सोशल मीडिया क्राइम: नाइजीरियन ठगों ने किया कारनामा

यह ठगी की क्राइम स्टोरी पढ़कर आप भी चौंक जाएंगे की ठगी के कैसे-कैसे नायाब नमूने लोगों ने इजाद कर लिए हैं. इस संदर्भ में कहा जा सकता है कि छत्तीसगढ़ की
राजनांदगांव पुलिस को बड़ी कामयाबी हासिल हुई है. सोशल मीडिया के जरिए आनलाइन ठगी करने वाले दो नाईनीरियन को पुलिस ने नईदिल्ली से गिरफतार किया है इनके नाम- किबी स्टेनली ओकवो और नवाकोर इमानुएल हैं.

दंपत्ति से 44 लाख की ठगी

पुलिस अधीक्षक कमललोचन कश्यप ने बताया कि राजनांदगांव निवासी श्रीमती सुनीता आर्य पति चैतूराम आर्य ने विगत एक दिसंबर को उक्त आरोपियों के खिलाफ एक रिपोर्ट दर्ज कराते हुए कहा था कि जुलाई 2018 में किसी डेविड सूर्ययन नामक व्यक्ति उन्हें फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजी. तथा खुद को लंदन निवासी होना बताया. काफी दिनों तक दोनों के बीच चेटिंग होती रही और एक दिन उपरोक्त व्यक्ति ने कहा कि वह उसे मोबाइल, गोल्डन ज्वेलरी, रिंग, जूते, कोट, घडी चैनल, बैग इत्यादि सामान गिफट करना चाहता है परंतु उसका जहांज फिनलैण्ड में रूका पड़ा है, उसके बाद पीड़िता के पास एक व्यक्ति का फेान आया जिसने खुद को कस्टम अधिकारी बताया और कहा कि उपरोक्त सामान चाहिऐ तो उसे 62500 रूपये जमा कराने होंगे. इस तरह क्राइम प्रारंभ हो गया विश्वास करके आगे दंपत्ति ने यूपी जमाने प्रारंभ कर दिए और धीरे धीरे 44लाख रुपए की चपत उन्हें लग गई.

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ऐसे हुआ ठगी का एहसास

इधर पीड़िता ने उसके झांसे में आते हुए रकम जमा कर दी परंतु जब सामान नही पहुंचा तेा उसने डेविड सूर्ययन से संपर्क करना चाहा मगर उसका सोशल मीडिया एकाउंट और मोबाइल नम्बर बंद बताया जा रहा था. आश्चर्य कि इस तरह पीड़िता से कुल 44 लाख की आनलाइन धोखाधड़ी हो गई. उसके बाद पीड़िता ने राजनंदगांव पुलिस अधीक्षक एवं अधिकारियों से संपर्क किया जिन के निर्देश पर कोतवाली थाना में मामला दर्ज हुआ. रिपोर्ट
दर्ज करने के बाद पुलिस ने भादवि की धारा 420, 34 एवं 66 डी के तहत जुर्म दर्ज किया.

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अंततः अपराधी पकड़े गए

पुलिस ने इस मामले को गंभीरता से लिया और जाल बिछाकर ठगों को दबोच लिया। छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव पुलिस ने ऑनलाइन साइबर क्राइम को बहुत गंभीरता से लिया और इसके लिए एक क्राइम इन्वेस्टिगेशन टीम बनाई गई जोशीला पुलिस कप्तान कश्यप को रिपोर्ट कर रही थी बहुत ही चालाकी से दोनों नाइजीरियन नागरिकों को पुलिस ने जाल में फंसाया और गिरफ्तार करके राजनंदगांव ले आई है पुलिस ने दोनों का बयान दर्ज किया उन्होंने स्वीकार किया कि यह काम वह विगत 2 वर्षों से कर रहे थे और अनेक लोगों को अपना शिकार बनाया है. पुलिस ने उन्हें न्यायालय में पेश किया जहां से जमानत के अभाव में उन्हें जेल भेज दिया गया है.

हम जनता के सेवक हैं

लेखक- सुरेश सौरभ

लखीमपुर के सिद्धार्थनगर महल्ले के बाशिंदे अमित कुमार ग्रीन फील्ड एकेडमी स्कूल से इंटर का इम्तिहान पास करने के बाद छत्रपति शाहूजी महाराज कानपुर यूनिवर्सिटी पढ़ने चले गए थे और वहीं से बीए करने के बाद वे दिल्ली की ओर रुख कर गए थे. अमित कुमार ने दिल्ली में बाजीराव ऐंड रवि कोचिंग में सिविल सेवा की तैयारी शुरू की और एक साल के बाद पहली ही कोशिश में इतना बड़ा इम्तिहान पास कर के लोगों के हीरो बन गए. अमित कुमार ने बताया कि वे मूल रूप से हरगांव सीतापुर के गांव नुकरी के रहने वाले हैं और वहीं उन का बचपन बीता था.

वर्तमान समय में सिविल सोसाइटी के लोग तमाम राजनीतिक दखलअंदाजी के चलते कैसे सही काम कर पाएंगे? इस सवाल के जवाब में अमित कुमार ने बताया, ‘‘सत्ता का दबाव तो रहता है, पर तमाम तरह के दबावों को दरकिनार करते हुए हमें अपने हकों और फर्ज पर अडिग रहना चाहिए और अगर हम ऐसा करते हैं तो राजनीतिक दबाव को बहुत हद तक कम किया जा सकता है और जनता का काम आसानी से किया सकता है.’’

किसी बड़ी कामयाबी को पाने के लिए नौजवानों को क्या करना चाहिए? इस सवाल के जवाब में अमित कुमार कहते हैं, ‘‘नौजवानों को अगर कोई बड़ी कामयाबी पाने की इच्छा है तो उन्हें अपना टारगेट ले कर चलना पड़ेगा और उसी टारगेट पर बिना रुके बिना थके तब तक चलना होगा जब तक कि कामयाबी नहीं मिल जाती.’’

आज के समय में जब पूरा देश भ्रष्टाचार और गरीबी से जूझ रहा है, ऐसे में सिविल सेवा में गए लोगों को क्या करना चाहिए, जिस से इस सब पर काबू पाया जा सके? इस सवाल के जवाब में अमित कुमार कहते हैं, ‘‘हमारा काम जनता की सेवा करना है. हम जनता के सेवक हैं. अगर सिविल सेवा में गए लोग सेवा भाव से काम करेंगे तो काफी हद तक इस समस्या का समाधान किया जा सकता है.’’

अमित कुमार के पिता वीरेंद्र भारती प्राइमरी स्कूल में टीचर हैं और मां सुमन देवी गृहिणी हैं. अपने बेटे की कामयाबी पर पिता बहुत खुश हैं और कहते हैं, ‘‘अमित जैसा बेटा पा कर हमें गर्व महसूस होता है. हर मांबाप को अमित जैसा होनहार और काबिल बेटा मिलना चाहिए.’’

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अमित कुमार के 2 भाई और एक बहन हैं.

अमित कुमार की इस कामयाबी पर तमाम संस्थाओं ने उन्हें सम्मानित किया है. दलित महापरिसंघ के प्रमुख चंदन लाल बाल्मीकि ने अमित कुमार के सम्मान में एक बड़ी प्रैस कौंफ्रैंस कराई और उन्हें परिसंघ की ओर से सम्मानित भी किया.

अमित कुमार गौतम बुद्ध, डाक्टर भीमराव अंबेडकर, महात्मा गांधी, ज्योतिराव फुले और अपने गुरु सतीश कुमार वर्मा को अपना आदर्श मानते हैं.

सिविल सेवा में जाने के लिए नौजवानों को पढ़ने के लिए किनकिन किताबों की मदद लेनी चाहिए? इस सवाल के जवाब में अमित कुमार कहते हैं कि एनसीआरटी की किताबें इस की तैयारी के लिए बहुत ही कारगर होती हैं.

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सीसैट लागू होने पर हिंदी बैल्ट के बहुत से छात्र सिविल सेवा में नहीं जा पा रहे हैं. क्या यह बात सही है? इस सवाल के जवाब में अमित कुमार कहते हैं, ‘‘शुरुआत में हिंदी बैल्ट के छात्रों पर फर्क पड़ा था, मगर अब हालात बदल गए हैं और हिंदी बैल्ट के छात्र सीसैट पैटर्न में लगातार कामयाबी हासिल कर रहे हैं.’’

बिकाऊ मीडिया

मीडिया की निष्पक्षता व ईमानदारी पर प्रश्नचिह्न तो हमेशा लगते रहे हैं पर इस बार जिस तरह मीडिया ने सरकारी पक्ष लिया है और जिस तरह कुछ चैनलों व समाचारपत्रों ने अपनी नीतियां बनाई हैं, उन से मीडिया भी जनता के सामने कटघरे में खड़ा हो गया है.

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मीडिया या प्रैस की स्वतंत्रता को संविधान में राजनीतिक दलों से ज्यादा महत्ता दी गई है. संविधान की प्रस्तावना (प्रिअंबल) में चुनावों को जनता की प्राथमिकता नहीं बताया गया है बल्कि विचारों की अभिव्यक्ति को संविधान का मुख्य ध्येय घोषित किया गया है. मौलिक अधिकारों में चुनावों, पार्टियों, नेताओं की चर्चा नहीं है लेकिन संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) में विचारों की स्वतंत्रता को मौलिक अधिकार बताया गया है.

प्रैस और मीडिया का अधिकार चुनावों, नेताओं, प्रधानमंत्री से ऊपर है पर जिस तरह से इस बार इन पर आरोप लग रहे हैं, इस से स्पष्ट है कि प्रैस व मीडिया ने अपना स्तर घटा दिया है. जो विशिष्ट स्थान उसे संविधान के तहत मिला हुआ है, उसने उस की धज्जियां उड़वा ली हैं. बिकाऊ मीडिया का तमगा कितने ही चैनलों, ऐंकरों, समाचारपत्रों पर लग चुका है. इलैक्ट्रौनिक मीडिया ने लाइसैंसों के चक्कर में और प्रिंट मीडिया ने विज्ञापनों के लिए सरकार की जो चाटुकारिता की है, वह जनता की आंखों से बच नहीं पाई है.

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समाचारपत्र उस जमाने में भी सरकार के पक्ष या विपक्ष में खड़े होते थे जब टैलीविजन व रेडियो सिर्फ सरकारी थे और डिजिटल मीडिया का आविष्कार नहीं हुआ था. पर फिर भी वे अपनी स्वतंत्रता का आवरण ओढ़े रहने में सफल रहते थे. इस बार अति हो गई है. ज्यादातर चैनल और समाचारपत्र खुल्लमखुल्ला सरकार के पक्ष में खड़े हैं.

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कम्युनिस्ट या तानाशाही देशों में जिस तरह के समाचारपत्र और टीवी चैनल होते थे, एक लोकतंत्र में इन का वैसे होना गंभीर खतरे की निशानी है. खतरा यह भी है कि मीडिया में जो प्रकाशित होगा उस में हर बात पर प्रश्न लगा रहेगा कि क्या यह सरकार या पार्टीविशेष द्वारा प्रायोजित है.

विडंबना यह है कि 1975-1977 में इंदिरा गांधी की सरकार ने यह काम पुलिस के बलबूते कराया था. इस बार यह अपनेआप किया जा रहा है और शायद रोजगार को बचाना ज्यादा बड़ा कारण है बजाय सरकारी भय या लालच के. मौलिक अधिकार इतने सस्ते हो सकते हैं, ऐसा पहली बार दिख रहा है.

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