सिर्फ सचिन तेंदुलकर या सुनील गावस्कर जैसे पूर्व भारतीय क्रिकेटरों ने ही नहीं बल्कि शेन वाॅर्न और रिकी पोंटिंग के साथ साथ अब तो पूर्व एलीट पैनल के अंपायर डाॅरेल हापर ने भी अंपायर काॅल को लेकर चिंता जतायी है कि इसके प्रति बढ़ता अविश्वास कहीं क्रिकेट को भारी न पड़े. कहीं अंपायर काॅल क्रिकेट के लिए खलनायक न बन जाए. दअरसल हुआ यह कि भारत ने आॅस्ट्रेलिया के विरूद्ध जिस मेलबर्न टेस्ट में ऐतिहासिक जीत हासिल की है, वह जीत आते आते भी हाथ से फिसल सकती थी, क्योंकि अंपायर काॅल ने ऐसी स्थितियां एक नहीं दो बार बना दी थीं. मेलबार्न टेस्ट मंे तीसरे दिन जब जसप्रीत बुमराह की गंेद आॅस्ट्रेलियाई खिलाड़ी बन्र्स के जूते से टकरायी तो साफ लगा कि खिलाड़ी एलबीडब्ल्यू आउट है. भारत के कप्तान अंजिक्य रहाणे ने तुरंत डीआरएस लिया. रिप्ले में साफ दिखा कि गेंद लाइन में गिरी है और उसका इम्पैक्ट भी लाइन के अंदर था. इसके बावजूद भी खिलाड़ी को आउट नहीं दिया गया क्योंकि अंपायर का फैसला नाॅट आउट था.

भारत अंपायर के इस फैसले को एक कड़वा घूंट समझकर पी गया, लेकिन जब कुछ ही ओवरों बाद मोहम्मद सिराज ने मार्नस लांबुशान के खिलाफ एलबीडब्ल्यू की अपील की तो फिर वही पुरानी कहानी दोहरायी गई, यानी भारत बेहद नाजुक मौकों पर दो बार आॅस्ट्रेलिया के खतरनाक चक्रव्यूह में जाते जाते बचा. आॅस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों के बारे में माना जाता है कि अगर उन्हें एक भी गलत डिसीजन के चलते फायदा मिल जाए तो वह खेल की लय पलट देते हैं. हालांकि मेलबर्न मंे ऐसा नहीं हुआ और भारत के हाथ तय लग रही ऐतिहासिक जीत आयी.

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लेकिन अगर वह दिन सचमुच भारतीयों का न हुआ होता तो इस तिनके के सहारे से आॅस्ट्रेलियाई एक बनते हुए इतिहास को पलट सकते थे. हालांकि भारतीय क्रिकेट कप्तान अंजिक्य रहाणे ने डीआरएस के संबंध में आधिकारिक तौरपर कुछ नहीं कहा, लेकिन इस फैसले के बाद एक बार फिर से पूरी दुनिया के क्रिकेट विशेषज्ञ व खिलाड़ियों के बीच यह बहस छिड़ गई है कि डीआरएस सिस्टम में अंपायर काॅल को तुरंत खत्म कर दिया जाना चाहिए. क्योंकि यह खेल के लिए बड़े संकट खड़ा कर सकता है. वैसे यह पहला मौका नहीं है जब दुनिया के धुरंधर खिलाड़ियों ने डीआरएस में मौजूद अंपायर काॅल की आलोचना की है, इसके पहले भी यह आलोचना होती रही है. गुजरे साल यूं तो क्रिकेट कम हुई है लेकिन फिर भी 62 ऐसे निर्णयों ने अंपायर काॅल की वजह से बल्लेबाजों को जीवनदान दिया हैै.

गौरतलब है कि पिछले साल अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में 364 खिलाड़ी एलबीडब्ल्यू रिव्यू किये गये. लेकिन इनमें से 62 खिलाड़ियों को आउट नहीं दिया गया, जबकि गेंद की स्थिति उन्हें साफ आउट बता रही थी. सवाल है जब अंपायर काॅल की वजह से किसी खिलाड़ी को आउट दिया ही नहीं जाना तो फिर इस डीआरएस का मतलब ही क्या रह जाता है? क्या सिर्फ गेंदबाजी करने वाली टीम इस बात से संतोष कर ले कि खिलाड़ी तो आउट था, मगर दिया नहीं गया आखिर इस नियम के मायने क्या हैं? क्योंकि हमें मालूम होना चाहिए कि कोई भी खिलाड़ी डीआरएस तभी लेता है, जब उसे अंपायर के फैसले पर संतुष्टि नहीं होती. शेन वाॅर्न, रिकी पोंटिंग से लेकर पूरी दुनिया के धुंरधर खिलाड़ियों ने अंपायर काॅल को गलत ठहराया है. टेस्ट क्रिकेट में डीआरएस रिव्यू 2008 में शुरु किया गया था. भारत और श्रीलंका के बीच हो रहे मुकाबले मंे पहली बार इसका इस्तेमाल हुआ था.

लेकिन लगातार इसकी किसी न किसी रूप में आलोचना हो रही है. सबसे ज्यादा आलोचना इसमें मौजूद अंपायर काॅल को लेकर ही हो रही है. ऐसा नहीं है ओलाचना करने वाले सिर्फ खिलाड़ी ही हैं. अब तो अंपायर भी इसकी आलोचना करने लगे हैं. डेरिल हार्पर ने अंपायर काॅल पर तुरंत प्रतिबंध लगाने का सुझाव दिया है, उनके मुताबिक पिछले एक दशक से भी अधिक समय से इस्तेमाल होने के बावजूद अगर इसे लेकर खिलाड़ी असहज हैं तो ऐसे नियम का फायदा क्या? इससे जुड़े संवाद और इसको लेकर समझ में लगातार अविश्वास मौजूद है. अगर अंपायर ने खिलाड़ी को नाॅट आउट दे दिया और डीआरएस लेने के बाद पता चलता है कि खिलाड़ी तो आउट था, इसके बावजूद भी अगर खिलाड़ी को आउट नहीं दिया जाता तो फिर आखिर इस सुविधा का फायदा क्या हुआ?

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जाहिर है इससे एक कड़ुवाहट बढ़ती है. बोलिंग कर रही टीम को लगता है कि अंपायर ने उनके साथ धोखा किया है. अगर बल्लेबाजी करने वाली टीम जीत जाती है तो कहीं न कहीं गंेदबाजी करने वाली टीम यही समझती है कि अंपायर के इस फैसले की वजह से सामने वाली टीम जीती है. मतलब साफ है कि इस फैसले से सिर्फ और सिर्फ गलतफहमी ही बढ़ रही है. ऐसे में उचित यही है कि इस नियम को अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट से हटा दिया जाए. क्योंकि किसी एक अंपायर के फैसले ही सवालों के घेरे में नहीं रहे बल्कि कोई ऐसी टीम नहीं है, जिसे पिछले एक दशक में इस तरह के गलत फैसलों का नुकसान न उठाना पड़ा हो. मतलब यही है कि इससे किसी को फायदा नहीं है. साल 2020 में भी करीब 20 प्रतिशत के आसपास अंपायर काॅल वाले फैसले विवादस्पद रहे हैं. ऐसे में तकनीक पर या तो भरोसा जताया जाये या उसे छोड़ दिया जाए. गौरतलब है कि टेनिस और फुटबाॅल जैसे खेलों में भी टेक्नोलाॅजी की मदद ली जाती है, लेकिन फिर उस टेक्नोलाॅजी को किसी ह्यूमन डिसीजन से रिप्लेस नहीं किया जाता. क्योंकि कैमरे की आंख पर या तो हम भरोसा करें या फिर बिल्कुल ही भरोसा न करें.

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