद के कारण कहीं बेटे स्वरूप की रोटियां जला न डाली हों? सवेरे रश्मि स्वयं बना कर आए तो रोटियां ठंडी हो जाती हैं. आखिर रहा नहीं गया तो रश्मि बैग कंधे पर डाल कुरसी छोड़ कर उठ खड़ी हुई. आज का काम रश्मि खत्म कर चुकी है, जो बाकी है वह अभी शुरू करने पर भी पूरा न होगा. इस समय एक बस आती है, भीड़ भी नहीं होती.
‘‘प्रभा, साहब पूछें तो बोलना कि…’’
‘‘कि आप विधि या व्यवसाय विभाग में हैं, बस,’’ प्रभा ने रश्मि का वाक्य पूरा कर दिया, ‘‘पर देखो, रोजरोज इस तरह जल्दी भागना ठीक नहीं.’’
रश्मि संकुचित हो उठी, पर उस के पास समय नहीं था. अत: जवाब दिए बिना आगे बढ़ी. जाने कैसा पत्थर दिल है प्रभा का. उस के भी 2 छोटेछोटे बच्चे हैं. सास के ही पास छोड़ कर आती है, पर उसे घर जाने की जल्दी कभी नहीं होती. सुबह भी रोज समय से पहले आती है. छुट्टियां भी नहीं लेती. मोटीताजी है, बच्चों की कोई फिक्र नहीं करती. उस के हावभाव से लगता है घर से अधिक उसे दफ्तर ही पसंद है. बस, यहीं पर वह रश्मि से बाजी मार ले जाती है वरना रश्मि कामकाज में उस से बीस ही है. अपना काम कभी अधूरा नहीं रखती. छुट्टियां अधिक लेती है तो क्या, आवश्यकता होने पर दोपहर की छुट्टी में भी काम करती है. प्रभा जब स्वयं दफ्तर के समय में लंबे समय तक खरीदारी करती है तब कुछ नहीं होता. रश्मि के ऊपर कटाक्ष करती रहती है. मन तो करता है दोचार खरीखरी सुनाने को, पर वक्त बे वक्त इसी का एहसान लेना पड़ता है.
रश्मि मायूस हो उठी, पर बेटे का चेहरा उसे दौड़ाए लिए जा रहा था. साहब के कमरे के सामने से निकलते समय रश्मि का दिल जोर से धड़कने लगा. कहीं देख लिया तो क्या सोचेंगे, रोज ही जल्दी चली जाती है. 5-7 लोगों से घिरे हुए साहब कागजपत्र मेज पर फैलाए किसी जरूरी विचारविमर्श में डूबे थे. रश्मि की जान में जान आई. 1 घंटे से पहले यह विचार- विमर्श समाप्त नहीं होगा.
वह तेज कदमों से सीढि़यां उतरने लगी. बसस्टैंड भी तो पास नहीं, पूरे 15 मिनट चलना पड़ता है. प्रभा तो बीमारी में भी बच्चों को छोड़ कर दफ्तर चली आती है. कहती है, ‘बच्चों के लिए अधिक दिमागखपाई नहीं करनी चाहिए. बड़े हो कर कौन सी हमारी देखभाल करेंगे.’
बड़ा हो कर स्वरूप क्या करेगा यह तो तब पता चलेगा. फिलहाल वह अपना कर्तव्य अवश्य निभाएगी. कहीं वह अपने इकलौते पुत्र के लिए आवश्यकता से अधिक तो नहीं कर रही. यदि उस के भी 2 बच्चे होते तो क्या वह भी प्रभा के ढंग से सोचती? तभी तेज हार्न की आवाज सुन कर रश्मि ने चौंक कर उस ओर देखा, ‘अरे, यह तो विभाग की गाड़ी है,’ रश्मि गाड़ी की ओर लपकी.
‘‘विनोद, किस तरफ जा रहे हो?’’ उस ने ड्राइवर को पुकारा.
‘‘लाजपत नगर,’’ विनोद ने गरदन घुमा कर जवाब दिया.
‘‘ठहर, मैं भी आती हूं,’’ रश्मि लगभग छलांग लगा कर पिछला दरवाजा खोल कर गाड़ी में जा बैठी. अब तो पलक झपकते ही घर पहुंच जाएगी. तनाव भूल कर रश्मि प्रसन्न हो उठी.
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‘‘और क्या हालचाल है, रश्मिजी?’’ होंठों के कोने पर बीड़ी दबा कर एक आंख कुछ छोटी कर पान से सने दांत निपोर कर विनोद ने रश्मि की ओर देखा.
वितृष्णा से रश्मि का मन भर गया पर इसी विनोद के सहारे जल्दी घर पहुंचना है. अत: मन मार कर हलकी हंसी लिए चुप बैठी रही.
घर में घुसने से पहले ही रश्मि को बेटे का स्वर सुनाई दिया, ‘‘दादाजी, टीवी बंद करो. मुझ से गृहकार्य नहीं हो रहा है.’’
‘‘अरे, तू न देख,’’ रश्मि के ससुर लापरवाही से बोले.
‘‘न देखूं तो क्या कान में आवाज नहीं पड़ती?’’
रश्मि ने संतुष्टि अनुभव की. सब कहते हैं उस का अत्यधिक लाड़प्यार स्वरूप को बिगाड़ देगा. पर रश्मि ने ध्यान से परखा है, स्वरूप अभी से अपनी जिम्मेदारी समझता है. अपनी बात अगर सही है तो उस पर अड़ जाता है, साथ ही दूसरों के एहसासों की कद्र भी करता है. संभवत: रश्मि के आधे दिन की अनुपस्थिति के कारण ही आत्मनिर्भर होता जा रहा है.
‘‘मां, यह सवाल नहीं हो रहा है,’’ रश्मि को देखते ही स्वरूप कापी उठा कर दौड़ आया.
बेटे को सवाल समझा व चाय- पानी पी कर रश्मि इतमीनान से रसोईघर में घुसी. दफ्तर से जल्दी लौटी है, थकावट भी कम है. आज वह कढ़ीचावल और बैगन का भरता बनाएगी. स्वरूप को बहुत पसंद है.
खाना बनाने के बाद कपड़े बदल कर तैयार हो रश्मि बेटे को ले कर सैर करने निकली. फागुन की हवा ठंडी होते हुए भी आरामदेह लग रही थी. बच्चे चहलपहल करते हुए मैदान में खेल रहे थे. मां की उंगली पकड़े चलते हुए स्वरूप दुनिया भर की बकबक किए जा रहा था. रश्मि सोच रही थी जीवन सदा ही इतना मधुर क्यों नहीं लगता.
‘‘मां, क्या मुझे एक छोटी सी बहन नहीं मिल सकती. मैं उस के संग खेलूंगा. उसे गोद में ले कर घूमूंगा, उसे पढ़ाऊंगा. उस को…’’
रश्मि के मन का उल्लास एकाएक विषाद में बदल गया. स्वरूप के जीवन के इस पहलू की ओर रश्मि का ध्यान ही नहीं गया था. सरकार जो चाहे कहे. आधुनिकता, महंगाई और बढ़ते हुए दुनियादारी के तनावों का तकाजा कुछ भी हो, रश्मि मन से 2 बच्चे चाहती थी, मगर मनुष्य की कई चाहतें पूरी नहीं होतीं.
स्वरूप के बाद रश्मि 2 बार गर्भवती हुई थी पर दोनों ही बार गर्भपात हो गया. अब तो उस के लिए गर्भधारण करना भी खतरनाक है.
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रश्मि ने समझौता कर लिया था. आखिर वह उन लोगों से तो बेहतर है जिन के संतान होती ही नहीं. यह सही है कपड़ेलत्ते, खिलौने, पुस्तकें, टौफी, चाकलेट स्वरूप की हर छोटीबड़ी मांग रश्मि जहां तक संभव होता है, पूरी करती है. पर जो वस्तु नहीं होती उस की कमी तो रहती ही है.
‘‘देख बेटा,’’ 7 वर्षीय पुत्र को रश्मि ने समझाना आरंभ कर दिया, ‘‘अगर छोटी बहन होगी तो तेरे साथ लड़ेगी. टौफी, चाकलेट, खिलौनों में हिस्सा मांगेगी और…’’
‘‘तो क्या मां,’’ स्वरूप ने मां की बात को बीच में ही काट दिया, ‘‘मैं तो बड़ा हूं, छोटी बहन से थोड़े ही लड़ूंगा. टौफी, चाकलेट, खिलौने सब उस को दूंगा. मेरे पास तो बहुत हैं.’’