Mother’s Day Special: एक थी मां- कहानी एक नौकरानी की

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एक थी मां- भाग 3: कहानी एक नौकरानी की

मेरे आते ही गोलू का पास के ही एक नर्सरी स्कूल में एडमिशन करा दिया गया था. गोलू को स्कूल छोड़ने और लाने के लिए मैं ही जाती थी.

वह जब मुझे प्यार से अपनी आवाज में ‘कश्मीरा दीदी’ कहता था, तो सुन कर मुझे बहुत अच्छा लगता था. गोलू को देख कर मुझे बारबार मेरे अपने भाई अमर की याद आती रहती थी. पता नहीं, अब वह घर में अकेले कैसे रहता होगा.

साकेत अंकल ने गोलू को घर पर पढ़ाने के लिए एक टीचर रख लिया था. आंटी के कहने पर वे टीचर मुझे भी पढ़ाने लगे थे. मैं भी मन लगा कर पढ़ने लगी थी.

समय बीतता रहा. कैसे 2 साल बीत गए, कुछ पता ही नहीं चला. अब तो मुझे कभी एहसास भी नहीं होता था कि मैं इस घर की नौकरानी हूं. मैं भी घर के एक सदस्य की तरह वहां रह रही थी.

मैं सिर्फ रक्षाबंधन के दिन ही हर साल अपने घर जाती थी और भाई को राखी बांध कर वापस आ जाती थी. मैं गोलू को भी राखी बांधती थी.

देखतेदेखते अंकल के यहां 6 साल गुजर गए. अब गोलू 10 साल का हो गया था. इसी साल अंकल ने एक सरकारी स्कूल से मुझे मैट्रिक का इम्तिहान दिलवा दिया था और मैं अच्छे अंक से पास भी हो गई थी.

सिकंदरपुर में अब मेरा भाई भी पढ़ने लगा था. इतने साल में अंकल द्वारा दिए हुए पैसे से पिताजी ने अपना कर्जा चुका दिया था और अब वे एक ठेले पर फल बेचने लगे थे.

मां अभी भी पहले जैसे ही अपनी दुनिया में मस्त रहती थीं. उन्हें किसी की कोई परवाह नहीं थी. इसी बीच मेरे दादाजी इस दुनिया से चल बसे थे.

बाकी सबकुछ अब ठीक से चल रहा था, मगर अचानक एक दिन मुझे एक ऐसी बुरी खबर मिली कि सुन कर मेरी जान हलक में आ गई. मेरे मासूम भाई अमर को किसी ने मार कर सड़क किनारे फेंक दिया था. सुबह सड़क के किनारे उस की लाश मिली थी.

मैं यह खबर सुन कर मानो मर सी गई थी, मगर मेरे मुंहबोले भाई गोलू और अंकलआंटी के प्यार के चलते मैं अपनेआप को संभाल पाई थी.

अमर की मौत के बाद अब मेरा अपने घर जाना भी बंद हो गया था. पिताजी जब कभी बलिया आते तो मुझ से मिल लेते थे. कभीकभार फोन कर के भी बात कर लेते थे, पर अपनी मां के लिए तो मैं कब की पराई हो गई थी.

धीरेधीरे सबकुछ पहले जैसा होता जा रहा था. इसी बीच मैं ने इंटर भी पास कर लिया था. भले ही मैं स्कूल या कालेज कभी गई नहीं थी, मगर घर पर ही पढ़पढ़ कर मैं सभी इम्तिहान अच्छे नंबरों से पास करती जा रही थी.

अंकल ने अब मेरा कालेज में भी एडमिशन करा दिया था. मैं अपनेआप को बहुत खुशनसीब समझती थी कि मुझे अपने मांबाप से भी ज्यादा चाहने वाले पराए मांबाप मिले थे.

मगर मेरी खुशी ज्यादा दिन तक नहीं रह सकी थी, तभी तो एक दिन सुबह एक और दिल दहला देने वाली खबर मुझे मिली. पिताजी का भी किसी ने रात में घर के अंदर ही खून कर दिया था.

यह सुनते ही मेरे ऊपर तो दुखों का पहाड़ टूट पड़ा. कोई धीरेधीरे हमेशा के लिए मुझ से दूर करता जा रहा था. पहले भाई और अब पिताजी को भी किसी ने जान से मार दिया था. आखिर मेरे भाई या पिताजी ने किसी का क्या बिगाड़ा था? कौन था, जो ये हत्याएं कर रहा था?

पर कहते हैं न कि पाप का घड़ा एक न एक दिन तो भरता ही है और जब भरता है तो वह किसी न किसी दिन फूटता ही है. ऐसा ही कुछ हुआ इस बार.

पिताजी का खून करने वाले गुनाहगार के गुनाह की काली करतूत का काला चिट्ठा इस बार पुलिस ने खोल दिया था. खून किसी और ने नहीं, बल्कि मेरी अपनी मां ने ही अपनी ऐयाशी को छिपाने के लिए अपने प्रेमी के साथ मिल कर किया था.

इतना ही नहीं, जिस रात मैं ने मां के कमरे में एक अनजान आदमी को देखा था, अपनी उसी पोल के खुलने के डर से चाल चल कर मुझे घर से दूर नौकरानी बना कर मेरी मां ने ही मुझे बलिया भेजा था. मां ने ही दुकान में आग लगवा कर मुझे घर से दूर करने की चाल चली थी.

यही नहीं, मेरी उस अपनी मां ने ही अपनी हवस की आग को जलाए रखने के लिए अपने ही हाथों अपने बेटे का भी गला दबा कर जान से मारा था. शायद अमर को जन्म देने वाली अपनी मां की हकीकत का पता चल गया था.

मेरी मां और उन के प्रेमी को कोर्ट से आजीवन कैद की सजा मिली थी. यह सुन कर मेरे सीने में अपनी मां के प्रति धधकती आग को कुछ ठंडक मिली थी.

एक बार फिर से अपने मुंहबोले भाई गोलू और पराए मातापिता के प्यार के चलते मैं बीती बातें भुला कर पहले जैसी होने की कोशिश करने लगी थी.

अब मैं ने ग्रेजुएशन कर ली थी. गोलू भी 12वीं पास कर गया था. अब वह आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली जाने वाला था. इसी बीच मेघना आंटी ने अपनी नौकरी भी छोड़ दी थी.

साकेत अंकल के औफिस में काम करने वाला एक लड़का पंकज हमेशा किसी न किसी काम से घर आया करता था. वह देखने में हैंडसम था. मैं भी अब 24 साल की बला की खूबसूरत लड़की हो गई थी.

अचानक एक दिन मैं अंकल और आंटी के साथ बैठी बातें कर रही थी कि आंटी ने मेरे सामने पंकज के साथ शादी करने की बात रख दी. मैं उन की बात को कैसे टालती और वह भी पंकज जैसे अच्छे लड़के के साथ.

अंकल ने पंकज को मेरी हकीकत बता दी थी. पंकज या उन के परिवार वालों ने भी कोई एतराज नहीं जताया.

आज मेरी यानी आप की कश्मीरा की शादी पंकज से हो रही थी.

मैं अभी अपने बैडरूम में आईने के सामने खड़ी हो कर अपनी जिंदगी के उतारचढ़ाव रूपी भंवर में गोते लगा रही थी कि अचानक पीछे से किसी ने छू कर मेरी तंद्रा भंग कर दी.

मैं जब खयालों की दुनिया से हकीकत में आई, तो देखा कि सामने मेरा मुंहबोला भाई गोलू और मुंहबोली मां मेघना खड़ी थीं.

दोनों की आंखों में मेरे इस घर को छोड़ कर अब नए घर में जाने की टीस आंसू के रूप में साफ झलक रही थी. मैं दोनों से लिपट कर जोरजोर से रोने लगी. जिंदगी में पहली बार आज मुझे बेपनाह सुख हो रहा था. सब को ऐसी मां मिले, भले पराई ही सही.

एक थी मां- भाग 2: कहानी एक नौकरानी की

पिताजी कभी मना करते, तो उलटे मां उन्हें ही उन की औकात याद दिलाने लगती थीं. पिताजी चाह कर भी कुछ बोल नहीं पाते थे. आखिर वे अभी तक अपने पिता के कमाए पैसों पर ही तो जीते आ रहे थे.

अब हम दोनों भाईबहन स्कूल जाने के लायक तो हो गए थे, मगर पैसे की तंगी और मांपिताजी के आपसी झगड़े के चलते हम दोनों स्कूल नहीं जा पा रहे थे.

पिताजी से जब मां का रोजरोज का झगड़ा सहा नहीं गया, तो उन्होंने घर के नजदीक वाले मंदिर के पास ही एक पूजा सामग्री और फूल माला की दुकान खोल ली थी. दुकान खोलने के लिए पिताजी ने अपने कुछ जानपहचान वालों से ही पैसे उधार लिए थे.

पिताजी अब अपने काम में ज्यादा बिजी रहने लगे थे. चोरी के डर से रात में भी वे दुकान पर ही सो जाते थे. इधर मां का रहनसहन और चालढाल बहुत तेजी से बदलता जा रहा था.

अब उन्होंने एक मोबाइल फोन भी खरीद लिया था. पिताजी ने जब मोबाइल फोन के बारे में पूछा था, तो अपने मायके से मिला हुआ बता कर पिताजी को डांट कर चुप करा दिया था.

मां अब दिनभर खुद कमरे में सोई रहती थीं और घर का सारा काम हम दोनों भाईबहन से कराने लगी थीं. स्कूल जाने की उम्र में हम दोनों भाईबहन अब हमेशा घर के कामों में उलझे रहने लगे थे. अब तो बातबात पर मां हम दोनों को पीटने भी लगती थीं.

एक रात की बात है. मैं और मेरा भाई अमर साथ ही सोए हुए थे. हम दोनों बचपन से ही साथ सोते आ रहे थे. अचानक आधी रात को मेरे भाई के पेट में दर्द होने लगा था. मुझ से जब उस का दर्द देखा नहीं गया, तो मैं मां के कमरे की ओर उन्हें बुलाने चल पड़ी थी, यह सोच कर कि शायद उन के पास कोई दवा होगी.

बहुत बार दरवाजा खटखटाने और चिल्लाने के बाद मां ने गुस्से में दरवाजा खोला था. जब मैं ने उन्हें अमर के पेटदर्द के बारे में बताया, तो वे मुझे ही गाली देने लगी थीं.

उन की एकएक बात मुझे आज भी याद है, जो मां ने अपने बेटे के लिए कही थी, ‘तुम्हारा भाई पेटदर्द से मर नहीं जाएगा. दिनभर चोरी करकर के तो खाता रहता है, फिर पेटदर्द तो उस का करेगा ही न…’

मैं चाह कर भी कुछ बोल नहीं पाई थी. कैसी मां थीं वे. मैं चुपचाप अपने नसीब को कोसती हुई कमरे की ओर जाने के लिए अभी मुड़ी ही थी कि तभी मैं ने मां के कमरे में एक अजनबी आदमी को देखा था.

मैं ठीक से चेहरा नहीं देख पाई थी. मां भांप गई थीं कि मैं ने कमरे के अंदर के आदमी को देख लिया था. वे उस समय बोली कुछ नहीं, सिर्फ तेजी से दरवाजा बंद कर लिया था.

भाई के पेटदर्द के चलते मैं बहुत परेशान थी, इसीलिए उस ओर मैं ज्यादा ध्यान नहीं दे रही थी. अमर अभी भी कमरे में जमीन पर लेटा पेट पकड़े दर्द से कराह रहा था. पिताजी तो दुकान पर ही रात में सोते थे, इसीलिए मैं उन को बुला भी नहीं सकती थी.

मैं अमर को पेट के बल लिटा कर उस की पीठ सहलाने लगी. मेरे ऐसा करने से उसे राहत मिलने लगी और कुछ ही देर के बाद उस का पेटदर्द कम हो गया था.

अगले दिन सुबह जब पिताजी घर आए, तो वे पहली बार बहुत खुश दिखाई दे रहे थे. उन्होंने दुकान के लिए लिया हुआ कर्ज चुकाने के लिए पूरा पैसा जमा कर लिया था. वे कल ही जा कर महाजन को पैसा देने की बात कर रहे थे. अब वे हम दोनों भाईबहन को भी स्कूल में दाखिल कराने के लिए बोल रहे थे.

पता नहीं क्यों उस समय मां पिताजी की बात सुन कर भी अनसुना करते हुए कहीं और खोई हुई थीं. वे थी तो पास में ही बैठीं, पर कुछ बोल नहीं रही थीं.

उसी दिन पहली बार पिताजी ने हम सभी को होटल में ले जा कर खाना खिलाया था. उस रात पिताजी हम दोनों भाईबहन के पास ही सो भी गए थे. हम तीनों ने उस रात बहुत सारे सपने देखे थे.

मगर कुदरत को तो कुछ और ही मंजूर था. सुबह जब उठे तो एक बुरी खबर को सुन कर हम सब के पैर तले की जमीन खिसक गई थी. पिताजी की दुकान में रात में आग लग गई थी. सारा सामान जल कर राख हो गया था. महाजन को देने के लिए रखा हुआ पैसा, जिसे पिताजी ने अपनी मेहनत से एकएक पाई जोड़ कर जमा किया था, वह भी आग में जल गया था. मां भी उस दिन बहुत रोई थीं, मगर शायद वह भी उन का दिखावा था.

पिताजी फिर से टूट गए थे. हम सब का देखा हुआ सपना एक ही बार में बिखर गया था.

दुकान जलने के कुछ ही दिन के बाद मां ने मुझे अपने दूर के एक रिश्तेदार के कहने पर बलिया में एक साहब के यहां घर का काम करने और उन के 4 साल के बच्चे की देखभाल के लिए भेज दिया था.

पिताजी ने मां को बहुत समझाया कि अभी कश्मीरा 10 साल की बच्ची है, भला कैसे किसी के यहां नौकरानी का काम कर पाएगी? मगर मां ने एक न सुनी. मैं यानी कश्मीरा बलिया में अपने मालिक साकेत भारद्वाज के यहां नौकरानी बन कर आ गई.

मेरा भाई मुझ से दूर नहीं होना चाहता था. वह भी मेरे साथ ही बलिया आने की जिद पर अड़ गया था, मगर मां ने उसे कमरे में बंद कर दिया था. मैं भी यह सोच कर कि मेरे कमाए पैसे से शायद पिताजी द्वारा लिया हुआ दुकान का कर्जा जमा हो जाएगा, बलिया आ गई थी.

मेरे मालिक साकेत सर और मालकिन मेघना मैडम का बलिया में खुद का घर था. साहब एक औफिस में बड़े पद पर थे. मैडम भी एक प्राइवेट कंपनी में अच्छे पद पर नौकरी करती थीं. दोनों का एक 4 साल का बेटा था गौरव भारद्वाज, जिसे प्यार से सभी ‘गोलू’ कहते थे.

पहले साहब की अपनी बहन साथ में रहती थीं. वे ही बच्चे की देखभाल भी करती थीं, मगर उन की इसी साल शादी हो गई थी और वे यहां से चली गई थीं, जिस के चलते ही इस घर में अब मुझे लाया गया था.

पहले ही दिन से साकेत सर के यहां मुझे इतना प्यार मिला कि अपने घर से भी अच्छा यह घर लगने लगा. मैं सर और मैडम के कहने पर ही उन्हें ‘अंकल’ और ‘आंटी’ कहने लगी थी. गोलू भी मुझे दीदी कहने लगा था. वह तुरंत मुझ से घुलमिल गया था. वह हमेशा मेरे पास ही रहता था.

एक थी मां- भाग 1: कहानी एक नौकरानी की

मैंअपने बैडरूम में लगे आदमकद आईने के सामने खड़ी अपनेआप को देख रही थी. मेरे चेहरे पर खुशी और गम के मिलेजुले भाव आजा रहे थे. पता नहीं क्यों आज मेरा अतीत मुझे बारबार याद आ कर परेशान कर रहा था. कमरे के बाहर से शादी में बजने वाली शहनाई की धुन की धीमी आवाज आ रही थी. एक बात बताऊं, शादी किसी और की नहीं, बल्कि मेरी ही हो रही थी.

घर में अभी मेरी ही विदाई की तैयारी चल रही थी. सभी उसी में बिजी थे. मैं भी अभी दुलहन के लिबास में ही आईने के सामने खड़ी थी.

शादी से पहले तकरीबन सभी लड़कियां अपनी ससुराल और पति के बारे में ढेर सारे सपने संजोती हैं, मगर मैं ने आज तक कभी कुछ नहीं सोचा था. अगर मैं कुछ सपने संजोती भी तो कितने…? वैसे भी मेरी जैसी बदनसीब लड़की को सपने देखने का हक कहां होता है. फिर भी मैं जितने सपने देखती, उस से सैकड़ों नहीं, लाखों नहीं, बल्कि करोड़ों गुना ज्यादा अच्छा परिवार और पति मुझे मिलने जा रहा था.

मेरे होने वाले पति किसी फिल्मी हीरो से कम दिखने में नहीं थे. अच्छी सरकारी नौकरी थी. पिता के एकलौते बेटे थे. पूरा परिवार सुखी और अमीर था.

ऐसा पति और परिवार पाने के बावजूद भी मैं आज अंदर से खुश नहीं थी, जबकि मुझे तो खुशी से पागल हो कर खूब नाचना चाहिए था, मगर मैं अभी अपनी पुरानी यादों के भंवर में ही उलझी बुझीबुझी सी खुद से ही बातें करने में लगी थी.

आप को एक बात बताऊं, सुन कर आप भी चौंक जाएंगे. मैं जिस घर में अभी दुलहन बनी आईने के सामने खड़ी थी, उस घर की मैं नौकरानी थी… नौकरानी कश्मीरा. मगर आज तक मेरे मालिक और मालकिन ने कभी मुझे घर की नौकरानी नहीं समझा था. वे दोनों हमेशा मुझे अपनी बेटी मानते थे.

मैं आई तो थी इस घर में 14 साल पहले नौकरानी बन कर ही, लेकिन आज इस घर की बेटी बन कर शादी के सुर्ख लाल जोड़े में विदा होने जा रही थी.

मगर, अब मैं जो बात आप को बताने जा रही हूं, उसे सुन कर तो आप के पैर तले की जमीन खिसक जाएगी. आप को पता है कि मेरी अपनी मां, जिस ने मुझे जन्म और यह नाम दिया था, भी अभी जिंदा थीं.

मेरी बात सुन कर आप के होश उड़ गए न? जरा सोचिए, मैं कैसेकैसे और किनकिन हालात से गुजर रही होऊंगी. मैं आज आप को अपनी पूरी कहानी सुनाती हूं, शायद आप को बताने से मेरे दिल का भी बोझ कुछ कम हो जाएगा.

बात आज से 35 साल पहले की है. उस समय मेरे पिता यानी गणेश गिरी की उम्र 10 साल की थी. परिवार में मेरे दादाजी यानी दीनानाथ गिरी और मेरे पिताजी के अलावा कोई और नहीं था. दादीजी 5 साल पहले ही मर गई थीं.

मेरा परिवार उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के एक छोटे से शहर सिकंदरपुर में रहता था. यह बलिया से तकरीबन

30-35 किलोमीटर दूर है.

मेरे दादाजी को धर्मग्रंथ और हस्त विज्ञान का अच्छा ज्ञान था. वे पूजापाठ और लोगों का हाथ देख कर उन का भविष्य बताने का काम करते थे. सभी उन की बहुत इज्जत करते थे.

मेरे दादाजी की प्रबल इच्छा थी कि उन का बेटा यानी मेरे पिताजी भी पढ़लिख कर धर्मग्रंथों के अच्छा ज्ञाता बनें और उन से भी बड़े विद्वान बनें, मगर मेरे दादाजी की सोच के एकदम सब उलटा हो रहा था.

मेरे पिताजी को संस्कृत कौन कहे, उन का तो पढ़नेलिखने में ही मन नहीं लगता था. दादाजी बहुत डांटते और समझाते, मगर कोई फायदा नहीं होता था. मेरे पिताजी दिनभर अपने दोस्तों के साथ सिर्फ मटरगश्ती करने में लगे रहते थे.

और आखिर में वही हुआ, जिस का मेरे दादाजी को डर था. मेरे पिताजी मैट्रिक में फेल हो गए थे, 1-2 बार नहीं, बल्कि 4-4 बार. दादाजी ने पिताजी को मैट्रिक का इम्तिहान दिलवाया था, मगर हर बार पिताजी फेल ही होते थे.

मेरे दादाजी ने गुस्से में आ कर यह सोच कर कि शायद शादी करने से वह संभल जाएगा, इसलिए उन्होंने मेरे पिताजी की शादी करवा दी थी.

पूरे सिकंदरपुर में मेरे दादाजी का अच्छाखासा नाम था, जिस के चलते मैट्रिक फेल होने के बावजूद मेरे पिताजी की शादी एक अच्छे परिवार में हो गई थी.

मेरी मां पुष्पा गिरी दुलहन बन कर मेरे पिताजी के घर आ गई थीं. वे बहुत खूबसूरत और पढ़ीलिखी थीं, पर दादाजी ने जिस सोच के साथ मेरे पिताजी का ब्याह कराया था, वह कामयाब नहीं हुआ. मेरे पिताजी ने पढ़ाईलिखाई तो छोड़ ही दी थी, वे अब भी कोई कामधंधा नहीं करते थे. सिर्फ दिनभर दोस्तों के साथ घूमा करते थे.

शादी के एक साल बाद ही मेरा यानी इस कश्मीरा गिरी का धरती पर आना हुआ और ठीक 2 साल बाद मेरे छोटे भाई अमर गिरी का. अब हम परिवार में 5 सदस्य हो गए थे, मगर कमाने वाले अभी भी सिर्फ मेरे दादाजी ही थे. नतीजतन, घर चलाने में अब बहुत दिक्कतें होने लगी थीं.

पहले सिर्फ दादाजी ही मेरे पिताजी को उन की फालतू हरकतों पर डांटा करते थे, मगर अब मां भी बातबात पर पिताजी को ताने देने लगी थीं.

इस बात से घर में अब आएदिन पतिपत्नी, बापबेटे में पारिवारिक झगड़े शुरू हो गए थे. दादाजी भी अब इस चिंता में बीमार रहने लगे थे.

मुझे आज भी वे दिन याद थे, क्योंकि तब तक मैं 5 साल की हो गई थी. पिताजी दादाजी से किसी बात को ले कर बहस कर रहे थे. पहली बार मेरी मां ने भी पिताजी के पक्ष में हो कर दादाजी को कुछ बोला था.

मां का साथ पा कर पिताजी का जोश और बढ़ गया. इस का नतीजा यह हुआ कि मेरे दादाजी गुस्से में अपने खुद के बनाए घर को हमेशा के लिए छोड़ कर चले गए थे. मेरे पिताजी ने मना करना तो दूर उलटे उन्हें तुरंत घर से जाने को कह दिया था.

सिकंदरपुर से कुछ ही दूरी पर एक शहर है मऊ. वहां मेरी बूआ रहती थीं, जो मेरे दादाजी को हमेशा अपने पास बुलाती थीं. दादाजी अभी तक मना करते आ रहे थे, मगर उस दिन मेरे पिताजी के रवैए से ऊब कर वे वहीं रहने के लिए चले गए थे.

मेरे दादाजी के घर छोड़ कर जाने से सब से ज्यादा खुशी शायद मेरी मां को हुई थी, क्योंकि दादाजी के जाते ही मेरी मां का बरताव और चालचलन एकदम बदल गया था. जहां पहले घर में भी वे घूंघट निकाले रहती थीं, वहीं अब सूटसलवार और जींसटीशर्ट पहनने लगी थीं.

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