पश्चिम बंगाल ही नहीं, तमिलनाडु और केरल में भी भारतीय जनता पार्टी की हार से यह साबित हो गया है कि भारतीय जनता पार्टी का ऊंचनीच और भेदभाव वाला खेल कम से कम कुछ राज्यों में तो नहीं चलेगा. पश्चिम बंगाल में जिस तरह से छोटी सी, अकेली सी, कमजोर सी ममता बनर्जी ने भारतीय जनता पार्टी के खातेपीते दिखते लोगों की, धन्ना सेठों की बरात का मुकाबला किया यह काबिलेतारीफ था. 213 सीटें जीत कर उन्होंने भाजपा का इस बार 200 से पार का सपना धराशायी कर डाला.

तमिलनाडु और केरल में भारतीय जनता पार्टी इतनी बेचैन भी नहीं थी. प्रधानमंत्री और गृह मंत्री दिल्ली में कामधाम छोड़छाड़ कर पश्चिम बंगाल में दिन में 3-3, 4-4 रैलियां करते फिरे जिन में दिखने को भारी भीड़ थी. कुछ ने बताया भी कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने तकरीबन 1,00,000 लोग वेतन पर 4 साल से बंगाल में हर जिले में फैला रखे थे जो रैलियों में भीड़ बढ़ाते थे. अब भीड़ में क्या पता चलता है कि यह बाहरी है या बंगाल का.

ममता बनर्जी की खासीयत रही कि उन्होंने हिम्मत नहीं हारी, वे रोईगिड़गिड़ाई नहीं. वे दूसरी पार्टियों के पीछे भी नहीं भागीं. उन्होंने अपने विधायकों और सांसदों की ब्लैकमेल के जरीए चोरी को सीना तान कर सहा, उन की पार्टी ने सीबीआई और एनफोर्समैंट डिपार्टमैंट का कहर  झेला, उन्होंने चुनाव आयोग की साफ दिखती एकतरफा केंद्र सरकार की जीहुजूरी देखी. पर यह बंगाल की जनता भी देख रही थी.

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बंगाल को सम झ आ गया था कि भाजपा का मकसद तो पूजापाठी लोगों को सत्ता में बैठाना है. जो जमींदारी पहले अंगरेजों ने थोपी थी, वह अब मंदिरों, सरकारी दफ्तरों, सरकार के तलुए चाटते धन्ना सेठों को सौंपनी है. ममता बनर्जी छोटे मकान में खुश हैं, नरेंद्र मोदी और अमित शाह अपने लिए राजपथ को तुड़वा कर विशाल बंगले, जिन में गुफाएं, कई मंजिल गहरे तहखाने और बंकर भी होंगे, बनवा रहे हैं. बंगाल की भूखी जनता को मालूम था कि ये लोग देने, बांटने नहीं लेने व छीनने आ रहे हैं.

देश के दूसरे राज्य में अगर भाजपा का पैर जमा है तो इसलिए कि भाजपा के बहुत से लोग छीन और लूट कर मजबूत हो गए हैं और वे जातजात, धर्मधर्म में अलगाव करा कर लोगों के कर्म का फल गीता के उपदेश पर डकार रहे हैं. भाजपा ने हर जाति के लिए हर गांव में एक छोटा मंदिर बनवा दिया है जो भाजपा कार्यालय का काम भी करता है और सरकार के अत्याचारों के समय जनता का मुंह बंद रखने का काम भी करता है. सदियों से इस देश में केवट, धींवर, निषाद, एकलव्य बस देते रहे हैं. लेना तो एकतरफा रहा है. पश्चिम बंगाल में यह रुका है. हालांकि कोई बड़ा बदलाव नहीं होने वाला.

यह देश उसी तरह चलता रहेगा. तानाशाही चाहे दिल्ली की हो, कोलकाता, चेन्नई की हो या गली के महाजन की, चालू रहेगी. जब तक आम मेहनतकश धर्म और जाति की दीवारें नहीं तोड़ता, पूजापाठ के फंदे से नहीं निकलता, ये चुनाव नतीजे रेगिस्तान में बारिश से ज्यादा नहीं हैं. सारा पानी कुछ ही देर में रेत में जज्ब हो जाएगा.

इस बार महामारी ने अमीरों को भी डसा है. कोविड ने लगता है कि अमीरों को ज्यादा बीमार किया है जो वायरस से मुकाबला करना नहीं जानते. जो पहले से गंदे मकानों, गंदी सड़कों, गंदे पाखानों, गंदे कपड़ों के आदी हैं, उन्हें यह रोग या तो पकड़ नहीं पाया या फिर बिना पहचान कराए वे बीमार पड़े, मरे या ठीक हो गए, पर अस्पताल नहीं गए, सरकारी नंबरों में शामिल नहीं हुए.

कोविड ने गरीबों को बेकारी से ज्यादा मारा है. पिछले मार्चअप्रैल 2020 में जब कारखाने बंद हुए और इस बार फिर जब दोबारा बंद होने लगे तो लाखों की नौकरियां या धंधे चौपट हो गए. फर्क तो अमीरों को भी पड़ा जिन की बचत खत्म हो गई पर वे सह सकते थे. उन्हें भी दर्द  झेलना पड़ा क्योंकि वे इस के आदी नहीं थे. आम गरीब के लिए तो यह रोज की बात है.

यह गनीमत है कि देश में जगहजगह अस्पताल बन चुके हैं. 2014 के बाद तो मंदिर ही बन रहे हैं पर पहले धड़ाधड़ स्कूल और क्लिनिक बने थे. गांवोंकसबों में स्कूलों को अस्पतालों की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है और जो भी दवा मिल रही है वह ले कर बचने की कोशिश हो रही है. यह पक्का है कि दिल्ली में बैठी नरेंद्र मोदी की सरकार ने जिस हलके से इस बीमारी का गरीबों पर पड़ने वाले असर को लिया, वह बेहद खलता है.

हारीबीमारी किसी को भी हो सकती है और इसलिए इलाज की सुविधा सरकार को मुफ्त देनी होगी. मुफ्त का मतलब सिर्फ इतना है कि सब थोड़ाथोड़ा पैसा टैक्स की शक्ल में देंगे. हर गांवकसबे में एंबुलैंस और अस्पताल होने चाहिए चाहे केंद्र सरकार के हों, राज्य सरकार के या पंचायत के. जब थाने हर जगह बन सकते हैं तो अस्पताल क्यों नहीं. शायद इसलिए कि थानों के जरीए लोगों पर राज किया जाता है और अस्पताल में सेवा करनी होती है. सरकार के दिमाग में कहीं यह कीड़ा बैठा है कि वह राज करने के लिए है, लूटने के लिए, मंदिरों की तरह लेने के लिए है, किसी को कुछ देने के लिए नहीं.

अस्पताल खोलो तो नेताओं की मुसीबत आती है. शिकायतें शुरू हो जाती हैं कि डाक्टर समय पर नहीं आते, सफाई नहीं होती, दवाएं चोरी हो रही हैं, जगह कम है. थाना खोलो तो कोई शिकायत नहीं. पुलिस वालों का डंडा सब को ठीक कर देता है.

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नरेंद्र मोदी की सरकार वैसे भी उस पौराणिक सोच पर चलती है कि एक बड़े हिस्से का काम सेवा करना है, कुछ पाना नहीं. हमारे पुराण कहीं भी गरीबों को दान देने की बात करते नजर नहीं आते. फिर कोविड जैसी बीमारी के लिए, बेकारी के लिए या बीमारी के लिए दान की उम्मीद करना ही बेकार है. देशभर में गरीब यह मांग कर भी नहीं रहे. शहरी लोग ही औक्सीजन, वैंटिलेटर, बैड, रेमेडिसिवर का हल्ला मचा रहे हैं.

लेकिन यह न भूलें कि कोविड ने देश को 10-15 साल पीछे धकेल दिया है. सरकार टैक्स चाहे ज्यादा वसूल ले पर आम जनता गरीब हो गई है और गरीब और गरीब हो गया है. वह कोविड से चाहे मरे या न मरे खराब खाने और बेरोजगारी से जरूर मरेगा.

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