हम पुरुषवादी समाज में रहते हैं जहां स्त्रियों को हमेशा से दोयम दर्जा दिया जाता रहा है. स्त्री कितना भी पढ़लिख ले, अपनी काबिलीयत के बल पर ऊंचे से ऊंचे पद पर काबिज हो जाए पर घरपरिवार और समाज में उसे पुरुषों के अधीन ही माना जाता है. उस के परों को अकसर काट दिया जाता है ताकि वह ऊंची उड़ान न भर सके. स्त्रियों को दबा कर रखने और उन की औकात दिखाने के लिए तमाम रीतिरिवाज व परंपराएं सदियों से चली आ रही हैं.

रक्षाबंधन : भाईबहन के रिश्ते को मजबूत करते इस त्योहार को मनाने का रिवाज हमारे देश में बरसों से चला आ रहा है. बहनें अपने भाइयों को राखी बांधती हैं और भाई यह प्रण लेते हैं कि वे जीवनभर अपनी बहन की रक्षा करेंगे. गौर किया जाए तो यहां पितृसत्तात्मक सोच की परछाईं दिखती नजर आएगी.

सवाल उठता है कि आखिर क्यों हमेशा बहन को ही भाई से सुरक्षा की आस होनी चाहिए? आजकल बहनें पढ़लिख कर ऊंचे पदों पर पहुंच रही हैं, काबिल और शक्तिशाली बन रही हैं. कई दफा ऐसे मौके आते हैं जब वे अपने भाई के लिए संबल बन कर आगे आती हैं. कई बहनें अपने छोटे भाई की परवरिश भी करती हैं. वे भाई का मानसिक संबल बनती हैं. लेकिन रक्षाबंधन जैसी प्रथाओं में हमेशा बहनों के दिमाग में यह डाला जाता है कि भाई का खयाल रखना, उस की पूजा करना, उसे खुद से बहुत ऊंचा मानना जरूरी है. उन्हें सम झाया जाता है कि भाई ही उन के काम आएगा, वही उसे सुरक्षा देगा. यदि बहन बड़ी है, काबिल है और भाई का संबल बन रही है, तो फिर क्यों ऐसा कोई त्योहार या रिवाज नहीं जिस में बड़ी बहन को उस के हिस्से का महत्त्व दिया जाए?

करवाचौथ : करवाचौथ को सुहागिन महिलाओं के लिए खास त्योहार माना जाता है. इस दिन रिवाज है कि सभी सुहागन महिलाएं अपने पति की लंबी आयु के लिए पूरे दिन व्रत रखेंगी और शाम में सुहागिनों वाले सारे शृंगार कर के चांद को पूजने के बाद पति के हाथ से अपना व्रत खोलेंगी.

इस रिवाज की पहली शर्त यह है कि इसे केवल सुहागिन ही मनाएंगी. यानी, यह रिवाज शुरुआत में ही भेदभाव स्थापित करता है. इस में इस बात को बल दिया जाता है कि पतिहीन औरतों को सजनेसंवरने या खुश होने व धार्मिक रीतिरिवाजों व उत्सवों का हिस्सा बनने का कोई हक नहीं. यानी, पुरुष से ही उस के जीवन की सारी खुशियां हैं और पुरुष ही उस के जीवन का आधार है. पुरुष की उम्र बढ़ाने के लिए उसे भूखा रहना है और इस भूख को भी बहुत प्यार से एंजौय करना है क्योंकि पति से बढ़ कर उस के लिए कुछ है ही नहीं.

पतिपत्नी तो एक गाड़ी के दो पहिए हैं. दोनों का साथ ही संसाररूपी गाड़ी को आगे बढ़ाता है. ऐसे में यदि पति के बिना पत्नी के जीवन में कुछ नहीं रखा तो पत्नी के बिना पति की जिंदगी में कोई अंतर क्यों नहीं पड़ता? पति अपनी पत्नी की लंबी उम्र के लिए व्रत क्यों नहीं रखता?

सुहाग की निशानियां : शादी हर किसी की जिंदगी का एक खास मौका होता है. इस दिन दो दिल एक हो जाते हैं. इसी दिन एक लड़की महिला बनती है और उस की वेशभूषा, आचारविचार, बातव्यवहार सब में आमूलचूल परिवर्तन आता है. सिंदूर और मंगलसूत्र उस के जीवन का  सब से महत्त्वपूर्ण हिस्सा बन जाते हैं. उसे हर वक्त इन्हें धारण करना होता है. इस के अलावा अंगूठी, बिछुआ और देश के ज्यादातर हिस्सों में चूडि़यां भी स्त्री के शादीशुदा होने की निशानी होती हैं. यह सदियों से चलता आ रहा रिवाज है कि स्त्री के लिए शादी के बाद इन चीजों को धारण करना जरूरी है.

जाहिर है, स्त्रियों को सुहाग की निशानियां पहनाने के पीछे धर्म के ठेकेदारों की मंशा यही रही होगी कि स्त्री को पति की अहमियत हमेशा, हर पल महसूस हो. उसे पता चले कि पति के बिना वह कुछ भी नहीं. पति से ही उस का शृंगार है. पति से ही चेहरे की रौनक और रंगबिरंगे कपड़े हैं. पति से ही उस के जीवन में खुशियां हैं वरना जीवन में कालेपन और रीतेपन के सिवा कुछ नहीं. इन रिवाजों के मुताबिक तो पति बिना स्त्री अधूरी सी है.

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सवाल उठता है कि स्त्री के बिना पुरुष अधूरा क्यों नहीं? ऐसा कोई रिवाज क्यों नहीं जिस से पुरुषों को देख कर भी पता चल जाए कि वह अविवाहित है? उसे सुहाग की कोई भी निशानी पहनने का भार क्यों नहीं सौंपा गया? पत्नी के  गुजरने के बाद पति को केवल काले या सफेद कपड़े क्यों नहीं पहनाए जाते? विधुर होने के बावजूद वह हर तरह के शौक पूरे कैसे कर सकता है? उस के जीवन में रत्तीभर भी बदलाव क्यों नहीं आता?

दहेजप्रथा : पितृसत्ता का पोषक एक और रिवाज है जो सदियों से चलता आ रहा है और वह है दहेजप्रथा. इस प्रथा ने जाने कितनी ही लड़कियों की जान ली, कितनी ही लड़कियों की खुशियां उन से छीन ली. जन्म लेने के बाद ही नहीं, इस रिवाज ने तो अजन्मी बच्चियों को भी काल का ग्रास बना दिया.

आखिर लड़की के मांबाप को बेटी के साथ एक मोटी रकम ससुराल वालों को क्यों सौंपनी पड़ती है? यह रकम इतनी ज्यादा होती है कि मांबाप की कमर ही टूट जाती है. बेटी के जन्म के साथ मांबाप उस के लिए दहेज इकट्ठा करने की चिंता में घुलते रहते हैं और इसी वजह से वे पुत्री नहीं, बल्कि पुत्रप्राप्ति की कामना करते हैं.

दहेज के नाम पर ससुराल वाले महिला को मारतेपीटते हैं, उस पर अत्याचार करते हैं और इस का नतीजा यह होता है कि औरत को समाज में दीनहीन और बेचारी का तमगा दे दिया जाता है.

विदाई : विवाह के बाद विदाई के रिवाज पर जरा गौर कीजिए. शादी में लड़की और लड़के दोनों जीवनसाथी बन कर एक नए बंधन में बंधते हैं. दोनों के ही जीवन में बदलाव आता है, लेकिन विदाई हमेशा लड़कियों की ही होती है, क्योंकि यह रिवाज है. सवाल उठता है कि लड़की को ही अपना घर छोड़ कर ससुराल जाने की जिम्मेदारी क्यों दी गई है? वह लड़के के रिश्तेदारों की सेवा करती है, पति के घर की खुशियां और गम को अपनाती है और अपने मांबाप, जिन्होंने उसे जन्म दिया, से मिलने के लिए ससुराल वालों का मुंह ताकती रह जाती है. यह कैसा न्याय है?

कभी लड़का अपना घर छोड़ कर लड़की के घर को क्यों नहीं अपनाता? अगर कोई लड़का ऐसा करता भी है तो उसे पितृसत्तात्मक सोच वाले इस समाज में मजाक का पात्र बनना पड़ता है. आज पुरुष भी कमाते हैं और स्त्री भी. कई घरों में स्त्री की सैलरी पुरुष से ज्यादा होती है. ऐसे में शादी के बाद लड़की की ही विदाई हो, इस रिवाज को हम पितृसत्तात्मक सोच की कवायद ही मानें. यह रिवाज भी दूसरे रिवाजों की तरह ही लड़कियों को कमजोर और पराधीन दिखाने की वकालत करता है.

कन्यादान : कन्यादान को भारत में महादान कहा जाता है. कन्यादान की रस्म हर शादी में निभाई जाती है, जिस का मतलब होता है कि अपनी बेटी को किसी और को दान किया जा रहा है. सवाल उठता है कि बचपन से बड़े होने तक बेटी को लाड़प्यार से पालने वाले मातापिता अपनी बेटी को दान कैसे कर सकते हैं? अपनी बेटी पर उन का अधिकार कैसे खत्म हो सकता है? क्या लड़की कोई चीज है, जिसे दान कर दिया? पुरुषवादियों की सोच लड़कियों की भावनाओं को कोई अहमियत नहीं देती.

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दूल्हे के पैर धोना

शादी के दौरान लड़की वालों को कमतर दिखाने वाली यह एक और रस्म है. सदियों से दुलहन के मातापिता दूल्हे के पैर धोते हैं. ऐसा कहीं भी नहीं देखा गया कि दूल्हे के मातापिता दुलहन के पैर धो रहे हों. इस तरह की रस्में हर कदम पर लड़की और उस के मांबाप को नीचा दिखाती हैं.

सोलह सोमवार का व्रत

बचपन से ही लड़कियों को शिक्षा दी जाती है कि अच्छा पति पाना है तो व्रतउपवास करो, तपस्या करो. खासकर सोलह सोमवार का व्रत करने से अच्छे पति की प्राप्ति होती है, ऐसा कहा जाता है. सोचने वाली बात है कि क्या अच्छा जीवनसाथी पाना लड़कियों का ही सपना होना चाहिए? क्या लड़कों को अच्छे जीवनसाथी की जरूरत नहीं? इस तरह की बातें कहीं न कहीं लड़कियों के मन में यह भरती हैं कि उस की खुशियों का आधार केवल उस का पति है. पति से ही उस का वजूद है.

संपत्ति में भाइयों का नैसर्गिक तौर पर बराबर के हिस्से पर बहन को हिस्सा देने में नाक कटना : हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 2005 पिता की पैतृक संपत्ति में बेटे और बेटी दोनों को बराबर का हिस्सा देने की बात करता है. महिला का इस पैतृक संपत्ति पर पूरा मालिकाना हक होता है. वह चाहे तो इसे बेच सकती है या किसी के नाम कर सकती है.

विवाह के बाद यदि बेटी का वैवाहिक जीवन सही तरह से न चले, तो यह पैतृक संपत्ति उसे एक सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार देती है. लेकिन जैसी कि हमेशा की रीत रही है, बहनों को बचपन से ही भाइयों के लिए अपने छोटेबड़े हकों को छोड़ने की सीख दी जाती रही है. भाई हमेशा से घर पर और घर की चीजों पर अपना एकछत्र साम्राज्य सम झते रहे हैं. इसी वजह से बड़े होने पर भाई इस बात के लिए तैयार नहीं हो पाते कि संपत्ति में उन्हें अपनी बहनों को बराबर का हिस्सा देना है. घर के बड़ेबुजुर्ग भी इसी बात पर मुहर लगाते हैं.

नतीजा, यह कानून एक तरफ जहां महिलाओं को मजबूत आर्थिक आधार देता है वहीं दूसरी तरफ गहरी भावनात्मक टूटन का कारण भी बनता नजर आता है. यदि बहन पैतृक संपत्ति में अपना बराबर का हक लेने की बात करती है तो भाई इस बात से आहत हो कर उस से अपने संबंध खत्म कर लेते हैं. ऐसी स्थिति से बचने के लिए अकसर बहनें अपने आर्थिक हकों को छोड़ देती हैं.

पत्नी का नाम बदलना

ज्यादातर महिलाएं शादी के बाद अपना सरनेम बदल लेती हैं. वैसे, यह जरूरी नहीं. उन पर कोई दबाव नहीं डाला जा सकता. यह उन का कानूनी अधिकार भी है. लेकिन फिर भी महिलाएं चाह कर भी इस का खुल कर विरोध नहीं कर पाती हैं. हाल ही में प्रधानमंत्री ने एक कार्यक्रम के दौरान ऐलान किया था कि महिलाएं अब अपनी शादी से पहले वाले नाम के साथ भी विदेश यात्रा कर सकती हैं. अब महिलाओं को पासपोर्ट के लिए अपनी शादी या तलाक के दस्तावेज दिखाने की जरूरत नहीं है. महिलाएं इस बात को ले कर पूरी तरह स्वतंत्र होंगी कि वे अपने मातापिता के नाम का इस्तेमाल करें.

मगर सदियों पुरानी रीत इतनी आसानी से कैसे बदल सकती है. एक स्टडी से पता चला है कि जो महिलाएं शादी के बाद भी पहले का सरनेम इस्तेमाल करती हैं, पुरुष उन के प्रति नकारात्मक भावना रखते हैं. शोध में यह भी सामने आया कि जो महिलाएं पति का नाम लगाती हैं वे उन के प्रति अपनी वफादारी दिखाती हैं. लोगों की सोच यही है कि लड़की जिस घर जाती है वहीं की हो जाती है. इसलिए नाम में क्या रखा है? जो पति का नाम है वही उस की पहचान है. पर क्या आप को नहीं लगता कि पुरुषसत्ता वाली इस रीत से आजाद होने का समय आ गया है. नाम इंसान की पहचान होती है और भला, शादी के बाद पहचान क्यों बदली जाए? हालांकि, हमारा समाज अभी भी इस बदलाव के लिए तैयार नहीं है.

पिंडदान : हिंदू धर्म में पुत्र का कर्तव्य माना जाता है कि वह अपने जीवनकाल में मातापिता की सेवा करे और उन के मरने के बाद उन की बरसी तथा पितृपक्ष में पिंडदान करे. इसे श्राद्ध भी कहा जाता है. पुराणों और स्मृति ग्रंथों के अनुसार, पिता की मृत्यु के बाद आत्मा की तृप्ति और मुक्ति के लिए पुत्र द्वारा पिंडदान और तर्पण कराना जरूरी है. इस के बिना जहां पूर्वजों की आत्मा को मोक्ष नहीं मिलता है वहीं पुत्रों को भी पितृऋण से छुटकारा नहीं मिलता.

इन रिवाजों की मानें तो मांबाप बेटी पर कोई कर्ज नहीं छोड़ते. बेटे को ही कर्ज चुकाना है और बेटे के हाथों ही उन्हें मुक्ति व सद्गति मिल सकती है. जिन के बेटे नहीं, उन के भतीजे या भाई यह काम कर सकते हैं. कुल मिला कर लड़कियों का कोई वजूद ही नहीं.

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विधवा विवाह पर आपत्ति : भले ही 16 जुलाई, 1856 को भारत में विधवा पुनर्विवाह को कानूनी मान्यता मिल गई हो, मगर आज भी लोगों के दिमाग में पुरानी रीत ही गहरी बैठी हुई है कि विधवाओं के लिए फिर से शादी करने की बात सोचना भी पाप है और उसे दोबारा खुशियां ढूंढ़ने का हक नहीं क्योंकि वह तो अपने कर्मों की सजा भोग रही है. वहीं, हमारा समाज पुरुषों की दूसरी शादी को सौ प्रतिशत सही मानता है. यह भेदभाव और पुरुषवादी सोच विधवा महिलाओं को कहीं का नहीं छोड़ती.

हरतालिका तीज : पति की लंबी उम्र की कामना और पति को पाने की चाहत को पूरा करने के लिए यह व्रत किया जाता है. इस में महिलाएं सजधज कर पूरे दिन भूखी रहती हैं. सवाल यहां भी यही है कि पुरुष ऐसा कोई व्रत क्यों नहीं करते.

परदा प्रथा : ज्यादातर भारतीय महिलाओं को शादी के बाद परदे में कैद कर दिया जाता है. उन्हें घर के पुरुष सदस्यों के आगे परदा करना अनिवार्य माना जाता है. शहर की पढ़ीलिखी महिलाएं भी अकसर जेठ या ससुर के आगे सिर पर पल्लू डाल लेती हैं.  ऐसा न करने पर उन्हें बेशर्म का तमगा दिया जाता है. जबकि पुरुषों को किसी से परदा नहीं करना पड़ता. परदा प्रथा एक तरह से महिलाओं के बढ़ते कदमों को रोकने और उन पर पुरुषों का आधिपत्य जताने का बहाना है.

कुछ क्षेत्रीय त्योहार

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में  झीं झीं टेसू, गोरखपुर में जौतिया, बनारस में छठपूजा, पूर्वांचल में छड़ी शगुन, गुडि़या पटक्का आदि कुछ ऐसे त्योहार हैं जिन में एक बात सामान्य है कि सब में औरत ही अपने घर के पुरुषों की लंबी उम्र, उत्तम स्वास्थ्य, सुरक्षा आदि की कामना करती है. छड़ी शगुन परंपरा में जब लड़की विदा हो कर ससुराल आती है तो उस की सास उसे तालाब के किनारे ले जा कर सात छड़ी लगाते हुए बहू का स्वागत करती है.

अफसोस इस बात का है कि ऐसे बहुत सारे रीतिरिवाज हैं जिन का पालन हमारे देश का हर इंसान करता है. इस बात का फर्क नहीं पड़ता कि लोग अशिक्षित हैं या शिक्षित, अमीर हैं या गरीब. भारत के हर तबके और हर वर्ग के लोग आंख बंद कर इन रीतिरिवाजों को पूरी श्रद्धा व विश्वास के साथ मनाते हैं. किसी के दिमाग में कोई सवाल नहीं उठता कि आखिर वे ऐसा कर क्यों रहे हैं? ऐसा करने के पीछे तर्क क्या है?

लोग यह नहीं सम झते कि ये सारे रिवाज पितृसत्तात्मक सोच का नतीजा हैं और आज जमाना बहुत बदल चुका है. आज लड़कियों का स्थान समाज में बहुत अलग है. लड़कियों ने काफीकुछ हासिल किया है. पर जब बात इन रिवाजों की आती है तो सब के दिमाग कुंद हो जाते हैं. न कोई सवाल पूछता है न कोई तर्क करने की हिम्मत करता है. बस, जो जैसा चला आ रहा है, वे निभाते जाते हैं. और इस निभाने के चक्कर में यह बात और गहराई से दिमाग में बैठती जाती है कि लड़कों से लड़कियां कमजोर हैं. वे पुरुष के अधीन रहने के लिए बनी हैं. उन को सहारे और पुरुष के साथ की जरूरत है. पुरुष ही समाज का नेतृत्व कर सकता है.

जब तक हम अपने अंदर नई सोच और तर्क करने की शक्ति पैदा नहीं करते, हम पितृसत्तात्मक सोच वाले समाज के बुने हुए जालों से आजाद नहीं हो सकेंगे. जाल में फंसे रहेंगे और अपनी उन्नति के रास्ते का अवरोध हम खुद तैयार करते जाएंगे.

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