Bahujan Samaj Party में दरार

Bahujan Samaj Party को नई दिशा देने की कोशिश में जुटे आकाश आनंद को मायावती ने बाहर का रास्ता दिखा दिया है. एक बार फिर सवाल उठ गया है कि क्या मायावती का मकसद बसपा को पूरी तरह तबाह कर देना है?

दरअसल, आकाश आनंद ने अपने एक संबोधन में मायावती के कुछ करीबियों पर पार्टी के हित का ध्यान न रखने का आरोप लगाया था. यह बात बसपा सुप्रीमो मायावती को पसंद नहीं आई और पाटी को लगातार मिल रही हार की बौखलाहट भी आकाश आनंद के बाहर होने की अहम वजह बन गई.

परिवारवाद के खिलाफ बोलने वाली मायावती आखिरकार खुद भी उसी राह पर चल पड़ी थीं. यह उन की सब से बड़ी गलती थी. अगर कांशीराम चाहते तो वे भी अपने किसी भाईभतीजे को बसपा सौंप सकते थे, मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया और भारतीय राजनीति में ऐसा काम किया, जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता.

लेकिन कुछ समय पहले मायावती ने पहले तो अपने भतीजे आकाश आनंद को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर खांटी बसपाइयों को भीतर ही भीतर नाराज कर दिया, फिर हरियाणा, राजस्थान और दिल्ली सरीखे राज्यों में हुए चुनाव की सारी जिम्मेदारी आकाश आनंद को सौंपी.

आकाश आनंद इन राज्यों में बसपा को दोबारा मुख्यधारा में लाने के लिए खासी मेहनत करते दिखाई दिए और एक दफा उन्होंने बहुजन समाज पार्टी के कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा था, ‘हमारे कुछ पदाधिकारी पाटी को फायदा पहुंचाने के बजाय नुकसान पहुंचा रहे हैं. गलत लोग गलत जगह पर बैठे हैं, जिस से पार्टी को नुकसान हो रहा है. यह चीज मैं ने भी महसूस की. मु?ो भी काम करने में बहुत दिक्कत आ रही है.

‘कुछ लोग हमें भी काम नहीं करने दे रहे हैं. कुछ लोग ऐसे बैठे हैं, जिन को अभी हम छेड़ नहीं सकते. जिन को हम हिला नहीं सकते. जिस तरह से पार्टी चल रही है, उस में काफी कमियां हैं.’

दरअसल, आकाश आनंद ने जिस तरह खुल कर पार्टी की खामियों के बारे में कार्यकर्ताओं से मंच से बात की, वह बड़ेबड़े नेताओं को पसंद नहीं आ रही थी. इस से पार्टी के बीच आकाश आनंद को ले कर विरोध के स्वर उठने लगे.

नतीजतन, मायावती ने वही किया, जो उन के आसपास बैठे लोगों ने उन्हें बताया और मजबूर कर दिया.

बसपा सुप्रीमो मायावती ने आकाश आनंद को जिम्मेदारी सौंपी थी कि वे नौजवानों को बसपा के साथ जोड़ें, पर लगता है कि मायावती को अपने भतीजे के काम करने का तरीका पसंद नहीं आया.

अगर मायावती को बहुजन समाज पार्टी को सचमुच कांशीराम के पदचिह्नों पर आगे ले जाना है, तो आकाश आनंद जैसे लोगों को अहमियत देनी ही पड़ेगी. यह नहीं भूलना चाहिए कि बसपा का जो असर बहुजन समाज पर था, आज वह धीरेधीरे कमजोर होता जा रहा है, तो उस की एक अहम वजह मायावती के काम करने के तरीके हैं.

Indian Politics : ओबीसी और एससी में क्यों है दूरी?

Indian Politics : साल 2027 के विधानसभा चुनाव के लिए उत्तर प्रदेश में राजनीतिक गोलबंदी अभी से तेज हो गई है. कयास इस बात का लगाया जा रहा है कि एससी और ओबीसी तबका किधर जाएगा.

साल 2024 के लोकसभा चुनाव में एससी, ओबीसी और मुसलिम तबका इंडिया ब्लौक के साथ रहा था, जिस का फायदा कांग्रेस और समाजवादी पार्टी दोनों को हुआ था. कांग्रेस को लोकसभा की 6 सीटें और समाजवादी पार्टी को 37 सीटें मिली थीं, जो अपनेआप में एक बड़ा इतिहास है.

इस के बाद हुए उत्तर प्रदेश में विधानसभा के उपचुनाव और दिल्ली, महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनाव के नतीजे देखने से लगा कि लोकसभा चुनाव वाला वोटिंग ट्रैंड बदल चुका है, खासकर एससी और ओबीसी जातियां धर्म के चलते आपसी दूरी दिखा रही हैं.

एससी और ओबीसी जातियों में खेमेबंदी केवल वोट तक ही नहीं सिमटी है, बल्कि यह जातीय और सामाजिक लैवल पर गुटबाजी में बदल चुकी है, जिस का असर वोट बैंक पर तो पड़ ही रहा है, साथ ही, घरों और स्कूलों पर भी पड़ रहा है. सरकारी स्कूलों में जहां बच्चों को भोजन ‘मिड डे मील’ खाने को मिल रहा है, वहां पर ओबीसी बच्चे एससी बच्चों के साथ बैठ कर खाना खाने से बचते हैं.

ओबीसी बच्चे तादाद में ज्यादा होने के चलते अपना अलग ग्रुप बना लेते हैं, जिस से एससी बच्चे अलगथलग पड़ जाते हैं. स्कूलों से शुरू हुए इस जातीय फर्क को आगे भी देखा जाता है. ओबीसी जातियां ऊंची जातियों जैसी दिखने के लिए खुद को बदल रही हैं.

ओबीसी समाज के लड़के ऊंची जाति की लड़कियों से शादी कर रहे हैं. ऊंचे तबके के परिवारों को भी अगर एससी और ओबीसी में से किसी एक को चुनना हो, तो वह ओबीसी को ही पसंद करते हैं. ओबीसी बच्चे पूरी तरह से ऊंची जाति वाला बरताव करते हैं और यही उन के स्वभाव में रचबस जाता है.

उत्तर प्रदेश में सब से बड़े यादव परिवार मुलायम सिंह यादव का घर इस का उदाहरण है. मुलायम सिंह यादव की पीढ़ी में यादव जाति के बाहर की कोई महिला नहीं थी, पर मुलायम सिंह यादव की दूसरी पत्नी साधना गुप्ता बनिया बिरादरी से थीं.

इस के बाद अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव पहाड़ी जाति की ठाकुर हैं. उन के पिता का नाम आरएस रावत और मां का नाम चंपा रावत है. शादी के पहले डिंपल सिंह रावत थीं, जो अब डिंपल यादव हो गई हैं.

मुलायम सिंह यादव के दूसरे बेटे प्रतीक यादव की भी शादी अपर्णा बिष्ट से हुई है. वे भी पहाड़ी ठाकुर हैं. मुलायम सिंह यादव के भाई शिवपाल यादव के बेटे आदित्य यादव की पत्नी राजलक्ष्मी मध्य प्रदेश के मैहर राजपूत घराने की हैं. इन के नाना राजा कुंवर नारायण सिंह जूदेव 3 बार विधायक रहे थे. राजलक्ष्मी ने लखनऊ यूनिवर्सिटी से एमबीए किया था.

बिहार में लालू प्रसाद यादव के बेटे तेज प्रताप यादव की शादी भूमिहार जाति से आने वाले नेता और मुख्यमंत्री रह चुके दारोगा राय की पोती ऐश्वर्या राय से हुई है. ऐश्वर्या के पिता चंद्रिका राय भी बिहार में मंत्री रहे हैं.

लालू प्रसाद यादव के दूसरे बेटे तेजस्वी यादव की पत्नी रेचल गोडिन्हो हरियाणा के रेवाड़ी में रहने वाले ईसाई परिवार की बेटी हैं. वे दिल्ली में पलीबढ़ी हैं और वहीं तेजस्वी यादव से उन की मुलाकात भी हुई थी और शादी के बाद उन का नाम राजश्री यादव हो गया.

राजश्री यादव नाम इसलिए रखा गया, जिस से बिहार के लोग आसानी से इस नाम का उच्चारण कर सकें. इस नाम को रखने का सुझाव लालू प्रसाद यादव ने ही दिया था.

ओबीसी जातियों ने खुद को बदला है. वह अपना रहनसहन और बरताव ऊंची जातियों जैसा ही करने लगी है. धार्मिक रूप से वह ऊंची जाति वालों की तरह ही बरताव करने लगी हैं.

समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव भले ही खुद को शूद्र कहें, लेकिन उन का बरताव ऊंची जाति के लोगों जैसा ही होता है. वोट से अलग हट कर देखें, तो वे धार्मिक कर्मकांड को पूरी तरह से मानते हैं.

उन्होंने अपने पिता की अस्थियों का विसर्जन पूरी आस्था और धार्मिक कर्मकांडों के साथ किया था. वे गंगा में डुबकी लगा आए और कुंभ भी नहा आए. ऐसे में एससी जातियों को ओबीसी और ऊंची जातियों में फर्क नजर नहीं आता है.

कांग्रेस दलितों की करीबी क्यों?

एससी तबके के लोग जब कांग्रेस और ओबीसी दलों के बीच तुलना करते हैं, तो उसे कांग्रेस ही बेहतर नजर आती है. इस की सब से खास बात यह भी है कि कांग्रेस जब सत्ता में थी, तब उस ने ऐसे तमाम कानून बनाए थे, जिन से गैरबराबरी को खत्म करने में मदद मिली. इन में जमींदारी उन्मूलन कानून, छुआछूत विरोधी कानून और दलित कानून प्रमुख हैं.

लंबे समय तक एससी तबका कांग्रेस का वोटबैंक रहा है. इस वजह से जब साल 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने आरक्षण और संविधान को मुद्दा बनाया, तो एससी जातियों ने उस की बात पर भरोसा किया.

इस भरोसे के बल पर ही एससी तबके ने कांग्रेस और उस की अगुआई वाले इंडिया ब्लौक को चुनावी कामयाबी दिलाई, जिस से भारतीय जनता पार्टी बहुमत से सरकार बनाने में चूक गई.

यह इंडिया ब्लौक और कांग्रेस की बड़ी कामयाबी थी. इस के बाद हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की भूमिका को सहयोगी दलों ने सीमित करने की कोशिश की, जिस वजह से एससी वोटबैंक वापस भाजपा में चला गया.

दिल्ली में आम आदमी पार्टी हो या उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, दोनों चुनाव हार गईं. कांग्रेस को अलगथलग कर के एससी वोट हासिल नहीं किया जा सकता है. इस हालत में कांग्रेस जरूरी होती जा रही है. समाजवादी पार्टी जितना जल्दी इस बात को समझ ले, उतना ही उस का भला होगा.

उत्तर प्रदेश में एससी बिरादरी को अपनी तरफ खींचने के लिए राजनीतिक दल तानाबाना बुनने में लगे हैं. भाजपा अपने संगठन में दलितों को खास तवज्जुह देने की कवायद में है. संविधान और डाक्टर भीमराव अंबेडकर के नाम पर दलित समाज का दिल जीतने की कवायद कांग्रेस से ले कर समाजवादी पार्टी तक कर रही हैं.

बहुजन समाज पार्टी के लगातार कमजोर होने से एससी तबका मायावती की पकड़ से बाहर निकलता जा रहा है. नगीना लोकसभा सीट से सांसद चुने जाने के बाद चंद्रशेखर आजाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति का नया चेहरा बन कर उभरे हैं और बसपा के औप्शन के तौर पर खुद को पेश कर
रहे हैं.

दूसरी बड़ी हिस्सेदारी

ओबीसी के बाद दूसरी सब से बड़ी हिस्सेदारी एससी की है. दलित आबादी 22 फीसदी के आसपास है. यह दलित वोटबैंक जाटव और गैरजाटव के बीच बंटा हुआ है. 22 फीसदी कुल दलित समुदाय में सब से बड़ी तादाद 12 फीसदी जाटवों की है और 10 फीसदी गैरजाटव दलित हैं.

उत्तर प्रदेश में दलित जाति की कुल 66 उपजातियां हैं, जिन में से 55 ऐसी उपजातियां हैं, जिन का संख्या बल ज्यादा नहीं है. इन में मुसहर, बसोर, सपेरा, रंगरेज जैसी जातियां शामिल हैं.

दलित की कुल आबादी में 56 फीसदी जाटव के अलावा दलितों की अन्य जो उपजातियां हैं, उन की संख्या 46 फीसदी के आसपास है. पासी 16 फीसदी, धोबी, कोरी और वाल्मीकि 15 फीसदी और गोंड, धानुक और खटीक तकरीबन 5 फीसदी हैं.

बसपा प्रमुख मायावती और भीम आर्मी के चीफ चंद्रशेखर जाटव समुदाय से आते हैं. उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति हमेशा से जाटव समुदाय के ही इर्दगिर्द सिमटी रही है.

बसपा प्रमुख मायावती के दौर में जाटव समाज का सियासी असर बढ़ा, तो गैरजाटव दलित जातियों ने भी अपने सियासी सपनों को पूरा करने के लिए बसपा से बाहर देखना शुरू किया.

साल 2012 के चुनाव के बाद से गैरजाटव दलित में वाल्मीकि, खटीक, पासी, धोबी, कोरी समेत तमाम जातियों के विपक्षी राजनीतिक दल अपनेअपने पाले में लामबंद करने में कामयाब रहे हैं.

अखिलेश यादव साल 2019 के बाद से ही दलित वोटों को किसी भी दल के गठबंधन की बैसाखी के बजाय अपने दम पर हासिल करने की कवायद में हैं.

बसपा के कई दलित नेताओं को उन्होंने अपने साथ मिलाया है, जिस के चलते साल 2022 और साल 2024 में उन्हें कामयाबी भी मिली थी. सपा अब ‘पीडीए’ की बैठक कर के दलित वोटबैंक अपनी तरफ करने का काम कर रही है.

जाटव बिरादरी के राजाराम कहते हैं, ‘‘हम बसपा को वोट देते हैं, लेकिन मेरी बहू और बेटे बसपा को पसंद नहीं करते हैं. वे भाजपा को वोट देते हैं.’’

साल 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश में हुए 10 उपचुनाव में बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस ने चुनाव नहीं लड़ा था. सीधा मुकाबला सपा और भाजपा के बीच था, जिस में सपा को केवल 2 सीटों पर जीत मिली और 8 सीटें भाजपा जीत ले गई.

अखिलेश यादव भाजपा की इस जीत को लोकतंत्र विरोधी बता रहे हैं. इस के बाद यह साफ हो गया है कि लोकसभा चुनाव में सपाकांग्रेस गठबंधन को वोट देने वाला एससी तबका सपा के साथ नहीं है. कांग्रेस और बसपा के चुनाव लड़ने के फैसले से वह भाजपा को विकल्प के रूप में देख रहा है.

गृह मंत्री अमित शाह द्वारा डाक्टर भीमराव अंबेडकर पर टिप्पणी किए जाने के मुद्दे को ले कर कांग्रेस नेताओं ने संसद से सड़क तक भाजपा और मोदी सरकार के खिलाफ मोरचा खोल दिया था.

कांग्रेस ने देशभर में ‘जय भीम’, ‘जय बापू’ और ‘जय संविधान’ नाम से अभियान शुरू किया था. राहुल गांधी ने साल 2024 का लोकसभा चुनाव संविधान और आरक्षण के मुद्दे पर लड़ा था.

इस का सियासी फायदा कांग्रेस और उस के सहयोगी दलों को मिला था. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को 6 सीटें मिली थीं और उस के सहयोगी दल सपा को 37 सीटों पर जीत मिली थी. इसी तरह महाराष्ट्र में भी संविधान और आरक्षण का दांव कारगर रहा था.

उत्तर प्रदेश में 42 ऐसे जिले हैं, जहां दलितों की तादाद 20 फीसदी से ज्यादा है. राज्य में सब से ज्यादा दलित आबादी सोनभद्र में 42 फीसदी, कौशांबी में 36 फीसदी, सीतापुर में 31 फीसदी है, बिजनौर और बाराबंकी में 25-25 फीसदी हैं. इस के अलावा सहारनपुर, बुलंदशहर, मेरठ, अंबेडकरनगर, जौनपुर में दलित समुदाय निर्णायक भूमिका में है.

इस तरह से उत्तर प्रदेश में दलित समाज के पास ही सत्ता की चाबी है, जिसे हर दल अपने हाथ में लेना चाहता है. दलितों के बीच ‘सामाजिक समरसता अभियान’ के तहत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उस दलित वोटबैंक पर निशाना साधा, जिस पर बसपा ने कभी ध्यान ही नहीं दिया था. इस का फायदा भाजपा को सीधेसीधे देखने को मिला है.

धार्मिक दलित बने भाजपाई

‘रामचरित मानस’ की चौपाई ‘ढोल गंवार शूद्र पशु नारी’ को भूल कर एससी और ओबीसी का एक बड़ा तबका पूरी तरह से धार्मिक हो चुका है. यही भाजपा की सब से बड़ी ताकत है. भाजपा धर्म के जरीए राजनीति कर रही है. उस का प्रचार मंदिरों से होता है.

अब तकरीबन हर जाति के लोगों के अलगअलग मंदिर हैं, जहां लोग अपनेअपने भगवानों की पूजा करते हैं. धर्म के नाम पर वे भाजपा के साथ खड़े हो रहे हैं.

समाजवादी पार्टी का मूल वोटबैंक यादव समाज भी अब अखिलेश यादव के साथ पूरी तरह से नहीं है. वह सपा को पसंद करता है, लेकिन जैसे ही मुद्दा हिंदूमुसलिम का होता है, वह भाजपा के साथ खड़ा हो जाता है.

अयोध्या के करीब मिल्कीपुर विधानसभा सीट पर 6 महीने पहले लोकसभा चुनाव में फैजाबाद लोकसभा सीट सपा के अवधेश प्रसाद ने जीती थी. इस के बाद उन को विधायक की सीट छोड़नी पड़ी थी, जिस का उपचुनाव हुआ. सपा ने अवधेश प्रसाद के बेटे अजीत प्रसाद को टिकट दे दिया. विधानसभा के उपचुनाव में सपा तकरीबन 65,000 वोट से हार गई.

सपा चुनावी धांधली का कितना भी बहाना बनाए, पर सच यह है कि सपा के वोट कम हुए हैं. इस की वजह यह रही कि अवधेश प्रसाद को राजा अयोध्या कहना एससी और ओबीसी जातियों को भी अच्छा नहीं लगा. इस वजह से उन्होंने सपा के उम्मीदवार के खिलाफ वोट दे कर उस को हरवा दिया.

एससी अब ओबीसी के साथ खड़ा होने में हिचक रहा है. इस में ओबीसी की कमी है, क्योंकि वह खुद को ऊंची जाति का समझ कर वैसा ही बरताव एससी के साथ कर रहा है.

ओबीसी अब मन से ऊंची जाति का बन चुका है. मंडल कमीशन लागू करते समय यह सोचा गया था कि ओबीसी अपने तबके से कमजोर तबके को आगे बढ़ाएगा.

मंडल कमीशन की सिफारिशों का सब से ज्यादा फायदा यादव और कुर्मी जातियों ने आपस में बांट लिया. गरीब तबका गरीब ही रह गया. अब वह धर्म के सहारे आगे बढ़ कर खुद को ऊंची जाति वालों जैसा बना कर एससी से दूर हो रहा है.

एससी की सब से पहली पसंद हमेशा से ही कांग्रेस रही है. जैसेजैसे कांग्रेस मजबूत होगी, वैसेवैसे एससी और मुसलिम दोनों ही उस की तरफ जाएंगे. इन को लगता है कि भाजपा से टक्कर लेने का काम केवल कांग्रेस ही कर सकती है.

राहुल गांधी ही भाजपा का मुकाबला कर सकते हैं. एससी और मुसलिम दोनों ही कांग्रेस के पक्ष में तैयार खड़े हैं. ऐसे में अब समाजवादी पार्टी की मजबूरी है कि वह कांग्रेस को साथ ले कर चले. अगर ऐसा नहीं हुआ, तो दिल्ली जैसी हालत उत्तर प्रदेश में भी होगी. अरविंद केजरीवाल जैसा बरताव अखिलेश यादव को धूल चटा देगा.

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस नेताओं का कहना है कि सपा कांग्रेस को कमजोर न समझे, सहयोगी और साथी समझे, नहीं तो ‘हम तो डूबे हैं सनम तुम को भी ले डूबेंगे’.

मायावती ने भतीजे के पर कतरे : क्या सियासी गर्त में जा रही है Bahujan Samaj Party?

Bahujan Samaj Party : मायावती को कांशीराम की राजनीतिक धरोहर बहुजन समाज पार्टी जिस ऊंचाई पर ले जानी चाहिए, अगर उस के बजाय पार्टी अंधेरे गड्ढे में चली जा रही है, तो यह चिंता की बात है. मायावती बारबार ऐसे फैसले ले रही हैं, जिन से बहुजन समाज पार्टी कमजोर होती चली जा रही है. याद कीजिए, बसपा के निर्माता कांशीराम के समय के दिन, जब बसपा ने लीक से ह टकर राजनीति के क्षेत्र में अपना परचम लहराया था. वह परचम अब पुराना होता दिख रहा है, जिस की चमक बहुत ज्यादा फीकी हो गई है.

अब जब बहुजन समाज पार्टी को नई दिशा देने की कोशिश में जुटे आकाश आनंद को मायावती ने बाहर का रास्ता दिखाया है, तो एक बार फिर सवाल उठ गया है कि क्या मायावती का मकसद बसपा को पूरी तरह तबाह कर देना है?

दरअसल, आकाश आनंद ने अपने एक संबोधन में मायावती के कुछ करीबियों पर पार्टी के हित का ध्यान न रखने का आरोप लगाया था. यह बात बसपा सुप्रीमो मायावती को पसंद नहीं आई और पाटी को लगातार मिल रही हार की बौखलाहट भी आकाश आनंद के बाहर होने की अहम वजह बन गई. परिवारवाद के खिलाफ बोलने वाली मायावती आखिरकार खुद भी उसी राह पर चल पड़ी थीं. यह उन की सब से बड़ी गलती थी. अगर कांशीराम चाहते तो वे भी अपने किसी भाईभतीजे को बसपा सौंप सकते थे, मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया और भारतीय राजनीति में ऐसा काम किया, जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता.

लेकिन कुछ समय पहले मायावती ने पहले तो अपने भतीजे आकाश आनंद को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर खांटी बसपाइयों को भीतर ही भीतर नाराज कर दिया, फिर हरियाणा, राजस्थान और दिल्ली सरीखे राज्यों में हुए चुनाव की सारी जिम्मेदारी आकाश आनंद को सौंपी. आकाश
आनंद इन राज्यों में बसपा को दोबारा मुख्याधारा में लाने के लिए खासी मेहनत करते दिखाई दिए और एक दफा उन्होंने बहुजन समाज पार्टी के कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा था, ‘हमारे कुछ पदाधिकारी पाटी को फायदा पहुंचाने की जगह नुकसान पहुंचा रहे हैं. गलत लोग गलत जगह पर बैठे हैं, जिस से पार्टी को नुकसान हो रहा है. यह चीज मैं ने भी महसूस की. मुझे भी काम करने में बहुत दिक्कत आ रही है. कुछ लोग हमें भी काम नहीं करने दे रहे हैं. कुछ लोग ऐसे बैठे हैं जिन को अभी हम छेड़ नहीं सकते. जिन को हम हिला नहीं सकते. जिस तरह से पार्टी चल रही है, उस में काफी कमियां हैं.’

दरअसल, आकाश आनंद ने जिस तरह खुल कर पार्टी की खामियों के बारे में कार्यकर्ताओं से मंच से बात की, वह बड़ेबड़े नेताओं को पसंद नहीं आ रही थी. उन्हें लग रहा था कि आने वाले समय में उन की कुरसी खतरे में है. इस से पार्टी के बड़े नेताओं के बीच आकाश आनंद को ले कर विरोध के स्वर उठने लगे. नतीजतन, मायावती ने वही किया जो उन के आसपास बैठे लोगों ने उन्हें बताया और मजबूर कर दिया. आकाश आनंद को पार्टी से बाहर करने की वजह भी यही बनी.

बसपा सुप्रीमो मायावती ने आकाश आनंद को जिम्मेदारी सौंपी थी कि वे नौजवानों को बसपा के साथ जोड़ें, पर लगता है कि मायावती को अपने भतीजे के काम करने का तरीका पसंद नहीं आया.

अगर मायावती को बहुजन समाज पार्टी को सचमुच कांशीराम के पदचिह्नों पर आगे ले जाना है, तो आनंद प्रकाश जैसे लोगों को अहमियत देनी ही पड़ेगी. यह नहीं भूलना चाहिए कि बसपा का जो असर बहुजन समाज पर था, आज वह धीरेधीरे अगर कमजोर हो जा रहा है, तो उस की बड़ी वजह मायावती के काम करने के तरीके हैं.

सपा-बसपा गठबंधन के सियासी मायने

सपा बसपा के गठबंधन से जमीनी स्तर पर भले ही कोई बड़ा सामाजिक बदलाव न हो पर इसके सियासी मायने फलदायक हो सकते हैं. सपा-बसपा गठबंधन में कांग्रेस भले ही शामिल ना हो पर इस गठबंधन से मिलने वाले सियासी लाभ में उसका हिस्सा भी होगा. 2019 के लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय स्तर पर सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस होगी. ऐसे में सरकार बनाने ही हालत में कांग्रेस ही सबसे आगे होगी. सपा-बसपा ही नहीं दूसरे क्षेत्रिय दल भी भारतीय जनता पार्टी की नीतियों से परेशान हैं. ऐसे में वह केन्द्र से भाजपा को हटाने के लिये कांग्रेस के खेमे में खड़े हो सकते हैं.

भाजपा के लिये परेशानी का कारण यह है कि उसका एक बडा वोटबैंक पार्टी से बिदक चुका है. उत्तर प्रदेश में पार्टी 2 साल के अंदर ही सबसे खराब हालत में पहुंच चुकी है. सत्ता में रहते हुए भाजपा एक भी उपचुनाव नहीं जीती है. उत्तर प्रदेश के अलावा हिन्दी भाषी क्षेत्रों में भाजपा खराब दौर से गुजर रही है. राजस्थान, छत्तीसगढ और मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनावों में भाजपा की हार से विपक्षी दलों को ताकत दे दी है. ऐसे में सबसे पार्टी की जीत का सबसे अधिक दारोमदार उत्तर प्रदेश पर ही टिका है.

लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश की 80 सीटें काफी महत्वपूर्ण हो जाती हैं. 2014 के चुनाव में 73 सीटें भाजपा और उनके सहयोगी दलों को मिली थी. 7 सीटे सपा और कांग्रेस के खाते में थी. बसपा को एक भी सीट नहीं मिली थी. 2019 के लोकसभा चुनावों में बसपा-सपा के एक होने से सियासी परिणाम बदल सकते हैं. 2014 की जीत में मोदी लहर और कांग्रेस का विरोध भाजपा को सत्ता में लाने का सबसे बड़ा कारण था. नरेन्द्र मोदी ने जनता से जो वादे किये उसे वह पूरा नहीं कर पाए. अपनी कमियों को छिपाने के लिये अपने धर्म के एजेंडे को आगे बढ़ाते गये. पार्टी के नेताओं के स्वभाव में एक अक्खडपन आ गया.

राजस्थान, छत्तीसगढ और मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनावों में भाजपा की हार ने बता दिया कि मोदी मैजिक अब पार्टी का जीत दिलाने में सफल नहीं होगा. ऐसे में पार्टी की नीतियों से ही जीत का मार्ग निकलता है. भाजपा जमीनी स्तर पर जातियों के साथ तालमेल कर चलने में तो असफल रही ही, अपने कोर वोटर को भी कोई सुविधा नहीं दे सकी. मध्यमवर्गीय कारोबारी सबसे अधिक परेशान हो रहा है.ऐसे में वह पार्टी से अलग थलग पड़ गया है. इस वजह से ही भाजपा अब सवर्ण आरक्षण के मुद्दे को लेकर आई.

वरिष्ठ पत्राकार शिवसरन सिंह कहते है ‘2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनावो में प्रदेश ही जनता ने भाजपा के विकास की नीतियों से प्रभावित होकर भाजपा को वोट देकर बहुमत की सरकार बनाई थी. सरकार बनाने के बाद भाजपा राज में जिस तरह से मंहगाई, बेराजगारी, जीएसटी और नोटबंदी का दबाव आया लोग परेशान हो गये. यह भाजपा के लिये सबसे बड़ा नुकसान का कारण है. जातीय स्तर पर जिस समरसता की उम्मीद भाजपा से प्रदेश की जनता को थी वह पूरी नहीं हुई. ऐसे में जिस तरह से सभी जातियों ने भाजपा का साथ दिया था वह उससे दूर जाने लगी. दलित और पिछड़ी जातियां सपा-बसपा और सवर्ण कांग्रेस का दामन थामने को मजबूर हैं. भाजपा के लिए यह खराब संदेश है.’

मायावती की साख पर सवाल

चुनाव के पहले और चुनाव के बाद नेताओं की बदलती फितरत से पीछा छुड़ाना उनको भारी पड़ता है. जनता को उनकी कही बातों पर भरोसा नहीं होता है. उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के सहयोग से 3 बार मुख्यमंत्री बनने वाली मायावती जब मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनाव में भाजपा के साथ नहीं जाने की बात कहती है तो उनपर जनता को यकीन नहीं हो रहा है. छत्तीसगढ़ के चुनाव प्रचार में मायावती वहां के मुद्दो पर राय देने की जगह पर केवल अपनी सफाई देने की कोशिश कर रही हैं. वह कांग्रेस और भाजपा दोनो की सांपनाथ-नागनाथ कहती है. छत्तीसगढ की जनता को यह समझ नहीं आ रहा कि चुनाव में सांपनाथ-नागनाथ नजर आने वाली भाजपा-कांग्रेस के साथ चुनाव के बाद मायावती समझौता कैसे कर लेती हैं?

5 राज्यों के विधनसभा मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ, मणिपुर और तेलंगाना के पहले बसपा कांग्रेस के साथ गठबंधन करना चाहती थी. अचानक बसपा ने यूटर्न लिया और खुद की चुनाव लड़ने का एलान कर दिया. मायावती उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन की बात भले करती हो पर मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ में वह सपा के साथ भी नहीं है. यहां सपा-बसपा भी अलग अलग ही चुनाव लड़ रहे हैं. कांग्रेस नेता सुरेन्द्र सिंह राजपूत कहते हैं, असल में मायावती उसूल की नहीं अपने मुनाफे की राजनीति करती हैं. ऐसे में वह वहां अकेले चुनाव लड़ रही हैं. कांग्रेस हमेशा की साम्प्रदायिकता विरोधी विचारधरा को एकजुट करके चुनाव लड़ना चाहती है.

मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ में मायावती की बसपा कहीं चुनावी लड़ाई में नहीं हैं. वह वोट काटने का काम करेंगी. जिसका प्रभाव कांग्रेस पर अधिक पड़ेगा. छत्तीसगढ में भाजपा और कांग्रेस के बीच पिछले चुनाव में सीट और वोट प्रतिशत दोनों के बीच बहुत ही कम फासला था. ऐसे में कुछ वोटों के कटने से ही जीत हार का गणित बदल सकता है. मायावती को लगता है कि छत्तीसगढ में अगर उनकी पार्टी कुछ सीटें भी ले आई तो वह किंगमेकर बन सकती है. जिसके बाद उनके लिये अपनी कोई भी बात मनवानी सरल होगी. चुनाव के पहले सांपनाथ-नागनाथ कहने वाली मायावती भाजपा-कांग्रेस के साथ नहीं जायेगी इसकी कोई गांरटी नहीं है.

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