इंगलिश की एक मशहूर कहावत है, ‘हैल्थ इज वैल्थ’. मतलब, सेहत ही कामयाबी की कुंजी है. पर अगर हम गरीब, तंगहाल लोगों की जांचपड़ताल कर के देखेंगे तो पाएंगे कि शायद वे अपनी जरूरी चीजों का इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं.
सब से पहले गरीब समुदाय के लोग अपने पेट की पूजा करते हैं, फिर रहने का जुगाड़ देखते हैं और इस सब में सेहत का तो दूरदूर तक कोई नाम ही नहीं होता है.
गरीबों को जितने पैसे मिलते हैं, वे खाने और रहने में ही खर्च हो जाते हैं. सब से ज्यादा औरतें इन हालात की शिकार बनती हैं, जबकि औरतों को मर्दों से ज्यादा डाक्टरी मदद की जरूरत पड़ती है, चाहे वह जंचगी हो या बच्चे को दूध पिलाना या फिर माहवारी का मुश्किल समय.
माहवारी के दौरान कम आमदनी वाले या गरीब परिवार की औरतें ज्यादा संघर्ष करती हैं. औरतें ऐसे समय में होने वाले दर्द के लिए दवाएं, यहां तक कि अंदरूनी छोटे कपड़ों की कमी के चलते एक जोखिमभरी जिंदगी जीती हैं.
गरीबी इनसान को अंदर तक तोड़ देती है. न जाने कितनी ही औरतें घातक बीमारियों की शिकार बनती हैं और उन की जिंदगी तक खत्म हो जाती है, जो बहुत तकलीफदेह है. कई बार ज्यादा खून बहने से औरतों को कई समस्याएं पैदा हो जाती हैं. पैसों की कमी के चलते उन्हें पूरी तरह से डाक्टरी इलाज तक नहीं मिल पाता है.
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गरीबी में माहवारी एक बड़ी समस्या है. इस बारे में मैं ने 20 औरतों से सवाल पूछने की तैयारी की, लेकिन महज 2 औरतों ने सवाल पूछने की इजाजत दी. मैं ने उन से कहा कि मैं अपनी महिला साथी को भी लाया हूं, आप अगर उन के साथ बात करने में सहमत हैं तो वे आप से बात कर सकती हैं, मगर उन्होंने साफ मना कर दिया.
जयपुर की घाटगेट कच्ची बस्ती में रहने वाली बबीता बताती हैं, ‘‘मैं महीने के दिनों में काफी ज्यादा दर्द महसूस करती हूं और साथ ही साथ पति और सासससुर की झाड़ भी झेलती हूं. इस से अच्छा तो मैं पेट से होने में महसूस करती हूं, जब मेरा महीना नहीं आता है.
‘‘मैं महीने के आने से इतना डर गई हूं कि मु झे अगर पूरे साल महीना न आए और मैं पेट से रहूं तो मु झे कोई परेशानी नहीं.’’
जब रबीना नाम की एक औरत से पूछा गया कि वे माहवारी के दौरान किस तरह अपनी देखभाल करती हैं? तो उन्होंने बताया, ‘‘मेरे पास अंदर पहनने के लिए बस एक ही लंगोटी है. मेरे घर में पैसों की कमी की वजह से खाना तो पेटभर मिल नहीं पाता है, ऐसे में हम अंदर पहनने वाले कपड़े कहां से लेंगे.
‘‘पैड तो दूर की बात है, उसे बिलकुल छोडि़ए सर. खाने को 2 रोटी मिल जाएं, वही बहुत हैं. मैं डरती हूं कि मेरी लड़की की उम्र अभी 9 साल है. जब उस की माहवारी शुरू होगी, तो मैं उसे कैसे संभालूंगी?
‘‘मेरे पेशाब की जगह पर बड़ेबड़े फोड़े हो जाते हैं, जिन में से गंदी बदबू आती है. मेरा शौहर तो मेरे पास आना दूर मेरे हाथ का बना खाना नहीं खाता. मैं एक ही कपड़ों में 5-7 दिन गुजारती हूं. माहवारी के दिनों में मैं ढंग से खाना भी नहीं खा सकती. मु झे चक्कर आते हैं.’’
‘‘हमें तो ओढ़नेबिछाने को कपड़े मिल जाएं वही बहुत है. ‘उन दिनों’ के लिए कपड़ा कहां से जुटाएं…’’ यह कहते हुए जयपुर के गलता गेट के पास सड़क पर बैठी सीमा की आंखों में लाचारी साफ देखी जा सकती है.
सीमा आगे कहती हैं, ‘‘हम माहवारी को बंद नहीं करा सकते, कुदरत पर हमारा कोई बस नहीं है. जैसेतैसे कर के इसे संभालना ही होता है. इस समय हम फटेपुराने कपड़ों, अखबार या कागज से काम चलाते हैं.’’
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सीमा के साथ 3 और औरतें बैठी थीं, जो मिट्टी के छोटे से चूल्हे पर आग जला कर चाय बनाने की कोशिश कर रही थीं. जब उन के बच्चे आसपास से सूखी टहनियां और पौलीथिन ला कर चूल्हे में डालते थे, तो आग की लौ थोड़ी तेज हो जाती थी.
वैसे, थोड़ी बातचीत के बाद ये औरतें सहज हो कर बात करने लगी थीं. वहीं बैठी रीना ने मुड़ कर अगलबगल देखा कि कहीं कोई हमारी बात सुन तो नहीं रहा, फिर धीमी आवाज में बोलीं, ‘‘मेरी बेटी तो जिद करती है कि वो पैड ही इस्तेमाल करेगी, कपड़ा नहीं. पर जहां दो टाइम का खाना मुश्किल से मिलता है और सड़क किनारे रात बितानी हो, वहां हर महीने सैनेटरी नैपकिन खरीदना हमारे बस का नहीं.’’
थोड़ी दूर दरी बिछा कर लेटी पिंकी से बात करने पर उन्होंने कहा, ‘‘मैं तो हमेशा कपड़ा ही इस्तेमाल करती हूं. दिक्कत तो बहुत होती है, लेकिन क्या करें… ऐसे ही चल रहा है. चमड़ी छिल जाती है और दाने हो जाते हैं. तकलीफें बहुत हैं और पैसों का अतापता नहीं.’’
ऐसी बेघर, गरीब और दिहाड़ी पर काम करने वाली औरतों के लिए माहवारी का समय कितना मुश्किल होता होगा? इस सवाल पर बात करते हुए जयपुर के महिला चिकित्सालय में तैनात गायनी कृष्णा कुंडरवाल बताती हैं, ‘‘मैं जानती हूं कि गरीब औरतों के पास माहवारी के दौरान राख, अखबार की कतरनें और रेत का इस्तेमाल करने के सिवा और कोई दूसरा रास्ता नहीं है. पर यह सेहत के लिए कितना खतरनाक है, बताने की जरूरत नहीं है.’’
वहीं दूसरी ओर नैशनल फैमिली हैल्थ सर्वे (2019-20) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, गांवदेहात के इलाकों में 48.5 फीसदी औरतें और लड़कियां सैनेटरी नैपकिन का इस्तेमाल करती हैं, जबकि शहरों में 77.5 फीसदी औरतें और लड़कियां ऐसा करती हैं. कुलमिला कर देखा जाए, तो 57.6 फीसदी औरतें और लड़कियां ही इन का इस्तेमाल करती हैं.
औरतों से बात करने के बाद हमें 2 ऐसी समस्याओं का पता लगा, जिन से शायद हर कोई अनजान ही होगा. इस सर्वे को करते समय कई बातें सीखने को मिलीं. यहां पर सब से ज्यादा जरूरी है लोगों को जागरूक करना. इस की साफसफाई पर ध्यान देना और उपाय बताने के लिए लोगों को तालीम देना.
अगर लोगों को माहवारी के बारे में जागरूक करना शुरू नहीं किया गया, तो इस के अंजाम बहुत ही दयनीय हो सकते हैं.
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माहवारी के समय सही से साफसफाई का पालन न करना कई तरह की बीमारियों को न्योता देता है.
दरअसल, जिस ने गरीबी के साथ जिंदगी गुजारी है, उस को मालूम होता है कि मूलभूत सुविधाओं के बिना जिंदगी कितनी मुश्किल है.
संविधान के मुताबिक सभी को ये सुविधाएं मिलनी चाहिए, लेकिन यहां ठीक से खाना तक तो मिलता नहीं है, सैनेटरी पैड कहां से मुहैया होंगे.