‘‘मालकिन, आप के पैरों में अधिक दर्द हो तो तेल लगा कर मालिश कर दूं?’’
‘‘हूं,’’ बस, इतना ही निकला नंदिता के मुंह से.
‘‘तेल गरम कर के लाती हूं,’’ कह कर राधा चली गई. राधा को जाते देख कर नंदिता सोचने लगी कि आज के इस मशीनी युग में प्यार खत्म हो गया है. भावनाओं, संवेदनाओं का मोल नहीं रहा. ऐसे में प्रेम की वर्षा से नहलाने वाला एक भी प्राणी मिल जाए तो अच्छा लगता है. नंदिता के अधर मौन थे पर मन में शब्दों की आंधी सी चल रही थी. मन अतीत की यादों में मुखर हो उठा था. कभी इस घर में बहुत रौनक रहती थी. बहुत ध्यान रखने वाले पति मोहन शास्त्री और दोनों बेटों, आशीष और अनुराग के साथ नंदिता को समय का पता ही नहीं चलता था.
मोहन शास्त्री संस्कृत के अध्यापक थे. वे खुद भी इतिहास की अध्यापिका रही थीं. दोनों स्कूल से अलगअलग समय पर घर आते, पर जो भी पहले आता, घर और बच्चों की जिम्मेदारियां संभाल लेता था.
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अचानक एक दिन दिल का दौरा पड़ा और मोहन शास्त्री का निधन हो गया. यह एक ऐसा गहरा वज्रपात था जिस ने उन्हें भीतर तक तोड़ दिया था. एक पल को ऐसा लगा था जैसे शरीर बेजान हो गया और वे बस, एक लाश बन कर रह गई थीं. सालों से रातदिन का प्यारा साथ सहसा सामने से गायब हो अनंत में विलीन हो जाए, तो हृदयविदारक अनुभूति ही होती है.
समय की गति कितनी तीव्र होती है इस का एहसास इनसान को तब होता है जब वह किसी के न रहने से उत्पन्न हुए शून्य को अनुभूत कर ठगा सा खड़ा रह जाता है. बच्चों का मुंह देख कर किसी तरह हिम्मत रखी और फिर अकेले जीना शुरू किया.
दोनों बेटे बड़े हुए, पढ़लिख कर विदेश चले गए और पीछे छोड़ गए एक बेजान बुत. जब दोनों छोटे थे तब उन्हें मां की आवश्यकता थी तब वे उन पर निस्वार्थ स्नेह और ममता लुटाती रहीं और जब उम्र के छठे दशक में उन्हें बेटों की आवश्यकता थी तो वे इतने स्वार्थी हो गए कि उन के बुढ़ापे को बोझ समझ कर अकेले ही उसे ढोने के लिए छोड़ गए. अपनी मां को अकेले, बेसहारा छोड़ देने में उन्हें जरा भी हिचकिचाहट नहीं हुई, सोचतेसोचते उन की आंखें नम हो जातीं.
संतान का मोह भी कैसा मोह है जिस के सामने संसार के सभी मोह बेबस हो कर हथियार डाल देते हैं पर यही संतान कैसे इतनी निर्मोही हो जाती है कि अपने मातापिता का मोह भी उसे बंधन जान पड़ता है और वह इस स्नेह और ममता के बंधन से मुक्त हो जाना चाहती है. भर्राई आवाज में जब उन्होंने पूछा था, ‘मैं अकेली कैसे रहूंगी?’ तो दोनों बेटे एक सुर में बोले थे, ‘अरे, राधा है न आप के पास. और कौन सा हम हमेशा के लिए जा रहे हैं. समय मिलते ही चक्कर लगा लेंगे, मां.’
नंदिता फिर कुछ नहीं बोली थीं. भागदौड़ भरे उन के जीवन में भावनाओें की शायद कोई जगह नहीं थी.
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दोनों चले गए थे. वे एक तरफ बेजान बुत बन कर पड़ी रहतीं. उन्हें कुछ नहीं चाहिए था सिवा दो प्यार भरे शब्द और बच्चों के साथ कुछ पलों के. रात को सोने जातीं तो उन की आंखें झरझर बहने लगतीं. सोचतीं, कभी मोहनजी का साथ, बेटों की शरारतों से उन का आंगन महका करता था और अब यह सन्नाटा, कहां विलुप्त हो गए वे क्षण.
अकेलेपन की पीड़ा का जहर पीते हुए, बेटों की उपेक्षा का दंश झेलते हुए समय तेज गति से चलता हुआ उन्हें यथार्थ की पथरीली भूमि पर फेंक गया.
दोनों बेटे पैसे भेजते रहते थे. उन्हें अपनी पैंशन भी मिलती रहती थी. उन का गुजारा अच्छी तरह से हो जाता था. उम्र के इस पड़ाव पर उन्हें रुपएपैसे से कोई मोह नहीं था. वे तो बस, अकेलेपन से व्यथित रहतीं. कभीकभी आसपड़ोस की महिलाओं से तो कभी अपनी साथी अध्यापिकाओं से मिल लेती थीं, लेकिन उस के बाद फिर खालीपन. पूरे घर में वे और उन की विधवा बाई राधा थी. न कोई बच्चा न कोई सहारा देने वाला रिश्तेदार. राधा को भी उन की एक सहेली ने कुछ साल पहले भेजा था. उन्हें भी घर के कामधंधे के लिए कोई चाहिए था, सो अब राधा घर के सदस्य की तरह नंदिता को प्रिय थी.
जीवन किसी सरल रेखा सा नहीं चल सकता, वह अपनी इच्छा के अनुसार मोड़ ले लेता है.
‘‘मालकिन, मैं तेल के साथ चाय भी ले आई हूं. मैं तेल लगाती हूं, आप चाय पीती रहना,’’ राधा की आवाज से उन की तंद्रा टूटी. इतने में ही पड़ोस की मधु आ गई. वह अकसर चक्कर काट लेती थी. अपने बच्चों को स्कूल भेजने के बाद कभीकभी उन के पास खड़ी हो दोचार बातें करती फिर चली जाती. नंदिताजी को उस पर बड़ा स्नेह हो चला था. उन्होंने यह भी महसूस किया कि मधु कुछ गंभीर है, बोलीं, ‘‘आओ मधु, क्या हुआ, चेहरा क्यों उतरा हुआ है.’’
‘‘आंटी, मेरी मम्मी की तबीयत खराब है और मुझे आज ही गांव जाना है. अनिल और बच्चे भी मेरे साथ जा रहे हैं लेकिन मेरी ननद पिंकी की परीक्षाएं हैं, उसे अकेले घर में नहीं छोड़ सकती. अगर आप को परेशानी न हो तो कुछ दिन पिंकी को आप के पास छोड़ जाऊं.’’
‘‘अरे, यह भी कोई पूछने वाली बात है. आराम से जाओ, पिंकी की बिलकुल भी चिंता मत करो.’’
मधु चली गई और पिंकी अपना सामान ले कर नंदिता के पास आ गई. पिंकी के आते ही घर का सन्नाटा दूर हो गया और नंदिता का मन चहक उठा. पिंकी की परीक्षाएं थीं, उस के खानेपीने का ध्यान रखते हुए नंदिता को अपने बेटों की पढ़ाई का जमाना याद आ जाता फिर वे सिर झटक कर अपनेआप को पिंकी के खानेपीने के प्रबंध में व्यस्त कर लेतीं. एक पिंकी के आने से उन की और राधा की दिनचर्या में बहुत बदलाव आ गया था. पिंकी फुर्सत मिलते ही नंदिता के पास बैठ कर अपने कालेज की, अपनी सहेलियों की बातें करती.
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एक हफ्ते बाद मधु लौट आई तो पिंकी अपने घर चली गई. घर में अब फिर पहले सा सन्नाटा हो गया. इस सन्नाटे को राधा की आवाजें ही तोड़ती थीं. अन्यथा वे चुपचाप रोज के जरूरी काम निबटा कर अपने कमरे में पड़ी रहती थीं. टीवी देखने का उन्हें ज्यादा शौक नहीं था. वैसे भी जब मन दुखी हो तो टीवी भी कहां अच्छा लगता है.
मधु ने पिंकी का ध्यान रखने के लिए नंदिता आंटी को कई बार धन्यवाद दिया तो उन्होंने कहा, ‘‘मधु, धन्यवाद तो मुझे भी कहना चाहिए. एक हफ्ता पिंकी के कारण मन लगा रहा.’’
नंदिता से बात करने के बाद मधु थोड़ी देर सोचती रही, फिर बोली, ‘‘आंटी, आजकल कितनी ही लड़कियां पढ़ने और नौकरी करने को बाहर निकलती हैं. आप क्यों नहीं ऐसी लड़कियों को पेइंगगेस्ट रख लेतीं. आप का समय भी कट जाएगा और आर्थिक रूप से भी ठीक रहेगा.’’
‘‘नहीं मधु, मुझे पैसे की जरूरत नहीं है, मेरा काम अच्छी तरह से चल जाता है.’’
‘‘ठीक है आंटी, लेकिन आप का मन अच्छा रहेगा तो आप शारीरिक रूप से भी स्वयं को स्वस्थ महसूस करेंगी.’’
‘‘ठीक है, देखती हूं.’’
‘‘बस, आंटी, बाकी काम अब मुझ पर छोड़ दीजिए,’’ कह कर मधु चली गई.
4 दिन बाद ही मधु एक बोर्ड बनवा कर लाई जिस पर लिखा था, ‘आशियाना.’ और नंदिता को दिखा कर बोली, ‘‘देखिए आंटी, आप का खालीपन मैं कैसे दूर करती हूं. अब आप के आसपास इतनी चहलपहल रहेगी कि आप ही शांति का एक कोना ढूंढें़गी.’’
नंदिता मुसकरा दीं, अंदर गईं, वापस आ कर मधु को कुछ रुपए दिए तो उस ने नाराजगी से कहा, ‘‘आंटी, आप के लिए मेरी भावनाओं का यही महत्त्व है?’’
‘‘अरे, बेटा, बोर्ड वाले को तो देने हैं न? उसी के लिए हैं. तुम्हारी भावनाओं, प्रेम और आदर को मैं किसी मूल्य से नहीं आंक सकती. इस वृद्धा के जीवन के सूनेपन को भरने के लिए तुम्हारे इस सराहनीय कदम का कोई मोल नहीं है.’’
‘‘आंटी, आप ऊपर के कमरे साफ करवा लीजिए. अब मैं चलती हूं, बोर्ड वाले को एक बोर्ड पिंकी के कालेज के पास लगाने को कहा है और यह वाला बोर्ड बाहर लगवा दूंगी,’’ मधु यह कह कर चली गई.
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नंदिता ने पता नहीं कब से ऊपर जाना छोड़ा हुआ था. ऊपर बेटों के कमरों को बंद कर दिया था. आज वे ऊपर गईं, कमरे खोले तो पुरानी यादें ताजा हो आईं. राधा के साथ कमरों की सैटिंग ठीक की, साफसफाई करवाई और फिर नीचे आ गईं.
एक हफ्ते बाद पिंकी आई तो उस के साथ 2 लड़कियां और 1 महिला भी आई. पिंकी बोली, ‘‘आंटी, ये मेरे कालेज में नई आई हैं और इन के मम्मीपापा इन्हें होस्टल में रहने की इजाजत नहीं दे रहे हैं.’’
उस के बाद साथ आई महिला बोली, ‘‘आप के यहां मेरी बच्चियां रहेंगी तो हमें चिंता नहीं होगी. मधुजी ने बताया है कि आप के यहां दोनों सुरक्षित रहेंगी और अब तो देख कर बिलकुल चिंता नहीं रही. बस, आप कहें तो ये कल से ही आ जाएं?’’
नंदिता ने कहा, ‘‘हां, हां, क्यों नहीं?’’
‘‘तो ठीक है. ये अपना सामान ले कर कल आ जाएंगी,’’ यह कह कर वह चली गई.
अगले दिन ही नीता और ऋतु सामान ले कर आ गईं और राधा खुशीखुशी उन का सामान ऊपर के कमरों में सैट करवाने लगी.
नंदिताजी दोनों लड़कियों के खाने की पसंदनापसंद पूछ कर सोचने लगीं कि चलो, अब इन लड़कियों के बहाने खाना तो ढंग से बन जाया करेगा. शाम को अमेरिका से बड़े बेटे का फोन आया तो उन्होंने इस बारे में उसे बताया. वह कहने लगा, ‘‘मां, क्या जरूरत थी आप को इन चक्करों में पड़ने की, आप को आराम करना चाहिए.’’
‘‘यह आराम ही तो मुझे परेशान कर रहा था, इस में बुरा क्या है?’’ आशीष ने फोन रख दिया था. छोटे बेटे अनुराग को भी उन की यह योजना पसंद नहीं आई थी लेकिन नंदिता ने दोनोें की पसंद की चिंता नहीं की.
नीता और ऋतु शाम को आतीं तो नीचे ही नंदिता के साथ खाना खातीं, कुछ बातें करतीं फिर ऊपर चली जातीं. दोनों नंदिता से खूब घुलमिल गई थीं, उन के मातापिता के फोन आते रहते और नंदिताजी से भी उन की बात होती रहती. अब नंदिता को घर में, अपने जीवन में अच्छा परिवर्तन महसूस होता. वे अब खुश रहने लगी थीं.
15 दिन बाद ही एक और लड़की अवनि भी अपना बैग उठाए चली आई और सब बातें समझ कर नंदिता के हाथ में एडवांस रख दिया. नंदिता ने सब से पहले राधा की मदद के लिए एक और महिला चंपा को रख लिया. तीनों लड़कियां सुबह नाश्ता कर के जातीं फिर शाम को ही आतीं. सब के मातापिता को यह तसल्ली थी कि लड़कियों को साफसुथरा घर का खाना मिल रहा है.
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नंदिता की कोई बेटी तो थी नहीं, अब हर रोज लड़कियों और उन के क्रियाकलापों को देखते रहने का लोभ वे संवरण न कर पातीं. लड़कियों के शोर में उन्हें जीवन का संगीत सुनाई देता, नई उमंग और इस संगीत ने उन के जीवन में नई उमंग, नया जोश भर दिया था.
दुबलीपतली, बड़ीबड़ी आंखों वाली, सुतवां नाक और गौरवर्णा अवनि उन के मन में बस गई. नीता और ऋतु हंसती, खिलखिलाती रहतीं लेकिन अवनि बस, हलका सा मुसकरा कर रह जाती और हमेशा सोच में घिरी दिखती. अवनि की मां की मृत्यु हो चुकी थी. उस के पिता फोन पर नंदिता से संपर्क बनाए रखते. गांव में ही वे अवनि के छोटे भाईबहन के साथ रहते थे. बिना मां की बच्ची से नंदिता को विशेष स्नेह था.
इधर कुछ दिनों से नंदिता देख रही थीं कि अवनि कालेज भी देर से जा रही थी और असमय लौट कर चुपचाप ऊपर अपने कमरे में पड़ी रहती थी. उन लड़कियों के व्यक्तिगत जीवन में नंदिता हस्तक्षेप नहीं करना चाहती थीं लेकिन जब रहा नहीं गया तो नीता और ऋतु के जाने के बाद ऊपर गईं, देखा, अवनि आंखों पर हाथ रखे चुपचाप लेटी है. आहट पा कर उठ कर बैठ गई.
नंदिता ने पूछा, ‘‘क्या हुआ, अवनि? तबीयत तो ठीक है?’’
‘‘कुछ नहीं, आंटी, कालेज जाने का मन नहीं था.’’
‘‘चलो, अगर तबीयत ठीक नहीं है तो डाक्टर को दिखा देती हूं.’’
‘‘नहीं, आंटी, आप परेशान न हों, मैं ठीक हूं.’’
नंदिता उस के बैड पर बैठ गईं. उस के सिर पर हाथ रख कर बोलीं, ‘‘मैं अकेली जिंदगी काट रही थी, तुम लोग आए तो मैं फिर से जी उठी. सिर्फ पैसे दे कर पेइंगगेस्ट बनने की बात नहीं है, तुम लोगों से मैं जुड़ सी गई हूं. मेरी तो कोई बेटी है नहीं, तुम्हें देखा तो बेटी की कमी पूरी हो गई. मुझे भी अपनी मां की तरह समझ लो, किसी बात पर अकेले परेशान होने की जरूरत नहीं है, मुझ से अपनी परेशानी शेयर कर सकती हो.’’
अवनि सुबक उठी, घुटनों पर सिर रख कर रो पड़ी. एक बार तो नंदिता चौंक पड़ी, कहीं यह लड़की कोई गलती तो नहीं कर बैठी, यह विचार आते ही नंदिता मन ही मन परेशान हो गईं, फिर बोलीं, ‘‘अवनि, मुझे बताओ तो सही.’’
‘‘आंटी, मुझ से गलती हो गई है, मैं प्रैग्नैंट हूं. मैं पापा को क्या मुंह दिखाऊंगी.’’
‘‘कौन है, कहां रहता है?’’ नंदिताजी ने पूछा.
‘‘इसी शहर में रहता है. कह रहा है कि उस की मम्मी कभी अपनी जाति से बाहर इस विवाह के लिए तैयार नहीं होंगी.’’
‘‘तुम मुझे उस का पता और फोन नंबर तो दो.’’
‘‘नहीं, आंटी. संजय ने कहा है कि वह अपनी मम्मी से बात नहीं कर सकता, अब कुछ नहीं हो सकता.’’
‘‘सारी सामाजिक संहिताओं को फलांग कर तुम ने अच्छा तो नहीं किया लेकिन अब तुम मुझे उस का पता दो और फ्रेश हो कर कालेज जाओ, देखती हूं क्या हो सकता है.’’
नंदिता ने अवनि को कालेज भेजा और अवनि को बिना बताए उस के पिता केशवदास को फौरन आने के लिए कहा.
मधु को भी बुला कर उस से विचारविमर्श किया. शाम तक केशवदास आ गए. नंदिता ने उन्हें सारी स्थिति से अवगत कराया. केशवदास यह सब सुन कर सकते में आ गए और शर्मिंदा हो गए. उन की झुकी हुई गरदन देख कर नंदिता ने उन की मानसिक दशा का अंदाजा लगा कर कहा, ‘‘क्यों न एक बार संजय के मातापिता से मिल लिया जाए, आप कहें तो मैं और मधु भी चल सकते हैं.’’
केशवदास को यह बात ठीक लगी और तय हुआ कि एक बार कोशिश की जा सकती है. उसी दिन नंदिता ने संजय की मम्मी से फोन कर के मिलने का समय मांगा. इतने में अवनि लौट आई और अपने पापा को देख कर चौंक गई. केशवदास का झुका हुआ चेहरा देख कर अवनि की आंखों से आंसू बह निकले.
रात को नंदिता और मधु केशवदास के साथ संजय के घर गए. नंदिता को देख कर संजय की मम्मी चौंक पड़ीं. नंदिता उस का चौंकना समझ नहीं सकीं. नीता, संजय की मम्मी, हाथ जोड़ कर बोलीं, ‘‘मैडम, आप ने मुझे नहीं पहचाना?’’
नंदिता ने कहा, ‘‘सौरी, वास्तव में मैं ने आप को नहीं पहचाना.’’
‘‘मैडम, मैं नीता भारद्वाज, मुझे आप ने ही पढ़ाया था, 12वीं में पूरा साल मेरी फीस आप ने ही भरी थी.’’
‘‘हां, याद आया. नीता इतने साल हो गए, तुम इसी शहर में हो, कभी मिलने नहीं आईं.’’
‘‘नहीं मैडम, अभी 1 साल पहले ही हम यहां आए हैं. कई बार सोचा लेकिन मिल नहीं पाई.’’
नीता के पिता की मृत्यु के बाद उस के घर की आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो गई थी जिस का पता चलने पर नंदिता ही नीता की फीस भर दिया करती थीं. नीता और उस की मां उन की बहुत एहसानमंद थीं. लेकिन अब घर के रखरखाव से आर्थिक संपन्नता झलक रही थी. नीता ने कहा, ‘‘संजय मेरा इकलौता बेटा है और उस के पिता रवि इंजीनियर हैं जो अभी आफिस के काम से बाहर गए हुए हैं.’’
‘‘हां, मैं संजय के बारे में ही बात करने आई थी, क्या करता है आजकल?’’
‘‘अभी कुछ ही दिन पहले उसे नौकरी मिली है.’’
अब तक नीता का नौकर चाय ले कर आ चुका था. नंदिता ने सारी बात नीता को बता दी थी और कहा, ‘‘नीता, मैं आशा करती हूं जातिधर्म के विचारों को एक ओर रख कर तुम अवनि को अपना लोगी.’’
‘‘मैडम, अब आप चिंता न करें, आप का कहना क्या मैं कभी टाल सकती हूं?’’
सब के दिलों से बोझ हट गया. नीता ने कहा, ‘‘मैं रवि से बात कर लूंगी. मैं जानती हूं उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी. हां, मैं अवनि से कल आ कर जरूर मिलूंगी और जल्दी ही विवाह की तिथि निश्चित कर लूंगी. मैडम, अब आप बिलकुल चिंता न करना, आप जैसा चाहेंगी वैसा ही होगा.’’
सब चलने के लिए उठ खड़े हुए. केशवदास ने कहा, ‘‘आप लोगों का एहसान कभी नहीं भूलूंगा, आप विवाह की तिथि तय कर के बता दीजिए, विवाह की भी तैयारी करनी होगी.’’
नंदिताजी मुसकराईं और बोलीं, ‘‘आप को ही नहीं मुझे भी तैयारी करनी है, मैं ने उसे बेटी जो कहा है.’’
केशवदास लौट गए, नंदिता और मधु भी घर आ गए. नंदिता ने अवनि को यह समाचार दिया तो वह चहक उठी और उन के गले लग गई, ‘‘थैंक्यू, आंटी.’’
वे अब बहुत खुश थीं. उन्होंने जीवन की कठोर सचाई को अपनाकर पुरानी यादों को मन के एक कोने में दबा कर रख दिया था और नईनई प्यारी खिलखिलाती यादों के साथ जीना शुरू कर दिया था. वे अब यह जान चुकी थीं कि जिन्हें प्रेम का, ममता का मान रखना नहीं आता, उन पर स्नेह लुटा कर अपनी ममता का अपमान करवाना निरी बेवकूफी है. अब उन्हें अवनि के विवाह की भी तैयारियां करनी थीं. इस उत्साह में उन के जोड़ों के दर्द ने भी हार मान ली थी. आराम तो उन्हें अब मिला था उकताहट से, दर्द से, घर में पसरे सन्नाटे से.
अब उन का ‘आशियाना’ खिल- खिलाता रहेगा, हंसता रहेगा, बोलता रहेगा लड़कियों के साथ और उन के साथ. अब उन्हें किसी से कोई अपेक्षा नहीं, किसी के प्रति क्रोध नहीं. जीवन की छोटीछोटी खुशियों में ही बड़ी खुशी खोज लेना, यही तो जीवन है.