सावित्री रानी
कोरोना को इस दुनिया में आए 2 साल से ज्यादा का समय हो चुका है. इस की गाज किसकिस पर गिरी, इस ने किसकिस की जिंदगी को तबाह किया, यह जानने के लिए हमें दूर जाने की जरूरत नहीं है, सिर्फ अपने और अपने आसपास एक नजर डालना ही काफी है.
हर कोई इस नामुराद वायरस का किसी न किसी तरह से शिकार हुआ है, फिर चाहे वह कोई बच्चा हो या बूढ़ा, नौजवान हो या अधेड़, इस नामाकूल ने किसी में भी फर्क नहीं किया. किसी का स्कूल बंद हुआ, तो किसी का कालेज. किसी की सेहत पर अटैक हुआ, तो किसी के रिश्तों पर. किसी की आजादी दांव पर लगी, तो किसी की नौकरी. सभी ने कुछ न कुछ खोया जरूर है.
आज इस दुनिया में एक भी इनसान ऐसा नहीं ढूंढ़ा जा सकता, जो यह कह सके कि कोरोना ने उस की जिंदगी को कहीं से भी नहीं छुआ है. समाज के जिन क्षेत्रों पर इस ने मालीतौर पर सब से ज्यादा असर डाला है, उन में सब से आगे खड़ा है टूरिज्म. इस क्षेत्र से जुड़े लोगों को जितनी माली चोट सहनी पड़ी है और अभी तक सह रहे हैं, उस की कोई सीमा नहीं है.
आप कल्पना कीजिए कि आप एक नौकरी करते हैं या फिर कोई भी काम करते हैं, जिस से आप का घर चलता है. उसी कमाई के भरोसे पर आप भविष्य की प्लानिंग करते हैं, घर और गाड़ी का लोन लेते हैं, बच्चों को स्कूल भेजते हैं, अपना बुढ़ापा महफूज करने की योजना बनाते हैं, लेकिन एक सुबह आप को पता चलता है कि आज से आप की कमाई जीरो है, क्योंकि आप का काम टूरिस्ट के आने पर निर्भर करता था और आज से नो फ्लाइट्स, नो टूरिस्ट, नो काम, नो पैसा, सब पर फुल स्टौप.
आप ऐसी हालत में क्या करेंगे? और यह हालत कोई 2-4 दिन या महीनों के लिए नहीं है, यह है सालों के लिए या फिर पता नहीं कब तक के लिए. शायद हमेशा के लिए. सोचिए, अगर आप के सुखसुविधा में पले बच्चे अचानक दूध को तरसने लगें, 1-1 खिलौने के लिए सालों इंतजार का लौलीपौप चूसते रहें, तो क्या करेंगे आप?
मैं ऐसे एक इनसान को बहुत करीब से जानती हूं. प्रखर नाम का यह इनसान मेरे परिवार का ही हिस्सा है. मातापिता की असमय मौत ने इसे समय से पहले ही बड़ा कर दिया था.
दिनरात की अथक मेहनत से इस स्वाभिमानी लड़के ने हर मुसीबत का सामना किया. नवंबर, 2019 में उस ने एक छोटा सा घर खरीदा और उस के लिए बैंक से लोन लिया. 4 महीने बाद अपनी अभी तक की सारी जमापूंजी लगा कर बहन की शादी की.
वह बहुत खुश था कि उस की बचत बहन की शादी और घर की डाउन पेमेंट दोनों के लिए काफी थीं. उस की 2 सब से बड़ी जिम्मेदारियां सही समय पर पूरी हो गई थीं.
अपनी परफैक्ट प्लानिंग के भरोसे प्रखर काफी हद तक अपने भविष्य को ले कर निश्चिंत था. उस ने सोचा था कि अभी वह सिर्फ 37 साल का है. अगले 10 साल में वह बैंक का लोन उतार देगा. जब तक उस का 7 साल का बेटा यूनिवर्सिटी जाने लायक होगा, तब तक तो वह बाकी सभी देनदारियों से छुटकारा पा चुका होगा. फिर वह आराम से अपने एकलौते बेटे को अच्छी से अच्छी पढ़ाईलिखाई के लिए माली मदद की अपनी जिम्मेदारी को आसानी से निभा सकेगा.
टूरिज्म के क्षेत्र में फ्रीलांस गाइड के तौर पर काम करने वाला प्रखर तब कहां जानता था कि कुदरत कुछ और ही प्लान कर रही है. प्रखर की नन्ही सी प्लानिंग की भला उस के सामने क्या औकात? कुदरत की प्लानिंग के मुताबिक आया एक छोटा सा वायरस और सबकुछ खत्म. सारी मेहनत, सारी काबिलीयत घर की चारदीवारी में बंद हो कर रह गई.
कोरोना की दूसरी लहर में प्रखर का पूरा परिवार चपेट में आ गया था. बड़ी काटछांट कर के, घर और शादी से बचाई गई उस की बचत का आखिरी टुकड़ा भी इस इलाज की भेंट चढ़ गया.
डाक्टर की महंगी फीस और कई गुना ज्यादा कीमत पर खरीदी गई दवाओं ने उस के बैंक अकाउंट की आखिरी बूंद तक निचोड़ ली.
फिर भी प्रखर ने सोचा कि चलो जान बची तो लाखों पाए. जान है तो जहान है. ठीक भी है. लेकिन अब उसी जान को इस बेकारी और बेरोजगारी के कोरोना से कैसे बचाएंगे और कब तक बचा पाएंगे?
कोरोना की मेहरबानी से टूरिस्ट के आने के कोई भी आसार दूरदूर तक नजर नहीं आ रहे हैं. टूरिज्म से जुड़े लाखों लोग, जिन की रोजीरोटी इस क्षेत्र से जुड़ी है, वे बेचारे कहां जाएं? एयरलाइंस, ट्रैवल एजेंसी, टूर औपरेटर, होटल, फ्रीलांस गाइड और हौकर्स इन सभी की जीविका की नैया टूरिस्ट द्वारा खर्च किए गए पैसों की नदी पर ही चलती है. अब पता नहीं इस सूखी नदी में पानी आने की आस कब तक इन की सांसों की डोरी को बांध सकेगी?
टूरिस्ट आते थे, तो सब को काम मिलता था. एयरलाइंस और होटल्स पर जब टूरिस्ट के पैसे की बारिश हो चुकती थी, तो छोटीछोटी बौछारें ट्रैवल एजेंसी और हौकर्स यानी छोटे दुकानदारों तक भी पहुंच जाती थीं. इन बौछारों की नन्हीनन्ही बूंदों से लाखों घरों के चूल्हे जलते थे.
टूरिज्म के क्षेत्र से जुड़े सभी लोग टूरिस्ट सीजन का इंतजार बड़ी बेताबी से करते थे और उसी एक सीजन के भरोसे सारे सीजन काट लेते थे. लेकिन अब कैसा टूरिस्ट सीजन, अब तो बस एक ही सीजन बचा है, वह है कोरोना सीजन.
हौकर्स का असली धंधा अगर करोना खा गया तो बचीखुची कसर औनलाइन शौपिंग ने पूरी कर दी. आगे कुआं पीछे खाई, जाएं तो जाएं कहां?
अनिश्चितता तो पहले भी होती थी. अप्रैल से ले कर अगस्त तक का मौसम इन के लिए औफ सीजन होता था, लेकिन अगस्त से अप्रैल तक तो काम मिलेगा, इसी आस के भरोसे ये लोग औफ सीजन का टाइम काट लिया करते थे.
लेकिन अब तो जैसे सबकुछ निश्चित ही हो गया है. न कोरोना के वैरिएंट खत्म होंगे, न टूरिस्ट आएंगे. अब तो बेकारी का यह तोहफा जैसे हमेशा के लिए इन की जिंदगी से जुड़ गया है. अनिश्चित काल तक जीरो इनकम के साथ भला कोई कैसे निभा सकता है?
टूरिज्म पर आसन लगा कर बैठे इस कोरोना से कोई निबटे भी तो कैसे?
ऐसी हालत में सरकार की तरफ से कोई मदद या सहारा तो दूर इन की इतनी बड़ी परेशानी को रजामंदी तक नहीं मिल रही है. ये बेचारे अपने लोन की ईएमआई कैसे चुकाते होंगे? अपने बच्चों की स्कूलों की फीस कैसे देते होंगे, जिन स्कूलों में वे जा भी नहीं रहे हैं? बच्चों को तो औनलाइन खुद ही पढ़ना पड़ता है और मोटेमोटे चैक हर महीने स्कूल के नाम काटने पड़ते हैं, वरना स्कूल से नाम कट जाएगा.
क्या सरकार का अपनी इस जनता के प्रति कोई फर्ज नहीं बनता? जिस से टैक्स वसूलते समय एकएक पाई का हिसाब लिया जाता है, उस घर में चूल्हा जला या नहीं, इस का हिसाब कौन रखेगा?
जो नेता वोट मांगने के समय हाथ जोड़े खड़े रहते हैं, वे बेकारी के समय कहां चले जाते हैं? कहां जाएं ये बेकारी के मारे? किस से लगाएं अपने लिए रोजगार मुहैया करवाने की गुहार?
कल तक ये लोग देश के लिए डौलर कमाते थे. इन की सर्विसेज विदेशियों को भारत दर्शन का रास्ता दिखाने में अहम भूमिका अदा करती थीं. आज वह समय एक सपना भर रह गया है. जाने कब आएगा वह सावन और कब जाएगा यह रावण?