रायसिंह अपनी पत्नी और 2 बेटों के साथ जैसलमेर रियासत छोड़ कर चले गए थे. इन्हीं रायसिंह की राजकुमारी थी नागरकुंवर बाईसा. नागरकुंवर को महारावल मूलराज ने रायसिंह के साथ नहीं जाने दिया था. इस कारण नागरकुंवर बाईसा रनिवास जैसलमेर में ही रहती थी.

रनिवास में कुंवर भीमसिंह की नजर नागरकुंवर पर पड़ी. गोरी गट्ट मोतियों के पानी जैसी. गाल जैसे मक्खन की डलियां, होंठ ऐसे जैसे मलाई में लाल रंग मिला कर मक्खन पर 2 फांके बना दी हों. आंखें ऐसी जैसे मखमल के बटुए में हीरे रखे हुए हों. भीमसिंह तो उस का रूप देख कर जड़ हो गया.

वापस मूलसागर आने पर एक ही चेहरा बेचैन किए जा रहा था. आंखें बंद करे तो नागरकुंवर, खोले तो नागरकुंवर. किसी से बात करे तो नागरकुंवर. वह परेशान हो गए. बहुत टालने की कोशिश की मगर मन पर काबू नहीं रहा. तब भीमसिंह अकसर रनिवास में जा कर नागरकुंवर से मिलने लगे.

नागरकुंवर 15-16 बरस की थी. ये वही दिन होते हैं, जब कोई दिल को अच्छा लगने लगता है. नागरकुंवर को भीमसिंह अच्छे लगे थे. यही हाल भीमसिंह का भी था. उन्हें नागरकुंवर के अलावा कुछ भी अच्छा नहीं लगता था.

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भीमसिंह का आनाजाना रनिवास में बढ़ा और नागरकुंवर से मिलनाजुलना भी. तब महारावल सा को उन के दीवान ने एक रोज कहा, ‘‘दाता, बड़ेबुजुर्गों के लिए बच्चे हमेशा बच्चे ही रहते हैं. पर हुकुम, समय आने पर वे भी बड़े होने लगते हैं. हम को उन की भावनाओं का ध्यान रखना चाहिए. बाईसा 15-16 के पेटे में पहुंच गई हैं. वह शादी के लायक हो गई हैं. अब महाराज कुंवर रायसिंह तो यहां हैं नहीं. बाईसा की जिम्मेदारी अपने ऊपर है. दाता, आप फरमाएं तो शादी की बात चलाई जाए.’’

‘‘बाईसा इतनी बड़ी हो गईं क्या?’’

‘‘हां हुकुम, समय तो अपनी गति से चलता है.’’ दीवान बोला.

‘‘ठीक है, कोई ध्यान में है क्या?’’ महारावल मूलराज सफेद दाढ़ी को टटोलते हुए बोले.

‘‘एक है, आप माफी बख्शें तो अर्ज करूं.’’ दीवान ने कहा.

‘‘कौन है?’’ महारावल ने पूछा तो दीवान बोला, ‘‘राठौड़ अपने पुराने रिश्तेदार हैं. जोधपुर के कुंवर भीमसिंहजी यहां पधारे हुए हैं. शादी के हकदार भी हैं. कल को उन्हें राज मिलेगा. ऐसा मौका कब मिलेगा हुकुम. अभी अहसानों से दबे हैं. लगे हाथ बाईसा का ब्याह महाराज कुंवर भीमसिंह जी से कर लें तो सोने पर सुहागा हो जाए. घरघराना सब ठीक है.’’

आवाज को दबाते हुए दीवान आगे बोले, ‘‘हुकुम, जोधपुर से रोजरोज के झगड़ेटंटे होते हैं, वे भी खत्म हो जाएंगे. भीमसिंह जी के गद्दी बिराजने के बाद सरहद पर रोजरोज की किटकिट भी नहीं होगी.’’

‘‘पर भीमसिंह जी यह न समझें कि हम शरण दे कर अहसानों की कीमत ले रहे हैं.’’ महारावल ने कहा.

‘‘नहीं दाता, अहसान तो हम कर रहे हैं, शरण भी दी और बेटी भी.’’

‘‘महाराज कुंवरसा तो निर्वासित हैं. बारात कहां से आएगी. यों कैसे हो पाएगा ब्याह.’’

महारावल चिंता में पड़ गए. उन के बूढ़े चेहरे पर उदासी छा गई. ललाट पर पड़ी सलवटें और अधिक गहरा गईं. आखिर महारावल की सहमति मिल गई.

तब मूलसागर जा कर कुंवर भीमसिंह जी से बात की गई. सुन कर कुंवर भीमसिंह को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था. उन का दिल बल्लियों उछलने लगा. मगर प्रत्यक्षत: गंभीर बने हुए बोले, ‘‘महारावलसा को पता है कि मैं एक निर्वासित राजकुमार हूं. निर्वासित का क्या भरोसा. उम्र भटकते हुए कट सकती है.’’

‘‘हम संबंधों को देखते हैं, सत्ता को नहीं. सत्ता तो आज है कल नहीं भी होगी. पर संबंध तो शाश्वत रहेंगे. राठौड़ वंश तो पीढि़यों से हमारे समधी रहे हैं. आप यहां पधारे हुए हैं. उस से अच्छा सुयोग और क्या होगा. आप नागरकुंवर बाईसा का पाणिग्रहण करें तो यह जैसलमेर पर आप का अहसान होगा. दाता की इच्छा है कि आप स्वीकृति दें तो विवाह की तिथि तय कर ली जाए.’’

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सारी बात खोल कर सामने रखी तो कुंवर जानबूझ कर पशोपेश में पड़े दिखाई देने लगे.

‘‘मैं आप लोगों का आभारी हूं कि आप ने मुझे इस योग्य समझा. पर आप तो जानते ही हैं कि बारात जोधपुर से नहीं आ पाएगी. इस से आप लोगों की गरिमा को ठेस पहुंच सकती है.’’

‘‘इतिहास गवाह है कुंवरसा, राजेमहाराजे कभी मुहूर्तों और बारातों के मोहताज नहीं होते. आप आदेश करें, सारे इंतजाम हो जाएंगे.’’

इस बार जवाब ठाकुर सवाईसिंह ने दिया, ‘‘जरूर हुकुम. महाराज कुंवरसा का विवाह बडे़ धूमधाम से होगा. आप तैयारियां कीजिए.’’

तुरंत शगुन में हीरे की अंगूठी, गुड़ और नारियल दिया, ‘‘आप ने शगुन कबूल किया हुकुम, सारा जैसलमेर आप का ऋणी हो गया है. महाराज कुंवरसा के यहां न होने से हमारी चिंताएं बढ़ गई थीं. आज हम धन्य हो गए हुकुम.’’

बात पक्की कर दी गई. शादी की तैयारियां बड़ी धूमधाम से की गईं. मूलसागर से बारात जैसलमेर आई. उस का भव्य स्वागत किया गया. सारा शहर दूल्हे की एक झलक देखने के लिए उमड़ पड़ा. रायसिंह अपनी बेटी का कन्यादान करने नहीं पहुंचे. न ही युवरानी या राजकुमारों को ही भेजा. महारावल ने स्वयं कन्यादान किया. शादी धूमधाम से संपन्न हुई.

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कुंवर भीमसिंह व राजकुमारी नागरकुंवर की मुलाकातों के चर्चे शहर में न हों और राजमहल की बदनामी न होने लगे, इसलिए उन दोनों का विवाह कर दिया गया. अब दोनों जीवनसाथी बन गए थे और उन्होंने अपना नवजीवन शुरू कर दिया था.

चंद दिन ही बीते थे कि महाराजा विजय सिंह का 46 साल की उम्र में स्वर्गवास हो गया. गुलाबराय की हत्या के बाद महाराजा विजय सिंह को कुछ भी अच्छा नहीं लगता था और थोड़े समय बाद वह भी चल बसे थे. तब कुंवर भीमसिंह अपनी रानी नागरकुंवर के साथ जोधपुर आ गए. भीमसिंह जोधपुर की राजगद्दी पर बैठ गए और नागरकुंवर महारानी बन गईं.

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