‘‘नहीं, पापाजी नहीं, आप ने गलत चाल चली है. यह तो चीटिंग है. गुलाम घोड़े की चाल नहीं चल सकता,’’ मैं जोरजोर से चिल्ला रही थी. जबकि, पापाजी अपनी चाल पर अड़े हुए थे.

वे मुसकराते हुए बोले, ‘‘तो क्या हो गया बेटा, चाल तो चाल है, घोड़ा चले या गुलाम.’’

दूर खड़े प्रवीण अंकल पास आते हुए बोले, ‘‘सही बात है, अनुराग. अब लाड़ली को हराना है तो कुछ हथकंडे तो अपनाने ही होंगे, वरना वह कहां जीतने देगी आप को? आप दोनों झगड़ते खूब हो, पर जानता हूं मैं, आप प्यार भी उसे बहुत करते हो.’’

‘‘क्या करूं प्रवीण, एक यही तो है जो बिलकुल मेरे जैसी है. मुझे समझती भी है और मेरे साथ मस्ती भी कर लेती है. वरना, आज के बच्चों के पास बुजुर्गों के लिए समय ही कहां है.’’

‘‘यह लीजिए पापाजी, शह. बचाइए अपना राजा,’’ मैं खुशी से तालियां बजाती हुई बोली. फिर सहसा खयाल आया कि पापाजी और प्रवीण अंकल को चाय देने का समय हो गया है.

‘‘पापाजी, चाय बना लाती हूं,’’ मैं उठती हुई बोली तो पापाजी प्रवीण अंकल से फिर मेरी तारीफ करने लगे.

वाकई, मैं और पापाजी बिलकुल एक से हैं. हमारी पसंदनापसंद हमारी सोच या कहिए पूरा व्यक्तित्व ही एकसा है. पापाजी मुझे बहुत प्यार करते हैं. मैं जहां उन के साथ मस्ती करती हूं, तरहतरह के गेम्स खेलती हूं तो वहीं गंभीर विषयों पर चर्र्चा भी करती हूं. वे मुझे हमेशा आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं, मेरी केयर करते हैं.

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वैसे, बता दूं, हमारा कोई खून का रिश्ता नहीं और न ही उन्होंने मुझे गोद लिया है. अब आप सोच रहे होंगे कि वे मेरे पापा कैसे हुए? दरअसल, ‘पापाजी’ मैं अपने ससुर को कहती हूं. वे भी मुझे बेटी से कम नहीं समझते. बहू और ससुर का हमारा रिश्ता बापबेटी के रिश्ते सा मधुर और खूबसूरत है.

मैं जब इस घर में ब्याह कर आईर् थी तो असमंजस में थी कि इस नए घर में ऐडजस्ट कैसे कर पाऊंगी? तब जेठजेठानी ऊपर के फ्लोर पर रहते थे और देवर व सासससुर हमारे साथ थे. जेठजेठानी कुछ माह बाद ही दूसरे शहर में शिफ्ट हो गए थे.

सासुमां का स्वभाव थोड़ा अलग था. वे अपने रिश्तेदारों, महल्ले वालों, पूजापाठ वगैरह में ही लगी रहतीं. पति और बच्चों के लिए वक्त नहीं था उन के पास. देवर पढ़ाई और दोस्तों में व्यस्त रहते तो मेरे पति यानी कुणाल औफिस के कामों में ओवरबिजी थे. मेरे पति स्वभाव से अपनी मां की तरह ही रूखे थे. रह गए मैं और पापाजी. पापाजी रिटायर हो चुके थे. सासुमां के विपरीत पूजापाठ और पोंगापंथी में उन का जरा सा भी विश्वास नहीं था. वे अपना समय पढ़नेलिखने और हलकेफुलके मनोरंजन करने में बिताते.

मैं तब बीए पास थी. पापाजी ने मुझे प्रेरित किया कि मैं प्राइवेट एमए की परीक्षा दूं. घर में इस बात को ले कर काफी हंगामा हुआ. सासुमां ने भुनभुनाते हुए कहा था, ‘क्या करेगी पढ़ाई कर के? आखिर, घर ही तो संभालना है.’

मेरे पति ने भी टोका था, ‘कुसुम, तू ग्रेजुएट है. यही काफी है मेरे लिए. बेकार झंझट क्यों पाल रही है?’

मगर पापाजी मुझे पढ़ा कर आगे बढ़ाने को कृतसंकल्प थे. वे मानते थे कि ज्ञान कभी व्यर्थ नहीं जाता. उन के प्रयत्नों से मैं ने एमए पास कर लिया. इस बीच, मैं ने बेबी कंसीव कर लिया था. घर में खुशियां उमड़ पड़ीं. सब खुश थे. उन दिनों सास भी मेरी खास देखभाल करने लगी थीं. मगर ऐनवक्त पर मेरा छोटा ऐक्सिडैंट हुआ और मिसकैरिज हो गया. इस घटना के बाद कुणाल मुझ से कटेकटे से रहने लगे. मेरी सास ने भी मुझे ही दोषी ठहराया. मगर पापाजी ने मुझे संभाला, ‘‘बेटा, इस तरह की घटनाएं कभी भी हो सकती हैं. इस की वजह से स्वयं को टूटने नहीं देना. रास्ते फिर निकलेंगे. वक्त जैसी परिस्थितियां सामने लाता है, उसी के हिसाब से सब मैनेज करना होता है. तुम केवल अपनी पढ़ाई पर ध्यान रखो. बाकी चीजें स्वयं सुधर जाएंगी.’’

मुझे पापाजी के शब्दों से ताकत मिलती. पापाजी को मेरे प्रति असीम स्नेह की एक वजह यह भी थी कि उन की कोई बहन नहीं थी. वे 4 भाई थे. उन की कोई बेटी भी नहीं हुई. 2 बेटे ही थे. शायद यही वजह थी कि वे मुझ में अपनी बेटी देखते थे. एक वजह यह भी थी कि कुछ समय पहले जब वे बीमार पड़े तो मैं ने जीजान से उन की देखभाल की थी. तब से वे मेरे लिए कुछ भी करने को तैयार रहते. उन्होंने मुझे पीएचडी करने की सलाह दी तो मैं सोच में पड़ गई. उन्होंने आश्वासन दिया कि वे मेरी हर संभव सहायता करेंगे. वे स्वयं इंटर कालेज में लैक्चरर हो कर रिटायर हुए थे. निश्ंिचत हो कर मैं ने फौर्म भर दिया.

समय यों ही गुजरता जा रहा था. देवर को बेंगलुरु में नौकरी मिल गई. वह वहां चला गया. सासुमां अपनी कीर्तनमंडली में और भी ज्यादा व्यस्त रहने लगीं जबकि मेरा ज्यादा समय पापाजी के साथ बीतता. इधर, मेरा रूटीन चेंज होने लगा था. सुबहसुबह मैं पापाजी के साथ जौगिंग के लिए जाती. दिन में उन की मदद से प्रोजैक्ट का काम करती और शाम को हम कभी बैडमिंटन, कभी चैस तो कभी ताश खेलते.

हम दोनों का प्रिय खेल शतरंज, प्रिय पेय ग्रीन टी, प्रिय भोजन कढ़ीचावल, प्रिय टाइमपास किताबें, प्रिय म्यूजिक गायक मुकेश के गाने थे. कुछ वे मौडर्न सोच वाले थे और कुछ मैं ‘ओल्ड इज गोल्ड’ में विश्वास रखने वाली. इसलिए हमारी खूब बन रही थी.

सासुमां भले ही हर मामले में पारंपरिक सोच रखती थीं पर परदा प्रथा पर ऐतबार नहीं था उन का. मुझे घर में किसी से परदा नहीं कराया जाता. कभीकभी जींस पहन लेने पर भी किसी को कोई आपत्ति नहीं थी. सबकुछ अच्छा चल रहा था. पर मुझे कभीकभी लगता कि सासुमां और कुणाल के बीच कोई खिचड़ी पक रही है.

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मैं दोबारा कंसीव नहीं कर पा रही थी. इस बात को ले कर वे दोनों उखड़ेउखड़े रहते. सासुमां अकसर मुझे इस के लिए बातें सुनातीं. उन की जिद पर मेरी मैडिकल जांच हुई. रिपोर्ट आई तो मेरी जिंदगी में हलचल मच गई. मैं कभी मां नहीं बन सकती थी.

इस खबर ने सब को गम के सागर में डुबो दिया. मैं स्वयं अंदर से टूट रही थी पर मुझे संभालने के बजाय उलटा कुणाल मेरा बातबेबात पर अपमान करने लगा. पापाजी इस बात पर कुणाल से नाराज रहने लगे. पर सासुमां कुणाल का ही पक्ष लेतीं.

इस बीच, कुणाल ने यह खबर दे कर सब को अचंभित कर दिया कि उसे कंपनी की तरफ से 2 सालों के लिए बेंगलुरु भेजा जा रहा है. मैं कुछ कहती, इस से पहले ही वह फैसला सुनाता हुआ बोला, ‘‘कुसुम, तुम मेरे साथ नहीं चल रहीं. मैं अकेला ही जाऊंगा. तुम मम्मीपापा की देखभाल करो.’’

मैं चुप रह गई. वैसे भी कुणाल के दिल में अब मुझे अपने लिए खास जगह नहीं दिखती थी. कुणाल चला गया. मैं अपनी पीएचडी पूरी करने में व्यस्त हो गई. महीनों बीत गए. कुणाल का फोन गाहेबगाहे ही आता और बहुत संक्षेप में हालसमाचार पूछ कर रख देता. मैं फोन करती तो कहता कि अभी व्यस्त हूं या रास्ते में हूं वगैरह.

एक दिन मेरी बेंगलुरु की एक सहेली ने फोन किया और बताया कि कुणाल आजकल एक लड़की के साथ बहुत घूमफिर रहा है. पापाजी ने सुना तो तुरंत फोन उठा कर उसे डांट लगाई पर कुणाल और भी भड़क गया.

उधर, सासुमां भी बेटे का पक्ष ले कर भुनभुनाती रहीं. उस रात मैं ने पहली बार देखा कि पापाजी रातभर जागते रहे हैं. बारबार दरवाजा खोल कर आंगन में टहलने लगते या किचन में जा कर कभी कौफी बनाते तो कभी पानी ले कर आते. मैं खुद भी जागी हुई थी और मेरे कमरे तक ये सारी आवाजें आती रहीं.

सुबह उठ कर उन्होंने जो फैसला सुनाया वह हतप्रभ करने वाला था. पापाजी सासुमां से कह रहे थे, ‘‘आशा, मैं अपना यह घर बहू के नाम कर रहा हूं. मेरे और तुम्हारे बाद इस पर कुणाल का नहीं, बल्कि बहू का अधिकार होगा.’’

‘‘यह क्या कह रहे हो? कुणाल हमारा बेटा है,’’ सासुमां ने प्रतिरोध किया पर पापाजी अपनी बात पर अड़े रहे.

मैं ने तुरंत आगे बढ़ कर उन से ऐसा करने को मना किया, मगर पापाजी नहीं माने. वकील बुला कर सारी कागजी कार्यवाही पूरी कर ली. मैं समझ रही थी कि पापाजी आने वाले तूफान से लड़ने के लिए मुझे मजबूत बना रहे हैं. सचमुच

2-3 माह बाद ही कुणाल ने मुझे तलाक के कागजात भेज दिए.

पहले तो मैं कुणाल के आगे रोईगिड़गिड़ाई, पर फिर पापाजी के कहने पर मैं ने सहमति से तलाक दे दिया.

जल्द ही खबर आ गई कि कुणाल ने दूसरी शादी कर ली है. पापाजी ने कुणाल से सारे संबंध काट लिए थे. जबकि, मैं बापबेटे को फिर से मिलाना चाहती थी. पापाजी इस बात के लिए कतई तैयार न थे. वे मुझे अपनी बेटी मानते थे. इस बात पर सासुमां ने कई दिनों तक बखेड़े किए. वे बीमार भी रहने लगी थीं. मैं समझ नहीं पाती कि क्या करूं? मेरे घर में मां,

2 बहनें और एक छोटा भाई है. घरवालों ने मुझे पापाजी के हिसाब से चलने की सलाह दी थी. उन्हें पापाजी का नजरिया बहुत पसंद था. वैसे भी, तलाकशुदा बन कर वापस मायके में रहना मेरे लिए आसान नहीं था. ऐसे में पापाजी की बात मान कर मैं इसी घर में रहती रही. सासुमां अब ज्यादा ही बीमार रहने लगी थीं. एक दिन तेज बुखार में उन्होंने सदा के लिए आंखें बंद कर लीं. अब तक देवर की भी शादी हो चुकी थी. वह बेंगलुरु में ही सैटल हो चुका था.

मैं और पापाजी बिलकुल अकेले रह गए. मैं ने पीएचडी पूरी कर ली और पापाजी की प्रेरणा से एक कालेज में लैक्चरर भी बन गई. इधर, कुणाल से हमारा संपर्क न के बराबर था. कभी होलीदीवाली वह फोन करता तो पापाजी औपचारिक बातें कर के फोन रख देते.

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वक्त इसी तरह गुजरता रहा. कुणाल पापाजी से इस बात पर नाराज था कि उन्होंने अपनी संपत्ति मेरे नाम कर दी थी और मेरी वजह से उस से नाता तोड़ दिया. उधर, पापाजी कुणाल से इस वजह से नाराज थे कि उन की बात न मानते हुए कुणाल ने मुझे तलाक दे कर दूसरी शादी की.

एक दिन शाम के समय कुणाल का फोन आया. पापाजी ने फोन मुझे थमा दिया. कुणाल भड़क उठा और मुझे जलीकटी सुनाने लगा. पापाजी ने फोन स्पीकर पर कर दिया था. हद तो तब हुई जब उत्तेजित कुणाल मेरे और पापाजी के संबंधों पर कीचड़ उछालने लगा. कुणाल कह रहा था, ‘मैं समझ रहा हूं, पापाजी ने मुझे घर से बेदखल कर तुम्हें क्यों रखा हुआ है. तुम दोनों के बीच क्या चक्कर चल रहा है, इन सब की खबर है मुझे. ससुर के साथ ऐसा रिश्ता रखते हुए शर्म नहीं आई तुम्हें?’

वह अपना आपा खो चुका था. पापाजी के कानों में उस की ये बातें पहुंच रही थीं. उन्होंने मोबाइल बंद करते हुए उसे उठा कर फेंक दिया. मैं भी इस अप्रत्याशित इलजाम से सदमे में थी और मेरी आंखों से आंसू बहने लगे. पापाजी ने मुझे सीने से लगाते हुए कहा, ‘‘बेटा, जमाना जो कहे, जितना भी कीचड़ उछाले, मैं ने तुझे अपनी बेटी माना है और अंतिम समय तक एक बाप का दायित्व निभाऊंगा.’’

अगले ही दिन से उन्होंने मुझे वास्तव में दत्तक पुत्री बनाने की कागजी कार्यवाही शुरू कर दी. रिश्ते को कानूनी मान्यता मिलने के बाद उन्होंने फाइनल डौक्यूमैंट्स की एक कौपी कुणाल को भी भेज दी.

अब मैं भी निश्ंिचत हो कर पूरे अधिकार के साथ अपने पिता के साथ रहने लगी. इधर, घर का ऊपरी हिस्सा पापाजी ने पेइंगगैस्ट के तौर पर

4 लड़कियों को दे दिया. उन लड़कियों के साथ मेरा मन लगा रहता और मेरे पीछे वे लड़कियां पापाजी की सहायता करतीं.

वक्त का चक्का अपनी गति से चलता रहा. मैं ने अपनी जिंदगी से समझौता कर लिया था. पर शायद कुणाल की जिंदगी के इम्तिहान अभी बाकी थे. कुणाल की बीवी की एक ऐक्सिडैंट में मौत हो गई. उस के 5 साल के बच्चे की देखभाल करने वाला कोई नहीं रहा. ऐसे में कुणाल को मेरी और पापाजी की याद आई. उस ने मुझे फोन किया, ‘‘प्लीज कुसुम, तुम्हीं इस बिन मां के बच्चे को संभाल सकती हो. मैं तो पूरे दिन बाहर रहता हूं. रात में लौटने का भी कोई टाइम नहीं है. श्रुति के घरवालों में भी कोई ऐसा नहीं जो इस की देखभाल करने को तैयार हो. अब मेरा बच्चा तुम्हारे आसरे ही है. इसे मां का प्यार दे दो. तुम्हें ही पापाजी से भी बात करनी होगी.’’

मैं ने उसे ऊपरी तौर पर तो हां कह दिया पर अंदर से जानती थी कि पापाजी कभी तैयार नहीं होंगे. मेरे अंदर की औरत उस बच्चे को स्वीकारने को व्यग्र थी. सो, मैं ने पापाजी से इस संदर्भ में बात की. वे भड़क उठे, ‘‘नहीं, यह मुमकिन नहीं. उसे अपने किए की सजा पाने दो.’’

‘‘मैं मानती हूं पापाजी कि कुणाल ने हमारे साथ गलत किया. उस ने आप का दिल दुखाया है. पर पापाजी उस नन्हे से बच्चे का क्या कुसूर? उसे किस बात की सजा मिले?’’

पापाजी के पास मेरी इस बात का कोई जवाब नहीं था. मैं ने भीगी पलकों से आगे कहा, ‘‘पापाजी, मुझे जिंदगी ने बच्चा नहीं दिया है. पर क्या कुणाल के इस बच्चे को अस्वीकार कर मैं आने वाली खुशियों के दरवाजे पर ताला नहीं लगा रही?’’

‘‘ठीक है बेटी,’’ पापाजी का गंभीर स्वर उभरा, ‘‘तुम उस बच्चे को रखना चाहती हो तो रख लो. जिंदगी तेरी गोद में खुशियां डालना चाहती है तो मैं कतई नहीं रोकूंगा, वैसे भी, वह मेरा पोता है. उस का हक है इस घर पर. मगर याद रखना कुणाल ने मुझ पर और मेरे घर पर अपना हक खो दिया है.’’

मैं ने यह बात कुणाल से कही तो वह खामोश हो गया. मैं समझ रही थी कि किसी भी बाप के लिए अपना बच्चा किसी और को सौंप देना आसान नहीं होता. कुणाल ऐसे मोड़ पर था जहां वह अपना पिता तो खो ही चुका था, अब बच्चे को भी पूर्व पत्नी के हाथ सौंप कर क्या वह बिलकुल अकेला नहीं हो जाएगा?

मैं कुणाल की मनोदशा समझ रही थी. 2-3 दिन बीत गए. फोन कर कुणाल से कुछ पूछने की हिम्मत नहीं हुई. उस दिन इतवार था. मैं घर पर थी और पापाजी के लिए दलिया बना रही थी. पापाजी कमरे में बैठे अखबार पढ़ रहे थे. अचानक दरवाजे की घंटी बजी.

दरवाजा खोला तो चौंक पड़ी. सामने कुणाल खड़ा था, 5 साल के प्यारे से बच्चे के साथ.

‘‘कुसुम, यह है मेरा बेटा नील. आज से मैं इस की जिम्मेदारी तुम्हें सौंपता हूं. तुम ही इस की मां हो और तुम्हें ही इस का खयाल रखना होगा. हो सके तो मुझे माफ कर देना. पापाजी से कहना कि कुणाल माफी के लायक तो नहीं, फिर भी मांग रहा था,’’ यह कहते हुए उस ने नील का हाथ मेरे हाथों में थमाया और तेजी से बाहर निकल गया.

मैं नील को लिए अंदर पहुंची तो पापाजी को सामने खड़ा पाया. वे भीगी पलकों से एकटक नील की तरफ ही देख रहे थे. उन्होंने बढ़ कर नील को गले लगा लिया.

मैं सोच रही थी, काश, पापाजी के इन आंसुओं के साथ कुणाल के प्रति उन की नाराजगी भी धुल जाए और काश, नील बापबेटे के बीच सेतु का काम करे. काश, हमारी बिखरी खुशियां फिर से हमें मिल जाएं.

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