काफी जद्दोजहद के बाद अब मैं असली जिंदगी जी रही हूं और जिंदगी के मजे ले रही हूं. इस के लिए मुझे काफी संघर्ष करना पड़ा. संघर्ष भी किसी और से नहीं, बल्कि अपने परिवार से और समाज से, तब कहीं जा कर मैं अपनी असली पहचान बना पाई हूं. जिसे अब मेरा परिवार और समाज भी स्वीकार करने लगा है.

मैं कौन हूं, क्या हूं और मेरे परिवार में कौनकौन हैं, इस के बारे में मैं बताए देती हूं. इस की शुरुआत मैं अपने घर से ही करती हूं.

दरअसल, मेरे पिता ख्यालीराम पांडेय मूलरूप से उत्तराखंड के शहर अल्मोड़ा के रहने वाले थे. वह 1960 में उत्तर प्रदेश के शहर बरेली आ गए.

वह पूर्वोत्तर रेलवे में इंजीनियर के पद पर कार्यरत थे. बरेली की इज्जतनगर रेलवे की वर्कशाप में वह काम करते थे. परिवार में मेरी मां निर्मला और एक बड़ा भाई था. मेरा परिवार बरेली आ गया. बरेली में ही मेरा जन्म हुआ. मातापिता ने मेरा नाम राजेश रखा. मेरे बाद मेरी 2 छोटी बहनें हुईं.

मैं कहने को तो लड़का थी, लेकिन मेरी आत्मा, मेरी भावना मुझे लड़की होने का एहसास कराती थी. जब मैं 5 साल की थी, तभी से मुझे लड़कियों की तरह रहना पसंद था, लड़कों की तरह नहीं.

पापा मार्केट से मेरे लिए लड़कों वाली कोई ड्रेस ले कर आते तो मैं लड़कियों की डे्रस पहनने की जिद करती थी. मैं लड़कियों के कपड़े पहनना पसंद करती थी. कभी मां या बड़ी बहनें मुझे फ्रौक पहना देती थीं तो उन को उस फ्रौक को उतारना मुश्किल हो जाता था, मैं उन से बच के घर से बाहर भाग जाती थी.

तब शायद मुझे इस बात का अंदाजा भी नहीं था कि मेरी यह इच्छा आगे चल कर मजाक का सबब भी बनेगी. जैसेजैसे मेरी उम्र बढ़ती गई, मेरे अंदर की जो लड़की थी, उस की इच्छाएं भी जवान होती गईं.

जब मैं 14 साल की थी तो किशोरावस्था में कदम रखते ही मेरे चेहरे पर हलकेहलके बाल आने लगे. चेहरे पर ये बाल मुझे किसी अभिशाप की तरह लगने लगे थे. आईने में चेहरा देखती तो बहुत गुस्सा आता था. मेरे पड़ोस में ही मेरे एक भाई जैसे रहते थे. मैं ने उन से इन बालों को हटाने के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि हेयर रिमूवर क्रीम लगाओ.

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तब से मैं ने चेहरे पर हेयर रिमूवर क्रीम लगानी शुरू कर दी. मैं खुद ही हमेशा से एक लड़की की तरह दिखना चाहती थी. उम्र का बहुत ही मुश्किल दौर था, जहां एक तरफ मेरी उम्र के लड़के लड़कियों की ओर आकर्षित होते थे, वहीं मैं लड़कियों के बजाय लड़कों की तरफ आकर्षित होती थी.

समझ नहीं आता था कि ऐसा मेरे साथ क्यों हो रहा है, पर मैं ने अपनी भावनाओं को किसी को नहीं बताया. वह इसलिए कि मुझे पता था कि लोग मेरा मजाक बनाएंगे.

मुझे बहुत अकेलापन महसूस होता था. एक अजीब सी घुटन होती थी. लड़कों से दोस्ती करने का मन होता था. मैं चाहती थी कि स्कूल में लड़कियों के साथ बैठ कर ही लड़कों को निहारूं, उन से बातें करूं, पर कुछ कह पाने की हिम्मत नहीं होती थी. कुछ कहती भी तो मेरी भावनाओं को समझने के बजाय मेरे ऊपर हंसते.

भावनाएं जाहिर न करने की वजह से घर वालों ने एक लड़की से उस की शादी भी कर दी. इस के बाद स्त्री बन कर अपनी अलग पहचान बनाने के लिए राजेश उर्फ सोनिया पांडेय ने काफी संघर्ष किया.

स्कूल में मिला नया साथी

जब मैं सातवीं क्लास में थी, तभी मेरी दोस्ती योगेश भारती नाम के सहपाठी से हुई. प्यार से लोग उसे बिरजू भी कहते थे. जब बिरजू एडमीशन के बाद क्लास में आने लगा तो उसे देख कर लगा कि बिरजू और मेरी भावनाएं एक जैसी ही हैं. वह भी बिलकुल लड़की जैसा था. हम दोनों घंटों तक अकेले बातें करते, एक साथ स्कूल आते, एक साथ लंच करते. मानो जैसे हमें हमारी खुद की दुनिया मिल गई थी. हम दोनों बहुत खुश रहते थे. इसे ले कर हमारे सहपाठी हमारा मजाक भी बनाते थे. लेकिन जैसे हम दोनों को इस की परवाह ही नहीं थी.

मैं और बिरजू नौंवी क्लास तक साथ पढ़े. उस के बाद मेरा स्कूल बदल गया. मेरा दूसरे स्कूल में एडमीशन हो गया. जिंदगी फिर वैसी हो गई. नए स्कूल के माहौल में खुद को एडजस्ट कर पाना मुश्किल लगता था. इंटरमीडिएट तक मैं ने अपना स्कूली जीवन व्यतीत किया. फिर मैं ने बरेली कालेज में बीए में एडमीशन ले लिया.

कालेज में आई तो लड़कियां मुझे प्रपोज करने लगीं, कई ने तो मुझे प्रेम पत्र भी दिए. मैं ने सब को यही कह कर टाल दिया कि हम अच्छे दोस्त बन सकते हैं. और उन को क्या बोलती. यह तो कह नहीं सकती थी कि मैं अंदर से एक लड़की हूं.

वैसे भी जिस लड़के को मैं पसंद करती थी, उस से अब तक अपने प्यार का इजहार नहीं कर पाई, करती भी तो वह शायद मेरे ऊपर हंसता, पूरी क्लास को  बताता, सब मेरे ऊपर हंसते. मैं कभी खुद से खुद को मिला नहीं पा रही थी.

मेरे दिमाग में हर पल यही बात घूमती रहती थी कि मैं लड़का क्यों हूं. भगवान ने मुझे इतनी बड़ी सजा क्यों दी. इसी घुटन के साथ मैं कब जवान हो गई, पता ही नहीं चला.

फिर मेरी मुलाकात समाज में कुछ ऐसे लड़कों से हुई जो बिलकुल मेरे जैसी भावना रखने वाले थे. इस से लगने लगा कि चलो इस समाज में मैं ही अकेली ऐसी नहीं हूं, मेरे जैसे दुनिया में और लोग भी हैं.

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जब और बड़ी हुई तो परिवार की जिम्मेदारियों का एहसास हुआ. मेरा परिवार बड़ा था. कमाने वालों में केवल मेरे पिता थे. मेरा बड़ा भाई बिलकुल गैरजिम्मेदार था. इसलिए मैं ने घरघर जा कर ट््यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया. बस जिंदगी यूं ही कट रही थी.

कंधों पर आई जिम्मेदारी

अचानक 2002 में मेरे पिता की मृत्यु हो गई. पिता की मृत्यु होने के कारण मृतक आश्रित कोटे में नौकरी की बात आई तो मेरी मां ने मुझे नौकरी करने को कहा तो मैं ने घर का जिम्मेदार बेटा होने का फर्ज निभाया. 2003 में मुझे इज्जतनगर रेलवे की वर्कशाप में ही तकनीकी विभाग में नौकरी मिल गई. उस समय मैं बीए की पढ़ाई कर रही थी और कत्थक नृत्य का प्रशिक्षण ले रही थी.

मेरा सपना था कि मैं कत्थक नृत्य में एमए करूं और उस के बाद उसी में अपना करियर बनाऊं. लेकिन कुदरत को कुछ और ही मंजूर था. मुझे रेलवे के कारखाने में नौकरी मिली, जहां मुझे एक आदमी की भांति ताकत का काम करना पड़ता था.

बड़ेबड़े इंजनों के नट कसना होता था. पर शरीर इन सब को सहन नहीं कर पाता था. सब मजाक बनाते कि देखो कैसा नाजुक लड़का है. मैं उन को कैसे बताती कि मैं तन से न सही लेकिन मन से लड़की हूं, इसलिए शरीर भी वैसा ही ढल गया.

मैं अकेले में बैठ कर खूब रोती थी कि मेरे साथ ये अन्याय क्यों हुआ. कभी मन करता कि मैं नौकरी छोड़ कर कहीं दूर भाग जाऊं, पर घर की जिम्मेदारी पर नजर डालती तो लगता पापा जो मेरे ऊपर जिम्मेदारी छोड़ गए हैं, उसे पूरा करना मेरा फर्ज है.

जैसेतैसे नौकरी करने लगी. पुरुषों से बात करने का मेरा मन नहीं होता था और स्त्रियों से मैं उतनी बात कर नहीं सकती थी क्योंकि उन की नजरों में भी तो मैं एक पुरुष ही थी.

मेरे बड़े भाई का भी विवाह हो चुका था. नौकरी मिलने के बाद मैं ने बड़े भाई को रहने के लिए घर बनवा कर दिया. दोनों छोटी बहनों का विवाह किया. मेरे अंदर की जो लड़की थी, वह अंदर ही अंदर घुटती जा रही थी. समाज में मर्द बनने का नाटक करतेकरते मुझे खुद से चिढ़ सी होने लगी थी.

वर्ष 2009 में बड़े भाई की अचानक मृत्यु हो गई. वह अपने पीछे पत्नी और 8 साल की बेटी छोड़ गए थे. उन दोनों की जिम्मेदारी भी मेरे कंधों पर आ गई. मेरे अंदर की लड़की पलपल अपनी खुशियों को मन में मार रही थी.

सोचती थी कि काश मेरा एक भाई और होता, जिस के ऊपर सारी जिम्मेदारियां डाल कर मैं कहीं अपनी दुनिया में भाग जाऊं, जहां खुल कर अपनी जिंदगी जी सकूं. अब मेरे अलावा घर में कोई लड़का नहीं था तो मां का, बहनों का और समाज का मुझ पर विवाह करने का दबाव बनाया जाने लगा. घर के लोगों को उम्मीद  थी कि मैं अपने वंश को आगे बढ़ाऊं.

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घर वालों ने कराया विवाह

मेरे अंदर तब इतनी हिम्मत नहीं थी कि मैं खुल कर बता पाऊं कि मैं किसी लड़की के साथ विवाह कर के खुश नहीं रह पाऊंगी. न ही मैं विवाह कर के किसी लड़की की जिंदगी खराब करना चाहती थी. इसी बीच मेरा एक बौयफ्रैंड भी बना, पर समाज के डर से उस ने भी किसी लड़की से विवाह कर लिया.

2-3 सालों तक मैं अपने विवाह का मामला किसी तरह टालती रही. मैं अपने परिवार को अपने बारे में चाह कर भी बता नहीं पा रही थी. तब मैं ने सोचा कि मैं ने अपने परिवार के लिए जहां इतनी कुर्बानियां दी हैं, तो एक कुरबानी और दे देती हूं. शायद मेरा भी वंश बढ़ जाए और साथ ही साथ मैं अपने अंदर की लड़की को भी जीवित रख सकूंगी.

परिवार और समाज को खुश करने के लिए मेरा भी सन 2012 में विवाह हो गया. मैं अंदर से रो रही थी और बाहर से खुश होने का नाटक कर रही थी. रत्ती भर खुशी नहीं थी मुझे अपने विवाह की. सुहागरात के समय भी मैं ने बहुत कोशिश की, लेकिन मुझे अपनी पत्नी के लिए कोई फीलिंग ही नहीं जगी. काली रात की तरह थी वह रात मेरे लिए, कुछ भी नहीं कर सकी.

हमारे संबंध नहीं बन सके. मैं समझ गई कि मैं किसी भी लड़की से संबंध नहीं बना सकती. जब तक मनमस्तिष्क में लड़की के लिए उत्तेजना या कामेच्छा पैदा नहीं होगी, कैसे कोई शारीरिक संबंध बना सकता है. मैं शारीरिक रूप से बिलकुल स्वस्थ थी. ऐसी कोई कमी नहीं थी, जिस से मैं अपने आप को नपुंसक समझती. क्योंकि जब मैं अपने पुरुष साथी के साथ शारीरिक संबंध बनाती तो मेरे शरीर के हर अंग में उत्तेजना होती थी.

मैं उस रात बहुत रोई कि मैं ने यह क्या गलती कर दी, मेरी वजह से एक अंजान बेकसूर युवती की जिंदगी खराब हो गई थी. मेरी वजह से वह समाज की दिखावटी खुशियों की बलि चढ़ गई थी. मुझे खुद पर शर्म आने लगी.

तभी मैं ने फैसला किया कि मैं उस की जिंदगी में खुशियां लाऊंगी. क्योंकि उसे भी खुश रहने का, अपनी जिंदगी खुल कर जीने का हक था. कुछ महीने बीत जाने पर मैं ने धीरेधीरे उसे अपने बारे में बताना शुरू किया. हम अच्छे दोस्त बन गए. मैं ने उसे पूरी तरह से अपनी भावनाओं को खुल कर बताया.

वह बहुत समझदार थी. मैं ने जब उसे बताया कि मैं अपने बारे में सब उस के परिवार को बताने जा रही हूं तो वह डर गई कि उस के परिवार को बहुत ठेस पहुंचेगी और गुस्से में आ कर उस के परिवार वाले उस पर पुलिस केस न कर दें. उस ने मुझे विश्वास दिलाया कि हम दोनों ऐसे ही पूरी जिंदगी काट लेंगे.

उसे भी समाज का डर सता रहा था कि लोग उस के परिवार के बारे में क्याक्या बातें करेंगे. लेकिन मुझे लगने लगा था कि मैं ने अब अगर अंदर से खुद को मजबूत नहीं किया तो उस की और मेरी जिंदगी घुटघुट कर कटेगी या तो वह आत्महत्या कर लेगी या मैं.

मैं ने पत्नी के घर वालों को अपनी सच्चाई बताई तो पहले तो उन्हें बहुत गुस्सा आया, बाद में उन्हें यह जान कर सही लगा कि मैं ने उन से झूठ तो नहीं बोला, ईमानदारी से उन की बेटी की खुशियां चाहती हूं.

2014 में आपसी सहमति से मेरा पत्नी से तलाक हो गया. तलाक के पहले मेरी पत्नी के घर वालों ने मुझ से 8 लाख रुपए लिए, जिस से वे अपनी बेटी का विवाह कहीं और कर सकें. मैं ने वह रकम खुशीखुशी उन्हें दे दी, क्योंकि गलती तो मैं ने ही की थी, उस गलती के लिए यह बहुत छोटी रकम थी. अब मैं फिर से आजाद थी, लेकिन इस के बाद तो मेरी जिंदगी और भी खराब हो गई. लोगों की नजरों में मेरी इमेज खराब हो गई थी. मेरी बहनों ने मुझ से बात करनी तक बंद कर दी. एक मेरी मां थी, जिन्होंने मुझे समझा.

मैं ने सोचा कि अभी तक 32 साल मैं ने परिवार और समाज को खुश करने के लिए निकाल दिए, उस के बाद भी मुझे कुछ हासिल नहीं हुआ. बस फैसला कर लिया कि अब खुद के बारे में सोचना है. नौकरी से मैं ने लंबी छुट्टी ले ली.

मैं पूरी तरह से लड़की बनना चाहती थी, लेकिन लड़की बनने से पहले मैं तीर्थस्थल गया में पिताजी का श्राद्ध करने गई. क्योंकि लड़की बनने के बाद मैं श्राद्ध कर नहीं सकती थी.

उस के बाद मैं ने इंटरनेट पर सर्च करना शुरू किया कि कोई डाक्टर मुझे लड़की का रूप दे सकता है कि नहीं. सर्च करने पर पता चला कि दिल्ली में बहुत से डाक्टर हैं, जो हारमोंस और सर्जरी के जरिए एक लड़के को लड़की जैसा शरीर दे देते हैं.

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औपरेशन के बाद बनी स्त्री

काफी डाक्टरों के बारे में जानने के बाद मुझे दिल्ली में पीतमपुरा के एक हौस्पिटल में कार्यरत डा. नरेंद्र कौशिक सही लगे. मैं डा. कौशिक से मिली और पूरी बात बताई. उन्होंने मुझ से बात कर के जाना कि मैं इस इलाज के लिए किस हद तक तैयार हूं.

मुझ से बात कर के जब वह संतुष्ट हुए, तब उन्होंने मेरा इलाज शुरू किया. यह सन 2016 की बात है. मैं ने हारमोंस की गोलियां और इंजेक्शन लेने शुरू कर दिए. लगभग 2 साल तक हारमोंस लेने के बाद मेरे शरीर में काफी बदलाव आ गए. इस पर दिसंबर 2017 में मेरी सैक्स चेंज की सर्जरी हुई.

डा. कौशिक के अलावा 2 और डाक्टर औपरेशन के समय मौजूद रहे. सर्जरी करने में लगभग 8 घंटे का समय लगा. इस पूरे इलाज का कुल खर्च करीब 7 लाख रुपए आया था. इलाज के बाद मैं पूरी तरह से लड़की बन गई थी. इस के बाद तो जैसे मेरी खुशियों को पंख लग गए. दूसरा जन्म हुआ था यह मेरा सोनिया पांडेय के रूप में. राजेश पांडेय नाम के लड़के की पहचान हटा कर मैं सोनिया पांडेय नाम की पहचान से जिंदगी जीने के लिए आगे बढ़ने को तैयार थी.

बहुत खुश हूं जो खुद को पा लिया मैं ने. आत्मा और शरीर एक हो चुके थे मेरे. समय के साथसाथ समाज का नजरिया बदला और मुझे समाज से प्यार और इज्जत भी मिलने लगी है. नए मित्र बन गए हैं, जो हर कदम पर मेरे साथ खड़े हैं. लोगों से मिल कर बताती हूं कि खुद को पहचानना सीखो. यह जिंदगी मिली है तो इसे खुल के जियो और जीने दो.

अब एक नई जंग मेरा इंतजार कर रही थी. मैं खुद को पाने की लड़ाई में खुद से, परिवार से और समाज से तो लड़ चुकी थी, अब लड़ाई थी अपनी कानूनी पहचान पाने की क्योंकि मेरे आधार कार्ड, पैन कार्ड, वोटर कार्ड और सर्विस रिकौर्ड में मेरा नाम राजेश पांडेय ही था.

2018 में मैं ने रेलवे के प्रशासनिक अधिकारियों को अपने जेंडर में परिवर्तन करने के लिए एप्लीकेशन दी तो उन्होंने यह कह कर मना कर दिया कि रेलवे में ऐसा कोई नियम नहीं है, जिस के तहत रिकौर्ड में लिंग परिवर्तन कराया जा सके. इस के बाद मैं ने पूर्वोत्तर रेलवे के गोरखपुर हैडक्वार्टर में 80 पेज की एक फाइल बना कर भेजी, जिस में उन्हें बताया गया कि भारत में कोई भी नागरिक स्वेच्छा से अपना लिंग चुनने के लिए स्वतंत्र है.

मैं औफिस के चक्कर लगाती रही, क्योंकि मुझे जवाब चाहिए था रेलवे के अधिकारियों से. अगर रेलवे बोर्ड मेरे आवेदन को निरस्त कर देता तो मैं अपनी पहचान पाने के लिए हाईकोर्ट भी जाने को तैयार थी.

बाद में इज्जतनगर के मुख्य कारखाना प्रबंधक एवं मुख्य कार्मिक अधिकारी ने मेरे मामले में दिलचस्पी ली. जिस में मेरे सीडब्ल्यूएम राजेश कुमार अवस्थी की मुख्य भूमिका रही.

तब कहीं जा कर सितंबर, 2019 में रेलवे ने मेरा मैडिकल कराया. मार्च 2020 में रिकौर्ड में मेरा नाम और लिंग बदल कर नाम सोनिया पांडेय कर दिया. अब मैं बहुत खुश हूं. मेरी अपनी आगे की जिंदगी में ईमानदारी और सम्मान से जीने की जंग जारी है.

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