लेखक-  कात्यायनी दीप

कोरोनाकाल चल रहा है. हम सब अपनेअपने घरों में लौकडाउन का पालन करते हुए भी डरे हुए हैं. पता नहीं कब किस को क्या हो जाए. एक ही तरह की दिनचर्या निभाते हुए मन की उल?ान और बढ़ती ही जा रही है. कब, कहां, और कैसे? हर मौत पर दिमाग में ये सवाल कौंध रहे हैं.

अरे, अभी उन से 10 दिनों पहले ही तो बात हुई थी और आज… विवशता, हताशा और पीड़ा का मिलाजुला रूप हम सब पर भारी है. कैसी महामारी है कि हम अपनों तक पहुंच नहीं पा रहे हैं जब उन को हमारी सब से ज्यादा जरूरत है.

स्पर्श, प्यार के दो बोल और सेवा के लिए तड़पते हमारे अपने, अकेले में किस से गुहार कर रहे होंगे? तकलीफ को सांझ कर मन शांत हो जाता है. हम ऐसी डरावनी बीमारी के खौफ से घिरे हैं कि उस के पास हम बैठ भी नहीं सकते जिस से हमारा जीवनभर का नाता है.

दूर से अपनों की परेशानी देख मन तड़प जाता है और एक टीस कि काश.. ऐसा नहीं होता. हमारे अपने बिछुड़ रहे हैं और ऐसी बिछुड़न, कि हम फिर से मिलने की आस भी नहीं संजो पा रहे हैं.

मेरे दिल में यही सब बातें चल रही थीं कि मां आ कर मेरे पास खड़ी हो गईं. नम आंखें बहुतकुछ कह रही थीं. मुझे सीने से लगाते हुए बोलीं, ‘‘शरद नहीं रहा, बिट्टू. कोरोना के काल ने उस को अपनी चपेट में ले लिया.’’

मैं स्तब्ध मां का चेहरा देखती रही. खामोशी के बीच हमारे अंदर दिल चीर डालने वाला दुख सांझ हो रहा था. आंखें उमड़ रही थीं.

मां के जाते ही औंधेमुंह बिस्तर पर कटे पेड़ की तरह ढह गई मैं. आंसू हमारे सुखदुख की साथी तकिया को भिगोते रहे.

शरद भैया से मेरा खून का रिश्ता नहीं था, पर खून के रिश्तों पर हमेशा भारी रहा है यह आत्मिक रिश्ता. बचपन से ही वे हमारे लिए रोलमौडल रहे. भैया के कंधे पर बैठ हम कहांकहां की सैर कर आते थे. मैं छोटीछोटी समस्याओं पर उन के पास पहुंच, रोते हुए और अपनी फ्रौक से आंसू पोंछते हुए उन की गोद में सिर रख कर शिकायतों का पुलिंदा खोल दिया करती थी. कभी मां सा, कभी भाई सा, तो कभी सहेलियों सा बरताव करते.

वे हंसते हुऐ कहते, ‘थोड़ा रूक जा बिट्टू. जब मैं डाक्टर बन जाऊंगा, तब इन सब को इंजैक्शन लगा कर दर्द का एहसास करवाऊंगा.’

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खूब हंसती मैं, और तरहतरह की ऐक्टिंग कर के बताती कि दर्द के कारण वे सब कैसे बिलबिलाएंगे. थोड़ी बड़ी हुई. उन के आने पर चाय मैं ही बनाती थी, क्योंकि उन को मेरे हाथ की बनी चाय पसंद थी.

चाय पीते हुए वे कहते, ‘चाची, बिट्टू की शादी हम इसी शहर में कराएंगे, ताकि हम सब को उस के हाथ की बनी चाय हमेशा मिलती रहे.’

बनावटी गुस्सा दिखाती हुई मैं भैया को मारने लगती. वे मुझे सीने से लगाते हुए कहते, ‘इस को कभी भी अपनेआप से दूर नहीं जाने दूंगा.’

मेरी हर समस्या का समाधान था भैया के पास. मेरे स्कूल से ले कर कालेज तक के सफर में भैया हमेशा मार्गदर्शक रहे मेरे.

एक दिन हंसते हुए मैं उन से बोली, ‘आप की अपनी कोई बहन नहीं है न, इसीलिए आप मु?ा से बहुत प्यार करते हैं.’

मु?ो आज भी याद है वह दिन. उन्हें बिलकुल भी बुरी नहीं लगी मेरी बात. उलटे, उन्होंने मेरी नाक पकड़ कर बोला था, ‘बिट्टू, तुम हर जन्म में मेरी बहन हो, और रहोगी. अपना और पराया क्या होता है? जहां प्रेम की लौ जगी, वही अपना है.’

कुछ वर्षों बाद भैया मैडिकल की पढ़ाई के लिए दूसरे शहर चले गए. मैं बहुत रोई थी. जैसे, मेरी दुनिया बेरंग हो गई हो. सुबह के उजाले से ले कर देररात तक उन के साथ की यादें मु?ो और उदास कर जातीं.

फोन पर जब मैं अपनी समस्याएं बताने लगती तो वे कहते, ‘इतनी समस्याओं का, बस, एक समाधान है तेरी शादी. दूल्हा आ जाएगा तेरी जिंदगी में, तब जा कर इस निरीह भाई को राहत मिलेगी.’

गुस्से से कहती मैं, ‘अच्छा, तो आप मु?ा से छुटकारा चाहते हैं. इतनी जल्दी नहीं छोड़ने वाली मैं आप को. और वैसे भी, पहले आप की शादी होगी, तब मेरी.’

भैया के डाक्टर बनते ही उन की शादी हो गई. खूब नाची थी मैं. खुशी मेरे दामन में नहीं समा रही थी.

बाद के दिनों में वे मुझे चिढ़ाते, ‘चाची, मेरी शादी में नागिन डांस के लिए तो इस को पद्मश्री अवार्ड मिलना चाहिए था.’

वक्त के साथ हम सब बदलते गए. मेरी भी शादी हो गई. जिम्मेदारियों ने पैरों में बेडि़यां डाल दीं. मां की आवाज सुन कर मैं आंसू पोंछते हुए बैठ गई.

अपनी गोद में मेरा सिर रख कर प्यार से हाथ फेरते हुए मां बोलीं, ‘‘बिट्टू, तुम्हारे अंदर एक जीव पल रहा है, वह भी तो तुम्हारे खाने का इंतजार कर रहा है.’’

पेट पर हाथ रख कर सोचने लगी मैं, ‘काश, भैया मेरी कोख में आ जाते. मैं मां बन कर उन का खूब खयाल रखती और अपने से कभी भी दूर न जाने देती.’

बहुत प्रयास करने के बाद मैं ने खुद को संयत कर भाभी को कौल किया. उन के रोने की आवाज मेरे कानों में पिघले सीसे की तरह आहत कर रही थी.

‘‘शरद बगैर मुझ से कुछ बोले चले गए, बिट्टू. मैं अब किस को प्यार करूंगी? किस के सहारे रहूंगी? चारों तरफ अंधेरा दिख रहा है? मेरे तो सिर का ताज ही बिखर गया, बिट्टू.’’

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‘‘समय के सामने हम सब विवश हैं, भाभी. धैर्य रखिए. अमन का खयाल रखिए. उस पर इन दुखों का असर नहीं होना चाहिए. टूट जाएगा तो बिखरे को समेटना बहुत मुश्किल होगा, भाभी.’’

तभी अमन की आवाज ने मेरी बची हुई हिम्मत को भी तोड़ कर रख दिया, ‘‘मैं पापा के साथ खेलना चाहता हूं. पापा से मिले हम को एक महीना हो गया है बूआ. सब के पापा हैं, तो मेरे पापा हमें छोड़ कर क्यों चले गए? बताओ बूआ?’’

सांत्वना के शब्द यहीं पर खत्म हो गए थे मेरे. मैं शून्य में निहारते हुए बोली, ‘‘इस का जवाब किसी के पास भी नहीं होगा, अमन बेटा.’’

मां के हाथों में खाने की थाली दिखी, तो आंखों ने सवाल किया और जबान पूछ बैठी, ‘‘मां, पीर पराई है या अपनी है?’’

‘‘वैष्णव जन तो तेने कहिए जो पीर पराई जाने रे,’’ गाती हुई मां वहां से चली गईं.

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