‘‘क्या, यह कब हुआ मम्मी, और आप ने मु झे बताया भी नहीं,’’ नानाजी की मौत की खबर सुन कर मैं हैरान रह गई.

‘‘बस बेटा, बहुत दिनों से बीमार थे, उम्र भी थी उन की. अब जो प्रकृति

की इच्छा,’’ मम्मी का गला रोंआसा सा हो गया.

‘‘मम्मी, कब चलना है मेरठ मु झे, बता दो. संदीप को बोल कर गाड़ी बुक करवा लूंगी,’’ अपने को संभालते हुए मैं ने मम्मी से कहा. ‘‘बेटा क्या करेंगे वहां जा कर, तु झे तो सब पता है, तेरे मामाजी भी सोच रहे हैं कि न जाएं, बेकार का तमाशा होगा पिछली बार की तरह. वैसे, तेरे पापा भी चलने को बोल रहे हैं. पर संदीप को ले जाना ठीक होगा? पता नहीं वह औरत कैसे बरताव करे,’’ मां की आवाज गुम सी हो गई.

‘‘मम्मी, जैसा आप लोग ठीक समझो, लेकिन इस वक्त वहां जाना चाहिए. मामाजी को तो जरूर जाना चाहिए. आप देखो…’’ थोड़ी और बात कर के मैं ने फोन रख दिया.

काफी रोबदार थे मेरे नाना. कुरते पर एक सिलवट तक नहीं आने देते थे. इतना रोब था कि मेरठ के बाजार से किसी भी दुकान से कुछ भी ले लो, कोई पैसा नहीं लेता, बोलता, ‘बेटी से पैसा नहीं लेते.’ नाना जब जीप पर मेरठ घुमाते थे तो लगता था कि हम वीवीआईपी हैं.

हर गरमी की छुट्टियों में मम्मी मेरठ ले जाती थीं. पर जब मैं 10वीं में थी तब आखिरी बार मेरठ गई थी नानी के गुजरने पर. तब हंगामा हुआ था.

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वह बड़ीबड़ी आंखों से मम्मी को घूर रही थी. वैसे सुंदर थी पर आवाज उस की इतनी कर्कश कि कान फट गए. अच्छे से याद है नानीजी और सभी रिश्तेदार नानी का क्रियाकर्म कर के श्मशान से घर आए, मैं घर की छत पर थी. नीचे से जोरजोर से आवाज आने लगी. नीचे आ कर देखा तो 30-35 साल की खूबसूरत औरत अपना सामान ले कर दरवाजे पर थी और मां से उस का  झगड़ा हो रहा था. शायद वह अंदर आना चाहती थी. पर मां उस को रोक रही थीं. ‘तेरी औकात नहीं है लड़की मु झे बाहर रोकने की. अब यह घर मेरा है,’ उस की ऊंची आवाज के चलते पड़ोसी जमा हो गए थे.

‘मेरी मां तेरी वजह से अंदर ही अंदर घुटघुट कर मर गई, तू इस घर में पैर नहीं रख सकती,’ मम्मी को इतने गुस्से में पहली बार देखा था. मम्मी ने उस औरत का सामान उठा कर फेंक दिया. फिर तो हर किसी की आवाज इतनी तेज हो गई कि कुछ सम झ ही नहीं आया. पापा ने मु झे खड़ा देखा, तो गुस्से से ऊपर जाने को कहा. मैं चुपचाप ऊपर वाले कमरे में चली गई. काफी देर तक आवाजें आती रहीं. फिर अचानक सब शांत हो गए.

मैं ने दबेपांव छत से नीचे आंगन में देखा, तो मां एक ओर बैठ कर रो रही थीं. पापा, मामा और कुछ रिश्तेदार एक ओर खड़े बात कर रहे थे. जबकि वह औरत अपना सामान अंदर ला रही थी. नानाजी कहीं नजर नहीं आ रहे थे. इतने में उस औरत की नजर मु झ पर पड़ गई. एक  झलक ही देखी थी मैं ने. गजब की सुंदर, बड़ीबड़ी आंखें, गोरी, होंठों पर सुर्ख लिपस्टिक.

पापा की नजर मु झ पर फिर न पड़ जाए, इसलिए मैं जल्दी से वापस कमरे में चली गई. कुछ देर बाद पापा कमरे में आए. ‘चलो बेटा, वापस दिल्ली के लिए निकलना है.’ पापा ने अटैची उठाते हुए कहा.

‘पर पापा, हम तो 11 दिनों के लिए आए थे, आप ने ही स्कूल में छुट्टी बोलने को कहा था.’ पापा ने मेरी किसी बात का जवाब नहीं दिया. एक हाथ में अटैची और दूसरे में बैग ले कर मु झे चलने का इशारा किया. मैं चुपचाप नीचे आंगन में आ गई. मामा भी अपने सामान के साथ तैयार थे. और मम्मी भी नानी की फोटो हाथ में लिए चौखट पर खड़ी थीं. हम सामान कार में रख ही रहे थे, तभी एक 7-8 साल का बच्चा मां के पास आया और बोला, ‘यह बाउजी ने दिया है.’ मां को पोटली थमा कर व मां के पैर छू कर वह लड़का वापस चला गया.

मां कार में बैठ गईं. सारे रास्ते रोती रहीं. घर आ कर भी पोटली में लिपटी नानी की साडि़यों को देख कर रोती रहीं.

कुछ दिन बीते, सालों बीते. मेरी शादी पक्की हो गई. मम्मी की तरफ से लगभग सभी रिश्तेदार थे. मामा ने तो पूरी शादी में सब से आगे बढ़ कर काम किया. बस, नजर नहीं आए तो नानाजी नजर नहीं आए. आज अचानक उन के मरने की खबर आई.

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शाम को संदीप के आने पर मैं ने सारी बात बता दी, नानी की मौत पर हुआ तमाशा भी. संदीप ने मम्मी और मामा को फोन कर के मेरठ चलने को बोला. अगले दिन सुबहसुबह हम सब मेरठ को निकल गए. रास्तेभर सोचती रही कि इस बार उस औरत ने कोई तमाशा किया या मेरी मम्मी से ऊंची आवाज में बात की, तो अच्छा जवाब दूंगी. मु झे किस का डर. मैं बिलकुल चुप नहीं रहूंगी. अगर इस बार तमाशा किया, तो बता दूंगी कि वह दूसरी औरत है. उस की औकात दिखा दूंगी. मन ही मन शायद मैं इसलिए भी मेरठ जाना चाहती थी.

कार गली में मुड़ी ही थी, मेरे दिल की धड़कन बढ़ने लगी. कार घर के बाहर रुकी. एक 20 साल का लड़का दरवाजे पर खड़ा था. कार रुकते ही वह पास आया. मम्मी के पैर छू कर कार से सामान निकालने लगा. ‘‘यह मोहन है, इसी ने बाऊजी की खबर दी थी. उस औरत का बेटा है, पर बहुत संस्कारी है.’’ मम्मी बोली थीं.

‘‘आओ दीदी, अंदर आ जाओ,’’ मोहन सामान ले कर घर के भीतर जाता हुआ बोला. घर क्या, मकान था. दीवारों से रंग की पपडि़यां उतर चुकी थीं. गली का सब से आलीशान घर एक खंडहर से मकान में बदल चुका था. आंगन में सिर्फ सूखा फर्श रह गया था. पौधे गायब हो चुके थे. एक टूटी खटिया पर एक बुजुर्ग औरत सिर  झुकाए बैठी थी. हमारी आहट उस को सुनाई दी. थोड़ा हिली, पर सिर नहीं उठाया. मेरी नजरें तो बस उस औरत को खोज रही थीं.

‘‘दीदी, आप आराम कर लो थोड़ा. बाऊजी के लिए स्कूल में मीटिंग रखी है, शाम को चलना है सभी को,’’ मोहन बोला.

मां मोहन के साथ रसोई की ओर जा कर कुछ बात करने लगीं. संदीप पापा और मामाजी गली के लोगों के साथ बाहर खड़े नजर आ रहे थे. बस, नजर नहीं आ रही थी तो वह औरत.

‘‘बेटा, तू आराम कर ले. मैं आंगन में ही बैठती हूं.’’ मां मु झ से बोलीं.

‘‘नहीं मां, मैं तो आप के साथ ही रहूंगी, कहीं वह औरत आप को कुछ बोल न दे,’’ मैं ने पूरी जिद से मां से बोल मां के लिए रसोई से पानी लेने गई तो गली में खड़े कुछ बुजुर्ग लोगों की फुसफुसाहट कान में पड़ी, ‘‘अरे, ऐसे आदमी को मुक्ति भी न मिलेगी, हर लाचार औरत का फायदा उठाया

इस ने.’’

‘‘और नहीं तो क्या, सीमा की हिम्मत थी कि घर में घुस कर इस पर नकेल कस दी वरना उस की तरह और भी कितनी थीं जो मुंह छिपा कर बैठी हैं.’’ मु झे मेरे कानों पर विश्वास नहीं हुआ कि ये सब नानाजी की बात कर रहे हैं और यह सीमा, क्या वही औरत है. मैं पानी का गिलास लिए बिना ही आंगन में आ गई. वहां मां उस चारपाई पर बैठी औरत को गले लगा कर रो रही थीं. मामा और पापा भी अंदर आ गए थे.

वापसी पर सारे रास्ते सब चुप थे. मेरी सम झ में शायद अब तक सारी बात आ गई थी. दिल में नफरत रह गई थी पर नानाजी के लिए, उस औरत के लिए नहीं. वह तो सिर्फ शिकार थी, उन की हरकतों की.

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