भारतीय जनता पार्टी की कमजोरी हैं नरेन्द्र मोदी!

यह बात थोड़ी अजीब नहीं है कि क्या चुनाव चाहे पश्चिम बंगाल में हों, उत्तर प्रदेश में हों, गोवा में हों, उत्तराखंड में हों या कहीं और किसी विधानसभा के हों, भारतीय जनता पार्टी को नरेंद्र मोदीको ही मोरचों पर खड़ा करना होता है. चुनावी भाषण मोदी को देने खूब आते थे पर धीरेधीरे उन का नयापन खत्म हो रहा है और किराए की भीड़ भी सुनने को कोई खास बेचैन नहीं होती पर फिर भी पार्टी को उन्हीं को बुलाना पड़ता है.

जो पार्टी नेताओं से भरी हो, जिस के मैंबर गलीगली में हों, जो हर दंगे में हजारों की भीड़ जमा कर लेती हो, उसे विधानसभाओं के छोटे चुनावों में भी प्रधानमंत्री को एक बार नहीं दसियों बार बुलाना पड़े, यह तो बहुत परेशानी की बात है. प्रधानमंत्री का काम चुनाव लड़ना नहीं होता देश चलाना होता है. ऐसे समय जब देश में महंगाई का नासूर बढ़ रहा है, बेरोजगारी का कोई उपाय नहीं दिख रहा हो, टैक्स बढ़ रहे हों, हिंदूमुसलिम दंगे भड़क रहे हों, पढ़ाई बिखर रही हो, किसान रोना रो रहे हों, विदेशों में देश की इज्जत को खतरा हो, प्रधानमंत्री छोटेछोटे कसबोंशहरों में जा कर भाषण दे कर कांग्रेस या दूसरी पार्टियों को कोसने का काम करें, यह शर्म की बात है.

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गलती नरेंद्र मोदी की नहीं है. गलती तो पूरी पार्टी की है कि उस का कोई मुख्यमंत्री ऐसा नहीं है जो अपने बलबूते पर चुनाव जीत कर आ सके. ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल का चुनाव अपने बलबूते पर जीता था. तमिलनाडु का चुनाव स्टालिन ने अपने बलबूते पर जीता था. कांग्रेस सरकारों में भी पहले अशोक गहलोत ने राजस्थान का चुनाव अपने बलबूते पर जीता था और पंजाब का चुनाव कैप्टन अमरिंदर सिंह, जो अब भाजपा से मिल रहे हैं, ने अपने बलबूते पर जीता. इन के साथ दूसरी पार्टियां या कांग्रेस पार्टी थीं पर इन्हें किसी प्रधानमंत्री की तो जरूरत नहीं पड़ी.

भारतीय जनता पार्टी में ऐसी क्या कमजोरी है कि उस के पास नरेंद्र मोदी के अलावा कोई और चेहरा नहीं है जिस पर लोग भरोसा कर सकें? पहले कनार्टक में बीएस येदियुरप्पा हुआ करते थे जो अपने बलबूते पर विधानसभा का चुनाव कई बार जीत चुके हैं पर उन के अलावा भारतीय जनता पार्टी में और कोई नेता क्यों नहीं है?

भारतीय जनता पार्टी तो सब के विकास की बात करती है तो उस के पास नेताओं की खान होनी चाहिए. भारतीय जनता पार्टी हर सांस में परिवारवाद को कोसती है पर उस के पास परिवार तो क्या अकेला नरेंद्र मोदी बचा है तो क्यों? क्यों नहीं भारतीय जनता पार्टी में सम?ादार, तेज, होशियार, पढ़ेलिखे, जनता की सेवा करने वाले जमा हो रहे जो भरोसे के हों और कल को नरेंद्र मोदी की जगह ले सकें?

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वैसे हमारा पौराणिक इतिहास भी यही सा कुछ कहता है. पांडवों के बाद कुरुक्षेत्र समाप्त सा हो गया, राम के बाद उन का राज समाप्त सा हो गया. कम से कम महाभारत और रामायण अगर वे ऐतिहासिक दस्तावेज हैं तो यही कहते हैं. तो क्या भारतीय जनता पार्टी भी पौराणिक किस्सों को दोहराने की तैयारी में है? आज उस के हजारों सांसद, विधायक, पार्षद, जिलाध्यक्ष कल को प्रधानमंत्री का पद नहीं पाएंगे? अगर ऐसा हुआ तो देश को चाहे नुकसान न हो, भाजपाई भक्तों को बहुत नुकसान होगा.

अदालत तो वही देखेगी न जो दिखाया जाएगा!

उम्मीद तो नहीं थी कि 2020 की फरवरी में उत्तरी दिल्ली में कराए गए मुसलिमों के खिलाफ दंगों, आगजनी और हत्याओं पर किसी हिंदू को भी सजा मिलेगी पर पहली कोर्ट ने एक दिनेश यादव को गुनाहगार मान ही लिया है. वह एक घर जलाने का अपराधी माना गया है जिस में 73 साल की मुसलिम औरत जल कर मर गई.

पुलिस और गवाहों की मिलीभगत से कई दशकों से सत्ता में बैठी पार्टी के गुरगों के किए कुकर्मों पर सजा कम ही मिल पाती है. 1984 के दंगों में 2-4 को सजा मिली, मेरठ के हिंदूमुसलिम दंगों में नहीं मिली, 2002 के गुजरात के दंगों में नहीं मिली और उत्तरी दिल्ली के दंगों में बीसियों मुसलिम आज भी गिरफ्तार हैं. पर हिंदू दंगाई आजाद हैं और 1-2 को पहली अदालत ने सजा दी है और शायद ऊंची अदालतों तक यह भी खत्म हो जाएगी.

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हमारी क्रिमिनल कानून व्यवस्था ही ऐसी है कि गुनाहगारों को अगर सजा देनी है तो अदालत में मामला जाने से पहले दे दो, जमानत न दो. इस चक्कर में गुनाहगार और बेगुनाह दोनों फंस जाते हैं. 200-300 की हिंदुओं की भीड़ में से केवल एक को अपराधी मान कर न्याय का कचूमर निकाला गया है. इस भीड़ ने मकानों पर हमला किया, लूटा और फिर वहां दुबकेछिपे लोगों के साथ मकान को बिना डरे आग लगा दी और फैसला अभी ?ोल लिए हुए है कि वह अपराधी भीड़ का हिस्सा था और भीड़ ने लूट व हत्या की. यह फैसला ऐसा है जो अपील में बदला जाए तो बड़ी बात नहीं.

आज भी उस इलाके में डर का माहौल यह है कि भीड़ में चेहरे पहचानने वाले केवल पुलिस वाले गवाह हैं, आम आदमी नहीं. जो मरे उन के रिश्तेदार भी चुप हैं क्योंकि वे जानते हैं कि इस तरह के दंगों में किसी को सजा न देने की पुरानी परंपरा है और इक्केदुक्के मामलों में सजा पहली अदालत ने दे भी दी तो बाद में छूट जाएंगे.

हिंदूमुसलिम दंगों या हिंदूसिख दंगों में खुलेआम हत्याएं हुईं और लूट व आगजनी हुई, पर गिरफ्तार मुट्ठीभर लोग हुए और वे भी 1-1 कर के छूट गए. हां, उन में से कुछ को लंबे समय तक अदालतों के चक्कर काटने पड़े जो अपनेआप में किसी सजा से कम नहीं है. पर यह तो लाखों बेगुनाहों को करना होता है, जिन्हें जैसेतैसे पुलिस के हां करने पर जमानत मिल ही जाती है.

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धर्म किसी को सुधारता है, आदमी बनाता है, सच बोलना सिखाता है, अच्छे काम करने का रास्ता दिखाता है, गलत कामों से रोकता है, ये सब खयालीपुलाव हैं और धार्मिक दंगे इस की पोल खोलते हैं. आज नहीं हमेशा से, भारत में ही नहीं दुनियाभर में, औरत, जमीन और पैसे पर नहीं धर्म पर ज्यादा मारकाट हुई है और मारने और लूटने वालों को हमेशा अपने धर्म के दुकानदारों से धर्म की रक्षा करने की वाहवाही मिली है. हर धार्मिक नेता के पीछे कोई बड़ा अपराध या बड़ा अपराधी है. फिर भी लोगों को कहा जाता है कि धर्म के सहारे ही समाज टिका है.

उत्तरी दिल्ली के कई मामलों में फैसले आने हैं पर वे कुछ अच्छा फैसला देंगे या भरोसा पैदा करेंगे, इस का भरोसा कम है. अदालत तो वही देखेगी न जो दिखाया जाएगा.

गहरी पैठ

लोकतंत्र का मतलब होता है कि सरकार चाहे केंद्र की हो या राज्यों की या फिर पंचायतों की ही क्यों न हो, जनता की जरूरत के हिसाब से जनता की राय से कानून व नियम बनाए जाने चाहिए. नरेंद्र मोदी की सरकार जिस दिन से सत्ता में आई है उसे लगा है कि उसे तो सारी ताकत हिंदू देवीदेवताओं ने दी है जिन के बखान पुराणों में भरे हैं जो जनता तो दूर, राजाओं तक के लिए आदेश बनाते रहते थे, बिना किसी से पूछे और बिना यह सोचे कि यह कितना गलत होगा.

नरेंद्र मोदी ने रातोंरात नोटबंदी का फैसला लिया, बिना किसी से पूछ के, बिना जरूरत के. बिना सहमति के जीएसटी थोपा. बिना पूरी तरह बात किए कश्मीर में 370 अनुच्छेद में हेरफेर किया. बिना जांचेपरखे जनवरी, 2020 में कह डाला कि उन्होंने कोविड पर जीत हासिल कर ली, और, बिना राय लिए, बिना जरूरत के, किसानों की रोजीरोटी छीनने वाले 3 कृषि कानून आननफानन में पहले और्डिनैंस से और फिर संसद से पास करा लिए.

पहली बार जनता इस धौंस के खिलाफ खड़ी हुई. बुरी तरह से मार खाने के बाद भी किसान लगभग पूरे साल दिल्ली के चारों ओर बैठे रहे. उन्होंने पानी की बौछारें सहीं, गालियां सुनीं, मोदीभक्त मीडिया ने उन्हें देशद्रोही, खालिस्तानी, अमीर किसान, विदेशियों की सुनने वाला बताया पर वे टिके रहे. भाजपा के नेताओं की हिम्मत तो उन से जिरह करने की नहीं हुई, पर भाजपा भक्त टीवी चैनलों ने जम कर नेताओं से ऐसे जिरह की मानो वे अपराधी हों, गुनाहगार हों.

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किसान न केवल जमीनों, मंडियों और अनाज जमा करने वाले काले कानूनों को हटवा सके, अपने पर लादे गए हजारों मुकदमे वापस करवा सके और न्यूनतम समर्थन मूल्य का वादा सभी फसलों के लिए ले सके. किसानों की यह जीत एक दंभी और अपने को दुर्वासा ऋषि के समान समझने वाली सरकार के खिलाफ अड़ने की थी. अगर श्रीराम दुर्वासा की गलत बात को नहीं मानते तो उन्हें लक्ष्मण को नहीं खोना पड़ता, अगर एकलव्य गुरु द्रोणाचार्य की गलत बात नहीं मानता तो उसे अंगूठा नहीं कटवाना पड़ता.

आज का किसान समझदार हो गया?है. किसान ही पिछले कई सौ सालों से राजाओं को सैनिक देते रहे हैं. किसान ही आज सेना और पुलिस में भी हैं और अब किसानों में घुसपैठ कर के भारतीय जनता पार्टी मंदिरों को चलवा रही है, मुसलिमों के खिलाफ डंडे बरसाती है. अगर किसानों ने भारतीय जनता पार्टी का पूरी तरह से बौयकौट कर दिया तो न सिर्फ केंद्र व राज्यों की सत्ता हाथ से निकल जाती, मंदिरों का धंधा भी आधाअधूरा रह जाता.

किसानों को अपने मामले खुद तय कर देने दें. किसान अपनी जमीन किसे किस कीमत पर देना चाहते हैं, उस के कानून वही हों जो शहरियों की जमीनों के होते हैं. किसानों को अपने किस काम के पैसे मिलें यह वैसा ही जरूरी है जैसा सरकार अपनी खरीद टैंडर से करती है और बेचने वाले की लागत से दाम को मोटामोटा तय करती है. अखबारों के विज्ञापन भी सरकार अखबारों के खर्च के हिसाब से तय करती है. फिर किसानों से खरीद करने और सिर्फ लागत मूल्य देने में कोई हर्ज नहीं है.

हो सकता है कि सरकार पर बोझ बढ़ जाए पर यह बोझ नरेंद्र मोदी और निर्मला सीतारमन थोड़ी ही जेब से पूरा करेंगे? ये तो टैक्स से जमा करेंगे जिस का मतलब होगा कि किसानों को फसल के जो पैसे मिलेंगे यदि भारी उपज की वजह से कम हो रहे हों तो सब उस का बोझ उठाएंगे.

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किसानों की इस जीत ने शासन को एक सबक सिखाया है और जनता को रास्ता दिखाया है. सरकार की कोई गलत बात नहीं मानो और जनता का हित देख कर फैसले करो. सिर्फ इसलिए कि 15-20 साल अच्छे पद पर अफसर बन कर कुछ लोग देश का आगापीछा तय नहीं कर सकते. देशों ने हिटलरों, मुसोलिनियों, माओ जैसे हठधर्मी शासकों का कहर बहुत सहा है. अब और नहीं. किसानों को तो पूरे देश को शुक्रिया कहना चाहिए कि उन्होंने बहुत ढंग से पूरे साल आंदोलन चलाया, दंगे नहीं होने दिए, सड़कें रोकीं पर शहरों को चलने दिया. यह जीत जनता की जीत है, लोकतंत्र की जीत है और सही शासन करने की नीति समझाने की जीत है.

गहरी पैठ

उत्तर प्रदेश के 2022 के विधानसभा चुनाव न सिर्फ आम जनता को सरकार के बारे में अपना गुस्सा दिखाने का सुनहरा मौका हैं, वे भारतीय जनता पार्टी की जातिवादी, पूजापाठी, ऊंचे होने की ऐंठ और देश व राजा का पैसा धर्मकर्म में लगा कर फूंक देने की नीतियों को जवाब देने का भी समय है. हाल में जब 2017 में विधानसभा चुनावों में भाजपा लहर में बहुजन समाज पार्टी के टिकट पर जीते 6 पूर्व विधायक समाजवादी पार्टी में चले गए तो भारतीय जनता पार्टी बेचैन हो गई.

भारतीय जनता पार्टी ने एक ऊंचे ब्राह्मण नेता लक्ष्मीकांत बाजपेयी की अगुआई में 4 जनों की कमेटी बनाई है जो दूसरी पार्टियों से तोड़जोड़ कर नेताओं को लाए ताकि वोटरों को लगे कि भाजपा की ही लहर चल रही है. हिमाचल प्रदेश और राजस्थान के उपचुनावों के नतीजों से घबराई भाजपा सरकार और पार्टी को जवाब देने का यह एक अच्छा समय बन रहा है.

जिस आननफानन में केंद्र सरकार व भाजपा सरकारों ने पैट्रोलडीजल के टैक्स कम किए हैं, उस से उन का डर साफ है. यह समय है जब ऊंचों के सताए गरीब, बेरोजगार, परेशान पिछड़े और दलित भारतीय जनता पार्टी से पिछले 7 सालों का हिसाब ले सकें.

पिछले 7 सालों में भारतीय जनता पार्टी ने देशभर में पांव पसारे हैं पर आम जनता को कुछ दिया हो, यह कहीं से दिख नहीं रहा है. देश में राम राज के नाम पर पुलिस राज के दर्शन ही होते हैं. जो कहीं देशभक्ति के नाम पर, कहीं हिंदूमुसलिम के नाम पर, कहीं गौहत्या के नाम पर, तो कहीं ड्रग्स के नाम पर घरों और दफ्तरों से आम जनों को उठा ले जाने में तो तेज हो गई है, पर न हर रोज बढ़ रहे जुल्म, बलात्कार, बीमारियों, भूखों के लिए कुछ कर रही है.

कहने को तो जोरशोर से स्वच्छ भारत का नाम ले कर हल्ला मचाया गया पर हुआ यही कि छोटे घरों को भी जगह दे कर शौचालय बनाने पर मजबूर किया गया. पर सरकार ने अपने सीवर बिछाने और लगातार मिलने वाले पानी के बारे में कुछ नहीं किया. सरकार ने सस्ते में गैस सिलैंडर घरघर पहुंचाने का दावा किया पर एक बार भरा सिलैंडर खाली हो जाने के बाद उस को कैसे भरा जाए उस का इंतजाम नहीं किया.

जो सरकार राम मंदिर और संसद परिसर के लंबेचौड़े प्लान बना सकती है, जो फर्राटेदार गाडि़यों को दौड़ाने की सड़कों के प्लान बना सकती है, वह गलियों में सीवरों का इंतजाम करने और घरघर नल का पानी दिलाने का इंतजाम क्यों नहीं कर सकती? इसलिए कि सरकार को पिछड़ों और दलितों की फिक्र नहीं है और उत्तर प्रदेश के चुनाव अच्छा मौका हैं जब सरकार को बताया जा सके कि देश की जरूरत अयोध्या में मंदिर या सरयू किनारे दीए नहीं हैं, गरीबों को काम, पेटभर खाना, सस्ता पैट्रोलडीजल, सस्ती खाद, सही पढ़ाई और सही इलाज है. सरकार का इन जीने की जरूरतों के बारे में न कोई प्लान दिखता है, न योजनाएं. केंद्र सरकार तो अपना ढोल बजाती नजर आती है.

गहरी पैठ

सरकारी और भारतीय भाषाओं के स्कूलों के साथ देश में बड़ा भेदभाव किया जा रहा है. वहां टीचर तो नियुक्त होते हैं ऊंची जातियों के, पर पढ़ने वाले 90 फीसदी छात्रछात्राएं पिछड़ी व निचली जातियों की होती हैं और उन में तालमेल नहीं बैठता. संविधान व कानून चाहे कहता रहे कि देश का हर नागरिक बराबर है, पर सच यही है कि देश में जाति की जड़ें बहुत गहरी हैं और हर शहर ही नहीं, बल्कि महल्ले और एक ही बिल्डिंग में साथसाथ रहने वाले परिवारों के बीच भी न दिखने वाली लाइनें खिंची रहती हैं.

महाराष्ट्र में गोखले इंस्टीट्यूट औफ पौलिटिक्स ऐंड इकोनौमिक्स ने अपने सर्वे और 2004 की जनगणना के आधार पर पाया कि मराठा, कुरबी व अन्य पिछड़ी व निचली जातियों के लोगों की गिनती 84.3 फीसदी के लगभग है और इन का स्तर बाकी ऊंचों से कहीं कम है. गायकवाड़ आयोग ने अपनी लंबी रिपोर्ट में अपने सर्वे से यह सिद्ध किया कि 1872 और 2021 के बीच राज्य में कोई लंबाचौड़ा फर्क नहीं आया है और आज भी लोग अपनी जाति से चिपके हुए हैं.

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जाति का यह बिल्ला न सिर्फ नौकरियों में आड़े आता है, आम लेनदेन, दोस्ती, प्रेम, विवाह में आड़े आता है. जब से हर जाति को अपने देवीदेवता पूजने को दे दिए गए हैं, तब से यह फर्क और ज्यादा पड़ने लगा है. अब हर जाति के इतने लोग हो गए हैं कि वे खोदखोद कर अपने देवीदेवता की कहानियां सुननेसुनाने लगे हैं और समाज में खिंची न दिखने वाली लाइनें हर रोज और ज्यादा गहरी होती जा रही हैं. चूंकि हर जाति के लोगों की गिनती अपनेआप में कहीं ज्यादा है. आपसी लेनदेन, समूह के रहने में, शहरी सुविधाएं जुटाने में दिक्कत नहीं होती और अपनी ही जाति के इतने लोग इकट्ठे किसी भी काम के लिए हो जाते हैं कि दूसरों की जरूरत नहीं होती.

विवाह और प्रेम जातियों में ही हो, यह हर मातापिता की पहली जिम्मेदारी होती है और हर जाति के पंडेपुजारी इस बात को पूरी तैयारी से मातापिता ही नहीं युवाओं पर थोपने को भी खड़े रहते हैं. इस में घर से निकाले जाने से ले कर पुलिस में अपहरण और बलात्कार तक के मामले दर्ज कराना आम है.

संविधान, कानून, नेता, समाजसुधारक, एक सी स्कूली किताबें कुछ भी कहती रहें, जाति का भेद बना रहना राजनीतिक दलों के लिए बड़े काम का है. आमतौर पर सत्ता में बैठे नेता को शासन के बारे में कम सोचना पड़ता है क्योंकि वोट लेते समय जाति के हिसाब से वोट मिलते हैं, काम के हिसाब से नहीं. राजनीतिक दल इन में न दिखने वाली लाइनों को हर रोज और गहरी और चौड़ी करते रहते हैं और वहां भी खींचते रहते हैं जहां पहले नहीं थीं.

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युवाओं को सही दोस्त और सही जीवनसाथी को चुनने में कठिनाई इसलिए ज्यादा होती है कि न सिर्फ एकजैसी आदतों वाला साथी चाहिए, एक जाति का भी चाहिए. बचपन से इस भेदभाव को इतना ज्यादा मन में बैठा दिया जाता है कि युवा अपनी कमजोरियों को भी जातिवाद के परदे में छिपा देने के आदी हो जाते हैं.

देश का हर गांव, शहर ही नहीं हर महल्ला आज भी जाति के कहर से पीडि़त है और यह कम नहीं हो रहा जो ज्यादा चिंता की बात है.

गुलाम बनते जा रहे युवा

नई टैक्नोलौजी युवाओं पर भारी पड़ेगी. जो युवा गुणगान करते रहते हैं कि आज उन की मुट्ठी में दुनियाभर की नौलज है, वे यह भूल रहे है कि यह नौलज एकतरफा व प्लांटेड है. यह उन के विवेक व उन की सोच को बरबाद करने वाली है. मोबाइल या कंप्यूटर स्क्रीम पर बंद जानकारी, गपें मारने के प्लेटफौर्म, नाचगाना दिखाने वाली ऐप, बहुत ही उलझे हुए कंप्यूटर असल में एक तरह से साजिश हैं जो आज के युवा का मन चाहे बहलाएं लेकिन इस चक्कर में उन्हें मानसिक व शारीरिक गुलाम भी बना रहे हैं.

पहली नजर में यह गलत लगता है पर जरा सी परतें उधेड़ें, तो साफ पता चल जाएगा. आज मोबाइल की जंजीर में बंधे युवा का ध्यान म्यूजिक ऐप, डांस ऐप या कंप्यूटर गेम पर होता है, सो उसे, दूसरों की जरूरतें तो छोडि़ए, किसी को देखने तक की फुरसत तक नहीं होती. मांबाप, भाईबहन, दोस्त क्या कर रहे हैं, क्या कह रहे हैं, कैसे भाव उन के चेहरों पर हैं, उन्हें मालूम ही नहीं रहता. वे तो सिर्फ स्क्रीन पर आंख और दिमाग गड़ाए रहते हैं.

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इन ऐप्स और गेम्स को जम कर पैसा मिल रहा है. कुछ एड्स से तो कुछ ऐप को खरीदने से. बिटकौइनों ने खरीदारी आसान कर दी है पर खरीद करने पर हाथ में क्या रहता है? जीरो. इन युवाओं को बिना कुछ बदले में पाए पैसे खर्चने की आदत इतनी बढ़ गई है कि उन को काम करने की आदत नहीं रह गई है. उन्हें अपने में मगन रहने और मोबाइल में डूबे रहने की इतनी लत हो गई है कि वे बाहर जो हो रहा है, उस के अच्छेबुरे पर सोच भी नहीं सकते.

आज का युवा अगर जरा सी हवा में उड़ रहा है, जरा सी लहर में बह रहा है तो इसलिए कि उस के पैर जमीन पर हैं ही नहीं. उस के पास किसी लक्ष्य तक पहुंचने की इच्छा ही नहीं है. वह तो अपने डांस के लाइक्स, अपने नेता के विरोधियों को दी गई गालियों वाले मैसेजों को फौरवर्ड करने में लगा है. वह न तो कुछ नया सोच रहा है, न कुछ नया कर रहा है.

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हां, टैक्नोलौजी बहुत उन्नति कर रही है. नईनई चीजें बन रही है. नए ऊंचे भवन बन रहे हैं. आसमान और सितारों को छुआ जा रहा है पर यह सब काम जनता का छोटा सा वर्ग कर रहा है जिस के हाथ में सारी डोरे हैं. वे पूरी मेहनत कर रहे हैं. मोटी किताबें पढ़ रहे है, मोटी किताबें लिख रहे हैं, लैब्स में खोज कर रहे हैं, कंस्ट्रक्शन साइटों पर घंटों और कईकई दिनों जमे रहते हैं पर उन की गिनती कम होती जा रही है. वे कम हैं, इसलिए उन को मिलने वाले पैसे बढ़ रहे हैं. पहले सब से कम और सब से ज्यादा वेतन पाने वालों का अंतर 20-30 गुना होना था, अब हजारों गुना हो रहा है. अडानी, अंबानी हर घंटे में सैंकड़ों करोड़ कमा रहे हैं. लैब्स में काम कर रहे साइंटिस्ट महंगे और महंगे होते जा रहे है. एमबीए, एमबीबीएस, लौ, इंजीनियरिंग कोर्सों में जगह नहीं मिल रही. थोड़े से भी कमजोरों की किसी को जरूरत नहीं. वे तो अब एमेजौन के डिलीवरी बौय बन रहे हैं, मैक्डोनल्ड में कैरियर या स्टोर में सैल्समैन. उन के पास है, तो मोबाइल, जो असल में जंजीर है, मोटी, दिमाग को बांधने वाली.

आखिर किसानों से सरकार को क्यों चिढ़ है?

सुप्रीम कोर्ट ने यह तो कह दिया कि किसान सड़कों को रोक कर अपना आंदोलन नहीं कर सकते पर उन्हें यह नहीं बताया कि सारे देश में आखिर जिसे भी सरकार से नाराजगी हो वह जाए कहां? सारे देश में पुलिस और प्रशासन ने इस तरह से मैदानों, चौराहों, खाली सड़कों की नाकाबंदी कर रखी है कि कहीं भी सरकारी कुरसी की जगह धरनेप्रदर्शन की जगह बची नहीं है.

सारी दुनिया में सड़कों पर ही आंदोलन होते रहे हैं. हमेशा सत्ता का बदलाव सड़कों से हुआ है. जिन सड़कों के बारे में सत्ता के पाखंडियों का प्यार आजकल उमड़ रहा है वे ही इन पर कांवड़ यात्रा, महायात्रा, रथयात्रा, रात्रि जागरण, कथा कराते रहे हैं. सड़कों पर बने मंदिर सारे देश में आफत हैं जो हर रोज फैलते हैं, खिसकते नहीं हैं. सरकार और सुप्रीम कोर्ट को ये नहीं दिख रहे, किसान दिख रहे हैं.

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किसानों से सरकार को चिढ़ यह?है कि आज का किसान हमारे पुराणों के हिसाब से शूद्र है और वह किसी भी हक को नहीं रख सकता. उस का काम तो पैरों के पास बैठ कर सेवा करना है या उस गुरु के कहने पर अंगूठा काट देना है जिस ने शिक्षा भी नहीं दी. वह शूद्र आज पांडित्य के भरोसे बनी सरकार को आंखें दिखाए यह किसी को मंजूर नहीं. न सरकार को, न मीडिया को, न सुप्रीम कोर्ट को, क्योंकि इन सब में तो ऊंची जातियों के लोग बैठे हैं जिन की आत्मा ने पिछले जन्मों में ऋषिमुनियों की सेवा कर के आज ऊंची जातियों में जन्म लिया है.

सरकार और सुप्रीम कोर्ट तो कहती हैं कि हर जने (जिस का अर्थ हर काम करने वाले को) को काम करते रहना चाहिए, फल की चिंता नहीं करनी चाहिए. अब कर्म होगा तो फल किसी के हाथ तो लगेगा. पूरी गीता छान मारो कहीं नहीं मिलेगा कि कर्म का फल जाएगा किसे और क्यों. कर्म का फल तो कर्म करने वाले को मिलना चाहिए. अनाज का दाम किसान को मिलना चाहिए, साहूकार को नहीं. गीता के पाठ को नए कृषि कानूनों में पिरोने की चाल को समझ कर किसान अगर आंदोलन कर रहे हैं तो गलत नहीं है.

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प्रोटैस्ट का हक ही लोकतंत्र की जान है पर प्रोटैस्ट की सोचने वालों को गिरफ्तार कर लेना, प्लानिंग करने वाले पर मुकदमा चला देना, उसे मैदान, सड़क न देना आज सरकार का हथियार बन गया है जिसे किसान तोड़ने में लगे हैं. सुप्रीम कोर्ट बिलकुल सही है जब कहती है कि प्रोटैस्ट का हक है पर बिलकुल गलत है जब कहती है कि सड़कों पर प्रोटैस्ट नहीं हो सकता. प्रोटैस्ट तो वहीं होगा जहां से सरकार को दिखे, जहां सरकार की कुरसी हो. किसान वीरान रण के कच्छ में जा कर तो अपना धरनाप्रदर्शन नहीं कर सकते जहां मीलों तक न पेड़ हैं, न मकान, न सरकारी नेता, न सरकार की कुरसी.

गहरी पैठ

जम्मूकश्मीर और बंगलादेश के निहत्थे निर्दोष हिंदू अपने ही देश के नागरिकों द्वारा मारे जा रहे हैं और महान हिंदू राष्ट्र बनाने का वादा करने वाले असहाय ताक रहे हैं. जम्मूकश्मीर में अचानक हिंदू बिहारी मजदूरों पर आक्रमण शुरू हो गए और लगभग उसी समय बंगलादेश में बंगलादेशी नागरिक हिंदुओं पर भी आक्रमण होने लगे. कुछ गोलियां से मारे गए, कुछ हिंसा में, कुछ के घर जले. धर्म के नाम पर एक गुट दूसरे के खून का प्यासा होने लगा, जबकि दोनों ही जगह न हिंदू, न मुसलमान इतनी फुरसत में हैं कि वे किसी तरह का दंगा सह सकें.

आर्थिक संकटों से जूझ रहे बंगलादेश और जम्मूकश्मीर दोनों में समय व शक्ति काम में लगनी चाहिए, पर लग रही है फालतू के दंगों में. जिन से तथाकथित कल्याण करने वाला धर्म बचाया जा सके. बंगलादेश ने हाल में उल्लेखनीय आर्थिक प्रगति की है और इस में वहां के हिंदुओं और मुसलमानों दोनों का बराबर का हाथ है और कोई खास वजह नहीं कि वे एकदूसरे के खून के प्यासे हों.

जम्मूकश्मीर में जो भी नाराजगी कश्मीरी मुसलमानों को है वह दिल्ली सरकार से है और बिहार से गए हिंदू मजदूर उस के लिए कहीं से जिम्मेदार नहीं हैं. ये लोग कश्मीर इसलिए आते हैं, क्योंकि यहां इस तरह का काम करने वाले नहीं मिलते. ये कमा रहे हैं पर साथ ही उन कश्मीरियों की सेवा भी कर रहे हैं जो काम नहीं करना चाहते, वरना क्यों गरम इलाकों में रहने वाले कश्मीर की ठंड में सर्दियों में अपने को ठिठुराएंगे?

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धर्म को असल में लोगों के सुख से कुछ लेनादेना नहीं होता. जन्म से ही धर्म में कैद लोगों को चाहे जैसे मरजी हांका जा सकता है. धर्म ने सदियों से यह फार्मूला अपनाया है. झोंपड़ी में रह कर, भूखेनंगे लोगों के पिरामिड बनाए, रोम के चर्च बनाए, मसजिदें बनाईं, मकबरे बनाए, अंकोरवाट जैसे मंदिर बनाए, एलोरा और अजंता में पत्थर काट कर महल बनाए, अपने सुख के लिए नहीं उस धर्म के लिए जिस का न ओर पता है, न छोर और जो देता सपने और वादे है और लेता पैसा, औरतें और जान है.

जो हिंदू कश्मीर और बंगलादेश में मारे जा रहे हैं और जो मुसलमान मर रहे हैं उन की आपस में कोई दुश्मनी नहीं है, किसी ने एकदूसरे से कुछ लियादिया नहीं. धर्म ने कहा मार दो तो मार डाला. हमारे देश में भी यही काम हिंदू बजरंगी, सेवादल कर रहे हैं. सड़कों पर चल रहे निहत्थे मुसलमानों को मारापीटा जा रहा है, बिना किसी कारण के. न कश्मीर में, न बंगलादेश में और न भारत में दूसरे धर्म को लूटने की नीयत से भी नहीं मारा जा रहा. सिर्फ इसलिए पीट दो, मार दो कि  उस का हुक्म उन के धर्म ने दिया है.

अफगानिस्तान में अमेरिका के भाग जाने से मुसलिम जगत की हिम्मत भी बढ़ गई तो बड़ी बात नहीं. तालिबानी अपने मनसूबे पहले ही जता चुके हैं. अफीम के व्यापार के कारण उन के पैर हर जगह फैले हैं. वे अब यूरोप में भी कहर मचाने लगे हैं, अमेरिका में न जाने फिर कभी न्यूयौर्क के ट्विन टौवर जैसा 9/11 हादसा हो जाए.

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इस सब से क्या हिंदू या ईसाई अपना धर्म छोड़ कर मुसलमान बन जाएं तो बात होती. हर धर्म की अपने मूर्ख भक्तों पर इतनी पकड़ है कि वह जानता है कि लोग जान दे देंगे पर धर्म नहीं बदलेंगे. वैसे भी जब भी 10-20 लोग एक धर्म छोड़ कर हावी हो रहे धर्म को अपनाते हैं तो उन के पुराने धर्म वाले ही उन के दुश्मन हो जाते हैं और उन्हें मारने के स्पष्ट आदेश हर धर्म में हैं. एक तरह से हर धर्म का भक्त अपने धर्म का गुलाम है और ये हत्याएं भक्ति का प्रसाद हैं.

इन से न तो इसलाम को लाभ होगा और न हिंदू धर्म को कोई नुकसान होगा. पिसेंगे तो दोनों धर्मों के लोग. दुकानों की हलवापूरी चालू रहेगी. औरतें भी मिलती रहेंगी.

गहरी पैठ

करनाल और लखीमपुर खीरी में जिस बेरहमी से किसानों को मारा गया है, इस देश के लिए कोई नया नहीं है. इस समय सरकार यह समझ नहीं पा रही कि जो किसान और मजदूर नोटबंदी के समय पूंछ दबाए लाइनों में घंटों खड़े रहे आखिर कैसे हाकिमों के सामने खड़े हो कर आंख से आंख मिला कर बात कर रहे हैं. सरकार को तो आदत है कि राजा का आदेश आकाशवाणी की तरह हो कि वह भगवान का कहा है और उसे मानना हरेक को होगा ही.

कांग्रेस सरकारों ने 60-70 सालों में मंडियों का जो जाल बिछाया था वह कोई किसानों के फायदे में नहीं था पर किसानों ने हार मान कर उस में जीना सीख लिया था क्योंकि मंडी का आढ़ती और लाला उन्हीं के आसपास के गांव का तो था जिस से रोज मेलमुलाकात होती थी.

अब सरकार दूर मुंबई, अहमदाबाद में बैठे सेठों को खेती की बागडोर दे रही है जैसे अंगरेजों ने ईस्ट इंडिया कंपनी को दी थी. ईस्ट इंडिया कंपनी को तो सिर्फ लगान की फिक्र थी, आज सरकार चाहती है कि किसान वह उगाए जो सेठ चाहें, उसे बेचें, जिसे सेठों की कंपनियां चाहें, उतने पैसे पा कर जयजयकार बोलें जितने मिल जाएं.

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सरकार को समझ नहीं आ रहा कि ऐसा क्या हो गया कि हमेशा से अपनी जाति की वजह से डरा रहने वाला किसान आज आंखें तरेर कर पूछ रहा है कि इस फरमान की क्या जरूरत है, क्यों उस की पीठ पर सेठों की कंपनियां लादी जा रही हैं, क्यों मंडियों के बिछे जालों को तोड़ा जा रहा है. सरकार का इरादा तो नेक था. वह चाहती है कि 1947 के बाद के भूमि सुधार कानूनों के बाद जो जमीनें शूद्र कहे जाने वाले किसानों को मिल गई थीं. एक बार फिर उन जमींदारों के हाथों में पहुंच जाएं जिन के नाम कंपनियों सरीखे हैं और जहां से वे किसानों का आज और कल दोनों तय कर सकें.

इंदिरा गांधी ने जब निजी कंपनियों का सरकारीकरण करा था तो उन्होंने प्राइवेट सेठों का हक छीन कर सरकारी अफसरों को दे दिया था. जनता के पल्ले तो तब भी कुछ नहीं पड़ा था. मंडी कानून भी अफसरशाही को किसानों पर बैठाने के लिए थे पर कम से कम वे मंडियां अफसरों की निजी जागीरें तो नहीं बनती थीं. उन के बच्चे बैठेबिठाए तो नहीं खा सकते थे. अब सेठों के बच्चों के अकाउंट विदेशों में खुलेंगे, पैसा वहां जमा होगा जहां टैक्स नहीं देना होता, वे हर साल 6 महीने विदेशों के मजे लेंगे और मेहनती किसान बिना अपनी जमीन के रातदिन जोत में लगेगा. किसान इस की खिलाफत कर रहे हैं तो किसानों के घरों से ही अब पुलिस बलों के सिपाहियों के हाथों उन्हें पिटवाया जा रहा है. न वह खट्टर और न वह आयुष सिन्हा जो किसानों के सिर फोड़ने की वकालत करते हुए कैमरों में पकड़े गए किसानों के घर से आए हैं.

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अगर देश के नेता किसान होते जैसे देवगौड़ा, लालू प्रसाद यादव, चरण सिंह, देवीलाल या मुलायम सिंह तो किसान कानून न बनते न आफत आती. कांग्रेस ने तो जातेजाते किसानों की जमीन को छीनने को रोकने का कानून बना दिया था और नई सरकार 7 सालों में चाह कर भी उसे अपने आकाओं के हिसाब से बदल नहीं सकी तो उस ने कृषि कानूनों का सहारा लिया है कि किसान इतने फटेहाल हो जाएं कि जमीन बेच कर कुएं में कूद जाएं. नहीं तो पुलिस के डंडे और गाडि़यां तो हैं न कुचलने के लिए.

सरकारी नौकरी किसान की जान से ज्यादा कीमती है?

मोदी सरकार का एक छिपा काम किसी तरह देश में फिर से पूरी तरह पौराणिक ऊंचनीच वाले समाज को बनाना है जिस में पैदा होते ही तय हो जाए कि कौन क्या बनेगा. रामायण और महाभारत में  2 राजसी घरों का ?ागड़ा ही सब से बड़ी बात है और पैदा होने के हक को देने या न देने पर इन पूजे जाने वाले भारीभरकम किताबों से निकलने वालों को पूजा भी जाता है और उन्हीं की तर्ज पर पैदा होने को ही जिंदगी की जड़ माना जाता है.

हमारे संविधान ने चाहे सभी अमीरों और गरीबों के बच्चों को बराबर का माना हो पर असलियत यही है कि रोजाना ऊंचे घरों में पैदा हुए लोगों की ही गारंटी है. अंबेडकर और मंडल की वजह से शैड्यूल कास्टों और बैकवर्डों को जगह मिलने लगी पर यह बात समाज के कर्ताधर्ताओं को पसंद नहीं आई और उन्होंने रामायण और महाभारत के पन्नों से कुछ पात्रों को निकाल कर जनता को ऐसा बहकाया है कि आज सादे घर में पैदा हुआ सिर्फ मजदूर बन कर रह गया है. उसे ज्यादा से ज्यादा कुछ मिल सकता है तो वह ऊंचे घरों में पैदा हुए लोगों के घरों और धंधों में छोटे कामकरना या उन की सुरक्षा करने का. पुलिस और सेना में खूब भरतियां हुई हैं पर अफसरी गिनेचुनों को मिली है. आम घरों के पैदा हुए तो सलूट ही मारते हैं चाहे उन्हें चुप करने के लिए अफसरी का बिल्ला लगाने को दे दिया गया हो.

देश में बढ़ती बेरोजगारी एक पूरी साजिश है. सरकारी नौकरियों में रिजर्वेशन हो गया है इसलिए सरकार ने सरकारी कारखाने धड़ाधड़ बेचने शुरू कर दिए ताकि सादे घरों में पैदा हुए लोगों को ऊंची सरकारी नौकरियां देनी ही न पड़ें. पुलिस और सेना के अलावा कहीं और थोक में भरतियां हो ही नहीं रहीं. आधुनिक टैक्नोलौजी ने निजी कंपनियों को वह रास्ता दिखा दिया जिस में सादे घरों के लोगों का काम मशीनें कर सकती हैं और उन मशीनों को ऊंचे घरों में पैदा हुए एयरकंडीशंड कमरों में बंद दफ्तरों से चला सकते हैं.

आज हालात ये हो गए हैं कि किसानों की मौतों का मुआवजा एक अदद सरकारी नौकरी रह गई है. करनाल और लखीमपुर खीरी में राकेश टिकैत जैसे जु?ारू नेता ने भी एकएक सरकारी नौकरी का वादा पा कर मौतों का सम?ौता कर लिया. बेकारी इतनी बढ़ा दी गई है कि एक सरकारी नौकरी किसान की जान से ज्यादा कीमती हो गई है.

नौकरियों को खत्म करने में नोटबंदी, जीएसटी, कृषि कानूनों, नागरिक कानूनों को जबरन साजिश के तौर पर लाया गया है. सरकार को पहले से पता था कि इन का क्या नुकसान होगा. इन से छोटे घरों से पनपते छोटेछोटे व्यापारी मारे जाएंगे यह एहसास सरकार को था और छोटे धंधे और छोटे व्यापार जो छोटे घरों के मेहनती युवा करने लगे थे, भारीभरकम टैक्सों, नियमों, नोटों की किल्लतों, बैंक अकाउंट रखने की जरूरत जिसे खोलना आसान नहीं है, एक पूरी साजिश की तरह थोपा गया है, ताकि देश की 80 फीसदी जनता गुलाम बन कर रह जाए. उन्हें बहलाने के लिए रामायण और महाभारत, जिसे पहले टीवी पर चला कर घरघर पहुंचा दिया गया था, से लिए पात्रों को दे दिया गया कि इन्हें बचाओ चाहे खुद मर जाओ.

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आज देश बुरी तरह कराह रहा है पर हर गरीब इसे अपने पिछले जन्मों का फल मानता है क्योंकि गीता में यही कृष्ण कह गए हैं. हर गरीब शंबूक, केवट या शबरी की तरह है, इस से ज्यादा नहीं. बेरोजगार हैं तो क्या हुआ, देश के धर्म का डंका तो बज रहा है न.

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