रूममेट के साथ फ्रेंडशिप

26 साल का अभिषेक कुमार बिहार के समस्तीपुर जिले में एक किसान परिवार से है. साल 2013 में 12वीं जमात के इम्तिहान अच्छे नंबरों से पास करने के बाद पत्रकार बनने का सपना लिए वह देश की राजधानी दिल्ली आ गया.

पत्रकारिता में ग्रेजुएशन की पढ़ाई करने के लिए उस ने दिल्ली यूनिवर्सिटी के रामलाल आनंद कालेज में दाखिला लिया. दाखिला लेने के साथ ही अभिषेक ने कालेज से 16 किलोमीटर दूर लक्ष्मी नगर मैट्रो स्टेशन में एक पीजी किराए पर लिया. लेकिन पीजी लेने में सब से बड़ी दिक्कत उस के किराए की थी.

लक्ष्मी नगर आमतौर पर छोटे शहरों से आए नौजवानों से भरा रहता है. वहां के मकानों की दीवारें कोचिंग सैंटर के बोर्ड से पटी पड़ी हैं. यही वजह है कि ज्यादातर कोचिंग की पढ़ाई करने वाले छात्रों का हब लक्ष्मी नगर बना हुआ है, जिस के चलते किराए पर कमाई का कारोबार वहां खूब फलफूल रहा है.

रूममेट की खोज

लक्ष्मी नगर में उस दौरान अभिषेक अकेला रह कर 6,000 रुपए महीना कमरे का किराया देने की हालत में नहीं था, इसलिए वह चाह रहा था कि जल्द ही उस का कोई रूममेट बने, जिस के साथ वह कमरे के खर्चों को शेयर कर सके.

इस मसले पर अभिषेक का कहना है, ‘‘ज्यादातर लोग जानपहचान वाले को ही रूम पार्टनर रखना पसंद करते हैं और यह ठीक भी रहता है, क्योंकि इस से रूममेट को समझनेसमझाने में ज्यादा समय नहीं खपता और एकदूसरे से कोई बात बेझिझक कही जा सकती है.

‘‘बहुत बार जब 2 अनजान लोग एकसाथ रहते हैं, तो काम और पैसों को ले कर झिकझिक बनी रहती है. छोटेछोटे खर्चों या काम में बड़ेबड़े झगड़े या शक की गुंजाइश बन जाती है.’’

गलत रूममेट

उत्तर प्रदेश के आगरा की रहने वाली 29 साल की श्रुति गौतम दिल्ली यूनिवर्सिटी से पीएचडी कर रही हैं. वे मुखर्जी नगर में फ्लैट ले कर रह रही हैं. साथ ही, वे बतौर गैस्ट टीचर कालेज में पढ़ाती भी हैं.
श्रुति गौतम कहती हैं, ‘‘मैं साल 2016 में दिल्ली आई थी. साल 2016-17 में मैं जिस फ्लैट में रही, वहां सब ठीक चल रहा था. वहां मैं सब से छोटी थी, बाकी मेरे से कुछ सीनियर थे. फिर मैं ने जब रूम बदला, तो मुझे अपने साथ रूममेट की जरूरत थी.

‘‘उस दौरान मुझे 2 लड़कियां मिलीं. वे दोनों उम्र में मुझ से छोटी थीं. हम ने मिल कर फ्लैट लिया. शुरू में लगा कि सब ठीक है, लेकिन धीरेधीरे समस्या आती है कि आप की ट्यूनिंग नहीं मिलती. जैसे आप सोते हैं 10 बजे और रूममेट को 2 बजे सोने की आदत है. आप को खाने में कुछ पसंद है, तो उसे कुछ दूसरा. ऐसे में झगड़े होने लगते हैं.’’

काम का हिसाब

श्रुति गौतम कहती हैं, ‘‘साल 2018 की बात है, तब मैं आईपी मैं कालेज गैस्ट टीचर के तौर पर पढ़ा रही थी. मेरी एक रूममेट ने मेन डोर की चाबी लौक पर ही छोड़ दी, जिस के बाद कमरे से लैपटौप और मोबाइल फोन चोरी हो गया था.

‘‘उस समय मैं ने उसे खूब डांट दिया था. उसे बुरा लग गया और उस के मन में मेरे लिए कड़वाहट बैठ गई. तब से हमारी बात ठीक से हुई नहीं और आखिर में उसी ने कमरा छोड़ दिया.’’

श्रुति गौतम आगे कहती हैं, ‘‘रूम में काम बंटा हुआ होता है, लेकिन उस के बावजूद कोई काम करने को राजी नहीं होता. गंदे बरतन पड़े हैं तो पड़े ही रहेंगे. टायलैट सब से साफ रहने वाली जगह होनी चाहिए और सभी को इसे साफ करना चाहिए, लेकिन बोलबोल कर भी काम पूरा नहीं किया जाता.

‘‘खाना बनाते समय कई झगड़े होते हैं. जो खाना बनाने वाला है, वह कह दे कि प्याज काट दो या आटा गूंद दो तो काम से कन्नी काटने के लिए बहाने बनते हैं कि मुझे भूख नहीं है. कपड़े जहांतहां फैले होते हैं. इस के साथ हिसाबकिताब में भी दिक्कत आ जाती है. इस का आखिर में एक ही हल निकलता है कि आप एक कामवाली रख लो.’’

धर्मजाति के फंडे

अभिषेक बताता है, ‘‘लक्ष्मी नगर या मुखर्जी नगर में ही देखो, तो ज्यादातर अपनी जातबिरादरी के लोगों के साथ ही रहते हैं और शायद रहना पसंद भी करते हों. इसे समझना कोई बड़ी बात नहीं. कालेज में पढ़नेलिखने आए नौजवान जब कालेज में जाते हैं, तो अपने जातिधर्म के चुनाव उम्मीदवार को ही जिताते हैं, उसी के लिए नारे लगाते हैं.

‘‘मैं यह नहीं कह रहा कि सिर्फ जातिवादी या सांप्रदायिक सोच के चलते ऐसा है, मसला आराम का भी होता है. अपनी बिरादरी में वे ज्यादा आरामदायक महसूस करते हैं, कल्चर को ले कर जल्दी एकदूसरे की बातें समझ लेते हैं.

‘‘बहुतों पर पारिवारिक दबाव भी होता है कि किस के साथ रहना है या नहीं रहना है. सब से बड़ी वजह यह है कि ज्यादातर बाहरी नौजवान जानपहचान वालों के साथ ही यहां रहते हैं. हमारा सामाजिक ढांचा ऐसा है कि हम अपनी बिरादरी और धर्म से अलग किसी दूसरे से ज्यादा नजदीकियां बना नहीं पाते हैं.’’

उत्तर प्रदेश के महाराजगंज जिले के बिसनपुर गांव के सनी कुमार एसटी समाज से आते हैं. वे गांव से मीलों दूर इलाहाबाद शहर के कटरा इलाके में किराए का कमरा ले कर कानून की पढ़ाई कर रहे हैं.

सनी कुमार कहते हैं, ‘‘रूममेट ढूंढ़ते हुए जाति से ज्यादा धर्म को देखा जा रहा है, खासकर यह मामला हिंदू और मुसलमान में ज्यादा देखने को मिलता है. जिस इलाके में मैं रहता हूं, वहां अलगअलग धर्म के लोगों का एकसाथ रूम शेयर करने का उदाहरण मैं अभी तक देख नहीं पाया हूं, लेकिन जाति से अलग उदाहरण दिख जाते हैं. यह मैं ने गौरखपुर में भी महसूस किया था.’’

इस मसले पर श्रुति गौतम के विचार अलग हैं. वे कहती हैं, ‘‘मेरे खयाल से रूममेट ढूंढ़ते समय आज का नौजवान तबका धर्मजाति नहीं देखता है. वजह यह है कि ज्यादातर बाहर से आने वाले युवा एक टारगेट ले कर आते हैं, उस के आड़े ये चीजें इतनी माने नहीं रखतीं.

‘‘हां, यहां पेंच पड़ता है परिवार का. अगर किसी का बेटा या बेटी बाहर पढ़ने गए हैं या नौकरी के लिए आए हैं, तो परिवार नजर रखता है कि वह किस के साथ है. उस की पार्टनर किस धर्मजाति से है. ऐसे में इन चीजों को ध्यान में रख कर रूममेट की जातिधर्म पर सोचते होंगे. लेकिन जिन्हें इन बातों से कुछ फर्क नहीं पड़ता, वे परिवार में इन बातों को बताते ही नहीं हैं या झूठ कह देते हैं.’’

ऐसे बनाएं रूममेट से अच्छा रिश्ता

कमरे की साफसफाई–  रूममेट का आपस में झगड़ा इसी को ले कर ज्यादा होता है, इसलिए जरूरी है कि इस पर ध्यान दिया जाए. इस के लिए कुछ नियम बनाए जा सकते हैं. जैसे, बारीबारी से कमरा साफ करें, भीतर आने से पहले जूते साफ कर लें, अपने कपड़े समय पर धो लें, टायलैट इस्तेमाल करने के बाद साफ जरूर करें, कमरे के मैनेजमेंट के लिए अलमारी, बुक रैक, डस्टबिन, पैन बौक्स वगैरह का इस्तेमाल करें, ताकि चीजें यहांवहां गुम न हों.

हिसाब रखें सही

कई बार लेनदेन में रूममेट के साथ अनबन हो जाती है. अगर एक बार पैसों को ले कर अनबन होती है, तब वह शंका आजीवन मिटाए नहीं मिटती है, इसलिए हिसाब बेहतर और क्लियर रखें.

रूममेट की सहूलियत का खयाल

कई बार हमारी केवल अपनी सहूलियत दूसरे के लिए सिरदर्द भी बन जाती है. हमेशा यह ध्यान रखना चाहिए कि आप के साथ उस रूम में कोई और भी है, जिसे कुछ तरह की चीजों से दिक्कत हो सकती है. जैसे देर रात फोन पर बात करना, देर रात तक टैलीविजन देखना या मोबाइल फोन पर बात करना वगैरह.

प्राइवेसी का ध्यान रखना

ऐसा नहीं है कि रूममेट के साथ हर बात शेयर की जाए या उसे हर बात बताने पर जोर दिया जाए. हर किसी की अपनी प्राइवेसी होती है. उस की इज्जत करना जरूरी है. अगर रूममेट आरामदायक महसूस नहीं कर रहा, तो उस की पर्सनल लाइफ में दखल न दें.

बिना पूछे सामान न इस्तेमाल करें

कई बार लोग रूममेट के सामान को अपना समझ कर इस्तेमाल करने लगते हैं, जो गलत है खासकर बगैर पूछे. ध्यान रहे कि खुद के लिए जरूरत का सामान जोड़ लें. अगर मुमकिन नहीं है, तो रूममेट से सामान इस्तेमाल करने से पहले इजाजत लें.

रूममेट की सही पहचान

भले ही रूममेट के साथ थोड़े समय के लिए ही जिंदगी बितानी होती है, पर फिर भी एक बेहतर रूममेट की पहचान करना जरूरी होता है. इस के लिए कुछ बातों के बारे में जान लेना बहुत जरूरी है :

सोशल मीडिया अकाउंट देखें

अगर किसी एप की मदद से रूममेट की खोज की है, तो उस के सोशल मीडिया अकाउंट्स को चैक कर लें. वहां उस की जानकारी मिल जाएगी, उस का तौरतरीका और रवैए की पहचान होने में मदद मिलेगी.

पहचान के लिए पब्लिक स्पेस

रूममेट की पहचान जैसे भी या जहां से भी हो, पहली मुलाकात में एकांत जगह या रूम में बुलाने से बचना चाहिए. एकदूसरे को जानने के बाद ही मेलजोल आगे बढ़ाएं.

पसंदनापसंद पर खुल कर बात

रूममेट के साथ रोज 10-12 घंटे गुजारने होते हैं, इसलिए जरूरी है कि एकदूसरे की पसंदनापसंद जानें. खुल कर पूछें और बताएं शराब, सिगरेट, मांसाहार और पार्टी के मामले में.

रूममेट के डौक्यूमैंट देखें

अगर इन सब के बाद वह रूममेट बनने को तैयार है, तो उस के डौक्यूमैंट्स वैरिफाई करें. इस में आधारकार्ड, वोटर आईडी, औफिस या कालेज कार्ड हो सकता है.

Diwali Special: हॉस्टल वाली दीवाली

जो लोग होस्टल में रहे हैं उन्हें पता है कि वे उन की जिंदगी के कभी न भूलने वाले पल हैं. होस्टल की जिंदगी मजेदार भी होती है और परेशानियों से भरी भी. बावजूद इस के, होस्टल में रह कर त्योहारों के समय जो खुशियां मिलती हैं, जो आजादी और मस्ती मिलती है, वह कहीं और नहीं मिलती.

संध्या जब हैदराबाद से दिल्ली के एक एनजीओ में काम करने आई थी तो उस ने कई साल वुमन होस्टल में गुजारे थे. अब तो वह शादी कर के पति के घर में सैटल हो गई है मगर होस्टल के दिन उन्हें नहीं भूलते हैं. घर के ऐशोआराम से निकल कर कम संसाधनों और जुगाड़ों के बीच होस्टल की टफ लाइफ का भी अपना ही मजा था. उस जिंदगी को याद करते वक्त उन्हें सब से ज्यादा दीवाली की याद आती है.

संध्या कहती हैं, ‘‘किसी आसपास के शहर से होती तो त्योहारों में जरूर घर भाग जाती, मगर दिल्ली से ट्रेन में हैदराबाद तक 2 दिन का सफर बड़ा कठिन लगता था और वह भी सिर्फ दोतीन दिन के लिए जाना बिलकुल ऐसा जैसे देहरी छू कर लौट आओ. शुरू के 2 साल तो मैं दीवाली पर घर गई, मगर बाद में होलीदीवाली सब होस्टल में ही मनाने लगी.

‘‘दिल्ली के आसपास रहने वाली ज्यादातर लड़कियां घर चली जाती थीं.  बस, थोड़ी सी बचती थीं. शुरू में तो त्योहार के समय खाली पड़े कमरे को देख कर मु झे भुतहा फीलिंग होती थी, मगर जब शाम को बची हुई लड़कियां होस्टल की छत पर इकट्ठी हो कर पटाखे छुड़ाती थीं तब बड़ा मजा आता था. हम 8-10 लड़कियां नई ड्रैसेस पहन कर सुबह से ही त्योहार की तैयारियों में जुट जाती थीं. हमारी वार्डन काफी सख्तमिजाज महिला थीं, मगर उस दिन उन का मातृत्व हम लड़कियों पर खूब छलकता था. वे सिंगल मदर थीं. पति से तलाक हो चुका था. 14 साल की उन की बेटी थी जो उन के साथ ही रहती थी. त्योहार के दिन होस्टल के रसोइए की छुट्टी रहती थी और किचन हम लड़कियों के हवाले होता था. ऐसे में विशेष मैन्यू तैयार किया जाता. दोपहर और रात के खाने के लिए मनपसंद सब्जियां,  नौनवेज, पूडि़यां, पुलाव हम बनाते थे. इकट्ठे जब इतने सारे बंदे रसोई में पकाने के लिए जमा होते थे तो काम भी फटाफट निबट जाता था. शाम को हम सब होस्टल के गेट पर बड़ी सी रंगोली बनाने में जुट जाते थे. पूरे गेट और दीवार की मुंडेर को दीयों, फूलमालाओं और रंगोली से सजा देते थे.

‘‘अंधेरा होते ही पूरा होस्टल दीयों की जगमगाहट से भर जाता था. दीवाली की रात हम सब छत पर इकट्ठे हो कर आधी रात तक जम कर पटाखे जलाते थे. मगर उस दिन दोस्ती के लिए तो सब को खुली छूट थी. खुद वार्डन भी उन लड़कियों के साथ मस्ती करती. खानेपीने के बाद जब हम सोते तो दूसरे दिन 12 बजे से पहले आंख न खुलती थी.

‘‘फिर वार्डन की आवाज सुनाई देती कि जाओ सब मिल कर छत साफ करो. छत पर जले हुए पटाखों, दीयों, मोमबत्तियों, जूठे बरतनों का ढेर लगा होता था. सारा कूड़ा इकट्ठा कर के बोरियों में भर कर हम कूड़ा गाड़ी पर फेंकने जाते थे. घर की दीवाली में कभी इतना मजा नहीं आया जितना होस्टल की दीवाली में आया करता था. जबकि होस्टल की दीवाली में हमारी मेहनत दोगुनी होती थी लेकिन मजा भी दोगुना था. घर में तो मां ही पूरी रसोई बनाती थीं. वे ही पूजा करती थीं, फिर थोड़े से पटाखे हम भाईबहन महल्ले के बच्चों के साथ जला लेते थे. लो मन गई दीवाली. मगर होस्टल में त्योहार का आनंद ही अलग था. खुलेपन का एहसास जहां होस्टल में हुआ तो बियर का स्वाद भी पहलेपहल वहीं चखा.’’

संध्या बताती हैं, ‘‘मैं बचपन में बहुत दब्बू टाइप थी. मगर होस्टल में आने के बाद काफी बोल्ड हो गई. इस की वजह है होस्टल में हमें अपनी परेशानियों का हल खुद ही निकालना होता है. वहां मांबाप या बड़े भाईबहन नहीं होते जो परेशानी हल कर दें. एक बार की बात है, हमारे होस्टल में सुबह पानी की मोटर जल गई. अब किसी को कालेज के लिए निकलना था, किसी को औफिस के लिए. तब हम सब बाहर सरकारी नल से बाल्टी में पानी भरभर कर लाए और नहाया.

यह तो ऐसा मामला था जो शायद कभीकभार ही हो, लेकिन कुछ बातें तो लगभग हर गर्ल्स होस्टल या पीजी में देखने को मिलती हैं. हर होस्टल में चोरी जरूर होती है. चाहे वह कोई रहने वाली लड़की करे, चाहे कोई नौकर करे या कोई पड़ोसी ही आ कर कुछ चुरा ले जाए. लड़कियों की कटोरीचम्मच से ले कर अंडरगारमैंट्स तक गायब हो जाते थे.

‘‘कभीकभी 2 लड़कियों के बीच इतनी भयानक लड़ाई हो जाती थी कि मामला हाथापाई तक पहुंच जाता था. उस में बीचबचाव करना और सम झाना खुद की लाइफ को बहुत स्ट्रौंग बना देता है. होस्टल एक ऐसी जगह है जहां आजादी, मस्ती, टाइमपास, फैशन,  झगड़े सब होते हैं. लड़कियां अपने घर से दूर, मांबाप की डांट से दूर अपनी उम्र की लड़कियों के साथ जिंदगी का पूरा मजा लेती हैं.’’

वैसे होस्टल लाइफ को ले कर बहुत से लोग कहते हैं, ‘जो कभी होस्टल में नहीं रहा,  उस ने लाइफ में बहुतकुछ मिस किया है.’ राजीव चन्नी अपनी होस्टल लाइफ याद करते हुए कहते हैं, ‘‘पानी जैसी दाल, नहाने के लिए लंबी लाइन और खूसट वार्डन के अलावा भी बहुतकुछ होता है होस्टल में. घर के ऐशोआराम के बाद अगर आप ने होस्टल में संघर्ष कर लिया तो सम झ लो, जीवन सफल हो गया.

‘‘होस्टल में इंसान लाइफ के बहुत सारे स्किल्स सीख लेता है. जैसे, नहाते हुए पानी चले जाने पर शरीर पर लगे साबुन को गीले तौलिए से पोंछना और फ्रैश फील करना, दूसरे की शेविंग क्रीम या शैंपू इस्तेमाल कर लेना और उस को हवा भी न लगने देना, पौटी प्रैशर रोकने में सक्षम हो जाना, मनपसंद सब्जी न होने पर दहीचावल खा कर जीना, पनीर की सब्जी में से पनीर और आलू के परांठों में आलू ढूंढ़ना और जब हद गुजर जाए तो भूखहड़ताल करना वगैरहवगैरह और सब से अहम सीख है ‘एकता’. एकजुट हो कर कोई भी काम करना, स्ट्राइक से ले कर त्योहार मनाने तक.

‘‘दीवाली के दिन तो लड़कों का जोश देखने लायक होता था. कुछ घरेलू किस्म के लड़के जहां अपने कमरों में दीयामोमबत्तियां सजाते थे, पूजा करते और कुछ स्पैशल खाना बनाने में रसोइए की मदद करते थे, वहीं मर्द टाइप के लड़के इस जुगाड़ में रहते थे कि दारू और गर्लफ्रैंड के साथ त्योहार की रात कहां और कैसे मनाई जाए. दीवाली की रात ज्यादातर लड़के होस्टल के बाहर ही बिताते थे. कुछ सिनेमाहौल में तो कुछ होटल वगैरह में पाए जाते थे.

‘‘होस्टल लाइफ थी. खुली छूट थी. कोई रोकटोक नहीं. जब तक चाहो, बाहर रहो. कोई पूछने वाला नहीं था. न मां की  िझक िझक, न बाप की फटकार. कई बार तो हम सुबह के 4 बजे वापस आते और चौकीदार की जेब में 10 रुपए का नोट ठूंस कर आराम से कमरे में जा कर सो जाते. अलग ही आनंद था होस्टल लाइफ में त्योहार मनाने का. वे दिन तो जिंदगीभर नहीं भूलेंगे.’’

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