नरेंद्र मोदी के राज में महंगी ट्रेनें और खाली बटुआ

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को रैपिड रेल ट्रांजिट सिस्टम के 18 मील के हिस्से का उद्घाटन करने का समय दिया गया, यह देश के लिए बड़े गौरव की बात है. 18 घंटे काम करने वाले नरेंद्र मोदी को रेलों के उद्घाटनों में बहुत मजा आता है चाहे उन की ही झंडियां दिखाई हुईं रेलें महंगी और बेमतलब होने के कारण खाली क्यों न चल रही हों. अधिकतर वंदेभारत ट्रेनें खाली चल रही हैं.

यह रैपिड रेल ट्रांजिट सिस्टम कब चालू होगा पता नहीं. उसे दिल्ली से मेरठ तक जाना है पर दिल्ली में जंगपुरा के पास बारापुला के पास तो इस के खंबे अभी तो लोहे के रावण जैसे लग रहे हैं जिन पर कागज मड़ा जाना है.

अभी जो 18 मील का सफर है उस का किराया साधारण श्रेणी का 50 रुपया है. इस रेल तक पहुंचने और फिर आखिरी स्टेशन से घर, औफिस या दुकान तक पहुंचने में जो खर्चा होगा, वह अलग. साधारण वाहन भी हो तो 18 किलोमीटर के साथ जो अलग से खर्च होगा उसे मिला कर यह रेल की झंडी बटुए को खाली करने का इशारा आया है.

हमारे देश में पिछले सालों में बहुतकुछ बन रहा है. संसद भवन बना, भारत मंडपम बना, सरदार पटेल का स्टैचू बना, बड़े लंबे हाईवे बने, विशाल एयरपोर्ट बने. पर क्या इस में वे लोग चलेंगे या वे वहां छुट्टी मनाने जाएंगे जिन्होंने इसे बनाया? नहीं, क्योंकि किसी भी जगह आम आदमी की पहुंच नहीं है. न उस के पास पैसा है, न रुतबा है, न उसे जरूरत है.

जनता का पैसा मंदिरों के रास्तों या जी-20 की आवभगत में खर्च किया जा रहा है. जनता के पैसे से बने स्टेडियमों में क्रिकेट मैच हो रहे हैं, जहां 5-6 घंटे के हजारों के टिकट लगते हैं और काम सिर्फ ‘हाहाहूहू’ करना होता है.

दुनिया में हंगर इंडैक्स में 125 देशों में से 111वीं जगह पर होने वाला देश इसे ऐयाशी का नाम न दे तो क्या करे. प्रधानमंत्री ने अपने लिए 2-2 विशाल विमान खरीदे, न जाने कितने हैलीकौप्टर इस्तेमाल होते हैं, कहीं जाएं तो लंबाचौड़ा बंदोबस्त होता है. जनता के प्रधानमंत्री के फैसले जनता से दूर रह कर किए जा रहे हैं और 100 महीनों से यही हो रहा है.

रैपिड रेल ट्रांजिट सिस्टम में जाने में मजा आ सकता है पर यह अभी उस स्टेज पर नहीं है कि राज्य या किसी शहर को कोई फायदा हो. वैसे भी जरूरत भी ऐसी बसों की जो चाहे एयरकंडीशंड न हों पर इतनी दुरुस्त हों जो बिना रास्ते में खराब हुए उतनी ही दूरी उतनी ही देर में पूरी करा दें.

जरूरत सड़कों के मैनेजमैंट की है. सड़कों की भीड़ आम लोगों का समय बरबाद न करे, यह पहला काम है. अगर रैपिड ट्रेन बनानी हैं तो वे सस्ती हों चाहे एयरकंडीशंड न हों. ऐसे प्लेटफार्म से चलें जहां पानी मुफ्त मिलता हो, 20 रुपए में पूरीआलू मिल जाए न कि ऐसे से जहां पानी की बोतल 50 रुपए की हो और कम से कम खाना 300 रुपए का हो.

जरूरत नई तकनीक पैर से चलने वाले या बैटरी रिकशों की है जिन से पुलिस वाले रिश्वत न लें और जिन पर करोड़ोंअरबों की सड़कों पर चलने से मनाही न हो.

एक प्रधानमंत्री को एयरकंडीशंड रेलों, गाडि़यों, हवाईजहाजों में नहीं, सड़कों पर चलने की आदत होनी चाहिए.

रेलवे स्टेशनों का बदलता नक्शा

देश भर के रेलवे स्टेशनों को नई शक्ल दी जा रही है और उन पर भरपूर पैसा खर्च किया जा रहा है. इस का मतलब यह नहीं कि आम गरीग को कोई अच्छा सुख मिलेगा. स्टेशनों को संवारने का मतलब है कि वहां हर चीज मंहगी होती जाना. रेल टिकट तो मंहगे हो ही रहे हैं क्योंकि ज्यादातर नई ट्रेनें एयरकंडीशंड हैं जिन में झुग्गी झोपडिय़ों में रहने वाले किसान मजदूर नहीं चल रहे, मध्यमवर्ग के लोग चल रहे हैं.

रेल के बाहर भी स्टेशनों पर जहां सस्ते में खाना, मुफ्त में पानी, मुफ्त में शौचालय मिल जाता था, अब सब का पैसा लगने लगा है. रेलवे प्लेटफार्म पर रेल छूटने से कुछ समय पहले ही जाने दिया जाता है और वेङ्क्षटग हालों में पैसे लेबर सोने, बैठने की जगह मिलती है.

जो रेलवे बैंच कभी बेघरबारों के लिए एक ठिकाना होते थे. अब अपडेटीं के लिए चमचम करते होने लगे हैं. इलैक्ट्रिक ट्रेनों के बाद तो एयर कंडीशंड प्लेटफार्म बनने लगे हैं पर उन में स्लम में रहने वालों का कोई ठिकाना नहीं है.

रेलवे स्टेशनों का आधुनिकीकरण नहीं हो रहा. अमीरी करण हो रहा है. आम मजदूर खचड़ा बसों में टूटीफूटी सडक़ों पर 24 घंटे का सफर 48-50 घंटों में पैसे बचाने के लिए करे ऐसी साजिश रची जा रही है.

सरकार की मंशा है कि जैसे 3-4 या 5 सितारा होटल के दरबान, चमचम फर्श को देख कर गरीब किसान मजबूर दूर से ही चला जाए वैसे ही रेलवे स्टेशनों के पास भी न भटके. रेलें 2 तरह का काम करें, अमीरी को ऐसी जगह ले जाएं जहां हवाई जहाज नहीं जाते या माल ढोएं. मजदूर किसान को मीलों ले जाने वाली रेलें अब गायब होने लगी हैं.

अंग्रेजो को जालिम और साह की नीयत का कहा जाता था पर आज की सरकारें ज्यादा आदमी और ऊंची जातियों और ऊंचे पैसे वालों के लिए बन रही हैं. स्टेशनों पर अब वीडियो गेम बिकते हैं, पढऩे की किताबें नहीं क्योंकि सफर करने वाले साहब सोचते हैं कि उन्हें तो सब कुछ वैसे ही पता है. वे ऊंची विरादरी के पैसे वाले है उन्हें पढऩे से क्या मतलब.

स्टेशनों पर अब 2 रुपए की मूंगफली नहीं मिलेगी और 220 रुपए का बर्गर मिलेगा और किस के लिए होगा यह अंदाजा लागया जा सकता है. स्टेशनों पर एयरकंडीशंड पाउंच टाइप वेङ्क्षटग कम बन रहे हैं, वह जमाना गया जब प्लेटफौर्म पर खेस बिछा कर रात गुजारी जा सकती थी.

ये भव्य स्टेशन उस कहानी के चायवाले के नहीं जो केतली में चाय बेचा करता था, ये उस प्रधानमंत्री के है जो दिन में 4 बार कपड़े बदलता है और हर वंदे भारत को पहले सफर के लिए वहीं से भी हरी झंडी लिए पहुंचा जाता है. स्टेशनों की मरम्मत गरीबों के लिए नहीं अमीरों के लिए हो रही है.

 गैंगमैन की  सिक्योरिटी तय हो

 अली खान

एक रिपोर्ट से यह बात उभर कर सामने आई है कि भीषण सर्दीगरमी, बारिश और कुहरे में रेल मुसाफिरों को महफूज घर पहुंचाने में हर साल औसतन 100 गैंगमैन ट्रेन की पटरियों पर कट कर मर जाते हैं.

आज देश और दुनिया में आधुनिक तकनीकी युग में तकरीबन सभी काम मशीनों से किए जा रहे हैं, लेकिन आधुनिक तकनीक के बावजूद गैंगमैन ट्रेन सिक्योरिटी की रीढ़ माने जाते हैं.

मौजूदा समय में मशीनों के इस्तेमाल ने काम को आसान जरूर किया है, पर ट्रैक पर काम करने के लिए गरमी, बरसात और ठंड हर मौसम का सामना अभी भी गैंगमैन ही करता है.

जब भी रेलवे की उपलब्धि की बात होती है, तो इन के काम के योगदान की कोई बात नहीं करता है, जबकि रेल को आगे बढ़ाने में ट्रैकमैन व गैंगमैन का अहम रोल होता है. आज भी शीतलहर व हाड़ कंपकंपाती ठंड में खुले आसमान के नीचे जंगल व सुनसान जगहों में रह कर हमारे सफर को सुखद बनाने का कोई काम करता है, तो वे हैं रेलवे ट्रैकमैन व गैंगमैन.

रेलवे में इन का पद भले ही छोटा है, तनख्वाह भी काफी कम है, लेकिन ये लोग जिम्मेदारी काफी बड़ी निभाते हैं. हम ट्रेनों में चैन की नींद लेते हैं, लेकिन ये खुले आसमान के नीचे रेल पटरियों की निगरानी करते हैं. इन की जिंदगी जितनी मुश्किल होती है, उतनी ही जोखिम भरी भी.

पिछले कुछ सालों के आंकड़े बताते हैं कि गैंगमैन हर दिन हादसों के शिकार हो रहे हैं. लिहाजा, गैंगमैन की सिक्योरिटी तय किए जाने की जरूरत है.

यह बेहद दुख की बात है कि भले ही गैंगमैन की जान बचाने के लिए साल 2016 में संसद में उन को सिक्योरिटी के उपकरण देने का ऐलान किया था, लेकिन रेलवे के पास पैसा नहीं होने के चलते 5 साल में 20 फीसदी गैंगमैन को ही ऐसे सिक्योरिटी के उपकरण दिए जा सके हैं. लिहाजा, सिक्योरिटी की कमी में गैंगमैन हादसों के शिकार हो रहे हैं.

रेल मंत्रालय के ताजा आंकड़ों के मुताबिक, वित्तीय वर्ष 2016-17 से 2021 तक रेल पटरियों की मरम्मत और निगरानी काम के दौरान 451 गैंगमैन ट्रेन से कट कर मारे गए यानी ट्रेनों के सुरक्षित परिचालन में हर साल औसतन 100 गैंगमैन पटरियों पर दम तोड़ रहे हैं. हालांकि, रेल यूनियन का दावा है कि हर साल औसतन 250 से 300 गैंगमैन हादसों के शिकार होते हैं.

अब सवाल है कि गैंगमैन आखिर हादसों के शिकार क्यों हो जाते हैं? बता दें कि रेलवे की सभी ट्रैक लाइनों (प्रमुख रेल मार्ग) पर क्षमता से ज्यादा 120 से 200 फीसदी सवारी ट्रेन चलाई जाती हैं. लिहाजा, गैंगमैन को पटरी की मरम्मत और रखरखाव के लिए ब्लौक नहीं मिलते हैं. ज्यादातर हादसे डबल लाइन या ट्रिपल लाइन सैक्शन पर होते हैं.

ट्रेन नजदीक आने पर जब वे दूसरी पटरी पर जाते हैं, तभी उस पर भी ट्रेन के आने से गैंगमैन कट कर मर जाते हैं. इस के अलावा काम के दबाव में ट्रेन की आवाज सुनाई नहीं देती है.

देश में कुछ साल पहले उत्तर प्रदेश के हरदोई में रेलवे की लापरवाही से 4 गैंगमैनों की मौत हो गई थी. वे गैंगमैन संडीला और उमरताली के बीच रेलवे ट्रैक पर काम कर रहे थे. उन्हें न तो ट्रेन के आने की कोई सूचना दी गई और न ही संकेत. तेज रफ्तार से आ रही ट्रेन गैंगमैनों के ऊपर से गुजर गई.

वे गैंगमैन रेलवे ट्रैक पर बेधड़क हो कर काम कर रहे थे. उन के काम करने की जगह से कुछ दूरी पर उन्होंने लाल रंग का कपड़ा भी बांध रखा था. तभी वहां अचानक कोलकाता से अमृतसर जा रही ‘अकालतख्त ऐक्सप्रैस’ ट्रेन आ गई और उन सभी गैंगमैनों को रौंदते हुए तेज रफ्तार से निकल गई थी. ऐसे हादसे देश में आएदिन होते रहते हैं.

ऐसे में सवाल मौजूं है कि आखिर गैंगमैन की सिक्योरिटी कैसे तय हो? गैंगमैन को बचाने के लिए हैलमैट, सुरक्षा जूते, सैल टौर्च, बैकपैक टूल जैसे खास उपकरण मुहैया कराए जाने की जरूरत है.

याद रहे कि रेल मंत्री रह चुके सुरेश प्रभु ने साल 2016-17 के रेल बजट भाषण में गैंगमैन को ‘रक्षक’ नामक मौडर्न डिवाइस देने का ऐलान किया था. कमर में पहनने वाली यह डिवाइस गैंगमैन को 400 मीटर से 500 मीटर की दूरी पर ट्रेन के आने पर ‘बीप’ के साथ अलर्ट कर देगी. कुहरे, बारिश व सर्दी के खराब मौसम में ट्रेन नहीं दिखाई पड़ने

पर यह डिवाइस गैंगमैन की जिंदगी बचाएगी.

हालांकि, इस डिवाइस को अभी तक गैंगमैन को मुहैया नहीं करवाया जा सका है. जानकारों का यह भी कहना है कि एक डिवाइस की कीमत तकरीबन 80,000 रुपए है.

सभी गैंगमैन को डिवाइस देने में रेलवे के तकरीबन 240 करोड़ रुपए खर्च होंगे. पैसे की कमी के चलते रेलवे को यह डिवाइस खरीदने में काफी समय लग सकता है.

गौरतलब है कि इस समय भारतीय रेलवे में तकरीबन 3 लाख गैंगमैन काम कर रहे हैं. इतनी बड़ी तादाद में काम कर रहे मुलाजिमों की सिक्योरिटी तय करना रेलवे की जिम्मेदारी है. इस दिशा में तत्काल कदम उठाए जाने की सख्त जरूरत है.

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