राजनीति और अफसरशाही में दलित औरतों को आगे देख कर यह मत सोचिए कि जातीय भेदभाव केवल गरीब और अनपढ़ लोगों के शब्दकोश में ही है, चमकदमक की दुनिया में भी जातीय भेदभाव कम नहीं है. दलित औरतें हर लैवल पर भेदभाव और शोषण की शिकार हैं. इस के बाद भी वे जिस वर्णवादी व्यवस्था की शिकार हैं उस में ही रहना भी चाहती हैं.
ज्यादातर को लगता है कि वे अपने को छिपाने के लिए वे काम करें जो ऊंची जातियों के लोग करते हैं. इस में पूजापाठ को एक जरीया मनाने वाला सब से बड़ा तबका है. यही वजह है कि बड़ी तेजी से निचले तबके में ऐसे लोगों की तादाद बढ़ रही है जो वर्ण व्यवस्था की तो खिलाफत करते हैं, पर पूजापाठ और हिंदू पहचान के साथ बने रहना चाहते हैं.
शादी के पहले मीना का सपना था कि अपने साथ पढ़ने वाली लड़कियों की तरह वह भी खूब पढ़ेगी और समाज के लिए कुछ करेगी. उस की टीचर भी यही कहती थी कि मीना बहुत होशियार है. पर 8वीं जमात तक पढ़ाई करने के बाद ही उस के घर वालों ने उस की शादी करने का फैसला कर दिया.
दलित लड़कियों को दबंग लड़के कब पकड़ कर जबरदस्ती न कर डालें, इसलिए शादी करना जरूरी होता था. हमारा धर्म ऐसी कहानियों से भरा पड़ा है जिन में गरीब दलित लड़कियों को ऋषियोंमुनियों ने भी जम कर भोगा है.
मीना के घर वालों के मुताबिक, उस की उम्र शादी लायक हो गई थी. मीना की शादी हो गई. शादी के बाद वह ससुराल आ गई. वहां उस का कुछ समय तो ठीक बीता, पर उस के बाद उस पर दबाव पड़ने लगा कि वह भी घर की दूसरी औरतों की तरह खेतों में काम करने जाए.
मीना खेत में काम नहीं करना चाहती थी. घर में इस बात को ले कर झगड़े शुरू हो गए. मीना ने पति को समझाया तो वह काम करने शहर आ गया. कुछ दिनों बाद मीना भी पति के पास रहने शहर चली आई.
पति के मुकाबले मीना ज्यादा समझदार थी और देखने में खूबसूरत भी थी. शहर में रहने से उस की खूबसूरती और बढ़ गई थी. मीना अपने घर के पास एक अस्पताल में सफाई का काम करने लगी. दिन में मीना 2 से 4 औफिसों में झाड़ूपोंछा लगाने लगी. इस में वह महीने के तकरीबन 5,000 रुपए पाने लगी. उस के पास अपना पैसा आया तो खुद पर यकीन बढ़ गया.
थोड़े समय बाद मीना के चरित्र को ले कर पति के मन में शक बैठने लगा. मीना को इस तरह काम करता देख सास हैरान रह गई. उसे गांव में मीना का खेत में काम करने देना भले ही पसंद था, पर शहर में लोगों के बीच काम करने से मीना के बहक जाने का खतरा था.
मां की शह पा कर मीना के पति ने उस के बाहर जाने का विरोध शुरू किया.
जब मीना नहीं मानी तो पति ने अपना कामधंधा छोड़ दिया और गांव लौटने को तैयार हो गया. पति के पास गांव में कोई काम नहीं था. वह दूसरों के खेतों में काम करता था.
मीना गांव में खेतों में काम करने लगी. ऐसे में उस के साथ वही सब होने लगा जो दूसरी औरतों के साथ होता था.
पर मीना शहर से वापस आ कर थोड़ी बदल गई थी. ऐसे में उस की पूछ ज्यादा थी. मीना घरबाहर दोनों जगह शोषण की शिकार होने लगी.
मीना की कहानी अकेली नहीं है. ऐसी तमाम दलित लड़कियां हैं जो अपने सपनों को पूरा नहीं कर पातीं और घरबाहर दोनों ही जगहों पर शोषण की शिकार होती हैं.
गरीबी का असर
दलित चिंतक रामचंद्र कटियार कहते हैं, ‘‘दलित तबके की 80 फीसदी लड़कियां 5वीं या 8वीं जमात से आगे नहीं पढ़ पाती हैं. उन की शादी हो जाती है. शादी के बाद ससुराल वाले उन की पढ़ाई को जारी नहीं रख पाते हैं.
‘‘ज्यादातर लड़कियों के पति कोई कामधंधा नहीं करते हैं. वे जब दूर शहरों में नौकरी करने चले जाते हैं तो उन की पत्नियों पर तमाम तरह के आरोप लगने लगते हैं. ज्यादातर के पति नशा करते हैं. ऐसे में मारपीट और झगड़े बढ़ते जाते हैं. पढ़ीलिखी लड़की भी ऐसे माहौल में खुद को लाचार पाती है.’’
कई जगहों से लोग गरीबी का फायदा उठा कर दलित लड़कियों को शहर ले जाते हैं. वहां उन्हें गलत धंधों में भी लगा देते हैं. रैड लाइट एरिया में लाई जाने वाली लड़कियों में बढ़ी तादाद ऐसी दलित लड़कियों की ही होती है, जो पैसों की तंगी या गरीबी की वजह से वहां पहुंच जाती हैं.
दलित लड़कियों के शोषण की अलगअलग कहानियां हैं. समाज में जिस तरह से दलितों के खराब हालात हैं उन से भी खराब हालात दलित औरतों के हैं. हर दिन 3 दलित औरतों से औसतन बलात्कार की वारदात होती है.
बदल नहीं रही सोच
ज्यादातर दलित औरतें गांव में रहती हैं. वे खेतों में मजदूरी करती हैं. ऐसे में एक तबका उन के शोषण को अपना हक समझता है. धर्मग्रंथ की कई कहानियों में ऐसी घटनाओं का जिक्र है जिस की वजह से अभी भी ऊंची जातियों की सोच नहीं बदल रही है.
पुराने रिवाजों को देखें तो ज्यादातर मामलों को देख कर लगता है कि केवल हिंदी राज्यों में ही दलितों की हालत खराब है, पर असल में ऐसा नहीं है.
केरल के इतिहास में सौ साल पहले ऐसी व्यवस्था थी कि छोटी जातियों की औरतों को कपड़े पहनते समय छाती न ढकने का आदेश था. ऐसा न करने वाली औरतों को टैक्स देना पड़ता था.
इस का मकसद केवल जातिवाद को बनाए रखना था. दक्षिण भारत में देवदासी प्रथा में जाने वाली लड़कियों में ज्यादातर निचली जाति की ही होती थीं.
आज भी कई जगहों से ऐसी खबरें आती हैं जहां ऊंची जातियों की तरह दलित लड़कियों की शादी में धूमधड़ाका करना गलत समझा जाता है और इस से जातीय टकराव होने लगता है.
परदा प्रथा अभी भी दलित औरतों में सब से ज्यादा है. ऐसी घटनाएं केवल गांव या कम पढ़ेलिखे लोगों के बीच ही नहीं हैं, बल्कि पढ़ेलिखे तबके में भी यह होता है. वहां भी गैरबराबरी का माहौल बना हुआ है.
तमाम सरकारी स्कूलों में मिड डे मील के समय ऐसी घटनाएं सामने आती हैं जहां पर दलित रसोइए के हाथ का बना खाना खाने में कई लोगों को एतराज होने लगा है. वोट लेने के लिए भले ही नेता तमाम दलितों के साथ खाना खाने का दिखावा करते हों.
बदल जाता है बरताव
लखनऊ के एक कौंवैंट स्कूल में पढ़ने वाली लड़की दिशा बताती है, ‘‘जब तक लोगों को मेरी जाति का पता नहीं चलता तब तक ठीक रहता है, पर जैसे ही जाति का पता चलता है सबकुछ बदल जाता है. साथ पढ़ने और काम करने वाले लोगों का बरताव ही बदल जाता है.
‘‘मुझे 9वीं जमात में पता चला कि मैं दलित हूं. उस समय कालेज में एक फार्म भरना था. उस के बाद स्कूल के दोस्तों को भी पता चल गया. अब वे मुझ से दूर होने लगे हैं.’’
दिशा ने एमबीए तक की पढ़ाई की, इस के बाद वह नौकरी में आई. उस ने कई मल्टीनैशनल कंपनियों में काम किया और वहां उस के नीचे काम करने वालों की बड़ी तादाद थी.
कंपनियों के लोगों को जैसे ही यह पता चलता था कि वह दलित है, उन का बरताव बदल जाता था. दिशा बताती है कि उस ने कहीं किसी भी तरह के रिजर्वेशन का फायदा नहीं लिया. उस जैसी कई लड़कियां हैं जो प्राइवेट सैक्टर में बिना किसी काबिलीयत के काम कर रही हैं. वे अपनी जाति को नहीं बताती हैं. असल में वे भी सोचती हैं कि जाति बताने से लोग अपना बरताव बदल लेते हैं. इस वजह से वे अपनी जाति छिपाने की कोशिश करती हैं.
दीपक नामक लड़के का कहना है, ‘‘मैं नीची जाति का हूं. पढ़ालिखा और अच्छी नौकरी करता हूं. मैं ने ऊंची जाति की लड़की से शादी की है. लड़की के घर वालों ने शादी का विरोध तो नहीं किया, पर वे हमारे साथ संबंध नहीं रखते हैं. उन लोगों ने अपनी लड़की के साथ भी संबंध तोड़ लिए हैं.
‘‘हमारी शादी को 8 साल हो चुके हैं, पर अभी भी वे हमारे घर नहीं आते हैं. मेरी पत्नी जब मायके जाती है तो केवल उस की मम्मी और बहन ही बात करती हैं. उस के पापा कभी उस से बात नहीं करते. मेरी पत्नी भी एक रात से ज्यादा अपनी मां के घर में नहीं रुकती है. एक तरह से उस का अपना घर अब उस के लिए बेगाना ही हो चुका है.’’
खराब सेहत
दलित औरतें अपनी सेहत का खुद ध्यान नहीं रख पाती हैं. स्वास्थ्य सेवाओं को ले कर काम कर रही सोनिया सिंह बताती हैं, ‘‘हम लोगों ने माहवारी के दौरान कपड़े के इस्तेमाल पर बातचीत की तो पाया कि सब से खराब हालत दलित औरतों की ही है. किसी भी गांव में 1-2 से ज्यादा दलित औरतें नहीं मिलतीं जो यह कहती हों कि वे माहवारी में पैड का इस्तेमाल करती हैं.’’
परिवार नियोजन में नसबंदी के टारगेट को पूरा करने के लिए सब से ज्यादा दलित औरतों का ही आपरेशन कराया जाता है. गांव की गरीब औरतों को छोड़ भी दें तो अच्छी पढ़ीलिखी औरतों में भी जाति का पता चलते
ही भेदभाव दिखने लगता है. शहरी जीवन में इस भेदभाव से बचने के लिए दलित औरतें अपनी पहचान बदलने लगी हैं.
रिजर्वेशन और भेदभाव
रिजर्वेशन का फायदा पा कर कुछ दलित परिवारों के पास पैसा और साधन हैं. इस के बाद भी समाज में भेदभाव में कमी नहीं आई है.
मौका मिलते ही ऊंची जातियों के लोग यह कहने में नहीं चूकते हैं कि आरक्षण के चलते ही ये आगे हैं और रिजर्वेशन के चलते ही समाज की यह हालत है.
पुलिस और दूसरी ऐसी संस्थाओं में काम करने वाली औरतों का कहना है कि हमारे साथ भी जातीय भेदभाव होता है. खराब से खराब गंदगी वाले काम करने के लिए हम से कहने में किसी को कोई हिचक नहीं होती है, पर ऊंची जातियों की औरतों को वही काम कहने में लोगों को हिचक होने लगती है. काम के गलत होने से हमारी जाति का कोई मतलब नहीं होता है, पर काम के गलत होते ही हमारी जाति और रिजर्वेशन को ले कर टिप्पणी होने लगती है.
सोशल मीडिया के बाद यह बात और भी तेजी से उभर कर सामने आ रही है. जहां पर ऐसे तमाम मैसेज इधर से उधर होते हैं जो जातीय भेदभाव को बढ़ाने वाले होते हैं. इन में एक ही संदेश दिया जाता है कि रिजर्वेशन के चलते ही देश के हालात खराब हैं और इस के चलते ही दलित नौकरियों में हैं. तमाम दलित गैरसरकारी नौकरियों में हैं और वहां पर वे अच्छा काम कर रहे हैं. उन की तारीफ कभी नहीं होती.
शादी के पहले मीना का सपना था कि अपने साथ पढ़ने वाली लड़कियों की तरह वह भी खूब पढ़ेगी और समाज के लिए कुछ करेगी. उस की टीचर भी यही कहती थी कि मीना बहुत होशियार है.