उत्तर प्रदेश के इटावा शहर में प्रवीण व नीलम का विवाह 1998 में हुआ जब नीलम 18 साल की थी. दोनों को एक बेटी भी हुई. फिर दोनों के बीच मतभेद खड़े हो गए और वे अलगअलग रहने लगे. तब 2009 में पति ने तलाक का मुकदमा पारिवारिक अदालत में डाला. होना तो यह चाहिए था कि पत्नी की जो भी वजहें रही हों, पति और पत्नी को जबरन ढोए जा रहे संबंधों से कानूनी मुक्ति दिला दी जानी चाहिए थी पर पारिवारिक अदालत ने ऐप्लिकेशन रद्द कर दी.
चूंकि साथ रहना संभव न था, इसलिए पति ने जिला अदालत का दरवाजा खटखटाया. जिला अदालत ने 3 साल इंतजार करा कर 2012 में तलाक मंजूर करने से इनकार कर दिया. नीलम अब 32 साल की हो चुकी थी.
प्रवीण उच्च न्यायालय पहुंचा. उच्च न्यायालय ने मई, 2013 में तलाक नामंजूर कर दिया, जबकि मामला शुरू हुए 15 साल गुजर चुके थे. दोनों जवानी भूल चुके थे.
प्रवीण अब सुप्रीम कोर्ट आया. समझौता वार्त्ता के दौरान प्रवीण ने क्व10 लाख पत्नी को देने की पेशकश की और क्व3 लाख का फिक्स्ड डिपौजिट करने का प्रस्ताव रखा, पर यह करतेकराते सुप्रीम कोर्ट में 6 साल लग गए.
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इस दौरान दोनों पक्षों ने कई मुकदमे शुरू कर दिए. 2009 में गुजारेभत्ते के लिए क्रिमिनल प्रोसीजर कोड के अंतर्गत जिला अदालत इटावा में एक मुकदमा दायर किया गया. 2009 में ही घरेलू हिंसा का एक और मुकदमा नीलम ने इटावा में दायर किया. एक दहेज के बारे में 2002 में केस दायर किया गया था. एक मामला इटावा में ही इंडियन पीनल कोड की धारा 406 में अमानत में खयानत यानी ब्रीच औफ ट्रस्ट पर दायर किया गया था.
यहां तक कि पति के खिलाफ डकैती तक का मामला दायर किया गया था कि वह 5 जनों के साथ घर लूटने आया था.
आंतरिक विवाद जो भी हों विवाह के मामले में इतनी मुकदमेबाजी आज आम हो गई है और इस में पिसती औरत ही है.
18 साल की लड़की, जिस की शादी 1998 में हुई हो, न जाने कितने सपने ले कर ससुराल आई होगी पर जो भी मतभेद हों, वे अगर हल नहीं होते तो अलग हो कर चाहे तलाकशुदा का तमगा लगाए घूमना पड़े पर 20 साल अदालतों के चक्कर तो नहीं लगाने पड़ने चाहिए.
लाखों की वकीलों की फीस के बदले क्व13 लाख मिले पर क्या ये काफी हैं? क्या यह जवानी की अल्हड़ता फिर आएगी जब बेटी खुद शादी के लायक हो रही है?
यह हिंदू विवाह कानून किस काम का जो औरतों को 20-30 साल इंतजार कराए और बिना तलाक के रखे? यह आतंक तीन तलाक से कम नहीं है, लेकिन हिंदू धर्माधीश इसे सिर पर पगड़ी और माथे पर तिलक मान कर चल रहे हैं.
औरतें उन के पैरों की जूतियां हैं, जो चरणामृत पीती हैं. विवाह तो धर्म के दुकानदारों के हिसाब से संस्कार है. कुंडलियां मिला कर होने वाला विवाह जिस में लड़की की रजामंदी नहीं ली जाती पहले सुधार मांगती है. मुसलिम औरतें कम से कम दासी नहीं हैं, यह निर्णय तो यही कहता है.
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सामाजिक दुर्दशा के लिए जिम्मेदार कौन धार्मिक कथाएं किस तरह दिमाग खराब करती हैं और किस तरह औरतों के अत्याचारों के लिए जिम्मेदार हैं, यह रामायण और महाभारत से साफ है. हजारों औरतों को देशभर में अपने पाकसाफ होने के सुबूत में हाथपैर जलाने पड़ते हैं. पति अगर आरोप लगा दे कि पत्नी की किसी से आशनाई चल रही है तो राम और सीता के प्रसंग का लाभ उठा कर घरवाले ही नहीं, बल्कि पूरा समाज औरत को अग्नि परीक्षा सी देने को मजबूर करता है, जिस में स्वाभाविक है वह दोषी पाई जाती है और सदा के लिए बदनाम हो जाती है.
इसी तरह युधिष्ठिर द्वारा द्रौपदी को जुए में हारने की कहानी इतनी बार कही जाती है कि आम लोगों में इसे सही मान कर अपनी पत्नी को दांव पर लगाने का हक सा मिल गया है. रामसीता के प्रदेश उत्तर प्रदेश में जौनपुर में एक पति ने एक बार नहीं 2 बार अपनी पत्नी को जुए में दांव पर लगा दिया और हार गया.
जाफराबाद में पुलिस स्टेशन में जुलाई 2019 में दर्ज रिपोर्ट के अनुसार एक नशेड़ी व जुआरी पति ने 2 दोस्तों के साथ जुआ खेलते हुए सबकुछ हार कर अपनी पत्नी को ही दांव पर लगा दिया. शायद उस के मन में बैठा होगा कि हारने पर कोई कृष्ण उस की पत्नी को भी बचा ही लेगा. अफसोस वह हार गया और दोनों दोस्तों ने उस की पत्नी का रेप किया, पति की इच्छा के हिसाब से.
नाराज पत्नी के पास घर छोड़ने के अलावा कोई चारा न था, क्योंकि पति ने तो धर्मनिष्ठ काम किया था, जो शायद स्वयं पत्नी की निगाह में अपराध न था. उस ने पहली बार न पुलिस में शिकायत की, न तलाक मांगा. वह घर छोड़ गई तो पति माफी मांगता पहुंचा. बेचारी हिंदू औरत उसे लौटना पड़ा, समाज का दबाव जो था. पति ने तो धर्म की मुहर लगा काम ही किया था न.
पति के सिर पर तो धर्म का भूत सवार था कि पत्नी उस की मिल्कीयत है, हाथ की घड़ी, पैरों के जूतों की तरह. उस ने उसे फिर धर्मराज युधिष्ठिर बन कर दांव पर लगा दिया. इस बार द्रौपदी नाराज हो गई. कोई कृष्ण नहीं आया बचाने के लिए तो पुलिस स्टेशन पहुंची.
अभियुक्तों को पकड़ लिया पर आगे होगा क्या? कुछ नहीं. औरत को झख मार कर लौटना पड़ेगा.
रामायण, महाभारत का नाम ले कर तो कहानियां रातदिन इतनी बार दोहराईर् जाती हैं कि औरतों को अपना पूरा जीवन सेवा और हुक्म मानने के लिए तैयार रहना पड़ता है. जब तलाक मांगो तब अदालतें भी नहीं देतीं. उन के दिमाग में भी बैठा है कि पति के बिना पत्नी कमजोर, असहाय है. इस सामाजिक दुर्दशा के लिए भाजपा सरकार तो कुछ न करेगी. औरतों को खुद ही आगे आना होगा पर वे आएंगी तो तब न जब उन्हें पूजापाठ, व्रतों, संतों की सेवा, तीर्थयात्राओं, जलाभिषेकों, मूर्तिपूजाओं से फुरसत मिले.
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बिजली मुफ्त औरतें मुक्त
दिल्ली में अरविंद केजरीवाल का 2 बत्ती, 1 टीवी, 1 पंखा, 1 फ्रिज, 1 कूलर, 1 कंप्यूटर के लायक 200 यूनिट तक की बिजली मुफ्त करने का फैसला चतुराईभरा है. 200 यूनिट तक का बिल अब माफ कर दिया गया है. शहर के
45 लाख उपभोक्ताओं को इस से लाभ होगा और बिजली का बिल भुगतान न होने के कारण बिजली इंस्पैक्टरों की धौंस का सामना नहीं करना पड़ेगा.
सरकारी आंकड़ों के हिसाब से वैसे भी 33% घरों में 200 यूनिट से कम बिजली खर्च होती है. अब तक लोग 200 यूनिट के क्व600-700 देते थे. इस से पहले खर्च क्व1,200 था जिस की खपत ज्यादा है, वे पक्की बात है कि अब कम बत्ती का इस्तेमाल कर के 200 यूनिट के नीचे रहना चाहेंगे. सब से बड़ी बात यह है जब बत्ती मुफ्त मिल रही है तो घर के सामने खुले तारों पर कांटा डाल कर बत्ती जलाने की आदत भी खत्म हो जाएगी.
इस पर खर्च क्व1,400 करोड़ तक आ सकता है पर 60,000 करोड़ के बजट में यह कोई खास नहीं. खासतौर पर तब जब सरकार को कम बिल भेजने पड़ेंगे. एक बिल छापने, भेजने, पैसा वसूल करने में ही 50 से 100 रुपए लग जाना मामूली बात है. बिजली दफ्तर जा कर बिल जमा कराने में शहरी गरीब जनता को न जाने कितना खर्च करना पड़ता है.
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जब सरकार जगहजगह वाईफाई फ्री कर ही रही है कि लोग मोबाइलों का इस्तेमाल कर के हर समय सरकार के फंदे में रहें तो गरीबों को यह छूट देना गलत नहीं है. गरीब औरतों के लिए यह वरदान है कि अब उन की बिजली कटेगी नहीं और वे न रातभर खुले में सोने को मजबूर होंगी और न उन के बच्चे रातभर पढ़ने से रह जाएंगे.
सरकारें बहुत पैसा वैसे भी जनहित के कामों के लिए खर्च करती हैं. हर शहर में पार्क बनते हैं पर पार्क में जाने के लिए पैसे नहीं लिए जाते. सड़कें, गलियां बनती हैं जिन पर चलने की फीस नहीं ली जाती. सस्ते सरकारी स्कूल, कालेज, विश्वविद्यालय हैं जहां बहुत कम पैसों में पढ़ाई होती है. बहुत अस्पतालों में तामझाम का पैसा न ले कर इलाज होता है.
जो लोग इसे टैक्सपेयर की जेब पर डाका मान रहे हैं यह भूल रहे हैं कि उन के अपने कर्मचारी अब ज्यादा सुरक्षित, सुखी और प्रोडक्टिव हो जाएंगे, क्योंकि वे अंधेरे के खौफ में न रहेंगे.
जनहित काम केवल कांवड़ यात्रा का नहीं होता, पटेल की मूर्ति का नहीं होता, मन की बात का जबरन प्रसारण नहीं होता, बिजलीपानी भी जरूरी है. साफ हवा की तरह गरीब औरतों के लिए थोड़ी सी बिजली मुफ्त हो तो एतराज नहीं. यह उन्हें कटने के खौफ से मुक्त रखेगा.