गांव में बेबस मजदूर

लौकडाउन का 3 महीने से ज्यादा का समय बीत जाने के बाद भी सरकार प्रवासी मजदूरों को मनरेगा के अलावा रोजगार का कोई दूसरा रास्ता नहीं दिखा पाई है. एक मनरेगा योजना कितने मजदूरों का सहारा बन पाती?

ऐसे में गरीब लोगों का गांव से शहर की ओर जाना मजबूरी बन कर रह गया है. जिस शहर से भूखे, नंगे, प्यासे और डरे हुए लोग भागे थे, अब वे उन्हीं शहरों की ओर टकटकी लगा कर देख रहे हैं. रोजगार के तमाम दावों के बाद भी गांव लोगों का सहारा नहीं बन पाए हैं.

शहरों से वापस लौटते प्रवासी मजदूरों की दर्दनाक तसवीरें अभी भी भुलाए नहीं भूल रही हैं. गांव आए ये मजदूर वापस शहर जाने की सोच भी सकते हैं, यह उम्मीद किसी को नहीं थी.

ये भी पढ़ें- कोरोना का कहर और बिहार में चुनाव

गांव की बेकारी से परेशान प्रवासी मजदूर वापस अब शहरों की तरफ जाने के रास्ते तलाशने लगे हैं. अपने दर्द को भूल कर इन के कदम शहरों की तरफ बढ़ चुके हैं.

मजदूरों को गांव में रोकने और वहीं पर रोजगार देने के वादे पूरी तरह से  झूठे साबित हो गए हैं. बेकारी के हालात का शिकार लोगों के मन से अब कोरोना का डर भी पहले के मुकाबले कम हो चुका है. ऐसे में वे वापस शहर की ओर लौटने लगे हैं.

जान जोखिम में डाल कर गांव से शहर की तरफ मजदूरों के वापस आने की सब से बड़ी वजह जाति और गरीबी है. गांव में गरीब एससी और बीसी तबके के पास न खेती के लिए जमीन है और न ही रहने के लिए घर.

शहरों में थोड़ी सी सुविधाओं के लिए ये मजदूर कोरोना संकट में भी गांव से शहरों की तरफ मुड़ रहे हैं. शहरों में कोरोना का संकट खत्म नहीं हुआ है. मजबूरी में मजदूरों को शहरों की संकरी गलियों में बने दमघोंटू मकानों में ही रहना पड़ेगा. अब फैक्टरियों की मनमानी सहन करते हुए काम करना पड़ेगा.

कोरोना से बचाव के उपाय के नाम पर ज्यादातर फैक्टरियों में केवल दिखावा हो रहा है. दवाओं के छिड़काव से ले कर मास्क और सैनेटाइजर का इस्तेमाल दिखावा भर रह गया है.

बहुत सारे उपायों के बाद जब अस्पतालों में काम करने वाले डाक्टर कोरोना का शिकार हो रहे हैं, तो फैक्टरियों में काम करने वाले मजदूर कैसे बच पाएंगे? अब अगर इन मजदूरों को कोरोना हो गया, तो इन की देखभाल करने वाला भी नहीं मिलेगा.

कोरोना संकट ने शहरों में कमाई करने गए लोगों को ‘प्रवासी मजदूर’ बन कर वापस लौटने के लिए मजबूर कर दिया था. सरकार ने इन को रोजगार दिलाने के लिए मनरेगा का सहारा लिया.

मनरेगा योजना के अलावा सरकार के पास रोजगार देने का कोई दूसरा उपाय नहीं है. मनरेगा के अलावा गांव में गरीबों के पास दूसरा काम नहीं है. गांव के लोग नोटबंदी से परेशान थे. गांव में जमीनों के सौदे बंद हो चुके हैं. खेतों में काम करने वालों को मजदूरी नहीं मिल रही है. ज्यादा तादाद में प्रवासी मजदूरों के गांव वापस आने से बेरोजगार लोगों की आबादी बढ़ गई.

बेरोजगारी के अलावा गांव में सुखसुविधाओं और आजादी की भी कमी है. शहरी जिंदगी के आदी हो चुके लोग गांव में वापस तो आ गए थे, पर यहां रहना उन के लिए आसान नहीं रह गया था.

इस से बेकारी के बो झ से कराह रहे गांव और भी दब गए. परिवार के साथ वापस गांव रहने आए लोगों में उन की पत्नी और बच्चों का गांव में तालमेल नहीं बैठ रहा था. कई ने तो पहली बार गांव में इतने ज्यादा दिन बिताए हैं.

पहले होलीदीवाली वगैरह की छुट्टियों में जब ये लोग गांव आते थे, तो घरपरिवार का बरताव कुछ और ही होता था, पर अब यह बदला सा नजर आ रहा है. जिस सरकारी सुविधा के लालच में गांव आए थे, उस की पोल भी यहां खुल चुकी है.

बेकारी के बो झ ने परिवार के बीच तनाव को बढ़ा दिया है. अब ये लोग कोरोना संकट के बावजूद वापस किसी भी तरह से शहर जाने के लिए मजबूर हो गए हैं. प्रवासी मजदूरों के रूप में समाज से इन को जिस तरह की हमदर्दी मिली थी, अब उस की भी कमी है.

लखनऊ के रामपुर गांव में दिनेश का संयुक्त परिवार रहता है. मुंबई से लौकडाउन में गांव आए तो यह सोचा कि अब मुंबई नहीं जाएंगे. यहीं गांव के पास बाजार में कोई दुकान खोल कर काम करेंगे. दिनेश के साथ उस का एक छोटा भाई और बेटा भी काम करता था. अब सब बेरोजगार हो चुके हैं.

इन लोगों की पत्नियां भी मुंबई में रहती थीं. गांव आ कर वे संयुक्त परिवार में रहने लगी हैं. यहां घर में चूल्हे पर खाना बनाना पड़ता है. वैसे, घर में एक गैस का चूल्हा भी है, जिस का इस्तेमाल सिर्फ चाय बनाने के लिए होता है.

मुंबई में ये लोग गैस पर खाना बनाते  थे. अब देशी चूल्हे पर खाना बनाने में औरतों को दिक्कत हो रही है. दिनेश पर पत्नी का दबाव बढ़ने लगा है. मुंबई में दिनेश की फैक्टरी काम शुरू करने वाली है. दिनेश बताते हैं, ‘‘हमें गांव में रोजगार की कोई उम्मीद नहीं है. ऐसे में परिवार में तनाव बढ़ाने से अच्छा है कि हम सब को ले कर मुंबई वापस चले जाएं.’’

बढ़ गई आपसी होड़

उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में खेतापुर गांव के रहने वाले रमेश चौरसिया 30 साल पहले गुजरात के सूरत में कमाई करने गए थे. गांव में उन के पास जमीन नहीं थी. गांव में केवल कच्चा घर बना था. वहां न तो कोई कामधंधा था और न ही किसी तरह की इज्जत मिल रही थी.

सूरत में कुछ साल कमाई करने के बाद रमेश ने गांव में पक्की छत और घर बनवा लिया. उन का पूरा परिवार धीरेधीरे सूरत पहुंच कर रहने लगा. रमेश के मांबाप और पत्नी ही गांव में रहते थे. दोनों बेटे रमेश के साथ ही काम करने लगे थे.

ये भी पढ़ें- भूपेश बघेल की “गोबर गणेश” सरकार!

लौकडाउन के दौरान जब रमेश और उन के दोनों बेटे अपने गांव आए, तो यहां रोजगार का कोई साधन नहीं था. मनरेगा योजना में दोनों बेटों को केवल 5-5 दिन काम करने का मौका मिला, जिस से उन को 1-1 हजार रुपए मिले, जो उन की जरूरत के हिसाब से काफी कम थे.

रमेश कहते हैं कि शहर और गांव के रहनसहन में बहुत फर्क है. ऐसे में यहां रहना आसान नहीं है. जिस बेकारी को दूर करने के लिए 30 साल पहले गांव छोड़ कर गए थे, वह अब भी यहां बनी हुई है. इस के अलावा गांव में आपसी लड़ाई झगड़े शहरों के मुकाबले ज्यादा हैं. बाहर से आने वाले लोगों के प्रति गांव के लोगों में कोई हमदर्दी नहीं है.

इस की सब से बड़ी वजह यह है कि इन लोगों के बाहर रहने से गांव के दूसरे लोग इन की जमीन और खेत का इस्तेमाल करते थे, पर अब इन के वापस गांव आने के बाद जमीन और खेत को छोड़ना उन के लिए मुश्किल हो गया है. ऐसे में आपस में तनाव बढ़ गया है.

अपनेअपने गांव से रोजीरोजगार, इज्जत और पैसों की तलाश में जो लोग कमाई करने परदेश गए थे, वे कोरोना के संकट में वापस अपने गांवघर आने को मजबूर हो गए. कोरोना संकट के समय में ‘प्रवासी मजदूर’ का नाम इन की पहचान बन गया.

सरकार की तरफ  से ऐसे दावे किए गए कि प्रवासी मजदूरों को रोजगार के पूरे साधन दिए जाएंगे, पर प्रवासी मजदूरों को रोजगार देने के नाम पर मनरेगा के अलावा सरकार के पास कोई दूसरा साधन नहीं था.

मनरेगा में एक दिन की मजदूरी के लिए 200 रुपए की दिहाड़ी मिलती है. सरकार ने कोरोना संकट के समय में मनरेगा के काम को बढ़ाने की कोशिश की. प्रवासी मजदूरों के रूप में नए लोगों के गांव आ जाने से मनरेगा में रोजगार घट गया.

गांव में काम के सीमित साधन हैं. जिस गांव में एक काम को 10 लोग करते थे, उसी काम को करने के लिए जब 15 लोग मिल गए तो एक मजदूर के खाते में आने वाले दिनों की तादाद घट गई, जिस से मजदूर के कुल रोजगार के दिनों की तादाद भी घट गई. गांव में पहले से रहने वाले लोगों ने मजदूरी के दिन घटने के लिए इन प्रवासी मजदूरों को जिम्मेदार माना.

मनरेगा की बढ़ी जिम्मेदारी

मनरेगा यानी ‘महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम’ को साल 2005 में लागू किया गया था. इस के जरीए देश के गांवों में रहने वाले मजदूरों को रोजगार दिया जाता है. पहले इस का नाम ‘राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम’ था. महात्मा गांधी के जन्मदिन 2 अक्तूबर, 2009 से इस को मनरेगा के नाम में बदल दिया गया.

इस योजना का मकसद वित्तीय वर्ष में किसी भी ग्रामीण परिवार के बालिग सदस्यों को 100 दिन का रोजगार मुहैया कराना था. मनरेगा से गांवों में तरक्की के रास्ते खुले थे और गांवों में लोगों की खरीदारी करने की ताकत बढ़ी थी.

इस योजना के तहत गांव में रहने वाली औरतों को भी रोजगार दिया जाता है. 2005 में मनरेगा को शुरू करने का काम कांग्रेस और वामपंथी दलों के संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन ने किया था. फरवरी, 2006 में 200 जिलों से यह योजना शुरू की गई थी और साल 2008 तक यह योजना 593 जिलों में पहुंच गई.  मनमोहन सरकार के बाद साल 2014 में केंद्र में बनी मोदी सरकार ने मनरेगा को दरकिनार करने का काम किया था.

साल 2020 में जब कोरोना का संकट आया और पूरे देश में लौकडाउन किया गया. इस से शहरों से बड़ी तादाद में प्रवासी मजदूर अपनेअपने गांवों को लौटने के लिए मजबूर हुए.

उस समय सब से बड़ी समस्या गांवों में उन को रोजगार देने की आई. गांव में लोगों को रोजगार देने और ग्रामीणों को सहारा देने के लिए मोदी सरकार को उसी मनरेगा का सहारा लेने के लिए मजबूर होना पड़ा, जिस की वह बुराई करती थी.

ये भी पढ़ें- छत्तीसगढ़ में “भूपेश प्रशासन” ने हाथी को मारा!

मोदी सरकार ने मनरेगा के बजट में कटौती की थी. सरकार के समर्थक इस योजना को बेकारी बढ़ाने वाला मानते थे. मनरेगा का विरोध करने वाले मानते थे कि इस योजना से गांव में भ्रष्टाचार और बेकारी बढ़ रही है. इस की वजह पूरी तरह से राजनीतिक थी.

मनरेगा पर राजनीतिक लड़ाई

मनमोहन सरकार की मनरेगा योजना को मोदी सरकार ने कोई अहमियत नहीं दी. इस की वजह राजनीतिक थी. प्रधानमंत्री डाक्टर मनमोहन सिंह की सरकार की यह योजना जनता में लोकप्रिय हो गई थी और साल 2009 में भी जनता ने उन को वोट दे कर दोबारा सरकार बनाने की ताकत दे दी थी.

मनमोहन सरकार की जीत में मनरेगा का भी बड़ा हाथ माना जाता है. साल 2014 में केंद्र में भाजपा की मोदी सरकार ने मनरेगा योजना को हाशिए पर ले जाने का काम किया. इस के बजट में कमी की गई और मनरेगा के होने पर  भी सवाल उठाने शुरू कर दिए. मनरेगा के अप्रभावी होने से भारत के ग्रामीण इलाकों में मंदी का दौर बढ़ने लगा.

बजट 2020-21 में मनरेगा के लिए 61,500 करोड़ रुपए का आवंटन किया गया, जबकि 2019-20 में यह बजट 71,001.81 करोड़ रुपए था. महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) का बजट तकरीबन 15 फीसदी तक घटा दिया है.

अर्थव्यवस्था की जो हालत है, उस के हिसाब से ग्रामीण क्षेत्रों में आमदनी और मांग बढ़ाए जाने की जरूरत है, लेकिन सरकार ने ग्रामीण विकास मंत्रालय के कुल बजट आवंटन को भी कम कर दिया. बजट 2019-20 का संशोधित अनुमान 1,22,649 करोड़ रुपए था, जबकि बजट 2020-21 में इसे घटा कर 1,20,147.19 करोड़ रुपए कर दिया गया है.

जानकार मानते हैं कि मनरेगा का बजट बढ़ेगा, तो ग्रामीणों तक पैसा पहुंचेगा और उन की अर्थव्यवस्था में सुधार हो सकता है. मनरेगा के बजट में हर साल 20 फीसदी हिस्सा पुराने रुके हुए भुगतान को करने में निकल जाता है. मनरेगा के बजट में कटौती करने के बाद केंद्र सरकार ने प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना में मामूली बढ़ोतरी की.

साल 2019-20 के बजट में पीएमजीएसवाई के लिए 19,000 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया था. 2020-21 के लिए 19,500 करोड़ रुपए के खर्च का अनुमान लगाया गया.

पंचायती राज संस्थानों के बजट में भी मामूली सी बढ़ोतरी की गई.

2019-20 में पंचायती राज संस्थानों के लिए 871 करोड़ रुपए का अनुमान लगाया गया था. अब नए बजट में इसे बढ़ा कर 900 करोड़ कर दिया गया है.

गांव में नहीं रोजगार

प्रवासी मजदूरों को गांव में केवल मनरेगा में काम दे कर नहीं रोका जा सकता. गांव में बरसात के मौसम में कामधंधे पूरी तरह से बंद हो जाएंगे. ऐसे में मनरेगा के तहत मिलने वाला काम और भी कम हो जाएगा, जिस से गांव में फैली बेकारी और भी ज्यादा बढ़ जाएगी.

अपने खेतों में काम कर रहे सतीश पाल बताते हैं कि शहरों में जो सुविधा मिलती है, वह गांवों में नहीं है. बिजली और सड़क के बाद भी यहां पर अच्छी तरह से जिंदगी नहीं बिताई जा सकती है. खेतों में काम करने के बाद भी मुनाफा नहीं होता है.

नीलगाय द्वारा और दूसरी तरह के तमाम नुकसान के बाद भी जब फसल अच्छी हो भी जाए, तो उस की सही कीमत नहीं मिलती है. अभी तो सूरत में हमारी फैक्टरी वाले हमें बुला रहे हैं. अगर किसी और ने हमारा काम करना शुरू कर दिया तो वापस काम भी नहीं मिलेगा. ऐसे में कोरोना से डर कर गांव में रहने से अच्छा है कि सूरत में रह कर कोरोना से मुकाबला करें.

प्रवासी मजदूरों को अब लगता है कि शहरों में रहना और काम करना आसान है, जबकि गांव में कोरोना के डर से छिप कर रहना मुश्किल है. उस से आसान है कि शहर जा कर कोरोना से मुकाबला करते हुए रोजगार करें.

दिनेश को इस बात का भी डर है कि अगर फैक्टरियों में काम शुरू होने के बाद मजदूर नहीं पहुंचे तो दूसरे लोगों को काम मिल जाएगा. ऐसे में उन का रोजगार चला जाएगा.

ये भी पढ़ें- एससीबीसी के निकम्मे नेता

बहुत सारी उम्मीदों के साथ शहरों से गांव लौटे मजदूर गांव की बेकारी से डर कर वापस शहरों में जाना चाह रहे हैं. ऐसे में साफ है कि प्रवासी मजदूरों को गांव में रोकने के लिए सरकार ने जो दावे किए थे, वे सब फेल होते दिख रहे हैं.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें