लेखक-अब्दुल गफ्फार

यूट्यूब पर अपनी वीडियो क्लिप देख कर श्रुति के पसीने छूटने लगे. उस के मुंह से सहसा निकल पड़ा, “अब तो मैं किसी को मुंह दिखाने लायक भी नहीं रही.”

श्रुति ने मोबाइल फोन तकिए पर रखा और हाथ को आंखों पर रख कर सिसकने लगी. उस के दिमाग में परसों रात वाली बातें कौंधने लगीं.

रात के 11 बज रहे थे. टौपजींस पहने, आंखों पर चश्मा चढ़ाए, एक हाथ में पर्स लटकाए श्रुति किसी मौडल की तरह बनीठनी एक पुल के नीचे खड़ी थी. यही उस का इलाका था. 100-200 मीटर आगेपीछे की रेंज में वह रोजाना यहीं खड़ी होती थी.

यह जगह श्रुति के घर से 10-12 किलोमीटर की दूरी पर थी. वह घर में सब को खाना खिला कर नाइट ड्यूटी के बहाने 11 बजे घर से निकलती और बैटरी रिकशा पकड़ कर यहां आ जाती.

श्रुति एक प्राइवेट अस्पताल में नर्स का काम करती थी. उस अस्पताल की साख अच्छी नहीं थी. अस्पताल में न डाक्टर अच्छे थे, न सुविधाएं अच्छी थीं. वहां बस गिनती के ही मरीज आते थे. जो आते थे, वे भी कमीशन एजेंटों के दम पर आते थे. महज 3,000 रुपए महीना उस की तनख्वाह थी, जबकि उस के घर का खर्च 15,000 रुपए के आसपास था.

6 महीने पहले इसी अस्पताल की एक दूसरी नर्स ने श्रुति को यह शौर्टकट रास्ता सुझाया था. श्रुति अस्पताल जाती, हाजिरी लगाती, थोड़ी देर 1-2 मरीजों की देखभाल करती, फिर निकल जाती अपने ग्राहकों का इंतजार करने.

श्रुति का पति अरुण दिल्ली में एक बैटरी रिकशा चालक था, जो पिछले साल 3 बच्चों, पत्नी और मां को छोड़ कर कोरोना की भेंट चढ़ चुका था. अरुण से पहले अरुण के पिता रामेश्वर प्रसाद भी, जो लकवे के मरीज थे, कोरोना की भेंट चढ़ चुके थे.

5 साल पहले श्रुति के मांबाप ने खाताकमाता लड़का देख कर ही उस की शादी की थी. उस का पति अरुण अच्छे से परिवार का भरणपोषण करता भी था, लेकिन बुरा हो इस कोरोना वायरस का जिस की चपेट में अरुण आ गया और श्रुति के सिर पर जिम्मेदारियों का पहाड़ लाद कर चला गया.

श्रुति की बड़ी और मंझली बेटी एक प्राइवेट स्कूल में क्लास 3 और 2 में पढ़ती थीं. सब से छोटा एक साल का बेटा था. डायबिटीज के चलते अरुण की मां दामिनी की एक किडनी खराब हो चुकी थी. 4,000 रुपए बच्चों की फीस, 4,000 रुपए दवा का खर्च और महानगर में रहनेखाने के खर्च का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है.

जिस घड़ी श्रुति रात में घर से बाहर निकलती, उस की बूढ़ी बीमार सास दामिनी समझ जाती कि बहू गलत रास्ते पर जा रही है, लेकिन अपनी महंगी दवाओं का खर्च और परिवार की तंगहाली के चलते वह श्रुति को रोक पाने की हालत में नहीं थी.

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श्रुति ने अपने हाथों को आंखों से हटाया और छत को घूरने लगी. आंसुओं से तकिए के दोनों किनारे भीग चुके थे. उसे क्या पता था कि ग्राहक के वेश में मोलभाव करने वाला वह नौजवान उस की वीडियो क्लिप बना रहा था.

उस नौजवान के हाथों में न मोबाइल फोन था, न कैमरा… फिर कैसे? शायद उस की कमीज के बटन में या जेब में टंगे पैन में छिपा कैमरा लगा हुआ था.

श्रुति ने एक बार फिर यूट्यूब खोला और उस वीडियो क्लिप को देखने लगी. वह नौजवान पूछ रहा था, ‘कितना लेती हो?’

‘2,000…’ श्रुति बोली थी.

‘2,000… 2,000 रुपए ज्यादा नहीं हैं…’

‘नहीं, ज्यादा नही हैं. मैं इतना ही लेती हूं.’

‘पूरी रात का कितना लेती हो?’

‘4,000.’

‘लेकिन 2 जने हैं हम लोग.’

‘फिर तो 6,000 लगेंगे.’

‘6,000 ज्यादा हैं. चलो, 4,000 दे देंगे.’

वीडियो क्लिप देखते हुए श्रुति कांपने लगी. यही संवाद परसों रात में उसे सहज लगे थे, जबकि वीडियो में बम धमाके की तरह लग रहे थे. वह घबरा कर उठ बैठी और जल बिन मछली की तरह तड़पने लगी.

तभी पूजा की घंटी बजने लगी. श्रुति ने खिड़की खोली. उस की सास दामिनी पूजा शुरू कर चुकी थी. वह उठ कर बाथरूम चली गई.

बाथरूम में भी श्रुति को चैन नहीं था. उस के दिमाग की सनसनाहट रोजमर्रा के कामों में रुकावट पैदा कर रही थी. कुछ देर बैठने के बाद वह उठ खड़ी हुई और बाहर निकल पड़ी. फिर किचन में जा कर चाय बनाने लगी.

“बहू, प्रसाद ले लो.”

श्रुति ने पास जा कर सास के हाथों से प्रसाद लिया. प्रसाद लेते समय उस के हाथ थरथरा रहे थे, जिसे दामिनी ने भी महसूस कर लिया.

“क्या हुआ बहू? तबीयत तो ठीक है न?”

“हां… ठीक है,” यह कहते हुए श्रुति किचन में घुस गई. चाय उबाल मार कर चूल्हे पर गिर रही थी. उस ने गैस बंद की और चाय कप में उड़ेलने लगी.

चाय कप में उड़ेलते हुए श्रुति ने महसूस किया कि सचमुच उस के हाथ कांप रहे थे. उस ने चाय का कप अपनी सास को थमाया.

दामिनी ने फिर महसूस किया कि श्रुति के हाथ कांप रहे थे. इस बार उस ने कहा तो कुछ नहीं, लेकिन श्रुति के चेहरे को गौर से देखा. श्रुति सास से नजरें नहीं मिला रही थी. वह चाय दे कर बच्चों को जगाने चली गई.

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छोटा बेटा अपनी मां श्रुति के साथ सोता था, जबकि दोनों बेटियां अपनी दादी के साथ सोती थीं.

सब को नाश्तापानी दे कर श्रुति सोने चली गई. यह उस का रोज का काम था. रातभर जागने के चलते सुबह उसे नींद बहुत आती थी. लेकिन आज नींद आंखों से गायब थी.

श्रुति सोचने लगी कि इस समय लाखों लोग यूट्यूब पर उस की वीडियो क्लिप देख रहे होंगे. अब वह घर से बाहर कैसे निकलेगी? लोगों को क्या जवाब देगी? अभी तो बच्चों को बहला लेगी, लेकिन जब बड़े होंगे तब? क्या वे उस के अतीत की काली परछाईं से बच पाएंगे?

इस तरह के अनेक सवाल श्रुति परेशान कर रहे थे. लग रहा था कि उस की कनपटी की धमनियां फट जाएंगी. अगर यह दिल्ली नहीं कोई छोटी जगह रहती तो अब तक वीडियो क्लिप देख रहे लोग उसे तड़ीपार की सजा सुना चुके होते.

श्रुति इन्हीं खयालों में गुम थी कि मोबाइल फोन की घंटी बजने लगी. उस ने देखा कि पिताजी का काल था. उस का कलेजा मुंह को आने लगा. उस ने सोचा कि बात पिताजी तक पहुंच चुकी है. उस ने काल रिसीव नहीं की.

श्रुति का चेहरा पसीने से भीग गया. उस ने दुपट्टे से चेहरा पोंछा और मोबाइल फोन को किसी खतरनाक चीज की तरह देखने लगी.

घंटी फिर बजने लगी. श्रुति की मोबाइल फोन उठाने की हिम्मत नहीं हो रही थी. लेकिन मजबूरन उस ने कांपते हाथों से काल रिसीव की.

उधर से पिताजी रोते हुए कहने लगे, ‘श्रुति, तुम्हारी मां हमें छोड़ कर चली गई…’

श्रुति के हाथ से मोबाइल फोन छूट गया. वह फूटफूट कर रोने लगी. यूट्यूब वाली वीडियो क्लिप जो अंदर तूफान मचाए हुए थी, मां की मौत पर ज्वालामुखी की तरह फट पड़ी.

दामिनी भागीभागी आई. श्रुति को रोता देख बच्चे भी मां से लिपट कर रोने लगे. किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था, लेकिन श्रुति को चुप कराते हुए सब रो रहे थे.

श्रुति ने अपनी सास का कंधा पकड़ कर कहा, “मां हमें छोड़ कर हमेशा के लिए चली गई…”

दामिनी ने श्रुति को अपने सीने से चिपकाते हुए कहा, “बहू, सब्र करो. एक न एक दिन सब को जाना पड़ता है… और अभी मैं हूं न. एक मां चली गई तो क्या, दूसरी मां है न.”

श्रुति सोच रही थी कि काश, इसी गम में यूट्यूब क्लिप वाला दर्द भी फना हो जाता तो कितना अच्छा होता, लेकिन यह दर्द फना होने वाला कहां था. श्रुति के हालात का फायदा उठा कर पैसे कमाने वाला वह घटिया इनसान आज मुसकरा रहा होगा, जबकि श्रुति के साथसाथ कई जिंदगियां तबाही के कगार पर पहुंच चुकी हैं.

बस में सवार परिवार के साथ मायके जा रही श्रुति सोच रही थी कि काश, इस बस का ऐक्सिडैंट हो जाता और सारे मुसाफिर मर जाते तो उस के सारे दुखों का अंत हो जाता. वह अनजाने में ही सही, अपने दुखों के साथ दर्जनों जिंदगियों का अंत चाहने लगी थी, लेकिन अगर इनसान की हर सोच हकीकत का रूप लेने लगे, तो फिर कुदरत का क्या काम रह जाए…

मां के क्रियाकर्म से फारिग हो कर श्रुति मध्य प्रदेश से वापस अपनी ससुराल दिल्ली लौट आई. राहत की बात यह रही कि मायके में किसी ने भी उस की वीडियो क्लिप का जिक्र नहीं किया.

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जब कहीं से कोई शिकायत नहीं आई तो श्रुति का मन स्थिर होने लगा. कलेजे की धड़कन सामान्य होने लगी. धीरेधीरे फिर हौसला बढ़ने लगा.

इस मैट्रो सिटी में कौनक्या कर रहा है, इस से दूसरों को कोई मतलब नहीं रहता. बगल के फ्लैट में लोग मर कर सड़ जाते हैं, फिर भी पड़ोस वालों को खबर नहीं होती, तो वीडियो क्लिप वाली लड़कियों को भला कौन ढूंढ़ता फिरे.

2 महीने बाद श्रुति फिर अपने पुराने काम पर लौट आई थी. आज वह नीली साड़ी में बिना चश्मे के उसी पुल के नीचे अपने ग्राहक के इंतजार में खड़ी थी.

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